शोध आलेख : समय के जीवंत दस्तावेज़ : रेणु के रिपोर्ताज / वन्दना भारद्वाज और डॉ. विजय कुमार प्रधान
शोध सार :
फणीश्वरनाथ रेणु को आँचलिक कथाकार के रूप में विशेष ख्याति मिली। लोक संस्कृति के संवाहक रेणु न केवल एक उपन्यासकार और कहानीकार थे, बल्कि एक श्रेष्ठ रिपोर्ताज लेखक भी थे।
प्रेमचंद के समान उनके ह्रदय में भी भारत की आम जनता के प्रति मानवीय संवेदना व गहरी सहानुभूति थी जो उनके रिपोर्ताज लेखन में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। वास्तविक जीवन की घटनाएँ, आपदाएँ, वर्गीय शोषण आदि रिपोर्ताज में आकार जीवंत हो जाती हैं। साहित्य की महत्वपूर्ण विधा पर रिपोर्ताज लेखन पर चर्चा न के बराबर होती है। आज के समय में इस प्रकार का रिपोर्ताज लेखन दुर्लभ है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय रिपोर्ताज लेखन कला का विकास हुआ मगर आज इस साहित्य विधा पर विमर्श आवश्यक है। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने रिपोर्ताजों के माध्यम से भ्रष्टाचार, जातिवाद, सामाजिक असमानता, धन लोलुप राजनीतिज्ञों, कृषक व मज़दूर वर्ग की पीड़ा को न केवल दर्शाया, अपितु एक नए और सच्चे अर्थों में स्वतंत्र भारत का स्वप्न भी दिखाया। हमारे लिए आवश्यक है कि हम उनके रिपोर्ताजों का अध्ययन कर उनकी विशेषताओं को जानें और समझें। वर्तमान समय में हमें उनके रिपोर्ताजों से प्रेरणा लेनी चाहिए और उनका अनुशीलन करना चाहिए तभी हम समाज को जागृत कर साहित्य की सच्ची सेवा कर सकेंगे।
बीज शब्द : रिपोर्ताज, सत्य, तथ्य, मार्मिकता, तादात्म्य, हृदयग्राही, आँचलिक, स्वर, बहुलता, दृश्य, साक्षी, कोसी मैया, अविस्मरणीय, जागृति।
मूल आलेख :
साहित्य लेखन की अनेक विधाओं में से एक अनुपम विधा ‘रिपोर्ताज’ है जो सत्य घटनाओं पर आधारित है। इसमें घटना के सभी तथ्य तो विद्यमान होते ही हैं, साथ ही मानवीय संवेदनाएँ भी होती हैं। रपट विशेष रूप से समाचार-पत्रों के लिए लिखी जाती है, परन्तु उनमें साहित्यिकता नहीं होती है। रपट तथ्य प्रधान होती है। रिपोर्ताज में उस घटना से जुड़े लोगों की भावनाओं, रचनात्मकता तथा मार्मिकता का समावेश होने पर ये पाठक पर अपना कलात्मक प्रभाव छोड़ने लगती हैं ।रिपोर्ट केवल तथ्य प्रधान होने के कारण नीरस या निष्प्राण हो सकती है, परन्तु रिपोर्ताज में तथ्यों के साथ-साथ भाव भी होते हैं, सुख-दुःख का समावेश होता है। रिपोर्ताज लेखक घटना से जुड़े प्राणियों के दुःख में आहत और सुख में प्रसन्न होता है। लेखक और घटनाक्रम के प्राणियों के भावों का तादात्म्य होने के कारण लेखक उन क्षणों को स्वयं भी जीता है तथा प्रत्येक रागानुराग की अनुभूति उसे भी होती है। डॉ. वीरपाल वर्मा ने रिपोर्ताज विधा को पारिभाषित करते हुए लिखा है, “रिपोर्ताज एक ऐसी विधा है, जिसमें किसी घटना प्रायः सार्वजनिक का अति सूक्ष्म एवं हृदयग्राही विवरण इस प्रकार दिया जाये कि वह पाठक की आँखों के समक्ष चित्रपट के चित्र की भांति सजीव हो उठे।”