शोध आलेख : हिन्दी उपन्यासों का बदलता परिदृश्य : विस्थापन की पीड़ा / भावना
शोध सार :
हिंदी उपन्यासों के बदलते परिदृश्य के बीच भूमंडलीकरण के दौर में विस्थापन की समस्या प्रमुख रूप से उभरती है। जहां नब्बे के दशक में भारत आर्थिक विपन्नता के दौर से गुजर रहा था वहीं दूसरी ओर अमेरिका, चीन आदि विकसित देश महाशक्ति के रूप में उभर रहे थे, जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के तहत समस्त विश्व को एक ग्राम के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासरत थे। भारत ने भी स्वयं को इस व्यवस्था में एकीकृत कर दिया। हालांकि भूमंडलीकरण मानव इतिहास में कोई नवीन परम्परा नहीं है। इसका एक मजबूत और ऐतिहासिक आधार पहले से ही मौजूद है। लेकिन समकालीन व्यवस्था कुछ बातों में भिन्न है। भारत में भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया के अनेक सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव देखे गये हैं। हिंदी उपन्यासकारों ने भूमंडलीकरण से उपजी विस्थापन की समस्या को व्याख्यायित किया है जिससे उनकी अपने समय के प्रति सजगता जाहिर होती है।
बीज शब्द : भूमंडलीकरण, विस्थापन, औद्योगीकरण, महाकाव्य, सामंतवाद, पूँजीवाद, अस्तित्ववाद, साम्राज्यवाद, आदिवासी, उपन्यास।
मूल आलेख :
साहित्यिक विधाओं के परिवर्तन और विकास में समाज की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रकारांतर से ही साहित्य ने जन- जन तक जाकर विभिन्न विचारधाराओं को प्रवाहित किया है। जैसे सामाजिक परिवर्तन से साहित्यिक रूपों का विकास होता है ठीक वैसे ही इन रूपों के साथ- साथ विचारधाराएँ भी परिवर्तित होती चली जाती हैं। हिंदी साहित्य का परिवेश भी बदलाव के अनेक परिदृश्यों को अपने अंदर समेटे हुए है। प्रारम्भ में महाकाव्य देश की सभ्यता और संस्कृति की अभिव्यक्ति का प्रबल माध्यम था, जिसका प्रारम्भँ सामंती समाज से पूर्व जनपदीय समाजों में हुआ था। इन महाकाव्यों के कथानक अपने- अपने देश के राष्ट्रीय इतिहास पर आधृत थे, साथ ही साथ जातीय मिथकों का भी खूब प्रयोग होता था। महाकाव्य के नायक भी अभिजात्य वर्ग से संबंधित होते थे। नायक या तो वीर योद्धा होता था या राजा महाराजा आदि धीरोदात्त पात्र। हमारे यहाँ ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे विशाल महाकाव्य लिखे गए। इन्हें परवर्ती महाकाव्यों का स्रोत भी कहा जाता है। हिंदी का आरंभिक महाकाव्य चन्दबरदाई कृत ‘पृथ्वीराजराज रासो’ है। इसमें प्रथम बार मानव जीवन की संघर्ष गाथा चित्रित हुई। पद्मावत, रामचरितमानस, साकेत, कामायनी, प्रियप्रवास आदि हिन्दी साहित्य के प्रमुख महाकाव्य हैं। देश में जैसे- जैसे परिवर्तन हुआ, सामाजिक परिस्थितियाँ बदलीं। सामंतशाही का अंत हुआ और एक नयी व्यवस्था से हमारा परिचय हुआ। सामंती समाज- व्यवस्था के अंत के साथ दुनिया भर में महाकाव्यों का युग समाप्त होता दिखाई देता है।
