शोध आलेख : औपनिवेशिक काल में झारखण्ड के आदिवासियों का शोषण एवं संघर्ष (हिन्दी उपन्यासों के विशेष संदर्भ में)
प्रो. संजीव कुमार दुबे, सियाराम मीणा
शोध सार : साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी और पूंजीवादी ताकतों के
खिलाफ आदिवासियों का संघर्ष श्रृंखलाबद्ध आन्दोलन के रूप में औपनिवेशिक काल से
वर्तमान समय तक अनवरत चल रहा है। स्वतंत्रता पश्चात् इस संघर्ष के स्वरूप में
बदलाव आया है। औपनिवेशिक काल से लेकर वर्तमान तक आदिवासी समूह अपनी अस्मिता व
अस्तित्व और जल, जंगल,
जमीन के साथ साथ
परंपरागत अधिकारों, स्वशासन
को सुरक्षित एवं सरंक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस विषय को हिन्दी के
उपन्यासकारों ने अपनी रचनाओं में प्रमुखता से स्थान दिया है। इसी परम्परा में
राकेश कुमार सिंह ने ‘हुल
पहाड़िया’ और ‘जो इतिहास में नहीं है’ उपन्यासों के माध्यम से आदिवासी शोषण व
संघर्ष को सामने लाने का सफल प्रयास किया है। मधुकर सिंह ने ‘बाजत अनहद ढोल’ उपन्यास में संथाल आन्दोलन को ऐतिहासिक
संदर्भों के साथ चित्रित किया है। इन उपन्यासों को ऐतिहासिक ग्रन्थ तो नहीं कहा जा
सकता है लेकिन उपन्यासकारों ने घटनाओं को संदर्भित करने का सफल प्रयास किया है। इन
उपन्यासों में आदिवासियों के सामूहिक संघर्ष का स्वर उभर कर आता है। यह सामूहिक
संघर्ष उनकी अस्मिता व अस्तित्व को सुरक्षित एवं सरंक्षित करने का हथियार भी है।
औपनिवेशिक काल में आदिवासी संघर्ष चेतना की परम्परा रमना पहाड़िया से तिलका मांझी,
सिदो, कानो, बिरसा मुंडा, जयपाल सिंह मुंडा तक दिखाई देती है।
बीज शब्द : उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, आदिवासी आन्दोलन, जल, जंगल, जमीन, स्वायत्त स्वशासन।
मूल आलेख : औपनिवेशिक काल को सामाजिक, आर्थिक संक्रमण और राजनैतिक परिवर्तनों एवं संघर्षों का समय कहा जा सकता है। इस समय भारत में औपनिवेशिक सत्ता का प्रभाव तेजी से फैलने लगा था। जिसके कारण परम्परागत राजनीतिक और सामाजिक संस्थाएँ अपना अस्तित्व खो रही थी। मुग़ल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में अराजकता और अशांति का वातावरण बनने लगा। औरंगजेब के उतराधिकारी अयोग्य और शक्तिहीन होते गए। दूसरी तरफ ईस्ट इण्डिया कंपनी बिहार और बंगाल में अपना प्रभुत्त्व कायम करने में लगी थी। छोटा नागपुर सहित झारखण्ड के अन्य हिस्से 1765 ई. तक ईस्ट इण्डिया कंपनी के हिस्से बन चुके थे। इन क्षेत्रों में औपनिवेशिक शासन की स्थापना के साथ ही आदिवासियों की परम्परागत सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सस्थाओं में बदलाव आने लगे। ईस्ट इण्डिया कंपनी की व्यापारिक नीतियों का सीधा प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर होने लगा। यूरोपीय बाजारों में भारतीय नील की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए परम्परागत कृषि व्यवस्था में बदलाव किये जाने लगा। औपनिवेशिक सरकार के द्वारा परम्परागत कृषि की जगह नील उत्पादन को बढ़ाने लिए किसानों पर दबाव डाला जाने लगा। जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर संकट आने लगे। औपनिवेशिक भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बारे में कार्ल मार्क्स लिखते हैं कि “गाँव में जिन वस्तुओं का उत्पादन होता था उनका विनिमय गाँव की जनता तक ही सीमित था। कृषक फसल उगाता था, दूसरे कारीगर जैसे लुहार, बढ़ई, चमड़े का काम करने वाले, बुनकर आदि अन्य वस्तुओं का निर्माण करते थे। इस तरह गाँव के सम्पूर्ण उत्पादन का उपयोग गाँव की जनता ही करती थी।”1 ग्रामीणों की दैनिक आवश्यकताओं से सम्बंधित लगभग सभी प्रकार के व्यवसायों से सम्बद्ध लोग गांवों में निवास करते थे। जल, जंगल और जमीन पर आधारित स्त्रोत ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पूरक तत्व थे।
बंगाल और बिहार में ईस्ट इण्डिया कंपनी को दीवानी अधिकार मिलने के बाद इसके अधिकारी और कर्मचारी बेहिसाब तरीके से आदिवासी किसानों से लगान वसूल करने लगे। “आदिवासी इलाकों में बाहरी लोगों और औपनिवेशिक राज की घुसपैठ ने उनकी पूरी सामाजिक व्यवस्था को उलट-पुलट दिया। उनकी जमीन उनके हाथ से निकलती गई और धीरे-धीरे किसान मजदूर होते चले गये। जंगलों के उनके गहरे रिश्ते को भी औपनिवेशिक हमले ने तोड़ दिया। इससे पहले वे भोजन, ईधन और पशुओं के लिये चारा आदि जंगलों से जुटाते थे, जहाँ उनका जीवन पूरी तरह स्वच्छंद था। खेती के उनके अपने तरीके थे।”2 औपनिवेशिक बाजारवादी नीतियों से आदिवासी-किसानों के सामने आर्थिक संकट आने लगा। जंगलों पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों को समाप्त किये जाने लगा। औपनिवेशिक सत्ता से जुड़े लोगों ने आदिवासियों की परम्परागत आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में दखल देना प्रारंभ कर दिया था। उपनिवेशवादी सत्ता को जंगल के प्राकृतिक संसाधनों में बड़ा मुनाफा दिखाई देने लगा। इसके लिए जंगलों, पहाड़ों और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करने की नीतियाँ बनाई जाने लगी। जिसके चलते इन आदिवासी समुदायों में आक्रोश पनपने लगा। इन औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ राजमहल और छोटा नागपुर में आदिवासियों ने प्रतिरोध करना शुरू कर दिया।
औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ आदिवासी प्रतिरोध के स्वरों को तीन चरणों में रखा जा सकता है। प्रथम चरण (1765 ई. से 1860 ई.), जिसमें औपनिवेशिक सत्ता का उत्थान, प्रसार और स्थापना के प्रतिरोध में चलने वाले आदिवासी आन्दोलनों को माना जा सकता है। दूसरे चरण (1860-1920) में औपनिवेशिक सत्ता की साम्राज्यवादी और पूंजीवादी नीतियों के विकसित चरण के खिलाफ चलने वाले आदिवासी आन्दोलन और तीसरे चरण (1920-1947) में उन आदिवासी आन्दोलनों को रखा जा सकता है जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ-साथ चल रहे थे। भारत में ईस्ट इण्डिया कंपनी शासन की स्थापना के साथ ही खेतिहर और जंगलों से उपज प्राप्त करने वाले आदिवासी समुदायों पर आर्थिक दबाव बढ़ता गया। इस बढ़ते आर्थिक संकट से आदिवासियों की सामाजिक व्यवस्था में दखल होने लगा। औपनिवेशिक सत्ता से जुड़े कर्मचारियों और महाजनों व साहूकारों की आदिवासी घुसपैठ से आदिवासी समुदायों की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक व्यवस्था प्रभावित होने लगी। आदिवासी समूह भोजन, ईधन और पशुओं के लिए चारा आदि जंगलों से जुटाते थे। खेती के उनके अपने परम्परागत तरीके थे। औपनिवेशिक सत्ता ने जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों के बीच सदियों से चले आ रहे सम्बन्ध को तोड़ने का कार्य आरम्भ कर दिया।
औपनिवेशिक सत्ता की स्थापना के साथ ही आर्थिक लूट के लिए भू-राजस्व और वन कानून बनाकर कृषि से जुड़े क्षेत्र में वाणिज्यकरण एवं बाजारीकरण के नए तरीके का सूत्रपात हुआ। सामुदायिक भूमि को व्यापक पर स्तर निजी संपत्ति में तब्दील किया जाने लगा। औपनिवेशिक सत्ता ने भू-राजस्व और वन कानून बनाकर उपनिवेशवादी एवं उपभोक्तावादी आर्थिक संस्कृति को बढ़ावा दिया। जिसका मूल उद्देश्य ईस्ट इण्डिया कंपनी के शोषक हित की रक्षा और संपोषण करना था। औपनिवेशिक सत्ता की इन नीतियों से परम्परागत कृषि और जंगलों पर आधारित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था कमजोर होती चली गई। कृषि और जंगलों से प्राप्त होने वाले उत्पादों का वाणिज्यीकरण किया गया ताकि आदिवासी क्षेत्रों में आसानी से घुसपैठ की जा सके। औपनिवेशिक सत्ता की व्यापारिक और पूंजीवादी नीतियों ने आदिवासियों के परम्परागत हाट जोकि उनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थे उस पर सीधा हमला किया। ईस्ट इण्डिया कंपनी के द्वारा यूरोपीय व्यापारिक घरानों को वन उत्पाद व्यापार की इजारेदारी सौंप दी गई। औपनिवेशिक सत्ता के द्वारा वन कानून बनाकर आदिवासियों को जंगलों में शिकार करने, वनोपज और पशु चराने पर आदि पर रोक लगा दी गई। खेती की जमीन और जंगलों से प्राप्त होने वाले उत्पाद जो सामुदायिकता पर आधारित थे, उसे निजी घोषित कर दिया गया। वन विभाग की स्थापना होने के साथ ही सैन्य बलों के माध्यम से जंगलों पर कंपनी से जुड़े लोगों ने अधिकार जमाना शुरू कर दिया। “सन 1772 ई. में बंगाल के गर्वनर वारेन हेस्टिंग्स ने कप्तान ब्लक के नेतृत्व में 800 सैनिकों की टुकड़ी इस क्षेत्र में भेजी, इस निर्देश के साथ कि पहाड़िया को काबू में कर उनसे इस क्षेत्र में व्यवस्थित ढंग से खेतीबारी करानी है।”3 औपनिवेशिक शासन व्यवस्था ने आदिवासियों के प्राकृतिक दृष्टिकोण पर मानव निर्मित सत्ता को थोपना शुरू कर दिया। औपनिवेशिक सत्ता की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ आदिवासियों में विद्रोह की भावना पनपने लगी। इसके साथ ही बंगाल और बिहार के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में बाहरी लोगों का आगमन तेजी से होने लगा। “छोटा नागपुर में इन बाहरी लोगों को ‘दीकू’ कहा जाता था, जिसका तात्पर्य उन लोगों से था ‘जो परेशान करते है : बाहर वाले पूंजीवादी साहूकार।”4 अंग्रेज व्यापारी, कंपनी के पुलिस अधिकारियों के साथ-साथ साहूकार और बिचौलिये भी आदिवासियों का शोषण करने लगे थे। ईस्ट इण्डिया कंपनी के द्वारा सैनिक बल भेजकर इन क्षेत्रों से जबरन लगान वसूल किया जाने लगा। जिससे बंगाल और बिहार के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में ईस्ट इण्डिया कंपनी के खिलाफ आदिवासियों का प्रतिरोध बढ़ने लगा। इससे पहले इन क्षेत्रों में जिस भी शासक ने घुसने की कोशिश की उनका तीव्र विरोध आदिवासियों के द्वारा किया गया था। “अकबर के शासनकाल में जब राजा मानसिंह बंगाल-विजय पर निकले तो मानिहारी के खेतिहर परिवारों के सदस्यों ने साकरगढ़ के किले को फतह करने में राजा मानसिंह की मदद की। इनसे खुश होकर राजा मानसिंह ने राजमहल की जागीरदारी किसान परिवार के हवाले कर दी। परन्तु वहां के पुराने बाशिंदे, जिनमें संताल और पहाड़िया थे, ने कभी भी उस किसान परिवार के जागीरदार की अधीनता स्वीकार नहीं की। फलस्वरूप लगातार कई लडाइयों के पश्चात् उन्होंने सन 1765 के लगभग किसान जागीदार एवं उसके परिवार को साकरगढ़ किले से मार भगाया।”5
उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने ‘हुल पहाड़िया’ उपन्यास में औपनिवेशिक काल में ईस्ट
इण्डिया कंपनी की शोषणकारी और दमनकारी नीतियों के खिलाफ चलने वाले ‘पहाड़िया आदिवासी आन्दोलन’ को ऐतिहासिक संदर्भो के साथ चित्रित
किया है। मधुकर सिंह के ‘बाजत अनहद ढोल’ और राकेश कुमार सिंह का ‘जो इतिहास में नहीं है’ उपन्यास ‘संथाल आन्दोलन’ की पृष्ठभूमि पर लिखे गए हैं। ये तीनों
उपन्यास झारखण्ड के आदिवासी शोषण व संघर्ष को हिन्दी साहित्य जगत के बीच लाने में
गंभीर प्रयत्नों की श्रंखला को आगे बढ़ाते हैं। इन तीनों उपन्यासों में सिर्फ
इतिहास की गाथा ही नहीं बल्कि झारखण्ड के आदिवासियों का आर्थिक शोषण, स्त्री देह शोषण, बंधुआ मजदूरी के साथ-साथ उनके प्रतिरोध
की भावनाओं को भी उजागर करते हैं। बंगाल और बिहार में ईस्ट इण्डिया कंपनी को
दीवानी अधिकार मिलने के साथ ही आदिवासी क्षेत्रों में औपनिवेशिक शक्ति का प्रसार
तेजी से होने लगा, जिसके
खिलाफ छोटा नागपुर में सबसे पहले आदिवासी प्रतिरोध रमना पहाड़िया के नेतृत्व में
सामने आता है। जिसका चित्रण करते हुए राकेश कुमार सिंह ‘हुल पहाड़ियां’ उपन्यास में लिखते हैं कि “फिरंगियों को जंगल तराई की दीवानी
मिलने के बाद थीतोनाला, जामताड़ा
और कुड़हईत में कंपनी सरकार का विरोध करते हुए लड़ मरा था रमना आहाड़ी। मंचला पहाड़ की
तराई पहाड़ियां लोगों के रक्त से तर हो गई थी! कंपनी सरकार की कर वसूली के विरुद्ध
लड़ मरा था मनसा पहाड़ियां।”6 औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ झारखण्ड में रमना
पहाड़िया के इस प्रतिरोध को प्रथम आदिवासी संघर्ष के रूप में माना जाता है। जिसके
बारे में रमणिका गुप्ता लिखती हैं कि “1766 में सरदार रमना अल्हाड़ी 1200 पहाड़ियां
सैनिक की टुकड़ी लेकर मुगलों और अंग्रेजों की संयुक्त सेना के सामने आ डटे। मांचला
पहाड़ की तराई में दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ।”7 इस आन्दोलन से पहले ही औपनिवेशिक
सरकार के द्वारा आदिवासियों पर कई तरह से पाबन्दी लगाई जाने लगी थी। औपनिवेशिक
सरकार द्वारा “1728
में बिना जुते क्षेत्र, घास
के मैदान, चरागाह
एवं जंगलों को राजकीय सम्पति मान लिया गया।”8 जिसके कारण आदिवासियों के आर्थिक और
सामाजिक जीवन में बदलाव आने लगे। ईस्ट इण्डिया कंपनी की आर्थिक शोषण और दमनकारी
नीतियों के खिलाफ आदिवासी प्रतिरोध के स्वर तेज होते गए।
राकेश कुमार सिंह का ‘हुल पहाड़िया’ उपन्यास तिलका मांझी के नेतृत्व में चल रहे पहाड़िया आन्दोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। इस समय पड़े भीषण अकाल ने सामान्य जनजीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया। आदिवासी रैय्यतों से सस्ते दामों पर धान और वनोपज की खरीद करके उसे अकाल के समय इन्हीं आदिवासियों को ऊँचे दामों पर बेचा जाने लगा। ईस्ट इण्डिया कंपनी की इन नीतियों के बारे में उपन्यासकार लिखता है कि “अंग्रेज भविष्य द्रष्टा नहीं थे। दूरदर्शी व्यापारी थे। चावल के निर्यातक थे, जो धीरे-धीरे चावल खरीदते थे, पर अगले वर्ष की अल्पवृष्टि ने चावल की खरीद को तेज कर दिया था। इसके अगले वर्ष में तो ढूंढ-ढूंढ कर चावल ख़रीदा जाने लगा था। गाँव-देहात से बैल गाड़ियों का कलकत्ता तक ताँता लग गया था सर्वनाशी चावल खरीद के महाभियान के बाद तो गाँव जंगल के लोगों के पास जहर खरीदने भर का धान नहीं बचा था।”9 इस विकट परिस्थितियों के चलते आदिवासी किसानों के सामने कई तरह के संकट आने लगे थे। आदिवासियों से भीषण अकाल के समय भी ऊँची दर पर लगान वसूला जा रहा था। जिसके खिलाफ आदिवासियों ने तिलका मांझी के नेतृत्व में औपनिवेशिक सरकार की पुलिस और राजस्व इकट्टा करने कर्मचारियों, जमींदारों एवं साहूकारों पर गोरिल्ला पद्धति से हमले करना प्रारंभ कर दिया। जिसके बारे में उपन्यासकार लिखता है कि “वे छोटे-छोटे गिरोहों में बिखर कर शिकार कर रहे हैं। वे घात लगाते हैं। घेरते हैं। जनरल बार्कर दांत पीस रहा था।”10