1 विदेशी साहित्य के प्रभाव स्वरूप हिन्दी साहित्य में रिपोर्ताज लिखने की परंपरा प्रारंभ हुई। हिन्दी साहित्यकार प्रकाशचंद्र गुप्त, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे, अमृतराय, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, प्रभाकर द्विवेदी, फणीश्वरनाथ रेणु ने रोचक रिपोर्ताज लिखे। रांगेय राघव तथा फणीश्वरनाथ रेणु ने लगभग एक ही समय पर रिपोर्ताज लिखना प्रारंभ किया। रांगेय राघव ने बाद में इस विधा में ज़्यादा कुछ नहीं लिखा, अन्य लेखकों के साथ भी ऐसा ही रहा। परन्तु, फणीश्वरनाथ रेणु अपनी रचनाशीलता के अंतिम दौर तक रिपोर्ताज लिखते रहे और हिन्दी भाषा के श्रेष्ठ रिपोर्ताज लेखक के रूप में उभरकर सामने आए।
फणीश्वरनाथ रेणु एक प्रगतिशील रचनाकार रहे हैं। उन्होंने समाज की वर्णव्यवस्था तथा जातिवाद को ढकने का प्रयास कभी नहीं किया, बल्कि अपने रिपोर्ताजों के माध्यम से उन्हें उघाड़कर रख दिया। वे स्वतंत्र भारत को वर्णव्यवस्था व जातिगत भेदभावों, मतभेदों, भ्रष्टाचार और धन-लोलुप भ्रष्ट राजनेताओं की कुत्सित इच्छाओं की बेड़ियों से मुक्ति दिलाना चाहते थे। 17 सितम्बर, 1950 के जनता
के अंक में प्रकाशित उनके रिपोर्ताज ‘हड्डियों का पुल’ में उन्होंने जीवन की विसंगतियों को दिखाया है। इसमें पूर्णिया में हुए अकाल और उसके प्रभावों का वर्णन है। ऐसी आपदा के समय भ्रष्ट राजनेताओं के झूठ और विलास का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं, “हूँ.....हल्ला मचा दिया ....अकाल का
तांडव-नृत्य .......लोग मर
रहे हैं।.....झूठे!” देवदूतगण एक-दूसरे का मुँह देखते हैं। ऑफीसरों की टोली खैर मना रही है। जिला कलक्टर अपनी रिपोर्ट पर डटे रहने का साहस बटोर रहे हैं।...सत्य का पता लगाकर देवता लौटते हैं। नावें वापस आ रही हैं।...देवता अपना बयान लिखवा रहे हैं ....बेचारा पी. ए. डर से थर-थर काँप रहा है।.....सत्य के
प्रकाश को बयान से ढकने की कोशिश हो रही है –अकाल नहीं है। मौतें नहीं हुईं। ख़बरें झूठी हैं। अकाल की बात करने वाले गद्दार हैं, स्वार्थी हैं। सारे जिले में सिर्फ़ दो मौतें हुईं -एक बीमार था, दूसरा भिखमंगा.....। देवता के मोटरबोट पर एक खास किस्म के रेडियो सेट का खास इंतजाम है। भला जल-विहार में जब संगीत नहीं तो ....फिर क्या
मज़ा?”2
अपने रिपोर्ताज एकलव्य के नोट्स में रेणु जी ने भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी को बेनकाब करते हुए लिखा है, “तनाजे का फैसला कानूनगो साहब करेंगे। इनको बहुत ‘पावर’ है। अभी अमीन और सुपरवाइज़र इनके ‘अंडर’ में रहते हैं।....पांच महीने तक तनाजा का फैसला होगा!...सबों ने पाट बेचकर पैसे जमा कर रखे हैं, क्या जाने कब रुपये की जरूरत पड़ जाए!...दिन रात कचहरी लगी रहती है कानूनगो साहब की। कानूनगो के ‘चपरासीजी’ को इलाके के बड़े-से-बड़े जमीनवाले हाथ उठाकर-‘जयहिंद’ करते हैं -जयहिंद चपरासीजी!...कहिए, कानूनगो साहब को ‘चावल’ पसंद आया? असली बासमती चावल है, अपने खर्च के लिए घर में था।...जी-जी-हाँ।...घी आज आ जाएगा।”3