महाकाव्य एक स्तर पर अपने समय और समाज में मनुष्य की स्थिति और नियति को दिखाने का प्रयत्न करते थे। आधुनिक काल में यह काम उपन्यास के माध्यम से होने लगा, इसलिए उपन्यास को आधुनिक युग का महाकाव्य भी कहा जाता है। साहित्यिक विधाओं के अंतर्गत उपन्यास की उत्पत्ति भी आधुनिक काल के यथार्थवादी परिवेश की ही एक अनुगूँज है। उपन्यास मूलतः पूँजीवादी सभ्यता की देन है। इस सभ्यता के विभिन्न जीवन सत्यों को कथा के माध्यम से व्यक्त करने के लिए ही इसकी उत्पत्ति हुई। उपन्यास का फ़लक बड़ा होने के कारण इसमें सारी विधाओं को सन्निहित करने की शक्ति निहित होती है। प्रेमचंद ने स्वीकार किया कि “मैं उपन्यास को मानव- चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूलतत्व है।”[i]पूँजीवादी सभ्यता के प्रारम्भिक रूप में जहाँ महाजनी सभ्यता गाँवों से लेकर शहरों तक अपना कदम बढ़ा रही थी, वहीं, इसी के साथ मजदूर वर्ग भी उभरकर सामने आया। पूँजीवादी सभ्यता में बाज़ार केंद्र में था। जहाँ स्पर्धा का भाव मुख्य रूप से विद्यमान था। पूँजीपति मजदूरों के श्रम से अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहते थे, दूसरी ओर मजदूर वर्ग अपना श्रम बेचकर समृद्ध जीवनयापन की लालसा का स्वप्न देख रहा था। इन दोनों परिस्थितियों के बीच ‘तनाव’ का जन्म हुआ, जिसके फलस्वरूप देश में हड़तालें और सभाएँ होनी शुरू हुईं। जहाँ एक ओर मिल- कारखानों के मजदूर थे, तो दूसरी ओर खेतिहर किसान।
इन दो वर्गों के अतिरिक्त मध्यवर्ग का भी जन्म हुआ। मध्यवर्ग की भी अपनी अलग समस्याएँ थीं। उसकी आर्थिक स्थिति भीतर से खोखली थी, परन्तु फिर भी वह मिथ्या प्रदर्शन के जाल में फँसा हुआ था। प्रेमचंद ने इस संक्रमण को भली- भाँति पहचाना।
उन्होंने समस्याओं को उनके सही रूप में देखा। परिणामस्वरूप सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक यथार्थ इनके उपन्यासों के केंद्र बने। उभरते हुए औद्योगीकरण के स्वरुप और प्रभाव को प्रेमचंद अपने उपन्यासों में दिखाते हैं। इनके उपन्यासों के नायक कोई धीरोदात्त पात्र नहीं अपितु एक सामान्य मनुष्य और किसान है। वह किसान जो अपने समस्त गुण- दोष, अभाव और शक्ति के साथ भारत का सच्चा किसान है। प्रेमचंद दुर्दशाग्रस्त गाँव की कथा कहने के साथ- साथ शहरी जीवन पर भी अपनी कलम चलाते हैं। ऐसे विपरीत समय में यदि उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद का पदार्पण नहीं होता तो संभवतः उपन्यास का केंद्र मनोरंजन और उपदेशात्मक शैली के गलियारों में ही घूमता रहता।
प्रेमचन्दयुगीन उन्यासकारों, मसलन चतुरसेन शास्त्री, वृंदावनलाल वर्मा, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, उषादेवी मित्रा आदि रचनाकारों ने भी सामाजिक जीवन का चित्रण किया। प्रेमचंदोत्तर युग के लेखक नवीन भाव- बोध के साथ साहित्य लेखन में पदार्पण करते हैं। इस युग में कथा, घटना, भाव, भाषा आदि से संबंधित अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं। मनोविश्लेषणवादी, आंचलिक, प्रगतिवादी