शोध आलेख : छायावादी काव्य में रहस्यात्मकता / डॉ. दिनेश साहू
शोध सार :
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में रहस्यात्मकता का पूर्ण विकास छायावाद में हुआ। इस प्रवृत्ति का विकासात्मक रूप मुकुटधर पाण्डेय के साथ-साथ छायावाद के चार प्रमुख कवि प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी वर्मा की कविताओं में देखने को मिलता है। ये कवि मानवीय अनुभूतियों के माध्यम से रहस्यात्मकता के गीत गाते हुए नजर आते हैं। प्रसाद के ‘प्रेम-पथिक’, ‘लहर’ और निराला के ‘परिमल’ काव्य-संग्रह की विभिन्न कविताओं में रहस्यात्मकता की समस्त प्रक्रिया में प्रेम और सौन्दर्य की प्रवृत्ति को प्रधान माना गया है। छायावादी कवियों की एक बड़ी विशेषता यह रही कि ये प्राचीन भारतीय चिंतन, विवेकानन्द के दर्शन, शैव मत, बौद्ध दर्शन, अरविन्द दर्शन आदि के आध्यात्मिक वर्णन द्वारा अपनी रहस्यात्मकता का परिचय देते हैं। निराला ने माया, अद्वैत, मुक्ति विराट आदि तत्व का वर्णन उपनिषदों के आधार पर किया है। प्रकृति को भी आधार बनाकर छायावादी कवि रहस्यात्मकता के विभिन्न बिन्दुओं को उजागर करते हुए दिखाई देते हैं। ये प्रकृति के प्रत्येक कण, उपादान और क्रिया व्यापार में अव्यक्त विराट सत्ता की अनुभूति करते हैं। निराला के ‘नए पत्ते’ और पंत की ‘पतझर’ कविताओं में प्रकृति के ऐसे रूप का दिग्दर्शन होता है। महादेवी वर्मा की कविताओं में रहस्यात्मकता का मूलाधार आत्मानुभूत अखंड चेतन है जो मिलन-विरह की मार्मिक अनुभूतियों से घुल-मिलकर लोक सामान्य का रूप धारण करती है। वे आध्यात्मिक आनंद के सहारे सत्-चित् तक पहुँचने का उपक्रम करती हैं।
बीज शब्द : छायावाद, रहस्यात्मकता, असीम वेदना, अद्वैतवाद, दर्शन, भारतीय चिंतन, अज्ञात सत्ता, विराट तत्त्व, जीव-जगत
मूल आलेख :
छायावाद का हिंदी काव्य के इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। भाव सम्पदा तथा शैली के उत्कर्ष के कारण इसे भक्तिकाल के बाद दूसरा स्वर्ण युग माना जाता है। यह भारत की नवचेतना का काव्य है, और उसमें मानव मन की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। इसका आविर्भाव आकस्मिक नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे हुआ है। यह अपने पूर्ववर्ती साहित्य की प्रतिक्रिया और तत्कालीन जीवन मूल्यों की शक्ति, क्रांति और सीमाओं से प्रेरित स्वातंत्र्यबोध के परिणाम स्वरूप विकसित धारा है। छायावाद की कविताओं में रहस्यात्मकता की प्रवृत्ति निरंतर विद्यमान रही है। इस प्रवृत्ति की मूल विशेषता कवि की परोक्ष के प्रति जिज्ञासा, भाव के द्वारा उस परोक्ष सत्ता का आभास देखना, उसके प्रति असीम वेदना और उससे तादात्म्य की अनुभूति है। छायावादी काव्यधारा में इस भावना का उदय जिस बाह्यार्थ-प्रधानता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ उसमें चित्तवृत्ति बाह्य जगत की ओर से हटकर ‘अहं’ विशिष्ट हो गई। आधुनिक काव्यधारा में यह रहस्य भावना एक निश्चित और सुव्यवस्थित रूप लेकर चली। रूप की इस निश्चित व्यवस्था की समुचित सैद्धान्तिक स्वीकृति के कारण जिस काव्यधारा में इसका विधिवत् अनुसरण किया गया, वह काव्यधारा रहस्यवादी काव्यधारा कही जाने लगी। आधुनिक हिंदी काव्य धारा में जो रहस्यात्मकता उपलब्ध होता है, उस पर भारतीय दर्शनों की रहस्य भावना, मध्यकालीन भक्तिमय काव्यधारा का प्रभाव तथा पाश्चात्य रहस्यवादी काव्य का सम्मिलित प्रभाव पड़ा है।
