आलेख : गाँवनामा : धरणी के रंगरेज किसान / सुशील द्विवेदी
कल्पना कीजिये आपके हाथ में एक कूची,
कई प्रकार के
रंग और एक कैनवास है। आपको एक चित्र बनाना है, आप सबसे पहले किसका चित्र बनायेंगे?
आप सोच रहे
होंगे कि मैं नदी,पर्वत,
झरना,सागर,स्त्री जैसे अनेकानेक विषयों में से
कोई एक विषय के बारे में कह रहा हूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है। आप अपनी चित्तवृत्ति के
अनुसार ही चित्र बनायेंगे। मेरा मानना है कि मानव सभ्यता के आरम्भ में सबसे पहले
यदि किसी ने रेखांकन किया होगा, तो वे इस धरती के किसान थे। किसान माने सभ्यता
और संस्कृति के जनक। उनके रेखांकन में कल्पना, हर्ष, संघर्ष और संताप की लकीरें अवश्य
होंगी। पाषाणयुगीन शैलचित्रों,भित्तचित्रों या मृद्भांडों में उत्कीर्ण
कलाकृतियाँ किसान चेतना की गवाक्ष हैं। इन गवाक्षों से साहित्य के प्रथमांकन,
उनके जीवनयापन
या उनके चितेरामन की झलक मिलती है। गाँवों के निर्माण,वास,अधिग्रहण,प्रव्रजन की घटनाएँ सिन्धु सभ्यता से
बहुत पहले शुरू हो गयी थीं। सिन्धु या वैदिक सभ्यता में जिन किसानों या गाँवों का
विवरण मिलता है, वह
उस कालखंड के गाँवों के सम्पूर्ण क्रियाकलापों, उनके संघर्षो की गाथा नहीं है, उनमें गाँवों से अधिक नगरों, धार्मिक अनुष्ठानों, यज्ञ की क्रियाविधि, मानव संघर्षों, कामेच्छाओं पर बल दिया गया है। यहाँ तक
कि संस्कृत साहित्य में वर्णित ग्रामजीवन के सौन्दर्य की अविच्छिन्न धारा से
सम्पृक्त, अहर्निश
जलप्रपातों व नदियों की लय, युवतियों के घुंघरुओं की नाद, जलक्रीडाओं, वन लताओं से ग्राम्य–जीवन का दारुण संताप ढक गया है। ऐसे
में क्या दुःख की कल्पना की जा सकती है? क्या ग्राम्य-संताप का आँसू उन मनीषियों के
हृदय में नहीं छलका होगा? जो मनीषी पशु पक्षी की आर्त ध्वनि बहुत आसानी
से सुन लेते हैं, वे
मजदूरों, दासों-दासियों
या वंचितों की करुण पुकार सुनने में असमर्थ हो जाते हैं। हो भी क्यों न, अबूझ, मौन ध्वनियों को रूपांतरित करना उनके
लिए आसान है, किन्तु
बूझ, मुखर
ध्वनियों को स्वर देना अस्मिता के खिलाफ़, अपनी जाति के खिलाफ़।
वाल्मीकि के राम जयंत को इसलिए दण्डित
करते हैं कि उनकी धर्मपत्नी सीता को काक रूपी जयंत चोंच मार देता है। सीता के वक्ष
पर काक-प्रहार राम के लिए असहनीय है। वे इस पीड़ा को इस तरह महसूस करते हैं जैसे
काक ने उन पर प्रहार किया हो। साकेत से लेकर लंका तक न जाने कितने ही गाँवों से
राम को गुजरना पड़ा होगा। किन्तु वाल्मीकि ने किसी भी गाँव के प्रव्रजन या उसके
संताप को नहीं लिखा है। बाद में यही काम हिन्दी के रीतिकाल तक के रचनाकारों ने
किया। उन्हें ग्राम्य-जीवन की स्थिति-परिस्थितियों, उजाड़पन, तकलीफों से लेना देना नहीं था। यह
समस्या केवल संस्कृत या हिन्दी साहित्य की नहीं है, बल्कि पश्तो, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, अरबी, फारसी, तुर्की के मध्यकालीन साहित्य तक की है।