आदि विषयों को आधार बनाकर उपन्यासों की रचना होती है। इस युग में ऐसे उपन्यासकार भी उपस्थित थे, जिनका साहित्यिक अवदान प्रेमचंद युग से ही कायम रहा। सन् सैंतालिस के समय जब देश आज़ाद हुआ तो विभाजन की एक अपूर्व त्रासदी घटित हुई। जिसने साम्प्रदायिक दंगों को जन्म दिया और बड़ी संख्या में लोग अपनी जमीन से विस्थापित हुए। इस विभाजन की त्रासदी ने न सिर्फ भारत को दो भागों में विभाजित किया अपितु सांप्रदायिक और अलगाव की न पटने वाली ऐसी खाई को जन्म दिया जिससे मनुष्य हिंसक होता गया, आज भी वह हिंसक प्रवृत्ति को आसानी से अपने जीवन में स्वीकार कर रहा है। विभाजन की इस त्रासदी की जटिलता को लेखकों ने कहानियों, उपन्यासों, कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया। दूसरी ओर जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी आदि के द्वारा मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की रचना भी की जा रही थी। समकालीन चिंतनधाराओं उत्तर आधुनिकतावाद, प्रगतिवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद, अस्तित्ववाद और गांधीवाद का प्रभाव स्वातन्त्र्योत्तर उपन्यासों पर पड़ रहा था।
आज़ादी के बाद भारत में विकास के लिए पश्चिमी मॉडल को अपनाया गया था। जिन कल- कारखानों का निर्माण किया गया वे अधिकांशत: देश के हित में प्रतिकूल साबित हुए। परिणामस्वरूप विकास की इस अंधी दौड़ में औपनिवेशिक साम्राज्यवादी मॉडल खनिज संपदा पर पूंजीपतियों ने अपना आधिपत्य जमाने के लिए बड़े पैमाने पर आदिवासी समूहों को उनकी जमीनों से खदेड़ना शुरू किया। विस्थापन के विरोध में आंदोलन भी चलाए गए। विकास परियोजनाओं विशेष रूप से बांध निर्माण से आदिवासी जनजाति और ग्रामीण वर्ग एक बिखराव के दौर से गुजरने के लिए मजबूर हो गया। रामचंद्र गुहा अपनी पुस्तक ‘भारत: गांधी के बाद’ में लिखते हैं- “एक आधुनिक तकनीक जिस पर गांधीवादियों को कड़ी आपत्ति थी वो थी बड़े ‘बांधों का निर्माण’। वे उन्हें खर्चीला और प्रकृति विनाशक मानते थे। लेकिन हिंदुस्तानियों को धीरे- धीरे महसूस हो रहा था कि बड़े बांध मानव समुदाय का भी विनाश कर रहे थे। पचास के दशक की शुरुआत में बड़े बांधों द्वारा विस्थापित लोगों की तकलीफों के बारे में ख़बरें आने लगीं।”[ii] इन्हीं उद्योगों से बांधों की कड़ी भी प्रारम्भ हुई, जिसके कारण बहुत बड़ी संख्या में जमीन, जंगल, तालाब, नदियों आदि का अधिग्रहण होना शुरू हुआ। परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में जीविका के साधन से वंचित करकर लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर किया गया।