जातिगत भेद-भाव, समाज में व्याप्त ऊँच-नीच, अवसरवादिता और प्रशासनिक कुव्यवस्था को दिखाते हुए उन्होंने एकलव्य के नोट्स रिपोर्ताज में एक स्थान पर लिखा है, “भगवान भला करे ‘बैकवर्ड और शिड्यूल कास्ट’ टोले के नौजवानों का! नाटक स्टेज करेंगे (अंग्रेज़ी नामकरण स्वयं ‘बैकवर्ड और शिड्यूल कास्ट’ के नौजवानों ने किया है।...तीन साल पहले तक ‘गंगोला’ जाति के ‘लीडर’ लोग अपने क्षत्रिय के प्रमाण में बहुत लंबे-लंबे भाषण देते थे। नाम के अंत में ‘सिंह’ जोड़ते थे।...सरकार ‘बैकवर्ड’ और ‘शिड्यूल कास्ट’ के लड़कों को स्कालरशिप देने लगी है, सरकारी नौकरियों में ‘सीटें’ रिजर्व रखती है।...मुरलीसिंह जी सवर्ण हिंदू हैं। सुनते हैं -उनके लड़के ने अपने को ‘अनुसूचित जाति’ की संतान बताकर, स्कालरशिप ‘झीट’ लिया है। साठ रुपए प्रतिमास।” ......दलित वर्ग को हर तरह से मर्दित करके रखा गया था अब तक। नाटक मंडली के लिए प्रत्येक वर्ष खलिहान पर चंदा काट लेते हैं-मालिक लोग। लेकिन, कभी भी द्वारपाल, सैनिक, अथवा दूत का पार्ट छोड़कर अच्छा पार्ट...माने ‘ हीरो’ का पार्ट नहीं दिया सवर्ण टोली के लोगों ने।...”4
रेणु एक ऐसे सच्चे साहित्य प्रेमी थे जिन्होंने साहित्य का उपयोग जनजागृति के लिए किया। वे अपने रिपोर्ताजों के माध्यम से समाज में चेतना लाना चाहते थे, राजनीति का वास्तविक लक्ष्य अर्थात् जनसेवा को पूर्ण करना चाहते थे। वे समझाना चाहते थे कि राजनेताओं का उद्देश्य धन लोलुपता या शक्तिबल पर भ्रष्टाचार में लिप्त होना नहीं है, बल्कि वास्तव में राजनेता समाज का सेवक होता है। कृषिप्रधान भारत में कृषकों के जीवन में उत्थान और ग्रामीणों के जीवन में सुधार के वे उत्सुक थे। उनके रिपोर्ताज उनकी इस महत्वकांक्षा के परिचायक हैं।
वास्तव में, रेणु परिवर्तन के प्रवर्तक थे। वे देश में, समाज में, राजनीति में, कृषक एवं श्रमिक वर्ग के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन चाहते थे। रेणु के रिपोर्ताज यथार्थ को दिखाकर समाज में चेतना लाना चाहते थे। गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, भूख, भष्टाचार, राजनीतिकशक्ति का दुरुपयोग तथा साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय मुद्दे हैं जिन पर फणीश्वरनाथ रेणु ने जीवंत रिपोर्ताज लिखे।
फणीश्वरनाथ रेणु
के रिपोर्ताजों की विशेषता उनकी स्पष्टवादिता और सपाट बयानी है। अपने रिपोर्ताजों में उन्होंने प्रत्येक घटना के व्यापक वर्णन के समय उस प्रदेश विशेष की भाषा, उस क्षेत्र की मिट्टी की गंध, लय, धुन और सुन्दरता व कुरूपता को शब्द देने का सफ़ल प्रयास किया है। उनकी भाषा-शैली और शब्दों में आँचलिक प्रभाव उनके पाठकों को उस क्षेत्र विशेष से जोड़े रखता है।
रेणु के रिपोर्ताजों में हमें अनेक विशेषताएँ देखने को मिलती हैं जैसे यथातथ्यता, मर्मस्पर्शिता, रोचकता, व्यंग्यात्मकता, चित्रात्मकता तथा जीवंत लेखन आदि।इनमें से लेखन का जीवंत होना एक ऐसा गुण है जो कि रेणु को एक श्रेष्ठ कृतिकार की श्रेणी में ले आता है। रेणु के रिपोर्ताज आज भी पाठक को हृदयग्राही लगते हैं और वह उन्हें तन्मयता से पढ़ता है तथा उस समय के घटनाक्रम को जीता है, क्योंकि वे सभी जीवंत हैं। रेणु ने प्रत्येक प्राणी के भावों को जीया और फिर हर भाव को कलम के माध्यम से कागज़ पर उतारा।
