शोध आलेख :उत्तर-आधुनिकता: नई सामाजिक दृष्टि का उदय / डॉ. विवेक कुमार यादव

                शोध आलेख :उत्तर-आधुनिकता: नई सामाजिक दृष्टि का उदय / डॉ. विवेक कुमार यादव

 शोध-सार20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में उत्तर-आधुनिकता का आगमन होता है। उत्तर-आधुनिकता के प्रभाव से जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं रहा। कला, साहित्य, संस्कृति, समाजशास्त्र, राजनीति, साहित्य आदि क्षेत्रों में उत्तर-आधुनिकता की उपस्थिति को महसूस किया गया। एकतावादी, समग्रतावादी सिद्धान्त धराशायी होने लगे। उनकी जगह बहुलतावादी सिद्धांत ने ले ली। महाख्यानों और महावृत्तांतों की अवधारणा टूटने लगीं। इसी का नतीजा रहा कि दलित, स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक अस्मिताओं ने सत्तावादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया। उत्तर-आधुनिकतावादियों ने तमाम मौतों और अंतों की घोषणाएं की। उत्तर-आधुनिकता ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं को प्रभावित किया। साथ ही उत्तर-आधुनिकता ने कला के अन्य रूपों; जैसे- फिल्म, फोटोग्राफी, मीडिया, चित्रकला आदि में भी हस्तक्षेप किया। उत्तर-आधुनिकता ने जहाँ एक ओर साहित्य और कला की सर्जनात्मकता को प्रभावित किया वहीं दूसरी ओर कला और रचना के मूल्यांकन के लिए नए प्रतिमान और औजार उपलब्ध कराए। 

बीज-शब्द : उत्तर-आधुनिकता, आधुनिकता, पूँजीवाद, यथार्थवाद, उत्तर-यथार्थवाद, महाख्यान , औद्योगीकरण, महावृत्तांत, इतिहास का अंत, एकतावादी, समग्रतावादी सिद्धान्त।

मूल आलेख20वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध उत्तर-औद्योगिक क्रान्ति का अद्भुत युग है। इस युग में समाज, संस्कृति, राजनीति, कला, साहित्य, दर्शन, संगीत, इतिहास, अर्थव्यवस्था और पूरे मानव चिन्तन में जो परिवर्तन चक्र तीव्र गति से घूमा है- उस स्थिति, परिस्थिति की ओर ध्यान दिलाने वाला नाम है - उत्तर-आधुनिकता।[1] सदियों से चले रहे वे एकतावादी, समग्रतावादी सिद्धान्त जिन पर आधुनिक समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शन का पूरा साम्राज्य खड़ा था, चरमरा गया। इसी चरमराहट की पहचान उत्तर-आधुनिकता ने करवाई और उसके अन्तर्विरोधों को उभारा। इसके ठीक पहले के युग को आधुनिक युग कहा गया।

आधुनिकता से तात्पर्य सांस्कृतिक आन्दोलनों की एक ऐसी श्रंखला से है जो कि कला एवं स्थापत्य, संगीत, साहित्य और व्यावहारिक कलाओं में प्रथम विश्वयुद्ध से लगभग तीन दशक पहले उभरी। बदलाव और वर्तमान को गले लगाते हुए आधुनिकता में ऐसे विचारकों के कार्यों को सम्मिलित किया जा सकता है, जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी की अकादमिक परम्पराओं का विरोध किया। उनका यह मानना था कि कला, स्थापत्य, साहित्य, धार्मिक मान्यताओं, सामाजिक संगठनों और रोजमर्रा की जिन्दगी के पारम्परिक तौर तरीके अब पुराने हो गये हैं। आधुनिक चिन्तकों ने उभरते हुए पूर्ण औद्योगिक समाज के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक दृष्टिकोण का सीधा सामना किया। आधुनिकता सामान्यतया वह स्थिति है जो परम्पराओं और मध्यकालीन ऐतिहासिक समय के बाद आती है जिसमें संसार की कई संस्कृतियाँ सामन्तवाद से निकलकर पूँजीवादी, औद्योगिक, बुद्धिसंगत तथा बहुत हद तक धर्मनिरपेक्षता की ओर बढ़ गयीं। साहित्य व्यक्तिवाद आधारित हो गया, परम-सत्य की अवधारणा विफल हो गयी। जितने व्यक्ति उतने ही सत्य का सिद्धान्त सामने आया।

