शोध आलेख : संस्कृति की ओर ‘लौटते हुए’ (‘लौटते हुए’ उपन्यास के संदर्भ में) / निधि कुमारी गुप्ता
शोध सार :
संस्कृति जीवन जीने की कला है। हमारे खान-पान, हमारी वेशभूषा, हमारा रहन-सहन तथा हमारी भाषा संस्कृति का अंग है। वास्तव में संस्कृति विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है जो मनुष्य के जीवन जीने के तरीके को विकसित करती है और अंत में जीवन दर्शन बन जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृति समस्त मानवीय मूल्यों को संरक्षित कर अस्थायी रूप से अग्रसर होती जाती है। कोई भी संस्कृति उच्च या तुच्छ नहीं होती है। प्रत्येक संस्कृति में एक सौन्दर्यबोध विद्यमान रहता है। इस सौन्दर्यबोध के कारण श्रम की महत्ता सिद्ध होती है। हरिराम मीणा के कथनानुसार,“मानव
समाज का जो आदिम दर्शन है उसके अनुसार मेहनत करने वाला आदमी सभ्यताओं का निर्माण करता है और इसीलिए वह सुंदर है। संस्कृतियों के विकास के पीछे एक किस्म का सौन्दर्य बोध होता है जिसके कारण प्रत्येक सांस्कृतिक उपक्रम जीवन से जुड़ी गतिविधि बन जाती है।”[1]
संस्कृति हमें अपने पुरखों द्वारा विरासत में मिली है और यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है, अतः इसमें परिवर्तन स्वाभाविक है। कोई भी संस्कृति तुच्छ या उच्च नहीं होती है। प्रत्येक संस्कृति की अपनी विशेषताएँ होती हैं। संस्कृति समाज से भिन्न नहीं है, बल्कि वह समाज में ही पल्लवित होती है। अतः इसे अपने अंदर समाहित कर अनुभव किया जा सकता है तभी संस्कृति में वास्तविक रूप से निखार आ सकता है। सुप्रसिद्ध लेखिका प्रतिभा राय द्वारा रचित उपन्यास ‘आदिभूमि’ से एक अंश इस संदर्भ में द्रष्टव्य है– “संस्कृति
को सिर्फ बाहर से नहीं देखा जा सकता और न ही यह दिखाने की चीज़ है। बाहर-बाहर से देखकर इसे पूरी तरह अभिव्यक्त कर पाना संभव नहीं है। दरअसल संस्कृति को अपने अंदर अनुभव कर, उसमें रच-बस कर ही उसकी बहुरंगी छवियाँ उकेरी जा सकती है।”[2] आवश्यक है अपनी संस्कृति को आत्मसात् करने की, उससे संपृक्त होने की तथा उसे अनुभव करने की, तभी संस्कृति अपने अस्तित्व, अपनी पहचान में उभर सकती है। ‘लौटते हुए’ उपन्यास की कथावस्तु इसी यथार्थ को दर्शाती है। ‘लौटते हुए’ उपन्यास संस्कृति
से भटकाव से वापस अपनी संस्कृति की ओर लौटने की कथा है। वैश्वीकरण के इस दौर में आदिवासी समुदाय के पहचान, उसके अस्तित्व पर गहरा संकट छाया हुआ है। लेकिन अपनी संस्कृति के प्रति आस्था ने ही उनके समाज को अब तक जीवित रखा है, उन्हें आपस में जोड़े रखा है। सलोमी इस उपन्यास का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करती है। वह शहर की चकाचौंध की ओर आकर्षित होती है और अपनी संस्कृति को पीछे छोड़ शहर रूपी मरीचिका की ओर बढ़ती है, किन्तु जल्द ही उसे भान होता है कि यह दुनिया उसके लिए नहीं है तथा वह उस शहरी संस्कृति का परित्याग कर अपने गाँव, अपनी संस्कृति की ओर लौट आती है।
