शोध आलेख : जाम्भोजी की सबदवाणी में अभिव्यक्त किसानी चेतना और आध्यात्मिक रूपक / ओमप्रकाश सुंडा
शोध सार :
जाम्भोजी शुद्ध रूप से किसान, कवि और समाज सुधारक थे। समय के साथ-साथ लोक कविता में बहुत से विचलन आ जाते हैं, उन्हीं का परिणाम है कि जाम्भोजी ने किसान जाति से धार्मिक और सामाजिक आडंबरों को दूर करने का कार्य व्यवस्थाबद्ध ढंग से किया लेकिन बाद में जाकर एक धर्म प्रचारक तक सीमित कर दिए गए। जाम्भोजी के अनुयायी मुख्य रूप से किसान जातियाँ ही थी। किसानी जीवन से जुड़े प्रतीकों के प्रयोग से अनपढ़ किसानों को गूढ़ आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करना काफी आसान था। जाम्भोजी इस बात को भली-भाँति जानते थे कि शास्त्रोक्त शब्दावली से उनके अनपढ़ अनुयायी अध्यात्म के रहस्य को नहीं समझ पाएँगे, इसलिए उन्होंने किसानी रूपक चुनें और उन्हीं के माध्यम से गूढ़ दार्शनिक बातें कहीं। रूपकों का ऐसा सुंदर प्रयोग जायसी की ‘पद्मावत’ के बाद जाम्भोजी में ही देखने को मिलता है। वैष्णव धर्म के आध्यात्मिक सिद्धांत थोपे गए से प्रतीत होते हैं।
बीज शब्द : जाम्भोजी, सबदवाणी, वैष्णव साहित्य, किसान चेतना, अध्यात्म, किसानी रूपक।
(1)
मध्यकालीन संतकाव्य पर वैष्णव धर्म का सर्वाधिक प्रभाव रहा है। मारवाड़ के ऐसे ही एक संत कवि और समाज सुधारक जाम्भोजी भी उस लहर से बच नहीं पाए लेकिन जाम्भोजी पर वैष्णव सम्प्रदाय का प्रभाव संशयात्मक है? जाम्भाणी साहित्य के साथ दिक्कत यह है कि इनके ‘सबद’ मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं। हमारे सामने जो भी है, सारा का सारा उनके भक्तगणों की मौखिक यादाश्त पर लिखा गया है। हालाँकि जाम्भोजी की लोक में ज्यादा मान्यता है। मारवाड़ की एक किसान जाति ‘विश्नोई’ उन्हें ईश्वर तुल्य मानकर लगभग साढ़े चार सौ वर्षों से पूजती आई है। भारत वर्ष की सबसे अलग यह प्रकृति प्रेमी कौम, जो पेड़ों और जंगली जीवों( खासकर हरिण, जिसका कि जाम्भोजी ने आध्यात्मिक रूपक के तौर पर भी प्रयोग किया है) को बचाने के लिए अपने प्राणों का भी उत्सर्ग करने में पीछे नहीं हटती।
जाम्भोजी की कविता(मूल रूप में लोककविता) के सम्बन्ध में यहाँ दो बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं–
- पहली, जाम्भोजी शुद्ध रूप से किसानी जीवन से सम्बन्ध रखने वाले और किसानी दृष्टि सम्पन्न कवि तथा समाज सुधारक थे।
- दूसरी, जाम्भोजी साहित्य का वैष्णव धर्म से सीधा कोई लेना देना नहीं है, चाहे काल-प्रवाह( तत्कालीन धार्मिक वातावरण) के हिसाब से थोड़ा-बहुत प्रभाव अवश्य ही रहा हो।
उनका मुख्य काव्य ‘सबदवाणी’ के रूप में संग्रहित है। इसमें उल्लेखित वैष्णव धर्म की मान्यताओं और कर्मकांडों को बाद में उनके अनुयायियों ने अपना लिया। चूँकि, लोकप्रचलित ‘सबद’ बहुत समय तक उनके अनुयायी मौखिक ही याद रखते थे और वे पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होते रहे। ‘सबद’ संख्या की दृष्टि से 120 हैं। इनमें वेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण, पुराण और यहाँ तक कि मनुस्मृति से भी बहुत से प्रसंग और घटनाएँ उठाई गई हैं। यह तो सर्वविदित ही है कि जाम्भोजी पर नाथपंथियों का विशेष प्रभाव रहा है। ‘सबदवाणी’ में अध्यात्म को समझाने के लिए नाथपंथी शब्दावली का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है।
समस्या ये है कि हिन्दू धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रन्थों(खासकर वैष्णव) से उठाये गए विचारों में कोई संगति नहीं मिलती। अचानक से कोई नई प्रस्थापना आती है और एक ही सबद में बिना निष्कर्ष के समाप्त होकर अगला ‘सबद’ कोई नई कहानी कहता है। बहुत-सी घटनाएँ और धार्मिक प्रसंग भी लोकमान्यताओं के हिसाब से असंगत हैं। यहाँ असंगतता का कारण यह नज़र आता है कि जाम्भोजी ने ऐसी बातें कभी कही ही नहीं, इस कारण शास्त्रों की गूढ़ और जटिल मान्यताएँ जाम्भोजी की वाणी का जब हिस्सा बनी तो वो अलग ही नज़र आने लगी। इस मान्यता से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि तत्कालीन समय में ‘ज्ञान-तंत्रों’ पर जिन लोगों का कब्जा था, उन्होंने जाम्भोजी के न रहने पर फिर से अपनी वैष्णवी मान्यताएँ जम्भवाणी में मिला दी हों; क्योंकि, जाम्भोजी के रहते यह संभव नहीं था और मरने के बाद भी उनके मौलिक विचारों को नष्ट करना इतना आसान नहीं था। नाथों से उठाये प्रसंग और शब्दावली की अच्छी व्याख्या अनेक ‘सबद’ में मिलती हैं। इसका कारण यह भी हो सकता है कि तत्कालीन धार्मिक परिदृश्य में नाथपंथियों से इनकी मुलाकात संभव हुई हो? पश्चिमोत्तर प्रान्त में उस समय नाथपंथियो का प्रभाव भी खूब था। हालाँकि इनमें भी कहीं-कहीं विचारगत असंगतता नज़र आती है। इन सब स्थितियों के मुख्य रूप से दो कारण नजर आते हैं–
I.
