शोध आलेख : अनुवाद-प्रक्रिया और जनसंचार : हिन्दी साहित्येतिहास लेखन के विशेष संदर्भ में/ श्वेता राज
शोध-सार :
मानव जाति ने अपनी सभ्यता के विकास के
साथ विभिन्न रूपों में अपने इतिहास को संजोया जिसे हम ‘वस्तु’ या ‘तथ्य’
कह
सकते हैं। साहित्य उस इतिहास की कड़ी का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है जो प्रतिरोध की
सशक्त आवाज़ के रूप में तथा कला-सौन्दर्य के उत्कृष्ट रूप में हमारे सामने प्रकट
होता है। साहित्य और साहित्य का इतिहास दोनों ही समाज के इतिहास से काटकर नहीं
लिखा जा सकता। यह बात हिन्दी साहित्य और उसके इतिहास पर भी लागू होती है। आधुनिक
काल में औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति पाने के लिए उस दौर में चल रहे आंदोलनों की
धमक हमें तत्कालीन आधुनिक साहित्य और पत्र-पत्रिकाओं में मिलती है। उस दौर में एक
भाषा से दूसरी भाषा में साहित्यिक रचनाएँ अनूदित होकर विभिन्न पत्रिकाओं के माध्यम
से प्रकाशित हो रही थीं। हिन्दी भाषा, साहित्य और इतिहास के निर्माण में इस
अनुवाद प्रक्रिया और जनसंचार के विभिन्न माध्यमों का विशेष योगदान है।
बीज-शब्द :
अनुवाद, साहित्येतिहास, पत्र-पत्रिका, प्रेस, जनसंचार, औपनिवेशक, भाषा, साहित्य, संस्कृति, इंटरनेट, राष्ट्रीय आन्दोलन, नवजागरण, इतिहास-लेखन, आधुनिक युग, राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता, जनतंत्र, औद्योगिकीकरण, संप्रेषणीय, सूचना, राजनीति, अर्थव्यवस्था।
मूल आलेख :
मानव सभ्यता ने अपने विकास के साथ कई उतार-चढ़ाव और संघर्ष देखे हैं। विश्व को जानने की जिज्ञासा और अपने प्रश्नों का उत्तर खोजने की उत्सुकता में उसने तमाम खोज और अविष्कार किये। इसी क्रम में ज्ञान के विस्तार की ललक में सूचनाओं का आदान-प्रदान शुरू हुआ। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद कार्य आरम्भ हुआ। वर्तमान समय में यह कार्य बड़े पैमाने पर हो रहा है। हर दिन दुनिया के अलग-अलग कोनों में होने वाली घटनाएँ एक भाषा से दूसरी भाषा में अनूदित होकर जनसंचार के माध्यम से आम जनमानस तक पहुँच रही हैं और मानव सभ्यता के विकास में नये अनुभव जोड़ रही है। इंटरनेट युग में सूचनाओं की बाढ़ सी आ गयी है। ऐसे समय में आम जनमानस तक सही सूचना को सहज भाषा में पहुँचाना एक दायित्वपूर्ण कार्य है। जनसंचार का संबंध मुख्यता जनसामान्य से होता है। इसके साथ शिक्षित, अर्धशिक्षित और अशिक्षित, ग्रामीण और शहरी, निम्न वर्ग और उच्च वर्ग, बालक और वृद्ध, महिला और पुरुष सभी जुड़े होते हैं। इसलिए यह अपेक्षा की जाती है कि जनसंचार का अनूदित पाठ शब्दानुवाद की अपेक्षा भावानुवाद और अनुसृजन के करीब हो। अनूदित पाठ संप्रेषणीय, बोधगम्य, सहज, रोचक और सर्वजन सुलभ होने की स्थिति में ही जनसंचार का उद्देश्य पूर्ण हो सकता है।
सूचनाओं का आदान-प्रदान तो प्राचीन काल से ही अगल-अलग माध्यमों से हो रहा है। लेकिन यह कार्य और तेज़ी से तब बढ़ा जब भारत ने आधुनिक युग में प्रवेश लिया। भारत में छापाखाना और रेल की स्थापना का असर तत्कालीन साहित्य, समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति सब पर पड़ा। अंग्रेजों ने इसकी स्थापना अपने औपनिवेशिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर की थी। लेकिन भारतीयों ने भी इसका उपयोग अपने आवश्यकतानुसार राष्ट्रीय आन्दोलन को मजबूत करने के लिए किया, जिसका व्यापक प्रभाव साहित्य और समाज पर पड़ा।