आधुनिक समय के सबसे प्रभावशाली विचारकों में तीन नाम सबसे पहले आते हैं जीव विज्ञान में चार्ल्स डार्विन, राजनीतिशास्त्र में कार्ल मार्क्स और मनोविज्ञान में सिग्मण्ड फ्रॉयड। डार्विन का विकास का सिद्धान्त, मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त और फ्रॉयड के मनोविश्लेषण के सिद्धान्तों ने कला, साहित्य, संगीत और मानव जीवन के लगभग सभी पहलुओं को प्रभावित किया। कला और साहित्य में प्रभाववाद और प्रतीकवाद का बड़ा योगदान है। ये दोनों ही विचारधाराएँ फ्रांस में सबसे पहले पैदा हुईं। प्रभाववादी चित्रकारों का मानना था कि चित्रकारी को प्रभावी बनाने के लिए उनका चित्रण स्टूडियो में करके बाहर कहीं प्राकृतिक वातावरण में करना चाहिए। प्रभाववादी सिद्धान्त ने यह प्रस्तुत किया कि व्यक्ति किसी वस्तु को नहीं अपितु प्रकाश को देखता है। मैनेट (1832-1883) एक प्रसिद्ध आधुनिक चित्रकार हैं जिनकी चित्रकारी में प्रभाववाद और प्रतीकवाद का असर सबसे पहले और स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।

दूसरी विचारधारा थी प्रतीकवाद जिसका मत था कि भाषा की प्रकृति प्रतीकात्मक होती है और कविता या गद्य को शब्दों द्वारा उत्पन्न ध्वनि और संरचना के बीच संयोजन का अनुसरण करना चाहिए। आधुनिक समय में बहुत सारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ताकतों ने काम किया जिनकी वजह से और जिनके आधार पर विभिन्न प्रकार की कलाओं और सोच का विकास हुआ। इनमें से मुख्य था औद्योगीकरण, जिसने एफिल टॉवर (1889 में निर्मित) का निर्माण किया और उस पुरानी धारणा को विफल किया कि मनुष्य ऐसी असाधारण चीज नहीं बना सकता।

औद्योगिक शहरीकरण ने लोगों के रहन-सहन के तरीकों को बदल दिया, साथ ही बहुत सारी समस्याएँ भी पैदा कीं। उसी समय में टेलीग्राफ, कम्प्यूटर, एटम बम आदि का आविष्कार हुआ और दुनिया ने दो विश्वयुद्धों का सामना भी किया। जापान पर परमाणु बम गिराये गये, साथ ही संयुक्त राष्ट्र की भी स्थापना की गयी। उद्योगों में नई तकनीकों और मशीनों का प्रयोग होने लगा जिससे उत्पादन में वृद्धि हुई और उसे बेचने के लिए नए उपनिवेश बनाये गये।

उत्तर-आधुनिकता का जन्म 1960 के दशक में फ्रांस में हुआ जो बहुत तेजी से पूरे पश्चिम जगत में फैल गया। इसका प्रभाव सबसे पहले वास्तुकला में देखने को मिला। तत्कालीन भवन निर्माण प्रक्रिया में ब्लॉकनुमा, गगनचुम्बी इमारतें, अपार्टमेन्ट्स और सरकारी दफ्रतरों के लिए भवन निर्माण प्रारम्भ हुआ। इन इमारतों में शीशा, कंक्रीट और इस्पात के प्रयोग को बढ़ावा दिया गया जो कि आधुनिक वास्तुकार नहीं करते थे। चार्ल्स जेन्क्स (1939-अब तक) का नाम सबसे पहले उत्तर-आधुनिक वास्तुकार के रूप में प्रसिद्ध है।

इतिहास में उत्तर-आधुनिक विशेषण का पहला प्रयोग अमरीकी उपन्यासकार जॉन बार्थ ने 1967 में लिटरेचर ऑफ एक्सॉशननामक प्रथम लेख में सार्थक ढंग से किया था। जबकि उत्तर-आधुनिक शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1979 में ल्योतार ने किया था।[2] 1979 में ल्योतार का निबन्ध पोस्टमॉडर्न कंडीशन : रिपोर्ट ऑन नॉलेजफ्रेंच भाषा में छपा जो पुनः 1984 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ। इस निबन्ध के प्रकाशित होने के बाद से ही उत्तर-आधुनिकता की बहस प्रारम्भ हो जाती है। उत्तर-आधुनिकता पर बहस के लिए सार्थक समीक्षाएं ल्योतार के बाद फ्रेडरिक जेमसन और बौद्रीला ने दी हैं।[3]