हिंदी-साहित्य के आधुनिक काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय से ही नवीन प्रवृत्तियों का उदय होने लगा था। इन प्रवृत्तियों में हिंदी-साहित्य की पुरानी रूढ़िबद्ध धारा को विषय-विस्तार की ओर अग्रसर किया, उनमें से बहुतों का सूत्रपात स्वयं भारतेंदु ने अपनी कृतियों से किया था। इन प्रवृत्तियों में कविजनों के हृदय की वह अकुलाहट, जो कि पुराने रीति-काव्य की शास्त्रीय परम्पराओं के तंग घेरे से निकलकर उन्मुक्त और स्वच्छंद वातावरण में साँस लेने के लिए प्रकट हो रही थी। भारतेंदु के जीवन काल में ही श्रीधर पाठक ने हृदय की स्वच्छंद गति का अनुसरण करते हुए मानव और प्रकृति के मध्य अपनी सरल और अकृत्रिम भावधारा को प्रवाहित किया। इसी हार्दिक भाव-प्रवाह के बीच कहीं-कहीं श्रीधर पाठक की वृत्ति अत्यंत स्वाभाविक रूप से रहस्यात्मक भी हो गई है। श्रीधर पाठक के साथ-साथ मुकुटधर पाण्डेय ने इस नवीन रहस्यवादी प्रवृत्ति का अनुसरण करते हुए काव्य-रचना की। ये रचनाएँ उस समय की प्रमुख साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हो रही थी। मुकुटधर पाण्डेय के रहस्यवादी गीत भी ‘सरस्वती’ में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे। इस प्रवृत्ति को आगे बढ़ाने के लिए छायावाद में अनेक कवियों का उदय हुआ। प्रसाद ने छाया और रहस्य के अमर गीत गाये। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा भी छाया एवं रहस्य-लोक के श्रेष्ठ कलाकार के रूप में प्रकट हुए हैं।
मुकुटधर पाण्डेय के काव्यों में रहस्यानुभूति के व्यापक दर्शन होते हैं। कवि ने रहस्यानुभूति के परिवेश में मानवीय अनुभूतियों को अभिव्यंजित किया है। कवि को रहस्य की अनुभूति जड़ एवं चेतन सभी वस्तुओं में होती है। ‘कुररी के प्रति’ शीर्षक कविता में दिन भर सुदूर खेतों में चुगने के पश्चात रात्रि में आते हुए कुररियों को देखकर कवि प्रश्न करता है कि तू अपने मन की बात बता दे कि कहाँ भूल गयी थी और अब कहाँ जा रही है? कवि कुररियों से पुन: प्रश्न करता है कि तुम कितनी दूर कहाँ और किस दिशा में निवास करती हो, वहाँ कौन-सा तारा आलोक प्रदान करता है, पृथ्वी का वह किनारा तुम्हे कौन-सा गान सुनाता है तथा वहाँ कैसा सुगन्धियुक्त पवन चलता है कि तुने यहाँ आने का प्रयास किया? आगे चलकर कवि और दार्शनिक हो जाता है और उस असीम सत्ता में मानवीय भावनाओं का आरोपण कर उसे देखने को व्यग्र हो उठता है। उसी असीम सत्ता में अज्ञात सत्ता का आभास करता हुआ कवि अपनी ‘मर्दितमान’ कविता में कहता है –
“बिछा हृदय के आसन मेरे आज
सजे तुम्हारे स्वागत के हे साज
गूँथ प्रेम के फूलों के नव माल
शखा मैंने पलक पाँवड़े डाल।”1
