शोध आलेख : कँवल भारती की इतिहास दृष्टि/ ज्योति पासवान
शोध सार :
कँवल भारती दलित विमर्श के आलोचक हैं।
इन्होंने अतीत के तथ्यों का वैज्ञानिक एवं सार्थक विश्लेषण किया है। अपनी इतिहास
दृष्टि के माधयम से इन्होंने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि क्या कारण थे कि भारत
में सात सौ सालों तक मुस्लिम शासन स्थापित रहा किन्तु इस शासन का इतना प्रबल विरोध
नहीं किया गया। जबकि अंग्रेजों के डेढ़ सौ साल के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए सभी
एकमत हो गये। नवजागरण के संदर्भ में बात करें तो भारत में नवजागरण की लहर को लाने
का श्रेय राजाराम मोहन राय को दिया गया। लेकिन कँवल भारती ने इस तथ्य को नकारते
हुए भारत में नवजागरण लाने का श्रेय ज्योतिबा फुले को दिया है। डॉ. आंबेडकर
स्वतंत्रता आंदोलन से विमुख थे, जिसके कारण डॉ. आंबेडकर पर साम्राज्यवादी होने
के आरोप लगाया गया। कँवल भारती ने इन आरोपों का खंडन किया है और उन कारणों को
स्पष्ट किया है कि डॉ. आंबेडकर स्वतंत्रता आंदोलन से क्यों विमुख थे? रुस में जिस मार्क्सवाद को सफलता
प्राप्त हुई, वही
मार्क्सवाद भारत में आकर असफल क्यों हुआ? इस संदर्भ में भी इन्होंने अपनी अवधारणा स्पष्ट
की है। अंतत: हम कह सकते हैं कि इतिहास को परखने के लिए आलोचक कँवल भारती ने
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया है।
बीज शब्द : दलित विमर्श, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, वर्णव्यवस्था, नवजागरण, मार्क्सवाद, साम्राज्यवाद, एकेश्वरवाद, पुरोहितवाद, सती प्रथा, चरक-पूजा, नर-बलि प्रथा ।
मूल आलेख :
कँवल भारती एक प्रमुख दलित आलोचक हैं।
इनकी आलोचना की एक प्रमुख विशेषता यह है किवे किसी भी निष्कर्ष तक यूं ही नहीं
पहुँच जाते हैं। इन्होंने देश के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों पर
अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। कँवल भारती के संबंध में डॉ. अलख निरंजन ने लिखा
है- “समकालीन
दलित चिंतकों में कंवल भारती एक प्रमुख दलित चिंतक हैं। साधारणतया दलित समस्या को
मात्र दलितों की सम्स्या माना जाता है। ‘दलित समस्या को राष्ट्र की समस्या के रुप में
देखा जाए’ ऐसा
विचार कंवल भारती प्रस्तुत करते हैं, जो दलित समस्या को देखने का नवीन दृष्टिकोण है।”1 अत: जिस प्रकार कँवल भारती ने दलितों
की समस्या को राष्ट्रीय समस्या के रुप में देखने का नवीन दृष्टिकोण प्रदान किया है,
ठीक उसी प्रकार
इतिहास में घटित अनेक घटनाओं को देखने के लिए भी इन्होंने ऐसे ही नवीन आयामों का
सहारा लिया है। इतिहासकारों द्वारा स्थापित अनेक तथ्यों के साथ इनके विचार मेल
नहीं खाते हैं। यही कारण है कि इन्होंने इतिहास के अनेक तथ्यों को अस्वीकार किया
है। इसी क्रम में ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर
अनेक तार्किक प्रश्न भी आलोचक ने उठाये हैं तथा नये तथ्यों का उद्घाटन भी किया है।
इतिहास का एक महत्वपूर्ण पक्ष है -
भारत का स्वतंत्रता संग्राम। इतिहास के इस महत्वपूर्ण विषय पर अर्थात भारत के
स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में कँवल भारती ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।
इनका कहना है कि मुसलमानों ने भारत में लगभग सात-आठ सौ सालों तक शासन किया,
किन्तु भारत की
जनता ने एकजुट होकर इतना प्रबल विरोध नहीं किया। जबकि अंग्रेजों के डेढ़ सौ सालों
के शासनकाल में ही भारत की जनता इतनी त्रस्त हो गई कि एकजुट होकर अंग्रेजों के
शासन को उखाड़ फेंकना चाहती थी। इस संदर्भ में इन्होंने यह प्रश्न उठाया है कि फिर
ऐसा क्या कारण था कि अंग्रेजों के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए देशभर के हिन्दू,
पूंजीपति,
नेता तथा
धर्माधिकारी एक जुट हो गये? विभिन्न तथ्यों एवं घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण
करने के बाद अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कँवल भारती ने लिखा हैकि मुस्लिम शासकों
के लिये हिन्दू समाज की वर्णव्यवस्था वरदान थी। वर्णव्यवस्था ने एक ऐसा सेवक वर्ग
निर्मित किया था, जिसके
श्रम का लाभ पहले हिन्दू समाज के द्विजों ने उठाया और मुस्लिम शासन स्थापित हो
जाने के बाद मुसलमानों ने भी उठाया था। अत: वर्णव्यवस्था को उन्होंने भी सुरक्षित
रखा। उन्होंने हिन्दू शासकों एवं सामंतों की निरंकुशता एवं स्वेच्छाचारिता पर किसी
तरह का अंकुश नहीं लगाया। कितने हिन्दू विद्वान बादशाहों की रोटी पर पलते थे। इतना
ही नहीं मुस्लिम कारिंदों और सामंतों ने भी इन्हीं गरीबों पर अत्याचार किया। कँवल
भारती ने उपर्युक्त कथन के माध्यम से जिन बिंदुओं पर प्रकाश डालना चाहाहै, वे इस प्रकार हैं- मुस्लिम शासन
स्थापित होने के बावजूद हिन्दू समाज व्यवस्था एवं परम्पराओं में किसी तरह का
व्यवधान उत्पन्न नहीं हुआ था। दलितों पर अभी भी सामाजिक एवं आर्थिक नियम लागू ही
थे। मुस्लिम शासक शोषणकारी नियमों एवं परम्पराओं का अंत करने के बजाय स्वंय उसके
पालन में भागीदारी बने गये थे। जिससे हिन्दू समाज व्यवस्था को किसी तरह की हानि
नहीं पहुँची थी। पूँजीवाद, सामंतवाद तथा ब्राह्मणवाद अभी भी सुरक्षित ही
था। यही कारण है कि मुस्लिम शासन में हिन्दुओं ने उस शासन को उखाड़ फेंकने के लिए
यह एकजुटता नहीं दिखायी। इस संदर्भ में इनका यह कथन दृष्टव्य है। यथा– “मुस्लिम शासन में हिन्दू धर्म सुरक्षित
था, समाज
व्यवस्था सुरक्षित थी, अस्पृश्यता
सुरक्षित थी, सामंतवाद
सुरक्षित था, पूंजीवाद
सुरक्षित था, ब्राह्मणवाद
सुरक्षित था। इसलिए, हिन्दुओं
ने मुस्लिम शासन के खिलाफ स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने की आवश्यकता महसूस नहीं की।”2
इसके विपरीत अंग्रेजों ने मुस्लिम
शासकों की तरह हिन्दू समाजिक एवं धार्मिक नियमों का पालन-पोषण नहीं किया।
अंग्रेजों ने ना केवल हिन्दू समाज की कठोर और अमानवीय प्रथाओं पर प्रहार किया,
बल्कि अंग्रेजी
शासन काल में इन सामाजिक नियमों में आवश्यक परिवर्तन भी किये गये। यथा- भारत की
प्राचीन हिन्दू व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण को मृत्यु दंड नहीं दिया जा सकता था।
किन्तु ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1817 के बाद इस व्यवस्था को समाप्त करके पहली बार
ब्राह्मणों पर समान नागरिक संहिता लागू किया। यह ब्राह्मणों के प्रभुत्व पर पहला
हमला था। 1795 के
अधिनियम संख्या ग्यारह की प्रस्तावना का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कँवल भारती ने
बताया है - यह प्रस्तावना इस तथ्य पर
प्रकाश डालती है कि ब्राह्मण अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए किसनैतिक पतन तक जा सकते
थे। दलितों के शरीर को खरोंच कर एवं जहर देकर उन्हें मारने की धमकी देना, उनके बीवी -बच्चों को बैठाकर उनके सिर
उड़ाने की धमकी देना, यहाँ
तक कि अब्राह्मण स्त्रियों को दूषित करने का तरीका भी उनके धन कमाने के उत्पीड़क
उपाय थे। इस नैतिक पतन का अंत करने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनीने 1819 का एक अधिनियम संख्या सात बनाया था।
हिन्दुओं में एक प्रथा थी। जिसके अनुसार मनौती पूरा करने के लिए अपनी पहली संतान
को गंगा-सागर की भेंट चढ़ा दिया जाता था। इस क्रूर प्रथा को ब्रिटिश सरकार ने नियम
बनाकर बंद करा दिया। उसी प्रकार चरक-पूजा के खिलाफ कानून बनाकर इस अमानूषिक प्रथा का अंत कर दिया। सती धर्म के नाम पर
विधवा को जीवित जलाकर मारने वाली विदारक प्रथा को 1828 में बंद करा दिया। 1845 के अधिनियम के द्वारा नर-बलि प्रथा का
अंत किया।
ब्रिटिश शासन के आरम्भ में अछूतों को
सार्वजनिक सड़कों, स्थानों,
कार्यालयों में
प्रवेश करने का अधिकार नहीं था। जब अंग्रेजों ने पहली बार शिक्षा को राज्य का विषय
बनाया और राज्य संचालित विद्यालयों में अछूत समाज के बच्चों के प्रवेश को भी
