शोध आलेख :
भूदान ट्रस्टीशिप का महत्तम विस्तार: एक विश्लेषणात्मक अध्ययन / राखी प्रजापत और कोमल तूनवाल
शोध सारांश :
वर्तमान समाज-व्यवस्था स्पर्धा एवं विषमता की नींव पर खड़ी है जिसके फलस्वरूप गरीबी एवं बेकारी ने अपने पांव पसार रखे है। भारत की गरीबी एवं बेकारी को अहिंसात्मक उपायों से मिटाने के संदर्भ में गांधीजी एवं विनोबा ने आरंभ से ही प्रयत्नशील थे । जिसमें गांधीजी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत एवं विनोबा भावे का भूदान-यज्ञ महत्वपूर्ण है। भूदान का बीजतत्व गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में है। भूदान मानवीय दृष्टिकोण में परिवर्तन के लिए एक क्रांतिकारी प्रक्रिया थी जो कि भूमि का स्वामित्व भूमिपतियों से हस्तांतरित होकर भूमिहीन के पास जाने की अवधारणा थी। विनोबा ने गांधीजी को न केवल कार्यों,
विचारों या कथनों के आधार पर समझने का प्रयत्न किया,
अपितु उनकी आत्मा एवं हृदय को भी पहचाना। भूदान,
ग्रामदान,
प्रखंडदान आदि धारणाओं के विकास में गांधीवाद को समुन्नत बनाने में विनोबा की अद्वितीय प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का अपूर्व योग रहा है। उन्होंने न केवल भूदान के माध्यम से गांधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को पुष्पित एवं पल्लवित किया बल्कि इसको महत्तम विस्तार देते हुये इसमें युग की आवश्यकता को सामने रखकर कुछ नवीन धारणाओं का भी प्रवेश कराया।
बीज शब्द :
भूदान,
ट्रस्टीशिप,
व्यक्तिवादी,
समष्टिवादी,
संन्यासवाद,
पलायनवादी,
उपभोग।
मूल आलेख :
भूदान के प्रवर्तक आचार्य विनोबा भावे गांधीजी के अनुयायी एवं गांधी मंत्र के श्रेष्ठतम धारक थे। गांधीवाद के सच्चे प्रतिनिधि संत विनोबा भावे को गांधीजी की आत्मा,
गांधीवाद के सच्चे भाष्यकार एवं गांधीजी के नैतिक व आध्यात्मिक उत्तराधिकारी कहा गया है। गांधीजी के अनन्य अनुयायी होने के नाते विनोबा भावे अपने मार्गदर्शक की इच्छा पूरी करना चाहते थे। इसलिए जहां एक तरफ सैद्धांतिक क्षेत्र में वे गांधीजी के विचारों की व्याख्या एवं स्पष्टीकरण शास्त्रीय ढंग से करते हुये गांधीजी की अहिंसा के आधार पर नई-नई अवधारणाओं का निर्माण करते हैं। वहीं दूसरी तरफ व्यावहारिक रूप से वे गांधीजी की अहिंसा का प्रयोग देश के नये आर्थिक,
राजनैतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में करते हैं। गांधीवादी विचारधारा के अग्रणी व्याख्याकार विनोबा भावे द्वारा स्वाधीनता बाद कृषि जोतों में विद्यमान असमानता से उत्पन्न आर्थिक वैषम्य को दूर करने एवं भारतीय कृषकों की दशा में सुधार हेतु
1951 में भूदान आंदोलन का प्रारंभ किया। इसका बीजतत्व गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में है तथा यह उनकी इन उक्तियों में भी अंतर्भूत जान पड़ता हैं कि “सच्चा समाजवाद तो हमें अपने पूर्वजों से प्राप्त हुआ है,
जो हमें यह सिखा गये हैं कि
‘सबे भूमि गोपाल की’,