उपन्यास ने एक प्रकार से इतिहास लेखन का दायित्व भी निभाया है जिससे भारतीय समाज की संरचना में कुछ उथल- पुथल पैदा हुई है। राष्ट्रीय आंदोलन की स्मृतियाँ, समाज में व्याप्त रूढ़ियाँ, क्रांतिकारी विरासतें, विभिन्न विचारधाराएँ, सामन्ती समाज का चित्रण, हिन्दू- मुस्लिम संबंध, धार्मिक अतिवाद, राजनीति का जन- विरोधी रूप आदि घटनाएँ और समस्याएँ उपन्यास के केंद्र में रहीं हैं। उपन्यास की एक परम्परा ऐतिहासिक इतिवृत्त को भी आधार बनाकर चली है। इस सम्बन्ध में विजय बहादुर सिंह ने लिखा है कि “समकालीन हिंदी भाषी समाज, बृहत्तर अर्थ में समूचा भारतीय समाज जिन सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मुश्किलों के बीच फंसा है, उपन्यास उन्हें तरह- तरह से समझने और अपने पाठकों के बिखर से उठे, लगभग संभ्रमित और आत्मबेसुध से हो चुके चित्त को खोजने और पुनःस्थापित करने में जी- जान से लगा हुआ है।”[iii] सत्तर के दशक के बाद से हिंदी उपन्यासों के कथ्य पर एक व्यापक परिवर्तन देखने को मिलता है। नमिता सिंह, कृष्णबलदेव वैद, सुरेन्द्र वर्मा, वीरेंद्र जैन, मनोहर श्याम जोशी, विनोद कुमार शुक्ल, श्रीलाल शुक्ल, मैत्रयी पुष्पा, दूधनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, मिथिलेश्वर आदि लेखकों ने नए आधुनिक बोध और मूल्य चेतना पर उपन्यासों की रचना की है। इस दौर के उपन्यासों को पढ़ते हुए दृष्टि और अंतर्वस्तु दोनों के बदलाव का बोध होता है। कथा साहित्य का अपने समय और समाज से सदैव जीवंत संबंध रहा है। भूमंडलीकरण के इस दौर में हिंदी उपन्यासकारों ने उपन्यास के लोकतान्त्रिक रूप को अधिक समृद्ध और विकसित किया। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था से जूझते हुए भारतीय जन की महागाथा प्रस्तुत की और इनके पीछे नयी व्यवस्था के निर्माण की रचनात्मक आकांक्षा भी है।
भूमंडलीकरण ने विश्व अर्थव्यवस्था के साथ- साथ साहित्य- जगत को भी प्रभावित किया है। भूमंडलीकरण का प्रभाव हमें हिंदी उपन्यासों में भी दिखाई देता है। साहित्यकार लेखन के माध्यम से भूमंडलीकरण के विरूद्ध जन अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर साहित्य के जनतंत्र की रचना कर रहा है। प्रभा खेतान अपनी पुस्तक में माइकेल हार्ट एवं एंटोनियों नेग्री की पुस्तक साम्राज्य का हवाला देते हुए कहती हैं- “विश्व की यह नयी परि स्थिति एक संजाल है, जिसमें दुनिया की महत्वपूर्ण संस्थाओं की परा- राष्ट्रीय पूँजी लगी हुई है। ...यह वही पुराना साम्राज्यवाद है जो नयी- नयी भूमंडलीय एकता और भाईचारे को बुलन्द कर रहा है।”[iv] भूमंडलीकरण के इस दौर ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। जैसे- विस्थापन की समस्या, आदिवासी विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, साम्प्रदायिक संकीर्णता आदि। उपन्यास विधा में विगत वर्षों में तेजी से परिवर्तन आया है। जहाँ एक ओर उपन्यास ने एक समय पर ‘ऐतिहासिकता’ को आधार बनाया था, वहीं समकालीन समय में ‘तात्कालिकता’ का प्रवेश उपन्यास में होता दिखाई देता है। बाबरी मस्जिद प्रकरण, गुजरात नरसंहार, साम्प्रदायिकता, कश्मीर की समस्या, भूमंडलीकरण की अपसंस्कृति, बाजारवाद, उपभोक्तावाद, प्रव्रजन, विस्थापन आदि उपन्यास के केंद्र में रहे। उपर्युक्त समस्याओं के चित्रण को उपन्यास के एक नवीन प्रस्थान बिंदु के रूप में देखा जा सकता है।