सुनिश्चित कर दिया। इसे सवर्ण समाज में वर्णव्यवस्था पर सीधा प्रहार समझा गया।
तथाकथित समाज ने इसका कड़ा विरोध किया। सवर्णों ने उन विद्यालयों का वहिष्कार कर
दिया, जिसमें
अछूतों के प्रवेश को सुनिश्चितकर दिया गया था। अछूत न्यायालय में भी खिड़की से बाहर
रहकर चिल्लाकर जवाब देते थे। अंग्रेजों के शासनकाल में यह स्थिति ज्यादा दिनों तक
नहीं रही। अंग्रेजों ने अछूतों को जजों के सामने उपस्थित होने का अधिकार दे
दिया। 1923 ई. तक उन्हें सार्वजनिक स्थानों,
कुओं, तालाबों और धर्मशालाओं के उपयोग का
अधिकार भी मिल गया। 17
अगस्त 1932 को
अंग्रेजों ने दलितों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दे दिया।
अंग्रेजों द्वारा किये गये सभी सामाजिक
और धार्मिक सुधारों का सूक्ष्म आकलन करने के बाद कँवल भारती ने प्रश्न उठाया है
किक्या कारण थे कि अंग्रेजों द्वारा जब चरक-पूजा, सती प्रथा, नर-बलि प्रथा आदि प्रथाओं का अंत किया
गया। तब उनका कड़ा विरोध नहीं हुआ। किन्तु जैसे ही अछूतों को शिक्षा का अधिकार,
न्यायालय में
प्रवेश के अधिकार प्रदान किये गये। अंग्रेजी शासन व्यवस्था का विरोध आरम्भ हो गया ?इस प्रश्न पर इन्होंने जिन विचारों को
अभिव्यक्त किया है। वे इस प्रकार हैं – इनका मानना है कि अगर हम देखें तो अंग्रेजों
द्वारा किये गए जिन सुधारों को विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। उसके पीछे कारण यह
था कि इन कानूनों के माध्यम से केवल परम्पराओं का अंत हुआ था। वर्णव्यवस्था अभी भी
सुरक्षित थी, इसलिए
वे चुप थे। हिन्दुओं ने यहाँ तक इसलिए बर्दाश्त किया क्योंकि इन कानूनों के द्वारा
वर्ण-व्यवस्था को किसी तरह की क्षति नहीं पहुँची थी। वे लिखते हैं – “ये कानून निश्चित रुप से हिन्दू
संस्कृति पर हमले थे, तथापि
यह पराकाष्ठा नहीं थी।” 3 किन्तु जिन कानूनों के द्वारा अछूतों को
अधिकार प्रदान किये गये। उससे वर्णव्यवस्था की सुरक्षा खतरे में थी। अत: उन
कानूनों का प्रबल विरोध किया गया।
ब्रिटिश शासन के खिलाफ हिन्दुओं के
विरोध के वास्तविक कारणों पर टिप्पणी करते हुए आलोचक ने लिखा है- “ब्रिटिश शासन के खिलाफ यदि हिन्दुओं ने
स्वाधीनता संग्राम लड़ा, तो
सिर्फ इसलिए कि वह उनके धर्म, संस्कृति और समाज व्यवस्था के लिए वरदान नहीं
था।”4
अंग्रेजों ने भारत के सामाजिक व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था को क्षति पहुँचाया था। जबकि यह
सामाजिक व्यवस्था हिन्दू समाज में सदियों से स्थापित थीं। यही कारण है कि
अंग्रेजों के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए देश भर के हिन्दू पूंजीपति, नेता तथा धर्माधिकारी एक जुट हो गये।
जबकिमुस्लिम शासकों ने उसमें कोई छेड़छाड़ नहीं की थी। अंतत: अंग्रेज मुस्लिम शासकों
की तरह अछूतों के शोषक नहीं बने ना ही वर्णव्यवस्था के प्रतिपालक । इस संदर्भ में
कँवल भारती का यह कथन उपर्युक्त है, यथा- “अंग्रेजों ने मुस्लिम शासकों की तरह हिन्दू
संस्कृति का पालन-पोषण नहीं किया, अपितु उसके अमानवीय रूपों पर कड़े प्रहार किए।”5
इतिहास के एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष भारत में नवजागरण की लहर के संदर्भ में भी कँवल भारती के विचार इतिहासकारों से मेल नहीं खाते हैं। वे लिखते हैं - “आधुनिक भारत में नवजागरण की लहर बंगाल से चली, ऐसा माना जाता है क्योंकि राजा राममोहन राय, रामकृष्ण और विवेकानंद को पैदा करने का श्रेय बंगाल को जाता है। परंतु वास्तव में जिसे हम ‘नवजागरण’ कह सकते हैं, उसकी लहर थी दलित मुक्ति के आंदोलन की, जिसने न सिर्फ भारत को बल्कि पूरे विश्व का ध्यान आकृष्ट किया था। इस लहर को पैदा करने वाले थे महात्मा ज्योतिबा फुले।”