शोध आलेख : विश्व साहित्य की अवधारणा और फणीश्वरनाथ 'रेणु' का कथा साहित्य / एकता वर्मा
शोध-सार :
प्रस्तुत लेख विश्व साहित्य के भारतीय आयामों की पहचान करते हुए आंचलिक साहित्य के सापेक्ष उसके चरित्र पर केंद्रित है और मुख्य रूप से फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य को अपने आधार क्षेत्र में लिए हुए है। इसी संदर्भ में विश्व साहित्य की अवधारणा का परिचय देते हुए उसकी ऐतिहासिक विकास यात्रा, प्रमुख विचारक तथा उसकी विभिन्न धाराओं का विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है। यह लेख सार्वभौमिकता बनाम स्थानीयता की बहस पर विचार विमर्श प्रस्तुत कर उसे वैश्विक वर्चस्व की संस्कृतियों से जोड़कर देखता है तथा इस भ्रांति की कि ‘विश्व साहित्य का अस्तित्व स्थानीय संस्कृति की निरपेक्षता में है’ का खंडन करता है।
बीज-शब्द : विश्व साहित्य, सर्वदेशीयता, आंचलिकता, वर्चस्व, अस्मिता, उपनिवेशवाद, रोमांटिसिज़्म।
मूल आलेख :
विश्व साहित्य की अवधारणा समसामयिक बहसों में शामिल एक विवादास्पद एवं निर्माणाधीन अवधारणा है, जो यूरोप केंद्रित साहित्य के वर्चस्व को चुनौती मिलने, राष्ट्रवादी ताक़तों के उत्थान और भूमंडलीकरण आदि दशाओं से निर्मित हुई। 1827 में गेटे के द्वारा अपने सचिव जॉन इकरमैन से पत्राचार में इस विश्व साहित्य पद को प्रथम बार प्रचलित करने[1] के बाद आज तक इसे दो सौ साल होने को हैं और आज भी यह अवधारणा निरंतर अपना स्वरूप निर्मित करने की प्रक्रिया में है। आधुनिक समय में यह भूमंडलीकरण, सर्वदेशीयता (Cosmopolitanism) व अंतरराष्ट्रीयता (Transnationalism) की ओर रूख करते हुए इन अनुशासनों का साझा केंद्रीय बिंदु बनकर उभरी है।
ऐसा कहा जा सकता है कि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं भौगोलिक भिन्नताओं के बावजूद समस्त मानव जाति की एक साझा संस्कृति है। उसके दुःख एक जैसे हैं, अभाव, भूख, ग़रीबी, युद्ध, असमानता, शोषण की विभीषिका उनके लिए एक जैसी है। उनका प्रेम एक जैसा है, उनका संघर्ष एक जैसा है। ऐसे में साझेपन की इस संस्कृति को मनुष्य जब रचनात्मक होकर साहित्य रूप में प्रतिबिम्बित करता है, तब वह रचा गया साहित्य ‘विश्व साहित्य’ कहलाता है। वैसे तो इसकी चर्चा उन्नीसवीं शताब्दी से शुरू है लेकिन विशेष रूप से यह अनुशासन इक्कीसवीं शताब्दी में विकसित हुआ।
भारत में विश्व साहित्य पर चिंतन शुरू करने की परंपरा का श्रेय रवींद्रनाथ टैगोर को दिया जाता है, जिन्होंने फरवरी 1907 में कोलकाता में इंडियन नेशनल काउंसिल आफ एजुकेशन में तुलनात्मक साहित्य पर व्याख्यान देते हुए ‘तुलनात्मक साहित्य’ की जगह ‘विश्व साहित्य’ पद के प्रयोग का आह्वान किया था।[2]
भारत जैसे देश जो अपनी भाषिक, धार्मिक एवं जातीय संरचना में बहुवचन प्रकृति के होते हैं, उनके साहित्य अपनी प्रकृति में कुछ विशिष्टताएँ धारण किए होते हैं। इन विशिष्टताओं को समझे बिना विश्व साहित्य के समांतर इन साहित्यों को परखना असंगत है।
- · बहुसांस्कृतिक परिवेश में रचित साहित्य में अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सचेतता रहती है फलतः आंचलिक तत्वों की स्वस्थ उपस्थिति रहती है।
