शोध आलेख : धार्मिक पाखण्ड और अंधभक्ति का सामाजिक यथार्थ : ‘आश्रम’ वेब सीरीज / दिनेश अहिरवार
शोध सार :
सिनेमा जगत के मशहूर निर्देशक प्रकाश
झा के निर्देशन में बनी ‘आश्रम’ वेब सीरीज। यह वेब सीरीज शुरुआत से ही सामाजिक
बुराईयों के साथ प्रारम्भ होती है। इस वेब सीरीज का केंद्र बिंदु पाखंडी बाबा होता
है, वह
समाज की भोली-भाली जनता को धर्म और आस्था के नाम पर उन्हें अपने षडयंत्रकारी जाल
में फंसाता है। पहले लोगों की मदद करता है और महान बनने का ढोंग रचता है फिर उनके
अटूट विश्वास पर आघात करता है। एक तरह से देखा जाये तो ये वेब सीरीज हमारे भारतीय
समाज में धर्म और आस्था की आड़ में अपनी जड़ जमाये बैठे कुतंत्रों – जातिवाद, हिंसा, भ्रष्टाचार, हत्या, लूट, नशाखोरी आदि का पर्दाफास करती है तथा
ऐसे अमानवीय लोगों से बचने की सलाह भी देती है। इसमें धर्म और राजनीति के समाज
विरोधी गठजोड़ को भी दिखाया गया है। हिंदी सिनेमा जगत में यह काफी अधिक प्रभावी और
महत्त्वपूर्ण बेव सीरीज है, जिसके माध्यम से मैंने अपनी बात रखने का प्रयास
किया है।
बीज शब्द :
साहित्य, सिनेमा, समाज, जातिवाद, दलित, धार्मिक, पाखण्ड, सामाजिक यथार्थ, अंधभक्ति, शोषण, दमन, बहिष्कृत, भ्रष्टाचार, नशाखोरी और अमानवीयता आदि।
मूल आलेख :
हिन्दी सिनेमा जगत के मशहूर निर्देशक
प्रकाश झा के निर्देशन में बनी ‘आश्रम’ वेब सीरीज जिसका पहला भाग 28 अगस्त 2020 एवं
दूसरा भाग 11 नवम्बर 2020 को ‘MXPLAYER’ की वेब साइट और एप्प दोनों पर रिलीज हुए हैं।
इसके पहले चैप्टर को 9 भागों में विभाजित किया गया है। जो क्रमशः प्राण प्रतिष्ठा,
गृह प्रवेश,
दु:स्वप्न,
सेवा दार,
अमृत सुधा,
विष हरण,
गति रोध,
शुद्धि करण और
महा प्रसाद है। दूसरे चैप्टर में भी 9 भाग क्रमशः त्रिया चरित्र, छद्म वेश, नाग पाश, मृग तृष्णा, कालिया मर्दन, छद्म युद्ध, मोह भंग, कूट नीति, चक्र वात हैं। इन सभी भागों के
शीर्षकानुसार समस्याओं और दृश्यों को दिखाया गया है। इसमें ‘बॉबी देओल’ मुख्य किरदार के रूप में नज़र आये हैं।
इस वेब सीरीज में बॉबी देओल ने काशीपुर वाले निराला बाबा की भूमिका अदा की है। ‘आश्रम’ वेब सीरीज की शुरुआत कुश्ती के खेल से
होती है। जहाँ पर ‘अदिति
पोहनकर’ पम्मी
के किरदार में नज़र आई हैं, जिन्होंने एक दलित रेसलर (कुश्ती खिलाड़ी) की
भूमिका अदा की है। कुश्ती सवर्ण और दलित वर्ग के बीच होती है जिसमें पम्मी को दलित
वर्ग की होने के कारण संगीता (सवर्ण लड़की) के समक्ष हार का सामना करना पड़ता है।
क्योंकि निर्णायक मंडल की समिति में सवर्ण लोग नियुक्त रहते हैं, इसलिए वे संगीता के पक्ष में जीत का
परिणाम घोषित करते हैं। वहाँ मौजूद पूर्व मुख्यमंत्री भी सवर्ण लोगों के दबाव में
उनके ही पक्ष में रहते हैं और पम्मी को महज़ सहानुभूति जताते हैं।
कुछ दिन पश्चात् पम्मी के भाई की शादी
होती है। उसी दौरान जब बारात गाँव में प्रवेश करती है तो बड़े मोहल्ले का एक सवर्ण
व्यक्ति उन्हें घोड़ी चढ़ने से रोकता है। तब पम्मी कहती है कि ‘हम डरते हैं इसीलिए वो हमें दबाकर रखते
हैं। समझ में आ गई है अब बात, अपनी हालत के ज़िम्मेदार हम खुद ही हैं।’
