शोध आलेख : आदिवासी साहित्य के समक्ष चुनौतियां / डॉ. गजेन्द्र कुमार मीणा
सामान्यत: आदिवासी साहित्य की चुनौतियों पर कम चर्चा की जाती रही है। जो साहित्य अपना आकार गढ़ रहा होता है और जिसका आकार निश्चित नहीं
होता है, उसके समक्ष ज्यादा चुनौतियां होती हैं। आदिवासी साहित्य के सम्बन्ध में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है। आदिवासी साहित्य अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद में है, इसलिए चुनौतियां भी ज्यादा हैं। आदिवासी साहित्य को लेकर पिछले दो दशकों से पर्याप्त चर्चा हुई है। कई अज्ञात और अनछुए से पहलू हमारे सामने आए हैं। उससे आदिवासी साहित्य में काफी स्पष्टता भी आई है, फिर भी आदिवासी साहित्य किसे कहा जाए? यह प्रश्न अब भी संवाद चाहता है। इसका कारण अभी भी अधिकांश: पाठकों का मानना है जिसमें आदिवासियों के
सम्बन्ध में कुछ भी लिख लिया गया हो। जिसके पात्रों के नाम और पृष्ठभूमि किसी तरह से आदिवासियों से जुड़
जाए अथवा किसी आदिवासी लेखक द्वारा लिख लिया जाए, तो वह आदिवासी साहित्य है। या फिर जिस साहित्य में आदिवासियों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गई
हो। जो कुछ भी आदिवासी के बारे में लिखा
जा रहा है, वह आदिवासी साहित्य है। आम पाठक, विद्यार्थियों, शोधार्थियों और कई तथाकथित आदिवासी साहित्य के विशेषज्ञों का यही
मानना है। सेमिनारों-वेबिनारों में ऐसे कई पेपर
पढ़े और सुने जाते हैं। पत्रिकाओं में भी
ऐसे कई आलेख प्रकाशित हुए हैं। इससे आदिवासी साहित्य को कितनी दिशा मिलेगी, यह आनेवाला समय ही बताएगा। इस बीच आदिवासी साहित्य के चिंतकों ने आदिवासी साहित्य की कई
महत्त्वपूर्ण परिभाषाएं दी भी हैं। हरिराम मीणा, रमणिका गुप्ता, वंदना टेटे और गंगासहाय मीणा जैसे कई विद्वानों ने आदिवासी साहित्य
को परिभाषित करने का प्रयास किया है। यहाँ परिभाषाएं उद्धृत न करके उनसे जो आदिवासी साहित्य के सम्बन्ध
में आशय निकलता है, उसे रखा जा सकता है-
- 1. जिस साहित्य में आदिवासियों की संवेदना हो, प्रमाणिकता हो, तार्किकता हो, जो वायवीय कल्पना से मुक्त हो और आदिवासियों की वस्तुनिष्ठ अभिव्यक्ति करता हो।
- 2. जिस साहित्य में आदिवासी जीवन और समाज, उनके दर्शन के अनुरूप अभिव्यक्त हुआ हो। जिसमें शब्द-नृत्य, गीत-संगीत, पशु-पक्षी, प्रकृति या कहें समूची समष्टि समाहित रहती है। जिसमें सामूहिकता और सहजीविता का भाव हो।
- 3. जिस साहित्य में आदिवासी समुदाय के ज्वलंत सवालों पर संवाद हो। आदिवासियों की संस्कृति, आदिवासियों का इतिहास, आदिवासियों केअस्तित्व-अस्मिता का प्रश्न, आदिवासियों की भाषा, आदिवासियों की शिक्षा, आदिवासियों के धर्मं और नक्सलवाद जैसे सवालों पर विचार हो। उस पर अपना विचार सुसंगत तरीके से तटस्थता के साथ अभिव्यक्त हुआ हो।
- 4. जिस साहित्य में आदिवासियों के सर्वांगीण विकास का चिंतन हो और उनके शोषण के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर हो।
- 5. जिस साहित्य में आदिवासी लोक की अभिव्यक्ति हुई हो।
यह कुछ विशिष्टताएँ मोटे तौर पर आदिवासी साहित्य के सम्बन्ध कही जा सकती हैं। जयपाल सिंह मुंडा, रामदयाल मुंडा, हरिराम मीणा, वंदना टेटे, महादेव टोप्पो, वाहरू सोनवने, रोज केरकेट्टा, निर्मला पुतुल, ग्लेडसन डुंगडुंग और अनुज लुगुन जैसे और भी कई साहित्यकारों के साहित्य में उक्त विशिष्टताएँ अभिव्यक्त हुई हैं। इन विशिष्टताओं से रहित साहित्य सही अर्थों में आदिवासी साहित्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता प्रतीत होता है। इस तरह पहली चुनौती तो आदिवासी साहित्य की अवधारणा को समझने की ही सामने आती है।