- · यह साहित्य अन्य भाषाओं एवं साहित्य के साथ सहअस्तित्व की स्थिति में रहते हुए, बहुत कुछ सहिष्णु हो जाते हैं और इसलिए प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से विश्ववाद की पैरवी करने वाले साहित्य रूप में विकसित होते हैं।
यहाँ ये दोनों बिंदुओं अर्थात् ‘अपनी अस्मिता के प्रति सचेतता’ और ‘विश्ववाद की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष पैरवी’ के बीच का जो तनाव है, वह विश्व साहित्य की प्रमुख बहस ‘विश्ववाद बनाम स्थानीयता’ से जुड़ता है और वही विश्व साहित्य में रेणु के साहित्य को परखने की ज़मीन भी है। विश्ववाद बनाम स्थानीयता (Universalism vs Localism) की यह बहस विश्व साहित्य में बहुत संदिग्ध दृष्टि से देखी गयी है। कारण यह रहा कि स्थानीयता को राष्ट्रीय इकाई से जोड़कर और मोटे तौर पर उस राष्ट्रवादी पहचान से सम्बोधित किया गया जिसकी नकार विश्व साहित्य की प्रथम शर्त थी। यहीं से आंचलिक तत्वों से सम्पन्न साहित्य को वैश्विक परिधि से बहिष्कृत करने की कोशिश शुरू हुई। रेणु का साहित्य भी अपने आंचलिक कलेवर के चलते इन प्रश्नों से टकराया।
विश्व साहित्य को परिभाषित करते हुए जब गेटे कह रहे थे कि “National literature now
signified very little that the epoch of world literature is dawning and all the individuals must work to speed up.”[3]
(अब राष्ट्रीय साहित्य का महत्व बहुत कम हो गया है अब विश्व साहित्य के युग का आविर्भाव हो रहा है और इसकी स्थापना के लिए हर एक व्यक्ति को प्रयास करना होगा।)
यहाँ गेटे उसी बनामवादी दृष्टिकोण से बोल रहे हैं। यह परिभाषा देते हुए वे वहीं खड़े हैं जहाँ खड़े होकर रेणु के साहित्य को आंचलिक कहकर सम्पूर्णता की मुख्यधारा से बेदख़ल किया जाता है। एक तरफ उनके लेखन को एक श्रेणी में सीमित करने का प्रयास रहता है, तो दूसरी तरफ़ आंचलिक छवियों मसलन भाषा और सांस्कृतिक तत्वों के समावेशन का हवाला देकर स्रोत-भाषा परिधियों से बाहर उनके साहित्य को अप्रासंगिक घोषित करने के फ़तवे ज़ारी होते हैं। दरअसल राष्ट्रीय अस्मिता को छोड़कर साहित्य सृजन करना गेटेवादियों का ‘ग्रेट पावर पर्सपेक्टिव’ ही था। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से लड़ रहे तीसरी दुनिया के देशों के साहित्य का बड़ा हिस्सा अपनी भाषायी, सांस्कृतिक अस्मिताओं की सचेत ज़मीन पर लिखा गया और जिनमें से कितनी ही विश्व साहित्य की अमूल्य कृतियाँ हैं। ऐसे में उन्हें यह कहकर कि उस साहित्य में राष्ट्रीय या स्थानीय इकाई से जुड़े तत्व हैं, ख़ारिज नहीं किया जा सकता। इस क्रम में वर्नर फ़्रेड्रिक ने विश्व साहित्य के लिए ’’नाटो साहित्य...या शायद वो भी इसके लिए बड़ा शब्द होगा” कहकर विश्व साहित्य के नाम पर वर्चस्व की ही संस्कृति को पोषित करने के प्रयास पर तंज कसा था।[4]
रेणु के साहित्य की आंचलिकता, गँवई भाषा, अनछुए लोकगीत, अनगढ़ ठेठ देसी चरित्र उनके साहित्य की एक बड़ी विशिष्टता है, जिसको साहित्य की जीवंतता पर बात करते हुए अक्सर रेखांकित किया जाता है। विश्व साहित्य के पटल पर रेणु की यह विशिष्टता एक बड़े ऐतिहासिक संघर्ष ‘रोमांटिसिज़्म’ से जुड़ती है।