आदिवासी क्षेत्रों में औपनिवेशिक सत्ता के साथ साथ बाहरी शोषक वर्ग प्रमुख रूप से साहूकार और महाजन वर्ग की घुसपैठ बढ़ने लगी। औपनिवेशिक सत्ता और साहूकारों की शोषणकारी नीतियों से आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक जीवन में भीषण हलचल पैदा होने लगी। आदिवासी समुदाय जो कि आंतरिक स्वायत्तता से अपना जीवन निर्वहन करते आ रहे थे उसमें अब परिवर्तन होने लगे थे। पहाड़िया “वे आदिवासी किसान थे जिनकी जमीनें छीनकर अंग्रेज शासकों ने जमींदारों को सौंप दी थी।”11 औपनिवेशिक सत्ता की पूंजीवादी नीतियों से आदिवासी क्षेत्रों में नये तरीके से ध्रुवीकरण होने लगा। यह ध्रुवीकरण दो वर्गों के बीच हो गया। एक तरफ ब्रिटिश अधिकारी, साहूकार और बिचौलिये थे जो कि आदिवासियों की जमीनों पर कब्ज़ा कर रहे थे। दूसरी ओर वे आदिवासी समुदाय थे जिनसे जंगल और जमीन के परम्परागत अधिकार छीने जा रहे थे। अकाल जैसे प्राकृतिक संकट से आदिवासी रैय्यतों की आर्थिक स्थिति पूरी तरह से चौपट होने लगी। इस भीषण अकाल के कारण आदिवासी जनजीवन पर संकट आ पड़ा था तो दूसरी तरफ शोषणकारी और दमनकारी ताकतें इन क्षेत्रों में अपनी शक्तियां बढ़ाने में लगी थी। आदिवासियों को कृषि और वनोपज पर लगान दिए जाने पर मजबूर किया जाने लगा था। आदिवासियों ने इस बढ़ते शोषण के खिलाफ अब एकजुट होकर प्रतिरोध करना शुरू कर दिया था। जिसका चित्रण करते हुए उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह लिखते हैं कि “जबरा के नेतृत्व में संगठित होने लगे थे पहाड़िया। युद्ध के लिए प्रस्तुत हो रहे थे पहाड़िया। कंपनी पलटन के आक्रमण को झेलने के लिए नहीं वरन् आक्रामक होने की ठान चुके थे पहाड़िया।”12
पहाड़िया आदिवासी अब छोटे-छोटे दल बनाकर
सरकारी डाक बंगलों पर सीधा आक्रमण करने लगे थे। जंगल के रास्ते से गुजरने वाले
साहूकारों, महाजनों,
व्यापारियों और
पुलिस चौकियों पर हमले करने लगे। आदिवासियों के इस प्रतिरोध में कई स्थानीय
जमींदार भी साथ दे रहे थे। ये वो जमींदार थे, जिन पर औपनिवेशिक सत्ता ने लगान की
भारी रकम लगा दी थी। इस स्थिति को राकेश कुमार सिंह ने अपने ‘हुल पहाड़िया’ उपन्यास में चित्रित किया है। उपन्यास
का पात्र ब्रिटिश अफसर मार्गेन कहता है कि “कंपनी के भय के कारण ही रजवाड़े-जमींदार
स्वयं खुलकर सामने नहीं आना चाहते, परन्तु वे अपने पड़ोसी जमींदारों से पुराने बैर
चुकाने के लिए पहाड़ियां आदिवासियों का इस्तेमाल करते हैं। इनसे ही संरक्षण पाकर
पहाड़िया लोगों का साहस बढ़ा है। यह कंपनी के लिए बढ़ा सिरदर्द साबित हो सकता है।”13 पहाड़िया आदिवासियों के बढ़ते
प्रतिरोध के कारण ईस्ट इण्डिया कंपनी ने इन क्षेत्रों में भारी संख्या में सैन्य
शक्ति को बढ़ा दिया। जिसका चित्रण करते हुए राकेश कुमार सिंह अपने उपन्यास में
लिखते हैं कि “अगला
महीना प्रारंभ होने से पूर्व कंपनी के सैन्य सलाहकार जनरल बाकर ने कैप्टन ब्रुक को
उसके आठ सौ प्रशिक्षित सैनिकों के विशेष दस्ते के साथ जंगलतराई में उतार दिया था।
कंपनी का सैन्य-गर्वनर कैप्टन ब्रुक पहाड़िया डकैतों के दमन के लिए अरण्यभूमि की ओर
कूच कर गया था।”14
राजमहल की पहाड़ियों में आदिवासियों और ईस्ट इण्डिया कंपनी के बीच संघर्ष शुरू होने
लगा। “1770
के दशक में ब्रिटिश अधिकारियों ने इन पहाड़ियों को निर्मूल कर देने की नीति अपना ली
और उनका शिकार और संहार करने लगे।”15 एक तरफ पहाड़िया आदिवासी समुदाय अस्मिता और
अस्तित्व के साथ साथ जंगलों, खेतों पर परंपरागत अधिकारों को बचाने के लिए
संघर्ष कर रहे थे तो दूसरी तरफ कंपनी अपनी उपनिवेशवादी नीतियों का विस्तार करने
में लगी थी। ईस्ट इण्डिया कंपनी के बढ़ते सैन्य अभियानों के चलते इन आदिवासी
क्षेत्रों में हिंसा का माहौल बनने लगा। सदियों से शांत रही राजमहल की पहाड़ियों
में अब हिंसा की लपटें तेजी से फैलने लगी। ईस्ट इण्डिया कंपनी की उपनिवेशवादी और
साम्राज्यवादी नीतियों को बढ़ाने लिए सबसे महत्वपूर्ण जरूरत जंगल ही थे। आदिवासियों
के सामाजिक-आर्थिक जीवन का आधार भी जंगल ही थे। इन जंगलों से होने वाली आय पर
कंपनी की नजर पड़ने लगी थी। आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक संस्थाओं पर अपना प्रभाव
बढ़ाने के लिए कंपनी अधिकारियों ने बर्बर अत्याचार शुरू कर दिया था। ईस्ट इण्डिया
कंपनी के सैन्य दस्ते आदिवासी गाँवों में लूटमार करने लगे। जिसके कारण आदिवासियों
और कंपनी के सैनिकों में संघर्ष बढ़ता गया। ईस्ट इण्डिया कंपनी के सैन्य दस्ते
आधुनिक हथियारों से लैस होकर जंगलों में उतरते तो दूसरी तरफ आदिवासी अपने पारंपरिक
हथियारों से उनका सामना कर रहे थे। “सन् 1770 में पूर्व पहाड़िया आदिवासियों ने
खेतउरी जागीदारों को सकरागढ़ क्षेत्र से मार भगाया था। उन दिनों भयंकर अकाल पड़ा था।
पहाड़िया लोग सरकारी खजाने को लूटने के लिए विवश हुए।”16