रेणु के रिपोर्ताजों का जीवंत होना एक ऐसी महत्त्वपूर्ण विशेषता है जो उन रिपोर्ताजों की घटनाओं को हमारे सम्मुख ले आता है।लगता है, मानो हम घटना को पढ़ नहीं रहे, अपितु देख रहे हैं। लेखक अपने जीवन के संदर्भ में जिस प्रकार ईमानदार है, उसी प्रकार अपने समाज, प्रत्येक मानव यहाँ तक कि प्रत्येक प्राणी के भावों को लेकर भी ईमानदार है। वही व्यक्ति पूर्णरूपेण अपने शब्दों में ईमानदार हो सकता है जो साहसी भी हो। अपनी हर बात को बेबाकी से कहने तथा लिखने का सामर्थ्य एक निर्भीक व प्रगतिशील व्यक्ति ही रखता है। रेणु में ये सभी विशेषताएँ थीं।
रेणु के रिपोर्ताजों की विशेषता है कि जिस आँचलिक क्षेत्र से वे आए थे और जिसकी मिट्टी की गंध उनके रिपोर्ताजों में सूँघी जा सकती है, वही सुगंध रेणु अपने पाठकों तक पहुँचा देते हैं। उनके रिपोर्ताज पढ़कर पाठकगण भी मानो उसी क्षेत्र विशेष में चले जाते हैं। आँखों के सामने सभी दृश्य जीवंत हो जाते हैं। शब्दों के माध्यम से जीवंत चित्र प्रस्तुत करने में रेणु की बराबरी कोई नहीं कर सकता।
भारत यायावर ने रेणु की भाषा शैली के विषय में लिखा है, “रेणु
के शब्द-कहीं बोलते हुए, कहीं गाते हुए और कहीं सौंदर्य की एक विराट छवि को दर्शाते हुए- राग तथा संगीत से समाविष्ट हैं।’ 5
रेणु के लेखन में स्वरों की बहुलता है। रेणु के द्वारा लिखे गए शब्द केवल वर्णों का संयोजन मात्र नहीं हैं। उनके शब्द भावों में पिरोई एक माला के समान हैं। भावों को तो मर्म तक पहुँचने में पल भर भी नहीं लगता। उनके रिपोर्ताजों में लिखा प्रत्येक शब्द अपने अन्दर गहरे अर्थ और गूढ़ भाव को सहेजे हुए है। प्रत्येक स्वर में छुपे भावों को पढ़ लेने की कला और उन्हें शब्दों का रूप प्रदान करने का कौशल संवेदनशील और भावुक रेणु को भली प्रकार आता था। उनके विचार भी भावों के सागर में हर पल गोते लगाते रहते थे और इसीलिए हर ध्वनि को उन्होंने और गहराई से महसूस किया और उसे स्वर के साथ-साथ शब्द भी प्रदान किए। किसी भी भावको उन्होंने छोड़ा नहीं तथा अपने अंतर्मन से बाहर आने से रोका नहीं, बल्कि उसे और अधिक मुखरित किया। उन्होंने हर स्वर में प्राण फूँके और उसे लेखनी से लिखकर जीवंत रूप प्रदान किया।
उनका यह लेखन कौशल असाधारण तथा उत्कृष्ट शैली का है।
पटना जलप्रलय पर लिखे अपने रिपोर्ताज में फणीश्वरनाथ रेणु हेलीकाप्टर के स्वर तथा सरकार द्वारा बाढ़ग्रस्त इलाकों में रिलीफ़ पहुँचाने की प्रक्रिया को अपने पाठकों के सम्मुख ले आए हैं। वे लिखते हैं, “…..आकाश
में एक दैत्याकार आँखफोड़वा-टिड्डा जैसा भूरे रंग का फ़ौजी हेलीकॉप्टर, साइरन की तरह अविराम पतली सीटी-सी बजाता हुआ, घोर गर्जन करता हुआ, छतों पर धूल का घूर्णिचक्र उड़ाता, ‘लो-फ़्लाइंग’ करके धीरे-धीरे नीचे की ओर आता है। थुथने को तनिक आगे की ओर झुकाकर, पूँछ ऊपर किया ...। गरगराहट और भी तेज़ हो गई और लो.....लो....वह
गिरा.....बड़ा बक्सा है .....कार्डबोर्ड का बक्सा......हा-हा.....सीं-ई-ई-ई-ई.......गरगरगरगरगरगर...गुड़र गुड़र गुड़र.. सीं-ई-ई-ई-ई-गरगरगरगरगर-एक और आ गया उधर से ...उस छत पर एक बक्सा फिर गिरा। एक नहीं, दो?......सिं-ई-ई-ई –गरगरगरगर.....इस छत पर भी गिरेगा, अपने छत पर भी गिरेगा.....सिंई-ई-ई पाइलट सिख नौजवान है, हँस रहा है....ए, देखो। होशियार! बच्चों को पकड़ो। उड़ जाएँगे .....वह चटाई उड़ी.....साड़ी-ब्लाउज-तौलिया सब उड़ा..... सीं-ई-ईगरगरगरगरगर.....गिरा, गिरा......निश्चय ही उनके पास मूवी कैमरा होगा। उनके पास – अर्थात् हेलीकॉप्टर पर जो लोग बैठे हैं।....कैसे लगते होंगे ऊपर से हर छतों के दृश्य ....सभी मकान के मुँडेर पर औरत-मर्द-बच्चे, इधर से उधर दौड़ रहे हैं, ऊपर की ओर हाथ पसारे। एक-दूसरे को धकेलते, गिरते-पड़ते लोगों के झुंड, हर मकान के छत पर......?”6