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध, प्रबोधन के आभिजात्य विश्ववाद के सम्मुख जो रोमांटिसिज़्म उठ खड़ा हुआ था, वह फ़्रेंच संस्कृति के वर्चस्व के ख़िलाफ़ जर्मन भाषा समूह का आह्वान था। एक थोपी हुई विदेशी संस्कृति के ख़िलाफ़ अपनी विरासत, मातृभाषा, अनछुए लोकगीत, आदिम भावनाओं के सहज उच्छलन को पहचान देने की माँग थी। इस रोमांटिसिज़्म ने साहित्यिक-सांस्कृतिक वर्चस्व के सम्मुख अपनी अस्मिताओं को स्थापित करने का जो प्रयास किया था, उसने साहित्य की दुनिया में एक लोकतंत्र क़ायम किया। रेणु ने अपनी रचनाओं में साहित्य की दुनिया के इसी लोकतंत्र को रचने का प्रयास किया। उनके साहित्य में राष्ट्रीयता, स्थानीयता और आंचलिकता की वही छवि आती रही, जिसे मार्क्स और एंगल्स ने अपने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में विश्व साहित्य को परिभाषित करते हुए रेखांकित किया था-
“The
intellectual creations of individual nations of become common property.
National one-sidedness and narrow-mindedness become more and more impossible
and from the numerous national and local literatures, there arises a world
literature.”
(देशों की अपनी बौद्धिक निर्मितियाँ साझी सम्पत्ति बनेंगी। राष्ट्रीय एकपक्षधरता और संकीर्ण मानसिकता अधिक से अधिक दुर्लभ होंगी तथा राष्ट्रीय और स्थानीय साहित्य से विश्व साहित्य का आविर्भाव होगा।)[5]
रेणु स्थानीय साहित्य से विश्व साहित्य की यात्रा को समझ रहे थे। उनके साहित्य में स्थानीयता, आंचलिकता का चुनाव जो स्थानीय ज़मीन से उपजा था, पल्लवित वैश्विक जगत की साहित्यिक बहसों से भी हुआ था। रेणु अपने निबंध ‘पतियाते हैं तो मानिए आंचलिकता भी एक विधा है’ में विश्व के आंचलिक लेखन पर विचार मंथन किया है। इस क्रम में उन्होंने मिखाइल शोलोखोव की आंचलिक पुस्तक ‘कुमारी धरती का जागरण (वर्जिन सायल अपटर्न्ड)’ जिसमें दन अंचल के ग्रेमियाची लंग कागासी गाँव की कथा है, हैमसुन के ‘ग्रोथ आफ सायल’, युगोस्लावियन लेखक इवो आंद्रिच की सर्बिया प्रांत के बार्स्तनमा अंचल की कहानी ‘द्रिना नदी का पुल और स्वात दरवेश,’ नाज़िम हिकमत के ‘अंकारा का बंदी’ पर बात करते हैं। इसके साथ वे बांग्ला के उपन्यासकारों शैलजानंद ताराशंकर बंद्योपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी, मानिक बंद्योपाध्याय, समरेश बसु शरतचंद्र के उपन्यासों के लिए कहते हैं कि इनके अनुवाद आंचलिक भाषा के बग़ैर नहीं हो सकते। यहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि रेणु आंचलिकता का चरित्र तो समझ ही रहे थे, साथ ही उसकी सम्भावनाओं पर काम करते हुए और मजबूत स्थिति में स्थापित करना चाह रहे थे। यहाँ रेणु अनूदित रचनाओं की अजनबियत को कम करके लक्ष्य- संस्कृति में ढालने का एक तरीक़ा भी बता रहे थे। इस तरह एक तरफ़ तो रेणु सजग रूप से उस ‘नेटवर्क’ को बुन रहे थे जिसकी आवश्यकता को अक्सर विश्व साहित्य के संदर्भ में रेखांकित किया जाता है तो दूसरी तरफ़ विश्व साहित्य की कृतियों के स्व-संस्कृति अनुकूलन की बात कर विश्व साहित्य की सैद्धांतिकी मज़बूत कर रहे थे।
