''जो भी अच्छा लिखता हैं। उनसे प्रभावित हूँ।'' - संजीव
( वरिष्ठ कथाकार संजीव से हेमलता सैनी की बातचीत )
हेमलता : बातचीत शुरू करने से पहले हम आपके बारे में साधारण जानकारी लेना
चाहेंगे जैसे जन्म, शिक्षा, दीक्षा, परिवार, समाज।
संजीव : सबसे पहले तो मैं अपनी जिंदगी के बारे में विस्तार से न बताकर
संक्षिप्त में बताना चाहूंगा। मैं जब 3 साल का था तब सुल्तानपुर से कुल्टी लाया गया। कई लोगों ने मुझसे कहा, अपनी जीवनी लिख लीजिए। कई लोगों ने कहा, हम आपकी जीवनी लिखेंगे। परंतु मेरी जिंदगी इतनी बिखरी हुई हैं कि
इसमें संभव ही नहीं हैं। स्कूली शिक्षा गाँव में पेड़ों के नीचे शुरू हुई। आज के
समय में ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते। प्राइमरी स्कूल में जहां मुझे भर्ती कराया
गया वहां जब पूछा गया कि कौन सी कक्षा में भर्ती करना हैं तो पिताजी ने कहा किसी
भी कक्षा में दाखिला दे दीजिए। इस तरह मुझे दूसरी कक्षा में भेजा गया। फिर दूसरी
कक्षा के बाद मैंने सीधी पाँचवी कक्षा में दाखिला लिया। इस दौरान ही ऐसी भयंकर
बरसात हुई कि मेरी सब कॉपी, किताब पानी में बह गई। मेरे शिष्य कम
मित्र आर.सी. ओझा उस इलाके में गए जहां 'ऑपरेशन ब्लैक पैंथर'लागू था। मैंने
उपन्यास में इसका नाम बदलकर 'ऑपरेशन ब्लैक पाइथन'किया। क्योंकि मैं चीजों का नाम हू-ब-हू नहीं ले सकता था। हकीकत में
कोई और नाम थे। इलाका चार जोनों में बँटा हुआ था। इसी के एक जोन में मेरे शिष्य
थे। इनको मैं ट्यूशन पढ़ाया करता था। वह अर्धसैनिक बल में कमांडेंट थे। उन्होंने
कहा मास्टर साहब जंगल देखना हैं तो चले आइए, बहुत अजीब व भयानक जंगल हैं और मैं तो इन चीजों की खोज में रहता ही
था। मैं जब वहां गया तो मुझे लगा यह तो बहुत ही रुचिकर (इंटरेस्टेड)हैं; मैं तो इसे छोड़ ही नहीं सकता। मैं फिर ओझा जी को छोड़कर अकेला गयाइस
जंगल में, हम यहां बाई बस से पटना से मुजफ्फरपुर
से होकर जाते थे। यहाँ किडनैपिंग बहुत होती हैं। इन लोगों ने यह चीज मिनी चंबल
वालों ने चम्बल वालों से सीखी। इस तरह डाकू के बीच से कहानी लिखी। मेरी जिंदगी
इतनी बहुमुखी (वर्सेटाइल)हैं कि शायद ही किसी और लेखक की होगी। एक बार एक कहानी के
लिए मैं इस जंगल में गया तो इन्हीं के बीच से एक बार वेश्याओं के बच्चों को भी
पढ़ाया। मुझे तो बाद में पता लगा कि यह बच्चे वेश्याओं के हैं। मुझे लगा कि आज
पहली बार जिंदगी में पुण्य का काम मैंने किया हैं।
मैंने जिंदगी में
बहुत कुछ अर्जित (अचीव) किया। चंबल पर चले गए ,चंबल का पानी कोई पीता ही नहीं हैं। एक मिथ हैं कि राजा ने गायों के
टुकड़े करवा कर नदी में डलवाए हैं पर हम गए और जी भर कर नदी का पानी पिया। आप लोग
अपना रखिए और संस्कार मुझे बख्श दीजिए। मेरे कहने का मतलब हैं कि मैं जंगलगया, कई-कई बार गया, जंगल देखा और नेपाल
भी गया, बिहार गया, यूपी गया। यूपी के थारू और यहाँ के थारू एक जनजाति हैं। उनकी
लड़कियां तो सुंदर होती हैं लेकिन आदमी कुछ अजीब ही ढंग के होते हैं। प्रकाश झा
फिल्ममेकर पहले मेरे मित्र थे। एक फिल्म को लेकर ही मनमुटाव हो गया। जहाँ फिल्म की