तत्कालीन यूरोपीय लेखकों ने इसे ब्रिटिश हुकूमत की महान देन के रूप में चित्रित किया। इस संदर्भ में यूरोपियन इतिहासकार एफ़. इ. के अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखते हैं कि “ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में एक व्यापारिक प्रतिष्ठान के रूप में कार्य किया शुरू किया था। अब वह एक विस्तृत साम्राज्य की स्वामिनी बन गयी और अब वह शासितों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का अनुभव करना शुरू कर रही थी... जो जिम्मेदारियाँ स्वीकार की गई, उनमें कम्पनी शासन के भीतर आने वाली जनता की संस्कृति और शिक्षा को सहयोग देने तथा आगे बढ़ाने का कर्तव्य भी था। छापेखाने के प्रवेश ने साहित्यिक संस्कृति के विकास में मदद की।”[1] छापेखाने की स्थापना ने भारतीय जनमानस को एक वैचारिक गति अवश्य दी, लेकिन उसका मूल कारण भारतीय और ब्रिटिश हितों की टकराहट तथा भारतीय समाज की आतंरिक रूढ़ियों से मुक्ति की आकांक्षा थी। प्रेस की स्थापना ने इस टकराहट को और तेज़ तथा धारदार किया।
भारतीय आन्दोलनकारियों ने प्रेस को एक मजबूत हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, जिसके फलस्वरूप बड़े पैमाने पर भारतीय भाषाओं में अखबार, पेम्पलेट, पत्र-पत्रिकाएँ, साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिसका प्रयोग राष्ट्रीय आन्दोलन को एक वैचारिक मजबूती देने के लिए किया गया। इस संदर्भ में इतिहासकार बिपिन चन्द्र लिखते हैं कि “वह प्रमुख साधन प्रेस था जिसके द्वारा राष्ट्रवादी भारतीयों ने देशभक्ति की भावनाओं, आधुनिक आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक विचारों का प्रचार किया तथा एक अखिल भारतीय चेतना जगाई। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बड़ी संख्या में राष्ट्रवादी समाचार पत्र निकले। उनके पन्नों पर सरकारी नीतियों की लगातार आलोचना होती थी, भारतीय दृष्टिकोण को सामने रखा जाता था, लोगों को एकजुट होकर राष्ट्रीय कल्याण के काम करने को कहा जाता था तथा जनता के बीच स्वशासन, जनतंत्र, औद्योगिकीकरण आदि विचारों को लोकप्रिय बनाया जाता था। देश के विभिन्न भागों में रहने वाले राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं को भी परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करने में प्रेस ने समर्थ बनाया।”[2]
अंग्रेजों ने प्रेस की स्थापना अपनी प्रशासनिक जरूरतों को ध्यान में रख कर की थी, पर भारतीयों ने इसका प्रयोग राष्ट्रीय आन्दोलन को मजबूत करने के लिए किया, जिसके परिणामस्वरुप, अंग्रेजों द्वारा प्रेस के ऊपर कई प्रतिबन्ध लगा गये दिए गये। यह प्रतिबन्ध सन् 1799 में वेलेजली द्वारा लगाया गया, जिसने ब्रिटिश शासन के साम्राज्यवादी हितों को ध्यान में रखते हुए प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी थी। “प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर प्रारम्भ से ही अंग्रेजों और भारतवासियों में टकराहट शुरू हुई। इस संघर्ष में भी राजा राममोहन राय ने पहल की। एडम के समय में प्रेस की स्वतंत्रता पर जो आक्रमण हुआ, उसके विरोध में उन्होंने अपने अन्य राष्ट्रवादी मित्रों के साथ कलकत्ता उच्च न्यायालय में आवेदन किया। उन्होंने सरकार की इस कार्यवाही को अप्रजातांत्रिक, अव्यावहारिक और प्रतिक्रियावादी बताया।”