औपनिवेशिक सत्ता के बढ़ते दमन और शोषण के खिलाफ तिलका मांझी ने आदिवासियों को एकजुट करने का प्रयास किया। तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों के छोटे-छोटे गाँवों से आन्दोलन के लिए युवा लड़ाके तैयार होने लगे थे। आदिवासियों और कंपनी सेना के मध्य भयंकर रूप से टकराव होने लगे। ईस्ट इण्डिया कंपनी किसी भी तरह से इस आन्दोलन को दबाना चाह रही थी लेकिन उसे सफलता नहीं मिल रही थी। आन्दोलन को तोड़ने के लिए कंपनी हर तरीके से प्रयासरत थी। वहीं आदिवासी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थे। आदिवासियों ने अपने परम्परागत अधिकारों और स्वतंत्रता से समझौता करने से इंकार कर दिया। आदिवासी अपने परम्परागत तरीकों से औपनिवेशिक शक्तियों से मुकाबला कर रहे थे। पहाड़िया आदिवासियों के आन्दोलन की तीव्रता के सामने कंपनी सेना कमजोर पड़ने लगी। इसके बारे में तत्कालीन वीरभूम के जिला कलेक्टर ने लार्ड कार्नवालिस को पहाड़िया आन्दोलन को दबाने के लिए अधिक सेना की मांग के लिए पत्र लिखा कि “यहाँ हमारी जो सेना है, वह जिले की रक्षा के लिए ना काफी है। चढ़ाइयों के वक्त परम्परागत दस्ते अनुशासनहीन और हतोत्साह हैं।”17 ईस्ट इण्डिया कम्पनी की साम्राज्यवादी और पूंजीवादी नीतियों के साथ साथ महाजनी सभ्यता, सामंती शोषण के खिलाफ आदिवासी प्रतिरोध के स्वर तेज होने लगे। राजमहल की पहाड़ियों में सदियों से चली आ रही स्वच्छंद हवा में अचानक तेजी आने लगी। औपनिवेशिक सत्ता के शोषण और दमन के खिलाफ आदिवासी एकजुट होकर सीधे कपंनी सेना टकराने लगे थे। कम्पनी सैनिकों के अत्याधुनिक हथियारों के सामने पहाड़िया आदिवासियों के परम्परागत हथियार कमजोर पड़ते गए। उपन्यासकार राकेश कुमार चित्रण करते हुए लिखते हैं कि “एक अरब सात करोड़ पुरानी राजमहल की वे पहाड़ियां, जिन्होंने सर्वप्रथम उगते सूर्य को देखा था, अपनी आदि संतान पहाड़िया को अपनी पारंपरिक स्वतंत्रता के लिए जन्म-जन्म से संघर्षरत देखा था, अब वे पहाड़ियां गौरांग महा प्रभुओं के समक्ष अपने पहाड़ पुत्रों को विवश होता देख रही थी।”18 तिलका मांझी के नेतृत्व (1781-82) में आदिवासियों और कंपनी के सैनिकों के मध्य जबरदस्त मुठभेड़ हुई। जिसका ‘हुल पहाड़िया’ उपन्यास में राकेश कुमार सिंह चित्रण करते हैं कि “ईस्ट इण्डिया कंपनी का सहस्त्रशील दैत्य कई-कई जिह्याओं से पहाड़ियों का रक्त चाट रहा था। मृत्यु के कराल डैनों के नीचे निद्रा में सोते जा रहे थे पहाड़ के बेटे।”19 इस आन्दोलन के अधिकांश आदिवासी लड़ाके मारे गए। तिलका मांझी के बारे में यह माना जाता रहा है कि उनको कंपनी शासन ने युद्ध के आखिरी समय में पकड़ कर फांसी पर लटका दिया। उपन्यासकार इस घटना के बारे में चित्रण करते लिखता है कि “अंग्रेजी साम्राज्यवाद हेतु खतरनाक व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से वृक्ष की डाल से फांसी पर लटका कर मार डालने की अभिनव प्रथा के प्रथम प्रयोग का द्रष्टा बना था भागलपुर।”20 इस घटना के बारे में सी.आर. मांझी का मत है कि “बाबा तिलका मांझी को गिरफ्तार करने के बाद अंग्रेजों के प्रधान सेनापति आयरकूट ने उन्हें चार घोड़ों के बीच हाथ-पैर बांधकर सुल्तानगंज से भागलपुर तक घसीटा। इतने लम्बे रास्ते तक घसीटने पर भी जब उनकी मृत्यु नहीं हुई, तब उन्होंने बेरहमी से भागलपुर के चौराहे (वर्तमान तिलका मांझी चौक) पर एक बरगद के पेड़ की डाल से लटकाकर उन्हें फांसी दे दी गई।”21 पहाड़िया आदिवासी आन्दोलन अपने जल, जंगल, जमीन के साथ साथ अपने परम्परागत अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। इस आन्दोलन ने व्यापक स्तर पर आदिवासियों में चेतना का प्रसार किया। इस आन्दोलन के बारे में लार्ड क्लाइव ने लिखा है कि “निर्दयता और अत्याचारों का सिलसिला कंपनी के कर्मचारियों और उनकी आड़ में यूरोपीय एजेंटों और भारतीय उप एजेंटों ने शुरू किया है, वह इस देश में अंग्रेजों के नाम पर स्थायी कलंक रहेगा।”22
प्रारंभिक औपनिवेशिक दौर में जिस तरह से अत्याचार और शोषण की प्रक्रिया पूरे छोटा नागपुर क्षेत्र में चल रही थी। उसको उपन्यासकारों ने सामने लाने का गंभीर प्रयत्न किया है। ‘इस्तमरारी बंदोबस्त’ के कारण यहाँ के किसानों की जमीनों के मालिक अब जमींदार हो गये थे। जिसके बारे में मधुकर सिंह अपने ‘बाजत अनहद ढोल’ उपन्यास लिखते हैं कि “राजमहल के इर्द–गिर्द अँग्रेज निलहों ने बड़ी-बड़ी कोठियाँ स्थापित कर ली थी। लगभग एक शताब्दी पूर्व की ‘इस्तमरारी बंदोबस्ती’ उसके दिमाग में रू-ब-रू थी। उसे मालूम था कि हिंदुस्तानी जमींदार कैसे उनकी जमीनों के मालिक बनते चले गए।”23 स्थायी जमींदारी और महलवाड़ी व्यवस्था के प्रारंभ होने पर जमींदार अब मनमाने ढंग से रैय्यतों से लगान वसूलने लगे थे। जमीन से उत्पादन कम होने या अकाल पड़ने पर भी लगान वसूली में कोई छूट नहीं दी जाती थी। आदिवासी किसानों के पास लगान देने के लिए अब साहूकारों और महाजनों से ऋृण लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था। “समाज में जमींदार तथा साहूकार जिनकी ग्राम निवासियों को अब अधिक आवश्यकता होने लगी थी, बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए।”