कुछ कविताएँ कुछ बात : कविता में ‘होना’ / प्रमोद कुमार तिवारी
सबसे अच्छी स्थिति तो यही होती है कि कवि नहीं, उसकी कविता बोले पर कई बार कवि का बोलना भी जरूरी होता है। दुनिया भर के रचनाकार इस बात पर एकमत हैं कि कविता कम बोलने वाली साहित्यिक विधा है, दूसरे शब्दों में कविता जितना बताती है उससे कहीं ज्यादा छुपाती है और इस छुपाने से ही बहुस्तरीयत और व्यंजना का निर्माण होता है। खास तौर से आज के बड़बोले समय में जब हर एक चीज विज्ञापन में तब्दील होती जा रही है, जब हर व्यक्ति सबसे ज्यादा अपने कंधे पर अपने ‘मैं’ को उठाये चल रहा है, असल में कविता की बात करना उस संस्कृति की बात करना है जिसमें कम बोलने, अपने बारे में चुप रहने को अच्छा और आत्म प्रचार को हल्कापन माना जाता था।
मुझे नहीं लगता कि रचनात्मक लेखन और अकादमी के लेखन में कोई विरोध है पर कम से कम हिंदी में ज्यादातर शैक्षिक संस्थानों में ऐसा ही कुछ माना जाता है। संभव है रचनात्मक लेखन को एपीआई न देना भी इसका एक कारण रहा हो पर चाहे जैसे हुआ हो पर कविता, कहानी को अकादमिक दुनिया में उस तरह से महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता जिस तरह समीक्षा आलोचना आदि को।
मैं कविता क्यों लिखता हूं या वह कौन सी चीज है जो लिखने को प्रेरित करती है, इस सवाल से टकराने पर एक सवाल मन में उठता है कि ‘मेरा होना क्या है?’ दार्शनिक देकार्त ने बहुत पहले कहा था ‘मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं’ इस तर्ज पर कहा जा सकता है कि मेरे पास भाषा है इसलिए सोचता हूं, और मेरे पास स्मृतियां हैं इसलिए भाषा है। कुल मिलाकर हमारा होना काफी हद तक स्मृतियों का और भाषा का होना है। अमेरिकी विद्वान इमर्सन ने तो भाषा को जीवाश्म कविता कहा था। कह सकते हैं कि भाषा सबसे ज्यादा कविता में रहती है या यूं कहें कि कविता सबसे ज्यादा भाषा में रहती है। कविता के लेखन के बारे में स्वीकार करूं कि कविता मेरे लिए सबसे पहले भाषा है साथ ही वह मेरे लिए एक स्पेस है, एक खाली जगह, या कहें कि स्मृतियों का एक ऐसा झरोखा है जहां से मैं खुद को देख सकता हूं, वह एक ऐसा आंगन है जो धीरे-धीरे हमारी फ्लैट वाली संस्कृति से तो गायब हो गया है पर कविता के बहाने मैं उस आंगन में पहुंच जाता हूं।
कविता वह स्पेस है, जहां खुलकर रो सकता हूं या जहां चुप रहने का बैनर टंगा हो वहां ठहाके लगा सकता हूं एक ऐसी जगह जहां समझौते करने का कोई दबाव नहीं है या एक ऐसी जगह जहां तमाम प्रकार के दबावों के कारण झुकी हुई रीढ़ को सीधा करके सुकून पा सकता हूं।