साम्राज्यवाद के विकास के बरअक्स गाँव के प्रव्रजन, विस्थापन, उसके दारुण संताप को देखा जाने लगा। या
यह समझिये कि गाँव पर बहस आधुनिक युग की देन है। इससे पूर्व किसानों, चोर-डाकुओं, ग्रामीण-स्वानों को इन्द्रिय-रूपक के
रूप में प्रयोग में लाया गया है। तुलसी ने किसानों की आर्त पुकार अवश्य सुनी है,
किन्तु वहाँ
किसानों या गाँव के विस्थापन, उसके स्वरूप-परिवर्तन पर बहस नहीं है।
अंग्रेजी के कवि ऑलिवर गोल्ड स्मिथ ने
अपनी पुस्तक ‘द
डिज़र्टेड विलेज’(1770ई.)में
गॉव के पलायन, प्रव्रजन,
स्वरूप परिवर्तन
का सजीव चित्रण किया है। इस पुस्तक से पूर्व स्वच्छंदतावादी कवियों, वे चाहे वर्ड्सवर्थ हों या जॉन कीट्स
या बायरन, के
यहाँ ग्राम्य भाषा, ग्राम्य
संस्कृति का समर्थन अवश्य है, किन्तु उनमें ऑलिवर जैसा गाँव के उजड़ने का दर्द
नहीं है। एक विशेष कालखंड (1750 -1850, देखें– जूलिया पैटोन, ‘द इंग्लिश विलेज’) के बाद गाँव के प्रति मोह भंग की स्थिति आ गयी। किन्तु
गद्य ने इस उदासीनता को अस्वीकार किया। राजा राममोहन राय, गाँधी, टैगोर के ग्राम्य-जीवन को परिवर्तित
करने वाले विचारों के कारण हिन्दी के रचनाकारों ने ग्राम केन्द्रित कविताएँ अवश्य
लिखीं, किन्तु
गाँव का आदर्श और प्रकृति का मनोहर रूप देखकर कवि का मन हिलोरें लेता रहा। नमूना
देखिए–अहा
ग्राम्य जीवन भी क्या है / क्यों न इसे सबका मन चाहे (मैथिलीशरण गुप्त) अथवा फैली
खेतों में दूर तलक / मखमल सी कोमल हरियाली (सुमित्रानंदन पन्त)। इस तरह की अनेक
कविताएँ आपको थोड़े से यत्न में मिल जाएँगी। इनमें न गाँव का तनाव है और न ही
ग्राम्य-निकटता। ये कविताएँ रील कविताएँ हैं, वास्तविकता से बहुत दूर।
1925 में शिवपूजन सहाय ने ‘देहाती दुनिया’ लिखकर इस रील भरे ग्राम्य-जीवन को ग्राम्य-निकटता के अधिक नजदीक पहुँचाया। हिन्दी साहित्य में ग्राम्य-निकटता तथा ग्राम्य-तनाव का प्रयोग गद्य में हुआ, कविता में नहीं। यह हिन्दी कविता में बहुत बाद में आया। पहले की कविता सुकुमार बिम्बों और प्रतीकों के सहारे गाँव की सीमा में प्रवेश तो करती है, किन्तु बड़ी तत्परता से सिवान छूकर लौट आती है, वहाँ ठहरती नहीं। किन्तु 1936 के बाद कविताएँ गाँव के सिवान से नहीं लौटीं, बल्कि गाँव की माटी से टकराने लगीं। सुमित्रानंदन पन्त जैसे सुकुमार कवि की भाषा बदल गयी, काव्य- विषय बदल गया। उन्होंने गवईं लड़के, वह बुड्ढा, धोबियों का नृत्य, कठपुतले जैसी कविताएँ लिखीं। दो नमूना देखिये–
बाम्हन,ठाकुर,लाला,कहार / कुर्मी,अहीर,बारी,कुम्हार
नाई,कोरी,पासी,चमार / शोषित किसान या ज़मीदार 1
ये हैं खाते पीते,रहते / चलते फिरते,रोते हँसते,
लड़ते मिलते,सोते जगते / आनंद,नृत्य,उत्सव करते 2
गाँव के विस्थापन, प्रव्रजन, शोषण, भूख, गरीबी, दारुण संताप का ऐसा वर्णन क्या