मुकुटधर पाण्डेय ने ‘एक उदगार’ प्रगीत में परोक्ष प्रियतम को लक्ष्य करके रहस्यात्मकता की उद्भावना प्रस्तुत की है। इसके अतिरिक्त उनके ‘रूप का जादू’ शीर्षक गीत में परोक्ष प्रियतम के प्रति आकर्षण की अनुभूति और प्रेम की वेदना भी है ।
जयशंकर प्रसाद के रहस्यवाद का स्रोत भारतीय दर्शन-विशेषत: शैव आगमन है। कामायनी में साधना की समस्त प्रक्रिया शैव आगमन के अनुसार है। इस तत्त्व के प्रति तीव्र जिज्ञासा, वेदनामय प्रेम, बुद्धिवाद का विरोध आदि सभी आवश्यक बातें प्रसाद के रहस्यवाद में है। प्रसाद के रहस्यात्मकता की समस्त प्रक्रिया में प्रेम और सौन्दर्य की वृत्ति प्रधान है। अत: प्रसाद जी प्रेम और सौन्दर्य के रहस्यवादी कवि कहे जाते हैं। ‘प्रेम-पथिक’ और ‘कानन-कुसुम’ जिनमें काव्य-शैली पुराने ढंग की और वर्णन वस्तु प्रधान हैं, रहस्यवाद के मौलिक तत्त्व प्राप्त होने लगते हैं। उनमें ईश्वर के व्यापक निर्गुण रूप पर आस्था, उसके प्रति हृदय की प्रेमवृत्ति, उसकी विचित्र लीला के प्रति विस्मय तत्व स्पष्ट परिलक्षित होते हैं, जो कि आगे चलकर रहस्यवादी काव्य में परिणत हो जाते हैं। ‘प्रेम पथिक’ में प्रसाद ने ईश्वर की लीला की विचित्रता का स्पष्ट वर्णन किया है।
“लीलामय की अद्भुत लीला किससे जानी जाती है।”2
‘लहर’ में आकर कवि की अभिव्यक्ति प्रौढ़तर और रहस्य-भावना अधिक निर्दिष्ट हो जाती है। उनमें हृदय के प्रबल संवेगों की अभिव्यक्ति को प्रकट करने की क्षमता अधिक आ गई है। छायावादी सूक्ष्मता में लिपटकर अव्यक्त-शीला रहस्य भावना और भी धुँधली और अस्पष्ट हो गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि इधर आकर कवि को जीवन में उनके कटु अनुभव, असफलताएँ, विद्वेष, प्रताड़ना और कुचक्र का सामना करना पड़ा है। फलस्वरूप कवि के मन में निराशा और विषाद के स्तर अधिकाधिक सघन हो गये हैं। इन विषमताओं का समाधान कवि को किसी अनंत दूर देश में मिलता है। अत: अपनी जीवन नौका के कर्णधार से कवि प्रार्थना करता है कि मुझे वहीं ले चल -
“ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे
जिस निर्जन में सागर-लहरी अम्बर के कानों में गहरी
निश्चल प्रेम कथा कहती हो तज कोलाहल की अवनी रे।”3
प्रसाद की सबसे प्रतिष्ठित रचना ‘कामायनी’ है। ‘कामायनी’ की दार्शनिक पृष्ठभूमि शैव, प्रत्यभिज्ञा दर्शन है। ‘कामायनी’ में आरम्भ से ही सामान्य अव्यक्त सत्ता से संबंधित रहस्य भावना दृष्टिगोचर होती है। परंतु अंत में नटराज के रूप में जिस परम-शिव तत्त्व का दर्शन होता है, वह प्रत्यभिज्ञ शास्त्र के आधार पर है। रहस्य भावना की अभिव्यक्ति प्रकृति के विविध उपादानों के माध्यम से होता है, परंतु प्रसाद में प्रकृति के प्रति वैसा आकर्षण और अनुराग नहीं था जैसा कि सुमित्रानंदन पंत के हृदय में था। प्रसाद ने भी प्रकृति को मानव जीवन से प्रतिबिंबिंत दिखाया है। ‘कामायनी’ में रहस्यवाद की सारी प्रक्रिया अत्यंत सुन्दर रूप में प्रौढ़ अभिव्यक्ति के साथ हुआ है। दु:खों के घात-प्रतिघात से आहत होकर व्यक्ति के मन में कौतूहल और जिज्ञासा का भाव उत्पन्न होता है –