और बारात आगे
बढ़ती है जैसे ही बड़े मोहल्ले वालों के सामने बारात पहुँचती है तो कुछ ब्राह्मण लोग
आते हैं और दूल्हे समेत बारातियों को भी पीटते हैं जिसमें सत्ती (तुषार पांडेय)
पम्मी के भाई को गंभीर चोट लग जाती है और वह बेहोश हो जाता है। तुरंत ही उसे कुछ
लोग अस्पताल ले जाते हैं तथा अक्की (रिपोर्टर), पम्मी और दूल्हा थाने में रिपोर्ट दर्ज
कराने जाते हैं तो जैसे-तैसे करके रिपोर्ट दर्ज होती है तभी थाने में मौजूद सिपाही
बड़े मोहल्ले वालों को खबर करता है। उसके बाद बड़े मोहल्ले वाले जाति सूचक व
मादर...जैसी अश्लील गालियाँ देते हुए अस्पताल जाते हैं और दलित पीड़ित परिवार का
इलाज़ होने से रोक देते हैं। वे कहते हैं कि ‘जब तक एफआईआर वापिस नहीं होगी तब तक
इलाज़ नहीं होने देंगे।’ पम्मी
मज़बूर होकर रिपोर्ट वापिस ले लेती है। उसी दौरान काशीपुर वाले बाबा की एंट्री होती
है और पीड़ित परिवार को इलाज़ के लिए मदद करते हैं। जिसके कारण बाबा सबकी नज़रों महान
बन जाते हैं या यों कहें कि फिल्म के हीरो के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करते
हैं। लेकिन बाबा अपनी राजनैतिक ताकत के बल पर पम्मी की मदद कर उसके परिवार को अपने
चंगुल में फ़साने में सफल हो जाता है। बाबा दूसरों की मदद के नाम पर उन्हें अपने
जाल में फसाकर उनके साथ अत्याचार करता है। लेकिन यह बात उन भोले-भाले लोगों को समझ
नहीं आती है।
बाबा के समझाने पर बड़े मोहल्ले का
चौधरी कहता है कि ‘टट्टे
(अंडकोष) चाहे जितने बड़े हो जाएँ लेकिन रहते हमेशा नीचे ही हैं’ अर्थात चौधरी जैसे ब्राहमणवादी सोच
रखने वाले दलितों को हमेशा से निम्नतम मानते आये हैं। उनकी यह प्रवृत्ति बन चुकी
है कि दलित हमेशा से उनके जूतों में रहा है और रहेगा। इससे स्पष्ट होता है कि इस
बेव सीरीज ने हमारे समाज का यथार्थवादी चित्रण किया है जो आए दिन देखने को मिलता
है। लेकिन ऐसा नहीं है, अब
समय परिवर्तन हो रहा है समाज में भी परिवर्तन हो रहा है। पम्मी का कहना एकदम सच है
कि ‘हम
डरते हैं’ जब
तक दलित वर्ग के लोग सवर्णों की दहशतगर्दी सहते रहेंगे। जब तक उनकी जी हुजूरी करते
रहेंगे। जब तक उनके टुकड़ों पर पलते रहेंगे। तब तक उनके दमन चक्र का पहिया चलता
रहेगा। भारतीय सिनेमा में दलित पात्रों की अहम् भूमिका रही है जिसके सन्दर्भ में
प्रमीला के. पी. लिखती हैं कि “महाजनी सभ्यता और पूँजीवादी वृत्तियों का देशी
जनजीवन के साथ द्वंद्व पेश करने के लिए इनमें दलितपात्र की प्रस्तुति जरुरी थी।
गरीबी, जातीय
हिंसा, देह-शोषण
तथा सामाजिक उपेक्षा सहनेवाले होने पर भी इन पात्रों में इंसानियत और अच्छाइयाँ
हैं। तुलनात्मक दृष्टि से इनकी पात्रता में सामाजिक सदाशयता का समावेश है।”1 जब दमन का सामूहिक प्रतिकार होने
लगता है तब दबंगों को भी हार माननी पड़ती है क्योंकि अत्याचार की भी एक सीमा होती
है।
डॉ. नताशा का किरदार ‘अनुप्रिया गोयनका’ ने निभाया है जो कि एक ईमानदार डॉक्टर
के रूप में देखी जा सकती है। ईमानदार इसलिए क्योंकि वह न बाबा के दबाव में आती है
और न ही किसी प्रकार की झूठी रिपोर्ट तैयार करने में दिलचस्पी लेती है बल्कि मामले