वेदशास्त्रों के घटना-प्रसंग और नाथपंथी शब्दावली बाद में शामिल की गई लगतीहैं। लोक में फैले इस ‘विचार-ज्ञान’ का सबने अपने हिसाब से अर्थ लगाया और जाम्भोजी के न रहने पर उनके अनुयायी कड़ाई से सम्प्रदाय के नियमों का पालन नहीं कर सके। उनके जो अनुयायी विश्नोई बने, तब वे मूल रूप से हिन्दू ही थे (हालाँकि मुसलमान भी उनको अपना पीर मानते हैं; बहुत से मुसलमान किसान भी विश्नोई बने या उनका गुरुत्व ग्रहण किया। मुख्य रूप से मारवाड़ की जाट जाति के किसान उनके अनुयायी बनें) वे गुरु के न रहने पर पुनः अपने पुराने संस्कारों और रीति-रिवाजों की तरफ बढ़ गए होंगे और वैष्णव धर्म की मान्यताएँ उनकी मौखिक रूप से प्रचलित शिक्षाओं में शामिल हो गई होगी? उनके बचपन की किसी घटना के अनुसार किसी पंडित को बालक जम्भ पर तांत्रिक क्रियाएँ कराने के लिए बुलाया गया था, वहाँ एक ‘सबद’ में बुलाए गए पंडित के लिए ‘द्विज’ शब्द का उल्लेख आता है–
‘तबसों द्विज आयके, लाघव किए उपाय’1
यानी जाम्भोजी को ठीक करने के लिए आने वाला व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य इन्हीं तीनों वर्णों में से कोई एक था? तो क्या जाम्भोजी शूद्र वर्ण से सम्बन्ध रखते थे? नहीं तो ‘द्विज’ का प्रयोग क्यों किया जाता? समान जाति या धर्म वालों को नाम लेकर( सम्मान की भावना से) संबोधित करने की परम्परा रही है। यहाँ ‘अन्य’ को संबोधित करने के अर्थ में ‘द्विज’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। लोक में अब भी ऐसा प्रचलित है। यानी जाम्भोजी का सम्बन्ध किसान जाति से तो अवश्य ही था, इसमें कोई संशय नहीं। हालाँकि जाम्भोजी के भक्त शोधकर्ताओं ने उनको राजपूत बताया है और उनका सम्बन्ध इतिहास प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य के साथ जोड़ा है। “लोहटजी( जाम्भोजी के पिता) पंवार वंशीय ठाकुर थे। वे अच्छे किसान व पशुपालक थे। वे धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे तथा ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखते थे। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण वे समाज में अति प्रसिद्ध एवं सम्मानित व्यक्ति थे। अकाल पड़ने पर वे लोगों की सहायता किया करते थे। एकबार जब पीपासर में भयंकर अकाल पड़ा तो वे गाँव के पशुधन को बचाने के लिए लोगों को साथ लेकर द्रोणपुर पहुँच गए।”2 यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि राजपूत शासक कभी पशुपालक नहीं रहे। यादव शासकों के बारे में जरूर पशुपालन से सम्बन्धित लोकमान्यता है। किसी शासक का पुत्र पशुचारण का कार्य करेगा, ये बात भी गले नहीं उतरती। यह विक्रमादित्य के वंशवाली कहानी अपने आप में विरोधाभासपूर्ण है। इनके पिता भी पशुचारण का कार्य करते थे। उनके वृद्ध होने पर उनका काम इन्होंने हाथ में ले लिया। “लोहटजी के गाय आदि बहुत पशु थे। इन पशुओं को लोहटजी ही जंगल में चराते थे, लेकिन जब लोहटजी वृद्ध हो गए तो उन्होंने पशु चराने का काम जाम्भोजी को सौंप दिया। पिता की आज्ञानुसार गुरु जाम्भोजी छोटी अवस्था में ही अपने साथी ग्वालों के साथ जंगल में पशु चराने लग गए। वे अपने पशुओं को बहुत प्रेम से चराते थे। इससे पशु भी उनसे प्रेम करने लग गए। वे स्वयं रेत के टीले पर बैठे रहते और पशु उनकी आज्ञा मानकर निश्चित स्थान पर चरते रहते।”3 पुष्ट प्रमाणों के अभाव में सबदवाणी से निकला निष्कर्ष ही मानना पड़ेगा।
II.