रेणु के साहित्य में उस ऐतिहासिक कालखंड की बहुत बारीक विश्लेषित कथा रहती है, जिस कालखंड की उत्पत्ति वह रचना होती है। फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास स्वतंत्र भारत में टूटने-बिखरने, नई परिस्थितियों में नया आकार ग्रहण करते गांवों की दास्तान हैं। वह गांव अपनी परंपरा, समाज, संस्कृति और राजनीति से बेमिसाल ढंग के आकर्षण और टकराहट से निर्मित मनुष्य समुदाय हैं जो भारतीयता की पहचान है। मैला आंचल, परती परिकथा एवं उनकी कहानियों में नेहरू युगीन भारतीय परिदृश्य देखने को मिलेगा। जिसमें अंचल की परम्परा, रेणु का समाजवादी आदर्श और राजनीतिक दृष्टि से यथार्थवादी समाज की ठोस वास्तविकता है। रेणु के कथा साहित्य की संगीतात्मकता एक साधारण ग्रामीण कहानी को साहित्य में विशिष्ट बना देती है इसलिए रेणु कथा साहित्य के शिल्प में सिद्धहस्त कहे जाने चाहिए। रेणु के कथा साहित्य में एक सौंदर्य का कार्निवाल देखने को मिलता है जिसमें जीवन का हर एक रंग, गंध और सुरों की धारा सी बहती है। उसमें सामाजिक संघर्षरत मनुष्य के दुख-सुख और हास–विलास, रंग और चेतना का लोकमय अविरल प्रवाह वर्तमान है। मस्तिष्क और हृदय का ऐसा समन्वय रेणु की रचनाशीलता को वैश्विक दर्जे का कथाकार घोषित करता है। मैला आंचल और परती परिकथा लेखकीय परिपक्वता का बहुत बड़ा प्रमाण है जिसमें सारे किरदार और समाज अपने परिवेश में जीवित वैश्विक मनुष्य हैं। उनका साहित्य शिल्प भी भारतीय कथा साहित्य में अद्वितीय मास्टरपीस है। इन उपन्यासों में स्थानीयता इनके साहित्य की असीम ताकत है जो इन्हें वैचारिक गहराई प्रदान करते हुए राष्ट्रीय साहित्य का प्रतिबिंबन भी करती है फलस्वरूप साहित्य की वैश्विक पहचान निर्मित होती है। इसलिए रेणु का यह जातीय यथार्थ और उसकी पहचान क्षेत्रीय ही नहीं वैश्विक भी है, इनकी आंचलिक अस्मिता के केंद्र में मानवीय संवेदनाएं, सांस्कृतिक सद्भावना के साथ सामाजिक विकास एवं सामाजिक न्याय है। रेणु की कहानियाँ भारतीय ग्रामीण मानव की स्पंदित जीवन रेखा हैं। प्रमुख कहानियाँ 'तीसरी कसम', 'लाल पान की बेगम', 'ठुमरी', 'रस प्रिया', 'एक आदिम रात्रि की महक', 'विघटन के क्षण', ‘अग्निखोर’, ‘ठेस’, ‘संवदिया’ आदि कहानियाँ विश्व कहानियों की श्रेणी में शीर्ष स्थान ग्रहण करने की क्षमता रखती हैं। रेणु की इन कहानियों ने सिर्फ भारतीय पाठकों और बुद्धिजीवियों को ही प्रभावित नहीं किया बल्कि विश्व के तमाम लेखकों एवं पाठकों को भी आकर्षित किया है। इन्हीं विशिष्टताओं के चलते उमा शंकर जोशी अपनी पुस्तक ‘द नोवेलिस्ट्स क्वेस्ट फार इंडिया’ में रेणु को ‘वैश्विक ख्याति प्राप्त लेखक’
(universally acclaimed writer)[6]
कहा है। यह रेणु की विशेषता है कि वे एक विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भ से अपना कार्य शुरू करते हैं और फिर उसे इतना व्यापक कर देते हैं कि वह रचना वैश्विक मूल्य की हो जाती है। याद रहे कि ये दोनों छोर विश्व साहित्य के प्रमुख सूत्र हैं। जार्ज ब्रांडेस जिन्होंने गेटे की विचार परम्परा को विश्लेषित करते हुए उसे आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, उन्होंने ‘एक ठोस ऐतिहासिक संदर्भ (a concrete historical