उत्तर-आधुनिकता को परिभाषित करना लगभग असंभव है। बहुत सारे उत्तर-आधुनिक लेखकों ने उत्तर-आधुनिकता की सार्थक और सम्यक् परिभाषा से इंकार किया है। अलग-अलग विद्वानों ने समकालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उत्तर-आधुनिकता की विभिन्न प्रवृत्तियों को बताया हैः जैसे कि, फ्एक नया सौन्दर्य निर्माण (हसन, 1982, 1987), एक अवस्था (ल्योतार, 1984, हार्वे, 1990), एक संस्कृति (कॉनर, 1997), एक सांस्कृतिक हमला (फ्रेडरिक जेमसन, 1991), आत्म-चेतना के प्रतिनिधित्व के पैरोडिक अवस्था का इस्तेमाल करता हुआ कलात्मक आन्दोलन का एक विन्यास (हचियन, 1988, 2002), एक नैतिक या राजनैतिक अनिवार्यता (बाउमैन, 1993, 1995), ‘इतिहास के अंतका समय (बौद्रीला, 1994; फुकुयामा, 1992; वटीमो, 1988), हमारी सांस्कृतिक, दार्शनिक और राजनैतिक अनुभव का एक नया क्षितिज (लाक्लाउ, 1988), एक भ्रम (ईगलटन), एक प्रतिक्रियात्मक राजनैतिक निर्माण (कॉलिनिकस, 1989), या सिर्फ एक दुर्भाग्यशाली त्रुटि (नॉरिस, 1990, 1993)[4]

उत्तर-आधुनिकता शब्द अंग्रेजी के Postmodern शब्द का हिन्दी अनुवाद है जो कि दो शब्दों Post और Modern से मिलकर बना है। Post का अर्थ है बाद और Modern का अर्थ है आधुनिक; अर्थात् Postmodern का अर्थ हुआ आधुनिक प्रवृत्तियों के बाद जो परिवर्तन स्वरूप प्रवृत्तियाँ विश्व में आयीं। उन्हें उत्तर-आधुनिक नाम दिया गया। उत्तर-आधुनिकता विचार या दर्शन से अधिक एक प्रवृत्ति का नाम है। यह बीसवीं शताब्दी की मूल धारा है। इस समय उत्तर-आधुनिकता फिल्म से लेकर फैशन तक, साहित्य से संस्कृति तक, कामशास्त्र से कॉमिक्स तक और विज्ञान से विज्ञापन तक हर वस्तुको प्रभावित कर रही है। दर्शन, समाज, मीडिया सब इसके दायरे में हैं। उत्तर-आधुनिकता कोई ऐतिहासिक विकास क्रम नहीं एक यथास्थिति है। ल्योतार ने कहा था कि उत्तर-आधुनिकता वास्तव में प्राक्-आधुनिकता है।[5]

सुधीश पचौरी ने लिखा है कि ल्योतार मानते हैं कि बहुत से उपकेन्द्र उपलब्ध हैं जिनमें झगड़े हैं, जो सत्ता के नए रूपों को प्रगट करते हैं; आधुनिकता ल्योतार के लिए औद्योगिक पूँजीवाद का अंग है। आधुनिकता का महत्त्व यह नहीं है कि वह सभी क्रियाओं के नियम खोजती, स्थापित करती है, बल्कि यह है कि ऐसा वह अपने समग्रतावाद के तहत निरंकुशता लागू करके सम्भव करती है। यह एकरूपता, एकसूत्रता और समग्रता झूठी है; क्योंकि यहीं महावृत्तान्त बनते हैं।[6]  उत्तर-आधुनिकता में पहली बार ऐसा हुआ कि ऐसे वृत्तान्त जिनके द्वारा हम मनुष्य की सम्पूर्ण समस्याओं के हल समझ की बात करते थे उन पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया। पोस्टमॉडर्न कंडीशनमें ल्योतार लिखते हैं कि विज्ञान और आख्यान का विरोध तर्कहीन है; क्योंकि विज्ञान अपने आप में एक प्रकार का आख्यान है। विज्ञान उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है, उद्योग, वाणिज्य में सहायता करता है। विज्ञान शोषण एवं श्रम से मनुष्य को मुक्त करता है।

विज्ञान विचारों की मुक्ति एवं विकास के द्वार खोलता है। इसलिए महाआख्यानों को त्यागकर अनिश्चितता एवं सापेक्षता की उत्तर-आधुनिक परिस्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिए। चूँकि उत्तर-आधुनिक समाज में ज्ञान ही उत्पादक हो गया है, इसलिए ल्योतार ने माना कि महावृत्तान्त यानी महान विचार, महान नायक आदि सभी भविष्यहीन हो गए हैं। ल्योतार के लिए औद्योगिक पूँजीवाद का अंग है आधुनिकता। ल्योतार कहते हैं कि उत्तर-आधुनिक वह है जो अप्रतिनिधि योग्य-को प्रतिनिधित्व देता है, जो संतोषपूर्ण रूपों में संतोष नहीं लेता है, जो रुचियों की सर्वानुमति का अनन्द नहीं लेता, जो अप्राप्य के अतीत राग को नहीं गाता, जो नए प्रतिनिधित्व को तलाशता है, उसमें आनन्द लेने के लिए नहीं बल्कि अप्रतिनिधि योग्य को प्रतिनिधित्व देने के लिए ऐसा करता है।[7] 