जाम्भोजी अनपढ़ थे, शास्त्रों के ज्ञाता नहीं थे। उनकी किसी गुरुकुल में कोई विधिवत शिक्षा हुई हो, ऐसा कहीं नहीं मिलता। कबीर की भाँति वे आनुभाविक चेतना को ही प्रमाण मानने के पक्ष में थे, अनेक सबद इस बात के प्रमाण है–
“मोरा उपख्यान वे दूंकण तत भेदूं शास्त्रे पुस्तकें लिखणा न जाई
मेरा सबद खोजो, ज्यूँ शब्देशब्द समाई”4
वे वेद को नहीं अपनी वाणी को प्रमाण मानते हैं। चूँकि वे जानते हैं कि मैं जिन लोगों को संबोधित कर रहा हूँ, वे साधारण किसान हैं। उनका वेदशास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए वे शास्त्र की गूढ़ बात को समझाने के लिए गधे और कुत्ते का सहारा लेते हैं। हम जानते हैं कि कुत्ता और गधा ही ऐसे जीव हैं जो किसान के सबसे अधिक निकट हैं -
“खरका शब्द न मधुरबाणी, कृण चरित बिन श्वान न कबही गहिरुं।”5
गधे का स्वर ऊँचा होता है, पर मधुर नहीं होता और कुत्ता कभी गंभीर नहीं हो सकता। एक की आवाज सुनने योग्य नहीं होती तो, दूसरा कभी संतोषी नहीं होता। बिना ईश्वरीय ज्ञान के मनुष्य न तो कभी मुधर ही बोल सकेगा और न कभी गम्भीर और संतोषी ही हो सकेगा। उनकी आध्यात्मिक चेतना किसानी जीवन से घुल-मिलकर ही पल्लवित हुई हैं, क्योंकि उनका सम्पूर्ण कार्य क्षेत्र और लक्ष्य किसान ही थे। आगे हम उनके किसानी जीवन से संबंधित ‘सबदवाणी’ के उद्धरणों से सिद्ध करेंगे कि वे शुद्ध रूप से किसानी जीवन से प्रेरणा ग्रहण करके कविता लिख रहे थे।
भला साधारण जनता में कोई भी व्यक्ति कैसे आसानी से नेता बन सकता है? या तो कोई चमत्कार दिखाएँ या तो फिर किसी साहसिक या बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य को अंजाम दें? जाम्भोजी जब बालक थे; गाँव में लुटेरों ने पशुओं पर डाका डाला तो लोग जाम्भोजी के पास जाकर बोले –
“बालक ऐसे बोले भेव, सांढ़ छुडाओ साँचा देव।”6
पशुओं को छुड़ाने वो कोई भूत-प्रेत या हाथ में तीर, तलवार, भाला या सुदर्शनचक्र लेकर नहीं जाते और न ही अकेले चले जाते हैं–
“जब देवजी भाखै ऐसे, गेडडी असवार हुवो तुम जैसे”
बालक असवार ही भाजही, सारे ललकार करें तबही।”7
गेड्डी यानि लट्ठ लो और सारे एक साथ मुकाबला करो। ‘सारे ललकार करें तबही’ लुटेरों को जीता जा सकता है। यहाँ दिव्य शस्त्र नहीं हैं। लट्ठ ही सबसे शक्तिशाली शस्त्र है। अगर वे राजपूत वंश से सम्बन्धित थे तो क्या उनके पास तलवार और भाले नहीं थे?
भारत में हिन्दू धर्म के अवतारों ने अवतार किस स्थान पर लिया? महलों में, राजा के यहाँ या फिर ईश्वरीय शक्ति से स्वयं उत्पन्न हो गए! विहाग वैभव की एक कविता की पंक्ति है–“ईश्वर किसान होने से डरता है”8 लेकिन यहाँ तो जाम्भोजी ने किसान जनता में किसान होकर ही ईश्वरत्व पा लिया। झाली राणी ने अपने सेवकों को जाम्भोजी से पूछने भेजा कि वे स्वयं को ईश्वर का अवतार कहते हैं, जबकि ऐसा कभी न हुआ; अवतार तो महलों में रहते हैं, अनेक रानियाँ होती है? तब जाम्भोजी कहते हैं-
“रात पडंता पाला भी जाग्या, दिवसतपंता सुरुं”
उन्हां ठंडा पवना भी जाग्या, घन बर्षणतानीरुं”9
इस प्रदेश में रात पड़ते ही सर्दी प्रारम्भ हो जाती है। गर्मियों में भयंकर लू चलती है तथा सर्दियों में बर्फीली पवन और वर्षा ऋतु में कभी बारिश तो कभी सूखा पड़ता है।
“दुनी तणा औचाट भी जाग्या, के के नुगरा देता गाल गहिरुं”10
ऐसे कष्टमय वातावरण में निवास करने के बावजूद भी लोग अपना दुख-दर्द लेकर आते हैं और कई नुगरा( बदमाश) तो गाली भी दे जाते हैं। जाम्भोजी आभिजात्य लोगों के ईश्वर नहीं हैं; जो महलों में रहता है, जिसके पास सेना है, जो हजारों रानियाँ रखता है, जिसका ऐश्वर्य स्वर्ग लोक से तुलनीय हो; वो साधारण जनों के कष्ट निवारक डॉक्टर हैं जिसको मरुभूमि के सामान्य किसान की समस्याओं का भान हैं। वे उन्हीं की तरह दुख-दर्द कष्ट महसूस करते हैं। प्रकृति उनको भी उतना ही प्रभावित करती है जितना की अन्य लोगों को। लोग गालियाँ भी देते हैं परन्तु वे शक्तिशाली ईश्वर की भाँति दंडित नहीं करते क्योंकि वे जानते हैं कि स्वयं भी इसी मिट्टी को खाकर भगवान बनें हैं। दुख-दर्द में सामान्य लोगों के सहभागी हैं।