भाषा का यही जीवन्त रूप रेणु को एक महान रिपोर्ताज लेखक बनाता है। भूख से निराश और हताश जनता को पैकेट पाने की आस है। ऐसे दृश्य को अपने जीवन्त लेखन कौशल से पाठकों के समक्ष ही लाकर मानो खड़ा कर दिया है या यूँ कहें कि हम उस दृश्य के साक्षी हैं।
पटना जलप्रलय में कुत्ते के रुदन को भी रेणु ने न केवल सुना, बल्कि उसके रोने की आवाज़ से वे आहत भी हुए और उसके स्वरों की भिन्नता को भी पहचाना। 28 सितंबर, 1975 के दिनमान के अंक में प्रकाशित पटना-जल प्रलय रिपोर्ताज
में रेणु जी ने कुत्ते के रुदन की बात को इस प्रकार लिखा है –”एक
कुत्ते ने रोना शुरू किया। किंतु, कल के रुदन से आज का रोना भिन्न है। कल वे आशंका और आतंक को सूँघ रहे थे और, आज मौत को बहुत करीब देखकर रो रहे हैं ...मुझे फिर टेप-रिकार्डर की ज़रूरत.....असल में
इस रुदन को जिसने सुना है, वही समझ सकते हैं–ओं- य- यूँ -ऊँ- ऊँ- ऊँ-हाँ -हाँ- हाँ -य- ह ....ह -ओ
-आ- आ...।”7
उसी प्रकार बाढ़ के पानी के स्वरों को भी शब्द और प्राण देते हुए रेणु जी ने अपने 21 सितम्बर, 1975, दिनमान के अंक में प्रकाशित पटना प्रलय रिपोर्ताज के अंश में लिखा है, “अब,
तुमुल तरंगिनी के तरल नृत्य और वाद्य की ध्वनियों को शब्दों में बाँधना असंभव है! अब...अब....सिर्फ़.....हिल्लोल- कल्लोल-कलकल-कुलकुल-छहर-छहर झहर-झहर-झरझर-अर, र-र-र ह-ए-ए घिग्रा-घिंग-धातिन-धा तिन धा-आआह –मैया-गे -झाँय-झाँ रय-झघ-झघ-झाँय झिझिना-झिझिना...। कललकुलल-कुलुल-बाँ-आँ-य-बाँ-आँ-म-भौ-ऊँ-ऊँ.....चेंई-चेंई-छछना-छछना-हहा-हाततथा-ततथा-कलकल-कुलकुल.......!!”8
रेणु ने अपने रिपोर्ताजों में जिस लोक जीवन को प्रस्तुत किया है, वे भी जीवन से परिपूर्ण हैं, जीवंत हैं। उनका पहला रिपोर्ताज ‘बिदापत-नाच’ साप्ताहिक पत्र विश्वामित्र के 1 अगस्त, 1945 के
अंक में प्रकाशित हुआ था। इसमें रेणु अपने अंचल के प्रसिद्ध लोक-नृत्य ‘बिदापत-नाच’ का परिचय अपने पाठकों से करवाते हैं। इसमें एक स्थान पर उन्होंने लिखा है, ‘‘दर्शकों की मंडली हँसते-हँसते लोटपोट हो गई। हाँ, एक बात तो कहना ही भूल गया कि ‘बिकटा’ अपने को कृष्ण भी समझता है, परदेशी साजन भी समझता है, लेकिन इसके साथ ही वह यह नहीं भूल जाता कि वह कलरू मुसहर है, हलहलिया का रहने वाला है और मनुष्य रहते हुए भी है सिर्फ़ कोल्हू का बैल। इसलिए जब नर्तक उसके गले में बहियाँ डालकर घूँघट काढ़कर, मान अभिमान का भाव जताकर कहता है कि, ‘माधव तजि के चललों विदेश!’ तो वह भूल जाता है कि वह ‘कृष्ण’ है और वह गोकुल से मथुरा जा रहा है। उसके समक्ष जीवन की विषमता मूर्त होकर नाच उठती है ....।’ 9
रेणु के रिपोर्ताज ‘जीत का स्वाद’ में क्रिकेट प्रेमियों का उत्साह रिपोर्ताज को जीवन्त बना देता है। रेणु लिखते हैं, “सड़क
पर....शहनाई, बैंड तथा अन्य बाजे-गाजे के साथ एक जुलूस निकला है क्रिकेट उत्साहियों का।....विजय का यह पहला स्वाद। पहली जीत की यह खुशी। यह ऐतिहासिक खुशी।