24 अंग्रेज, साहूकार, जमींदार, पुलिस प्रशासन, पुरोहित आदि सभी मिलकर आदिवासियों का शोषण करने में लगे थे। आदिवासियों ने जिस भूमि पर खेती करना प्रारंभ किया था वह अब उनके हाथों से निकलती जा रही थी। इस दौर में पड़े अकाल से उपजी स्थिति को मधुकर सिंह ने ‘बाजत अनहद ढोल’ उपन्यास में यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ चित्रित किया है। भीषण अकाल पड़ जाने के कारण इन आदिवासियों के पास भोजन का संकट पड़ने लगा। जिसके कारण ये आदिवासी उस वर्ष ‘सोहराई पर्व’ नहीं मानते हैं। उपन्यास का पात्र गाँव का पुरोहित राजमहल क्षेत्र के नये अंग्रेज अधिकारी के स्वागत हेतु गाँव वालों को यह त्यौहार मनाने के लिए कहता है। भीषण अकाल पड़ जाने के बाद भी ‘सोहराई पर्व’ मनाने का आदेश देता है। जिसका विरोध करती हुई उपन्यास की आदिवासी महिला पात्र जोबा कहती है कि “इस साल तो मुआर हो गया है। सोहराई तो हम तभी मनाते हैं, जब नए धान की ख़ुशी में देवी-देवताओं, पुरखे-पितरों और गोधन का पूजा-अर्चन और सगे-संबंधियों का मान सम्मान करते हैं। अकाल वर्ष सोहराई या बंधा पर्व कहाँ मनता है। इस साल तो हमारे पास खाने को धान नहीं, तो लोगों को कहाँ से भोज कराएँगे?”25 अकाल की मार से आदिवासी पहले ही कर्ज में डूब चुके थे। अब इस पर्व को मनाने के लिए भी उनको कर्ज लेना पड़ता है। इतना भीषण अकाल पड़ने के बाद भी गाँव के लोग इस अंग्रेज अधिकारी के स्वागत में यह पर्व मनाते हैं। उपन्यास के पात्र अंग्रेज अधिकारी पोटन के बढ़ते अत्याचारों से परेशान होकर आदिवासी ग्रामीण उसकी हत्या कर देते हैं। इसकी हत्या के बाद उसकी जगह नया अधिकारी कप्तान बेलौस आता है वह भी आदिवासियों पर भयंकर अत्याचार करता है। वह उपन्यास के पात्र महेश लाल दत्त दरोगा को पोटन की हत्या करने वाले को पकड़कर लाने का आदेश देता है। महेश दरोगा इन आदिवासियों को जबरदस्ती पुलिस थाने में ले जाकर उन पर फर्जी केस लगा कर जेल में बंद करने की धमकी देता है।
महेश दरोगा अंग्रेज पुलिस अधिकारी पोटन की हत्या के जुर्म में गोको नायक संथाल को गिरफ्तार कर लेता है लेकिन जुर्म साबित नहीं होने के कारण मज़बूरी में उसको छोड़ना पड़ता है। जिसके बारे में उपन्यासकार लिखता है कि “मामला साबित नहीं हो सका, इसलिए गोको संथाल को कोर्ट ने बरी कर दिया। मगर आदिवासियों में इसकी घोर प्रतिक्रिया हुई। असंतोष को इस घटना ने आकार देने शुरू कर दिया। तमाम संथाली, कुम्हार, तेली, लुहार, डोम, चमारों ने इस घटना को आदिवासी अस्मिता का सवाल बना दिया।”26 उपन्यास में महेश दरोगा एक शोषणकारी के रूप में सामने आया है। जो इन आदिवासियों को कानून का रौब दिखाकर उनका हर प्रकार से शोषण करता है। महेश लाल दत्त की हत्या का चित्रण करते हुए ‘बाजत अनहद ढोल’ उपन्यास में मधुकर सिंह लिखते हैं कि “सिदो मांझी से दरोगा की भेंट हो गयी। वे महेश दरोगा से बोले, ‘संथाल राज की प्रजा को कम्पनी के नौकर को गिरप्तार करने का अधिकार नहीं है। इन्हें छोड़ दो?’ उल्टे महेश दरोगा ने सिदो को अपमानित करने की कोशिश की और उन्हें भद्दी गलियां दी। सिदो सहन नहीं कर सके। उसका सीधे वध कर दिया।”27 महेश लाल दत्त की हत्या के बारे में विनोद कुमार का मत है कि “7 जुलाई को पंचकठिया के करीब दीघी थाना का दरोगा महेश लाल दत्त और नायक पुलिस की टुकड़ी के साथ सिद्धू, कान्हू को गिरप्तार करने पंहुचा। उसने समझने में भूल की थी। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। उसे भीड़ ने उसके दस्ते के साथ पकड़ लिया था। भरी जन-अदालत में दो दशकों में किये गए उसके अत्याचारों पर विचार करने के बाद दरोगा और सहयोगी का वध कर दिया।”28
औपनिवेशिक काल में रेलवे निर्माण कार्य
के दौरान आदिवासी शोषण की पीड़ा का मधुकर सिंह ने अपने उपन्यास में यथार्थ चित्रण
किया है। ‘बाजत
अनहद ढोल’ उपन्यास
का पात्र सुकेल कहता है कि “रेलवे लाइन में तो बड़ा अत्याचार है। गोरे
साहबों का जबरन हमसे बकरा-बकरी, मुर्गी छीन लेते हैं और प्रतिवाद करने पर जबरन
जुल्म ढाते हैं। संताली औरतें के साथ जानवरी सलूक किए और एक संथाल की हत्या भी कर
दी।”29
औपनिवेशिक काल में हो रही इस तरह की घटनाओं का चित्रण करते हुए राकेश कुमार सिंह
अपने ‘जो
इतिहास में नहीं हैं’ उपन्यास
में लिखते हैं कि “राजमहल
क्षेत्र में रेल मजदूरों की स्थिति टुकटुक ताकती रहने वाली उस बकरी की भांति थी
जिसकी आँखों के सामने से उसके छौने को उठा ले जाता है कसाई। रिरियाती-गिड़गड़ाती
आदिवासिनों को खिंचती देख माथे पर हाथ रखे मूक तकते रहते थे निर्बल वनवासी। प्रात:
घायल स्तनों, खरोचे