भला मरुस्थल में कहाँ से दिव्य वस्त्र होंगे? आधा तन ढकने को एक लंगोटी भी उपलब्ध हो जाए तो ईश्वर की नेमत मानकर संतुष्ट हो जाते हैं। कौन हीरों की माला देगा ईश्वर बने जम्भ को? खेजड़ी की लकड़ी से बनी काठ की माला ही शृंगार है–
“जिहिं तनऊँ ना ओढ़ण ओढ़ा, तीहिं ओढता चीरुं।
जा हाथेज पेमाली जम्पा, तहां जपंता हीरुं”11
यही ‘लोक की सामान्य भाव-भूमि’( आचार्यरामचंद्रशुक्ल) है, जहाँ ईश्वर और साधारण किसान के दुख-दर्दों में कोई अंतर नहीं रह जाता। सामान्य व्यक्ति शास्त्रोक्त दार्शनिक शब्दावली में दुखों की व्याख्या नहीं समझ सकता। उनको अपने आसपास बिखरी सामान्य चीजें ही कष्टों का बोध करा सकती है। विवेक के बोध के लिए शास्त्रों का जटिल व्याकरण यहाँ जाम्भोजी की शब्दावली में ‘कूकस’( भूसे को कूकस कहा जाता है। अनाज निकालने के बाद बचा कचरा) हैं जिसमें से कुछ नहीं निकलता चाहे जितना ‘गाह’(गाहना या गाहटा : यह धान निकालने की प्रक्रिया है। अब यंत्रों से फसलें निकाली जाने लगी हैं। पहले बैलों से चीथकर( ऊपर घूमा-घूमाकर) धान को कूटा जाता था। फिर हवा से उस भूसे को उड़ा दिया जाता था। बैलों को फसल पर घुमाने को ही गाहना कहते हैं तथा इस स्थान को गाहटा) लो–
“माग रमणीया काच कथिरू, हीर सही राहीरुं।
बिखा पड़ता पड़ता आया, पूरस पूरा पूरुं”12
ऊपर से देखने पर तो मंगरे की कंकरीली भूमि में मिलने वाले पत्थर के मनके, काँच के मनके, मनिया, कथीर आदि गहने हीरे जैसे लगते हैं किन्तु जब विवेकी पुरुष द्वारा परीक्षा की जाती है, तो भेद खुल जाता है। यहाँ भयंकर वर्षा होती है, ओले पड़ते हैं। संतापों की कोई कमी नहीं है। ईश्वरीय चमत्कारों से कष्ट दूर नहीं होते–
“महा अंगीठी बिरखा ओल्हो,जेठ न ठंडा नीरुं”
पंलग न पोढ़ण सेज सोवन, कंठ रुलंता हीरुं।”13
जाम्भोजी ने अभावों में अवतार क्यों लिया? वे कहते हैं- ये किसानी भूमि और यहाँ के लोग निष्कपट है। ऊन से बने वस्त्र पहनते हैं। विपत्तिकाल में तूम्बे के बीजों का भी प्रयोग कर लेते हैं। दूध दही के लिए गाय पालते हैं। गहरे कुएँ का जल पीते हैं और उन्हें अपनी जमीन जायजाद बढ़ाने का भी लोभ नहीं है–
“खरड ओढ़ी जै तूम्बा, जामी जै सुरहे दुहीजै”
त खेत की सींव मलीजै, पीजै ऊंडा नीरुं।”14
जाम्भोजी ने ऐशो-आराम की जिंदगी से तो ये अनुभव ग्रहण किए नहीं होंगे? यही जीवन स्थितियाँ थी और वो भी तब जबकि उनके इतने अनुयायी थे। यहाँ श्रम के मूल्य की लूट नहीं है। संकटों में एक साथ और बुद्धिमतापूर्वक कार्य करने की प्रेरणाएँ हैं। जाम्भोजी की सम्पूर्ण ‘सबदबाणी’ में किसान जीवन की स्थिति, किसानी प्रतीकों के माध्यम से दार्शनिक व्याख्याएँ और खेती में प्रयुक्त संसाधनों तथा दिन प्रतिदिन की क्रियाओं द्वारा आत्मा-परमात्मा का रूपक बनाकर प्रस्तुत करने के अलावा उनका और कुछ भी मौलिक नहीं है। वैष्णवी धर्म के सिद्धांतों की नकल करके जम्भवाणी में शामिल करने की कोशिश निरर्थक साबित हुई है।
(2)
विवेकहीन धार्मिक विश्वासों ने हम भारतीयों की चेतना को इतना कुंद किया है कि हमारे पास शक्तिशाली तर्कपूर्ण-सैद्धांतिक–व्यवहारशील सैकड़ों दर्शन होने के बावजूद भी हम किसी तांत्रिक के यहाँ जाकर अपने बच्चे की बलि दे आ रहे हैं। कुछ तो ‘ज्ञान-तंत्रों’ पर कब्जा जमाए लोगों की साजिश है यह और कुछ मूढ़ धार्मिक गुरुओं की बेवकूफी। ज्ञान-शास्त्र का हवाला देकर ‘ज्ञान–तंत्रों’ पर काबिज लोग ऐसा भ्रम रचते हैं कि अनपढ़ और तर्क के विवेक से हीन जनता धार्मिक अंधविश्वासों और कर्मकांडों को ही अपने जीवन का सत्य मान लेती हैं और वही सत्य पाप – पुण्य के छलावे से जुड़कर जीवन का मूल हिस्सा बन जाता है। सामान्य जनता को इनसे मुक्ति अपराध बोध-सा प्रतीत होता है।