आज का दिन, यह 24 दिसंबर ...त्योहार का दिन जैसा लगता है। सुधाकांत अपलक दृष्टि से अपने छोटे भाई रमाकांत की सुंदर सुडौल देह को देख रहा है। किसी दिन मेरा यह छोटा भाई भी टेस्ट में खेलेगा। सुधाकांत को भूख लगी है। वह सुधामयी की ओर देखता है।
सुधामयी थर्मामीटर में शाम का बुखार देखती है – नार्मल
24 दिसम्बर स्मरणीय दिवस।”10
फणीश्वरनाथ रेणु का रिपोर्ताज समय की शिला पर-सिलाव का खाजा धर्मयुग पत्रिका के तीन अंकों–15 जुलाई, 1962, 22 जुलाई 1962 तथा 29 जुलाई, 1962 में छपा
था। इसमें वे लिखते हैं, “मैंने प्रस्ताव किया, अब कहीं बैठकर चाय पी ली जाए। थरमस हल्का हो जाएगा। चाय के पहले, सिलाव के खाजा की चंगेरी खुली।
.......सचमुच! प्रशंसनीय पदार्थ है। बगैर खाए जिसके स्वाद की कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। एक पर्त के बाद दूसरा स्तर, दूसरे के बाद तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवाँ। सात ‘लेयर’ और प्रत्येक पर्त में समानरूप से रस, गंध।.....नालंदा के भग्न महाविहार का प्रतीक यह मिष्टान्न-सिलाव का खाजा-चीन, जापान, अमरीका, रूस -कहीं ले जाइए-हमेशा ताज़ा!”11
स्मृति की रील नामक रिपोर्ताज धर्मयुग पत्रिका के 11 सितम्बर,
1964 के अंक में प्रकाशित हुआ था।
अपने इस रिपोर्ताज में रेणु ने जिस घटना का वर्णन किया है, उसमें गरीब ग्रामीणों की सकारात्मकता, आत्मीयता और जीवन्त दृष्टिकोण देखते ही बनता है। रेणु लिखते हैं, “एक दिन सुबह मेरे एक प्रिय आत्मीय श्री बालगोविन्द जी ट्रांजिस्टर ले आए। मैंने पूछा, ‘तीसरी कसम के गीत आ रहे हैं ?’ ‘ मैंने अब तक नहीं सुना है। लेकिन कहते हैं कि अब आने लगा है, कहकर वे रेडियो ट्यून करने लगे और अचरज की बात! लगा, वे “टेपरेकार्डर” बजा रहे हैं। यानी, रेडियो ट्यून किया और ढोलक की गमक, और हारमोनियम के सुर पर मन्ना डे की स्वर-लिपि गूँज उठी –‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजड़े वाली मुनियाँ ....।”
गीत समाप्त हो गया किंतु दरवाज़े पर भीड़ बढ़ती गई।
लोग घंटों रेडियो अगोरकर बैठे रहे। कोई गीत नहीं बजा।
किंतु वे निराश नहीं हुए। कहने लगे, जब शुरू हुआ है तो रोज बजेगा। किसी-न-किसी दिन सुनेंगे ही। ‘खेला जब बनकर तैयार हो गया है, तो कभी न कभी देख ही लेंगे।”
एक तेज जहनवाले चरवाहे ने - जो गीत शुरू होने के समय मौजूद था-
चलते समय ‘अंतर’ गुनगुनाया- उड़ि- उड़ि बैठे हलवैया दोकनियाँ, बर्फी केसब मजा ले लिया रे पिंजड़ेवाली मुनियाँ!”12
ग्रामीण लोगों के लिए नदी माँ के समान होती है, क्योंकि उसके जल से ही सिंचाई होती है और अन्न उपजाया जा सकता है। लेकिन जब इसी नदी में बाढ़ आ जाती है और यह विकराल रूप ले लेती है। पुरानी कहानी : नया पाठ नामक अपने रिपोर्ताज में रेणु ने इसी ममतामयी नदी को रौद्र रूप लेते, फिर शांत होते हुए बाढ़ से उजड़ते हुए और पुनः स्थापित होते हुए दिखाया है। इस रिपोर्ताज में एक स्थान पर वे लिखते हैं, ‘इसी ताल पर नाचती हुई कोसी मैया आईं और देखते-ही-देखते खेत-खलिहान-गाँव-घर-पेड़ – सभी इसी ताल पर नाचने लगे –ता-ता थैया ता-ता थैया.....धिन तक धिन्ना, छम्मक कट-म!