बीज शब्द : आदिवासी संस्कृति, समाज, नैतिकता, जीवन मूल्य, महानगरीय जीवन।
मूल आलेख :
वाल्टर भेंगरा तरूण हिन्दी के सुप्रसिद्ध आदिवासी रचनाकारों में से एक है। लौटती रेखाएं, देने का सुख, अपना-अपना युद्ध, जंगल की ललकार कहानी संग्रह तथा शाम की सुबह, तलाश, गैंग लीडर, कच्ची कल्ली और लौटते हुए उपन्यासों की रचना की। तरूण जी एक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने आदिवासी संस्कृति, जीवन शैली की वास्तविक छवि को हमारे सामने प्रस्तुत किया है और रचनाओं में व्यक्त एक-एक दृश्य को बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। उनकी मुख्य चिंता जल, जंगल, जमीन, संस्कृति, विस्थापन एवं महानगर की ओर पलायन, वन संरक्षण आदि रही है। ‘लौटते हुए’ उपन्यास उनके द्वारा रचित समस्त उपन्यासों में से एक है। कहानी का ताना-बाना सलोमी के इर्द- गिर्द रचा गया है और सलोमी को केन्द्र में रखकर आदिवासियों की जीवन- शैली, उनकी संस्कृति, शहरी जीवन का प्रभाव इत्यादि इन सबको उजागर करने का अथक प्रयास किया है। हरिराम मीणा ने इस संदर्भ में अपने विचार व्यक्त किये हैं– “इस कृति में झारखण्ड अंचल की ऐसी महिलाओं के दुःख व शोषण को अभिव्यक्ति दी गयी है जिन्हें रोजगार की तलाश में दूरस्थ महानगरों एवं अन्य राज्यों की ओर पलायन करना पड़ता है। ऐसा पलायन तो पुरुष भी करते रहे हैं लेकिन स्त्रियों की पीड़ा विशेष स्वरूप रखती है। उनका शोषण बहुआयामी होता है जिसमें दैहिक शोषण अलग किस्म की पीड़ा देता है। अपनी जमीन से विस्थापन आदिवासी समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है,चाहे वह जबरन हो या रोजगार की तलाश में। ऐसी चुनौती के एक जरूरी पक्ष को उजागर करना इस उपन्यास को महत्त्वपूर्ण बनाता है।”[3]
समाज की आवश्यकताओं में से मुख्य आवश्यकता है जीविकोपार्जन के साधन। जीविकोपार्जन के साधन से समाज की आर्थिक व्यवस्था निर्मित हुई है। आदिवासी समाज की आर्थिक व्यवस्था खेती और वन संसाधन पर निर्भर थी जो नष्ट हुई जिसके परिणामस्वरूप उनका भूमि पर से अधिकार छीन लिया गया तथा जंगल के दावेदार आदिवासी जंगल से बेदखल कर दिए गए। इसका सीधा प्रभाव उनकी आर्थिक संरचना पर पड़ा जिसने आदिवासियों को गहरे रूप से प्रभावित किया। उनकी जमीन अधिग्रहित करने के लिए जो वायदे किए गए थे वे सब उनके विस्थापन के पश्चात् झूठे सिद्ध हुए, उनके पुनर्वास की योजना निरर्थक साबित हुई और उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश कर दिया गया। इनकी जमीनों पर बड़े-बड़े कल-कारखाने, उद्योग, कॉलोनियों की बसाहटें बड़ी तीव्र गति से हुई और आदिवासी मजदूर वर्ग के एक बड़े तबके में तब्दील हो गए। यही कारण है कि आदिवासी युवतियाँ गाँव को छोड़ महानगर की ओर पलायन करने लगी हैं। सलोमी जैसी भोली-भाली युवती को महानगर की ओर बढ़ता आकर्षण उसे अपनी ओर