जाम्भोजी ने इसी अपराध बोध के खिलाफ 16 वीं सदी में मोर्चा खोला था। मारवाड़ की अनपढ़ किसान जाति हिन्दू और इस्लाम के गुरु-पीर तथा नाथपंथी तांत्रिकों के डाकिनी-शाकिनी में उलझी हुई थी। भूत-प्रेत और कर्मकांड के बिना जीवन का संचालन असंभव-सा जाना पड़ता था। जाम्भोजी के लिए उनको इन सबसे बाहर निकालना इतना आसान न था। वर्षों से जड़ संस्कारित बुद्धि में कोई भी बात बिन भय या लालच के नहीं घुस सकती थी। जाम्भोजी ने ‘मुक्ति’ दिलाने वाले अस्त्र का प्रयोग करके किसानों को इससे बाहर निकालने का प्रयास किया। जम्भवाणी में उल्लेखित देवता और उनके साथ जुड़े कर्मकांड आज भी मारवाड़ की धरती पर प्रचलित हैं। वे कहते हैं कि जिन देवताओं की पूजा आप कर रहे हैं, वे हमारी ही तरह सामान्य जीव हैं। जन्म लेते हैं और मरते भी हैं–“खेचर-भूचर खेत्रपाला परगट गुप्ता,कांय जपीजै तेपण जाया जीउँ।
चौषठ जोगिनी बावन भेरुं, कांय जपीजै तेपण जाया जीउँ।”15
ऐसे जीव जो पशु योनि में हैं, उनकी पूजा व्यर्थ है। कल को वो भी हमारी तरह समाप्त होने वाले हैं। जो आपको बड़े-बड़े ज्ञानी, फकीर और ऋषि नज़र आते हैं, ये सब भी हमारी तरह जन्म लेते हैं और मरते हैं–
“जपी तपी जक पीर रिशेश्वर कांय जपीजै तेपण जाया जिउं।”16
प्रत्येक मध्यकालीन निर्गुणपंथी संत, समाज-सुधारक धार्मिक अंधविश्वासों और कर्मकांडों का विरोधी रहा है और खुलकर भर्त्सना की है लेकिन, ध्यान देने योग्य बात है कि मुख्यधारा में गिने जाने वाले मध्यकालीन संत कवियों के यहाँ जिस प्रकार के पाखंडों की भर्त्सना है, वह समाज के उस हिस्से में फैले हुए थे, जिसको उच्च वर्ग कहा जाता है। मतलब यह कि आभिजात्य समाज के पाखंडों की विवेचना ही वहाँ मुख्य है। निचला समाज, जो आर्थिक रूप से विपन्न वर्ग था तथा अक्षर ज्ञान से रहित था, जाम्भोजी ने उस उपेक्षित किसान समाज को अपने ज्ञान का क्षेत्र बनाया। कुछ उदाहरण देखिए कि किसानी के ही प्रतीक कैसे अन्धविश्वास उन्मूलन में सहायक बनते हैं–
“भूत परे तीजा खाखाणी यह पाखंड पर वाणों
बल-बल कूकस कांय दलीजै, जामै कुण न दाणों”17
भूत प्रेतों की पूजा करना वैसा ही है जैसे ‘कूकस’ को बार-बार ‘गाहे’ और उसमें से प्राप्त कुछ नहीं हो, क्योंकि दाना उसमें से पहले ही निकल चुका होता है। वैसे ही भूत-प्रेत दूसरी योनि हैं, बार-बार दलने(पूजा) से कुछ भी हाथ न आयेगा अथवा घाणे से निकली हुई खली के समान है भूत-प्रेतों की पूजा। पुन: कितनी ही बार घाणी में डालो, न तो तेल निकलेगा और न ही उस खली का कोई मूल्य है। साथ ही जाम्भोजी कहते हैं कि ऊसर भूमि में बीज डालने से न तो बीज ही निपजता है तथा बालू के टीले पर तालाब खोदने से न ही उसमें पानी ठहरता है। भूत-प्रेतों में ध्यान लगाना वैसा ही जैसे उस कालर भूमि में फलने की आशा और टीले के तालाब में जल भरने का सपना। उस समय दो संस्कृतियों हिन्दू और इस्लाम के बीच जो राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी, उसमें साधारण जनता बेकार में पिसती थी। जाम्भोजी धर्म या मजहब की व्यर्थता बताते हुए कहते हैं कि धर्म मजहब की लड़ाई तुम्हें उसी तरह खा जाएगी, जैसे अनाज के अंदर से घुण दाने(दाणे) को थोथा कर देता है।
इस्लाम की बलि प्रथा को वे लाभ-हानि का गणित लगाकर देखते हैं। किसानी जीवन का मूल आधार आर्थिक-तन्त्र की गतिशीलता ही है। किसानी में लगभग आधी आमदनी पशुपालन से ही प्राप्त होती है। मूल्यगत मूल्यांकन करें तो पशुपालन से प्राप्त आय ही किसानी का शुद्ध उत्पादन है। उसके नष्ट होते ही किसान घाटे में जाता है। जाम्भोजी हक और अर्थ के बीच सामंजस्य बिठाते हुए कहते हैं–
“चर फिर आवै सहज दुहावै, तिसका खीर हलाली।
जिसके गले कर दक्यूँ सारों, थे पढ़ सुण रहियो खाली।”18
“भाई नाऊँ बलद पियारो, ताकै गले कर दक्यों सारों।”19
तुम जानते बुझते भी कि जो पशु चर-फिर आता है और बिना किसी प्रतिकार के सहज ही दूध देता है, उसको हलाल कर रहे हो? क्या ऐसे पशु का गला काटने से तुम्हें हानि नहीं होती? बैल ऐसे समय भी काम आता जब भाई भी आपका साथ छोड़ देता है। फिर भी तुम्हें लगता है कि सही कर रहे हो तो यह तुम्हारा न्याय नहीं हो सकता–
“कांही लीयो दुधूं दही यूं, कांही लीयूं घीयूं महियूं।
