शोध आलेख : दलित समाज का बदलता सामाजिक यथार्थ और रत्नकुमार सांभरिया की कहानियाँ / डॉ. अमिष वर्मा
शोध सार : रत्नकुमार सांभरिया हमारे दौर के एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं। इनकी कहानियाँ दलित समाज से जुड़ी हुई कहानियाँ हैं, जिनमें दलित जीवन के तमाम शेड्स मौजूद हैं। इनकी कहानियाँ इस अर्थ में थोड़ी अलग हैं कि इनमें केवल दलितों का शोषण-उत्पीड़न ही चित्रित नहीं हुआ है, बल्कि ज़्यादातर ये कहानियाँ दलित समाज के बदलते यथार्थ और दलितों की बदलती सामाजिक हैसियत को विषय बनाती हैं। आज़ाद हिंदुस्तान में और खासकर अस्सी-नब्बे के दशक के बाद समाज के जातिवादी वर्चस्व की संरचना में आने वाले परिवर्तन से पारंपरिक वर्चस्वशाली जातियाँ किस तरह से अपना समायोजन करती हैं- यह भी सांभरिया जी की कहानियों में दिखाई पड़ता है। सांभरिया जी की कहानियों के जरिए भारतीय समाज के जातिवादी चरित्र के तमाम पेंचोखम को समझा जा सकता है। प्रस्तुत लेख में सांभरिया जी की कहानियों का इसी संदर्भ में विवेचन-विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है।
मूल आलेख : रत्नकुमार सांभरिया की कहानियाँ अतीतग्रस्त नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि इनकी कहानियों में अतीत या दलित शोषण के इतिहास का बोध नहीं है। लेकिन रत्नकुमार सांभरिया की खासियत यह है कि यह अतीत में उलझते नहीं हैं। इनकी निगाह दलित समाज के वर्तमान पर है। इसलिए इनकी कहानियाँ ‘भूत के भार’ से प्रायः मुक्त दिखाई पड़ती हैं। कहानीकार की स्पष्ट दृष्टि है कि अतीतग्रस्तता के कारण दलित कहानियों में दलित समाज की वर्तमान तस्वीर उभर नहीं पाती। सांभरिया अपने कहानी-संग्रह ‘दलित समाज की कहानियाँ’ की भूमिका में लिखते हैं- “वातावरण का निर्माण करते, दलितों की इन्हीं पीड़ाओं का पहाड़ खड़ा कर देना ‘दलित कहानी’ नहीं है।...उसका अतीत केवल पृष्ठभूमि के रूप में झलक-सा प्रतीत हो, कहानी में कथानक पर हावी न हो, उस अतीत की पृष्ठभूमि में दलित किस तरह संघर्ष कर नए सामाजिक वातावरण में समायोजित होता है- देशकाल की यह दरकार दलित कहानीकार के लिए अपेक्षित है।”[1]
रत्नकुमार सांभरिया की बावन कहानियाँ
अब तक प्रकाशित हैं। इनकी अधिकांश कहानियों में दलित समाज का बदलता हुआ यथार्थ
अभिव्यक्त हुआ है। इनकी पहली कहानी ‘फुलवा’
1997 में हंस पत्रिका में प्रकाशित हुई। इस पहली कहानी से ही सांभरिया जी की कथा-दृष्टि
की स्पष्टता दिखाई पड़ने लगती है। आजाद हिंदुस्तान की सामाजिक संरचना में आज़ादी के तकरीबन
30-35 वर्षों के बाद 1980-90 के आसपास परिवर्तन आना शुरू होता है। पिछड़ी और दलित
जातियाँ सक्रिय और प्रभावी तौर पर भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करती हैं और उसके
बाद दलितों-पिछड़ों की सामाजिक,
आर्थिक और राजनीतिक हैसियत पहले की तुलना में थोड़ी बेहतर होती है। अस्सी के दशक
में कांशीराम का उभार दलित राजनीति में नया तेवर लेकर आता है। प्रसिद्ध दलित चिंतक
कँवल भारती दलित राजनीति की इस करवट को रेखांकित करते हैं- “दलित राजनीति को अपना
स्वतंत्र अस्तित्व बनाने का एक अवसर अस्सी के दशक में मिला। दलित राजनीति के लिए
यह दशक अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में समकालीन दलित विमर्श का उदय उसी काल
में हुआ। 1980 में कांशीराम बामसेफ के माध्यम से भारतीय समाज में एक नया दलित
विमर्श लेकर अवतरित हुए।”[2]
दलितों-पिछड़ों के राजनीतिक चेतना-सम्पन्न होने और सक्रिय राजनीति में उनकी
भागीदारी से समाज में जातियों का शक्ति-समीकरण थोड़ा बदलता है। इसका परिणाम एक तरफ
पिछड़ों-दलितों के सामाजिक-राजनीतिक उत्थान के रूप में सामने आता है तो दूसरी तरफ
ऊँची जातियों के बीच एक किस्म का ‘फ्रस्ट्रेशन’
भी दिखाई पड़ता है। सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता इन बदलती सामाजिक-राजनीतिक
परिस्थितियों से तालमेल बिठाने के लिए संघर्ष करती हुई दिखाई पड़ती है।
ऐसी
स्थिति में तथाकथित ऊँची जातियों के लोगों में एक किस्म का जातिवादी समायोजन दिखाई
पड़ना शुरू होता है। दलित पिछड़ी जातियों के प्रभावशाली व्यक्तियों के साथ जाति की
मर्यादा को तोड़ने में अगड़ी जाति के ‘समझदार’
लोगों को कोई खास परेशानी नहीं होती। यह हवा का रुख देखकर दलितों-पिछड़ों के साथ
मधुर संबंध बनाने में हिचकते नहीं हैं। ऊँचे पदों पर बैठे दलित अधिकारियों से अपना काम निकालने के लिए या उनके पद के डर और
दबाव में ही सही, ऊँची
जातियों के व्यवहार में एक किस्म का बदलाव दिखाई पड़ता है। जाहिर है ऊँची जातियों
के द्वारा यह जो जातिवादी समायोजन होता है वह एक रणनीतिक समायोजन ही है। अवसर के
अनुकूल जाति की मर्यादा और श्रेष्ठता-बोध को कुछ समय के लिए छोड़ा जा सकता है!