शूटिंग चल रही थी; उन्होंने कहाआ जाइए,यहाँ अपना काम भी कीजिए। परंतु हम उस ढंग से काम नहीं कर पाते, जिस ढंग से फिल्ममेकर चाहते हैं। डाकू जो प्रेमा उसका असली नाम था ‘नेमा’। क्योंकि मैं राइटर था इसलिए वह
सुविधाएँ मुझे मुफ्त में मिल जाया करती थी। मैं डाकुओं के बीच जाया करता था। एक
बार इन डकैतों ने अज्ञेयको पकड़ लिया। एक बार प्रकाश झा बिगड़ गए हम पर, जंगल में जहाँ नाद होती हैं, जहाँ उपन्यास में भी इस नाद में खाना दिया गया हैं। मैं गया एक दिन
देखने,कहने लगे कितना पैसा जोड़ रखे हैं।
मैंने कहा फकीर आदमी हूँ,होगा यही दो-चार-सौ, कहा पकड़े जाओगे ना तो देना तीन-चार लाख रुपए से नीचे बात नहीं
करेंगे। मैंने कहा मैं थोड़ी ना वहाँ गया था। हाँ,जान गए तो पकड़ लेंगे,हाँ आए हो यह करने। इस तरह से जिंदगी में बहुत सी चीजें, बाघों को पानी पीते हुए अजीब-अजीब चीजें देखी। बड़ी अजीब बात थी कि
नेपाल का वह हिस्सा बहुत ही उजाड़ था। जबकि इंडिया वाला यह हिस्सा कुछ-कुछ डेवलप (Develop) था। ऐसे में आप वहाँ जाकर सोच ही नहीं सकते कि हिंदुस्तान में भी
ऐसी जगह होगी। ऐसे करके बहुत सारा कुछ हैं जंगल जो इसमें इंसाइड ओर आउटसाइड एक
बहुत ही अजीब चीज हैं। रोहतक मैं एक बार गया था, एक बार कुरुक्षेत्र गया था। मैं रोहतक अपने काम से किसानों की
आत्महत्या की स्थिति के बारे में जानने गया था। इस तरह मेरे पास बहुत से अनुभव हैं
मैंने जिंदगी में कभी भी समझौते नहीं किए ना ही ऐसे अवसर कभी आए।
हेमलता : साहित्य के प्रति आपका जुड़ाव कब से हुआ और आपकी रचना - प्रक्रिया
क्या हैं? (रचना प्रक्रिया अर्थात रचना लिखने की
संपूर्ण प्रक्रिया)
संजीव : मेरे शिष्य थे ओझा जी। उनके पिताजी नरेंद्र नाथ ओझा थे, उन्होंने मुझे प्रभावित किया (दे इंस्पायर्ड मी)। यह सुनकर आपको
आश्चर्य होगा कि उन्होंने ऐसे मेरे उपन्यास को उठाकर फेंका। कहते थे क्या लिखते हो? और इस बात की कशमकश थी मेरे मन में। इस प्रकार जुड़ाव हुआ और
साहित्यिक माहौल घर में तो था ही।
हेमलता : आपकी रचनाओं मेंसमाज से विभिन्न वर्गो (यथादलित, आदिवासी, किसान इत्यादि)की विभिन्न प्रकार की समस्याओं का समाधान आप किस रूप
में देखते हैं ? (जो कि आप के
उपन्यास व कहानियों में विशेष रूप से देखने को मिलती हैं)।
संजीव : मैं कुछ नया नहीं देखता चूंकि मैं किसान परिवार से था। दूसरी बात, मैं आदिवासियों के बीच रहा। उनकी समस्याओं को जानता था। दलित, आदिवासी, किसान यह सब माने तो निचले स्तर के
जाते हैं। परंतु सब में थोड़ा अंतर हैं। मैं उस समाज के बीच से था जहाँ सारी डाउन
क्लासेज (down classes)थी। इसलिए इन
समस्याओं को जानता था। परंतु कुछ सुविधाएं मुझे थी। मुझे कभी भी अस्पृश्यता की
समस्या नहीं हुई। इसका एक कारण यह भी था कि मैं मांसाहार नहीं करता था। जिसके कारण
बहुत सारी समस्याओं से बच गए हैं।
हेमलता : अगर बात हम आदिवासी समस्याओं की करें तो उनके सामने जहां तक मैं
मानती हूँ सबसे बड़ी समस्या जल जंगल जमीन की लड़ाई की हैं।
संजीव : जल, जंगल, जमीन की लड़ाई अब जाकर मुखर हुई जबकि उनकी चीजें हड़पी जाने लगी।