खींचने लगा। एक भिन्न संस्कृति में उसने प्रवेश किया जो उसके अनुकूल नहीं थी। अर्थात् उपभोक्तावादी संस्कृति, जहाँ जीवन का वृहद हिस्सा क्रय-विक्रय तक ही सीमित है। अतः बाजारवाद ने मनुष्य को वस्तु बना दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिन चीजों की ज़रूरत नहीं है, उपभोक्तावाद उन चीजों की ज़रूरतों को पैदा करता है। आदिवासी समाज इन सबसे अछूता नहीं रहा। इस समाज पर भी उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।
किस प्रकार उपभोक्तावादी संस्कृति आदिवासी संस्कृति पर हावी हो रही है और उसका क्या दुष्प्रभाव पड़ रहा है, इसे अपने उपन्यास ‘लौटते हुए’ में लेखक ने बहुत ही संवेदनशीलता के साथ उभारने का प्रयत्न किया है। सुप्रसिद्ध लेखिका सावित्री बड़ाईक के कथनानुसार- “कथाकार की समझ है कि यदि आदिवासी सिर्फ उपभोक्ता बन जाएंगे, तो उनकी संस्कृति, जीवन शैली छिन्न-भिन्न हो जाएगी। अपने पारंपरिक जड़ी-बूटियों के ज्ञान से दूर हो जाएंगे, खेती-बारी, आहार परंपरा से दूर हो जाएंगे। बाज़ार के गिरफ्त में आ जाएंगे। आदिवासी क्षेत्रों में जो हाट बाज़ार हैं उनकी अहमियत कम हो जाएगी।”[4] सलोमी की सहेली मार्था का गाँव आने पर एक भिन्न एवं परिवर्तित रूप दिखाई पड़ा जिसकी ओर सलोमी का आकृष्ट होना स्वाभाविक था। इसका बड़ा ही सहज एवं सरल चित्रण लेखक ने इस उपन्यास में किया है– “इस बार सलोमी के लिए एक साड़ी टेरीलिन की लायी थी उसने। साड़ी वह भी टेरीलिन की! सलोमी साड़ी पाकर मार्था के गले लग गयी थी। उसका भी जी मचल उठा था दिल्ली जाने के लिए।”[5]
अक्सर दूर की वस्तु लुभावनी और आकर्षक प्रतीत होती है और जितनी आकर्षक लगती है उतनी ही छल-प्रपंच से भरी होती है। व्यक्ति इस चकाचौंध में स्वतः फंस जाता है ठीक उसी तरह जिस तरह दूर किसी गाँव में ढोलक बजने से पैर स्वतः उठने लगते हैं और हृदय झूम उठता है– “दूर के गाँव में भी ढोलक या नगाड़ा बजने लगता है तो पैर अपने आप ताल देने लगते हैं। हृदय नाचने के लिए अजीब उमंग से भर उठता है। यह तो दिल्ली का ढोलक था। और दूर का ढोल सुहावना लगता ही है।”[6] वस्तुतः आदिवासी प्रकृति के सान्निध्य में स्वच्छंद तरीके से रहने के आदी हैं, बंधन में रहकर जीना पसंद नहीं करते हैं। मिलजुल कर रहते हैं एवं सामूहिकता और सहभागिता से जीवन जीते हैं। यही कारण है कि सभी लोगों में अपनेपन की भावना विद्यमान रहती है। अतः सलोमी के मन में भी यही धारणा उत्पन्न होती है– “कितना खुला-खुला वातावरण था गाँव में, और इसके विपरीत दिल्ली के इस महानगर में यह बंद मकान। चहारदीवारी