context)’[7]
के अभाव में लिखे गये साहित्य को साहित्य के प्राण से वंचित माना। दूसरा बिंदु कि रचना अपना क़द इतना बढ़ा ले कि अपने मूल संदर्भों, भाषायी संस्कृतियों के बाहर की दुनिया को अभिव्यक्ति दे सके, इस पर जार्ज ब्रांडेस कहते हैं-
“The world
literature of the future will become all the more captivating the more the mark
of the national appears in it and the more heterogeneous it becomes, as long as
it remains a universally human aspect as art and science.”[8]
(विश्व साहित्य का भविष्य तब और अधिक मनोरम हो जाएगा, जब उसमें राष्ट्रीय तत्वों की मौजूदगी बढ़ेगी और साहित्यिक विविधता आएगी। और यह तब तक सम्भव होगा, जब तक कला और विज्ञान वैश्विक मानवीय पक्ष धारण किए रहेगा।)
रेणु की रचनाओं में जिन मूल्यों और सिद्धांतों की अभिव्यक्ति होती है, वे विराट मानवीय सत्य हैं। संसार का प्रत्येक शोषित पीड़ित व्यक्ति रेणु की लेखनी का विषय है और यही उन्हें एक बड़ा साहित्यकार, विश्व साहित्य का साहित्यकार बनाता है। मैला आँचल की जो जाति की समस्या है, अफ़्रीका के ब्लैक लिटरेचर के अंतःकरण से जुड़ती है। “डाक्टर का रिसर्च पूरा हो गया, एकदम कम्पलीट। डाक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है ग़रीबी और जहालत इस रोग के दो कीटाणु हैं।”[9]
रेणु का यह निष्कर्ष ठेठ मेरीगंज का उतना ही है, जितना असमानता से उपजी वैश्विक दरिद्रता का। रेणु की लेखनी जब भारत के साम्राज्यवादी और उपनिवेशी ताक़तों के ख़िलाफ़ जन संघर्ष को लिख रहे होते हैं तब वे तीसरी दुनिया के उन सभी देशों का चरित्र लिख रहे थे जो स्वाधीनता संग्राम लड़ रहे थे। नया बनता देश बुर्जवा पूँजीवादी व्यवस्था अपनाएगा कि समाजवाद आधारित व्यवस्था चुनेगा, इन विषयों पर बात करते हुए रेणु तत्कालीन वैश्विक पटल की राजनीति और उसकी करवटों पर बारीक नज़र रख रहे थे। लेखन में यह रेणु की ‘विश्व दृष्टि’ थी। किसी समस्या को समझकर वैश्विक पटल के प्रकाश में उसे तराशना रेणु को बख़ूबी आया और यही कारीगरी उन्हें विश्व साहित्य के रचनाकारों में खड़ा करती है। याद रहे कि जार्ज ब्रांडेस ने विश्व साहित्य की इसी विशिष्टता को ‘मैग्नीफाइंग टेलीस्कोप’ की उपमा दी थी।
रेणु का साहित्य विश्व साहित्य की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। अपनी भाषा में उनका आंचलिक चुनाव टैगोर का वह भाषायी आग्रह है जिसके अंतर्गत वे साहित्य को मातृभाषा में रचे जाने की बात करते हैं और मातृभाषा के साहित्य को वह राष्ट्रीय सीमाओं से मुक्त करते हैं। हालाँकि बहुभाषी देशों में वर्चस्व की भाषा में लिखना बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचने का प्रलोभन प्रस्तुत करता है किंतु विषयवस्तु के अनुरूप, अभावों के सबसे निचले स्तर पर जीने वाले समाज की पीड़ा लिखते वक़्त कोई बाहरी भाषा उतनी संजीदा नहीं हो