आज हमारे साहित्य में मुक्ति, संघर्ष, अस्मिता के साथ- साथ विस्थापन की समस्या को भी स्थान दिया जा रहा है। चूंकि साहित्य समय और समाज के साथ चलते हुए उन्नत भविष्य के सृजन का दूसरा नाम है। अत: जीवन और जगत की कोई भी समस्या, विडम्बना साहित्य की परिधि से बाहर नहीं है। साहित्यिक विधाओं में उपन्यास विधा समस्याओं को बड़े फलक पर चित्रित करने में सक्षम है क्योंकि उपन्यास में केवल किसी व्यक्ति के अपने परिवार अथवा समाज से निर्वासित होकर जीने की अनुभूतियों का ही चित्रण नहीं है, बल्कि भौगोलिक परिस्थितियों की भिन्नता के कारण जो समस्याएँ जन्म ले रहीं हैं , उनका विस्तार से वर्णन भी है। कई बार व्यक्ति को अपने मूल स्थान से विस्थापित होकर विभिन्न कारणों से नये- नये स्थानों पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जहाँ वह अपरिचित लोगों के साथ अपना संबंध स्थापित करता है। अनजानी वस्तुओं के साथ जीता है, अपनी नयी पहचान बनाता है, नयी भाषाएँ सीखता है और स्वयं को एक अलग संस्कृति में ढालने की कोशिश करता है।
समकालीन हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जीवन के अनछुए प्रसंगों, संघर्षों को नए ढंग से देखने की कोशिश की गयी है। मैनेजर
पाण्डेय लिखते हैं कि “किसी रचनाकार की चिन्ता
का मुख्य विषय जीवन का यथार्थ है व जीवन का यथार्थ बहुआयामी होता है। रचनाकाल
में रचनाकार की चेतना के ऊपरी स्तर व भीतरी अन्तर्दृष्टि
में द्वन्द्व होता है। अन्तर्दृष्टि
की विजय में यथार्थवाद की विजय निहित होती है।”[v] समकालीन उपन्यासों ने उपर्युक्त समस्याओं को अपने अंदर समेटा है। इन प्रमुख उपन्यासों में रणेंद्र का ग्लोबल गाँव के देवता और गायब होता देश, अखिलेश का निर्वासन, संजीव का फ़ांस और जंगल जहां शुरू होता है, मनीषा कुलश्रेष्ठ का शिगाफ़, सुषम बेदी का मोर्चे, अलका सरावगी का जानकीदास तेजपाल मैनशन, महुआ माजी का मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ और वीरेंद्र जैन का डूब और पार आदि हैं। इन सभी उपन्यासों में विस्थापन की समस्या को बेबाकी के साथ उठाया गया है। आज विस्थापन जैसी समस्याओं पर बात सिर्फ़ उपन्यास में ही नहीं, बल्कि कहानी, कविता और यात्रासाहित्य में भी हो रही है। यात्रावृत्तांतों के अंतर्गत यादों का लाल गलियारा : दंतेवाडा, दर्रा-दर्रा हिमालय और कुछ अटके कुछ भटके में इस समस्या को देखा जा सकता है। फिर भी उपन्यास ने इसे विस्तृत फलक पर प्रस्तुत किया है। वीरेंद्र जैन ने डूब उपन्यास में बाँध- निर्माण से उत्पन्न होने वाली समस्या में डूब जाने वाली मनुष्यता, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, भूगोल, पेड़- पौधे और वहाँ रहने वाले आम- जन की त्रासदी के चित्र अंकित किये हैं।
1991