छायावादी कवियों द्वारा संभव था? ‘आँखों के मरघटपन’ जैसा बिम्ब क्या बाद के कवियों ने भी
प्रयोग किया है। मरघटपन में केवल वीरानापन नहीं है, उसमें चिता की अग्नि भी है, छिछियाइन-गंध भी और परिजनों की पीड़ा भी। ऐसी अभिव्यक्ति बाद के
कवियों में भी देखने को नहीं मिलती है। परन्तु ऐसी पीडाएँ क्या ग्राम्य-निकटता
अथवा ग्राम्य-तनाव के समीप पहुँच पाती हैं? संस्कृत शब्दावलियों, बिम्बों व प्रतीकों के भार तले इन
कविताओं में गाँव के वैमनस्य, अस्पृश्यता, दुःख, भूख, गरीबी जैसे भाव दब गये हैं। हालांकि
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, त्रिलोचन शास्त्री, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल की ग्राम-केन्द्रित
कविताओं में संस्कृत शब्दावलियों का भार तो कम हुआ है किन्तु ‘बभनौटी-बोध’ छूट गया हो, ऐसा भी नहीं है। त्रिलोचन शास्त्री की ‘नगई महरा’, ‘चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती है’
या नागार्जुन की
‘मादा
सुअर’, ‘अकाल
और उसके बाद’, ’दुखरन
मास्टर’ जैसी
कविताएँ परदुःखकातरतावश लिखी गयी हैं। दुखरन मास्टर में गोल्ड स्मिथ के ‘विलेज मास्टर’ का भाव आ गया है। बावजूद इसके ये
कविताएँ ग्राम्य-तनाव व ग्राम्य-निकटता लिए हुए हैं।
आज़ादी के साथ-साथ जिस विकट गरीबी और
दुर्भिक्ष ने जन्म लिया, उसमें गाँव ही सर्वाधिक चपेट में आये। अशिक्षा
तो पहले से ही थी। किन्तु आपसी भाईचारे की भावना बनी हुई थी। जवाहरलाल नेहरु और
सरदार पटेल ने अपने ग्रामीण मॉडल में गाँव से गरीबी, दुर्भिक्ष और अशिक्षा को दूर करने की
योजना थी, किन्तु
वे गाँव के नगर में बदलाव के पक्ष में न थे। हालांकि गाँव की संरचना पहले भी एक
जैसी रही हो, ऐसा
नहीं है। सामान्य गाँव रेवेन्यु विलेज की अपेक्षा पिछड़े हुए थे, जनजातीय गाँव उससे भी अधिक। गाँव की
संरचना पर विचार करें तो पाएँगे कि सभी गाँव एक जैसे नहीं थे। आज भी जब कभी दंडक
वन के सुदूर गाँव को देखता हूँ तो गाँव का रहा-सहा ग्राम्य-प्रेम दूर हो जाता है।
भीम राव अंबेडकर ने इसलिए गाँव को नगर में तबदील करने की वकालत की थी। बाद में
नेहरु के मॉडल को तरजीह दी गयी। इसको राम मनोहर लोहिया, किसन पटनायक जैसे सामाजिक चिंतकों से
बल मिला। सामान्य और रेवेन्यु विलेज विकसित होते गये। किन्तु वैमनस्य, क्षुद्रता और काइयांपन भी बढ़ता गया।
श्रीलाल शुक्ल, फणीश्वरनाथ रेणु, उदयशंकर भट्ट, राही मासूम रजा, रामदरश मिश्र और अब्दुल बिस्मिल्लाह
जैसे उपन्यासकारों ने गाँव के इस बदलते स्वरूप को समझा। उन्होंने अपने उपन्यासों
में ग्राम्य-निकटता और ग्राम्य-तनाव को बचाए रखा। बाद के कवियों ने भी इस पर विशेष
ध्यान दिया, इनमें
अष्टभुजा शुक्ल, देवी
प्रसाद मिश्र जैसे रचनाकार मुख्य हैं। ‘गाँवनामा’ चन्द्रदेव यादव का सद्य: प्रकाशित
कविता-संग्रह है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह संग्रह हिन्दी के ग्राम आधारित