सकती और रेणु इस बात को भली भाँति समझते थे। रेणु की यह प्रवृत्ति कि वर्चस्व की भाषा के सम्मुख अपना सहज भाषायी चुनाव और लोक संस्कृति एवं लोक गीतों के लिए जगह बचाए रखना उन्हें वैश्विक पटल के साहित्यकारों में खड़ा करता है। स्व. राजेंद्र अवस्थी ने एक किताब प्रकाशित की थी-- श्रेष्ठ आंचलिक कहानियाँ। उसमें रेणु के एक साक्षात्कार का ज़िक्र है। रेणु से प्रश्न किया गया था लोकगीत और लोककथा के बारे में। रेणु ने अपने जवाब में कहा था कि बिना लोकगीत और लोककथा के कोई लिखकर दिखा दे तो मान लूँगा।[10] यानी आँचलिकता में सांस्कृतिक तत्वों की उपस्थिति अनिवार्य है। विश्व साहित्य की अवधारणा के विकास के आरम्भिक दौर में भाषाई वर्चस्व पर गम्भीर स्तर के प्रयास हुए। विश्व साहित्य की अवधारणा पर आधारित तुलनात्मक साहित्य के प्रथम पत्र ‘the Acta Comprationis
Litterarum Universarum’ के सह-सम्पादक, ह्यूगो मेल्ट्ज ने इस अवधारणा के विकास में दो रणनीतियाँ अपनायी। पहली कि वैश्विक साहित्य की उत्कृष्ट रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन (विशेषकर बड़े देशों के विकसित साहित्यिक संस्कृति में रची गयी कृतियाँ) और दूसरी कि मौखिक और लोक साहित्य के अध्ययन और अध्यापन को वैश्विक पटल पर लाने का प्रयास किया जाए। ह्यूगो जो वैश्विक स्तर पर साहित्य सृजन की सैद्धांतिकी प्रस्तुत कर रहे थे, बहुभाषी भारत में रेणु उसे साहित्य सृजन द्वारा व्यवहारिक रूप में प्रयुक्त कर रहे थे।
इस विषय पर आधुनिक विश्व साहित्य चिंतक डेविड डैमरोश्च अपनी पुस्तक ‘व्हाट इज़ वर्ल्ड लिटरेचर’ में लिखते हैं कि- “We encounter the work not
at the heart of its source culture but in the field of force generated among
the work that may come from very different cultures And eras.” (हम किसी कृति को उसकी स्रोत संस्कृति से नहीं, बल्कि भिन्न संस्कृतियों और युगों में रचे गए साहित्यों के बीच उसकी उत्कृष्टता के बल से पहचानते हैं।)[11]
इसी समझ के आधार पर वे विश्व साहित्य को परिभाषित करने का प्रयास भी करते हैं। वे विश्व साहित्य के लिए तीन शर्तें रखते हैं-
1. उसमें राष्ट्रीय साहित्यों का (elliptical refraction) प्रतिबिम्बन हो।
2. जिसका अनुवाद हुआ हो और अपनी भाषायी सीमाओं से बाहर गयी हो।
3. जिसमें विश्व दृष्टि हो और जिसमें अपने देश-काल से बाहर लक्ष्य भाषा के परिवेश, उसके समाज से जुड़ सकने का माद्दा हो।
रेणु की कृतियाँ इन मानकों पर खरी हैं। डेविड जिस generated force की बात कर रहे हैं, brandes उसे ही ‘vitality and power’ कहते हैं। रेणु व्यक्ति के मानसिक जगत, परिवेश, प्रकृति और मनुष्य के बीच विकसित सम्बंध, परम्परा से प्राप्त मानवीय सौहार्द की इतनी शानदार समझ रखते हैं कि इनका समग्रता में खींचा गया चित्र बहुत मोहक बन उठता है। समस्याएँ अपने पूरे चरित्र के साथ ज़मीन के बहुत गहरे से उठती हैं, चरित्र अपने सम्पूर्ण इतिहासबोध को लेकर बुने जाते हैं, वर्तमान अपनी पूरी बेचैनी के साथ प्रतिष्ठित होता है, घटनाएँ तो इतनी जीवंत बन पड़ती हैं कि कृतियाँ पन्नों में धुकधुक करती हैं। समाजशास्त्र, मनोविश्लेषण, मानवशास्त्र, राजनीतिविज्ञान, संगीत, इतिहास और न जाने कितने अनुशासन हैं, जहाँ से तिनके इकट्ठे कर रेणु अपनी रचना को बुनते हैं। इस तरह जो बनकर तैयार होता है उसमें मानवीय मन को आकर्षित करने की बेहतरीन क्षमता होती है। विश्व साहित्य के इस पक्ष पर रेणु मज़बूत हैं।
यूनीवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया में कैथरिन गे हैंसन के द्वारा किए गए शोध कार्य ‘फणीश्वरनाथ रेणु : द इंटीग्रेशन आफ रूरल एंड अर्बन कांशियसनेस इन द माडर्न हिंदी नावेल’ में शोधकर्ता ने रेणु के साहित्य पर गहन चिंतन प्रस्तुत किया है। वे रेणु को आंचलिक उपन्यासकार की श्रेणी में ही मुख्य रूप से परिभाषित किए जाने के पक्ष में नहीं दिखते। अपने शोध में कहते हैं कि आंचलिकता का उत्थान भारतीय साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था और रेणु इसके जनक थे लेकिन बावजूद इसके रेणु के साहित्य का महत्व केवल अंचल विशिष्ट को चित्रित करने में नहीं है। हाँ ऊपरी सतह पर इसका भ्रम अवश्य हो सकता है किंतु जब कृति की सम्पूर्ण व्यवस्था, शैली और फार्म के संदर्भ पर गौर करेंगे तो देखेंगे कि सृजन का मुख्य केंद्र अकेली आंचलिकता का चित्रण नहीं अपितु ग्रामीण आंचलिक जीवन मूल्यों तथा नवीन आधुनिक समाज के बीच के गत्यात्मक तनाव(dynamic tension) का चित्रण करना है। कैथरिन के ही शब्दों में-
“His interest
is not the region in isolation, it is the interaction between the region and the
larger world. Often this is expressed in his writing as the complementarity of
traditional and modern world views.” (उनकी रुचि अकेले अंचल को चित्रित करने में नहीं है अपितु अंचल और विश्व के बीच के संवाद को चित्रित करने में है। यह अक्सर उनके लेखन की परम्परा और आधुनिक वैश्विक-विचार की संपूरकता में अभिव्यक्त होता देखा जाता है।)[12] इस तरह हम पाते हैं कि रेणु का साहित्य आंचलिक तत्वों की प्रस्तुति में राष्ट्रीय साहित्य का प्रतिबिम्बन करता है, साथ ही अपनी विषय वस्तु में वैश्विक मानवीय सत्यों का उद्घाटन कर लक्ष्य भाषा के परिवेश से जुड़ सकने, उसके मुद्दों को सम्बोधित करने की क्षमता भी रखता है; इस तरह वह विश्व साहित्य के मानकों पर खरा उतरता है। स्विस लेखक सी एफ हमूज़ जिन्हें विश्व साहित्य के रचनाकारों में गिना जाता है, वे भी रेणु की तरह लगभग इसी कलेवर में साहित्य सृजन करते हैं। आंचलिकता और विषयवस्तु सम्बंधी उनकी समझ का ज़िक्र यहाँ प्रसंगानुकूल है-
“People have always accused
me of being narrow minded because I have always sought to represent a very
small regional space [..] However this local space for me is only the launch
pad of a trampoline which lets me soar high up and come back, only to rise up
again...” (Ramuz, 1970).[13] (किसी छोटे अंचल में कथा प्रतिबिम्बित करने के कारण लोगों ने मुझ पर संकीर्णता का आरोप लगाया... हालांकि मेरे लिए यह स्थानीय अंचल केवल एक ट्रैम्पोलिन का लॉन्च पैड की तरह है जो मुझे ऊँचाई तक जाने और वापस लौट आने की अनुमति देता है ताकि मैं दोबारा वहाँ पहुँच सकूँ।)