[3] इस प्रकार भारतीय आन्दोलनकारियों ने प्रेस की स्वतंत्रता के हनन के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी। सन् “1818 में हेन्स्टिंग ने प्रेस सम्बन्धी प्रतिबन्धों को हटा दिया। 1823 में जब एडम स्थानापन्न गवर्नर जनरल था, प्रेस सम्बन्धी अधिकार पत्र लेने का अधिनियम बना। सन् 1835 में मेटाकाफ ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया। सन् 1857 तक यही स्थिति बनी रही।”[4] इस दौर में बड़े पैमाने पर पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ। यह कार्य व्यक्तिगत तथा सांस्थानिक दोनों ही प्रयासों से हुआ, जैसे-भारतेंदु युग के कई लेखकों ने स्वयं के प्रयासों से पत्र-पत्रिकाएँ निकालीं, जिसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र तथा बालमुकुन्द गुप्त का नाम उल्लेखनीय है। इसी प्रकार नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा नागरी प्रचारिणी पत्रिका निकाली गयी। आगे चलकर एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना हुई, जिसके माध्यम से भारतीय भाषाओं के ग्रंथों का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में हुआ। एशियाटिक सोसाइटी के एक विशेषांक के रूप में ग्रियर्सन की‘मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दोस्तान’ प्रकाशित हुई, जिसे बाद में हिन्दी साहित्य के इतिहास की श्रेणी में रखा गया। फोर्ट विलियम कॉलेज के माध्यम से भी कई ग्रंथों का अनुवाद करवाया गया। गार्सा द तासी, ग्रियर्सन, एडविन ग्रीव्स तथा एफ़० इ० के आदि यूरोपीय विद्वानों ने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय विभिन्न अनूदित ग्रंथों तथा पत्र-पत्रिकाओं की सहायता ली। जिसका जिक्र उन्होंने अपनी साहित्येतिहास पुस्तकों में किया है।
इन पत्र-पत्रिकाओं ने हिन्दी भाषा, साहित्य और इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ये कहना गलत न होगा कि हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल की अधिकांश रचनाएँ पहले-पहल इन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही सामने आयीं। कई क्लासिक रचनाएँ अन्य भाषाओं से हिन्दी में अनूदित होकर इन पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित हुईं। इन पत्रिकाओं के माध्यम से उस दौर में हिन्दी भाषा और साहित्य में हो रहे परिवर्तनों का पता चला है। साथ ही इन परवर्तनों की वैचारिक पृष्ठभूमि की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होता है, जैसे- नये दौर में नई भाषा की जरूरत महसूस हुई और इन पत्रिकाओं के माध्यम से हिन्दी गद्य का विकास हुआ। हिन्दी साहित्य और समाज के आधुनिकता में प्रवेश तथा नए परिवर्तनों को हिन्दी बुद्धिजीवी वर्ग किस प्रकार ले रहा था? वह परिवर्तनों के प्रति अपनी क्या प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा था? इसका अंदाज़ा इन पत्रिकाओं के माध्यम से लगाया जा सकता है।