काव्य संग्रहों—ग्राम्यगीत,
कृषक क्रंदन,
ग्राम्या,
अकाल और उसके
बाद, मैं
उस जनपद का कवि हूँ, पद-कुपद
की अगली कड़ी है। चन्द्रदेव यादव जी ग्राम्य-चितेरा कवि हैं। उनकी कविताओं, उनके आलेखों और संस्मरणों में गाँव की
चिंता बराबर बनी रहती है। उन्होंने जो देखा है, जिया है, उसे बिना लागलपेट के लिख दिया है।
इसीलिए उसमें गाँव की गंध, राग, दुःख जस का तस उतर आया है। गाँव की कथा-कहानी
में उन्होंने लिखा है—गाँव
जब कराहता है तो मेरा दिल रोता है, और जब हँसता है तो मेरा रोम-रोम पुलकित हो जाता
है 3।
ऐसी बात, क्या
हिन्दी के किसी रचनाकार ने लिखी है? संभवतः नहीं। हिन्दी के गिने-चुने रचनाकार हैं,
जिन्होंने हल की
मूठ पकड़ी है, हरवाही
की है, गोरू-बछेरुओं
को चारा-पानी दिया है, उन्हें
मेड़-मेड़ पर चराया-फिराया है, गाँव की राजनीति को जिया है, उसका शिकार भी हुआ है, भूख, गरीबी, बदहाली देखी है, तलरी का पानी पिया है। चंद्रदेव जी ऐसे
ही रचनाकारों में से एक हैं। किन्तु उच्च शिक्षा प्राप्त करने और महानगर में रहने
के बावजूद उन्हें यह सब बिसरा नहीं है। अपनी लेखनी को उन्होंने ‘हर’ बना लिया है, बैलों और गाँव को ‘स्मृति’ , खेत को कागज और उस पर अपने खून-पसीने
से हरवाही की तरह ‘विषयों’
को पचिहार दिया
है। वे कविता की खेती करते हैं। अपनी इसी पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि मेरे लिए
कविता हलवाही जैसा काम है। इसीलिए कविता के क्षेत्र में मैं शब्दों को टिटकारी
मारकर एक आँतर फानने के लिए सजग करता हूँ और फिर अनजुती जमीन पर हराई बनाता हूँ।
धीरे-धीरे पूरी जमीन को जोतना जैसे आहिस्ता-आहिस्ता उसे महसूस करना है। 4 मोटे तौर पर चन्द्रदेव जी का
व्यक्तित्व और उनकी लेखनी में कोई अंतर नहीं है। उनकी रचनाओं में उनका व्यक्तित्व,
उनका संघर्ष,
गाँव के प्रति
उनका मोह पारे की तरह साफ झलकता है। करुणा उनका स्थाई भाव है। इसीलिए उनकी कविताएँ
करुणाजन्य-यथार्थ की उपज हैं।
गाँवनामा गाँव का न केवल ओरहननामा है,
अपितु कुटिलता,
अकस, भोंडापन का आईना भी है। वह तन्द्रा से
आहिस्ता-आहिस्ता उठाता नहीं, बल्कि झकझोर देता है। इस संग्रह की अधिकांश
कविताएँ क्रांति-धर्मी हैं। अपने विन्यास, तन्यता, संयोजन, कसाव में विप्लव-धर्मी भी। वे पाठकों
को भवभूति-सी समीप बुलाती हैं और उनके कर्ण, कंठों में निराला-सा राग छेड़ देती हैं।
सामाजिक-साम्य का जामा-जोड़ा पहनाती हैं और बन्धुत्व की अलख जगाये रखती हैं।
गाँवनामा की त्रिपदियों को ध्यान में रखकर डॉ. रामप्रकाश कुशवाहा ने उचित ही लिखा
है कि मार्क्स के साम्यवाद, आधुनिक मानवतावाद, भेदभाव और शोषण व्यवस्था वाला भारतीय
समाज तथा स्त्री की मुक्ति और समानता के प्रश्न भी कवि विभिन्न त्रिपदियों में
उठाता है। 5 (देखें, गाँवनामा : इतिहास चीख कर के बोला,
हस्तांक वेब