6 ज्योतिबा फुले के बारे में यह बताया कि वे पहले भारतीय थे जिन्होंने स्त्रियों और अछूतों के लिए विद्यालय की स्थापना की थी। उनका उद्देश्य स्त्रियों एवं अछूतों को अज्ञानता को दूर करके उन्हें गुलामी की जंजीरों से आजाद कराना था। कहने का तात्पर्य यह है कि कँवल भारती के अनुसार आधुनिक भारत में नवजागरण की लहर राजा राममोहन राय या स्वामी विवेकानंद लेकर नहीं आये। बल्कि नवजागरण की वास्तविक लहर महात्मा फुले लेकर आये हैं, जिसकी उत्पत्ति महाराष्ट्र में हुई थी। अपने इस कथन की पुष्टि के लिए इन्होंने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि ज्योतिबा फुले के दलित मुक्ति आंदोलन ने ना केवल भारत का बल्कि पूरे विश्व का ध्यान आकृष्ट किया था। परन्तु यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि किसी आंदोलन का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर नवजागरण का वास्तविक श्रेय उसी आंदोलन को दिया जाय, यह औचित्यपूर्ण नहीं है। ‘नवजागरण’ का अर्थ है - पुरानी रुढ़िवादी मान्यताओं एवं परम्पराओं का अंत। राजा राममोहन राय हों या स्वामी विवेकानंद, इन दोनों ने भी अपने सामाजिक आंदोलन का लक्ष्य पुरानी रुढ़िवादी परम्परा का अंत करना ही निर्धारित किया था। ज्योतिबा फुले ने अगर स्त्रियों के लिए शिक्षा का द्वार खोलने का प्रयत्न किया है तो इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता है कि राजा राममोहन राय ने भी सती प्रथा का अंत कराया, स्त्रियों के अधिकार को सुरक्षित करने के उद्देश्य से बहुपत्नी प्रथा का विरोध किया, विधवा पुनर्विवाह अधिनियम को अपना समर्थन दिया। अत: ज्योतिबा फुले ने जहाँ स्त्रियों को अधिकार दिलाने का कार्य किया, राजा राममोहन राय ने भी स्त्रियों को सामाजिक अत्याचारों से मुक्त कराया।
1828 में राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज
की स्थापना की, जिसका
मुख्य उद्देश्य था – एकेश्वरवाद
की उपासना, पुरोहितवाद
का विरोध, अवतारवाद
का खंडन, मूर्तिपूजा
का विरोध। राजा राममोहन राय ने भी जातिवाद का विरोध किया था। कहा जाता है कि वे
मानवतावादी थे और जीवन की स्वतंत्रता तथा सम्पत्ति ग्रहण करने के प्राकृतिक
अधिकारों के समर्थक थे। उनके सम्पत्ति ग्रहण करने के प्राकृतिक अधिकार का विचार
एवं पुरोहितवाद का विरोध कहीं ना कहीं दलित प्रश्न से ही जुड़ा हुआ था। क्योंकि उस
समय केवल अछूतों को ही सम्पत्ति ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। ठीक इसी
प्रकार स्वामी विवेकानंद भी अस्पृश्यता, धार्मिक रुढ़ियों एवं जातिवाद के विरोधी थे।
जिन्होंने धर्म का वास्तविक अर्थ बताया था।
राजा राममोहन राय एवं स्वामी विवेकानंद
उन लोगों में से थे जिन्होंने हिन्दू धर्म का संश्लेषण किया था। वे दोनों भी समाज
में व्याप्त कुरीतियों, रुढ़िवादिता
एवं परम्परा का अंत करना चाहते थे। हाँ, हम यह कह सकते हैं कि ज्योतिबा फुले के आंदोलन
की तरह उनके आंदोलन में अछूतों की मुक्ति को प्राथमिकता नहीं दी गई थी। राजा राममोहन राय ने समाज में सुधार लाकर
नवजागरण लाने का कार्य किया। किसी कारणवश यह हो सकता है कि उनके आंदोलन का प्रभाव
पूरे विश्व पर नहीं पड़ा था। परंतु राजा राममोहन राय ने भी समाज में महत्वपूर्ण
सुधार किये थे। सती-प्रथा जैसे क्रूर और अमानवीय प्रथा का अंत किया। इस प्रकार
रुढ़िगत परम्परा का अंत करना ही नवजागरण की निशानी है, भले ही प्रभाव सीमित रहा हो। अंतत: यह
कहा जा सकता है कि भारत में नवजागरण लेकर आने में राजा राममोहन राय का भी
महत्वपूर्ण योगदान है। इस संदर्भ में कँवल भारती का यह कथन न्ययसंगत है कि “महात्मा फुले की भूमिका नवजागरण की
दृष्टि से राजा राममोहन राय के मुकाबले ज्यादा सशक्त और क्रांतिकारी थी। उन्होंने
ब्राह्मणवाद तथा जातिप्रथा के खिलाफ विद्रोह किया था और दलित पिछड़ी जातियों तथा
भारतीय स्त्रियों की मुक्ति के लिये सामाजिक आंदोलन चलाया था।” 7
डॉ. आंबेडकर से संबंधित एक धारणा
प्रचलित है कि वे अंग्रेजी राज्य के समर्थक थे। उन्होंने अंग्रेजों के शासनका
विरोध नहीं किया, इसलिए
मार्क्सवादियों ने उन पर साम्राज्यवादी होने का आरोप भी लगाया था। मार्क्सवादियों