यही रणनीतिक समझदारी इस जातिवादी समायोजन के पीछे काम करती है। लेकिन जातिवादी
समायोजन की इस प्रक्रिया में ऊँची जातियों के भीतर एक अलग ढंग की चिढ़ और नफरत
पैदा होती है,
जो वक्त आने पर पूरी घृणा और निर्ममता के साथ अभिव्यक्त होती है। सांभरिया जी की
तमाम कहानियों में नब्बे के बाद का यह बदलता हुआ सामाजिक यथार्थ अभिव्यक्त हुआ है।
‘फुलवा’,
‘डंक’, ‘बदन-दबना’,
‘बूढ़ी’, ‘बाढ़
में वोट’
आदि कहानियों में इस रणनीतिक जातिवादी समायोजन और इससे पैदा हुई चिढ़ को देखा जा
सकता है।
रत्नकुमार सांभरिया की कहानी ‘फुलवा’ ऐसी ही
कहानी है, जो नब्बे के बाद के भारतीय लोकतंत्र में दलितों की बदलती हुई स्थिति और उससे तालमेल न बिठा पाने वाली प्रतिगामी सवर्ण मानसिकता को अभिव्यक्त करती है। किसी समय गाँव में जमींदार की टहलुआई करने वाली फुलवा का बेटा पढ़-लिख कर एस.पी. बन जाता है और फुलवा अपने बेटे-बहू के साथ शहर के भव्य सरकारी मकान में रहने लगती है। गाँव के जमींदार का लड़का रामेश्वर अपने बेपढ़े-लिखे बेटे को नौकरी में लगवाने के लिए सिफारिश करने शहर आता है। पंडित माताप्रसाद का मकान ढूंढ पाने में असफल रामेश्वर फुलवा के घर चला जाता है। गाँव की दलित फुलवा जो उसकी हवेली में बेगार खटती थी, यहाँ रानी की तरह रहती है! फुलवा की हैसियत देखकर रामेश्वर जल-भुन जाता है। जातिवादी संस्कारों से बंधा रामेश्वर भूखा होने पर भी फुलवा के घर पानी तक नहीं
पीता।
जाति के झूठे अभिमान से भरा रामेश्वर
सिंह
फुलवा के आतिथ्य और सत्कार को तो ठुकरा देता है, लेकिन अंततः बदली हुई परिस्थिति और अपनी गरज के आगे लाचार वह फुलवा के पास मदद के लिए जाने को मजबूर हो जाता है। रत्नकुमार सांभरिया की यह कहानी दलितों की बदलती सामाजिक स्थिति के साथ-साथ जातिवादी समाज के बदलते रवैये को पाठकों के सामने रखती है। जातिवादी समाज के रवैये में परिवर्तन कुछ तो स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में घटित होता है और ज़्यादातर लाभ और गरज के दबाव में। कहानी में पंडित माताप्रसाद की विधवा और फुलवा का परस्पर व्यवहार और संबंध स्वाभाविक तौर पर जाति की सीमा को तोड़ता है, जबकि रामेश्वर अपनी गरज से जाति की मर्यादा तोड़ने पर मजबूर होता है। यह कहानी गाँव और शहर में जातिवाद के बदलते समीकरण को भी प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करती है।
‘डंक’
कहानी जातिवादी समायोजन और इस प्रक्रिया में तथाकथित ऊँची जातियों के फ्रस्ट्रेशन
को और बारीकी से पकड़ती है। संवैधानिक मूल्यों पर आधारित समाज में बदले हुए
सामाजिक समीकरण के बीच दलित खेरा भी अपनी मेहनत और बुद्धि से थोड़े पैसे कमा कर
समाज में अपनी स्थिति थोड़ी मजबूत कर लेता है। इतनी मजबूत कि उसका जाति से चमार
होना गौण हो जाता है। सांभरिया जी रेखांकित करते हैं- “हाथ में दाम हो। जात दब
जाती है।”[3]
आर्थिक संपन्नता खेरा को सामाजिक
सम्मान भी दिलाती है। खेरा की इसी आर्थिक संपन्नता के कारण सतना पंडित को अपनी बेटी
की शादी के लिए कर्ज माँगने खेरा के पास आना पड़ता है। अब कहानी के इस पूरे प्रकरण
में वर्णाश्रमी पंडित सतना के मन के उधेड़बुन,
खेरा
के रोबदार व्यवहार के प्रति उसका मानसिक रोष और उसके भीतर के जातिवादी अहं को देखा
जा सकता है। उसका जातिवादी अहंकार जोर मारता है और वह बदले हुए वक्त को और अपने को