पोर्टल )। ओरहन शिकायत नहीं है, उसमें आक्रोश भी है, शिकायत भी, दर्द भी है, क्षुब्धता भी। बनवारी, फुलवा, धनीराम, इतिहास चीख़कर बोला जैसी कविताओं को इस लिहाज से आप देख सकते हैं।
गाँव का विमर्शवादी-पाठ
उत्तर-आधुनिकतावाद की देन है। हालांकि मानवशास्त्र (एन्थ्रोपोलॉजी)ने यह बहस पहले
शुरू की थी। बाद में अन्य अनुशासनों ने इसे अपने-अपने ढंग से स्वीकार किया।
जर्मन-सम्प्रदाय व अमेरिकी-सम्प्रदाय गाँव के विमर्शवादी पाठ के महत्त्वपूर्ण
अध्ययन केंद्र हैं। जर्मन-संप्रदाय ने गाँव का अध्ययन सांस्कृतिक चक्र के रूप में
किया है। उनका मानना है कि इसके विकास का कोई निश्चित क्षेत्र नहीं है। जबकि
अमेरिकी-सम्प्रदाय ने क्षेत्र विशेष के ऐतिहासिक अध्ययन पर जोर दिया है। अमेरिकी
सम्प्रदाय के विचारक बोआस ने अपने लेख ‘द लिमिटेशन ऑफ़ द कॉम्परेटिव मैथड’ में समाज की निजी संस्कृति पर बल दिया
है। उन्होंने कहा है कि समाज की निजी संस्कृति को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा
जाना चाहिए। चन्द्रदेव जी बोआस की भांति समाज को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने
के पक्षपाती हैं। भले ही उनका सृजनात्मक-समाज बनारस, गाजीपुर के आसपास का हो, किन्तु उदात्तता के कारण वह वैश्विक
गाँवों के समीप है। उन्हें लोकगीतों और लोक कलाओं की चिंता हमेशा बनी रहती है।
इसीलिए गाँव की भुखमरी के दिनों में भी उन्हें जातीय गीत ‘बिरहा’ का स्मरण रहा -
सुबहें सुन्दर होतीं लेकिन
वह सब हमको नहीं सुहाता।
भूखे कोई बिरहा गाता? 6
बिरहा, नाच-नौटंकी, घरों की छाजन, लिपाई-पोताई, गेरू के छाप, कउड़ा, सउर-कर्म, नार-कटाई, अनरसा, पूआ, दीप पर्व जैसे सन्दर्भ वे भूले नहीं
हैं, गाँव
के सूक्ष्म से सूक्ष्मतम मनोचित्र के वर्णन में उनका जबरदस्त अधिकार है। यही कारण
है कि इस तरह के सन्दर्भों के सम्मुख वे सम्मोहित अवश्य होते हैं, किन्तु उससे बाहर निकलने का विवेक
उनमें हमेशा बना रहता है।
गाँधी व अम्बेडकर के नक्श-ए-कदम पर जिस
गाँव ने क्रांतियाँ की हों, रेल लूटी
हो, जेल
गया हो, अग्रेजों
से लाठियाँ खाई हों, शहीद
हुआ हो, मानवप्रेम
का कारण बना हो, उसे
बाद में लूटा गया हो, बंजर
किया गया हो, बाजार
और सस्ते डीजे गानों के थिरकनों के हाथ बेच दिया गया हो। यह सब देखकर उदारमना कवि
का क्षुब्ध, आक्रोशित
होना स्वाभाविक है-
गाँधी के संग-संग उन सबने/ अंग्रेजों
से लड़ी लड़ाई / आज़ादी के देखे सपने। 7
ट्रेंने लूटीं जेल गये वे / फिरंगियों
से लोहा लेकर / अपनी जान से खेल गये वे। 8
देखा बेटी की शादी में / डीजे पर था गाँव थिरकता / शहरी रंग ढंग पर मरता। 9
आधुनिकतावाद के बाद गाँव का आदर्शात्मक
ढाँचा टूटा है। अब गाँव केवल अघाए लोगों का रूमानियत वाला गाँव नहीं रहा। उसमें
कुंठा, जातिवाद,
साम्प्रदायिकता,
दमन, हिंसा, स्त्री शोषण जैसे सन्दर्भ मवाद की तरह