इसमें कहीं तेरी और मेरी की सीमाएं नहीं हैं।”1 उनके
अनुसार “लोगों को यह सत्य मान्य करना चाहिए कि सारी जमीन भगवान की है। अगर भूमि की मालिकी समाज में हों,
तो मौजूदा असंतोष खत्म हो जायेगा और प्रेम तथा सहकार का नया जमाना शुरू हो जाएगा।”2 भूदान ग्रामीण जीवन में विभिन्न स्तरों पर सामाजिक सहृदयता का विकास था।
ट्रस्टीशिप एवं भूदान-यज्ञ का दर्शन
वर्तमान परिदृश्य में समाज की आर्थिक-व्यवस्था के संदर्भ में मूलतः दो विचार प्रचलित हैं प्रथम व्यक्तिवादी (पूंजीवादी) एवं द्वितीय समष्टिवादी (समाजवादी) विचार। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मुख्यतया व्यक्तिगत स्वामित्व का समर्थन करता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति को अपनी क्षमतानुसार उपार्जन करने का पूर्ण अधिकार है। ऐसी अर्थ-संरचना का मुख्य आधार मांग एवं पूर्ति का नियम है। इस तरह की आर्थिक संरचना का मुख्य परिणाम प्रतिस्पर्धा, उपनिवेशवाद, अमीर और गरीब के बीच विषमता, शोषण और स्वार्थपरता हैं लेकिन इसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह अर्थ-रचना व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार उत्पादन करने हेतु प्रेरित करती है जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है लेकिन समष्टिवादी विचार व्यक्तिवादी व्यवस्था का घोर विरोधी है। यह विचारधारा व्यक्तिगत स्वामित्व को ही शोषण का मुख्य कारण मानती है। अतः यह अर्थ-रचना, उत्पादन एवं वितरण के कार्यों को राज्य के हाथों में सौंपता है। ऐसी व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति की स्वाभाविक उत्पाद की प्रेरणा नष्ट हो जाती है एवं वह अपनी समस्त स्वतंत्रता खो कर यंत्रवत् जीवन व्यतीत करती है। आर्थिक वैषम्य को नष्ट करने हेतु इसमें हिंसा का आश्रय भी लिया जाता है जो कि समस्या समाधान का वास्तविक एवं उचित उपाय नहीं है लेकिन इस अर्थ-रचना की मुख्य विशेषता है कि यह व्यवस्था अर्थ वितरण व्यापक स्तर पर संपूर्ण समाज में करना चाहती है। इन दोनों अर्थ-रचना के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार का दृष्टिकोण है जो कि आर्थिक जीवन को तिरस्कृत करके परलोकमुखी जीवनयापन की आकांक्षा करता है जिसको पलायनवादी विचार कह सकते है इसका मूलाधार है संन्यासवाद। इस तरह के विचार में मूलतः सरल व त्यागमय जीवन को उचित माना जाता है एवं आर्थिक उत्पादन व प्रगति को उपेक्षित किया जाता है। इस प्रकार की दृष्टि में संपूर्ण अच्छाइयों के बावजूद सामाजिक एवं भौतिक वास्तविकता को तिरस्कृत कर दिया जाता है। अतः ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के अंतर्गत गांधीजी के द्वारा उपरोक्त तीनों सिद्धांतों की बुराइयों को त्यागकर उनकी अच्छाइयों को ही ग्रहण किया गया। जिसके अंतर्गत उन्होंने व्यक्तिवादी व्यवस्था से व्यक्तिगत स्वामित्व और उसका अभिक्रम, समष्टिवादी व्यवस्था से समाज-कल्याण एवं परलोकवादियों से अर्थ विमुखता व त्यागमय जीवन को मिलाकर ट्रस्टीशिप का सिद्धांत दिया।3