कोसता है- “वक्त
की डोर छूट गई, वरना
कुपात्र का सारा पैसा हड़प,
कानों में सीसा भर के गाँव से खदेड़ देते।”[4]
सतना खेरा की कमर तोड़ कर (जिससे अंततः
उसकी मौत हो जाती है।) और उससे उधार लिए पैसे हड़प कर आखिर अपने मन की मुराद पूरी
कर लेता है। सतना जैसा वर्णाश्रमी पंडित बदलते सामाजिक यथार्थ से तालमेल नहीं बिठा
पाता। एक दलित का बराबरी में आना उसे डंक की तरह चुभता है। यह कहानी दलित समाज के
बदलते यथार्थ के साथ-साथ भारतीय समाज की जातिवादी संरचना में पैदा हो रहे तनाव को
भी अभिव्यक्त करती है।
इस कहानी का एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष
है। आर्थिक समृद्धि ने खेरा के भीतर के जातिवाद को उभार दिया और वह अपनी ही जाति
के दूसरे व्यक्ति से जातिवादी व्यवहार करने लगा। सांभरिया जी लिखते हैं-
“पैसा
आदमी में सामंती भाव उगा देता है। टोटा निरीह बना देता है। दोनों की जात एक थी। पांत
एक थी। गरज दीवार थी। खेरा अपने जातिभाई को हुक्का नहीं दे रहा था। हाकिम और हरकारे-सा
कुछ उनदोनों के बीच था।”[5]
भारतीय समाज की जातिवादी संरचना की सांभरिया जी की समझ एकांगी नहीं है। जातिवाद की
परतों को सांभरिया समझते हैं। इसलिए दलित खेरा के भीतर का जातिवाद भी उनकी नजर से चुकता
नहीं है। विश्वनाथ त्रिपाठी दलित कहानियों पर विचार करते हुए इस बात को ठीक
रेखांकित करते हैं कि “वर्णाश्रम व्यवस्था या ब्राह्मणवाद सिर्फ सवर्णों में नहीं-
वह वर्णाश्रम व्यवस्था से पीड़ित दलित समुदायों में भी है। वर्णाश्रम व्यवस्था के
विरोधी दलित-चेतना का उत्तरदायित्व है कि वह इसकी भी खोज करके इसका विरोध
करे।...इसकी अनदेखी का मतलब है दलित-चेतना के पेट में ही दलित-विरोधी चेतना का
पालन-पोषण।”[6]
ज़ाहिर है सांभरिया दलित लेखन की इस ज़िम्मेदारी को महसूस भी करते हैं और निभाते भी
हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि
रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में कोई जातिवादी आग्रह दिखाई नहीं पड़ता। जातिवाद
और ब्राह्मणवाद की आलोचना करते हुए सांभरिया स्वयं जातिवाद का शिकार नहीं होते।
इनकी कहानियों में किसी जाति विशेष के लिए कोई पूर्वाग्रह या द्वेष दिखाई नहीं
पड़ता। यह अकारण नहीं है कि लेखक जातिवादी शोषण का चित्रण करते हुए भी शोषक की जाति
का उल्लेख करने से बचता है। लेखक की चिंता और आलोचना के केंद्र में जातिवाद और
ब्राह्मणवाद है,
कोई जाति विशेष नहीं। यही कारण है कि सांभरिया जी की कहानियों में दलित प्रतिरोध
तो खूब है,
मगर दलितों की ओर से किसी प्रतिशोधात्मक कार्रवाई का संभवतः एक भी प्रसंग नहीं है।
चूँकि लेखक किसी जाति-विशेष के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं है,
इसलिए इनकी कहानियों में सवर्ण और दलित जातियाँ अनिवार्यतः ब्लैक एंड व्हाइट में
चित्रित नहीं हुई हैं। दलितों के भीतर का जातिवाद भी इनकी कई कहानियों में दिखाई
पड़ता है। जातिवादी तंत्र में शोषित जातियों की भूमिका को सांभरिया रेखांकित करते
हैं। ‘शर्त’
कहानी का पानाराम इसी प्रवृत्ति की पहचान करता है- ‘अपने
हाथ ही कुल्हाड़े के हत्थे बन गए है।’ इसी
तरह कई सवर्ण और ब्राह्मण पात्र अत्यंत सहृदय और मानवीय दिखाई पड़ते हैं। ‘गूँज’
कहानी की माई जी ऐसी ही एक पात्र है,
जो ‘जात की बाभनी जरूर
थी, लेकिन उसमें जात
का जहर कतई नहीं था’।
बहरहाल!