मेरी ज्यादातर कविताएं बचपन से और लोक संस्कृति से जुड़ती हैं। मेरे निर्माण में भोजपुरी लोक और उसकी प्रकृति-संस्कृति की बड़ी भूमिका रही है। भोजपुरी समाज आज भी बहुत भावुक समाज है और रिश्तो से संचालित होता है शायद इसीलिए बहुत पिछड़ा समाज भी है, पर इसका एक पक्ष यह है कि वहां कविता और संगीत के लिए जगह बाकी समाजों से कहीं ज्यादा है। हिंदी भाषा के ज्यादातर रचनाकारों का भोजपुरी क्षेत्र से आना इस बात के प्रमाण की तरह देखा जा सकता है। कविता के बहाने अक्सर मैं अपनी स्मृतियों और अपनी लोक परंपराओं का एक तरह का अनुवाद कर दिया करता हूं। लोक’ कविता का अद्भुत रसिया है, वह दिन रात कविता को ओढ़े बिछाए रहता है, लोक के मुहावरे, लोकोक्तियां, गालियां सब कविताएं हैं... लोक मेरे लिए कविता का खदान है... जो मेरी नजर में अच्छा था और जो हाथ से रेत की तरह फिसलता जा रहा है कविता में असफल ही सही पर उसे पकड़ने की कोशिश करता हूं या फिर ऐसा बहुत कुछ जिसे हमारे जीवन में होना चाहिए पर एक खास तरह की आपाधापी में जिस पर हमारा ध्यान भी नहीं जाता उसे कविता में दर्ज करने की चींटी बराबर कोशिश करता हूं। कविता मेरा कैनवास है जिस पर मनचाहे सपनों का रंग भर सकता हूं वे सपने अतीत के भी होते हैं और भविष्य के भी। मेरी नजर में जो है और जो होना चाहिए के बीच का जो गैप है उसे व्यक्तिगत स्तर पर कविता भर देती है। लिखना जरूरत या फैशन नहीं है एकदम शुरुआती दौर की किसी कविता में मैंने लिखा था-
''लिखना मेरी जरूरत नहीं
मजबूरी है
जैसे गहरा सदमा खाई स्त्री को
पीटकर रुलाना
कभी कभी शब्द भी
बचाते हैं हमें
बड़े हादसे से।''
निश्चित रूप से रचना में विचार आते हैं, बल्कि विचार से कहीं ज्यादा दृष्टि आती है। यह जरूर है कि दृष्टि हवा में नहीं पैदा होती उसके बनने में आपके भाव, विचार, संस्कार, संवेदना आदि की बड़ी भूमिका होती है। आपका जो सौंदर्य बोध है वह बहुत कुछ तय करता है और सौंदर्य बोध ही कुरूपता बोध भी हुआ करता है इसीलिए जो कुरूप है उस पर कविता पूरी ताकत से चोट भी करती है। विगत तीन चार वर्षों में मैंने सड़क पर 40-50 कविताएं लिखी हैं। असल में ये कविताएं सड़क पर नहीं, प्रकृति और संस्कृति पर लिखी गयी हैं। इनमें उस जीवन को पकड़ने की कोशिश है जिसमें हजारों प्रकार के पौधों, जंतुओं, संबंधों के लिए जगह हुआ करती थी जो धीरे धीरे सिमटती जा रही है और जो अंततः मनुष्यता के सिमटते जाने का प्रमाण है।
जब कहीं कुछ सुंदर दिखता है वह चाहे कुलांचे मारती समुद्री लहरें हों, या नमक भरा चेहरा, वह चाहे पूरे शरीर को मुंह के बल उठाए बलखाती जोंक हो या सड़क के धूल से संघर्ष करता पत्ता कविता जैसा कुछ उगने लगता है। वैसे ही अगर कुछ बदसूरत दिखे वह रूखी आवाज के रूप में हो या कुपोषित पौधे के रूप में, पहले लेख नहीं कविता ही याद आती है। मेरा मानना है कि कुछ भी न करना भी करना होता है या कहें उल-जुलुल करना भी मायने रखता है। हम अर्थ की तलाश में इतनी तेज और बेतहाशा दौड़ रहे हैं कि तथाकथित निरर्थकता और साधारण के सौंदर्य को भूलते जा रहे हैं। अक्सर छोटे बच्चों के करने और बोलने पर हम ध्यान नहीं देते पर मुझे उसमें गजब का अर्थ नजर आता है।