की निष्पक्ष जाँच तथा उचित कार्यवाही करती है। बाबा के कई काले कारनामों का
पर्दाफाश भी करती हैं। वह दलित, पीड़ित परिवार की मदद भी करती हैं। ‘दर्शन कुमार’ ने उजागर सिंह पुलिस वाले का रोल अदा
किया है। जिसमें वे एक सच्चे और कर्त्तव्यनिष्ठ सिपाही की भूमिका निभाते हुए नज़र
आए हैं। उजागर सिंह सवर्ण होते हुए भी मामले की निष्पक्ष जाँच के पश्चात् दलितों
की ईमानदारी के साथ मदद करता है। पुलिस प्रशासन में उजागर सिंह मानवीयता का पक्षधर
इंसान, एक
उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। आज के समाज में ऐसे चंद लोग ही हैं जो
निरपेक्ष रूप से मदद के लिए तैयार रहते हैं। जबकि अधिकांश अफसर सवर्णों से मिले होने
के कारण रिपोर्ट ही दर्ज नहीं करते और यदि दर्ज करते भी हैं तो सवर्णों के दबाव
में वापिस लेनी पड़ती है। इस सीरीज के माध्यम से सवर्णों द्वारा दलितों के साथ
जातीय भेदभाव, दमन
और शोषण की स्थिति को संजीदगी के साथ दिखाया गया है। क्या कारण है कि हिंदी सिनेमा
में दलितों आदिवासियों की उपस्थिति न के बराबर रही है इस सन्दर्भ में फारवर्ड
प्रेस वेब पोर्टल पर कुमार भास्कर लिखते हैं कि “हिंदी सिनेमा में दलित समाज के नायकों
की स्थिति वैसी ही है जैसी हमारे इतिहास में वे मौजूद तो हैं लेकिन सर्वस्वीकृत
नहीं है। सिनेमा इस प्रवृत्ति से कैसे अछूता रह सकता क्योंकि पूंजी की शक्ति ऊँची
जातियों के लोगों के हाथ में है। इस कारण भी नायक का निर्धारण वे अपने हिसाब से
करते हैं। इसके अलावा फिल्म जगत में दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के लोगों की
हिस्सेदारी अत्यंत ही न्यून है।”2
स्त्री का दमन और शोषण सदियों से होता
आया है और आज भी हो रहा। समाज से बहिष्कृत वेश्याओं की स्थिति को त्रिधा चौधरी ने
बखूबी ढंग से अभिनय किया है। जब सत्ती को बोलती है कि ‘हाँ मैं हूँ रांड, हूँ मैं रंडी।’ यह आत्म स्वीकृति समाज में व्याप्त
निराला जैसे ढोंगी बाबाओं की असलियत को सामने लाया गया है। त्रिधा चौधरी ने एक
सेक्स वर्कर और सत्ती जो कि दलित लड़की पम्मी के भाई की पत्नी बबीता की भूमिका
निभाई है। इस सीरीज में उन्होंने समाज के घिनौने चेहरे को दिखाने का प्रयास किया
है। बबीता एक दलित स्त्री है लेकिन देखने में बहुत सुन्दर। बाबा निराला को बबीता
पसंद आ जाती है तो वह उसके पति सत्ती को शुद्धिकरण के नाम पर उसे नपुंसक बना देता
है और फिर बबीता के साथ नाजायज संबंध बनाता है। उसका कई दिनों तक दैहिक शोषण करता
है लेकिन बबीता किसी से कुछ कह भी नहीं सकती है। यह महज़ बबीता और सत्ती के साथ नहीं
है बल्कि हमारे समाज में ऐसे अनगिनत सत्ती और बबीता हैं जो नपुंसकता और बलात्कार
जैसे कुकृत्य के शिकार होते हैं। वहीं चन्दन राय सान्याल ने बाबा के सबसे करीबी और
विश्वासपात्र या यों कहें कि बाबा के राईट हैंड भोपा का किरदार निभाया है। बाबा के
सारे काले कारनामों का चिट्ठा भोपा के पास होता है। बाबा के सन्दर्भ में एक दृश्य
में भोपा साध्वी से कहता है कि ‘तुम जानती तो हो बाबा के शौक हर रोज नई-नई
लड़कियाँ चाहिए’ अर्थात