जातिवादी समाज के जिस रणनीतिक समायोजन
की बात हम कर रहे हैं,
वह ‘बदन-दबना’
कहानी में भी दिखाई पड़ता है। घोर जातिवादी और दलितों का खानदानी शोषक हलकासिंह
गरीब दलित रेमाराम को उसकी बेटी की शादी के लिए दस हजार रुपए देता है,
जिसके बदले रेमाराम के तेरह साल के बेटे पूछाराम को अगले पाँच साल तक हलकासिंह की
हवेली में बेगार खटना है। यहाँ उच्चजातीय हलकासिंह द्वारा पूछाराम के शोषण आदि की
बात को छोड़ देते हैं। यह नई बात नहीं है। जिस जातिवादी समायोजन की बात की जा रही
है, उसे देखिए। हलकासिंह
को गाँव में बाजे-गाजे
के साथ बारात की आवाज सुनाई देती है। उसका जातिवादी अहंकार फुफकार मारने लगता है।
दलित की बारात और बाजे-गाजे
के साथ! वह क्रोध से भन्नाया हुआ हवेली के दरवाजे तक आता है। आगे की जो कहानी सांभरिया
लिखते हैं,
उससे जातिवाद के रणनीतिक समायोजन को आप समझ सकते हैं-
“बारात
देख, हलका का चढ़ा
गुस्सा उतर गया था। बारात रेमा की बेटी की नहीं थी। आज गाँव में दो ब्याह हैं।
बारात जंगूराम मेहतर की बेटी की है। बाप-बेटी
दोनों बड़े ओहदे पर हैं। पैसा और पद,
वे दिन लद गए वरना...।
उसने दाँत पर दाँत घिसे। दाँत की घिस उसने हवेली की किवाड़ पर फुचक दी थी,
जात छोटी,
पैसा बड़ा।”[7]
यह बारात अगर रेमाराम की बेटी की होती तो हलकासिंह का जातिवादी अहंकार नंगई के साथ
जाग जाता! लेकिन पद और पैसे के आगे वह अपना जातिगत दंभ ज़ाहिर नहीं कर पाता है।
रत्नकुमार सांभरिया की कहानियाँ अतीत के गड़े मुर्दे नहीं
उखाड़तीं, फिर
भी इनके पात्रों में अतीत के भीतर से तोड़ देने वाले शोषण का तगड़ा एहसास मौजूद
है। पर जो बात सांभरिया जी की कहानियों को खास बनाती है,
वह है प्रतिरोध और बदलाव का अत्यंत दृढ़ प्रण,
जिसके आगे शोषण का पूरा इतिहास बौना साबित हो जाता है। सांभरिया जी की कहानियाँ
उम्मीद और विश्वास की कहानियाँ है। ‘बकरी
के दो बच्चे’
ऐसी ही कहानी है। दलपत अपनी बकरी के दो बच्चों के हत्यारे धर्मपाल और उसके बाप दानसिंह
को उनके अपराध की सजा दिलाने का प्रण करता है। यह प्रण दरअसल केवल बकरी के बच्चे की
हत्या के अपराध की सजा दिलाने का प्रण नहीं है,
बल्कि शोषण और उत्पीड़न की पूरी शृंखला को तोड़ देने और भारतीय जातिवादी सामाजिक
संरचना में ऊँची जातियों को मिले विशेषाधिकारों को चुनौती देने का प्रण है। दानसिंह
ने दलपत से कहा था- “ढेड़ और भेड़ को हम जीव नहीं मानते। समझे।”[8]
दलपत का संकल्प स्वयं को मनुष्य साबित
करने का भी संकल्प है! कहानी के अंत में दानसिंह को हथकड़ी लगना केवल दलपत के
संकल्प का पूरा होना नहीं है,
बल्कि भारतीय लोकतंत्र में दलितों की बदलती सामाजिक राजनीतिक हैसियत का संकेत भी
है। रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों की विशिष्टता यह है कि यह दलित समाज को
नियतिवाद से बाहर निकालकर सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में उसकी आस्था को दृढ़ करती
हैं।
भारतीय समाज की जाति व्यवस्था की एक
अजीब-सी
खासियत यह है कि इस व्यवस्था की प्रत्येक इकाई जातिवाद को ‘इंजॉय’
करती है। जो जातियाँ इस व्यवस्था में स्वयं शोषित हैं,
वे
भी अपने से नीची जातियों के साथ वैसा ही जातिवादी व्यवहार करती हैं। स्वयं को इस
जातिवादी व्यवस्था में किसी प्रकार अपग्रेड कर लेना तमाम जातियों की कोशिश होती है।