कांही लीयूं हाडूँ मासूं, काहीं लीयूं रक्तूंरू हियूं।”20
क्योंकि फिर तुम्हें इनके उत्पादों का प्रयोग करने का कोई हक नहीं है? या तो इनका हाड़-माँस ही काम ले लो या फिर इनसे प्राप्त द्रव्य ही। यह शुद्ध मानवीय दृष्टि है जो मनुष्य की अंधाधुंध दोहन की प्रवृत्ति पर रोक लगाती है। किसान प्रकृति के सबसे नजदीक होता है। वह अंधा होकर दोहन नहीं करता अपितु प्रकृति का संरक्षण करता है। आवश्यक चीजों का उपयोग सीमित मात्रा में ही करता है। गाँधी ने भी कहा है कि प्रकृति सबकी आवश्यकता पूरी कर सकती है लेकिन लालसा किसी की नहीं। ‘जीओ और जीने दो।’ पारिस्थितिकी के असंतुलन के साथ जीवन मूल्यों पर भी खतरा उत्पन्न हो जाएगा–
“जीवां ऊपर जोर करीजै, अंतकाल होयसी भारुं।”21
इस तरह अर्थ और सामाजिक मूल्यों को मूल में रखकर जाम्भोजी किसान जीवन के प्रतीकों का उपयोग कर अंधविश्वासों में फँसी जनता को नयी राह दिखाते हैं।
(3)
जीवन को समझने का दुनिया का कोई भी प्रयास अलग-अलग विचारणाओं से भरा पड़ा है। भारतीय दर्शन में रूपक रचना आत्मा-परमात्मा को समझने की ही एक शैली है। जिसका प्रयोग प्राचीनकाल से होता आया है। हिंदी में इसका मूल सूफी काव्य में मिलता है। मध्यकालीन आध्यात्मिक कविता में ऐसे बहुत से प्रयोग मिलते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी तो प्रसिद्ध ही हैं। यहाँ तक कि लोककाव्य में भी इस प्रकार की रूपक रचना मिलतीहै– राजस्थानी लोककथा : ढोला-मारू रा दूहा। जैसा कि हमने ऊपर देखा है कि जाम्भोजी ने मारवाड़ के सूखे प्रदेश जिसमें किसान जातियों का बाहुल्य था, किसानी जीवन को लेकर अध्यात्म को समझने और समझाने के लिए वेदशास्त्र को छोड़कर साधारण जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को आधार बनाकर ज्ञान का प्रसार किया है। उन्होंने उसी प्रकार आत्मा-परमात्मा की गुत्थी सुलझाने के लिए किसानी-आध्यात्मिक रूपक का प्रयोग किया है।
रूपकों का प्रयोग निम्न प्रकार से हुआ है-
खेती – साधना,
खेत – शरीर या जीवन
उत्पादन - आत्म-साक्षात्कार या आत्मा या आनंद,
किसान - जीवात्मा
रखवाला - मनबाड़ - पवित्रता
तूफ़ान - माया, मोह,
आवारा पशु – दुष्ट स्वभाव वाले मनुष्य
मयूर \ मयूरी – अहंकार,
हरिण - वासनाएँ
चूहा – आलस्य,
गाय - बुद्धि (हठी होती है)
बारिश – ज्ञान,
भूसे को उड़ने वाली वायु – गुरु के शब्द
दो बैल - नासिकाएँ (स्वर)
रास - नाड़ियाँ (इड़ा और पिंगला)
फसल की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम खेत की जुताई, गुड़ाई, सफाई की जाती है। समय आने पर अच्छे बीज बोए जाते हैं तथा खेती की रक्षार्थ मजबूत काँटों की बाड़ लगाई जाती है। उसी प्रकार से इस मानव जीवन रूपी खेत में भी अच्छा फल चाहता है, तो इस शरीर रूपी खेत में सर्वप्रथम ज्ञान धारण करने की योग्यता पानी होगी तथा योग्यता के लिए शौच, स्नान, सदव्यवहार आदि गुणों को धारण करना होगा। जब शरीर शुद्ध हो जाएगा तब उसमें सद्ज्ञान रूपी बीज बोया जाएगा और बीज अंकुरित हो जाने के बाद उस ज्ञान के फल आनन्द की रक्षार्थ पवित्रता रूपी बाड़ चारों तरफ लगानी होगी, जो सांसारिक मोह-मायादि तूफानों से उड़ न सके। इस संसार में जीव की भलाई के लिए साधना रूपी खेती कर तथा खेती के रक्षार्थ एक रखवाला भी रखना होगा। वह रखवाला मन है क्योंकि वही करता है। उसे ही रखवाला रखना होगा क्योंकि आगे कोई भी विपत्ति आ सकती है–
“भल बाहिलो भल बाजिलो,पवणा बाड़ बलाई।
जीवके का जैखडोंजे खेती, ता मैले रखवालों रे भाई।”22
तुम्हारी खेती जब पकने को तैयार होती है, उसी समय मौक़ा पाकर स्वतंत्र विचरण करने वाले दैत्य स्वरूप भैंसा और शैतान रूपी सांड आकर तुम्हारी खेती को नष्ट कर सकते हैं। इसी प्रकार से इस साधना रूपी खेती को भी समाज में स्वच्छंद विचरण करने वाले मद-मस्त राक्षस शैतान दुष्ट स्वभाव वाले मानव कभी भी तुम्हारे सत्य ज्ञान मार्ग को नष्ट-भ्रष्ट कर सकते हैं तथा सावधान न रहने से तुम्हारी बुद्धि को मयूर रूपी अहंकार नष्ट कर देगा। इसलिए मन रूपी रखवाले को स्थिर सावधान रहना होगा क्योंकि यह रखवाला स्वयं तुम्हारा चंचल मन है। इसे एकाग्र कर खेती की रक्षा करनी होगी।