ल्योतार का कहना है कि महावृत्तांतीय मानक दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बदल गए। ज्ञान की वैधता की साख खत्म हो गयी। तकनीकी और बाज़ार की नई शक्तियों के दबाव में वह बदल गया। कल्याणकारी राज्य का केन्द्र भी खिसकने लगा। ज्ञान के अलग-अलग उपकेन्द्र बनने लगे। ये उपकेन्द्र अपनी वैधता राज्य से नहीं वरन् स्वयं लाते थे। इस स्थिति ने उपयोगितावादी ज्ञान को ध्वस्त कर दिया। महावृत्तान्त या महानता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे। अपनी पुस्तक में ल्योतार लिखते हैं कि उत्तर-आधुनिक सम्बन्ध व्यावहारिक होते हैं। व्यावहारिकतावादी संबंध पुराने मान्य सम्बन्धों को चुनौती देते हैं। यहाँ भाषायी राजनीति की रणनीति का प्रयोग होता है। ल्योतार लिखते हैं कि भाषा के नियम तभी बदलते हैं जब उन्हें खेलने वाला खुद उन्हें खेलते हुए बदलता है। यानी सूचना और तकनीक पर पहुँच और नियन्त्रण के द्वारा यह खेल बदल जाता है।[8]

उत्तर-आधुनिकता ने जीवन रूपों को सापेक्ष, जड़विहीन, स्वपोषित, सांस्कृतिक परम्पराओं और व्यवहारों से निर्मित तथा किसी भी आरंभिक मूल अथवा अंतिम लक्ष्य से विहीन बताया। मानवीय क्रिया व्यवहार महज तर्क से संचालित नहीं। प्राक्तार्किक सत्ता, आस्था, हित या इच्छाओं के संदर्भ भी उनमें उतने ही निहित हैं। मानव जीवन का कोई स्थिर केन्द्र नहीं। कोई भी सम्पूर्णता या सार्वभौम तार्किकता उसकी अनंत विविधता को समेट नहीं सकती। संस्कृतियों और आख्यानों की बहुलता को वरीयताक्रम में व्यवस्थित नहीं किया जा सकता है। अन्यता या भिन्नता को समरूपता में अंटाया नहीं जा सकता। ज्ञान स्वयं सांस्कृतिक संदर्भों के सापेक्ष हैं। सत्यव्याख्या का उत्पाद है, तथ्य विमर्शों की निर्मितियाँ हैं। वस्तुगतता शक्तिशाली व्याख्या व्यवस्थाओं का दावा मात्र है। मानवीय कर्ता स्वयं एक बिखरी हुई, आत्मविभाजित इकाई है, जिसका कोई स्थिर स्वभाव है और ही कोई सारतत्व। उत्तर-आधुनिकता ने पश्चिमी ज्ञानोदय के तमाम महावृत्तान्तों सत्य, तर्क, विज्ञान, प्रगति, सार्वभौम मुक्ति, मानववाद, इहलौकिकता आदि के दावों को खारिज किया। उत्तर-आधुनिकता की राजनीति सत्य, समरूपता, सम्पूर्णता, सार्वभौमिकता, जड़ या आधार की धारणा, सामूहिक परिवर्तनकारी कर्ता की धारणा और महावृत्तान्तों का सफाया चाहती है; ताकि ईमानदार, प्रभावी, आमूल परिवर्तनवादी राजनीति का उदय हो सके। पश्चिमी सांस्कृतिक और ज्ञानात्मक प्रतिमानों को प्रश्नांकित करके, उनके प्रति गहरी शंका उत्पन्न करके उत्तर-आधुनिकता ने हाशिए पर ठेले गए समूह, उनकी दबाई गई पहचान, उनके अलग किस्म के अनुभवों और इतिहासों की संभावना पर बल दिया।

ल्योतार का विकेन्द्रीकरण इसी धारणा की पुष्टि करता है। ल्योतार के अनुसार उत्तर-आधुनिकता का प्रस्थान बिन्दु यही स्थिति है जहां एक नियम से सभी को समझने का दुराग्रह खण्डित हो जाता है। उनकी दृष्टि में उत्तर-आधुनिकता किसी भी वृत्तान्त की सत्यता या उसकी व्याख्या को किसी दूसरे वृत्तान्त के आधार पर वैध या अवैध नहीं ठहराती। उत्तर-आधुनिकता को परिभाषित करते हुए ल्योतार ने कहा है कि महाख्यान के प्रति एक तरह का संदेहभाव ही उत्तर-आधुनिकता है।[9]