का मानना था कि चूंकि डॉ. आंबेडकर स्वाधीनता आंदोलन में भाग नहीं लेते हैं। इसका
अभिप्राय यह है कि वे भारत में अंग्रेजों के शासन का समर्थन करते हैं। इस संदर्भ
में कँवल भारती ने अपना विचार प्रस्तुत किया है। इनके अनुसारयह बात महत्वपूर्ण है
कि देश की स्वाधीनता का प्रश्न था। परन्तु विडम्बना यह थी कि स्वाधीनता की माँग
कौन से लोग कर रहे थे और जो लोग माँग कर रहे थे, उनके पास दलितों की मुक्ति के प्रश्न
का कोई औचित्य नहीं था। जब कभी भी डॉ. आंबेडकर ने अछूतों की मुक्ति के प्रश्न
उठाये तो इस प्रश्न को बाद के लिए टाल दिया जाता था। जबकि डॉ.आंबेडकर के लिए
दलितों के अधिकार की माँग ही सर्वोपरि थी, वे इस प्रश्न को बाद के दिनों के लिए टाल नहीं
सकते थे। कँवल भारती के इस विचार को
पुष्टि प्रदान करने के लिए इनका यह कथन दृष्टव्य है – “वही लोग तो, जो शासक वर्ग थे, जो देश की विशाल दलित आबादी को अपनी
सामाजिक व्यवस्थामें स्वंय गुलाम बनाये हुए थे। ये शासक वर्ग पूँजीपतियों के लिये
आजादी माँग रहे थे और ये वे लोग थे जिनके पास आजादी की कोई स्पष्ट परिकल्पना तक
नहीं थी।” 8
आगे वे लिखते हैं कि काँग्रेस एवं अन्य पार्टियों की इस अनिश्चितपूर्ण स्थिति को
देखकर ही डॉ. आंबेडकर को कहना पड़ा था कि “अछूतों को डर है कि भारत की स्वतंत्रता हिन्दू
राज स्थापित करेगी और अछूतों के लिये दरवाजे बंद हो जायेंगे। सदैव के लिये उनके
जीवन की सभी आशाएँ, स्वतंत्रता
और उनकी खुशियों के स्त्रोत बंद हो जायेंगे तथा वे केवल लकड़ी चीरने वाले और पानी
खींचने वाले ही बना दिये जायेंगे।”9अत: अंग्रेजों के शासन से मुक्त होने के बाद
देश में फिर से उसी शासक वर्ग के शासन की स्थापना होती जिससे दलित फिर से गुलाम
बनायेजा सकते थे। इसलिए दलितों की स्थिति को लेकर डॉ. आंबेडकर का संदेह अभी भी बना
हुआ था। देश के आजाद होने पर किस प्रकार की स्थिति बन सकती थी इस संदर्भ मेंकँवल
भारती ने विभूतिनारायण राय के सवालों को उठाया है। जिन्होंने यह सवाल किया था कि “यदि 1857 में ही अंग्रेज चले जाते और आजादी मिल
जाती तो वह किसकी आजादी होती? इसका जवाब भी उन्होंने स्वंय दिया और कहा कि “वह सामंतोंकी आजादी होती और सामंतवादी
होती तथा ब्राह्मणवादी होती। फिर उन्होंने सवाल उठाया कि “इस आजादी में दलित कहाँ होते? क्या वे उसी अधिकार वंचित अवस्था में
नहीं होते, जिसमें
वे थे।” 10.कँवल
भारती ने विभूतिनारायण के प्रश्नों को यहाँ इसउद्देश्य से उठाया है क्योंकि इन
प्रश्नों के माध्यम सेइन्होंने इस कथन पर प्रकाश डालना चाहा है कि 1857 के विद्रोह की सफलता के उपरांत भी जिस
प्रकार दलित वंचित अवस्था से आजाद नहीं हो पाते। उसी प्रकार स्वाधीनता आंदोलन के
पश्चात भी उन्हें वंचित अवस्था से आजादी मिलती या नहीं, इसके प्रति संदेह बना हुआ था। 1857 के विद्रोह की घटना को ही ध्यान में
रखकर ही कँवल भारती ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि ऐसी परिस्थिति में जब दलित की
पराधीनता के प्रश्नों को काँग्रेस और मार्क्सवादी नकार रहे थे, तो डॉ. आंबेडकर के लिए यह आवश्यक बन
गया था कि वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई को वरीयता दें। क्योंकि दलितों का सामाजिक
और आर्थिक गुलामी का कारण अंग्रेज नहीं थे। अंग्रेजों ने ना ही दलितों को शैक्षिक
अधिकार से वंचित रखा था और ना ही वे उन्हें आर्थिक गुलाम बनाना चाहते थे। उनकी यह
सामाजिक और आर्थिक गुलामी तो ब्राह्मणवाद ने सुनिश्चित किया था। अत: दलितों की
पहली लड़ाई अंग्रेजों से ना होकर ब्राह्मणवाद से थी। आलोचक कँवल भारती का मानना है
कि ब्राह्मणवाद भी एक तरह का साम्राज्यवाद ही है, जिसने भारत की एक विशाल आबादी को
सदियों से गुलाम बनाये रखा है। ब्राह्मणवाद को प्राचीन साम्राज्यवाद की संज्ञा
देते हुए कँवल भारती ने लिखा है –”यदि हम साम्राज्यवाद पर विस्तार से चर्चा करें