जातिवादी व्यवस्था में सर्वाधिक शोषित दलित जातियों के भीतर भी यह अंतर्विरोध
मौजूद है। रत्नकुमार सांभरिया की एक अत्यंत ही सशक्त और मार्मिक कहानी है ‘चमरवा’।
यह कहानी ‘चमरवा
बाभन’
जाति के एक व्यक्ति दरपन की कहानी है। चमरवा बाभन जाति के लोग प्रायः राजस्थान के
पूर्वी और हरियाणा के पश्चिमी छोर पर बसे हैं,
जो
केवल चमारों के ही कर्मकांड संपन्न कराकर अपना बसर करते हैं। दरपन के जातिवादी
मनोविज्ञान के सहारे जाति की फाँस को बहुत मार्मिक तरीके से सांभरिया जी ने
अभिव्यक्त किया है। दरपन स्वयं को ब्राह्मण मानता है,
लेकिन ब्राह्मण या बाकी का पूरा समाज उसे चमार ही मानता है। दर्पण और उसकी पत्नी
का मानना है कि ‘बाभन के आगे चमरवा लगाने से कोई चमार थोड़े ना बन जाता है।’[9]
जबकि बाकी के समाज की सोच यह है कि ‘चमरवा
के साथ बाभन लगाने से कोई बाभन नहीं हो जाता है।’[10]
सामाजिक रुप से चमार के रूप में स्वीकृत दरपन
स्वयं को बाभन के रूप में समाज द्वारा स्वीकृत करवाना चाहता है और वह स्वयं को न
केवल बाभन मानता है, बल्कि
ब्राह्मणवाद और वर्णाश्रम के अनुकूल ही आचरण भी करता है। अपने जजमान चमारों के साथ
वह छुआछूत का व्यवहार करता है। दरपन की स्थिति इस कहानी में विचित्र है। वह स्वयं
को ब्राह्मण मानता है,
जबकि ब्राह्मण उसे चमार मानते हैं। चमार उसे अपना मानते हैं,
लेकिन वह चमारों को अछूत मानता है। मतलब यह कि वह जो है,
उसे वह स्वीकार नहीं करता या उसका वर्णाश्रमी जातिवादी आग्रह उसे उसकी वास्तविक
स्थिति को स्वीकार नहीं करने देता और जो वह होना चाहता है,
वह इस जातिवादी सामाजिक व्यवस्था में वह हो नहीं सकता! अपने ब्राह्मण होने की
इच्छा और इस सामाजिक व्यवस्था में चमार बने रहने के यथार्थ के बीच झूलते रहना चमरवा
बाभन की नियति बन जाती है। जातीय श्रेष्ठता की मिथ्या चेतना में उलझे दरपन के
मनोविज्ञान को बहुत ही सशक्त और मार्मिक कथानक के माध्यम से सांभरिया जी ने पेश किया है। निश्चित
रूप से यह रत्नकुमार सांभरिया की सबसे अच्छी कहानियों में से एक है।
सांभरिया जी की अधिकांश कहानियाँ
आक्रोश और प्रतिरोध की कहानियाँ है। ‘मुक्ति’,
‘बात’,
‘झंझा’,
‘भैंस’,
‘शर्त’,
‘आखेट’
आदि तमाम कहानियों में दलितों के शोषण के अलग-अलग रूप और उसके प्रति दलित आक्रोश
और प्रतिरोध को देखा जा सकता है। हालाँकि दलित आक्रोश और प्रतिरोध हिन्दी साहित्य
में कोई एकदम से नई चीज नहीं है। इसकी पूरी परंपरा है। दलित आक्रोश और प्रतिरोध की
इस परंपरा को हम प्रेमचंद के साहित्य में भी देख सकते हैं। लेकिन जैसे हर परंपरा
लगातार आगे बढ़ती है,
समय के साथ बदलती भौतिक परिस्थितियों के अनुरूप अपने को परिवर्तित करती है,
उसी तरह आक्रोश और प्रतिरोध की इस परंपरा में भी समय के साथ परिवर्तन होते रहे हैं।
प्रेमचंद के दलित पात्रों का प्रतिरोध (यद्यपि कई प्रसंगों में यह प्रतिरोध काफी
सशक्त है।) भवितव्य की ओर संकेत करता है,
तात्कालिक सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त नहीं करता। लेकिन प्रेमचंद के बाद तकरीबन 65-70
वर्षों के अंतराल में भारतीय समाज की भौतिक परिस्थितियों में जो परिवर्तन आए हैं,
उसमें दलित समाज का प्रतिरोध कोई भविष्य में होने वाली बात नहीं रह गई है। इसलिए सांभरिया
जी की कहानियों में जो दलित आक्रोश और प्रतिरोध दिखाई पड़ता है,
वह ज्यादा विश्वसनीय मालूम पड़ता है। बहरहाल!