इसकी शुरुआत तो बहुत पहले हो गई। लेकिन यह बहुत नीचे-नीचे चलता था। लेकिन अब इन
लोगों में चेतना आई और संघर्ष शुरू हुआ। तब भी शोषक शक्तियां ही हावी रही और अब भी
वे ही हैं। इसका समाधान तब होगा जब लोग जागरूक होंगे। आप उठेंगे, उनके चरणों में लौट जाएंगे तो इसका परिणाम क्या होगा? उनके अंदर आजादी का ख्याल आना चाहिए,चेतना का विकास होना चाहिए, अपने हकों के प्रति जागरूकता का एहसास होना चाहिए।
हेमलता :
जल-जंगल-जमीन की ही तरह नक्सलवाद आदिवासी समाज संपूर्ण भारतवर्ष के लिए एक आंतरिक
समस्या हैं, इसका समाधान आप किस
रूप में देखते हैं?
संजीव : अब समय में थोड़ा बदलाव होना शुरू हुआ हैं। अब सरकार बीजेपी की हैं।
कुछ चीजें उन्होंने नक्सल के लिए भी की हैं। 'पांव तले की दूब' में कुछ ऐसी चीजें
मिल जाएंगी आपको की घास पैरों के नीचे ही जमी हुई हैं। इसका समाधान वही हैं,उनके अंदर चेतना विकसित कर सके,किसी भी तरह (any how,that one solution,we can come over from
this situation)। दूसरा हैं, सत्ता। सत्ता को चाहिए वोट। वोटों के तहत इन्होंने प्रिजन टेंडेंसी(prison
tendency) आदिवासियों के लिए खोल लिया हैं। इसके
तहत इन्होंने कुछ-कुछ विकास किया हैं। इससे पहले विकास क्रिश्चियनिटी से हुआ हैं।
सस्ते में कपड़े, सस्ते में भोजन और शिक्षा, तो मैं इन सारी चीजों से वाकिफ हूँ। दिल्ली यूनिवर्सिटी में मेरी
कहानी चलती थी,'दुनिया की सबसे हसीन औरत'। उसमें हैंकि कैसे-कैसे आदिवासी ही आदिवासी का शोषण करता हैं।
भारतीय लोकतंत्र में पहली बात तो यह कि आदिवासी ही आदिवासी का नेतृत्व करें।
हेमलता : भारतीय लोकतंत्र में आदिवासियों की सहभागिता और नेतृत्व कहां तक उभर
पाया हैं ?
संजीव: बिरसामुंडा के जमाने के आस-पास इसकी शुरुआत हुई। अरण्यमुखी संस्कृति
थी। जंगल ही उनका देवता था,जंगल में ही उनके देवता। अपनी
अरण्यमुखी पुरानी संस्कृति के प्रति बहुत ज्यादा समर्पित थेयह लोग,इसलिए उनका विकास मुख्यधारा मैं नहीं हो पाया। हम लोग जब कहते थे कि
इनका विकास मुख्यधारा में हो तो कहते थे कि नहीं इनकी संस्कृति नष्ट हो जाएगी। हम
क्यों उनकी संस्कृति को नष्ट करें। लेकिन बाद में समय रोलर की तरह आकर सब चीजें
उलझाता गया। आप समझिए कि झारखंड एक ऐसा राज्य हैं जिसके खनिज (मिनरल्स) इतनी
ज्यादा हैं कि अकेले पूरे हिंदुस्तान को फीड कर सकता हैं। उन इलाकों में सोना हैं, पूरी की पूरी इंडस्ट्री हैं तो उनकी सहभागिता यह हैं कि वह मुख्यधारा
में आए, शिक्षित हो। संस्कृति का मोल
(तोड़/मरोड़) हो उनके विकास के लिए। आदिवासियों में एक प्रथा हैं- जन शिकार, जो 12 वर्ष में होती हैं,जिसमें औरतें निकलती हैं, शिकार करने। पुरुष लोग तो हंडिया पीते थे मुगलों के टाइम। लेकिन अब
वो प्रथा किस रूप में हैं ? अब कुछ औरतें जाती
हैं, हंसते-हंसते मुर्गा वगैरह मार कर आ
जाती हैं, हो गया जन शिकार। क्योंकि ट्रेंड बदल
गया हैं। इसलिए परंपराओं के प्लस पॉइंट समझना बुझना चाहिए। उसके धनात्मक पक्ष को
ही न्यूटिलाइज करना चाहिए।
हेमलता : आज वैश्वीकरण के दौर में आदिवासियों की स्थिति के बारे में आप क्या
कहना चाहेंगे ?