अपने जीवन की भलाई के लिए साधना रूपी खेती करें। जिससे वह सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से छूट सके। किन्तु साधना या खेती करते समय कुछ समस्याओं का ध्यान रखना भी परमावश्यक है। सर्वप्रथम तो खेती को उड़ाने वाले तूफ़ान जो खेती को या तो मूल से उखाड़ देते हैं या दबा देते हैं। उसी प्रकार से साधना में भी आने वाले अनेक प्रकार के लोभ, मोह, काम, क्रोध, तूफ़ान आदि या तो उसकी साधना से निवृत कर देते हैं या दबा देते हैं। इनसे तो सावधान रहना ही है, इसके अलावा भी कई प्रकार की समस्याएँ खेती में आती है। वहाँ हिरण, गाय, भैंस आदि जो जबरदस्ती खेत में घुस जाती हैं और फसल खा जाती है। साधक भी किसान की तरह ही होता है। अगर वह अपनी साधना की रक्षा नहीं करेगा तो हरिण रूपी मन व हरिणियाँ रूपी मन की वासनाएँ जो अति चंचल है, साधना को नष्ट कर सकती है। वैसे तो मन खेत का रखवाला है, पर जब बाड़ ही स्वयं खेत को खाने लग जाए तो समस्या पैदा हो सकती है। उसी प्रकार से साधक को भी सूक्ष्म वासनाओं से समस्या पैदा हो सकती है, तब बुद्धि का मन पर नियन्त्रण होना चाहिए था, किन्तु बुद्धि कुशाग्र न होने की वजह से जबरदस्ती करने वाली गाय की तरह हो जाती है। जैसे सत-असत का विवेक नहीं रहता तो वह विचार शून्य होकर साधना में बाधा उत्पन्न करेगी–
“जीव के काजै खड़ो न खेती, वेद वाय न जाई।
न तहां हिरनी न तहां हिरण, नचीन्हों हरि आई।”23
और भी अनेक बाधाएँ आती है। वहाँ खेती को खाने वाले मयूर-मयूरी तथा चूहे भी रहते हैं। यह सभी खेती को उजाड़ने वाले हैं। किसान को इनसे सावधान रहना चाहिए। साधक को मयूर रूपी अंहकार और मयूरी अहंकार वृति, गर्व, मेरापन रूपी मयूरियों से सावधान रहना होगा। सबसे अधिक शत्रु तो चूहे होते हैं और उनसे बचाव करना भी बहुत कठिन है। साधक को आलस्य( अचेतावस्था) चूहे कभी भी मंदमति कर सकते हैं। इसलिए सदा सचेत रहना चाहिए कि कहीं चूहे खेत में बिल तो नहीं कर रहे हैं अर्थात कहीं मैं अचेत अवस्था में पड़ा व्यर्थ ही तो समय नहीं गँवा रहा? इस प्रकार सदा जागृत रहकर साधना रूपी खेती की रक्षा करनी चाहिए–
“न तहां मोरा न तहां मोरी,न उंदर चर जाई।”24
किसान और साधक को एकांत चाहिए। साथ ही अगर दोनों में पर्याप्त धैर्य नहीं होगा तो फल की प्राप्ति नहीं होगी। धैर्य के साथ सूर्य और चन्द्र( नासिकाएँ) रूपी बैलों से संतोषी बनकर रास( इड़ा और पिंगला नाड़ी) वश में रखना चाहिए–
“चंद सूर दोय बैल रचीलो, गंग जम न दोय दासी।
सत संतोष दोय बीज बीजी लो, खेती खड़ी आकाशी।”25
जिस प्रकार किसान बीज बोने से पूर्व खेती को सुधारता है तथा स्वयं तो सचेत रहता ही है, समय पर खेती के लिए तैयार रहता है। वर्षा होने पर तुरंत जुताई करके बीज बो देता है, फिर उसमें परिश्रम करके कम वर्षा के बावजूद भी खेती निपजा देता है। ठीक उसी प्रकार से यह शरीर भी खेत ही है। यह जीवात्मा ही किसान है। यह दोनों ही अति पवित्र अंत:करण वाले होंगे कि जहाँ कही भी वर्षा रूपी ज्ञान चर्चा होगी, वही पर जाकर अभ्यास करेगा, तभी यह परिश्रम की खेती का आनंद रूपी फल प्राप्त होगा–
“भोम भली कृषाण भी भला, बूठों है जहाँ बाहीये।
करषण करो सनेही खेती, तिसियां साख निपाइये।”26
जब फसल पककर तैयार हो जाती है, तो चुन-चुनकर एकत्र की जाती है। फिर भूसा के अंदर से अन्न निकालने के लिए गाहाया( गाहटा) जाता है। फिर हवा से थोथा घास उड़ा दिया जाता है। पीछे अन्न रूपी कण ही शेष रह जाते हैं। जो भोजन बनकर भूख की निवृति करता है। उसी प्रकार से किसान सदृश साधक को भी जहाँ से भी ज्ञान प्राप्त हो सके करना चाहिए। जब अधिक ज्ञान की सामग्री एकत्र हो जाती है तब अपने जीवनोपयोगी सामग्री का प्रयोग कर लेना चाहिए। सत्य-असत्य के विवेक के लिए गुरु मुख से निकले हुए शब्द ही वायु है, जो तुस-कण के झगड़े का निर्णय कर देती है। जब गुरु मुख से विवेकपूर्ण बातें निकलेंगी तो असत बातें अपने आप ही उड़ जाएँगी। उसी कण तत्त्व को जीवन में अपनाने से जीवन आनंदमय अवस्था में होगा–