दलितों
का शोषण केवल जातिवादी व्यवस्था ही नहीं करती,
बल्कि
पूँजीवाद भी अपने ढंग से दलितों का शोषण करता रहा है। ‘खेत’ कहानी पूँजीवादी तंत्र
में दलितों के शोषण और उसके सामने दलित प्रतिरोध की कहानी है। इस कहानी के मूल
पात्र बूढ़े केरसिंह सैनी के पास कुल जमा दो सौ वर्ग गज जमीन है,
जिस पर बिल्डरों और कॉरपोरेट घरानों की निगाह है। बूढ़े केरसिंह के पास उस जमीन को
बेचने की कोई वजह नहीं है। वह उसे बेचना नहीं चाहता,
लेकिन पूँजीवाद के एजेंट किसी भी तरह से उससे वह जमीन हासिल कर लेना चाहते हैं। इस
कहानी का बूढ़ा केरसिंह प्रेमचंद के सूरदास की याद दिला देता है। ‘रंगभूमि’ का
सूरदास भी पूँजीवादी एजेंटों से अपनी जमीन और झोपड़ी को बचाने की लड़ाई लड़ता है। लेकिन
‘खेत’ कहानी के बूढ़े केरसिंह का प्रतिरोध ‘रंगभूमि’
के सूरदास की तुलना में ज्यादा सशक्त है। उसका प्रतिरोध सूरदास की तुलना में
ज्यादा आगे बढ़ा हुआ प्रतिरोध है। ‘रंगभूमि’
का सूरदास कहता है- “अपना
घर है,
नहीं देते। जबरजस्ती जो चाहे ले ले।”[11]
सूरदास की जमीन छिन जाती है। झोपड़ी मलबे
में बदल जाती है। सूरदास सत्याग्रह करता हुआ मर जाता है। व्यवस्था जीत जाती है। लेकिन
‘खेत’ कहानी में बूढ़ा केरसिंह लाठी उठाए हुए जीवित है। छल से तैयार किया गया
स्टांप पेपर चिंदी-चिंदी
होकर बिखर जाता है। बूढ़ा अपनी जमीन किसी को जबरदस्ती हड़पने नहीं देता। यह सूरदास
के प्रतिरोध से आगे बढ़ा हुआ प्रतिरोध है। यह जो फर्क पैदा हुआ है,
दलित
प्रतिरोध में जो आक्रोश और दृढ़ता आई है,
वह दरअसल अस्सी वर्षों के फासले का नतीजा है। इन अस्सी वर्षों में दलितों की
सामाजिक हैसियत बदली है। बूढ़े केरसिंह की स्थिति भी सूरदास से भिन्न है। केरसिंह
का बेटा बड़ा अफसर है। पुलिस-प्रशासन
के लोगों पर इस बात का दबाव है। दलित के बेटे का बड़ा अफसर होना बदले हुए सामाजिक
यथार्थ का संकेत है, जो
सांभरिया जी की कहानियों में बार-बार
अभिव्यक्त हुआ है। इस बदले हुए सामाजिक यथार्थ ने दलित आक्रोश और प्रतिरोध के
स्वरूप को भी बदला है। रत्नकुमार सांभरिया की कहानियाँ इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत
करती हैं।
रत्नकुमार सांभरिया अपनी कहानियों के
माध्यम से दलित समाज के भीतर परिवर्तन की प्रक्रिया को दर्ज करने का काम करते हैं।
सांभरिया जी की अधिकांश कहानियाँ दलित समाज की प्रगति और उसकी बदलती सामाजिक
हैसियत की साक्षी हैं। इन कहानियों से दलित समाज की प्रगति के संबंध में सांभरिया
जी की दृष्टि को समझा जा सकता है। सांभरिया जी ने अपनी तमाम कहानियों में शिक्षा और
इसके जरिए आर्थिक उन्नति के माध्यम से सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने और जाति से
मुक्ति (एक हद तक) की प्रक्रिया को अलग-अलग कथानकों के द्वारा प्रस्तुत किया है। अपनी
पहली कहानी ‘फुलवा’
में ही दलित समाज के उत्थान के लिए शिक्षा के महत्त्व को लेखक रेखांकित करता है-
“फुलवा चालाक निकली। इसने सौ पापड़ बेल लिए,
लेकिन राधा मोहन के हाथ से किताब नहीं छूटने दी...।”[12]
लेखक दलित-मुक्ति
के गाँधीवादी-सुधारवादी
आदर्शों से इत्तेफाक नहीं रखता। वह इसकी सीमा को खूब बेहतर ढंग से समझता है। सांभरिया
जी की कहानी ‘बिपर सूदर एक कीने’ दलित समाज की उन्नति के गाँधीवादी-सुधारवादी
सिद्धांतों के छद्म को उद्घाटित करती है और
शिक्षा से दलित समाज के उद्धार के अंबेडकरवादी सिद्धांत की व्यावहारिकता को
रेखांकित करती है। यह कहानी दो सगे दलित
भाइयों श्यामू और जीवण की है, जिसमें
से जीवण गाँव के अन्य दलितों के साथ पंचायत में गंगाजली हाथ में उठाकर और तागा (जनेऊ)
धारण करके अपने को जातिगत रूप से अपग्रेड (?) कर लेता है। गाँव में अकेला श्यामू
बच जाता है,