संजीव : जब तक आदमी शिक्षित नहीं होगा। अपने पांव पर खड़ा नहीं होगा, अपने अधिकारों को नहीं पहचानेंगे। फिर भले ही वैश्वीकरण के खिलाफ
विश्व एक हो जाए, पीछे हैं, पीछे ही रहेंगे। सरकार जो भी करेगी-करेगी, अपने आप से करना होगा। जो भी लोग शिक्षित हैं एक आदमी, दो आदमी, हजार आदमी मिलकर कदम उठाएंगे तो विकास
नहीं होगा क्या? निरंतर प्रयास होगा जब जाकर जागृति
आएगी।
हेमलता : मगर बात
किसान की समस्याओं की की जाए तो देखने में आता हैं कि किसान की स्थिति में कोई
विशेष परिवर्तन अभी तक नहीं हो सका हैं, इसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
संजीव : नहीं परिवर्तन तो हो रहा हैं, अभी परिवर्तन होना शुरू हुआ हैं। इससे पहले किसानों की आत्महत्या, किसानों को मार देना, उनकी जमीन छीन लेना यह सामंतीवादी किले अपने आप टूट गए। ठाकुरों का
दबदबा था, वह पढ़े-लिखें थे, यह लोग दब गए पर यह कमजोर लोग कचहरियों में गए,थानों में गए। स्वीकार होना (confession) शुरू हुआ हैं, चाहे किसी भी तरह
हुआ हो। यदि सरकार काम करती हैं तो काम बोलता हैं। उसके लिए आपको सचेत रहना पड़ेगा,जागरूक रहना पड़ेगा। आरक्षण का मुद्दा था। जाटों को आरक्षण चाहिए, मराठों को आरक्षण चाहिए। परंतु जाट व मराठे दोनों ही बहुत एडवांस हैं, फिर भी आरक्षण चाहिए। परंतु जब तक जागरूक नहीं होंगे तब तक कुछ नहीं
होगा। आरक्षण लेने के चलते कितना कुछ नष्ट कर दिया। परंतु यह इन सब के लिए सामूहिक
चेतना भी चाहिए,यह सब बातें बहुत हैं। परंतु विषयांतर
हो जाएगा। खैर, किसानों की स्थितियों में अब परिवर्तन
होना शुरू हुआ हैं। मगर यह हवा-हवाई नहीं हैं तो, पढ़ेंगे नहीं लड़के, गधे ही बने रहेंगे
तो क्या होगा? आज भी जब हम गांव में जाकर देखते हैं
तो ऐसे हो जाएंगे जैसे उनको जहर दे दिया हो। परंतु पढ़ेंगे नहीं तब तक नहीं होगा।
पाँच, दस,पचास साल में धीरे-धीरे गुणात्मक अंतर आ रहा हैं।
हेमलता : आर्थिक
विकास का वर्तमान ढाँचा दलित, आदिवासी एवं किसानों के लिए कहां तक उपयोगी हैं ?