तो ब्राह्मणवाद भी साम्राज्यवाद से अलग चीज नहीं हैं। ब्राह्मणवाद भारतका प्राचीन
साम्राज्यवाद है, जिसने
भारत की विशाल आबादी को गुलाम बना कर रखा हुआ है।” 11
अत: मार्क्सवादियों के द्वारा डॉ. आंबेदकर
पर साम्राज्यवादी होने का लगाये गये आरोप को आलोचक कँवल भारती ने वामपंथियों की
केवल हठधर्मिता माना है। साथ ही अपना यह मत भी प्रदान किया है कि साम्राज्यवाद और
देश की आजादी की लड़ाई की आड़ में डॉ.आंबेडकर के सामाजिक क्रांति की उपेक्षा नहीं की
जा सकती है। अंतत: यह कहा जा सकता है कि कँवल भारती ने इन तर्कों के माध्यम से यह
स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि डॉ. आंबेडकर साम्राज्यवादी नहीं थे। उनके लिए
दलितों के मुक्ति एवं अधिकार का प्रश्न सर्वोपरि था। जबकि किसी भी आंदोलन में यह
प्रश्न समाहित नहीं था। इसके उपरांत उनके पास एक ही विकल्प शेष था कि वे अंग्रेजों
के विरुद्ध ना जायें। अंतत: उन्होंने इसी विकल्प को अपनाया और स्वंय को देश के
स्वाधीनता आंदोलन से अलग रखा। जिनके कारणवश इन पर साम्राज्यवादी होने का गलत आरोप
लगाया गया।
भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण विषय
भारत में मार्क्सवाद की असफलता पर कँवल भारती ने विचार-विमर्श किया है। इस संदर्भ
में वे आंबेडकर के विचारों से अभिप्रेरित हुए हैं। मार्क्सवाद की स्थापना
कार्ल-मार्क्स ने की थी। रुस में लेनिन ने मार्क्सवाद चलाया और वहाँ यह आंदोलन सफल
भी हुआ। रुस में मार्कसवाद की सफलता से अभिप्रेरित होकर भारत में भी मार्क्सवाद की
स्थापना की गई। किन्तु भारत में मार्क्सवाद असफल हुआ।
कँवल भारती ने भारत में मार्क्सवाद की असफलता के कारणों को स्पष्ट किया है। इन्होंने सबसे पहले भारत में मार्क्सवादियों के नेतृत्व पर ही सवाल उठाया है कि भारत में मार्क्सवाद का नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथों में कैसे चला गया। जबकि यहाँ सर्वाधिक श्रमिक दलित हैं। दलितों की स्थिति को प्रकट करते हुए कँवल भारती ने लिखा है- “आर्थिक रुप से दलित सर्वाधिक शोषित है, सर्वाधिक गरीब हैं, इसमें संदेह नहीं। वे मजदूर भी हैं और जन्म के साथ ही मजदूर हो जाते हैं। सही मायने में यदि कोई श्रमिक वर्ग है, तो वह दलित वर्ग ही है।”12 जब सर्वाधिक श्रमिकों की संख्या दलितों की है। फिर मार्क्सवाद का नेतृत्व दलितों के हाथ में जाना चाहिये था। किन्तु इसका नेतृत्व दलितों के हाथ में ना जाकर ब्राह्मणों के हाथों में चला गया। इस संदर्भ में वे लिखते हैं - “कार्ल-मार्क्स सर्वहारा के नायक हैं, तो उनकी जरुरत ब्राह्मणों को क्यों है? यह उल्टी गंगा कैसे प्रवाहित हुई? इसका अर्थ यही है जैसा कि डॉ. आंबेडकर का मत है कि भारत में मार्क्सवाद गलत हाथों में जाकर अपना लक्ष्य खो बैठा ?” 13 इनका कहना है कि मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार समाज दो भागों में पहला अमीर वर्ग एवं गरीब दो वर्गों में बँटा है। भारत में मार्क्सवादियों ने यह नहीं ध्यान दिया कि भारत में समाज केवल वर्ग के आधार पर नहीं बल्कि जातियों के आधार पर भी विभाजित है। कँवल भारती ने मार्क्सवादी विचारकों के विचारों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि मार्क्सवादी विचारक यह मानते हैं कि “दलित समस्या आर्थिक समस्या है। वे इस समस्या को श्रम विभाजन की दृष्टि से देखते हैं । जबकि देखा जाय तो दलितों की समस्या आर्थिक ना होकर धार्मिक है।”14 धार्मिक नियमों के आधार पर यहाँ जाति का विभाजन किया गया है और धार्मिक नियमों के अनुसार ही विभिन्न जातियों के लिए कार्य का बँटवारा भी किया गया है। इन्होंने दलितों की आर्थिक विपन्नता के लिए जातिव्यवस्था को ही उत्तरदायी ठहराया है। इस कथन की पुष्टि करते हुए डॉ. अलख निरंजन ने अपनी पुस्तक में लिखा है – “कंवल भारती जातिव्यवस्था के सिद्धांतों को दलित की अपमानजनक एवं अमानवीय स्थिति के लिये उत्तरदायी मानते हैं। वे इसकी व्याख्या के लिए भारतीय समाज की व्याख्या डॉ. भीम राव अंबेडकर के दर्शन को आधार मानकर करते हैं। उनका मानना है कि जाति-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था का विकृत रुप है।” 15 जबकि मार्क्सवादियों ने भारतीय समाज के इस परिदृश्य की ओर ध्यान ही नहीं दिया था। उन्होंने इस बात पर विचार नहीं किया कि भारतीय समाजिक व्यवस्था में जाति एक महत्वपूर्ण इकाई है।