इस तरह हम देखते हैं कि विश्व साहित्य के पटल पर आंचलिक साहित्यकारों को परखने की बहसें अलग हैं। बहसों से इतर पूर्वाग्रह भी हैं और वर्चस्व का दमन भी है। रेणु का साहित्य या उनके अनुरूप विश्व का कोई अन्य आंचलिक साहित्यकार तभी विश्व साहित्य की परिधि में गिना जा सकता है जब यह अवधारणा ह्यूगो वाले विश्व साहित्य के रूप में विकसित हो। ह्यूगो की परम्परा यानी मौखिक और लोक साहित्य को मुख्यधारा के साहित्य में ले आना और तब समग्रता की ज़मीन पर विश्व साहित्य का नक़्शा चिन्हित करना। आंचलिकता की प्रौढ़ समझ विश्व साहित्य को मज़बूत करती है और विश्व साहित्य की समझ आंचलिकता को। दोनों के मध्य अन्योन्य सम्बंध है। इसलिए विश्व साहित्य के पटल पर रेणु के साहित्य को देखना जितना रेणु की परम्परा को सुदृढ़ करना है, उतना ही विश्व साहित्य की अवधारणा को विकसित करना है।
सन्दर्भ :
[1] Johann
Wolfgang Von Goethe; Origin and relevance of Weltliteratur essay by John Pizer,
compiled in ‘The Routledge companion to world literature’,edited by- Theo
D’haen,David Damrosch and Djelal Kadir,First published 2011 by Routledge, page
no- 4
[2] Das, Comparative literature in India: A
Historical Perspective, page no. 26
[3] Johann Peter Eckermann, J. W. Von Goethe:
Conversation with Eckermann,
North Point Press, 1994, page no- 132
[4] Friedrich, 1960, Year book of comparative and
general literature, page no- 14-15
[5] The Communist manifesto by Friedrich Engels
and Karl Marx, 1848 page no- 16
[6] The novelist’s quest for India by Umashankar
Joshi page no.60
[7] George Brandes; the telescope Of comparative
literature essay by Svend Erik Larsen compiled in ‘The Routledge companion to
world literature’, edited by- Theo D’haen,David Damrosch and Djelal Kadir,First
published 2011 by Routledge, page no- 26
[8] उपर्युक्त, पृष्ठ सं. 26
[9] मैला आँचल; फणीश्वरनाथ रेणु, रेणु रचनावली,
भाग-2, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2007, पृष्ठ- 181.
[10] आंचलिकता और मैला आँचल लेख, नित्यानंद
तिवारी, नया पथ सं-रवि
वर्मा अप्रैल-जून 2020
[11] ‘What is World Literature’ book by David
Damrosch Princeton University Press, published in 2003, page no- 300
[12] The Integration of rural and urban
Consciousness in modern Hindi Novel research work by Kathryn Gay Hansen,
University of California, 1978
[13] Ramuz, 1970; Article-Regional or Universal literature? – A comparative study of the novelistic spaces of C.-F Ramuz and R.K. Narayan International Journal of Scientific and Research Publications, Volume 4, Issue 5, May 2014. page- 13.
एकता वर्मा, शोधार्थी (दिल्ली विश्वविद्यालय), ektadrc@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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