से भरे चेहरों और रक्त के थक्कों से लिथड़े योनिकेशों के साथ तम्बुओं से बाहर फेंक
दी जाती थी आदिवासियों की बेटियां, बहुएं, बहनें, नातिनें, पोतियां...। सामूहिक बलात्कार की शिकार
बनती आदिवासिनों की चीखें, क्रंदन और कराहे पिघले रांगे की भांति पुरुषों
के कानों में गिरती और बहती उतर जाती भीतर। जल जाती आत्मा। जल जाता प्रतिरोध भी।
शेष रहती हड्डियों की चलती-फिरती ठठरियां जिन पर मांस-मज्जा मानो प्रत्यारोपित थी।”30 उपन्यासकार आगे लिखता है कि “रेल विभाग में ठेका चलाने वाले ठेकेदार
आदिवासी किशोरियों-युवतियों को प्राय: अपने तम्बू में खींच ले जाते थे। कभी अकेली,
कभी दसियों
आदिवासिनें मद्यप ठेकदारों और वर्षों से स्त्री-सुख को तरसते रेल अधिकारियों की
वासनापूर्ति हेतु उठा ली जाती थी।”88
रेलवे लाइन के निर्माण कार्य में आदिवासी महिलाओं के साथ हो रही अभद्रता और शोषण के बारे में इतिहासकार पी. एल. गौतम लिखते हैं कि “रेलवे लाइन के निर्माण के दौरान उनके पशु-पक्षी उठा ले जाना और संथाल महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाया जाना अंग्रेजों और अन्य कर्मचारियों के लिए सामान्य बात थी।”31 रेलवे लाइन के निर्माण में आदिवासियों का आर्थिक और शारीरिक शोषण बढ़ता ही जा रहा था। इस शोषण में अंग्रेजों के साथ-साथ स्थानीय शोषणकारी तत्व भी शामिल हो गये थे। जिसमें महाजनों और साहूकारों के द्वारा आदिवासियों का शोषण अधिक होने लगा था। इस महाजनी प्रथा का चित्रण करते हुए राकेश कुमार सिंह ‘जो इतिहास में नहीं है’ उपन्यास में लिखते हैं कि “अनावृष्टि और अल्पवृष्टि का शिकार, पठारों पर बसे वनवासी सरकारी कर चुकाने हेतु प्राय: महाजनों से कर्ज लेने पर विवश रहते थे। वनवासियों ने संचय को कभी महत्त्व ही नहीं दिया था। जो कमाया, खाया-उड़ाया। फलस्वरूप गाढे समय में ऋण के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता था।”32 औपनिवेशिक सत्ता के द्वारा आदिवासी शोषण का चित्रण करते हुए मधुकर सिंह अपने उपन्यास में लिखते हैं कि “जमींदार और ज्यादा सही कहा जाये तो गुमास्ते, प्यून, महाजन, कर्मचारी, पुलिस, तहसीलदार, अदालत-कचहरी के नौकरशाह-कर्मचारी मिलकर एक साथ संथालों का भयंकर शोषण करते, जबरन सम्पति हड़पकर अपमानित करते। दमन, मारपीट और उत्पीड़न का जाल पसरा हुआ था।”33 औपनिवेशिक काल में आदिवासियों के साथ इस तरह से शोषण के ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि करते हुए इतिहासकार विपिनचंद्र लिखते हैं कि “जमींदार, पुलिस, राजस्व और अदालतों ने सथालों पर बेइंतहा जुल्म ढाए। उनकी जमीन-जायदाद छीन ली। हर कदम पर संथालों को अपमानित किया जाता और मारा पीटा जाता था। संथालों को कर्ज देकर 50 से 500 फीसदी की दर से ब्याज वसूला जाता था, मेहनतकश संथालों को उजाड़ देते। उनके खड़ी फसलों पर हाथी दौड़ा दिये जाते थे। यह अत्याचार आम बात हो गई थी।”34 ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों, पुलिस, महाजन-जमींदारों और रेलवे निर्माण ठेकेदारों के द्वारा आदिवासियों का आर्थिक व शारीरिक शोषण बढ़ने लगा था। इसी शोषण के खिलाफ यह आन्दोलन प्रारंभ हुआ। जिसमें सुकेल, वीरसिंह मांझी के साथ कई संथाली और गैर संथाली लोग सिद्धू और कान्हू के साथ आकर जुड़ने लग गए थे। औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ यह प्रथम आन्दोलन था जिसमें छोटा नागपुर के सभी शोषित वर्गों के लोग शामिल थे। ‘बाजत अनहद ढोल’ उपन्यास का पात्र सिद्धू भी यही कहता है कि “जन-आन्दोलन अकेला संथाली ही नहीं चला सकते। जन आन्दोलन में हमें सबका सहयोग चाहिये। लोहार भाइयों ने हमें कुठार, टांगी और अस्त्र-शस्र बनाकर दिये हैं।”35 संथाल आन्दोलन में आदिवासियों को स्थानीय स्तर पर दूसरे वर्गों से मिले समर्थन के बारे में अश्विनी कुमार पंकज लिखते हैं कि “इस जनयुद्ध में समाज के सभी वर्गों और समुदाय के लोग शामिल थे। अनेक कारीगर जातियों व समुदायों ने न केवल हिस्सा लिया बल्कि जनयुद्ध के लिए आवश्यक साजो सामान व हथियार जुटाए। लोहारों ने तीर, कुल्हाड़ी, भाला फरसा तैयार किया तो बढइयों ने लाठियां और चर्मकारों ने जूते और पेटियां उपलब्ध करायी। जुलाहों ने कपड़े बुने तो कुम्हारों ने विद्रोहियों को पानी पीने के लिए मिट्टी के बर्तन उपलब्ध कराए।”36
राकेश कुमार सिंह भी अपने उपन्यास ‘जो इतिहास में नहीं हैं’ में संथाल आन्दोलन की उन गुत्थियों को
खोलते हैं जिन्हें इतिहास में जगह नहीं मिली है लेकिन आदिवासी जन-समुदाय के बीच वे
आन्दोलनकारी जीवंत नायक की भांति विद्यमान हैं। ‘जो इतिहास में नहीं है’ उपन्यास संथाल आन्दोलन पर केन्द्रित
होने के बाद भी इसके नायक-नायिका हारिल मुरमू और लाली है। इन दोनों की उन्मुक्त
प्रेम कहानी की माध्यम से इस उपन्यास की रचना की गई है। इस उपन्यास में हारिल