संजीव: यह एक द्वंद्वात्मक स्थिति हैं। जैसे एक सड़क के किनारे कोई जमीन
हैं। अगर आप अपनी जमीन देंगे तो सरकार आपको जैसे ; उसके चार लाख रुपए देती हैं। इस तरह परिवर्तन आया हैं। लेकिन वो चार
लाख रुपए किस काम के, वह आपको स्थायी रोजी-रोटी नहीं दे रही
हैं। वो भी आप की जमीन लेकर भी। अगर यह चीज कोई लेखक या पत्रकार कोई प्वाइंट आउट
करता हैं तो उसका मर्डर हो जाता हैं। इस तरह वर्तमान ढाँचे के पीछे का असली चेहरा
यह हैं कल्याणकारी।
हेमलता : आपके उपन्यासों व कहानियों की नारी पात्र बहुत ही सशक्त और संघर्षशील
हैं। किंतु फिर भी यौन उत्पीड़न की शिकार हैं। इस समस्या से किस प्रकार निजात पाई
जा सकती पाई जा सकती हैं ?
संजीव : यह कुछ ऐसी चीज होती हैं, जिसका जवाब देना बहुत ही मुश्किल होता हैं। मेरा उपन्यास ‘रह गई दिशाएं इसी पार’ इसी विषय पर हैं कि कैसे करोड़ों वर्ष पहले वो चीजें अलग-अलग हुई, स्त्री-पुरुष के रूप में। परंतु चाहे कितने ही वर्ष बीत जाए, कितने ही कानून बन जाए। परंतु स्त्री-पुरुष के बीच सहज आकर्षण हैं-
यौनता का, वह रहेगा। अब रहा यौन शोषण का, जैसे; किसी औरत के पास पैसे नहीं हैं, तो कहीं काम करने लगेगी जंगल,घर, मकान, कहीं भी। एकांत रहेगा दूर-दूर तक,चीखों तब भी आवाज नहीं जाएगी, इसका यह मान लीजिए की एक कुत्ते ने काटा कुत्ता कहाँ गया? इसका मालूम ही नहीं हैं। हुआ भी तो था निर्भया कांड। सब ने
मोमबत्तियां जलाई, ये किया वो किया। लेकिन रुका उसके बाद? बल्कि, और बढ़ा। और यही लोग जो निर्भया कांड
के हिस्सा बने थे। उन्हीं लोगों ने पंजाब में, वह पटियाला कांड में, उस लड़की मैहर को रेप करने की धमकी दी, कुछ हुआ? चीजें ठीक करने में समय लगता हैं।
लेकिन जैसे; लताएं फैल जाती हैं तो कैंची से काटकर
ठीक कर दिया जाता हैं। कानून तो बनेहैं। परंतु उनका ठीक तरह से अनुपालन नहीं हो पा
रहा हैं। जीवन एक बगीचे की तरह हैं। उसको ठीक रखने के लिए साफ सफाई की जरूरत होती
हैं। इन केसोंमें विक्टिमाइज (पीड़िता) गर्भाधान की भी शिकार होती हैं। इसका
व्यवधान हो और मनचलों के मन को रोकने के लिए कठोर कानून हो। परंतु इसका कुछ असर
हुआ, जब तक वास्तविकता में कुछ नहीं होगा, तब तक कुछ नहीं होगा। बहुत सारी बातें नहीं कहनी चाहिए आज के संदर्भ
में जैसे ; सीता-राम वाले केस में, एक साल रावण के पास रह कर आई सीता और राम के मन में हमेशा संशय बना
रहा की वह अपवित्र होकर आई हैं। बहुत लुकाव रहा, दुराव रहा, छिपाव रहा, अलग-अलग मिथ रहे। लेकिन यह धारणा तब बदलेगी जब लड़कियां शिक्षित
होंगी और उसके लिए दोषी व्यक्ति कौन हैं ? यह धारणा जिस दिन बदल सकेगी उस दिन और नारी सशक्तिकरण (वुमन
एंपावरमेंट) के जरिए तथा औरतों को तो हमेशा ही दोषी माना ही जाता हैं। परंतु यदि
औरत दोषी हैं तो पुरुष भी दोषी हैं तो दोनों ही सजा के लायक हैं (punishable)।
यह टाइम टू टाइम
कभी निर्भया कांड, कभी मैहर वाला कांड केस, यदि उस दिन, जिस दिन मैहर को रेप की धमकी दी गई, उस दिन ही यदि सरकार ने किया होताकि उसे पीटा गया होता सड़क पर
चौराहे पर खड़ा करके। परंतु नहीं, किसी को पीटेंगे
गोरक्षा के नाम पर, गुंडागर्दी आदि के नाम पर। जब तक वो
जागृति नहीं आएगी, तब तक नहीं होगा। यह निरंतर एक
द्वंद्वात्मक प्रक्रिया हैं। लेकिन टोटल स्थिति बदल जाएगी, यह तो असंभव हैं,क्योंकि कब एक आदमी
के अंदर पाप चला आएगा, कुछ नहीं पता। हमने सोसाइटी के सारे
नियम बनाए हैंअपने लिए ताकि सोसाइटी अच्छे ढंग से चल सके।
हेमलता : आदिवासियों के लिए किसी भी शिक्षा नीति का प्रावधान नहीं किया जा सका
हैं। क्या व्यवस्था ही नहीं चाहती कि इनकों इनके अधिकारों के बारे में जागरूकता हो?