“कौन? हुआ यह प्रश्न अचानक और कुतूहल का या राज।”4
प्रकृति की समस्त शक्तियों का संचालन करने वाली एक अव्यक्त सत्ता अवश्य है, वही अपने एक भ्रूभंग मात्र से सबको अस्त व्यस्त कर देती है।
“विश्वदेव,सविता या पूषा,सोमा,मरुत,चंचल पवमान
वरुण आदि सब घूम रहे हैं किसके शासन में अलमान
किसका था भ्रूभंग प्रलय सा जिसमें ये सब विकल रहे
अरे! प्रकृति के शक्ति चिह्न ये फिर भी कितने निबल रहे।”5
‘कामायनी’ में कवि ने यह दिखाया है कि हमें उस सूक्ष्म सत्ता को स्वीकार करना ही पड़ता है। प्रकृति के सभी तत्त्व उस सत्ता का संकेत करते हैं, परंतु यह कोई नहीं जानता कि वह कैसा है -
“सिर नीचा कर जिसकी सत्ता सब करते स्वीकार यहाँ
सदा मौत हो प्रवचन करते जिसका, वह अस्तित्व कहाँ ?
हे अनंत ! रमणीय कौन तुम? यह मैं कैसे कह सकता,
कैसे हो? क्या हो? इसका तो भार विचार न सह सकता
हे विराट! हे विश्वदेव! तुम कुछ हो ऐसा होता भान।
मंद गंभीर धीर-स्वर सयुंक्त यही कर रहा सागर गान।”6
इस प्रकार प्रसाद के रहस्यात्मकता के स्वरूप को आस्था और विषमताओं ने बनाया है। उपनिषदों और तंत्रों से प्रसाद को रहस्यवाद की सामग्री मिली। सौन्दर्य-दर्शन और गहरी प्रेमानुभूति प्रसाद में अधिक है।
निराला का भी छायावाद की इस रहस्यानुभूति की प्रवृत्ति में महत्त्वपूर्ण स्थान है। निराला की रहस्यात्मकता आध्यात्मिक वर्णनों से विशेष संबंध रखती है। महादेवी की तरह निराला विराट और भावुकता की गंभीर व्यंजना नहीं की है। उनके रहस्यवाद में बुद्धि द्वारा किया हुआ आध्यात्मिक चिन्तन प्रमुख रूप से परिलक्षित होता है। निराला ने भारतीय प्राचीन दर्शनों का अध्ययन तो किया ही था, साथ ही स्वामी विवेकानंद की विचारधारा से पर्याप्त मात्रा में प्रभावित हुए थे। माया, अद्वैत, मुक्ति, विराट तत्व आदि का वर्णन निराला ने उपनिषदों के आधार पर किया था। बंगीय विचारधारा के अनुसार ईश्वर की ‘माँ’ के रूप में कल्पना भी निराला ने की है। वस्तुतः निराला नितांत निर्गुण अद्वैतवादी नहीं रहे हैं। सिद्धांत रूप में अद्वैत-संबंधी दार्शनिक विवेचनों को मानते हुए भी निराला ने भक्ति को ही उस परम तत्त्व की उपलब्धि का साधन माना है। ‘परिमल’ के ‘पंचवटी प्रसंग’ में एक ओर तो राम के मुख से उन्होंने दार्शनिक तत्त्व-निरुपण कराया है, तो दूसरी ओर लक्ष्मण के मुख से भक्ति की वरेणयता प्रतिपादित कराई है। राम कहते हैं कि जीव ब्रह्म वास्तव में एक ही है, केवल माया ने दोनों को अलग कर देती है। समस्त सृष्टि और जीव एक ही तत्त्व से प्रकाशित है। जीव जब इस माया की लीला को समझ कर जागता है तब उसे अद्वैत दृष्टि प्राप्त हो जाती है-
“व्यष्टि औ समष्टि में समाया वही एक रूप,चिदघन आनंदकंद
चेतावनी देती जब चेतना की छोड़ो खेल,जागता है जीव तब
योग सीखता है वह योगियों के साथ रह,
स्थूल से वह सूक्ष्म, सूक्ष्मातिसूक्ष्म हो जाता।”7