आखिरी बात, पॉलीटिकल करेक्टनेस और खूब सारी समझदारी कभी भी बहुत ज्यादा कन्वींस नहीं कर पाई। ये मुझे बहुत कृत्रिम लगते हैं और इनके होने पर दम घुटने लगता है। मैं थोड़ी बदमाशी या कहें थोड़ी छेड़खानी करना चाहता हूं, मैंने भगवान सिरीज की कुछ कविताएं लिखी थीं, सच कहूं तो ईश्वर की चुटिया खींचकर या उसे गुदगुदी कर भाग जाना चाहता हूं, हां यह कह दूं कि ईश्वर की कल्पना अक्सर स्त्री के या पेड़ के रूप में करता हूं। अब तक जो भी समझ बनी है यह बात ठसक के साथ कहना चाहता हूं कि जिंदगी इतनी भी बड़ी चीज नहीं है कि इससे बहुत गंभीरता से लिया जाए और इसके लिए खूब सारे समझौते किए जाएं। और यह बात सबसे ज्यादा मुझे कविता सिखाती है इसलिए घनानंद की तरह मैं कह सकता हूं कि कविता न केवल मुझे बनाती है बल्कि जब कभी भटकने लगता हूं तो उंगली पकड़कर सही रास्ता भी दिखाती है। जो मैं कहीं नहीं बोल सकता, रोजी रोटी आदि के दबावों में जहां मौन रह जाता हूं, कविता उसे बोलने की ताकत और स्पेस देती है। यह मुझे मेरे बचपन से मेरे गांव से, मेरी प्रकृति से और इस प्रकार सबसे ज्यादा ‘मुझे’ ‘मुझसे’ जोड़ देती है। कहीं ना कहीं कविता के बहाने मैं दूसरे लोगों को भी इनसे जोड़ने की कोशिश करता हूं इससे ज्यादा कविता से कोई अपेक्षा नहीं है। जानता हूं कि दिनोंदिन समाज में और खास तौर से हिंदी समाज में साहित्य की जगह कम होती जा रही है पर लिखना समाज के लिए भी होता होगा पर सबसे ज्यादा यह खुद के लिए है। यह एक तरह से मेरे वजूद का निर्माण करती है, कविता मैं इसलिए लिखता हूं इसके अलावा और कुछ कर ही नहीं सकता। यहीं पर समवेदना या संवेदना की बात आती है। हमारे पास समानंद या समखुशी जैसे शब्द नहीं हैं, संवेदना है यानी वेदना हमें जोड़ती है, कविता संघर्ष और वेदना के पक्ष में खड़ी होती है। सबसे शानदार कविताएं विपरीत परिस्थितियों में लिखी गयीं, युद्ध के माहौल में लिखी गयीं, ज्यादातर महाकाव्य युद्ध की गाथा कहते हैं, रामायण, महाभारत से लेकर इलियड तक क्योंकि जब जीवन पर सबसे बड़ा संकट आता है तो कविता याद आती है, हमारी भोजपुरी में बहुत विरह और कष्ट दोनों स्थितियों में स्त्रियां रोती हैं और रोते हुए गीत गाती हैं। प्रतिरोध में, संघर्ष में सबसे ज्यादा कविता ही क्यों याद आती है, यहां तक कि तानाशाह भी कविता लिखने लग जाता है, शायद इसलिए कि कविता हमें स्मृतियों से और बचपन से अनूठे ढंग से जोड़ती है। इस जोड़ने में बहुत तर्क और बुद्धि की जरूरत नहीं पड़ती।
कविता हमारा बचपन है, असल में बचपन तर्क और व्यवस्था को नकारता है, वह अपने जिज्ञासा भाव से, अपने प्रयोगों से हर चीज को आंकता है। जैसे बच्चे अनुशासन की चादर से पांव बाहर निकालते रहते हैं वैसे ही कविता भी अनुशासन तोड़ती है, वह चाहे भाषा का अनुशासन हो, विचार का हो या समाज का...