जो तागा धारण नहीं करता। उसी दिन गाँव में एक जाति से दो जातियाँ बन गईं-
“जो गंगाजली उठावैगो सूत्रकार। जो गंगाजली ना उठावैगो
रांपावत। मतलब चमड़ा पे रांपी चलावण वालो। सूत्रकार अलग कौम। रांपावत अलग कौम। आपस
में रोटी बेटी बंद।”[13]
जीवण के साथ गाँव के तमाम चर्मकार
एकबारगी ‘सूत्रकार’ बन गए और अपनी वास्तविक जाति से ‘मुक्त’ हो गए! श्यामू अकेला
अछूत रांपावत बना रहा! अछूत श्यामू ने समय की नब्ज़ को पकड़ा और अपने बेटे को शहर
भेजकर पढ़ाया-लिखाया।
समय बीता और श्यामू का बेटा डीएसपी बनकर गाँव लौटा। अब श्यामू की जाति का बंधन टूट
गया! और ऐसा टूटा कि गाँव के मंदिर का पुजारी उसे मंदिर में अपने पास चटाई पर
बिठाकर प्यार से कहता है- “श्यामू
धंधा छोड़ दिया,
जात मिट गई। लड़का बड़ा अफसर बन गया,
जात बड़ी बन गई।”[14]
गाँव के तमाम सूत्रकारों ने तागा धारण कर
चमड़े का काम बंद कर दिया, लेकिन
गाँव की ऊँची जातियाँ उन्हें चर्मकार ही समझती रहीं। श्यामू ने कोई तागा धारण नहीं
किया, चमड़े
का काम भी करता रहा,
लेकिन बेटे के अफसर बनते ही गाँव के मंदिर का पुजारी उसकी जाति भूल गया। यह दलितों
की उन्नति के गाँधीवादी और अंबेडकरवादी नजरिए का फर्क है। इस फर्क को तो खैर
प्रेमचंद ने भी अपनी कहानियों में काफी पहले ही रेखांकित कर दिया था।
सांभरिया जी की कहानियों में जिस
जातिवादी समायोजन की बात ऊपर की जा रही थी,
स्पष्ट है कि वह इस कहानी में भी मौजूद है। लेकिन इस कहानी में वह समायोजन इतना
अधिक है कि वह स्वाभाविक नहीं लगता। और इसलिए कहानी का अंत सामाजिक तौर पर
विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता। गाँव के मंदिर का पुजारी अपने साले के साथ श्यामू के
घर आता है श्यामू के बेटे से अपने साले की बेटी (जिसका चयन भी राज्य सिविल सेवा
में हुआ है।) की शादी का प्रस्ताव लेकर। ब्राह्मण चर्मकार के घर अपनी बेटी की शादी
का प्रस्ताव लेकर उपस्थित होता है! यह दृश्य अत्यंत प्रीतिकर है,
मगर
उससे कहीं ज्यादा अविश्वसनीय! जातिवादी ब्राह्मणवादी समाज अपने लाभ के लिए रसूखदार
दलित से निकटता और उसे अछूत ना समझने का दिखावा तो करता है,
पर अन्तर्जातीय विवाह का प्रस्ताव लेकर नहीं जाता। भारतीय जातिवादी समाज को इस
अवस्था तक पहुँचने में अभी वक्त लगेगा। कहानी के अंत का यह दृश्य भवितव्य का संकेत
हो सकता है, निश्चय
ही एक सुंदर और अतिवांछित भवितव्य का!
सांभरिया
जी की कहानियों के शिल्प पर अलग से बात करना जरूरी है। इनकी ज्यादातर कहानियाँ
संरचना के लिहाज से काफी सधी हुई हैं। कथानक और उसकी भाषिक अभिव्यक्ति में कोई उलझाव
या धुंध यहाँ नहीं है। लेखक को कहीं कोई हड़बड़ी नहीं है। वह अपनी बात को इत्मीनान
से ‘स्टैबलिश’ करते हुए आगे बढ़ता है। सांभरिया जी की तमाम कहानियों में छोटे-छोटे
वाक्यों के प्रयोग पर अनायास ध्यान चला जाता है। इनकी कहानियों में दो-दो
शब्दों के वाक्य भी मौजूद हैं। लम्बे और जटिल वाक्य प्राय:
नहीं
हैं। छोटे-छोटे वाक्यों से पूरा अनुच्छेद तैयार कर दिया गया है। इन छोटे-छोटे वाक्यों
ने कथ्य को और अधिक प्रभावशाली बना दिया है। इनमें एक गति और सुंदर लय मौजूद है।
सांभरिया जी की कथा-भाषा
में स्थानीय शब्दों और वाक्यों का प्रयोग कहानी के भूगोल के साथ उसकी सांस्कृतिक
संवेदना से जुड़ने में पाठक की मदद करती है। इनकी कथा-भाषा
ढेर सारे सुंदर और व्यंजक बिम्बों से भरी हुई है। ये सारे बिंब देशज और लोक से
जुड़े हुए हैं। कहावतों का प्रयोग इनकी भाषा को लोक के और करीब ले जाता है। लोक
में प्रचलित कहावतों और मिथकों के सहारे लेखक कई बिंब बनाता है। ऐसा ही एक बिंब
सांभरिया जी को अत्यंत प्रिय है- ‘द्रोपदी
के चीर जितनी लंबी सांस’। यह बिंब सांभरिया जी की कई कहानियों में मौजूद है।
रत्नकुमार सांभरिया दलित कहानियों की रूढ़ियों