आलोचक कँवल भारती ने मार्क्सवादियों की इस सीमा की ओर इशारा करते हुए लिखा है – “वर्ग का आधार सतही आधार है, सिर्फ शाखाओं की बात करने जैसा। जरुरत जड़ पर प्रहार करने की है और यह जड़ वर्णव्यवस्था है। वर्गहीन समाज का निर्माण जाति को नष्ट किये बिना नहीं हो सकता।”16 जाति की समस्या की व्यापकता पर प्रकाश डालते हुए डॉ. आंबेडकर लिखते हैं –”जाति की समस्या सैद्धांतिक और व्यवहारिक रुप से एक विकराल समस्या है। यह समस्या जितना व्यवहारिक रुप से उलझी है, उतना ही इसका सैद्धान्तिक पक्ष विकराल है। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके फलिहार्थ गहन हैं। होने को तो यह एह सैद्धांतिक समस्या है, लेकिन इसके परिणाम विकराल हैं।” 17 दलितों की आर्थिक उन्नति में धर्म को बाधक मानते हुए डॉ. आंबेडकर ने अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है। धर्म जिसने दलितों पर अस्पृश्यता के नियम लागू किये हैं और उनकी आर्थिक उन्नति में अवरोध उत्पन्न किया है। यथा- “आर्थिक उन्नति का कोई भी रास्ता आपने अपनाया तब भी अछूतपन के कलंक के कारण किसी भी मार्ग में आपको यश प्राप्त होने वाली नहीं है। अछूतपन आपकी उन्नति और विकास के मार्ग में रोड़ा बना हुआ है। उस रोड़े को हटाए बिना आपका रास्ता सुगम होने वाला नहीं है।” 18 जबकि मार्क्सवादी विचारक, जो ब्राह्मण थे। अगर वे जाति के अस्तित्व को स्वीकार करते तो उन्हें हिन्दू समाज व्यवस्था में परिवर्तन करना पड़ता। जिससे उनके धर्म में व्यवधान उत्पन्न होने की संभावना थी। अत: मार्क्सवादी जाति के प्रश्न को हल किये बिना ही आर्थिक समस्या को हल करना चाहते थे। मार्क्सवादियों पर टिप्पणी करते हुएआलोचक कँवल भारती ने लिखा है – “वे जाति के सत्य(फेक्टर) को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। वे इसलिए स्वीकार करना नहीं चाहते थे कि वर्ग को मानने से उनकी वर्णव्यवस्था पर कोई आंच नहीं आ सकती थी। उससे जाति-धर्म की व्यवस्था सुरक्षित रहती थी।” 19इन्होंने मार्क्सवादियों पर विशेषाधिकार के उपभोग करने का भी आरोप लगाया है। वे लिखते हैं- “वे गरीबों की लड़ाई भी लड़ते रह सकते हैं और वर्णव्यवस्था से प्राप्त विशेषाधिकार का उपयोग भी करते रह सकते हैं। इसे बनाये रखने के लिये वे इस दर्शन का सहारा लेते हैं कि धर्म तो नीजी मामला है। जब धर्म नीजी मामला है, तो धर्म के आधार पर जातिभेद अस्पृश्यता और शोषण भी नीजी मामला है।”20 इस प्रकार देखें तो मार्क्सवाद ने दलितों की समस्या को धार्मिक ना मानकरआर्थिक माना और यहीं पर उन्होंने भूल कर दी। जबकि भारत में आर्थिक उन्नति में धर्म ही बाधक बना हुआ है और मार्क्सवादी गलत निशाने पर प्रहार कर रहे थे। यही कारण है कि भारत में मार्क्सवाद असफल हो गया। अंतत: कँवल भारती ने अपने कथन की पुष्टि के लिए डॉ. आंबेडकर के मत को उद्धृत किया है – “भारत में मार्क्सवाद गलत हाथों में जाकर अपना लक्ष्य खो बैठा? इस ब्राह्मण नेतृत्व ने वास्तविक सर्वहारा दलित वर्ग के हाथों में नेतृत्व नहीं जाने दिया। परिणाम यह हुआ कि मार्क्सवाद भारतीय सामाजिक यथार्थ से जुड़कर क्रांति करने में असफल रहा।”21
भारतीय समाज में जाति की यथार्थपूर्ण स्थिति को प्रकट करते हुए कँवल भारती अपने एक लेख ‘डॉ. आम्बेडकर और वामपंथ’ में लिखते हैं – “आज जाति भारतीय समाज का सबसे बड़ा सच है। यह इतनी व्यापक है कि मजदूर और गरीब वर्ग भी इसके प्रभाव से ग्रस्त है। एक ब्राह्मण गरीब होकर भी समाज में पूजा जाता है, जबकि एक दलित धनी होकर भी समाज में नीचा समझा जाता है। इसीलिये डॉ. आम्बेडकर कहते हैं किजबतक जाति के राक्षस को मार नहीं दिया जाता है, तबतक कम्युनिज्म को सफलता मिलना सम्भव नहीं है।” 22