संजीव : नहीं, अभी जो परिवर्तन हो रहे हैं, चाहे 2019 में चुनाव में
बीजेपी को फिर से आना हो। जैसा भी हो, परंतु कुछ प्रावधान तो हो रहे हैं शिक्षा के लिए। इसमें सिर्फ दिक्कत
यह हैं कि हिंदू राष्ट्र, हिंदू राष्ट्र करते हैं। अन्यथा इससे
पहले जो कि प्रगतिशील शक्तियां कर सकती थी। क्यों नहीं कर पाई? किसने कहा था आप सोते रहिए, लंबी चौड़ी हांकिए, कैसे इन्होंने कर
लिया। वो कर सकते हैं, आप नहीं कर सकते थे। उनको वोटों की
राजनीति चाहिए, आपको नहीं चाहिए, आपको सत्ता नहीं चाहिए,क्यों नहीं किया ?
हेमलता : आदिवासियों पर आपने भी तथा अन्य और भी साहित्यकारों ने लिखा हैं, परंतु उसके बाद भी इनके जीवन संघर्ष में कुछ सुधार नहीं हो पा रहा हैं।
ऐसा क्यों ?
संजीव : आदिवासियों में एक डायन प्रथा हैं। उनकी जमीन हड़पने के लिए एक
आदिवासी ही दूसरे आदिवासी को डायन बनाकर ये सब करता हैं। कितनी कहानियाँ लिखी
हमने। लेकिन साहित्य का प्रसार ही नहीं हैं और डायन तो हैं ही। मैंने ‘मैना’(धार) को इसलिए इतना बोल्ड दिखाया था
कि कोई डायन प्रथा हैं ही नहीं। तुम्हारा सारा ढकोंसला हम समझते हैं। लेकिन नहीं, इन चीजों को कोई फैलाएगा ही नहीं।
हेमलता : आपके उपन्यास 'जंगल जहाँ शुरू होता हैं' में पुलिस व डाकुओं के बीच पीसते आमजन की दुर्दशा का वर्णन हुआ हैं।
ये लोग इन परिस्थितियों से किस प्रकार निजात पा सकते हैं?
संजीव : कैसे निजात पा सकते हैं? सबकी मुक्ति नहीं होती हैं। एक आदमी पर अन्याय क्यों होता हैं ? जागरूक होना चाहिए, क्यों पीसते हैं? अपने अधिकारों के प्रति सचेत होना चाहिए। हम तो सिर्फ लिखकर चित्रण
कर सकते हैं। जिस दिन व्यवस्था बदल जाएगी सब ठीक हो जाएगा।
हेमलता :आप के
उपन्यास में एक स्थान पर कहा गया हैं कि “इस जंगल में कूदना जितना आसान हैं, निकल पाना उतना ही मुश्किल हैं। ”किसी भी व्यक्ति के अंदर और घने होते जंगल से उत्पन्न विडंबनात्मक स्थिति से कैसे निपटा जा सकता हैं?