“लुण लुण लियो मुरातब कीयो,कण का जैखड़ गाहिये।
कण तुस झेड़ों होय न वेड़ो, गुरु मुख पवन उड़ाइए।
पवनां तुस उड़ेला, कण के अर्थ लगाइये।”27
जाम्भोजी की ‘सबदवाणी’ लगभग पाँच सौ वर्षों से नया–नया स्वरूप लेती आई है। प्रत्येक संकलनकर्ता ने अपने हिसाब से नये ‘सबद’ जोड़े हैं और घटाएँ भी हैं। लोकजीवन में फैले काव्यों की यही नियति है कि वे कभी भी एक ही विचार को लेकर जीवित नहीं रहते। “लोक मनुष्य-समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है।”28 इसी प्रवाह में उसका स्वरूप हमेशा एक-सा नहीं रहता। लोक की ही तरह लोक काव्यों का जीवन भी नित नए रूप बदलता रहता है। नई मान्यताएँ और नई विचारसरणियाँ चाहे उनमें जुड़ती रहें, लेकिन फिर भी अध्ययन से कुछेक विचारों को मूल माना जा सकता है। यहाँ हमने पुष्ट तर्को के माध्यम से यही सिद्ध करने का प्रयास किया है कि मारवाड़ की किसान जाति में जन्मे जाम्भोजी समय पाकर परिस्थितियोंवश एक साधक सिद्ध के रूप में प्रसिद्ध हुए और अंधविश्वासों में फँसी किसान जाति को एक नई दिशा दी। उन्होंने अपनी बौद्धिक प्रतिभा के बल पर दर्शन परम्परा को आगे बढ़ाया।
जाम्भोजी शुद्ध किसान, कवि और समाज सुधारक थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वे मारवाड़ की किसी विपन्न जाति का हिस्सा थे, अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने अपने किसान समाज का नेतृत्व किया। उनके साथ कई प्रकार की किंवदन्तियाँ चाहे जुड़ गई हों, जो कि लोकसमाज में फैली कविता के साथ ऐसा होता ही है, लेकिन वे एक उच्च कोटि के विद्वान थे, जिनकी विधिवत शिक्षा न होने पर भी अपना स्वयं का दर्शन निर्मित किया। बाद में वैष्णव धर्म की मान्यताएँ और कर्मकांड जुड़ने के कारणों की संक्षिप्त चर्चा हमने ऊपर की है। किसानी को आधार बनाकर अध्यात्म का रूपक गढ़ना उनकी मौलिक खोज रही है।
संदर्भ :
1.
जाम्भोजी :जम्भसागर (स. कृष्णानदआचार्य) जाम्भाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर, 2006 संस्करण 11, पृ. 21
2.
बनवारीलाल साहू, विश्नोई पंथ और साहित्य, जाम्भाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर, 2016, द्वितीय संस्करण, पृ. 11
3.
बनवारीलाल साहू :गुरु जाम्भोजी (बाल-पोथी), जाम्भाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर, द्वितीय संस्करण, 2013, पृष्ठ – 11
4.
जाम्भोजी : जम्भसागर, ( स. कृष्णानदआचार्य ) जाम्भाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर, 2006 संस्करण 11, पृ. 45
5.
वही, पृ. 46
6.
वही, पृ. 24
7.
वही,पृ. 24
8.
समकालीन जनमत,जून 3, 2018, https://samkaleenjanmat.in/poems-by-vihag-vaibhav/
9.
जाम्भोजी, जम्भसागर, स. कृष्णानद आचार्य,जाम्भाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर, संस्करण 11, 2006, पृ.127
10.
वही,पृ. 127
11.
वही,पृ. 127
12.
वही,पृ. 128
13.
वही,पृ. 128
14.
वही,पृ. 230
15.
वही,पृ. 31
16.
वही,पृ. 31
17.
वही,पृ. 155
18.
वही,पृ. 37
19.
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वही,पृ. 152
23.
वही,पृ. 153
24.
वही,पृ. 153
25.
वही,पृ. 225
26.
वही,पृष्ठ 78
27.
वही,पृ. 78
28. सतेंद्र : लोक साहित्य विज्ञान, शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी, आगरा, 1971, द्वितीय संस्करण, पृ. 3
ओमप्रकाश सुंडा, शोधार्थी, हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, बांदर सिंदरी, किशनगढ़, अजमेर
opsunda2408@gmail.com, 9571474175
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
अच्छा है
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया ओम जी
जवाब देंहटाएंउत्तम कार्य
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंज्यादा दम वाली बात नहीं है. Aap असली मुद्दे से भटक चुके हैं
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें