शोध आलेख : कुँवर नारायण की कविताओं में मानवीय मूल्य/ डॉ. अमरनाथ प्रजापति
शोध सार :
कुँवर नारायण समकालीन कविता के
महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में मनुष्य के जीवन मूल्य और
संवेदनाओं को बारीकी से पड़ताल करते हुए वर्तमान समय में उसकी अर्थवत्ता एवं
उपयोगिता पर विचार किया है। पूँजीवाद और औद्योगीकरण के बढ़ते प्रभाव से मनुष्य का
जीवन तनाव और संघर्षपूर्ण हो गया है। लोग भौतिक सुख-सुविधाओं को अत्यधिक महत्त्व
देने लगे हैं। भौतिक प्रतिस्पर्धाओं के कारण धीरे-धीरे मानवीयता एवं नैतिकता का
ह्रास होता जा रहा है। सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ जटिल और अव्यवस्थित होती
जा रही हैं। इसलिए कुँवर नारायण संतुलित एवं संयमित समाज स्थापित करना चाहते हैं
तथा सहज एवं नैतिकतापूर्ण जीवन जीने के पक्षधर हैं। वे हर मनुष्य के बीच एक गहरा
मानवीय रिश्ता तलाशने की कोशिश करते हैं तथा मानवीयता के आगे भौतिक एवं ऐन्द्रिय
सुविधाओं को नकारते हैं। वे मनुष्य के बनावटी एवं सतही व्यवहार से आहत होते हैं
तथा मनुष्य के आतंरिक प्रकृति एवं वाह्य प्रकृति के अंतर्द्वंद में संतुलन एवं
सामंजस्य बैठाने का कोशिश करते हैं। वे प्रत्येक क्षण को सार्थक और उपयोगी बनाने
में विश्वास रखते हैं।
बीज शब्द : मानवीयता, नैतिकता, जीवन मूल्य, बाजारवाद, पूँजीवाद, भौतिकता, अन्याय, संतुलित समाज, सार्थकता, सहज जीवन, सामाजिक अंतर्विरोध, रचनाधर्मिता।
मूल आलेख :
वर्तमान समय भौतिक, राजनीतिक एवं सामाजिक अंतर्विरोधों और
जटिलताओं में उलझा हुआ है। तमाम तरह के सवालों, विचारों तथा तनावों से मनुष्य का सहज
जीवन जटिल और अव्यवस्थित होता जा रहा है। बाजारवाद, पूँजीवाद, औद्योगीकरण और तकनीकी विस्फोट के
प्रभाव से मनुष्य और उसकी स्वतंत्र जिज्ञासा एवं स्वतंत्र अभिव्यक्ति, स्तब्ध एवं असहाय है। संपूर्ण विश्व
पूँजीवादी व्यवस्था और औद्योगिक तंत्र के शिकंजे में फँसा हुआ है। सभी लोग उसकी
विकृतियों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं।
चारों ओर वस्तुओं का महत्त्व बढ़ रहा है और आदमी की कीमत दिन-प्रतिदिन घटती जा
रही है। फलस्वरूप लोगों का व्यवहार, रहन-सहन व्यवसायीकरण का रूप लेता जा रहा है।
उनके पास धैर्य और संयम से कुछ भी सोचने का अवकाश नहीं रहा है। इससे समाज का भौतिक
स्वरूप तो समृद्ध होता जा रहा है लेकिन मनुष्य की आंतरिक गतिविधियों में
अमानवीयता एवं अनैतिकता घर करती जा रही है। लोग नफरत और ईर्ष्या भरी जिंदगी जीने
को विवश हैं। इन भौतिक प्रतिस्पर्धाओं में मानवीयता लगातार आक्रांत होती जा रही
है। एक इनसान दूसरे इनसान को लूटने-खसोटने के लिए बेताब है। कुचक्र और हत्याओं का
सिलसिला लगातार बढ़ता जा रहा है। कुँवर नारायण की ‘क्रौंच-वध’ कविता में इसे देख सकते हैं-
“नफरतों से भरी दुनिया में
दम
तोड़ती
बेगुनाही
का बयान है,
जिसका
खून अब नसों में नहीं
सड़कों
पर बह रहा
वो
अभागे इनसान हैं।’’1
इस
तरह की अव्यवस्थित, तनावपूर्ण
और जटिल जीवन में कुँवर नारायण की कविता एक स्वच्छ, सहज एवं संयमित जीवन जीने के लिए मार्ग
प्रशस्त करती है। उनकी कविताओं में नैतिकता, जीवन-बोध की व्यापकता और मानवीय
संवेदनाओं का संस्पर्श लगातार दिखाई पड़ता है। उसमें अबाध निरंतरता है तथा भूत,
वर्तमान और
भविष्य तक का फैलाव है। इसे स्पष्ट करते हुए स्वंय कुँवर नारायण लिखते हैं कि- ‘‘मेरे लेखन में ऊपरी तौर पर ‘मानवीय सरोकारों’ को परिलक्षित किया गया है। उसके कुछ स्थायी
संदर्भों को मैंने एक बृहत्तर और व्यावहारिक जीवन-यथार्थ से जोड़ने की कोशिश की
है। ....उनकी ठोस उपस्थिति प्रतीत हो इसके लिए मैंने अपने ‘कालबोध’ को केवल वर्तमान तक ही सीमित नहीं रखा,
बल्कि अतीत और
भविष्य की ओर विस्तृत करने की चेष्टा की है।’’2
कुँवर
नारायण का लेखन सहज, संयमित
और आत्मानुशासित है। उसमें एक ऐसी सजग दृष्टि है जो मनुष्यता के प्रति अपनी
संलग्नता और आवश्यकता को व्यक्त करती है। उनकी छ: दशकों में फैली अधिकतर
कविताएँ मिथक और यथार्थ, संवेदना और इतिहास तथा शिल्प और विचार के
शर्तों पर समय निरपेक्ष हैं। एक विशेष कालखण्ड में लिखे जाने के बावजूद उसका
महत्त्व सार्वकालिक बन गया है। उन्होंने अपने सक्रिय लेखन से समय और समाज की
परिभाषा को न सिर्फ कई बार बदला है, बल्कि बहुतेरी स्थितियों में उसे तोड़कर नयी
अर्थध्वनि भी प्रदान की है। वे जीवन का आशय भौतिक सुख-सुविधा और ऐन्द्रिय भूख से
परे मानते हैं। वे मनुष्य और मनुष्य के बीच एक गहरे रिश्ते की तलाश करते हैं।
उनकी आस्था सिर्फ अपने जीवन के लिए नहीं, बल्कि सभी के जीवन से है। वे हर एक मनुष्य को
मनुष्य के नजरिये से देखने की कोशिश करते हैं-
‘‘मुझे एक मनुष्य की तरह पढ़ो, देखो और समझो
ताकि
हमारे बीच एक सहज और खुला रिश्ता बन सके
माँद
और जोखिम का रिश्ता नहीं।’’3
वे मनुष्य की आतंरिक तह में झाँकने की
कोशिश करते हैं तथा उसकी अनिष्ट एवं अहितकर गतिविधियों के कारण को समझने के लिए
उसके जड़ तक पहुँचते हैं। उनका मानना है कि कोई भी आदमी बुरा नहीं होता बल्कि वक़्त
बुरा होता है। बुरे वक़्त और मुश्किल समय में घिरा हुआ आदमी दूसरों से सहयोग एवं
हमदर्दी कीउम्मीद रखता है, जिसे प्राप्त न होने पर वह जाल में फँसे हुए
जानवर की तरह खूँखार हो जाता है। इसलिए वे मुश्किल वक़्त में हमदर्द बनने की बात
करते हैं-
‘‘आपने मुझे भागते हुए देखा होगा
दर्द
से हमदर्द की ओर।
वक़्त
बुरा हो तो आदमी आदमी नहीं रह पाता। वह भी
मेरी
ही और आपकी तरह आदमी रहा होगा।’’4
कुँवर
नारायण की सृजनात्मकता का मुख्य उद्देश्य, चिंता एवं वैचारिकता मानवीयता और नैतिकता का
है। वे मनुष्य की आतंरिक ऊहापोह और बाह्य जगत के दिखावे को बारीकी से पड़ताल करते
हैं। इसलिए उनकी कविताओं में अंतर्जगत् और बहिर्जगत् के बीच द्वंद्व की स्थिति
दिखाई पड़ती है। वे दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की पूरी कोशिश करते हैं।
किन्तु जब अंत:प्रकृति से बाह्य प्रकृति मेल नहीं खाती है तो वहाँ वे अपनी अंतरात्मा
की राह पर चलते हैं। वे मनुष्य के बाहरी व्यवहार के सतही, छिछले एवं बनावटी जीवन से आहत एवं व्यथित
होते हैं। इसलिए उनका आत्मचेतन इसके विरूद्ध तीव्र प्रतिक्रियाएँ करता है। वे
जीवन के प्रत्येक क्षण को सार्थक एवं संवेदनामय बनाने की कोशिश करते हैं तथा उसमें
वास्तविक मानवीयता की तलाश करते हैं। मुक्तिबोध के शब्दों में- ‘‘कुँवर नारायण ऐसा कवि है जो उसी व्यवहार-क्षेत्र
के विरूद्ध तीव्र संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ करता हुआ, जीवन के क्षण-क्षण को तड़िन्मय और
संवेदनमय बनाने के लिए अकुलाता हुआ, पीड़ित अंतरात्मा के स्वर को उभारता है। उसे
वास्तविक मानवीयता की तलाश है।’’5 किन्तु जब कवि वास्तविक मानवीयता या जीवन
की सार्थकता को बाहरी समाज में नहीं देख पाता या महसूस नहीं करता, जब सामाजिक अनबन और भेदभाव में घिरा
हुआ पाता है, समाज
के निरर्थक वातावरण का उसे भान होता है, तो उसकी आत्मा इस समस्या के निदान के लिए व्यथित
हो जाती है। वह अंतर्जगत् और बाह्यजगत् के परस्पर द्वंद्व के तनाव में घिर जाता
है। क्योंकि कवि मनुष्य के भीतर मानवीयता, नैतिकता और स्वच्छ विचारों को तलाश करता है।
इसलिए मुक्तिबोध का कहना है कि- ‘‘उसकी कविताएँ उस विशेष तनाव से उत्पन्न हैं
जो तनाव आत्मा और बाह्य के परस्पर द्वंद्व के कारण उपस्थित होता है। कवि कुँवर
नारायण केवल मनुष्य बनना चाहता है। यही उसका रोग है, यही उसकी समस्या है।”6 मुक्तिबोध ने कुँवर नारायण की
शुरुआती दौर की कविताओं के मूल्यांकन में जिन विशेषताओं को लक्षित किया था वह उनकी
रचनाशीलता में लगातार पुष्पित-पल्वित होती गई, चाहे उनके प्रबंध काव्य हों चाहे
मुक्तक, उन्होंने
एक स्वस्थ समाज निर्माण करने के लिए लगातार कोशिश की है। ‘आत्मजयी’ में वाजश्रवा और नचिकेता पिता-पुत्र
हैं जो परंपरागत और नवीन जीवन मूल्यों के प्रतिनिधि भी हैं। जहाँ वाजश्रवा स्वार्थ,
लोभ और भौतिक
सुविधाओं को महत्त्व देता है वहीं नचिकेता इन सब चीजों को नकारता है। वह भौतिक ऐश्वर्य
की कामना से विमुख वात्सल्य, आत्मीयता और अमरत्व की आकांक्षा रखता है। वह
उस अमरत्व की माँग करता है जिससे सदियों तक मानवता सम्मानित हो सके-
‘‘तेजस्वी चिंतित ललाट दो मुझको
सदियों
तपस्याओं में जी सकने की क्षमता
पाऊँ
कदाचित वह इष्ट कभी
कोई
अमरत्व जिसे
सम्मानित
करते मानवता सम्मानित हो।’’7
नचिकेता
रूढ़िवादी जीवन मूल्यों को, जो कि सामाजिक व्यवस्था को खोखला कर रहे हैं,
का विरोध करता
है। वह अंधानुकृति का विरोधी है तथा नवीन दृष्टि से भविष्य निर्माण एवं यथार्थ
जीवन का पक्षधर है। उसके लिए आस्था, सत्य, प्रेम, विश्वास आदि जीवन जीने के मानदंड हैं। वह
अनास्था, अविश्वास,
अपमान, पीड़ा और कुंठा को अस्वीकार करता है
तथा जीवन के शाश्वत सत्यों का खोजी है। वह ऐसी दृष्टि चाहता है जिससे जीवन को
अन्धकारमय होने से बचा सके-
‘‘मिल सके अगर तो
एक
दृष्टि चाहिए मुझे-
जीवन
बच सके
अँधेरा
हो जाने से- बस!’’8
कुँवर नारायण उदार, सहिष्णु और शिक्षित समाज निर्मित करना
चाहते हैं। वे व्यक्तित्व स्वातंत्र्य के पक्षधर हैं, क्योंकि व्यक्तित्व को दबाकर या
अंकुश लगाकर समाज को समृद्ध नहीं किया जा सकता। वे मनुष्य की स्वाभाविक
प्रवृत्तियों पर कुछ हद तक नियंत्रण भी स्वीकार करते हैं ताकि एक समाज दूसरे समाज
से संघर्ष न करे और साथ ही व्यक्ति की उचित स्वतंत्रता भी बाधित न हो। उन्हीं के
शब्दों में- ‘‘मानवीय
मूल्यों की रक्षा के लिए कुछ सामाजिक नियमों को मानना अनिवार्य हो जाता है,
लेकिन ये नियम,
चाहे समाज के
हों, चाहे
राज्य के, इस
सीमा तक मान्य नहीं हो सकते कि व्यक्ति की उचित स्वतंत्रता में बाधक हो जाएँ।”9
कुँवर नारायण हर एक मनुष्य को एक समान देखते हैं। उनकी दृष्टि में
बड़े-छोटे का भेद नहीं है-
‘‘अकसर मेरा सामना हो जाता
इस
आम सचाई से
कि
कोई आदमी मामूली नहीं होता
कि
कोई आदमी ग़ैरमामूली नहीं होता।’’10
मानवीय संवेदनाओं की डोर ही मनुष्य को
सौंदर्यवान बनाती है, क्योंकि
मनुष्य प्राकृतिक संरचना का एक हिस्सा है और प्रकृति के प्रत्येक कण में एक संबंध
की डोर है। पेड़-पौधे, फूल,
पक्षी, आकाश, जीव-जन्तु यानी प्रकृति का प्रत्येक
पदार्थ आपस में बँधा हुआ है जिससे संपूर्ण सृष्टि मधुर एवं सौंदर्यवान प्रतीत होती
है। वे ‘संबंध
के डोरे’ कविता
में कहते हैं-
‘‘किसी संबंध के डोरे
हमें
अस्तित्व की हर वेदना से बाँधते हैं,
तभी
तो-
चाह
की पुनरुक्तियाँ
या
आह की अभिव्यक्तियाँ- ये फूल पंछी ...
और
तुम जो पास ही अदृश्य पर स्पृश्य-से लगते।’’11
पूँजी
और सत्ता पर एकाधिकारवादी प्रकृति के लोगों ने संवेदना और मनुष्यता को पीछे छोड़
दिया है। हिंसा, अमानवीयता,
शोषण उनके
जीवन-मूल्य बन गये हैं। घृणा, ईर्ष्या, द्वेष इत्यादि समाज में पूरी तरह
व्याप्त हो चुकी हैं। ऐसे समय और समाज में कुँवर नारायण नकारात्मक घटनाओं और
विचारों को अपनी दृष्टि से ओझल कर उसे सकारात्मक ढंग से देखने वाले कवि हैं। नफरत
में डूबे हुए समाज में प्रेम और सृजन का ज्योति पुंज जलाने की कोशिश करते हैं। वे
‘इतना
कुछ था दुनिया में’ कविता
में कहते हैं-
‘‘इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने
झगड़ने को
मारने
मरने को
पर
ऐसा मन मिला
कि
जरा-से प्यार में डूबा रहा
और
जीवन बीतता रहा।’’12
उनकी
सृजनात्मकता में मानवीय जीवन-दृष्टि की गहरी पड़ताल को रेखांकित करते हुए रवीन्द्र
वर्मा ने लिखा है- ‘‘जिस
प्रकार अपने समय की मूल सामाजिक प्रक्रियाओं से रचनात्मक धरातल पर जूझे बिना गहरी
सर्जना संभव नहीं होती, उसी
तरह मनुष्य के अध्यात्म की पड़ताल के बिना सृजन परिपूर्ण नहीं होता। कुँवर
नारायण अपने नए संग्रह ‘कोई
दूसरा नहीं’ में