से घिरा हुआ। बगल के मकान के लोगों को देख भी नहीं पाओ। बात करने की बात तो और दूर की बात थी। गाँव में कितने लोग थे। वहाँ थीं संगी-सहेलियाँ और यहाँ सूनापन।”[7] यही कारण है कि जब सलोमी अपने गाँव छोड़कर दिल्ली की ओर चल पड़ती है तो कहीं न कहीं उसका मन कहता है कि अपने गाँव की ओर वापस लौट जाए जहां वह स्वतंत्र थी, खुश थी, सबसे बड़ी बात असुरक्षा का भाव नहीं था क्योंकि वहाँ सब अपने थे। लेकिन वह निकल चुकी थी “भीड़ भरे शहर में।...उस शहर में, जहां लोगों की भीड़ थी…मकानों की भीड़ थी...अट्टालिकाओं की भीड़ थी...कार, बसों और दूसरे यातायात के साधनों की भीड़ थी...एक उठे हुए तूफान की तरह वह शहर भी सबको निगल जाना चाह रहा था। सलोमी भी उन लहरों की चपेट में आ ही गयी थी...दिल्ली के स्वप्न प्रदेश में!”[8]
आदिवासी संस्कृति से भिन्न संस्कृति में नैतिकता का अभाव दृष्टिगोचर होता है। ईमानदारी से जीवन बिताना उच्च नैतिक मूल्यों में से एक माना जाता है। शिक्षा के माध्यम से नैतिक मूल्यों का विकास होता है, किन्तु शिक्षित व्यक्ति इसे जीवन में व्यवहार में नहीं लाते हैं। वस्तुतः ऐसे व्यक्ति ही ज्यादा भ्रष्ट होते हैं। ये सब बातें सलोमी के लिए बिलकुल नयी थी। उसने ईमानदारी से कार्य करना सीखा है। यहाँ दिल्ली की ओर जाने वाली ट्रेन में बिना टिकट के लोगों को सफर करते देख आश्चर्यचकित हो जाती है। एक जिम्मेदार नागरिक की भांति सोचती है कि इससे सरकार का ही नुकसान होगा। लेकिन सलोमी इस वास्तविकता से अनजान थी कि “यहाँ तो अधिकांश यात्री बिना टिकट ही यात्रा करने में बहादुर समझते हैं स्वयं को। जो टिकट लेकर यात्रा करे वह मूरख...डरपोक।”[9]
इस उपन्यास में स्त्रियों की सुरक्षा पर प्रश्न उठाया गया है। मुख्यधारा के समाज ने स्त्रियों को केवल उपभोग की वस्तु माना है। स्त्रियाँ केवल भोग-विलास की वस्तु तक ही सीमित रह गयी हैं। यह समाज सामंतवादी प्रवृत्ति को प्रश्रय देता है तथा उसे और पुख्ता करने का कार्य करता है जिसके तहत पराई स्त्रियों पर कुदृष्टि डालना, उनके साथ दुष्कर्म करना कोई नयी बात नहीं है। महानगर के तौर-तरीकों से सलोमी भले ही अनजान हो, लेकिन मार्था अनजान नहीं थी, वह सब जानती थी। उसने अपने अनुभव के आधार पर सलोमी को इस बात से अवगत कराया– “ये हरामीलोग अपनी बहू-बेटियों को तो घर में बंद कर रखते हैं और दूसरों की औरतों और लड़कियों को घूरेंगे इस तरह कि जन्म से इन्होंने औरत देखी ही नहीं। ऊपर से उनके हाव-भाव...छि!”[10]आदिवासी समाज में स्त्री और पुरुष समान रूप से मेहनत-मजदूरी करते हैं। पुरुषों के समान स्त्रियाँ भी बाहर मजदूरी करने जाती है। ऐसे में आपसी संबंध स्थापित हो जाता है। अविवाहित रहकर गर्भवती हो जाने की घटना कभी-कभार घटित हो जाती है, किन्तु गाँव में उसके प्रवेश पर रोक नहीं लगता है, उन्हें सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है। इस संदर्भ में वंदना टेटे का कथन द्रष्टव्य है– “आदिवासी समाज में स्त्रियाँ सिर्फ इज्जत की वस्तु नहीं है बल्कि वे पुरुषों की तरह ही सम्पूर्ण इंसान हैं। इसलिए इज्जत को लेकर उनकी अवधारणा पितृसत्तात्मक समाज से बिलकुल भिन्न है। हमारे लिए बलात्कार इंसानी गरिमा के साथ किए जाने वाले दूसरे बर्बर व्यवहारों की तरह ही एक क्रूर और अमानवीय व्यवहार है।”