विस्मय भावना ‘निराला’ की काव्य संपदा का अनिवार्य अंग है। इस भावना ने उन्हें शांत में अनंत के तथा व्यष्टि में समष्टि के दर्शन कराया है। उनके विराट दर्शन के मूल में विस्मय की भावना ही क्रियाशील है। लेकिन निराला ने प्रकृति को समझने के लिए पंत जैसे रहस्य का सहारा नहीं लिया है। उनका रहस्यवाद प्रकृति चित्रण के साथ घुल-मिल सा गया है। निराला की रहस्यवादी कविताओं में भारतीय अद्वैतवाद की झलक मिलती है। एक दार्शनिक की तटस्थता ही उन्हें रहस्यवादी बना देती है। अद्वैतवादी रहस्यात्मकता का सर्वोत्तम उदाहरण उनकी ‘तुम’ और ‘मैं’ रचना है जिसमें कवि अव्यक्त सत्ता के विराट स्वरूप का चित्रण इस प्रकार करता है -
“तुम तुंग-हिमालय-श्रृंग
और मैं चंचल-गति सुर-सरिता।”8
निराला प्रकृति के दृश्य जगत के परे कुछ और देखते थे। प्रकृति के प्रत्येक कण, उपादान और क्रिया-व्यापार में वे अव्यक्त विराट सत्ता की अनुभूति करते थे। बिंदु या शून्य को हमारे शास्त्रों ने शक्ति का पुंज माना है, वैज्ञानिकों ने भी परमाणु की अनंत शक्ति की पुष्टि की है। पंचभूतों के मूल में भी यही है। ‘निराला’ इसी बिंदु की लीला पर विस्मित होकर पूछते हैं -
“बिंदु! विश्व के तुम कारण हो
या यह विश्व तुम्हारा कारण?
कार्य पंचभूतात्मक तुम हो
या कि तुम्हारा कार्य भूतगण?”9
सुमित्रानंदन पंत ने प्रकृति के पटल में व्याप्त रहस्यमयी सत्ता को पहचान लिया था। प्रकृति के प्रति मार्मिक रहस्य-भावना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के कारण ही पंत को प्रकृति के रहस्यवादी कवि माना जाता है। पंत जी कल्पना के पंखों पर बैठकर, स्वप्न लोक में विचरण करते हुए उस दिव्य सौन्दर्य का अमृत पान करते रहते हैं। प्रकृति के प्रति कवि के हृदय का यह अनुराग भरा दृष्टिकोण प्रकृति के व्यक्त सौन्दर्य में अन्तर्हित अव्यक्त चेतन से उसके हृदय का प्रत्यक्ष संवाद स्थापित कराता है और वे भाव-योग की इस मधुमती अवस्था में अनुभव करते हैं कि उन्हें एक रहस्यमय नीरव निमंत्रण मिल रहा है। जैसे-
विश्व के पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान
न जाने नक्षत्रों से कौन
निमंत्रण देता मुझे मौन।10
पंत के रहस्यात्मकता में ईश्वर की भावना भी मौजूद है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस और विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रभाव से पंत ने ईश्वर को मातृरूप में ग्रहण किया है। उनकी आरम्भिक कविताओं में ‘माँ’ शब्द का जो प्रयोग हुआ है वह ईश्वर वाचक ही है। यह माँ विश्व जननी, विराट माँ है। जैसे –
तुहिन बिंदु बनकर सुंदर कुमुद किरण से सहज उतर
माँ, तेरे प्रिय पद-पद्मों में अर्पण जीवन को कर दूँ
इस उषा की लाली में।11
पंत की ‘वीणा’ में इसी प्रकार माँ रूपी अव्यक्त परम सत्ता के प्रति अनेक रमणीय उक्तियाँ हैं, जिनमें कवि के बालिका रूपी मुग्ध हृदय की भाव कुसुमांजलि माँ के चरणों में अर्पित किया गया है। वीणा के अलावा भी पंत के ‘उत्तरा’ और ‘अतिमा’ में फिर से मातृप्रेम का उद्रेक परिलक्षित होता है। इस तरह पंत की रहस्यात्मकता प्रकृति के क्षेत्र से आरम्भ होकर ईश्वर के अव्यक्त आभास की ओर जाती है।