गांधीजी के अनुसार “संरक्षकता ऐसा साधन प्रदान करती है,
जिससे समाज की मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था समतावादी व्यवस्था में बदल जाती है। इसमें पूंजीवाद की तो गुजाइंश नहीं है,
मगर यह वर्तमान पूंजीपति-वर्ग को अपना सुधार करने का मौका देती है। इसका आधार यह श्रद्धा है कि मानव-स्वभाव ऐसा नहीं है,
जिसका कभी उद्धार न हो सके।”4 इसके
अंतर्गत व्यक्तिगत स्वामित्व समाज के पवित्र धरोहर के रूप में रहता है एवं सामाजिक संपदा भोग के लिये नहीं अपितु जन-कल्याण के लिये मानी जाती है। इस सिद्धांत का आधार ईशोपनिषद् का पहला श्लोक “इस जगत में जो कुछ भी जीवन है वह सब ईश्वर का बसाया हुआ है इसलिये ईश्वर के नाम से त्याग करके तू यथा प्राप्त भोग किया कर। किसी के धन की वासना न कर।”5 अतः
ट्रस्टीशिप से आशय है कि जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं से अतिरिक्त संपत्ति को एकत्रित करता है उसे केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पर्याप्त संपत्ति का उपयोग करने का अधिकार है,
शेष संपत्ति का प्रबंध उसे एक ट्रस्टी की हैसियत से धरोहर मानकर समाज-कल्याण हेतु करना चाहिए। इस सिद्धांत के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वामित्व समाज के पवित्र धरोहर के रूप में रहता है। यह सिद्धांत समाज की नवीन आर्थिक-संरचना के संबंध में विशेष रूप से मालकियत एवं आर्थिक वितरण के प्रश्न पर नैतिक और अहिंसक समाधान का एक प्रयास है।
विनोबा के अनुसार सही अर्थों में ट्रस्टीशिप के सिद्धांत से आशय है शरीर, बुद्धि एवं संपत्ति इन तीनों के माध्यम से जो भी प्राप्त हो उसे सभी के हित में लगाना।6 यह अपरिग्रह का उतम उपाय है।7 लेकिन विनोबा द्वारा ट्रस्टीशिप शब्द के स्थान पर ‘विश्वस्त-वृति’शब्द का प्रयोग किया गया।8 जिसका अर्थ है - दूसरे पर भरोसा रखते हुये जीना।9 वे इस बात पर बल देते है कि मनुष्य को किसी पर आश्रित नहीं रहना चाहिए, परंतु इस स्वावलंबन के सिद्धांत का यह कदापि अर्थ नहीं है कि वह दूसरों पर भरोसा करना बंद कर दें। विश्वस्त-वृति से उनका तात्पर्य था “मां-बाप को संतान पर, संतान को मां-बाप पर, पड़ोसियों को पड़ोसियों पर, राजा ही नहीं भिन्न-भिन्न राष्ट्रों को एक-दूसरे पर विश्वास करना चाहिये।”10 इस तरह से गांधीजी जहां मुख्यतः संपत्ति के संबंध में ट्रस्टीशिप की बात करते है वहीं विनोबा सभी प्रकार की शक्तियों के सामाजिक उपयोग पर बल देते है। गांधीजी के द्वारा जहां कानून के ज्ञाता होने के कारण ‘ट्रस्टीशिप’ शब्द का प्रयोग किया गया, वही विनोबा भावे का संन्यासी होने के नाते ‘विश्वस्त-वृति’शब्द के प्रयोग को उचित माना गया। विनोबा विश्वस्त-वृति को सामाजिक रचना का स्थायी मूल्य तो प्रदान करते है लेकिन इसके मूल में वे नैतिकता और आध्यात्मिकता पर विशेष बल देते है। इसके संबंध में विनोबा की महत्वपूर्ण देन है कि उन्होंने गांधीजी का ट्रस्टीशिप