-मुँह बाएँ, विशाल मगरमच्छ की पीठ पर सवार दस-भुजा कोसी नाचती, किलकती, अट्टहास करती आगे बढ़ रही है।”13
इस रिपोर्ताज में उन्होंने ग्रामीण जीवन के वास्तविक रंगों को पूर्णतः जीवंत करते हुए लिखा है, “कारी-कोसी की शाखा-नदियाँ-पनार, बकरा, लोहंद्रा और महानदी के दोनों कछारों पर भदई धान, मकई और पटसन के खेतों पर मोती कूँची से पुता हुआ गहरा-हरा रंग! गाँवों की अमराइयों और आँगनों में ‘मधुश्रावणी’ के मोहक गीतों की गूँज! हवा में नववधुओं की सूखती-लहराती लाल, गुलाबी, पीली चुनरियों की मादक गंध!”14
ग्रामीण जीवन के प्रति रेणु का प्रेम और बाढ़ की त्रासदी से उनके मन में होने वाली पीड़ा को इस रिपोर्ताज के माध्यम से समझा जा सकता है। ग्रामीण जीवन के प्रत्येक दृश्य को उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से जीवंत कर दिया है।
उनके लेखन में तृण मात्र भी बनावटीपन नहीं है, बल्कि एक ऐसा अपनापन उभरकर आता है जो यह दिखाता है कि मानो ये परिस्थितियाँ, ये त्रासदियाँ उनके अपने जीवन का ही हिस्सा हों। रेणु एक जिंदादिल व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपने क्रांतिकारी विचारों और तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष के लिए जाने जाते थे। नेपाल के प्रजातांत्रिक संघर्ष में उन्होंने विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला की मुक्तिसेना में भी भाग लिया। इस संघर्ष में उन्होंने पूर्ण उत्साह से भाग लिया। नेपाली मुक्तिसेना की वीरता और उत्साह का प्रसंग आते समय रेणु के शब्दों में वीरता का भाव दिखाई देने लगता है| इस रिपोर्ताज में उन्होंने लिखा है -
‘धन्य,
धन्य मुक्तभूमि, मुक्तियुद्ध, मुक्तिसैन्य, मुक्ति, मुक्ति, मुक्ति..|’ नेपाली प्रजातंत्र-अमर हो!...
‘अब गोर्रिला छापेमारी नहीं, बाजाब्ता युद्ध ......मुक्तियुद्ध, मुक्तिसैन्य, मुक्तिफ़ौज, मुक्ति....नेपाली ...ने-पा-ली ...आगि बढ़दा बढ़दै जाऊ क्रांति-झंडा ले - क्रांति-झंडा ले- ने-पा-ली ...नेपा ....ली...ई....!!’ 15
फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताज उनकी तन्मयता, परिश्रम और अपनी मिट्टी से प्रेम के परिचायक हैं।
भारत यायावर ने रेणु के सभी उपलब्ध रिपोर्ताजों का संकलन समय की शिला पर नामक पुस्तक में किया है। उन्होंने रेणु के रिपोर्ताजों के संबंध में अपने विचार अभिव्यक्त करते हुए इस पुस्तक की पीठिका में लिखा है –
“समय की शिला पर अंकित ये रिपोर्ताज आज भी उतने ही ताज़ा और ग्राह्य हैं, जितना छपने के वक्त रहे होंगे। रेणु ने अपनी जादुई कलम से इतिहास में घटी इन घटनाओं एवं जीवन-स्थितियों को अपने रिपोर्ताजों के द्वारा सदा-सदा के लिए जीवंत और अविस्मरणीय बना दिया है। इनका एक साथ प्रकाशन हिन्दी पाठकों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा रेणु के रचनाकार के क्रमिक विकास या ह्रास की तस्वीर भले ही न बन सके, पर इनके द्वारा एक व्यापक जीवन से हमारा साक्षात्कार जीवंत रूप में अवश्य होता है।”16
निर्मल वर्मा ने रेणु के विषय में लिखा है, “रेणु जी की इस समग्र मानवीय दृष्टि को अनेक जनवादी और प्रगतिवादी आलोचक संदेह की दृष्टि से देखते थे – कैसा है यह अजीब लेखक जो गरीब की यातना के भीतर भी इतना रस, संगीत, इतना आनंद छक सकता है, सूखी परती ज़मीन के उदास मरुस्थल में सुरों, रंगों और गंधों की रासलीला देख सकता है।”17
फणीश्वरनाथ रेणु के लिए लोगों की संवेदनाएँ और लोगों का जीवन अत्यंत महत्वपूर्ण था। मानवीय भावनाओं को अपने रिपोर्ताजों के माध्यम से उन्होंने शब्द प्रदान किए। उनका क्रांतिकारी मन लोगों में संवेदनाएँ जगाना चाहता था, समाज में चेतनता लाना चाहता था। सत्य को उजागर करते उनके रिपोर्ताज, उनके इसी मन की अभिव्यक्ति का माध्यम थे। रेणु जी का लेखन लोगों के मनोरंजन का माध्यम न होकर एक श्रेष्ठ समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील लेखन था।