[11] ऐसे में स्त्रियों में अपराध बोध का भाव उपजने का अवसर ही नहीं मिलता है। समय परिवर्तन के साथ-साथ उनकी सोच में भी परिवर्तन आया है। यदि किसी स्त्री का बलात्कार होता है तो पूरा दोष उस स्त्री के मत्थे मढ़ दिया जाता है जबकि पुरुष की भी समान रूप से भागीदारी होती है। पर स्त्रियाँ स्वयं को दोषी मानने लगी हैं और लोक-लाज के भय से वे या तो गर्भपात करवा लेती हैं या आत्महत्या करने पर विवश हो जाती हैं।
यह सब वाह्यसंस्कृति की देन है जिसके संपर्क में आने से आदिवासी संस्कृति प्रभावित हुई है। मार्था कहती है– “मेरा सौभाग्य था कि हमें गौड़ अंकल और आंटी मिल गये। उन्होंने मुझे बेटी की तरह यहाँ रखा। दिल्ली आने वाली हमारे गाँव की सभी लड़कियों को ऐसा भाग्य नहीं मिलता। कई लड़कियां तो पहली ही रात से आदमियों की हवस की शिकार बन जाती हैं। तुम्हें नहीं पता कितनी लड़कियां बिना शादी के गर्भवती हो गयीं। उन्हें चुपचाप किसी प्राइवेट नर्सिंग होम में ले जाकर गर्भपात कराना पड़ा।”[12] दिल्ली आकार सलोमी भी विभिन्न पुरुषों के हवस की शिकार बनती है। वह अपना सब कुछ गंवा बैठी थी– अपनी इज्जत, अपना मान-सम्मान। वह अंदर से टूट-सी गयी थी, बिखर-सी गयी थी। उसके साथ इतना कुछ हुआ लेकिन उसने इसका विरोध तक नहीं किया। सलोमी का कथन है– “विरोध करने से आखिर मिलेगा क्या? मेरा बीता हुआ कल तो वापस नहीं मिल जायेगा न! और इसमें मेरी तो बदनामी होगी ही, आप सबकी भी बदनामी होगी।...और मैं ऐसा नहीं चाहती हूँ।”[13] वह चाहती तो इसका (अपने साथ हुए अत्याचार का) विरोध कर सकती थी, किन्तु इंसान की गरिमा को क्षति पहुंचाना उसके (आदिवासी) जीवनमूल्य में नहीं है।
भले ही सलोमी महानगरीय संस्कृति की ओर आकर्षित हुई, उस ओर अपने कदम बढ़ाए, किन्तु अपनी संस्कृति का परित्याग नहीं किया। एक भिन्न जीवन-शैली, एक भिन्न संस्कृति की वास्तविकता से परिचित होने के पश्चात वह वापस अपने उसी गाँव की ओर लौटती है जहां से उसने शहर की ओर पलायन किया था। एक स्त्री के लिए वापस लौटना इतना आसान नहीं होता है, किन्तु सलोमी संभलकर खड़ी हुई। उसे कहीं न कहीं समझ में आ गया था कि कोई व्यक्ति केवल शहर में ही नहीं, गाँव में रहकर भी आत्मनिर्भर बन सकता है। इसका एक सफल उदाहरण है प्रकाश। प्रकाश जैसे शिक्षित युवक ने शहर को न चुनकर गाँव को चुना– “जहां लोग शहरों की ओर जाने का लक्ष्य रखते हैं, मैंने अपने गाँव में ही रहकर काम करने का निश्चय किया। चाहता तो मैं भी दूसरों की तरह शहरों में जाकर कोई बड़े अफसर वाली नौकरी कर सकता था। लेकिन जहां हमारे अपनों के बीच इतना सब कुछ करने को है, वहाँ छोड़ कर सिर्फ व्यक्तिगत लाभ के लिये...मैंने बस गाँव को ही चुना।”[14] इसलिए शहर से लौटने के पश्चात् सलोमी ने प्रकाश के साथ मिलकर गाँव की लड़कियों एवं महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में पूरी सहायता करने का निश्चय किया तथा अपने अनुभव से उन्हें परिचित करवाया।