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि कँवल भारती अतीत के तथ्यों का वैज्ञानिक एवं सार्थक विश्लेषण करते हैं। अपनी इतिहास दृष्टि के माधयम से इन्होंने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि क्या कारण थे कि भारत में सात सौ सालों के मुस्लिम शासन का इतना प्रबल विरोध नहीं किया गया। जबकि अंग्रेजों के डेढ़ सौ साल के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए सभी एकजुट हो गये। इस घटना का मुख्य कारण इन्होंने बताया है - मुस्लिम शासकों ने हिन्दू समाज में स्थापित वर्णव्यवस्था का विरोध नहीं किया। अपितु उन्होंने इस व्यवस्था को सुरक्षित रखने के साथ-साथ इसका उपभोग भी किया। किन्तु अंग्रेजों ने कई सामाजिक परम्पराओं का अंत करने के साथ-साथ दलितों की आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए भी कार्य किये। यही कारण है कि सौ-डेढ़ सौ सालों में ही अंग्रेजों के समुचित उन्मूलन के लिए भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का आरम्भ हो गया। भारत में नवजागरण की वास्तविक लहर को लाने का श्रेय ज्योतिबा फुले को दिया है। इस संदर्भ में इन्होंने यह तर्क दिया है कि राजा राममोहन राय के द्वारा लाये गये नवजागरण की लहर का प्रभाव केवल भारत में पड़ा, जबकि फुले के द्वारा लाये गये नवजागरण से पूरा विश्व प्रभावित हुआ। ज्योतिबा फुले के आंदोलन की व्यापकता अन्य सामाजिक आंदोलन की व्यापकता से अधिक थी। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने स्त्री एवं अछूत दोनों के अधिकार को महत्ता प्रदान की। इन्होंने डॉ.आंबेडकर को साम्राज्यवादी मानने से इन्कार किया है। जिस आधार पर उन पर साम्राज्यवादी होने का आरोप लगाया गया। उन आधारों को निरर्थक प्रमाणित करते हुए डॉ.आंबेडकर की विडम्बनापूर्ण स्थिति के बारे में बताते हुए इन्होंने लिखा है - डॉ. आंबेडकर के लिए दलितों की मुक्ति का प्रश्न सर्वोपरि था जबकि काँग्रेस और मार्क्सवादी आजादी के बाद दलितों की स्थिति क्या होगी, इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर चुप थे। यही कारण है कि डॉ.आंबेडकर ने अपनी लड़ाई ब्राह्मणवाद के खिलाफ जारी रखा। रुस में जो मार्क्सवाद सफल हुआ, वही मार्क्सवाद भारत में आकर असफल क्यों हुआ। इस संदर्भ में इनका मत है कि मार्क्सवाद जब श्रमिकों का नेतृत्व करता है। तो भारत में अधिकांश दलित ही श्रमिक थे। फिर मार्सवाद का नेतृत्व दलितों के हाथ में जाना चाहिए था। किन्तु यह नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथों में चला गया। इसलिए भारत में मार्क्सवाद असफल हुआ। अंतत: हम कह सकते हैं किइतिहास को परखने के लिए आलोचक कँवल भारती ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया है। इन्होंने इतिहास के कई तथ्यों एवं घटनाओं पर तर्कपूर्ण विचार किया है। इतिहास में स्थापित तथ्यों को अपने विभिन्न तर्कों के माध्यम से गलत भी ठहराया है।
संदर्भ
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15. निरंजन, डॉ. अलख, ‘नई राह की खोज में समकालीन दलित चिंतक’,
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18. ‘और बाबा साहब अम्बेडकर ने कहा.... (खंड-2),
अनुवादक/संपादक –
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दिल्ली, पृ.
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22. भारती, कँवल, ‘ डॉ. आम्बेडकर एक पुनर्मुल्यांकन’, बोधिसत्त्व प्रकाशन, प्रथम संस्करण, जनवरी 1997, पृ. 156
8918671634, jyoti2016paswan@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
बहुत सारगर्भित एवं सटीक तथ्यों का संकलन।
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