उनका जीवंत लेखन कौशल उन्हें एक श्रेष्ठ साहित्यकार बनाता है।
आज का पाठक जागरूक है, पढ़ा-लिखा है और बौद्धिकता में विश्वास रखता है। मनोरंजन के अनेक साधन उसके पास उपस्थित हैं। वह तो सत्य घटनाओं की चर्चा और उनकी जाँच–परख में विश्वास रखता है। घटना विशेष की रिपोर्ट उसे आकर्षित करती है, परन्तु नीरस होने के कारण वह उसे समाचार-पत्रों के माध्यम से पढ़ता या टी.वी. के समाचारों के माध्यम से सुनता अवश्य है, लेकिन तथ्य प्रधान होने के कारण व रोचकता के अभाव के कारण वह कुछ समय पश्चात् भूल भी जाता है। दूसरी ओर, उसी घटना की रिपोर्ताज क्योंकि संवेदनाओं से भरी हुई होती है, तो पढ़ने वाले के मनोमस्तिष्क के साथ तुरंत जुड़ जाती है और पाठक के सम्मुख संपूर्ण घटना इस प्रकार चित्रित हो जाती है कि वह कभी भी उसे भूल नहीं पाता है।
रेणु के रिपोर्ताज में मानक रिपोर्ताज की विशेषताएँ मौजूद हैं। वर्तमान समय में जीवन्त लेखनशैली के धनी फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा रचित रिपोर्ताजों को महत्त्व देते हुए साहित्य की इस विधा को और भी अधिक विकसित करना चाहिए। आज का लेखक यदि फणीश्वरनाथ रेणु जैसे महान् रिपोर्ताज लेखक के इस लेखन का अनुशीलन कर सके तो वह अपने द्वारा रचित साहित्य के माध्यम से समाज को जागृत कर सकेगा तथा रिपोर्ताज साहित्य का भविष्य उज्ज्वल होगा।
संदर्भ :
1.
वीरपाल वर्मा : हिन्दी
रिपोर्ताज, कुसुम प्रकाशन, मुजफ्फरनगर, 1987, पृ.3
2
.फणीश्वरनाथ रेणु : समय की शिला पर, हड्डियों का पुल (संकलन-संपादन :भारत यायावर), राजकमल प्रकाशन, 1991,
पृ. 61
3.
फणीश्वरनाथ रेणु : एकलव्य के नोट्स, समय की शिला पर (संकलन-संपादन : भारत यायावर), राजकमल प्रकाशन, पृ. 72, 1991
4.
वही, पृ.75, 1991
5.
यायावर, भारत : रेणु एक जीवनी, सेतु प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, 2021, पृ. 20,
6.
फणीश्वरनाथ रेणु : ऋण जल धन जल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1977, चौथा संस्करण, 2003 पृ.63, 64
7.
वही, पृ. 43
8.
वही, पृ. -33
9. फणीश्वरनाथ रेणु : बिदापत नाच,समय की शिला पर, (संकलन-संपादन – भारत यायावर) राजकमल प्रकाशन, 1991, पृ. 19
10.फणीश्वरनाथ रेणु : जीत का स्वाद,समय की शिला पर (संकलन-संपादन – भारत यायावर), राजकमल प्रकाशन, 1991, पृ.
85
11.फणीश्वरनाथ रेणु : समय की शिला पर:सिलाव का खाजा,समय की शिला पर (संकलन-संपादन : भारत यायावर), राजकमल प्रकाशन, 1991,
पृ. 103
12.फणीश्वरनाथ रेणु : स्मृति की एक रील, समय की शिला पर (संकलन-संपादन : भारत यायावर), राजकमल प्रकाशन, 1991, पृ.133
13. फणीश्वरनाथ रेणु : पुरानी कहानी : नया पाठ, समय की शिला पर (संकलन-संपादन : भारत यायावर), राजकमल प्रकाशन, 1991, पृ. 136
14.
वही, पृ.134,
15
फणीश्वरनाथ रेणु : नेपाली क्रांति कथा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1977, पृ. 41,42
16
फणीश्वरनाथ रेणु : पीठिका, समय की शिला पर (संकलन-संपादन – भारत यायावर), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,1991, पृ. 12,
17 निर्मल वर्मा : ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ (भूमिका), फणीश्वरनाथ रेणु : ऋणजल धनजल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 15
वन्दना भारद्वाज, शोधार्थी, बनस्थली विद्यापीठ
9599500114, gosainvandana7@gmail.com
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डॉ. विजय कुमार प्रधान, शोध निर्देशक, एसोसिएट
प्रोफ़ेसर
हिन्दी विभाग, बनस्थली विद्यापीठ
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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