भोपा जैसे लोगों की मदद से ढोंगी बाबा जैसे लोग अपने कुकृत्यों को अंजाम देते हैं।
राजीव सिद्धार्थ अक्की जो कि न्यूज
रिपोर्टर है, वह
अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज उठाता है। लोकतंत्र का चौथा हिस्सा मीडिया को माना गया
है। जो कि अन्याय, अत्याचार
और अनैतिक कार्यों को मीडिया के माध्यम से उठाया जाता रहा है लेकिन वही मीडिया आज
राजनैतिक लोगों की अनुयायी बन चुकी है। सच को सच की तरह नहीं बल्कि झूठ को सच
बनाया जा रहा है। वास्तविकता से कोसों दूर बस धनबल और राजनैतिक सत्ता का समर्थन
किया जा रहा है। लेकिन इस वेब सीरीज में उसका ठीक उलट है। अक्की तमाम
षडयंत्रकारियों के खिलाफ जाता है और समाज में घटित घटनाओं को वास्तविकता के धरातल
पर सामने लाने की जहमत करता है। सत्ती अर्थात तुषार पांडेय ने पम्मी का भाई और
बबीता के पति की भूमिका निभाई है। एक ऐसा अंध भक्त जो बिना कुछ सोचे समझे बाबा की
भक्ति में डूबा रहता है और नपुंसकता का शिकार हो जाने के बावजूद चुप रहता है और उस
ढोंगी बाबा का गुणगान गाता रहता है। सत्ती उन तमाम अंध भक्तों का प्रतीक है जो
अपनी मूर्खता और अज्ञानता के कारण ढोंगी बाबाओं के चंगुल में फंस जाते हैं और अपना
जीवन बद से बदतर बना लेते हैं। अपनी पत्नियों के शोषण हो जाने पर भी कुछ नहीं कर
सकते हैं। ऐसे कुकृत्य आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं जिसे यह वेब सीरीज बखूबी
ढंग से बेनकाब करती है तथा ऐसे लोगों से सावधान रहने के लिए भी प्रेरित करती है।
जातिगत भेदभाव शुरुआत से ही नज़र आने
लगता है, जब
पम्मी से संगीता कहती है कि ‘पहलवानी करना जुत्ती में रहने वालों की बात न
है’ और
निर्णायकों के रूप में मंच पर बैठे सवर्ण जाति के होने के कारण संगीता का सपोर्ट
करते हुए गलत निर्णय देते हैं और पम्मी को हार का सामना करना पड़ता है। उद्भावना
पत्रिका में प्रकाशित ‘प्रतिरोध
की संस्कृति, हाशिए
का समाज’ लेख
में जितेन्द्र विसारिया लिखते हैं कि “दलित दृष्टिकोण से देखा जाए तो हिंदी सिनेमा की
प्रारंभिक फिल्म ही हमें निराश करती है। उसमें प्रगतिशील तत्वों की अपेक्षा
प्रतिगामी तत्वों का समावेश ही प्रमुख है। जातिवाद और वर्णवाद के विरुद्ध न जाकर
यह सिनेमा, उसका
खुला समर्थन करता है। सामाजिक यथार्थ की अपेक्षा पौराणिक फंतासियों का
पुनुरुत्थान।”3
यह जातिगत भेदभाव हमारे समाज में सदियों से जड़ जमाये हुए है जिसका इस वेब सीरीज के
माध्यम से पर्दाफाश करने की कोशिश की गई है। दलितों और आदिवासियों को हमेशा से ही
हाशिये पर रखा है, उन्हें
वह स्थान कभी नहीं मिला जिसके वे हक़दार थे शोषण और अस्पृश्यता का दंश जरुर झेलना
पड़ा। जिसे इस वेब सीरीज में बखूबी देखा जा सकता है। काला फिल्म के सन्दर्भ में
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रख्यात समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर विवेक कुमार
दलित दस्तक में लिखते हैं कि “दलितों को आज भी नेपथ्य में रखा जाता है,
काला फिल्म आज
भी दलितों या निम्न समाज को दिखाती है लेकिन सवर्ण समाज को नागवार गुजर रहा है।