कविता मुझे नॉनसेंस की दुनिया में ले जाती है, नॉनसेंस होना सेंसलेस होना नहीं है। कविता के बहाने मैं अपने पाठक के कान में चुपके से पर जोर से एक सुरीला सा कूंSSSS कह कर भाग जाना चाहता हूं। एक ऐसा कूंSSSS जो पाठक को उसके बचपन से और उसकी स्मृतियों से जोड़कर, उसे उन तमाम दबावों से थोड़ा मुक्त करके उसके भीतर के खुराफाती से मिला दे, जो उसे ‘मैंपन’ से जोड़ दे, अगर मेरी कविता इतना कर देती है तो इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए।
धन्यवाद।
कुछ कविताएं
1. एक्सप्रेस सड़क
दो गांव थे
जैसे दो हमजोली
जैसे बड़े आंगन वाले पड़ोसी
आपस में बतियाते थे दुक्खम-सुक्खम
खट्टा वाला अचार लिए पहुंचता एक
तो मीठा बीजू दे जाता दूसरा
नैन मटक्का से गाली-गलौज तक का था रिश्ता
इतने करीब थे दोनों गांव
कि कुत्ते कन्फ्यूज रहते
अपनी सीमा को लेकर
फिर दोनों गांवों को
काट गयी एक एक्स्प्रेस सड़क
एक सुबह जब उठे लोग तो लगा
किसी ने पहाड़ लाकर रख दिया
दोनों गांव के बीचोंबीच
दूसरे गांव को लगा
किसी ने गहरी खाई खोद दी हमारे रिश्तों में
अब दूसरे गांव जाने के लिए
20 कि.मी. चलना पड़ता है।
कि सड़क की रफ्तार में
रोड़ा न अटकाएं गांव
चहारदीवारी लगा दी गई चारों ओर
दूसरे गांव में व्याही रजमतिया
रोज सरापती है सड़क को
बच्चे के लिए ले जाती थी
सुबह शाम नानी के पास से दूध
नानी का दुखता था जब पांव
बुला लेतीं रजमतिया को
जमीन लेते समय
जैसा कि सरकार ने बताया था
अब दोनों गांवों के बीच आ गया है
विकास
इतना चमकदार
इतना बड़ा
कि उसको छूने तक की नहीं है
गांववालों की हैसियत।
2. जब पहली बार सड़क बनी
जब पहली बार सड़क बनी
तो झूम गए खेत
नाच उठा गांव
रौनक आ गयी जवार में
नयी आस से भर गया हरिया
कि सड़क पर हो सवार
मंडी की सैर करेंगे खेत
शहर पहुंचेगा गांव
रंग बदलेगा गांव
धीरे धीरे बढ़ता गया
सड़क का पेट
उसमें समाते गए धनहर खेत
सड़कें चली थीं गांव की ओर
पर सडकों पर ऐसा उठा गुबार
कि खो गया गांव जवार
चौराहों का चक्कर काटता
गांव वर्षों से ढूंढ रहा अपना पता
अब कोई कहीं नहीं पहुंचता
सिर्फ सड़कें पहुंचती हैं
सड़कों तक।
3. सड़क की जाति
सड़कों की जाति होती थी
सड़कों की जाति होती है
अब भी
सड़कों का क्लास होता था
सड़कों का क्लास होता है
अब भी
बराबरी के तमाम दावों को
किनारे रख
कभी सड़कों को ग़ौर से देखना
सड़कें ठेठ मर्द होती हैं
अपने नाम से
नारी का भ्रम रचती हुईं।
( प्रमोद कुमार तिवारी, बिहार के कैमूर जिला में जन्म। हिंदी एवं लोकभाषाओं की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में पिछले 20 वर्षों से विविध विधाओं में रचनाएँ प्रकाशित और आकाशवाणी से प्रसारित। कविता संग्रह सितुही भर समय साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से प्रकाशित एवं तीन अन्य पुस्तकें प्रकाशित। गर्भनाल पत्रिका के लिए दो वर्षों से हर महीने भाषा केंद्रित स्तंभ लेखन। सम्प्रति : गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर में 9 वर्षों से प्राध्यापक। )
डॉ. प्रमोद कुमार तिवारी
हिन्दी अध्ययन केन्द्र, सेक्टर-29, गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय गांधीनगर-382030
9868097199, drpramodlok@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
प्रमोद भाई का आभार कि उन्होंने अपनी ज़रूरी कविताएँ अपनी माटी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाई
जवाब देंहटाएंकविताओं के बहाने बचपन, गाँव-गुवाड़, वेदना, संस्कृति, जिज्ञासा, मौन, युद्ध, संवेदना, शहरीकरण, अकेलेपन के अनगढ़ रिश्ते का ब्यौरा प्रस्तुत करता एक सारगर्भित लेख।
जवाब देंहटाएंविरही होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा ज्ञान।
नैनों से निकलकर चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।।
बेहद सुंदर कविताएं प्रमोद जी की।
हार्दिक आभार प्रशान्त कुमार जी
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