अधिकांश गैर-आदिवासी लेखकों के साहित्य में आदिवासी जीवन दर्शन ही
नहीं हैं। कई आदिवासी लेखकों में भी यह दर्शन
नदारद है। गंगा सहाय मीणा “आदिवासी साहित्य आदिवासी दर्शन पर आधारित साहित्यिक आन्दोलन”[1] मानते हैं। कृष्णमोहन सिंह
मुंडा “आदिवासी साहित्य वही जिसमें आदिवासी
जीवन दर्शन है”[2] मानते हैं। इसका अर्थ यह है कि
आदिवासी साहित्य में आदिवासी जीवन दर्शन का होना आवश्यक है। आदिवासियों के मौखिक-लौकिक परम्परा में यह जीवन दर्शन हम सहज ही देख
सकते हैं। आदिवासी लोक से निकलकर जो साहित्य आया
है, वह साहित्य आदिवासी जीवन दर्शन का
प्रतिनिधित्व करता है। आज ऐसा साहित्य
हमारे सामने प्रकाशित होकर आ रहा है। यह साहित्य अधिकांश आदिवासी भाषाओं में है। जिसका लिखित रूप अब धीरे-धीरे हमारे सामने आने लगा है। हिंदी आदिवासी साहित्य में उदहारण से बात की जाए तो आदिवासी जीवन
दर्शन को अभिव्यक्त करने वाली अनुज लुगुन की एक लम्बी कविता का जिक्र यहाँ किया जा
सकता है। यह लम्बी कविता 2014 में ‘पक्षधर’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। जिसका पुस्तकाकार 2017 में “बाघ और सुगना मुंडा की बेटी” नाम से वाणी प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस पूरी कविता में आदिवासी समुदाय की सहजीविता को देख सकते हैं। इस संग्रह में कवि अनुज लुगुन “सहजीविता की बात” नाम से भूमिका
लिखते हैं। अनुज लुगुन ने कविता में सहजीविता को
इस तरह अभिव्यक्त किया है-
“हम जंगल के पूर्वज रहे हैं
और जंगल हमारा पूर्वज है
जंगल केवल जंगल नहीं है
नहीं है वह केवल दृश्य
वह तो एक दर्शन है
पक्षधर है वह सहजीविता का
दुनियाभर की सत्ताओं का प्रतिपक्ष है वह ।”[3]
कविता में एक अन्य जगह पर वह लिखते हैं “संवाद और सम्मान/ सहजीविता के लिए अनिवार्य शर्त है/ जंगलों से, नदियों से/ पेड़ों से, जुगनुओं से, तितलियों से/ दृश्य-अदृश्य, बोले-अबोले प्रकृति से/ विश्व कल्याण के लिए।”[4]अनुज लुगुन की कविता की यह पंक्तियां समग्रता से आदिवासी जीवन दर्शन
को अभिव्यक्त करती है। अत: आदिवासी जीवन
दर्शन का होना आदिवासी साहित्य में आवश्यक है।
अधिकांश आदिवासी साहित्य मौखिक-लौकिक परम्परा में है। जिसे कुछ आदिवासी चिन्तक पुरखा साहित्य कहे जाने पर जोर देते हैं। उसमें आदिवासी मौखिक-लौकिक साहित्य ही है। आदिवासियों के इस साहित्य का लिखित रूप बहुत कम है। हाल ही के वर्षों में लिखित रूप हमारे सामने आ रहा है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। मौखिक-लौकिक साहित्य आज वैश्विकरण और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के
प्रभाव से लगातार ख़त्म हो रहा है। आलोक वर्द्धन वैश्वीकरण के सन्दर्भ में लिखते हैं कि “वैश्वीकरण आर्थिक अभियान के साथ सांस्कृतिक एकरूपता के लिए
पहचानहीनता का अभियान है।”[5]ऐसी स्थिति में जो आदिवासी परम्परा में है, उसे बचाने और उसे सही संदर्भों के साथ साहित्य के माध्यम से सामने
लाने की चुनौती है। इस मौखिक-लौकिक
परम्परा में आदिवासी इतिहास, संस्कृति और जीवन
सन्दर्भ हैं। इस साहित्य को सहेजा नहीं गया तो यह