सिद्धांत का विनियोग सामाजिक रचना के क्षेत्र में करते हुये भूदान की धारणा का विकास किया। जहां गांधीजी ट्रस्टीशिप के तहत वितरण का निश्चित शास्त्रीय रूप से पल्लवित कर पाये वहीं विनोबा ने ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को महत्तम विस्तार देते हुये भूदान, संपत्तिदान एवं ग्रामदान आंदोलन के माध्यम से इसे तय कर दिया। उन्होंने दान के द्वारा भूमि, संपत्ति की समस्या का निराकरण व स्वावलंबन युक्त परस्पर विश्वासपूर्ण समाज की रचना की कल्पना को साकार करके ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का महत्तम विस्तार प्रस्तुत किया।11
ट्रस्टीशिप एवं भूदान-यज्ञ दोनों की नींव ‘अपरिग्रह’ के सिद्धांत पर रखी गई थी। जहां ट्रस्टीशिप के अंतर्गत नाममात्र के व्यक्तिगत स्वामित्व की परिकल्पना की गई है वहीं भूदान में संपत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व के लिये नाममात्र भी स्थान नहीं रह जाता लेकिन दोनों के मूल में अपरिग्रह का सिद्धांत निहित है। गांधीजी के अनुसार ट्रस्टीशिप का सिद्धांत सभी पर लागू होगा। उनके शब्दों में “प्रत्येक व्यक्ति,
जिसके पास अपने समुचित भाग से अधिक संपत्ति है उस अधिक भाग का ट्रस्टी बन जाता है। बुद्धिशाली व्यक्ति को अधिक धन पैदा करने दिया जायेगा,
किन्तु उसके धन का राज्य के हित में उपयोग होगा। उसे वैसी सम्मानित जीविका का उपभोग करने का अधिकार है,
जैसी जीविका का दूसरे लोग उपभोग करते है,
शेष संपत्ति समाज की है और समाज के हित के लिये इसका उपयोग होना चाहिये।”12 जहां
उन्होंने इस सिद्धांत को विशेष रूप से धनी,
जमींदारों और पूंजीपतियों के ऊपर लागू किया वहीं विनोबा द्वारा भूदान योजना को अमीर-वर्ग,
गरीब-वर्ग सभी पर लागू किया,
वे धनी-गरीब सभी वर्ग से दान लेते थे। विनोबा के अनुसार “भूदान यज्ञ का पहला कदम है,
‘दान’
और अंतिम कदम है,
‘न्यास’। दान का अर्थ है
- देना,
‘संविभाग’। यानी अपने पास जो चीज है,
उसका एक हिस्सा समाज को देना। दान में किसी पर उपकार करने की भावना नहीं होती। बल्कि मनुष्य यही महसूस करता है कि मैंने समाज से भर-भरकर पाया है,
मैं समाज का अत्यंत ऋणी हूं। इसलिए अपने पास जो चीज है,
वह समाज की देन है और उसके प्रसाद के तौर पर ही हम उसका सेवन कर सकते है। साथ ही चूंकि वह समाज की देन है और समाज का हम पर उपकार हुआ है,
इसीलिए उसका एक अंश हम समाज को देते रहेगें,
तभी हमे उसे भोगने का अधिकार होगा।”13 उनके अनुसार दान या उदारता जीवन के लिये आवश्यक है। व्यक्ति के द्वारा दान नहीं करने से सामाजिक बुराइयां उत्पन्न होगी जिसके फलस्वरूप ऐसे रोग उत्पन्न होंगे जो न केवल शारीरिक और मानसिक अपितु सामाजिक भी होंगे।14
गांधीजी एवं विनोबा भावे यह उम्मीद करते थे कि धनी व्यक्ति भूमि एवं संपत्ति के ट्रस्टी होंगे गांधीजी के अनुसार मेरा ट्रस्टीशिप का सिद्धांत अस्थायी विकल्प नहीं है और निश्चित रूप से इसमें कुछ छिपाने योग्य नहीं है। मुझे विश्वास है कि अन्य सिद्धांतों कि अपेक्षा यह कहीं अधिक दीर्घजीवी है। इसके पीछे दर्शन तथा धर्म की स्वीकृति है।15