एक सार्वजानिक भाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए इन पत्र-पत्रिकाओं का प्रयोग किया गया। फ्रंचेस्का और्सीनी इस विषय में लिखती हैं कि “उन्नीसवीं सदी में हिन्दी के अग्रदूतों ने पहले ही इस बात को समझ लिया था कि एक सार्वजनिक भाषा के रूप में हिन्दी के प्रयोग को बढ़ावा देने, सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार के विषयों पर विचारों को फैलाने और बहस शुरू करने और साहित्य को रसिकों-मित्रों के एक छोटे-से दायरे के बाहर एक अस्पष्ट रूप से परिभाषित 'हिन्दू-हिन्दी पाठक वर्ग' के बीच ले जाने के लिए पत्र-पत्रिकाएँ एक अहम ज़रिया हैं।”[5] हालांकि शुद्ध हिन्दी का रूप गढ़ने के चक्कर में ऐसे कई शब्दों को खड़ी बोली हिन्दी से चुन-चुन कर निकाला जाने लगा जो कि अन्य भाषाओं से खड़ी बोली हिन्दी में आये थे।
इन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से उस दौर की वैचारिक पृष्ठभूमि का भी पता चलता है, जिनको केन्द्रित करके विभिन्न निबंध, नाटक, उपन्यास, लेख और कविताएँ लिखे गये। हिन्दी का परिचय नये विधाओं तथा विषयों से हुआ। सती-प्रथा, जाति-व्यवस्था, बाल-विवाह, औपनिवेशिक शासन की गुलामी, भेदभावपूर्ण नीतियों और आर्थिक शोषण के प्रति गहरा असंतोष और मुक्ति की कामना इन पत्रिकाओं और साहित्य के प्रमुख विषय थे। इन पत्रिकाओं की विषय-विविधता के सम्बन्ध में आलोचक रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि “पुस्तक रचना के अतिरिक्त पत्रिकाओं में प्रकाशित अनेक प्रकार के फुटकल लेख और निबंध अनेक विषयों पर मिलते हैं, जैसे राजनीति, समाजदशा, ऋतु छंटा, पर्व-त्यौहार, जीवनचरित, ऐतिहासिक प्रसंग, जगत् और जीवन से सम्बन्ध रखने वाले सामान्य विषय (जैसे- आत्मनिर्भरता, मनोयोग, कल्पना)।”[6] बांग्ला, अंग्रेजी, संस्कृत और अन्य भाषाओं का साहित्य खड़ी बोली हिन्दी में अनूदित होकर इन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। जिससे हिन्दी साहित्य और समृद्ध हुई। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में इन पत्र-पत्रिकाओं और अनुवाद पाठों का विशेष महत्त्व है। हिन्दी साहित्य के इतिहास की कोई भी पुस्तक उठाकर पढ़ ली जाए, उसमें आधुनिक काल की शुरुआत इन पत्र-पत्रिकाओं तथा अनुदित ग्रंथों की चर्चा अवश्य मिलती है।
हिन्दी साहित्य के अंतर्गत आधुनिक काल की शुरुआत से ही अनुवाद की विशेष परंपरा रही। भारतेंदु युग के अधिकांश लेखकों ने अनुवाद कार्य किए। अनुवाद-कर्म की साहित्य के इतिहास-लेखन में क्या भूमिका हो सकती है, इसपर प्रकाश डालते हुए कृष्ण कुमार गोस्वामी इजराइल के एक विद्वान का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि “इजराइल में तेलअवीव विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इत्तामार इवान जोहर ने अपने शोध ग्रंथ ‘हिब्रू में साहित्यिक अनुवाद का इतिहास’ में कहा है कि साहित्य के इतिहास में प्रायः अनुवाद का उल्लेख तभी होता है, जब उसकी उपेक्षा किसी तरह भी संभव न हो; जैसे पुनर्जागरण या मध्यकाल का इतिहास लिखते समय साहित्य का ऐतिहासिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए अनुवाद का उल्लेख वृहत साहित्य प्रणाली के साथ सुव्यवस्थित ढंग से किया गया है, अन्यथा साहित्य प्रणाली अपने आप में अधूरी समझी जाती।”[7] प्रोफेसर इवान की यह बात हिन्दी साहित्य के इतिहास पर भी बहुत हद तक लागू होती है। जब हम मध्यकाल के बाद आधुनिक युग में प्रवेश करते हैं तो हिन्दी साहित्य का नए भाषाओं और नए विचारों से संपर्क बढ़ता है। इस दिशा में अनुवाद की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण है। अंग्रेजी, फ्रेंच और बांग्ला से कई नाटक, उपन्यास, कविताएँ सामाजिक एवं राजनीतिक शास्त्र से संबंधित ग्रंथ हिन्दी भाषा में अनूदित होते हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय इन अनुवादों की चर्चा किए बगैर साहित्य का इतिहास अधूरा रह जाता है। हिन्दी साहित्येतिहास के लगभग सभी लेखकों ने इन अनुवादों की चर्चा की है जो भारतेंदु एवं उनके दौर के अन्य लेखकों ने किये। भारतेंदु युग के बाद भी अनुवाद की परंपरा समाप्त नहीं होती, बल्कि द्विवेदी युग और उसके बाद के आधुनिक युग में यह अनुवाद कार्य और बड़े पैमाने पर होता है। वर्तमान समय में कई ऐसे संस्थान खुल चुके हैं जो अनुवाद-कार्य में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं और हिन्दी भाषा और साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य के अंतर्गत विभिन्न विमर्शों के परिचय में भी अनुवाद की बड़ी भूमिका रही है। गौरतलब है कि इन अनुवादों की चर्चा किए बगैर हम इन विमर्शों का इतिहास नहीं लिख सकते हैं।
खड़ी बोली हिन्दी के विकास में अनुवाद का विशेष योगदान है। अनुवाद-कर्म ने भारतीय नवजागरण को और अधिक बल दिया, जिसके फलस्वरूप हिन्दी भाषा और साहित्य में नए विचारों और मूल्यों को स्थान मिला। यह साहित्य में आधुनिक काल की शुरुआत थी। “यदि नवजागरण दो जातीय संस्कृतियों की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक ऊर्जा है तो अनुवाद ही वह माध्यम है जो संस्कृतियों में संपर्क और टकराहट लाने में अपनी भूमिका निभाता है। वास्तव में नवजागरण की चेतना के पीछे अनुवाद की प्रमुख भूमिका रहती है। वस्तुतः अनुवाद की गहरी परतों से नवजागरण की भूमि उर्वर होती है। भारतीय नवजागरण में संस्कृत और अंग्रेजी से हुए अनुवादों की वही भूमिका थी जो यूरोपीय पुनर्जागरण के परिप्रेक्ष्य में ग्रीक और लैटिन के अनुवादों की थी।”[8] हिन्दी साहित्य में अनुवाद की एक लम्बी परंपरा रही है। “हिन्दी के प्रतिष्ठित अनुवादक के रूप में कवि मल्ल, महाराजा जसवंत सिंह, आचार्य सोमनाथ, भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्रीधर पाठक, रामचंद्र शुक्ल, जैनेंद्र कुमार, मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, राजकमल चौधरी, भदंत आनंद कौशल्यायन, राजेंद्र यादव, अमृता प्रीतम, विष्णुखरे आदि के नाम श्रद्धा से लिए जाते हैं।”[9] इन सभी लेखकों का हिन्दी साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। यदि हम आधुनिक युग की शुरुआत भारतेंदु युग से मानते हैं तो भारतेंदु युग में बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य संपन्न हुए। स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने छोटे से जीवन काल में अंग्रेजी और बांग्ला से कई नाटक और साहित्यिक रचनाओं के अनुवाद हिन्दी भाषा में किए। इसके कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं, जैसे- सन् 1867 में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बांग्ला से हिन्दी में ‘विद्यासुंदर’ नाटक का अनुवाद किया। उन्होंने सन् 1868 में संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रत्नावली’ का अनुवाद किया। ‘पाखंड विडंबन’ नाम से सन् 1872 में कृष्ण मिश्र द्वारा रचित ‘प्रबोध चंद्रोदय’ के तीसरे अंक का अनुवाद किया। पंडित कांचन कवि द्वारा सन् 1873 में रचित ‘धनंजय विजय’ का अनुवाद किया। सन् 1875 में विशाखदत्त के प्रसिद्ध नाटक ‘मुद्राराक्षस’ का अनुवाद किया। सन् 1876 में राजशेखर की कृति ‘कर्पूरमंजरी’ का अनुवाद किया। सन् 1877 में ‘भारत जननी’ नामक नाट्यगीत का अनुवाद किया। सन् 1880 में शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद ‘दुर्लभ बंधु’ नाम से किया। इन नाटकों के अनुवाद में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहीं भावानुवाद किये तो कहीं हू-ब-हू अनुवाद किया। इन अनुवादों में भारतेंदु हरिश्चंद्र की विचार दृष्टि और भाषा पर जबरदस्त पकड़ साफ तौर पर झलकते हैं। इन प्राचीन ग्रंथों के अनुवाद का उद्देश्य भारतीयों को राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना से जोड़ना तथा उनके अंदर फिर से उत्साह जगाना था।
प्रो. देवशंकर नवीन इस संबंध में लिखते हैं कि “ध्यातव्य है कि सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अपने मान-सम्मान के लिए फिरंगियों की क्रूरता का सामना कर रहे भारतीय राष्ट्र भक्तों की त्रासद पराजय के बाद यह वह दौर था, जिसमें भाषा और संस्कृति की निजता का महत्त्व हर भारतीय समझने लगा था। अनुवाद के माध्यम से ही सही, पर हर किसी को अपने पौराणिक ग्रंथों, प्राचीन साहित्यों और विराट भारत की साहित्यिक धरोहरों के साथ-साथ विश्वफलकीय ज्ञान से परिचित होना जरूरी लगने लगा था।”[10] इन अनुवादों के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान, साहित्य और राजनीति से जुड़े कई ग्रंथों का अनुवाद किया जाता है और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को एक वैचारिक पृष्ठभूमि प्रदान की जाती है। भारतेंदु से पहले भी अनुवाद कार्य शुरू हो चुके थे। जैसे- राजा लक्ष्मण सिंह कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ का अनुवाद करते हैं। भारतेंदु युग में कई अन्य लेखकों ने भी अनुवाद कार्य किए। लाला सीताराम ने विलियम शेक्सपियर के कुल ग्यारह नाटकों का अनुवाद किया और इसके साथ ही उन्होंने संस्कृत के नाटकों एवं रचनाओं के अनुवाद किये। जैसे- भवभूति के ‘महावीरचरित’ का अनुवाद, ‘उत्तररामचरित’, ‘मालती माधव’, कालिदास के नाटक ‘मेघदूत’, ‘कुमारसंभव’, ‘रघुवंश’, ‘मालविकाग्निमित्रम्’, शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम्’ तथा हर्षदेव के ‘नागानंद’ का अनुवाद।
तोताराम ने वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ और जोसेफ एडिसन के ‘केटो’ का अनुवाद किया। श्रीधर पाठक ने गोल्डस्मिथ, थॉमस ग्रे और पार्नेल की रचनाओं का अनुवाद किया। अनुवाद की यह परंपरा द्विवेदी युग में जारी रही। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका का संपादन संभाला और अपने सम्पादकत्व में खड़ी बोली हिन्दी की भाषा और साहित्य का नया रूप गढ़ा। स्वयं द्विवेदी ने जी कई महत्त्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भर्तृहरि की ‘वैराग्य शतक’ का अनुवाद विनय विनोद नाम से तथा ‘श्रृंगार शतक’ का अनुवाद ‘स्नेह माला’ नाम से, जयदेव की ‘विहारवाटिका’, कालिदास की ‘ऋतुसंहार’ का ‘ऋतुतरंगिणी’ नाम से, ‘मेघदूत’ तथा ‘कुमारसम्भवम्’ का अनुवाद ‘कुमारसंभवसार’ नाम से, जगन्नाथदास की ‘भामिनी-विलास’ तथा ‘यमुना-स्रोत’ का ‘अमृत लहरी’, संस्कृत ग्रन्थ ‘महिन्म स्रोत’ का ‘श्री महिम्नस्रोत’ नाम से, पंडित जगन्नाथ की ‘गंगा-लहरी’ का अनुवाद किया। बाइरन की ‘ब्राइडल नाईट’ का ‘सोहागरात’ नाम से, हर्बर्ट स्पेंसर की ‘द एजुकेशन’ का ‘शिक्षा’ नाम से, जर्मन लेखक लुई कोने की पुस्तक का अनुवाद ‘जल चिकित्सा’ नाम से, ‘महाभारत’ की कथा का हिन्दी अनुवाद हिन्दी‘महाभारत’ नाम से, कवि भट्टनारायण के नाटक ‘वेणीसंहार’ का अनुवाद ‘वेणी-संहार’ नाम से, जे० एस० मिल की ‘ऑन लिबर्टी’ का अनुवाद ‘स्वाधीनता’ नाम से सन् 1905 में किया तथा फ्रांसिस बेकन के लेखों के संकलन का अनुवाद ‘बेकन विचार रत्नावली’ के नाम से सन् 1900 में किया। “उन्हें अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी तथा बांग्ला का बेहतरीन ज्ञान था। उन्होंने इन भाषाओं की कई उत्कृष्ट कृतियों के अनुवाद से हिन्दी भाषा एवं साहित्य के भंडार को समृद्ध किया। समसामयिक पर्यवस्थिति की वैज्ञानिक, राजनीतिक, आर्थिक हलचलों के प्रति भारत के आम नागरिक को जागृत करने और उनमें अस्मिता बोध भरने, आत्मसम्मान के प्रति सावधान रहकर सिर उन्नत रखने की प्रेरणा देने की दिशा में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का अवदान अद्वितीय है।”[11]
भारतेंदु हरिश्चंद्र और महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य के महत्त्वपूर्ण लेखक रहे, जिन्होंने बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य किया। अनुवाद कार्यों से उन्होंने हिन्दी भाषा, साहित्य, उसके इतिहास तथा अनुवाद को समृद्ध किया। कृष्ण कुमार गोस्वामी इनके बारे में लिखते हैं कि “नवजागरण काल में दो विजातीय भाषाओं के अंतर्विरोध की परंपराओं के बीच हिन्दी के अनूदित साहित्य प्रणाली का विकास हुआ। वास्तव में हिन्दी साहित्य का यह विकास भारतेंदु युग और द्विवेदी युग की देन है।”[12] भारतेंदु युग तथा द्विवेदी युग में बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य संपन्न हुआ। यह अनुवाद की परंपरा हिन्दी भाषा एवं साहित्य में आगे भी जारी रही। हिन्दी आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने कई पुस्तकों का अनुवाद किया। उन्होंने बांग्ला से रखाव दास बन्द्योपाध्याय के उपन्यास ‘शशांक’ का हिन्दी में अनुवाद किया। जोसेफ एडिसन कृत ‘प्लेज़र्स ऑफ़ इमेजिनेशन’ का अनुवाद ‘कल्पना का आनंद’ नाम से किया। एडविन अर्नाल्ड की ‘लाइट ऑफ एशिया’ का अनुवाद ‘बुद्धचरित’ शीर्षक से किया। जर्मनी के प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री अन्सर्ट हैकल की पुस्तक ‘रिडल ऑफ द यूनिवर्स’ का अनुवाद ‘विश्व प्रपंच’ नाम से किया। इन अनुवादों में ‘बुद्धचरित’ और ‘विश्व प्रपंच’ की काफी चर्चा रही।
हिन्दी साहित्य के अंतर्गत ऐसे कई लेखक रहे जिन्होंने स्वतंत्र लेखन भी किया तथा साथ-साथ बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य किया। इस दिशा में हिन्दी और उर्दू के बड़े कहानीकार और उपन्यासकार प्रेमचंद का नाम विशेष उल्लेखनीय है। प्रेमचंद उर्दू में लिखी अपनी कहानियों और उपन्यासों का हिन्दी में स्वयं तर्जुमा करते थे। अपनी रचनाओं के अनुवाद के साथ-साथ उन्होंने अन्य भाषा के साहित्य का भी हिन्दी भाषा में अनुवाद किया, जैसे- गार्ल्सवर्दी के तीन नाटकों का अनुवाद ‘हड़ताल’, ‘चांदी की डिबिया’ और ‘न्याय’ नाम से किया। उन्होंने सन् 1923 में टॉलस्टॉय की कहानियों का अनुवाद किया। रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्यास ‘फसाना-ए-आजाद’ का हिन्दी अनुवाद ‘आजाद कथा’ नाम से किया।
हिन्दी के एक अन्य बड़े कहानीकार राजेंद्र यादव ने कई कहानियों और साहित्यिक पुस्तकों का अनुवाद किया, जैसे-चेखव की कहानी ‘टक्कर’ का अनुवाद, लर्मन्तोव के रचना ‘हमारे युग का एक नायक’ नाम से हिन्दी अनुवाद, तुर्गनेव की रचनाओं का ‘प्रथम-प्रेम और वसंत-प्लावन’ नाम से अनुवाद, ‘एक मछुआ : एक मोती’(स्टाइनबेक) तथा ‘अजनबी’ (कामू) हिन्दी भाषा में किया।
हिन्दी के एक अन्य लेखक विष्णु खरे ने अंग्रेजी और विदेशी भाषा से हिन्दी में कई अनुवाद किए। इसके कई उदाहरण देखे जा सकते हैं, जैसे- मेरुप्रदेश और अन्य कविताएँ जो टी.एस.इलियट की ‘वेस्टलैंड एंड अदर पोएम्स’ का अनुवाद है, ‘जीभ दिखाना’(जर्मन लेखक गुंटर ग्रास), ‘यह चाकू समय’(आत्तिला योझेफ़), ‘हम सपने देखते हैं’(मिक्लोश राद्नोती), ‘कालेवाला’(फ़िनी राष्ट्रकाव्य), ‘अगली कहानी’(डच उपन्यास),
‘हमला’(हरी मूलिश), ‘दो नोबल पुरस्कार विजेता कवि’(चेस्वाव मिवोश/विस्वावा शिम्बोर्स्का), ‘कलेवपुत्र’(एस्टोनिया का राष्ट्रीय काव्य)।
आज भी हिंदी के अनेक लेखक अनुवाद के माध्यम से हिंदी सहित्य के इतिहास और जन संचार के विभिन्न माध्यमों के आयामों का विस्तार कर रहे हैं। इस रूप में हिन्दी की विभिन्न विधाओं के विकास में भी अनुवाद का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। आज़ादी के बाद विभिन्न अनुवाद संस्थानों की स्थापना हुई, जिनके माध्यम से हिन्दी भाषा में विभिन्न देशी तथा विदेशी भाषा से साहित्य की रचना भी हुई। अंग्रेजी, फ्रेंच तथा अन्य भाषा में लिखे गए हिन्दी साहित्य के इतिहासों का हिन्दी में अनुवाद हुआ। विभिन्न भाषाओं में चल रहे दलित,आदिवासी तथा स्त्री विमर्श से संबंधित पुस्तकों का हिन्दी भाषा में अनुवाद हुआ और इन विमर्शों ने हिन्दी साहित्य में नई धारा का विकास किया। इन अनुवादों ने हिन्दी साहित्य और भाषा को समृद्ध किया तथा उसके इतिहास लेखन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान किया। वर्तमान समय में अनुवाद और पत्रकारिता स्वतंत्र विषय के रूप में विकसित हो चुके हैं और समाज में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।हिन्दी साहित्य के इतिहास निर्माण में इनका योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
सन्दर्भ
[1]
के, एफ़. इ.,हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकायत प्रकाशन, गोरखपुर, पृ. 95
[2]चंद्र, बिपिन,
आधुनिक भारत का इतिहास, ओरियंट ब्लैकस्वान, नई दिल्ली, पृ. 197
[3]सिंह, बच्चन,
आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद,पृ. 25
[4]वही, पृष्ठ 26
[5]और्सीनी, फ्रंचेस्का,
हिन्दी का लोकवृत : 1920-1940, वाणी प्रकाशन, नईदिल्ली,
पृ. 72
[6]शुक्ल, रामचंद्र,
हिन्दी साहित्य का इतिहास, कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 307
[7]गोस्वामी, कृष्णकुमार,
अनुवाद विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 444
– 445
[8]वही,
पृ. 445
[9]नवीन,
देवशंकर, अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, पृ. 118
[10]वही, पृ. 121
[11]वही, पृ. 122
[12]गोस्वामी, कृष्णकुमार, अनुवाद विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 446
श्वेता राज
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली – 110067
rajshweta08@gmail.com, 8587944167
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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