यहाँ महाख्यान का तात्पर्य यह है कि एक ऐसा वृत्तान्त जिसके द्वारा मनुष्य के सभी पहलुओं को समझा जा सके और उसकी व्याख्या की जा सके। उत्तर-आधुनिकता अपने अतिरेकी रूपों में केवल मार्क्सवाद या समाजवाद को प्रश्नांकित करती है बल्कि वह आधुनिकता के उस पूरे युग को ही खारिज करती है जिसका उदय पूँजीपति और सर्वहारा जैसे आधुनिक वर्गों के आगमन के साथ हुआ। वह ज्ञानोदय के पूरे युग, मानव मुक्ति की उसकी महान परियोजनाओं को खारिज करते हुए उन्हें महाख्यानों की संज्ञा देते हुए यह स्थापित करती है कि ऐसे महाख्यान पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की ओर समाज को धकेलते हैं और अंततः सर्वसत्तावादी राजनीतिक व्यवस्थाओं में पतित होते हैं। उत्तर-आधुनिक चिंतक वर्ग मानवीय एकजुटता की ऐसी किसी कोटि को भी स्वीकार नहीं करते जो नस्ल, जाति, लिंग और एथनिसिटी जैसे कल्पित समुदायों को काटते हुए आकार ग्रहण करती है।

डेनियल बेल यूरोप तथा अमेरिका के औद्योगिक समाज पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि आज का समाज औद्योगीकरण के बाद का समाज है।[10] बेल ने मूलतः आर्थिक परिवर्तनों की व्याख्या की जिन्होंने अपने प्रभाव के तौर पर उत्तर-आधुनिकता को प्रस्तावित किया। बेल का मूल विश्लेषण यह है कि अब जो आर्थिक युग रहा है, उसे उत्तर-औद्योगिक की संज्ञा देना उचित होगा। नए नामकरण का अर्थ है औद्योगिक युगसे अलगाव के स्पष्ट संकेत दिखाई देने लगे हैं। यद्यपि वे सचेत करते हैं कि उत्तर-आधुनिक समाज का अर्थ यह नहीं है कि यह पूर्ववर्ती औद्योगिक समाज की पूर्ण समाप्ति पर जन्मा है।[11]

आधुनिक युग तथा तात्कालिक युग में स्थिति एकदम बदल गयी है। पूँजीवादी युग में पूँजी द्वारा कच्चा माल खरीदा जाता था और उसे उत्पाद में बदलकर बाज़ार में लाकर पूँजी कमायी जाती थी। उत्तर-आधुनिक समाज में स्थिति एकदम बदल गयी है। अब पैसे से पैसा कमाया जाने लगा है और बाज़ार का संक्रमण बाज़ारवाद में हो गया है। बाज़ार में मांग और उत्पादन का सम्बन्ध बदलकर उल्टा हो गया है, वितरण व्यवस्था का स्थान प्रबंधन ने ले लिया है। बेल की राय में औद्योगिक युग और उत्तर-औद्योगिक युग में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि औद्योगिक युग की अर्थव्यवस्था के केन्द्र में उत्पाद-निर्माता, उद्यमी और व्यापारी थे, जबकि उत्तर-औद्योगिक युग की अर्थव्यवस्था के केन्द्र में सेवा क्षेत्र होगा। जिसमें वैज्ञानिक अर्थशास्त्री, अभियंता आदि प्रमुख होंगे।[12] यह समाज वस्तु उत्पादक समाज के स्थान पर सेवा समाज होगा।[13]

नया बाज़ार पूँजीवाद का नहीं अपितु संकटग्रस्त पूँजीवाद या उत्तर-पूँजीवाद की संतान है। किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर हम बाज़ार जाते हैं। बाज़ारवादी दौर में आप बाज़ार जाते नहीं, माल आपका पीछा करता है और आपकी असुविधा का ध्यान किए बिना आपके घर में घुस जाता है। पहली बार यह स्थिति पैदा हो गई है कि औद्योगिक उत्पादन कुल उपभोग आवश्यकता से अधिक हो गया है। यही कारण है कि अब विलासिताओं तथा इच्छाओं, आकांक्षाओं को आवश्यकताओं में तब्दील करने की कोशिशें बाज़ार द्वारा संचालित की जा रही हैं। इसी कारण अब उत्पादन से अधिक महत्व सेवा तथा विक्रय ने प्राप्त कर लिया है और उत्पादक से अधिक महपूर्ण उपभोक्ता हो गया है। अब प्रतिस्पर्धा भी मशीन पर नहीं, तकनीक और विज्ञान पर आधारित हो गई है। औद्योगिक युग की तकनीकों के विपरीत उत्तर-औद्योगिक युग की तकनीक हर दृष्टि पर आधारित होगी तथा बाद में घातक सिद्ध नहीं होगी। पहले से ही तकनीकी मूल्यांकन होगा। दूसरा परिवर्तन यह होगा कि तकनीक मानव के नियंत्रण में होगी और समाज के स्तर पर तकनीकी निर्धारणवाद (Technological Determination) की स्थिति पैदा नहीं होगी।[14]