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि ‘लौटते हुए’ संस्कृति की ओर लौटने की कथा है। यह लेखक की सफलता कह सकते हैं कि इस तरह की व्यापक समस्या को बड़ी सहज, सरल और बारीकी से प्रस्तुत करने में सक्षम रहे हैं। जिस प्रकार पक्षी अपने बसेरे से दूर चले जाते हैं और सांझ होते ही वापस अपने घोंसले की ओर लौट आते हैं उसी प्रकार सलोमी भी वापस अपने जड़ों की ओर लौट आती है। लेखक ने अपने उपन्यास के माध्यम से इस तथ्य को उभारने का प्रयास किया है कि ऐसा नहीं है कि आदिवासी संस्कृति से नितांत भिन्न संस्कृति त्याज्य है, उससे घृणा करना चाहिए। किसी भी संस्कृति के संपर्क में आना, उससे परिचित होना अनुचित नहीं, बल्कि एक-दूसरे की संस्कृति से अवगत होना आवश्यक है, किन्तु अपनी संस्कृति से अधिक अन्य संस्कृति को महत्त्व देना एक प्रकार से सामाजिक जीवन-मूल्य को नष्ट करना है जो असंतुलन की स्थिति को उत्पन्न कर सकती है। इस संदर्भ में हरिराम मीणा का कथन सार्थक प्रतीत होता है– “विभिन्न संस्कृतियों के परस्पर संपर्क से पैदा होने वाला प्रभाव आदान-प्रदान की स्थिति लाता है। इस प्रक्रिया में एक-दूजे द्वारा सीखने का नजरिया संस्कृति को उन्नत करता है। इसके विपरीत वर्चस्व, दबाव व टकराव की स्थितियां पैदा होने से संस्कृतिजन्य परंपरागत मानवीय मूल्यों का क्षरण ही होगा।”[15]
संदर्भ :
[1]हरिराम, मीणा, आदिवासी दर्शन और समाज, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण :
2020, पृष्ठ: 176
[2]प्रतिभा राय, आदिभूमि, भारतीय
ज्ञानपीठ,
नयी
दिल्ली,
पहला
संस्करण: 2001,
पृ.
फ्लैप
[3]हरिराम मीणा, आदिवासी
दुनिया,
नेशनल
बुक ट्रस्ट,
नई
दिल्ली,
पहला
संस्करण : 2013,
पृ.
217
[4]www.bhaskar.com/amp/news/JHA-RAN-HMU-MAT-latest-ranchi-news-034002-535280-NOR-html
[5] वाल्टर
भेंगरा,
लौटते
हुए,
‘तरुण’, सत्य भारती
प्रकाशन,
रांची, प्रथम
संस्करण: 2005,
पृ.
6
[6]वही, पृ. 5
[7]वही, पृ. 111
[8]वही, पृ. 31
[9]वही, पृ. 21
[10]वही, पृ. 16-17
[11]वंदना टेटे, आदिवासी साहित्य
परंपरा और प्रयोजन, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची, प्रथम
संस्करण: 2013,
पृ.
74
[12] वाल्टर
भेंगरा,
लौटते
हुए,
‘तरुण’, सत्य भारती
प्रकाशन,
रांची, प्रथम
संस्करण: 2005,
पृ.
119-120
[13]वही, पृ. 314
[14]वही, पृ. 321
[15]हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया, , नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, पहला संस्करण : 2013, पृ. 90
निधि कुमारी गुप्ता, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय,कोलकाता, पश्चिम बंगाल
7439728304, ngpt87@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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