बहुत जल्दी लुप्त हो जाएगा अथवा बदल जाएगा। फिर उसे हम सिर्फ संग्रहालय की वस्तु भले ही बना लें, लेकिन उसकी जीवन्तता नहीं रख पाएंगे। गुजरात में भगवानदास पटेल ने भील समुदाय के आदिवासियों की
मौखिक-लौकिक परम्परा की समृद्धि को बचाए रखने का प्रयास किया है। ऐसे और भी भारतीय आदिवासी भाषाओं में प्रयास हुए हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं कहे जा सकते हैं। इसी साहित्य से आदिवासी समुदाय को सही संदर्भों के साथ समझा जा सकता
है।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर लगता है कि आदिवासियों का सही मूल्यांकन
नहीं हुआ है। आदिवासी इतिहास लगभग गुमनाम है। आदिवासी साहित्य के विद्वानों ने आदिवासी इतिहास सृजित करने की
आवश्यकता पर बल दिया है। इस दिशा में
आदिवासी उपन्यासकारों ने महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। राकेश कुमार सिंह, हरिराम मीणा, मधुकर सिंह और राजेन्द्रमोहन भटनागर आदि उपन्यासकारों के नाम लिए जा
सकते हैं जिन्होनें आदिवासी इतिहास की पड़ताल अपने उपन्यासों के माध्यम से करने की
कोशिश की है। समाज अपनी जड़ें इतिहास में तलाश करता
है। आदिवासियों के इस गुमनाम इतिहास को
ढूंढने और संकलित करने की जरूरत है। लोक में ऐसे कई सन्दर्भ हमें सहज ही देखने को मिल जाते हैं। उसके सही पाठ और तथ्यों को पुन: देखने की आवश्यकता है। इससे आदिवासियों का एक वैकल्पिक इतिहास बनेगा। साहित्य में ही इतिहास की बारीकियां तलाश की जा सकती हैं और इसे
तलाशने की कोशिशें पिछले कुछ वर्षों से हुई भी हैं। यहाँ साहित्यकार सही अन्वेषण नहीं करेगा तो एक भ्रमित करने वाला
इतिहासपरक साहित्य हमारे सामने आएगा। जिसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न होंगे। साहित्य के माध्यम से इतिहास गढ़ा और संकलित किया जाना चाहिए, लेकिन उसमें तथ्यों और प्रमाणिकता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसी बात का ध्यान साहित्यकारों को रखना होगा।
आदिवासियों से जुड़े हुए मिथकों के पुनरीक्षण की आवश्यकता है। हरिराम मीणा आदिवासियों के इतिहास और मिथक पर चर्चा करते हुए कहते
हैं कि “आदिवासी इतिहास लिखने से पहले हमें ‘मिथकों में आदिवासी’ के सारे सन्दर्भों
को पुनर्व्याख्यायित करना होगा ।”[6]मिथकों का निर्माण ऐसे ही नहीं हो जाता है। उसमें कुछ तो बात होती है, सही संदर्भों के साथ उसकी पहचान करनी होगी। आदिवासी साहित्य पर लगातार लेखन और चिंतन करने वाली रमणिका गुप्ता
मिथकों को दस्तावेज के रूप में देखती हैं। वह लिखती है कि “मिथक काव्यमय कौमों
के दस्तावेज है।”[7]उनका मिथकों को दस्तावेज के रूप में कहना थोड़ा ज्यादा हो जाता है। लेकिन रमणिका गुप्ता का यह कहना निश्चित ही आदिवासी समुदाय के मिथकों
की महत्ता को रेखांकित करता है। आदिवासी समुदायों की उत्पति, जीवन शैली, संस्कृति और इतिहास सम्बंधित मिथक
हमें आसानी से देखने को मिल जाते हैं। गुजरात के परिप्रेक्ष्य में “राम-सीता की वार्ता” और “भीलों का भारथ” हमारे सामने हैं। इनमें व्यक्त मिथकों को आदिवासी दृष्टि से देखना आवश्यक है। “भीलों का भारथ” में देखिए, किस तरह से उसमें संदर्भ बदले हुए हैं। “एकलव्य” पर कई पुनर्रचनाएँ हुई हैं। “शबरी” की कुछ नए तरह से व्याख्याएं हुई हैं। रामायण और महाभारत के कई पात्रों के सम्बन्ध में ऐसे प्रयास किए जा
सकते हैं। कुछ विद्वानों ने किए भी हैं। यहाँ एक नया पाठ हमारे सामने प्रस्तुत होता है। बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, गोविंद गिरी और टंटया मामा जैसे आदिवासी नायकों का इतिहास के साथ
मिथक भी आदिवासी लोक में खूब प्रचलित हैं। मिथक प्रमाणिकता का दावा नहीं करते, लेकिन उस पर सही सन्दर्भों में विचार करना आवश्यक है। यह पुनरीक्षण साहित्य ही कर सकता है।
आदिवासी साहित्य मूल रूप से आदिवासी भाषाओं में ही है। वह चाहे मुंडा, संथाली, खड़िया, भीली, भिलोरी अथवा अन्य कोई आदिवासी भाषा हो सकती है। आदिवासी समुदायों की लगभग 600 भाषाएँ थी, जो अब सिमट कर 400 के करीब रह गई हैं। जिनमें कई खत्म होने के कगार पर हैं। कुछ आदिवासी भाषाओं की लिपियाँ हैं लेकिन वह पूरी तरह से विकसित नहीं
हो पाई हैं। अधिकांश आदिवासी भाषाओं की उनकी अपनी
कोई लिपि नहीं है। आदिवासी भाषाओं को बचाना है तो उनकी
लिपियाँ विकसित करनी होगी। उसे दैनिक बोलचाल में इस्तेमाल करना होगा। तब ही उसका शब्द भंडार समृद्ध होगा तथा भाषा लुप्त होने से बच पाएगी। उदाहरणस्वरूप हम अंडमान की “बो” समुदाय की “बो” भाषा को ले सकते हैं। उसकी कोई लिपि विकसित नहीं हुई। “बो” भाषा बोलने वाली अंतिम महिला बोआ
सीनियर की जनवरी 2010 में मृत्यु हो गई। यह सिर्फ बोआ सीनियर अकेली की मृत्यु नहीं थी, बल्कि “बो” भाषा और “बो” संस्कृति दोनों की मृत्यु थी। जैसा कि गंगासहाय मीणा कहते हैं कि “भाषाओं को बचाना हमारी सांस्कृतिक विविधता को बचाना है ।”[8]इसी तरह भाषाएँ ख़त्म होती चली जाएगी तो आदिवासियों का मूल रूप में जो
संस्कृति है, वह धीरे-धीरे लुप्त हो जाएगी। आदिवासी भाषा की विशिष्टता को बचाने के साथ प्रचार-प्रसार की चुनौती
है।
आदिवासी साहित्य प्रमाणिकता चाहता है। विमर्श के दौरान उभरा हुआ साहित्य कितना प्रमाणिक है? यह प्रश्न विचारणीय है। यदि वह प्रमाणिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है, तब वह आदिवासियों की वास्तविकता का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है? सवाल यह है कि यह प्रमाणिकता कैसे आएगी? आदिवासी समुदाय को सिर्फ बाहरी रूप से देख, आदिवासियों से बातचीत कर और उनके किसी ज्वलंत सवाल अथवा समाज पर लिख
लेना पर्याप्त नहीं है। प्रमाणिकता तभी
आएगी जब उसमें तार्किक प्रमाण होंगे। उसमें आधिकारिक जानकारी होगी। उसमें तथ्यों का समावेश होगा। यह प्रमाणिकता तभी आ सकती है जब लेखक खुद आदिवासी हो अथवा आदिवासियों
के सवालों का जानकार होने के साथ लगभग आदिवासी हो गया हो। अगर प्रमाणिकता नहीं रही तो यह साहित्य कल्पना मात्र होकर रह जाएगा। यह आदिवासियों पर लिखने और मूल्यांकन करने वाले विद्वानों को समझना
होगा।
साहित्य मात्रात्मक रूप से नहीं गुणात्मक रूप से महत्वपूर्ण होना
चाहिए। आदिवासी साहित्य हाल ही के वर्षों में
बड़ी मात्रा में प्रकाशित हो रहा है। यह साहित्य कुछ बाढ़ सी प्रतीति कराता है। जैसे बाढ़ के पानी में धूल-मिट्टी, लकड़ी-कंकड़ और झाड़-झंझाड़ सब कुछ होता है। ऐसी ही कुछ स्थिति अभी आदिवासी साहित्य के सम्बन्ध में भी है। ऐसे में लगता है कि उसकी गुणवत्ता के साथ समझौता हो रहा है। अभी आदिवासी साहित्य में बाढ़ की स्थिति है। बाढ़ के बाद जब पानी स्वच्छ होगा, तब ही वह उपयोग में लिया जा सकता है। तब हमें पता चलेगा कि आदिवासी साहित्य की क्वालिटी अथवा गुणवत्ता
क्या है? गुणवत्ता से समझौता करने से उसका क्या
अर्थ रह जाएगा?
और अंत में आदिवासी
साहित्य का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन आवश्यक है। एक पक्षीय होकर आदिवासी साहित्य का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। आदिवासी साहित्य ने जब से विमर्श का रूप लिया है तब से कई समीक्षक
साधारण-सी आदिवासी केन्द्रित रचना को महत्वपूर्ण रचना बता देते हैं। किसी भी रचना को मूल्यांकन की कसौटी पर कसने के बाद ही निष्कर्ष दिया
जा सकता है और वह निष्कर्ष संतुलित और दूरगामी होना चाहिए। आदिवासी साहित्य आदिवासियों कीप्रामाणिकता से अभिव्यक्ति चाहता है। कई साहित्यकार वायवीय कल्पना का सहारा लेते हैं, जिससे आदिवासियों का रोमानी चित्रण होता है। इसका असर यह होता है कि आदिवासियों के गंभीर सवालों की तरफ ध्यान
नहीं जाता है और आदिवासियों की गलत छवि निर्मित होती है।
महादेव टोप्पो “आदिवासी साहित्य- चुनौतियां, दशा एवं दिशा” आलेख में रचनाकारों के समक्ष चुनौतियों पर लिखते हैं कि “आदिवासी रचनाकार की भूमिका चुनौतियों से भरी पड़ी है। वह आदिवासी समाज के किन सवालों को प्राथमिकता के आधार पर समझें और लिखें। इतिहास में आदिवासी की भूमिका तलाशें, विस्थापन की समस्या से जूझें, धर्म के ठेकेदारों से लड़ें, भूमंडलीकरण के सवालों से दो-दो हाथ हो, अपने समाज की बुराइयों से जूझें, वर्ण और वर्ग-भेद की समस्याओं से लड़ें, जमीन माफियाओं से अपनी जमीन बचाए, जंगल कटने से रोके, कला संस्कृति और भाषा बचाए, भूख से मरते अपने भाइयों को बचाए या इस सामन्ती, पुरोहितवादी, सवर्णवादी, वर्चस्ववादी, साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, पूंजीवादी सामाजिक ढाँचे में अपने अस्तित्व व पहचान की रक्षा के लिए संघर्ष करे! क्या करे वह? इन प्रश्नों के प्रभाव-विस्तार, आदिवासी समाज को किस तरफ ले जा रहे हैं या ले जा सकते हैं, इसे आगाह करना आदिवासी रचनाकार के लिए एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है ।”[9]आदिवासी समुदाय पर गंभीरता से चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है। आदिवासियों का जीवन दर्शन, उनकी संस्कृति, उनकी समस्याएं और उनके ज्वलंत मुद्दे आज साहित्य के लिए चुनौती हैं। यही नहीं कई छुपी हुई और अनचिह्नित चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों को आदिवासियों पर लिखने वाले साहित्यकारों को स्वीकारनी होगी।
सन्दर्भ सूची
[1]गंगा सहाय मीणा, आदिवासी चिंतन की भूमिका, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली,
प्र.सं. 2017, पृ.सं. 42
[2]कृष्णमोहन सिंह मुंडा, आलेख- आदिवासी साहित्य वही जिसमें आदिवासी
दर्शन है, सं. वंदना टेटे, आदिवासी दर्शन और साहित्य, विकल्प प्रकाशन दिल्ली,
प्र.सं. 2015, पृ.सं. 134
[3]अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,
प्र.सं. 2017, पृ.सं. 44
[4]अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडा की बेटी, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली, प्र.सं. 2017, पृ.सं. 74
[5]आलोक वर्द्धन, आलेख- वैश्वीकरण और आदिवासी संदर्भों की दिशा, सं. अनुज
लुगुन, आदिवासी अस्मिता प्रभुत्व और प्रतिरोध (समय से संवाद : 6), अनन्य प्रकाशन,
दिल्ली, प्र.सं. 2015, पृ.सं. 107
[6]हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, प्र.सं.
2012 पृ.सं. 27
[7]रमणिका गुप्ता, आदिवासी लेखन एक उभरती चेतना, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली,
प्र.सं. 2014, पृ.सं. 33
[8]गंगा सहाय मीणा, आदिवासी चिंतन की भूमिका, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली,
प्र.सं. 2017, पृ.सं. 118
[9]महादेव टोप्पो, सभ्यों के बीच आदिवासी, अनुज्ञा बुक्स प्रकाशन,
दिल्ली, प्र.सं. 2018, पृ.सं. 76-77
डॉ. गजेन्द्र कुमार मीणा, सहायक आचार्य, हिन्दी अध्ययन केंद्र
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर
7567997700, gajendrameenakharbar@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
बहुत अच्छा शोध आलेख, वर्तमान समय में आदिवासी साहित्य की चुनौतियों पर गहरा विचार प्रकट किया हैं।
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