से दुनिया की कुछ विशाल कम्पनियाँ भारत में निवेश कर रही हैं। इनमें रियो टिंटो जिंक (ब्रिटेन), बीएचपी (औस्ट्रेलिया), एलकॉन (कनाडा), डी बीयर्स (दक्षिण अफ्रीका), रेथियोन (अमेरिका) आदि। इन कम्पनियों के द्वारा किये गए अवैध खनन ने भारत के आदिवासी क्षेत्रों को बदतर स्थिति में पहुँचा दिया है। मनोज सिन्हा ने अपनी पुस्तक में दिखाया है कि “पश्चिम बंगाल में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए सिंगूर में किसानों की जमीन बाज़ार के मूल्य से कुछ अधिक और उनके परिवार में से एक व्यक्ति को स्थापित फर्म में नौकरी के आश्वासन के साथ ज़मीन खरीदने का दवाब डाला गया। ...इसे सभी भारतीय राज्यों में पूरा किया जा रहा है। जैसे उत्तर प्रदेश के एनसीआर नोएडा, दादरी, दनकौर, गुडगाँव, पानीपत... इन कृषि योग्य क्षेत्रों में एस्टेट अपार्टमेंट उद्योग बड़ी तेजी से फ़ैल रहा है।”[vi]
निर्वासन उपन्यास में अखिलेश मानव- मन की भावनाओं को सहज रूप से स्पर्श करते हुए अपने पात्रों का हर समय मनोविश्लेषण करते दिखते हैं। उपन्यास में प्रसंगवत अपने चाचा से सूर्यकांत पूछता है, “चाचा तुम कहाँ- कहाँ से तमाम ऐसी चीजें इस घर में रखे हुए हो जो गायब हो चुकी हैं। जवाब में चाचा कहते हैं, “वे गायब नहीं हुई हैं बल्कि वे अपनी जगह से धकेल दी गई हैं। मैं समझ रहा हूँ तुम्हारी बात। ये देसी आम, ये बर्तन, ढिबरी, लालटेन, ये सिकहर, ये सिल लोढ़ा, ये सब इसी भारत देश में हैं पर अपनी- अपनी जगह से धक्का दे दी गयी हैं। ये ऐसे अँधेरे में गिर गए हैं कि तुम लोगों को दिखाई नहीं देते, पर ये हैं।”[vii] विस्थापन का एक पहलू मनुष्य को भावनाओं के स्तर पर लाकर भी तोड़ देता है, जहाँ से वह ‘आत्मनिर्वासन’ का अनुभव करने लगता है। यह एक नए प्रकार का विस्थापन है। धीरेन्द्र अस्थाना का उपन्यास देश निकाला बाजारीकरण और भूमंडलीकरण की भयावह स्थितियों को दिखाते हुए विस्थापन की इस श्रेणी को हमारे सामने उजागर करता है। जहां जीवन की विडम्बना और आत्मीय संघर्ष उसे आपसी रिश्तों से ही विस्थापित कर देते हैं। उपन्यास का नायक ‘गौतम’ व्यक्तिवादी जीवन जीना चाहता है जहां निजता, एकांत और स्वतंत्रता को वह अपने जीवन का केंद्र समझता है। वह कहता है- “यायावरी और एकांत मेरे प्रोफेशन
का तकाज़ा है। तुम
अपने स्वप्नों और जिदों के साथ चारकोप में रहो। मैं
अपनी सनक और पैशन के साथ मीरा रोड में हूँ। यह बिल्कुल मत समझना कि हम अलग हो गये हैं। यथार्थ
को स्वीकार कर लो मल्लिका। हम दोनों अपने- अपने स्पेस में रहना चाहते हैं, अपनी- अपनी समझ के साथ। कोई
प्रोब्लम हो तो मैं मोबाइल
पर एवेलेबल हूं न।”[viii]
यदि हम वैश्विक स्तर पर विस्थापन की समस्याओं की गणना करें, तो भारत वह देश ठहरता है, जहाँ भूमंडलीकरण के आगमन से विकास के पर्याय के रूप में विस्थापन की समस्या का दायरा बढ़ा है। भारत में यह समस्या सन् 2000 के बाद और बढ़ती गयी है, जहाँ ‘आंतरिक विस्थापन’ बड़े पैमाने पर हुआ है। आज़ादी के बाद से बाँधों, खदानों, ताप बिजली संयंत्रों, कॉरिडोर परियोजनाओं, फील्ड फायरिंग रेंज, एक्सप्रेस- हाइवे, हवाई