मानव इतिहास में पहली बार तकनीकी का ऐसा अभूतपूर्व विकास हुआ है कि सारी धरती के मानव संचार की दृष्टि से इतने पास गए हैं कि इस प्रकार के विश्व को एक सार्वभौमिक गाँव (Global village)[15] कहना उपयुक्त प्रतीत होता है। संचार क्रांति के इस युग ने अब वैश्विक दूरी को कम कर दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स और मल्टीमीडिया यंत्रो ने लोगों के बीच की दूरी को कम कर दिया है। इण्टरनेट, मोबाइल, कम्प्यूटर आदि यंत्रो ने व्यक्ति की जीवनशैली को बहुत आसान बना दिया है। अब व्यक्ति को कहीं आने-जाने की आवश्यकता कम ही होती है। -मेल, एस-एम-एस, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग आदि तकनीकों ने संदेश पहुँचाने की गति को अत्यन्त ही तीव्र कर दिया है। सेकेण्डों में संदेश दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचाये जाते हैं। ऑनलाइन शॉपिंग की तकनीक द्वारा व्यक्ति को बाज़ार जाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती, माल खुद खुद आपके दरवाजे तक जायेगा। बस, आपको पैसे देने होंगे।

उत्तर-आधुनिक युग में कागजी मुद्रा का चलन कम हो गया है। प्लास्टिक मुद्रा (Plastic money) अर्थात् क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड आदि और इण्टरनेट बैकिंग ने बाज़ार में लेन-देन आसान सुरक्षित कर दिया है। बौद्रीला इसे यथार्थ को देखने का बदला हुआ ढंग कहते हैं। वे इसे अतियथार्थ[16] नाम देते हैं। यथार्थ को देखने का यही बदला हुआ ढंग उत्तर-आधुनिक साहित्य में देखा जा सकता है।[17] बौद्रीला के अनुसार अतियथार्थ का मतलब झूठ से नहीं है उनका अतियथार्थ मीडिया, फिल्म और कम्प्यूटर तकनीकों द्वारा रचित काल्पनिक यथार्थ है जो कि आज हमारे लिए ज्यादा यथार्थ हो गया है। जो कि हमारे अनुभव और इच्छाओं से ज्यादा मेल खाता है, बजाय प्राकृतिक या दैवीय वास्तविकताओं के। बौद्रीला का मानना है कि आज पूँजीवाद प्राकृतिक, सामाजिक, लैंगिक और सांस्कृतिक ताकतों तथा सभी भाषाओं और कोड के तन्त्र को पार कर चुका है।[18] समकालीन पूँजीवाद केवल पूँजी और माल की अदला-बदली है बल्कि यह जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करने वाली (सभी पहलुओं में मौजूद) घटना है। जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को खरीदता है या खरीदने की इच्छा करता है तो वह सिर्फ उस वस्तु को खरीदता है बल्कि उसके साथ के चिह्नों, प्रतीकों और पहचानों को भी खरीदता है। बौद्रीला का छलनाया चिह्नों का सिद्धान्त इकहरे अर्थ की संभावना को खत्म करता है। ये चिह्न जितने व्यक्ति को दिखते हैं उसके उतने अधिक अर्थ हो सकते हैं। इस प्रकार चिह्न का स्वयं में कोई अर्थ नहीं रह जाता, बल्कि वह देखने वाले की मनःस्थिति पर आधारित हो जाता है।

फोटोग्राफी और फिल्म की नई तकनीकों के उदय होने से कला (3D Printing and Films) अब वास्तविकता से भी अधिक सुन्दर बनायी जा सकती है। इस प्रकार अब सारा ध्यान कला के अनूठेपन से हटकर बाज़ार आधारित मांग पर हो गया है। अब जो बाज़ार में ज्यादा बिकता है लोग वही बनाते हैं। यही बाज़ारवाद के प्रभुत्व का संकेतक है। यही बाज़ारवाद देश की सीमाओं को खत्म करके नये बाज़ार तलाशने को उत्साहित करता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और बहुराष्ट्रीय पूँजीवादजैसी अवधारणाएँ निर्मित हो रही हैं। ये अवधारणाएँ विश्व ग्राम आवारा-पूँजीका सिद्धान्त निर्मित करने में सहायक हो रहे हैं। उत्तर-आधुनिक समय में कोई भी उत्पाद चाहे वह किसी भी देश का हो किसी के लिए अनुपलब्ध नहीं है। प्रत्येक बहुराष्ट्रीय कम्पनी अपने माल को कई देशों में पहुँचाने का प्रयत्न करती है और वहाँ के उपभोक्ता वर्ग को ध्यान में रखते हुए उसकी मार्केटिंग करती है। इससे पूँजीवादी संकेन्द्रण की जगह विकेन्द्रण की अवधारणा आयी तथा कल्याणकारी राज्य का अस्तित्व तथा राष्ट्रीयता की भावना को आघात पहुँचा।