इससे पता चलता है कि आज भी उच्च जाति वाला समाज दलितों को किस नजरिए से देखता है।”4 बाबा निराला धर्म का ठेकेदार बनकर
भोली-भाली जनता की नज़रों में भगवान बना रहता है और जघन्य व संगीन अपराधों को अंजाम
देता है। राजनीति तक को काफी हद तक प्रभावित करता है। वह अपने अपराध को छुपाने के
तमाम दाव-पेंच लगाता है फिर भी क़ानून और प्रशासन से लम्बे उसके हाथ नहीं। ‘आश्रम’ वेब सीरीज आस्था और धर्म के नाम पर चल
रहे तमाम गोरख धंधों का पर्दाफाश करती है। पाखंडी बाबा कैसे-कैसे किरदार बदलता है
कभी गरीबों का मसीहा बन जाता है तो कभी हवस का पुजारी। समाज में व्याप्त बाबा जैसे
वर्चस्ववादियों व पाखंडियों की असलियत क्या है? उसे हम सभी के समक्ष प्रस्तुत करने में
एक सफल और सार्थक वेब सीरीज कह सकते हैं। सार्थक इस मानी में कि यह वेब सीरीज के
लगभग सभी पात्र अपना किरदार जिस बेबाकी से अदा करते हैं, शायद ही अन्य किसी में हो।
यह वेब सीरीज शुरुआत से ही सामाजिक
बुराईयों के साथ प्रारम्भ होती है और आगे चलकर साफ़ हो जाता है। सारी वेब सीरीज का
केंद्र बिंदु बाबा होता है, वह समाज की भोली-भाली जनता को धर्म और आस्था के
नाम पर उन्हें अपने षडयंत्रकारी जाल में फंसाता है। पहले लोगों की मदद करता है और
महान बनने का ढोंग रचता है फिर उनके अटूट विश्वास पर आघात करता है। इस सन्दर्भ में
एक दृश्य दृष्टव्य है जिसमें पम्मीबाबा की सबसे चहेती भक्त इस बात से अनजान थी कि
उसके साथ बलात्कार जैसा घिनौना कृत्य बाबा ने ही किया है, जब उसे पता चलता है तब बाबा से पम्मी
कहती है कि ‘कोई
तो है जिसने बेहोशी की हालत में मेरे साथ गन्दा काम किया है।’ पम्मी का सपना था कि वह नेशनल चैम्पियन
की ट्रॉफी जीते लेकिन उसका वह सपना अधुरा ही रह जाता है। पम्मी को जब पता चल जाता
है कि यह सब बाबा ने ही कराया है तब बाबा पर से उसका विश्वास टूट जाता है और वह
आश्रम में बाबा की की कैद से बाहर भाग जाती है। तब पम्मी को डराने के लिए बाबा
उसके पिता का एक्सीडेंट करवा देता है तब पम्मी विवश होकर हॉस्पिटल में पिता की
गंभीर हालत देखकर खुद ऑक्सीजन निकाल देती है जिससे उसके पिता की मृत्यु हो जाती है
और वह बाबा से बदला लेने के लिए निकल पड़ती है। यह हमारे समाज का सबसे बुरा दृश्य
है कि बाबा जैसे लोगों की वज़ह से मजबूरी में अपने पिता की हत्या स्वयं बेटियों को
करना पड़ रही है। यह हमारे समाज का एक कटु सत्य है जिसे इस वेब सीरीज में दिखाने की
जहमत की। तिनका सिंह जो रियलटी शो करता है। उसे बाबा अपने चंगुल में फसाकर अपने
आश्रम के कार्यक्रम करवाता है जिससे कि युवा वर्ग आकर्षित होते हैं और आश्रम में
हज़ारों की तादात में लोग बाबा के मुरीद हो जाते हैं। जिसका मुख्य कारण प्रसाद के
रूप में लड्डूओं में ड्रग्स मिलाकर खिलाना। जिसकी उन्हें लत लग जाती है और वे अपना
काम धंधा छोड़कर रोजाना आश्रम आने लगते हैं। इससे बाबा का धंधा और आश्रम में भक्तों
की भीड़ बढ़ती जाती है। यह वेब सीरीज आस्था और धर्म के नाम पर चल रहे ड्रग्स जैसे
अवैधानिक कारोबार की पोल खोलती है तथा समाज में व्याप्त इस तरह के अपराधों से आगाह
भी कराती है।