संजीव : मैंने कहा न कि जंगल जो हैं न, जंगल को हमेशा काट - छांट कर ही सही किया जा सकता हैं। आदमी जो हैं
ना, आदमी के अंदर कब जंगल उग आए इसका कुछ
पता नहीं। एक बार फिसल गए ना तो फिर वापिस नहीं आया जाता। जंगल आदमी को जंगली बना
देता हैं। जंगल को एक बार छोड़ दीजिए, जंगल के अंदर घास-फूस,केंचुए सब भर जाएंगे। सतत् गुणात्मकता ही एकमात्र रास्ता हैं, इस जंगल से निपटने का।
हेमलता : वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या जातिवाद हैं। आपने भी अपने साहित्य
के जरिए 'जाति तोड़ो-इंसान
जोड़ो' का पैगाम दिया हैं।
परंतु आज के जहरीले जातिवाद के युग में यह कैसे संभव हैं?
संजीव : यह सारी जो बीमारी हैं, वह हैं-जात। उपन्यास में भी एक जात,दूसरी जात पर तंज कस रही हैं। डकैतों में परशुराम सवर्ण जाति व काली
जो हैं यह निम्न जाति का। परशुराम काली पर तंज कसता हैं। ये कब से आने लगे,सरदार बन गए, मतलब यहाँ भी मारा-मारी हैं। ये
जात-पात का खात्मा होना तो बहुत जरूरी हैं। जब यह ओ.बी.सी. हो गए तो इसमें भी बहुत मारा-मारी हैं। यदि एक जाति होती तो परंतु
हिंदू-हिंदू कहने से, भारतीय-भारतीय कहने से क्या होगा? क्या हिंदू एक हैं? इसलिए इसका खात्मा
जरूरी हैं। हर इंसान का फर्ज हैं,हर जात का फर्ज हैं
कि जात-पात को तोड़ने का अपना फर्ज अदा करें। संभवत: इसका इलाज अंतरजातीय विवाह
(इंटरकास्ट मैरिज)हैं। इसके बाद मुझसे पूछेंगे तो जितने भी यह हैं ना, महाभारत,गीता,कुरान सब को उठा कर चूल्हे में डाल दो। सब जलकर राख हो जाए। एक आदमी
दूसरे आदमी से छोटा हैं, बड़ा हैं, सारी गड़बड़ यहाँ हैं। जब एक आदमी दूसरे आदमी को बड़ा छोटा मानने
लगता हैं। यह मेरी ज्यादातर बुक्स हैं ना, मैं अब इंटरकास्टिज्म पर काम कर रहा हूँ। इस पर स्पष्ट लिखा हुआ हैं
कि भारतवर्ष में अगर किसी समस्या का समाधान या विकास का कोई रास्ता हैं तो पहला
काम हैं जाति को नष्ट करना पड़ेगा,खत्म करना पड़ेगा। इस पर मैंने संकल्प किया कि मैं इस पर उपन्यास
लिखूंगा और लिख रहा हूँ। दीर्घकालीन हैं, देखा जाएगा।
हेमलता : समकालीन समय में आप किन-किन साहित्यकारों से प्रभावित हैं?
संजीव : जो भी अच्छा लिखता हैं। उनसे प्रभावित हूँ। विवेक कुमार, किरण सिंह, और भी बहुत सारे हैं। जो अच्छा लिखते
हैं। परंतु बहुत अच्छा काम नहीं हुआ हैं। इनकी और मेरी उम्र का भी फर्क हैं। मैं 70 साल का यह 30, 40,50 साल के। ऐसा कुछ
नहीं हैं। यह कहना बहुत ही कठिन हैं। लगभग-लगभग मैं नहीं ही प्रभावित हूँ। मेरा
लेखन भी औरों से अलग हैं। हाँ, पहले के लेखकों की
बात करते तो उनमें प्रेमचंद, जैनेंद्र, भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा),यशपाल हैं। ऐसे और भी बहुत सारे हैं। जिनसे प्रभावित हूँ। लेकिन अब
ऐसा नहीं हैं जो संतुष्टि प्रदान कर सके।
हेमलता : अंत में हम आपकी भविष्य में आने वाली रचनाओं के बारे में जानना चाहेंगे।
संजीव: मैं जाति प्रथा के उन्मूलन, निर्भया चक्रव्यूह साजिश पर काम कर रहा हूँ और भी कुछ चीजें हैं।
सांप्रदायिक सद्भाव आदि पर भी काम कर रहा हूँ।
हेमलता सैनी, शोधार्थी, केन्द्रीय विश्वविद्यालय बांदर सिंदरी, किशनगढ़ अजमेर
72062 75190 hemlatasaini2363@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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