से भी अपने को मुक्त करते हुए दिखाई पड़ते हैं। दलित कहानियों पर प्रायः आत्मकथा
की शैली हावी रही है। स्वानुभूति और अभिव्यक्ति की प्रामाणिकता के दबाव में दलित
कहानियाँ प्रायः आत्मकथात्मक रही हैं। इससे दलित कहानी में एक ढंग की एकरसता और
एकरूपता दिखाई पड़ती रही है। दलित साहित्य की इस सीमा और अनुभूतियों के दुहराव के
सवाल को निर्मला जैन ने अपने एक साक्षात्कार में उठाया है- “इन रचनाओं के मूल में
वर्ग विशेष का स्वानुभूत जीवन प्रस्थान बिन्दु की तरह वर्तमान रहता है। इन
रचनाकारों के पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों की भूमिकाएँ,
अनुभव,
परिदृश्य थोड़े-बहुत अंतर से लगभग समान होते हैं। ऐसी स्थिति में एक ही लेखक की
रचनाओं को पढ़ने पर तो दोहराव से गुजरने का एहसास होता ही है,
अलग-अलग रचनाकारों में भी समानधर्मा होने के कारण यही स्थिति बनती है।”[15]
निश्चित रूप से इधर के दलित कहानीकारों ने इस प्रवृत्ति से अपने को मुक्त किया है।
सांभरिया जी की तो लगभग तमाम कहानियाँ आत्मकथा की इस शैली से मुक्त हैं। इस रूढ़ि
से मुक्ति ने इनकी कहानियों को और अधिक रचनात्मक और प्रभावशाली बनाया है।
दलित साहित्य के गंभीर अध्येता डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी दलित कहानियों के कथ्य में दलित उत्पीड़न की केन्द्रीयता से पैदा होने वाली एकरसता की ओर संकेत करते हैं। वे ठीक ही कहते हैं कि “एकमात्र उत्पीड़न को ही कहानी रचना का उत्प्रेरक मानने की ज़िद दलित कहानियों को एकरस बना देती है। इस प्रवृत्ति से दलित जीवन के दूसरे पहलुओं की उपेक्षा होती है।”[16] सांभरिया जी की कहानियाँ इस रूढ़ि और एकरसता को भी तोड़ती हैं। इनकी अधिकांश कहानियाँ दलित समाज की वर्तमान तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। इसमें दलितों के शोषण के दृश्य तो हैं, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा दलित प्रतिरोध और सामाजिक परिवर्तन में दलित समाज की आस्था के दृश्य हैं। इसलिए इनकी कहानियाँ पाठकों में दलितों के प्रति दया या सहानुभूति नहीं जगातीं, बल्कि उनके संघर्षों और उनकी सफलताओं का साझीदार बनाती हैं। सांभरिया जी की कहानियाँ दरअसल दलित समाज की आकांक्षाओं के यथार्थ में रूपान्तरण को चित्रित करने वाली कहानियाँ हैं।
संदर्भ
[1] रत्नकुमार
सांभरिया,
दलित
समाज की कहानियाँ (कहानी संग्रह), अनामिका
पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड,
नई दिल्ली,
2011,
पृष्ठ-
12
[2] कँवल
भारती,
दलित
विमर्श की भूमिका, इतिहासबोध
प्रकाशन,
इलाहाबाद,
2007,
पृष्ठ-
87-88
[3] रत्नकुमार
सांभरिया,
दलित
समाज की कहानियाँ (कहानी संग्रह), पृष्ठ- 140
[4] वही,
पृष्ठ-
144
[5] वही,
पृष्ठ-
142
[6] विश्वनाथ
त्रिपाठी,
कहानी
के साथ-साथ, वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली,
2016,
पृष्ठ- 98
[7] रत्नकुमार
सांभरिया,
दलित
समाज की कहानियाँ (कहानी संग्रह), पृष्ठ- 265
[8] वही,
पृष्ठ-
32
[9] वही,
पृष्ठ-
167
[10] वही,
पृष्ठ-
166
[11] प्रेमचंद,
रंगभूमि,
भारतीय
ज्ञानपीठ,
नई दिल्ली,
2011,
पृष्ठ- 423
[12] रत्नकुमार
सांभरिया,
दलित
समाज की कहानियाँ (कहानी संग्रह), पृष्ठ- 23
[13] वही,
पृष्ठ-
247
[14] वही,
पृष्ठ-
253
[15] निर्मला
जैन,
हंस
(सत्ता-विमर्श और दलित विशेषांक), अगस्त,
2004,
पृष्ठ-
213
[16] बजरंग
बिहारी तिवारी,
दलित
साहित्य: एक अन्तर्यात्रा, नवारुण
प्रकाशन,
गाजियाबाद,
2015,
पृष्ठ-
98
डॉ. अमिष वर्मा, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, मिजोरम विश्वविद्यालय, आइजोल
9436334432, amishjnu@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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