भोपा कहता है कि ‘एक बार जो आश्रम आ गया वो यूटर्न तो न
आये कोई।’ अर्थात
एक बार जो भी आश्रम की शरण में आ जाता था वह फिर उसी में फंस जाता था। इससे यह
स्पष्ट होता है कि हमारे समाज में धर्म और आस्था के नाम पर ऐसे कई आश्रम चल रहे
हैं, जो
मानव तस्करी और बलात्कार जैसे क्रूरतम अन्याय करते हैं और खुद ऐश-ओ-आराम की
ज़िन्दगी बिताते हैं। इस तरह के आश्रमों में अधिकांशत: दलित और पिछड़े समाज के लोग
ही जाते हैं। उनकी स्त्रियाँ और लड़कियाँ दैहिक शोषण का शिकार होती हैं जिसका
प्रमुख कारण शिक्षा का अभाव और अंधभक्ति का दिमाग में घर कर जाना है। समाज में
घटित घटनाओं को हमारे समकालीन साहित्य में बखूबी देखा जा सकता है जिसमें दलित और
आदिवासियों के चरित्रों को हाशिये पर ही रखा है। ‘हिन्दी सिनेमा दलित आदिवासी-विमर्श’
पुस्तक के
संपादकीय में प्रमोद मीणा जी लिखते हैं कि “दलित और आदिवासी विमर्श समकालीन हिंदी
और भारतीय भाषाओं में दिनों-दिन अपनी जगह पुख्ता करता जा रहा है। लेकिन इस उभार के
बावजूद मुख्यधारा के बॉलीवुड सिनेमा में दलित आदिवासी नायकों और नायिकाओं के
चरित्र सिरे से नदारद हैं।”5 दलितों और आदिवासियों को हमेशा से ही हाशिये
पर रखा है, उन्हें
वह स्थान कभी नहीं मिला जिसके वे हक़दार थे शोषण और अस्पृश्यता का दंश जरुर झेलना
पड़ा। जिसे इस वेब सीरीज में बखूबी देखा जा सकता है।
हिंदी फिल्मों में दलित समस्याओं को तो
उठाया ही है लेकिन वेब सीरीजों जैसा यथार्थपूर्ण चित्रण हुआ है। वेब सीरीज में
समाज में घटित समस्याओं को बिना कोई लागलपेट के सीधे-सीधे स्क्रीन पर दिखाने का
साहस किया है। यही कारण है कि आजकल फिल्मों की बजाय वेब सीरीज देखने में लोग अधिक
दिलचस्पी ले रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है कि जिस सिनेमा में यथार्थता और
पारदर्शिता अधिक होगी वही ज्यादा प्रभावशाली और रोचक भी होगा। सिनेमा में जो
दिखाया जाता है वह हमारे समाज का ही दृश्यांतरण होता है। लेकिन समाज का यथार्थ
नहीं। इस सन्दर्भ में अरुंधती राय कहती हैं कि “हमारा पूरा समाज जाति के आस-पास घूमने
वाला छोटे दिमाग का जोड़-तोड़ करने वाला समाज है। हम बस लोगों को सिनेमाई पर्दे पर
नाचते-गाते देखकर खुश हो जाते हैं। हमारे साहित्य का यथार्थ से कुछ लेना-देना नहीं
है। इस मामले में यह बिल्कुल निरर्थक है। हालाँकि, इसमें कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं।
आजकल साहित्य और सिनेमा में जो हो रहा है उसे मैं ‘क्लास पोर्नोग्राफी’ कहूँगी। जिसमें लोग गरीबी की तरफ देखते
हैं और कहते हैं कि ये लोग तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, गाली देते हैं, गैंगवार करते हैं। मतलब, अपने-आपको बाहर रखकर ये चीजों को ऐसे
देखते हैं जैसे उनका इनसे कुछ लेना-देना ही नहीं हो।”6 सिनेमा जगत में दलितों के जीवन पर
केन्द्रित तमाम फ़िल्में बनाई गईं लेकिन वे सभी महज़ सहानुभूति परक साबित होती हैं
जिनमें दलितों की मुख्य समस्याएँ नगण्य ही रही हैं। हिंदी फिल्मों में दलित
समस्याओं को तो उठाया ही है लेकिन वेब सीरीजों जैसा यथार्थपूर्ण चित्रण नहीं हुआ
है। सिनेमा के सामाजिक सरोकरों और यथार्थ से जुड़े सवालों पर चर्चित लेखक जवरीमल
पारख का मानना है कि - “यथार्थ
खुद कोई सीधी सरल रेखा की तरह नहीं है। समाज के अनेक वर्गों के पारस्परिक संबंधों,
संघर्षों तथा
तनावों से इस यथार्थ का निर्माण होता है और समय के साथ इन संबंधों तथा संघर्षों का
स्वरुप बदलता रहता है, उसी
के अनुरूप यथार्थ भी बदलता रहता है। इस निरंतर बदलने वाले यथार्थ को प्रत्येक वर्ग
और प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्गीय बोध तथा वैयक्तिक ग्रहण क्षमता के अनुसार समझता
और उसमें हस्तक्षेप करता है। सिनेमा इसी रूप में यथार्थ का अंग भी है और उसमें
हस्तक्षेप भी।”7
वेब सीरीज में समाज में घटित समस्याओं को बिना कोई लागलपेट के सीधे-सीधे स्क्रीन
पर दिखाने का साहस किया है। यही कारण है कि आजकल फिल्मों की बजाय वेब सीरीज देखने
में लोग अधिक दिलचस्पी ले रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है कि जिस सिनेमा में यथार्थता
और पारदर्शिता अधिक होगी वही ज्यादा प्रभावशाली और रोचक भी होगा। इस सन्दर्भ में
अकबर महफूज आलम रिजवी लिखते हैं कि “ऐसी फ़िल्में बेहद कम हैं, जिसमें दलित समाज या उसके दृष्टिकोण या
कि उसकी वास्तविक जीवन-स्थितियों का अंकन किया गया है। हम ये नहीं कहते कि
सिने-जगत का अधिकांश, समाज
के एक बड़े तबके को जान-बूझकर अनदेखी करता है। वह अपने सामाजिक कद और सोच के अनुरूप
ही दलित चरित्रों का अंकन करता है। लेकिन हाँ, हकीकत तो यही है कि ऐसा ही होता रहा
है।”8
कोई भी देश सही मायनों में लोकतांत्रिक
कसौटियों पर तभी खरा उतर सकता है जब उस देश में व्याप्त सामाजिक, धार्मिक और जातिगत असमानताओं के लिए
कोई जगह न हो। इस मानी में देखा जाए तो हम एक पिछड़े लोकतांत्रिक देश में जी रहे हैं।
हमारे देश में समकालीन राजनीति और धर्म की आड़ में जो घिनौने षडयंत्र रचे जा रहे
हैं ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है। लोकतांत्रिक देश में रहते हुए यदि आप सवाल
नहीं उठाते, और
जाहिर तौर पर गलत होते हुए यदि चुपचाप देखते-सुनते हैं तो आप भी गुनाहगार होते
हैं। आश्रम वेब सीरीज की समीक्षा करते हुए हिंदुस्तान डॉट कॉम पर राजीव रंजन लिखते
हैं कि “लेखक
हबीब फैसल और निर्देशक प्रकाश झा ने इस सिरीज में न सिर्फ धर्म के नाम पर धोखाधड़ी
के विषय को उठाया है, बल्कि
पाखंडी धर्मगुरुओं, अपराध
और राजनीति के गठजोड़ को भी प्रमुखता से दिखाया है। साथ ही, दलित उत्पीड़न के मुद्दे को भी इसमें
शामिल किया है। प्रकाश झा की खासियत है कि वह समाज और राजनीति से जुड़े मुद्दों को
मनोरंजन की चाशनी में लपेट कर पेश करते हैं। वह उसे इस तरह बनाने की कोशिश करते
हैं कि बात लोगों तक पहुंच भी जाए और व्यावसायिक पहलू भी प्रभावित न हो। इस सिरीज
में उन्होंने यही सूत्र अपनाया है।”9 अंततः इससे हिन्दूओं की धार्मिक भावनाएँ जरुर
आहत हुई हैं लेकिन समाज में व्याप्त कुत्सित और घिनौने कृत्यों का पर्दाफास करती
है, यह
वेब सीरीज। कुछ हिंदूवादी धर्म के ठेकेदारों का मानना है कि यह वेब सीरीज भारतीय