मनुष्य के जीने की प्रक्रिया से उसकी तात्त्विकता की खोज करते हैं’’13 कुँवर नारायण ‘शहर और आदमी’ कविता में शहरी जीवन की असंवेदनशीलता
एवं विकृत रूप को रेखांकित करते हैं, जहाँ आम मनुष्यों का जीवन मायूसी, बेचारगी और घुटन में कटता है। ये लोग
दैत्याकार शहर के जबड़ों में इस कदर फँसे हुए हैं जहाँ से निकलना मुश्किल है-
‘‘अपने खूँखार जबड़ों में
दबोचकर
आदमी को
उस
पर बैठ गया है
एक
दैत्य-शहर
सवाल
अब आदमी का ही नहीं
शहर
की जिंदगी का भी है
उसने
बुरी तरह
चीर-फाड़
डाला है मनुष्य को’’14
कुँवर नारायण की अनेक कविताएँ न्याय
व्यवस्था की विडम्बनाओं पर व्यंग्य के माध्यम से करारी चोट करती हैं जो सत्ता
के चंगुल में गिरफ़्त है। देश के अनेक शीर्ष न्यायालयों में किसी भी मुकदमे को एक
रस्म और रीति की तरह निभाया जाता है। उसमें पाखण्ड और चालाकी का बोल-बाला है।
मुकदमे की तारीख बदलती रहती है और फैसले तब आते हैं जब लोग लड़ते-लड़ते थक जाते
हैं या मर जाते हैं। ‘मुकदमे’
कविता में इस
तरह की न्याय व्यवस्था का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करते हैं -
‘‘जिन्हें सुनायी गयी
मौत
की सजा
कब
के मर चुके थे
जिन्हें
रिहाई दी गई
पूरी
सजा काट चुके थे’’15
कुँवर नारायण की रचनाधर्मिता में
परंपरागत एवं नवीन जीवन मूल्यों की टकराहट बराबर दिखाई देती है। इन टकराहटों में
कवि ने बौद्धिक सूझ-बूझ और गहरे अन्वेषण के साथ अपने विचारों को प्रस्तुत किया
है। उन्होंने भौतिक उत्थान और सत्तात्मक शिखरों, जो अन्याय, शोषण एवं अमानवीय रूप से निर्मित होते
हैं, को
नकारा है तथा साहित्य, कलाओं
एवं उद्दात विचारों को महत्त्व दिया है। भौतिक ऊँचाइयाँ सिर्फ मृगतृष्णा के समान
हैं, जिसका
कोई अंत नहीं है। इतिहास गवाह है कि बादशाहों एवं राजाओं द्वारा निर्मित बड़े-बड़े
महल, इमारतें,
नगर, आज ध्वस्त हो चुके हैं या सिर्फ पर्यटन
स्थल बनकर रह गए हैं। किन्तु बुद्ध, कबीर, गाँधी के विचार आज भी जीवित है। इसलिए भौतिक
सुविधाओं की भाग-दौड़ एवं हिंसा, अत्याचार, शोषण आदि के गहरे अँधेरे में भटके हुए
लोगों को बुद्ध के विचारों से अवगत कराकर उनके जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता पर
विचार करते हुए कहते हैं कि –
“जीने का ध्येय बदलते ही
बदल जाता है जीवन
प्यार और करुणा से सोचें
तो जीने का अर्थ बदल जाता है।”16
उनका मानना है कि जीवन सिर्फ संघर्षमय
ही नहीं है, उसमें
मार्मिक समझौते और सामाजिक सुलहें भी हैं। संघर्षशील जीवन चित्रण से उसकी क्रूर और
विस्फोटक छवि उभरती है जबकि समझौते और सुलहों से संयत, उदार और अनुशासित पक्षों पर आस्था व्यक्त
की जाती है। इसलिए अपनत्व और अहिंसा के लिए समझौते और सुलहों को महत्त्व देते
हैं-
‘‘एक सुलह की शपथ
हो
सकती है पर्याप्त संजीवनी
कि
आँखें मलते हुए उठ बैठे
एक
नया जीवन-संकल्प“17
निष्कर्ष :
इस प्रकार हम देखते हैं कि कुँवर