बह चले। दलित और स्त्री रचनाकारों ने अपनी सर्जना में अपने ढंग से लिखा है। उनमें
कहीं-कहीं अतिरेक व पक्षपात आ गया है। चंद्रदेव जी तमाम तरह के अतिरेकों, पक्षपातों से बचते हैं। उनमें मानव
प्रेम बचा हुआ है। इसीलिए जब वे गाँव की किसी समस्या को अपना विषय बनाते हैं तो
उसे नीर-क्षीर रीति से देखते हैं, उसके हाल पर बह नहीं जाते हैं। यही उनकी ताकत
है —
चुड़िहार, रंगरेज थे चिकवे / नाई, दर्जी, जोलहा, धुनिया / इनकी मेरी जुड़ी थी दुनिया 10
चंद्रदेव जी ऐन्द्रिय बोध के कवि हैं।
यदि देस-राग ऐन्द्रियता और बिम्ब-धर्मिता का प्रवेश-द्वार है तो पिता का
शोकगीत व गाँवनामा उसका उत्कर्ष। इतिहास
चीखकर के बोला, गाँव
गया था जब जाड़े में, फुलवा जैसी कविताओं में कोई रंग-रोग़न नहीं है और न
बिम्बों को उकेरने में कोई रंदा लगाकर चिकना किया गया है। इसलिए ये कविताएँ निजी
जीवन की खेती लगती हैं। उत्तर-वैश्वीकरण के बाद गाँव में हुए तीव्र परिवर्तन के
कारण गाँव में शहरीकरण का सस्ता किन्तु भोंडा विकास हुआ है। अब अलाव के पास बैठकर
हुक्का पीते बूढ़े शायद ही मिलें, किन्तु प्रत्येक साँझ को देशी और अंग्रेजी शराब
के नशे में धुत युवा नहर की पटरियों, खलिहानों, ट्यूबवेलों में झूमते ज़रूर दिख
जायेंगे। कट्टा और बन्दूक, मारपीट, गाली-गलौज, झाँसेदारी, आगजनी जैसे क्रियाओं की बाढ़ आ गयी है।
नई रति, नये
कामदेव की मादक क्रीडाओं से गाँव शर्मशार
हुआ है–
संझा को ठेकों पर रौनक– चिखना,
चुक्कड़ और
पियक्कड़ / पीने वाले लाल बुझक्कड़ 11
अस्तु, गाँवनामा ग्रामीण-भारत के इतिहास का
सर्जनात्मक दस्तावेज़ है। इसमें इमरजेंसी पूर्व ग्रामीण भारत, इमरजेंसी पश्चात, वैश्वीकरण तथा उत्तर वैश्वीकरण के
ग्रामीण भारत में हुए परिवर्तनों, आंदोलनों, घटनाओं, पलायन, प्रव्रजन, मूल्यों व सांस्कृतिक सन्दर्भों का समय
दर्ज हुआ है। सृजनात्मक कसाव, गठन, लय लम्बी कविताओं के बावजूद टूटा नहीं है,
ग्रामीण पात्रों
पर आधारित कविताओं में भाषा संवादधर्मी और आत्मीय है। ग्राम्य-निकटता व ग्राम्य
तनाव लिए हुए है। इसलिए इसके विस्तृत कैनवास में किसी एक वृत्ति
को उकेरना इसके साथ समझौता करना है।
सन्दर्भ
1. सुमित्रानंदन पन्त : ग्राम्या, लोक भारती प्रकाशन, नवाँ संस्करण 1977, पृ. 22
2. वहीं, पृ. 23
3. चंद्रदेव यादव : गाँवनामा, अक्षर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स,
भूमिका से
4. वही
5. रामप्रकाश कुशवाहा : गाँवनामा : इतिहास चीख कर
के बोला, हस्तांक
वेब पोर्टल
6. चंद्रदेव यादव : गाँवनामा, अक्षर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स,
पृ. 4
7. वही, पृ. 16
8. वही, पृ. 16
9. वही, पृ. 27
10. वही, पृ. 39
11. वही, पृ. 29
सुशील द्विवेदी, सम्पादन एवं स्वतंत्र लेखन, सम्पर्क : susheeld.vats21@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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