महादेवी वर्मा के काव्य में जो रहस्यानुभूति अभिव्यक्त हुई हैं, उनमें रागात्मक संबंध है। महादेवी ने अपने को विश्व-प्रकृति के रूप में रखकर विश्व-पुरुष के सामने अपनी भावनाओं को निवेदित किया है। इस पथ के अन्य साधकों की तरह स्मृति, विनम्र, वेदना और विरह महादेवी की काव्योपासना के प्रसाधन अवश्य बने हैं, किन्तु इस स्थिति में पहुँचकर भी महादेवी की अपनी मौलिकता छिपी नहीं। महादेवी ने अपनी अनुभूतियों के वेग को इतना प्रवाहशील बना दिया है कि वे जिस किसी भी धरातल पर पहुँची है, वह एक रहस्यलोक का निर्माण करती प्रतीत होती है। इनके काव्य में रहस्यानुभूति का जो स्वर मिलता है, उसे कई प्रकार से जाना और समझा जा सकता है। अनेक समीक्षकों ने महादेवी को श्रेष्ठ रहस्यवादिनी कवयित्री के रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी कविताओं में साधनामूलक रहस्यानुभूति, भावपरक रहस्यानुभूति, माधुर्य-भावपरक रहस्यानुभूति और मानवीय रहस्यानुभूति आदि प्राप्त होती है। जैसे-
“विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात।
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात।”12
इन पंक्तियों में कवयित्री अपने भाव को रहस्य के माध्यम से स्पष्ट किया है। उनकी इन पंक्तियों में प्रणयानुभूति की तीव्रता है। इसके अलावा भी महादेवी ने प्रकृति के माध्यम से भी जीव-जगत और ब्रह्म संबंधी रहस्यात्मक प्रश्न उठाये हैं। ब्रह्म क्या है? उसका स्वरूप कैसा है? वह सगुण है निर्गुण, विकारी है या अविकारी? जीव और जगत क्या है? इन सभी प्रश्नों का समाधान महादेवी ने अद्वैतवाद की स्थापना कर प्रकृति के परिवेश में अत्यंत कलात्मक ढंग से किया है। रजत-रश्मि, मोती से तारे, जुगनुओं के फूल, ओस की निर्मल बुँदे, प्रवाल सी ऊषा, सोने के दिन, चन्द्रमा की किरणें आदि अनेक रमणीय वस्तुओं का ग्रहण करके रहस्यात्मकता को उजागर किया है। महादेवी ने प्रकृति को चेतना से अनुप्राणित देखा है। प्रकृति भी उनकी तरह ही वेदना से आक्रांत होकर बेसुध हो रही है –
बहती जिस नक्षत्र-लोक में निद्रा के श्वासों से बात।
रजत-रश्मियों के तारों पर बेसुध-सी गाती थी रात।।13
महादेवी की रहस्य-भावना के अंतर्गत उनका आध्यात्मिक प्रेम तथा तजन्य वेदना की अभिव्यक्ति गीतात्मक है। महादेवी के गीत कोमलता, मार्मिकता और हृदय स्पर्शिता के गुणों से ओत-प्रोत है। अपने गीतों के प्रसंग में लेखिका स्वयं कहती है – “रहस्यगीतों में आनंद की अभिव्यक्ति के सहारे ही हम चित् और सत् तक पहुँचते हैं। साधारणत: गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र सुख: दुखात्मक अनुभूति का वह शब्द रूप है जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके।”14
महादेवी के रहस्यात्मकता के स्वरूप का क्रमिक विकास उनकी रचनाओं के नाम से ही प्रकट हो जाता है। यामा में उनके चार यामों का संग्रह है। यामा के चार याम नीहार, रश्मि, नीरजा और सांध्यगीत हैं, जो की उनकी रचनाओं के नाम भी हैं। नीहार में एक कुतूहल मिश्रित वेदना आदि से अंत तक परिलक्षित होती है। धीरे-धीरे कवयित्री नीहार की वेदना को विदीर्ण करके सूर्य की रश्मि की खोज करती है। रश्मि की खोज से धुँधलेपन में कुछ-कुछ मार्ग दिखाई देने लगते हैं। इसी प्रकार विषाद, निराशा और वेदना से भरे मन में रश्मिकाल में एक आह्लाद की भावना उत्पन्न होती है। रश्मि में आदि से अंत तक एक आशा का भाव है जो की पीड़ा को प्रिय बनाता है और जीवन के प्रति आस्था उत्पन्न करता है। इसके बाद रश्मि के स्पर्श से नीरजा खिलती है जो कि अपने पूर्ण विकास से प्रेम और वेदना के सुंदर और सुकुमार भावों के विकास को सूचित करती है। प्रेम की यह नीरजा धीरे धीरे विरह-जन्य अश्रु प्रवाह में खिल उठती है। हृदय में प्रियतम की आकुल प्रतीक्षा है। इस प्रकार नीरजा दिन भर विरह का ताप सहन करती हुई संध्या के समीप आ जाती है और सांध्यगीत गाती है। संध्या के बाद रात्रि आती है जो कि दुःख, अज्ञान, वेदना आदि भावों का प्रतीक है। रात्रि के गहन अंधकार में दीपशिखा का दीपक विश्वास-पूर्वक अपनी लौ को जलाये हुए हैं। महादेवी के रहस्यात्मकता का यही स्वरूप है। इस तरह हिंदी साहित्य में रहस्यात्मकता की दृष्टि से महादेवी का स्थान बहुत ऊँचा है। वह प्रेम और वेदना की अद्वितीय गायिका है।
निष्कर्षत: हिंदी के सभी छायावादी कवियों की कविताओं में रहस्यात्मकता के विभिन्न रूप देखने को मिलता है।छायावादी काव्य में बाह्य प्रवृत्ति की अपेक्षा अंतर्मुखी प्रवृत्तियों का वर्णन अधिक हुआ है। यह अंतर्मुखी प्रवृत्ति ही छायावाद की कवियों को रहस्यवाद की ओर अग्रसर किया है। छायावादी कवियों की स्वभाव भिन्नता के कारण रहस्यात्मकता के अलग अलग रूप सर्जित हुए हैं।जयशंकर प्रसाद ने परमसत्ता को अपने बाहर खोजने का प्रयास किया। निराला तत्व-ज्ञान के कारण, पंत प्राकृतिक सौन्दर्य से रहस्योन्मुख हुए और महादेवी वर्मा को प्रेम और वेदना ने रहस्योन्मुख किया। इन सभी कवियों ने उस अव्यक्त, असीम और विराट सत्ता के प्रति अपनी भावनाएँ व्यक्त की है।
संदर्भ :
1. मुकुटधर पाण्डेय : मर्दितमान, http://kavitakosh.org
2. जयशंकर प्रसाद : प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1996 ई., पृ. 34
3. जयशंकर प्रसाद : लहर, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1992 ई. पृ. 14
4. जयशंकर प्रसाद : कामायनी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2002 ई. ,पृ.22
5. वही,पृ.33
6. वही,पृ.31
7. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला : परिमल, गंगा ग्रंथागार, लखनऊ, 2001 वि.सं. पृ. 230-31
8. वही, पृ. 80
9. वही,पृ.157
10. सुमित्रानंदन पंत : पल्लव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
2019 ई. पृ. 38
11. सुमित्रानंदन पंत : वीणा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
1972 ई. पृ. 15
12. महादेवी वर्मा : यामा, लोकभारती प्रकाशन, 2006 ई. पृ. 12
13. वही, पृ. 13
14. महादेवी वर्मा : दीपशिखा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2016 ई. पृ. 02
डॉ. दिनेश साहू , सहायक प्रोफेसर,हिंदी विभाग, सिक्किम विश्वविद्यालय,काजी रोड, गंगटोक, सिक्किम -737101
dshahu@cus.ac.in, 7864878427
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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