फ्रेडरिक जेमसन ने अपनी पुस्तक पोस्ट-मॉडर्निज्म ऑर कल्चरल लॉजिक ऑफ लेट कैपिटलिज्म’ (1991) में बताया कि पूँजीवाद अपने विकास की अन्तिम अवस्था में पहुँच चुका है। अब उसका विकास और नहीं हो सकता। इसीलिए उन्होंने इसे वृद्ध पूँजीवादकहा। जेमसन के अनुसार साम्राज्यवाद की स्थिति खत्म हो चुकी है अब नए तरीके से उपनिवेश बनाने की जरूरत है। पुस्तक का शीर्षक प्रस्तावित करता है कि उत्तर-आधुनिकता मात्र आर्थिक संरचना का वृद्ध पूँजीवादिता में रूपान्तरण की समकालीन घटना नहीं अपतिु अपने आप में एक सांस्कृतिक तर्क है। अन्य शब्दों में, मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार, जैसा कि जेमसन प्रस्तुत करते हैं, उत्तर-आधुनिकता की जटिल रचना का निर्धारण समाज के आर्थिक आधारों का वृद्ध पूँजीवादी उत्तर-आधुनिकता में रूपान्तरण द्वारा हुआ है। दूसरे शब्दों में, जैसे-जैसे पश्चिम समाज की आर्थिक संस्थाओं का विकास हुआ है, वैसे-वैसे इनके चारों ओर उपस्थित संस्कृति में भी परिवर्तन हुआ है।

वृद्ध पूँजीवाद उस समय को चिन्हित करता है जब बहुराष्ट्रीय निगमों और नियन्त्रण मुक्त बाज़ारों (जिनमें विभिन्न देशों और स्थानों के बीच व्यापार की सीमाओं को समाप्त कर दिया गया हो) का बोलबाला है। ईगलटन जेमसन के विपरीत व्यक्तिगत प्रतिरोध की बात करते हैं जो कि जेमसन के सामाजिक और वर्गीय भविष्य की परिकल्पना से बहुत दूर पड़ता है। ईगलटन मानते हैं कि सभी तरह की सैद्धांतिकी हितवादी और सत्तावादी है। इसीलिए आलोचना की प्रकृति अनिवार्यतया राजनीतिक है। उनका मानना है कि वर्तमान अंतर्विरोध जटिल है, यह संक्रमण काल है। एक ओर समग्रतावादी विचारों वाला समाज है, तो दूसरी ओर टुकड़ों की राजनीति है। ऐसे में आलोचना की भूमिका महत्त्वपूर्ण बन पड़ती है, क्योंकि आलोचना ही दबे हुए सत्यों को उजागर करती है।

उत्तर-आधुनिकता का वर्गीय सार (Class content) यह नहीं है कि हम यह कहें कि यप्पी वर्ग नया शासक वर्ग बन गया है। इसके मायने सिर्फ यह है कि उनके सांस्कृतिक आचरण और मूल्य और उनकी स्थानीय विचारधाराएँ एक नई सांस्कृतिक विचारधारा और प्रमेय (Pyramid) तैयार कर देती हैं जो इस वृद्ध पूँजीवादके लिए वैधता प्रदान करती है। इस तरह उत्तर-आधुनिकता सांस्कृतिक विचारधारा है। उसमें आधुनिकता द्वारा छोड़े गए तमाम खाली स्थान (स्पेस) तमाम तरह की सांस्कृतिक चीजों से भर दिए जाते हैं।[19] उत्तर-आधुनिकता पीछे की ओर लौटना नहीं चाहती। यह उन पारंपरिक एवं धार्मिक प्रतिमानों को पुनः स्थापित नहीं करना चाहती, जिन्हें आधुनिकता ने अस्वीकार कर दिया है। उत्तर-आधुनिकता वस्तुतः पूँजीवादी फिनोमिना है। यह परिवर्तन के नियम की तरफ ध्यान खींचती है।