मुरमू संथाल आन्दोलन के गुप्तचर रूप में सामने आता है। संथाल आन्दोलन में हारिल
मुरमू जैसे अनेक गुप्तचर रहे हैं जो आन्दोलन की शुरुआत से लेकर इसके अंत तक बने
रहे। ऐसे सैकड़ों गुप्तचर जो इस आन्दोलन में शहीद हुये जिनको इतिहास अपने पन्नों में
जगह नहीं दे पाया उनको इस उपन्यास के जरिये राकेश कुमार सिंह ने सामने लाने की सफल
कोशिश की है।
उपसंहार- इतिहास को लेकर समय-समय पर सहमतियां और असहमतियां दर्ज की जाती रही है। कई बार वे व्यक्ति, समुदाय संघर्ष, प्रतिवाद हाशिये पर रह जाते हैं या नेपथ्य में चले जाते हैं, जिन्होंने उस दौर के नुकीले प्रहार भी सहे होते हैं। भारतीय इतिहासकारों के द्वारा आदिवासियों के संघर्ष को प्राय: नेपथ्य में रखा जाता रहा है। आदिवासी संघर्ष के अतीत को रचाने बसाने का यह सिलसिला सिर्फ उनके लोक भावों की गाथाओं के सन्दर्भ में ही घटित नहीं होता वरन् उनकी स्मृतियों के मानसपटल पर भी अंकित होता है। निरंतर बाहरी आक्रमण होते रहने के बाद भी आदिवासी समूह हताश होकर बैठने वाले कभी नहीं रहे। इसका विवरण हमें निरंतर चलने वाले आदिवासी प्रतिरोधी के स्वरों में इन समुदायों का इतिहास मिलता है। ये उपन्यास सिर्फ इतिहास की गाथा को ही नहीं कहते हैं बल्कि आदिवासियों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक शोषण की स्थिति को चित्रित करते हुए उनके प्रतिरोध की भावनाओं को भी उजागर करते हैं। औपनिवेशिक काल से लेकर वर्तमान तक आदिवासी समूह अपनी अस्मिता व अस्तित्व और जल, जंगल, जमीन के साथ साथ परंपरागत अधिकारों, स्वशासन को सुरक्षित एवं सरंक्षित रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जिसे हिन्दी के साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में प्रमुखता से स्थान दिया है। इसी परम्परा में राकेश कुमार सिंह और मधुकर सिंह ने अपने उपन्यासों के माध्यम से आदिवासियों के शोषण एवं संघर्ष को सामने लेकर आने का सफल प्रयास किया है। इन उपन्यासों को ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है लेकिन उपन्यासकारों ने घटनाओं को संदर्भित करने का सफल प्रयास किया है। इन उपन्यासों में आदिवासियों के सामूहिक संघर्ष का स्वर उभर कर आता है। यह सामूहिक संघर्ष उनकी अस्मिता व अस्तित्व को सुरक्षित एवं सरंक्षित करने का हथियार भी है। औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ आदिवासी संघर्ष की यह चेतना प्रेमचंद के रंगभूमि उपन्यास के नायक सूरदास के ‘तब तक लड़ेंगे जब तक जीत नहीं जायेंगे’ के स्वर को और भी मजबूती प्रदान करती है।
संदर्भ
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22. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, तिलका मांझी, नयी किताब, दिल्ली, संस्करण-2011, पृ.सं-38
23. मधुकर सिंह, बाजत अनहद ढोल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण- 2007, पृ.सं.-9
24.बी.एल. ग्रोवर, अलका मेहता आदि, आधुनिक भारत का इतिहास, (सम्पादित) एस.चंद एंड कंपनी लिमिटेड,
नई दिल्ली,
संस्करण-26,
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25.मधुकर सिंह, बाजत अनहद ढोल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण- 2007, पृ.सं.-8
26. वही, पृ.सं.-13
27. वही, पृ.सं.- 91
28. विनोद कुमार, आदिवासी संघर्ष गाथा, प्रकाशन संस्थान,संस्करण- 2015, पृ.सं. 48
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दिल्ली, द्वितीय
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31. पी.एल. गौतम, आधुनिक भारत का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2015, पृ.सं.- 422
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33.मधुकर सिंह, बाजत
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प्रकाशन, नई
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संस्करण-2007, पृ.सं.-14
34. बिपिनचन्द्र, मृदुला, मुखर्जी आदि (सम्पादित), भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, पेंगुइन प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं.-16
35. मधुकर सिंह, बाजत अनहद ढोल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण- 2007, पृ.सं.-पृ.सं.- 82
36. चौबे, देवेन्द्र चौबे, बद्रीनारायण पटेल आदि, 1857 भारत का पहला मुक्ति संघर्ष (सम्पादित), प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, संस्करण- 2008, पृ.सं.- 275
प्रो. संजीव कुमार दुबे, अध्यक्ष, हिन्दी अध्ययन केंद्र, गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर
sanjeev.dubey@cug.ac.in, 8140241172
सियाराम मीणा, शोधार्थी,
srkmeena92@gmail.com, 7848203602
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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