नारायण ने मानवीय जीवन के विविध पहलुओं पर सूक्ष्म एवं गहराई से पड़ताल की है। वे
दमन, शोषण,
अन्याय, संवेदनहीनता, नकली मुखौटा, बनावटी जीवन एवं भौतिक सुख-सुविधाओं को
नकारते हैं। उनकी अनेक कविताएँ सामाजिक, राजनीतिक विषमताओं तथा न्याय व्यवस्था की
विडम्बनाओं पर करारी चोट करती हैं। न्याय व्यवस्था के छद्म रूप, भ्रष्टाचार में लिप्त राजनीति की
कलाबाजियाँ, गिरते
हुए सामाजिक, नैतिक
मूल्यों का यथार्थ उनकी बहुत-सी कविताओं में उभरकर सामने आती हैं। कुँवर नारायण
उद्दात विचार, मानवीयता,
नैतिकता,
संयम तथा
संवेदनामय जीवन जीने के पक्षधर हैं। उनकी रचनाशीलता में संयम, सादगी और विवेकपूर्ण ढंग से मनुष्यता
के लिए संघर्ष है। मनुष्यों के भीतर भाई-चारा, समानाधिकार, त्याग, समर्पण आदि का वैचारिक अन्वेषण है।
इसी मानवीय मूल्य के लिए उनकी कविताएँ संघर्ष करती हैं, क्योंकि इसी से सहज एवं स्वस्थ समाज का
निर्माण हो सकता है।
सन्दर्भ :
1. कुँवर
नारायण- कोई दूसरा नहीं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2011, पृ. 25
2. कुँवर
नारायण– कलाएँ
हमारे अस्तित्व का अविभाज्य हिस्सा हैं, नया ज्ञानोदय, संपा.लीलाधर मंडलोई, सितम्बर 2014, पृ. 56
3. कुँवर
नारायण- अपने सामने, राजकमल
प्रकाशन, नई
दिल्ली, सं.
2003, पृ.
17
4. वही,
पृ. 18
5. गजानन
माधव मुक्तिबोध– अंतरात्मा
की पीड़ित विवेक- चेतना (लेख), ‘कुँवर नारायण : उपस्थिति भाग-2’ में संकलित, संपा. यतीन्द्र मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2010, पृ. 44
6. वही,
पृ. 44
7. कुँवर
नारायण- आत्मजयी, भारतीय
ज्ञानपीठ, नई
दिल्ली, सं.
2000, पृ.
15
8. वही,
पृ. 84
9. कुँवर
नारायण– परिवेश
: हम-तुम, वाणी
प्रकाशन, नई
दिल्ली, सं.
2006, पृ.
7
10. कुँवर
नारायण- कोई दूसरा नहीं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2011, पृ. 25
11. कुँवर
नारायण– परिवेश
: हम-तुम, वाणी
प्रकाशन, नई
दिल्ली, सं.
2006, पृ.
81
12. कुँवर
नारायण- हाशिए का गवाह, मेधा
बुक्स, दिल्ली,
सं. 2009,
पृ. 71
13. रवीन्द्र
वर्मा– मनुष्यतर
होने की चाह(लेख), ‘कुँवर
नारायण : उपस्थिति भाग-2’ में संकलित, संपा. यतीन्द्र मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2010, पृ. 354
14. कुँवर
नारायण- इन दिनों, राजकमल
प्रकाशन, नई
दिल्ली, सं.
2014, पृ.
21
15. कुँवर
नारायण- कोई दूसरा नहीं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2011, पृ. 105
16. कुँवर
नारायण- कुमारजीव, भारतीय
ज्ञानपीठ, नई
दिल्ली, सं.
2015, पृ.
135
17. कुँवर नारायण- वाजश्रवा के बहाने, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सं. 2009, पृ. 91
डॉ. अमरनाथ प्रजापति, सहायक आचार्य, हिंदी विभाग
कर्नाटक राज्य अक्कमहादेवी महिला
विश्वविद्यालय, विजयपुर,
कर्नाटक-
586108
8985035590, amar20ballia@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
एक टिप्पणी भेजें