सनातन धर्म की संस्कृति को बदनाम करने की कोशिश है जिसमें हिन्दू संस्कृति के
प्रतीकों और हिन्दू संतों को बदनाम किया गया है। लेकिन मुझे लगता है ऐसा नहीं,
इसे महज़ हिन्दू
धर्म के प्रतीकों और परम्पराओं को आहत करने की बात को ध्यान में रखने की जरुरत
नहीं बल्कि इसने हमारे समाज की वर्तमान स्थिति की वास्तविकता से रू-ब-रू कराया है
जिसका उदाहरण हम आशाराम और राम रहीम के रूप में देख चुके हैं।
निष्कर्ष :
इस वेब सीरीज से यह स्पष्ट होता है कि
ढोंगी बाबा बाहर से जितने निर्मल और दूसरों का भला करने वाले दिखाई देते हैं वहीं
अन्दर से उससे कहीं अधिक कुटिल, क्रूर और भयानक होते हैं। एक तरह से देखा जाये
तो हमारे भारतीय समाज में धर्म और आस्था की आड़ में अपनी जड़ जमाये बैठे कुतंत्रों –
जातिवाद,
हिंसा, भ्रष्टाचार, हत्या, लूट नशाखोरी आदि का पर्दाफास करती है
तथा ऐसे अमानवीय लोगों से बचने की सलाह भी है। बाबा के नुमाइंदे नीचे से लेकर ऊपर
तक बैठे हुए हैं। इस वेब सीरीज में बाबा को हमारे समाज के घिनौने, क्रूर चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया
गया जो कि हमारे समाज की वास्तविकताओं से काफी हद तक मेल खाता दिखाई देता है।
इसमें धर्म और राजनीति के समाज विरोधी गठजोड़ को भी दिखाया गया है। किरदारों की
अहम् भूमिका से ही यह वेब सीरीज रोचक और अधिक प्रभावशाली प्रतीत होती है। इस ‘आश्रम’ वेब सीरीज के मार्फ़त हमारे समाज में
व्याप्त कुत्सित और पाखंडियों के कई काले कारनामों के चिट्ठे खुलते हुए नज़र आते
हैं और कई अभी खुलना शेष हैं जिन्हें तीसरे भाग में दिखाया जा सकता है।
सन्दर्भ
1. प्रमीला के. पी. : मलयाली सिनेमा : पददलितों की कलात्मक प्रस्तुति, हिंदी सिनेमा : दलित-आदिवासी विमर्श (सं. प्रमोद मीणा), अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृ. 55
2. https://www.forwardpress.in/2020/05/cinema-bollywood-dalit-obc-adivasi-hindi/15मई2020
3. ‘उद्भावना’ पत्रिका, अंक -134, अक्टूबर-दिसम्बर 2018, गाजियाबाद दिल्ली, पृ. 71
4. https://www.dalitdastak.com/ethnic-character-in-indian-cinema/
5. संपा.
प्रमोद मीणा, हिंदी
सिनेमा : दलित-आदिवासी विमर्श, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृ. 7
6. अकबर
महफूज आलम रिज़वी : अनुग्रह बनाम अधिकार का विमर्श, हिंदी सिनेमा : दलित-आदिवासी विमर्श
(सं. प्रमोद मीणा), अनन्य
प्रकाशन, दिल्ली,
2018, पृ. 45
7. जालिंदर
इंगले : साहित्य और सिनेमा, गौरव बुक्स प्रकाशन, कानपुर, 2017, पृ. 63
8. अकबर
महफूज आलम रिज़वी : अनुग्रह बनाम अधिकार का विमर्श, हिंदी सिनेमा : दलित-आदिवासी विमर्श
(सं. प्रमोद मीणा), अनन्य
प्रकाशन, दिल्ली,
2018, पृ. 46
9. https://www.livehindustan.com/entertainment/story-bobby-deol-starrer-web-series-aashram-review-prakash-jha-3449451.html - 28 अगस्त 2020
दिनेश अहिरवार, पी-एच.डी. – शोधार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, (उ.प्र.) 221005
dineshsagarbhu19@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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