अड्डों, राष्ट्रीय पार्कों, अभ्यारणों, औद्योगिक नगरों और यहाँ तक कि पौल्ट्री फार्म्स के लिए भी लोग विस्थापित हुए हैं। भारत में विस्थापन का दूसरा कारण प्राकृतिक आपदाएँ हैं। हर वर्ष बाढ़ के कारण हजारों लोगों को विस्थापित होना पड़ता है। भारत में बंगाल, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, केरल, असम, बिहार, गुजरात, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और पंजाब ऐसे राज्य हैं जहां बाढ़ का प्रभाव अधिक होता है। दूसरी ओर कश्मीर भी लगातार विस्थापन का दंश सहता रहा है। यहाँ विस्थापन के अलग- अलग कारण हैं- आतंकवाद, अतिधर्मवाद, साम्प्रदायिकता आदि। भूमंडलीकरण के इस दौर में विस्थापन की समस्या देश के हर कोने में व्याप्त है, अंतर सिर्फ अनुपात का है। ग्राम्शी कहते हैं कि “मुक्त व्यापार भी एक प्रकार का नियंत्रण है जो कानून और ताकत से लागू किया जाता है। वह जानबूझकर बनाई गयी ऐसी नीति है, जो अपने लक्ष्यों के बारे में सचेत है। वह आर्थिक स्थिति का स्वभाविक और स्वतंत्र विकास नहीं है।”[ix]इसके अतिरिक्त झारखण्ड जैसे राज्यों में विस्थापन का एक अन्य कारण भी है जिसे ‘फील्ड फायरिंग रेंज’ कहते हैं। जहाँ थल सेना द्वारा गोलीबारी का अभ्यास किया जाता है। कुल तीन फील्ड फायरिंग रेंज हैं- नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज, होरहाप फील्ड फायरिंग रेंज, देवरी- डुमरी फील्ड फायरिंग रेंज। इन तीनों में सेना द्वारा गोलीबारी के अभ्यास किये जाने से आदिवासी व गरीब जनता को भारी क्षति उठानी पड़ी है। रमणिका गुप्ता अपनी पुस्तक में बताती हैं, “भारत सरकार ने वर्ष 1993 में अधिसूचित नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज को अधिग्रहित रेंज बनाने के लिए विशाल पायलट प्रोजेक्ट योजना बनाई थी, जिसे गुमला और पलामू जिला के 245 आदिवासी बहुल गाँवों के 25000 परिवारों के लगभग 2, 35, 000 लोगों के विस्थापित होने का खतरा था। ...9 अप्रैल 1994 को रांची और नयी दिल्ली में विशाल प्रदर्शन कर विस्थापन के खिलाफ आदिवासियों के जंगल-जमीन पर अधिकार का नारा बुलंद किया। फलस्वरूप भारत सरकार को इस योजना को रद्द करना पड़ा।”[x] छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखण्ड में आदिवासी नक्सलवाद की त्रासदी को झेल रहे हैं। मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश तथा अन्य प्रान्त के आदिवासी समुदाय अलगाववाद का शिकार होते रहे हैं। जल, जंगल और जमीन को लेकर इनका शोषण निरंतर जारी है। आदिवासियों के विस्थापन और इसके खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध से लेकर हिंसक प्रतिरोध तक की स्थितियों को सामने लाने के लिए रणेंद्र ने असुर जनजाति को केंद्र में रखा है। धातु को पिघलाकर उसे आकार देने वाले कारीगर असुर जाति को मानव सभ्यता के विकासक्रम में हाशिए पर धकेल दिए जाने और अब अंतत: पूरी तरह विस्थापित करके अस्तित्व ही मिटा डालने की साजिश इस उपन्यास में सामने आती है।