उत्तर-आधुनिकता सारी समग्रतावादी व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। ऐसे में यथार्थ की पैरोडी ही सम्भव है। वह यथार्थ जो अब तक दिखलाया गया उसकी शुचिता का ढोंग पैरोडी ही तोड़ता है और इसमें जो जगह नजर आती है वहां स्त्रियां, अल्पसंख्यक, दलित-दमित, पिछड़े अपना विमर्श बनाते नजर आते हैं। ऐसे में जो साहित्य नजर आता है वह अब तक की उन तमाम साहित्यिक अवधारणाओं पर प्रश्नचिह्न लगाता है जो अब तक सर्वस्वीकृत एवं सर्वमान्य रही हैं। सारी सीमाएँ यानी इतिहास, आत्मकथा, साहित्यिक, गैर-साहित्यिक जिंदगी और कला के मानक बदलते नजर आते हैं। आधुनिकतावादी यथार्थवाद का चौखटा तोड़ते नजर आते हैं। ज्ञान-विज्ञान और कला की हदबंदियां मिट रही हैं। यह अकादमिक सीमाएँ केवल मनमानी हैं, अपितु ज्ञान और समाज की उन्नति के लिए खतरनाक भी हैं। इसी कारण दो या अधिक ज्ञान मिलकर नए-नए विषयों को जन्म दे रहे हैं। अर्थशास्त्र दर्शन में दखल दे रहा है। दर्शन साहित्यिक समीक्षा में। फिल्म फोटोग्राफी, फैशन, कथा-साहित्य, कॉमिक्स, कम्प्यूटर, चित्रकला, सूचना, संगीत, मूर्तिकला, मॉडलिंग, मीडिया, मडोना, रंगमंच, भाषा, वेशभूषा, विज्ञापन, इलेक्ट्रॉनिक सम्प्रेषण अर्थात् प्रत्येक क्षेत्र और समाज की प्रत्येक वस्तु, चिन्तन की हर एक धारा एक-दूसरे से आलिंगनबद्ध हो रही है।[20]

शुरू से अन्त तक आधुनिकता ने मानवकेन्द्रवादकी स्थापना की। उत्तर-आधुनिकता में इसी मानव की मृत्यु[21] हुई, जो केन्द्रीय स्थिति पर कब्जा जमाए बैठा था। मृत्यु का कारण यह था कि मानवकेन्द्रवाद से ऊर्जा लेने वाली आधुनिकता ने पशु पक्षियों तथा प्रकृति का इतना शोषण किया कि सारा का सारा पारिस्थितिकीय संतुलन डगमगाने लगा। पिछले बीस-तीस सालों में यह माना जाने लगा कि प्रदूषण तथा वातावरण में गर्मी बढ़ने जैसी समस्याएँ विकास की इसी धारणा के कारण हुई हैं। जिसमें मानव को केन्द्र मानकर अंधाधुंध तरीके से विकास किया गया। इस विकास के स्थान पर उत्तर-आधुनिकता ने धारणीय विकास’ (Sustainable development) की संकल्पना को स्थापित किया, जिसमें पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखते हुए विकास करने पर बल दिया गया है। उत्तर-आधुनिकता के दौर में पहली बार तकनीक मानव का विकल्प बनने लगी। पाँचवीं पीढ़ी के कम्प्यूटर कृत्रिम बुद्धिमत्ता के दौर में दस्तक देने लगे हैं जहां वे मानव के तरीके से और मानव से अधिक तेजी और व्यापकता से सोचने का कार्य कर सकेंगे।

सन्दर्भ 


[1]  कृष्णदत्त पालीवाल, उत्तर-आधुनिकतावाद और दलित साहित्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली , 2008 , पृ-13.

[2]  J. F. Lyotard, The Postmodern Condition: A Report on Knowledge, Manchester University Press, 1984.

[3] सुधीश पचौरी, उत्तर यथार्थवाद, प्रकाशन, दिल्ली, 2004.

[4] Simon Malpas, The Postmodern, Routledge, London, 2007.

[5] सुधीश पचौरी, उत्तर-आधुनिक साहित्यिक विमर्श, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1996, पृ- 25.

[6] वही, पृ- 27

[7] वही, पृ- 26

[8] वही, पृ- 28

[9] J. F. Lyotard, The Postmodern Condition: A Report on Knowledge, Manchester University Press, 1984. p. xxiv.

[10] Daniel Bell, The Coming Of Post Industrial Society, Basic Books, New York, 1973, p. 14.

[11] Ibid. p. ix-x

[12]  Ibid. p. 34

[13]  Ibid. p. 37

[14] Ibid. p. 14

[15] Marshall McLuhan, Understanding Media, The MIT Press, US, 1994, p.103

[16] Jean Baudrillard, The Illusion of the End, Polity Press, Cambridge, 1994.

[17] Patricia Waugh, Practicing Postmodernism/Reading Modernism, Hodder Education Publishers, London, 1992, p.51.

[18] Jean Baudrillard, The Mirror of Production, Telos, St. Louis, 1975, p.138

[19] सुधीश पचौरी, उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-संरचनावाद, हिमाचल पुस्तक भण्डार, दिल्ली, 1994, पृ- 78

[20] देवेन्द्र इस्सर, उत्तर-आधुनिकता: साहित्य और संस्कृति की नई सोच, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ-34.

[21] देवेन्द्र इस्सर, उत्तर-आधुनिकता: साहित्य और संस्कृति की नई सोच, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, 2012 पृ- 34.  

डॉ. विवेक कुमार यादव, सहायक आचार्य (अतिथि), NCWEB, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।

vivekk1906@gmail.com, 9599871810

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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