भाषा पर विस्थापन का प्रभाव किस प्रकार पड़ता है, इसे मनीषा कुलश्रेष्ठ शिगाफ़ उपन्यास में दिखाती हैं। वह लिखती हैं- “रहमान सर जो शब्द बोल रहे थे, मेरे लिए परिचित होकर भी अजनबी से हो चले थे। मुझे उनके वाक्यों के अर्थ से ज्यादा वह लहजा और लय मोह रही थी। मैं इस मुलायम भाषा को पी रही थी, जो कभी मेरे बचपन की भाषा थी। अब तक मैंने न जाने कितनी भाषाएँ सीख ली हैं। एक लम्बे विस्थापन का इतिहास होती हैं, सीखी हुई भाषाएँ।”[xi] भाषा के बदलते रूप पर भी उपन्यासकार निरंतर चिंतन करता है।
इस प्रकार उपन्यासों मे लगातार विस्थापन की समस्या को उजागर करते हुए उसके सूक्ष्म पहलुओं पर विचार किया गया है। उपन्यास मे विस्थापन कई स्तरों पर दिखाई देता है जिसका प्रभाव व्यक्ति के मानसिक पटल पर पड़ता है। अपनी भूमि, भाषा, रहन- सहन, संस्कृति, रिश्तों आदि से निर्वासित मनुष्य को लंबे समय तक विस्थापन की पीड़ा कचोटती है। देश में सर्वाधिक आंतरिक विस्थापन उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, तमिलनाडु आदि राज्यों में हुआ है। वहीं वैश्विक स्तर पर मलेशिया, सीरिया, लीबिया, सूडान, म्यांमार आदि देशों के लोग भिन्न- भिन्न कारणों से विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। देश में या विश्व स्तर पर विस्थापन तेजी के साथ हो रहा है। इस पर अनेक रिपोर्ट हमेशा आती हैं और आती भी रहेंगी। समय के साथ रिपोर्ट में भले ही बदलाव आ जाए लेकिन यदि कुछ नहीं बदल रहा है तो विस्थापित लोगों का जीवन स्तर। वर्तमान में व्यक्ति का जीवन स्तर कैसे बेहतर हो, यही चुनौती संस्थान और सत्ता संरक्षित लोगों के सामने बनी हुयी है और जब तक बदल नहीं जाती, बनी भी रहेगी।
[i]रामदरश
मिश्र,
हिंदी उपन्यास एक अंतर्यात्रा, पृ.30.
[ii]रामचंद्र गुहा, भारत गांधी के बाद,
पृ.279
[iii]विजय
बहादुर सिंह,उपन्यास समय और संवेदना, पृ.18.
[iv]प्रभा
खेतान,
भूमंडलीकरण ब्रांड संस्कृति और राष्ट्र,
पृ.177.
[v]मैनेजर पाण्डेय,साहित्य
के समाजशास्त्र की भूमिका, पृ.134.
[vi]मनोज
सिन्हा (संपा.),समकालीन भारत एक परिचय, पृ.156.
[vii]अखिलेश, निर्वासन, पृ. 215
[viii]धीरेन्द्र
अस्थाना,
देश निकाला, पृ.120.
[ix]मैनेजर
पाण्डेय, भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा, पृ.192.
[x]रमणिका
गुप्ता (संपा.), आदिवासी विकास से विस्थापन, पृ.73.
[xi]मनीषा कुलश्रेष्ठ,शिगाफ़. पृ.92.
भावना, पीएच. डी. हिंदी, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
bhawnakaushik9911@gmail.com, 9911554579
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
यह लेख इतना सतही और विगलन- ग्रस्त, सत्य-पराङमुख ,पक्षपातपूर्ण, वामी दृष्टिकोण से लिखा गया मात्र सूचनात्मक, वह भी गलत और 'पालिटिक्स करेक्ट ' है .भारतीयता और भारतीय- सत्य से इसका कोई लेना देना नहीं.ऐसे भ्रामक लेख दुर्भाग्य पूर्ण हैं.
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