विनोबा भावे ने जमींदारों एवं धनिक लोगों से अपील करते हुये कहा कि जो संपत्ति उन्हें ईश्वर से ट्रस्ट के रूप में मिली है,
उसका एक हिस्सा पड़ोसियों को दान कर दें।16
भूमि के दान हेतु उन्होंने तेरह वर्ष तक भारत के विभिन्न भागों में लगभग
36,500 मील की पैदल यात्रा में
44 लाख एकड़ भूमि गरीब,
अमीर और मध्यमवर्ग के दाताओं से प्राप्त की।17
वर्तमान समाज की आर्थिक, सामाजिक विषमता के मूल में यही अन्याय विद्यमान है। आज समाज में बल के प्रयोग के द्वारा कुछ लोगों को भूमि के अधिकार से वंचित कर दिया गया है। आचार्य विनोबा के अनुसार भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व के आधार पर कुछ लोगों को भूमिहीन रखना एक तरह से अन्याय है। इनके अनुसार ईश्वर ने पृथ्वी, जल, तेज, वायु, एवं आकाश जैसे पंचतत्वों का निर्माण सभी प्राणीयों के लिये किया हैं। अतैव प्रकृति की चीजों पर सभी का एक समान अधिकार है। जल, वायु, तेज व आकाश का उपभोग सभी जीव स्वाभाविक रूप से करते हैं अतः इसी तरह पृथ्वी का उपभोग भी सभी को समान रूप से प्राप्त होना चाहिये। उनके शब्दों में “जैसे हवा, पानी और सूरज की रोशनी भगवान की देन है वैसे जमीन भी भगवान की देन है, इसलिए जो बेजमीन है, उन्हें जमीन देनी चाहिए।”18 वे मानते थे कि सारी भूमि ईश्वर की है एवं भूमि, संपत्ति तथा संसाधनों का स्वामित्व ईश्वर को घोषित करना चाहिए। इसीलिए वे पूंजीपतियों एवं जमींदारों को दानी बनने की सलाह देते हुये भूमिदान हेतु प्रेरित करते रहते थे। उनके अनुसार “सूर्य घर-घर जा पहुंचता है। उसकी जितनी रश्मि राजा पाता है, उतना ही एक मेहतर भी। भगवान कभी भी अपनी चीज का असमान रूप से वितरण नहीं करता। यदि ईश्वर ने हवा-जल, प्रकाश और गगन में वितरण में भेदभाव नहीं किया है तो यह कैसे संभव है कि उसने भूमि का सब लोगों में बराबर-बराबर वितरण न कर केवल कुछ लोगों के हाथ में उसे छोड़ दिया?”19 अतः भूदान से तात्पर्य था कि स्वैच्छा से भूमि का दान अर्थात् दूसरों के साथ मिलकर उसका उपयोग करना। यह दूसरों को इस भावना के साथ दी जाती है कि देने वाले के पास जो वस्तु है उसका उपयोग दूसरों के साथ मिलकर किया जा सके जिससे कि भूमिहीनों की भूमि से संबधित समस्या का निराकरण किया जा सके विनोबा अहिंसा की शक्ति से संपूर्ण सामाजिक ढांचे में परिवर्तन करना चाहते थे।
भूदान में अहिंसा के प्रयोग के संदर्भ में विनोबा कहते है कि “भूदान-यज्ञ से बेजमीनों को जमीन मिलती है,
एक मसला हल होता है। इस काम का जितना महत्व है,
उससे बहुत ज्यादा महत्व इस बात का हैं कि एक तरीका हाथ में आया। अहिंसा की शक्ति निर्माण करने को एक युक्ति हमारे हाथ लगी।”20 भूदान-यज्ञ की बुनियाद में यह विचार मूल है कि सारे समाज को अपना सब कुछ समर्पित करना ही व्यक्ति का परम् कर्तव्य है।21
उनका मानना था कि भूदान के माध्यम से जनता को सत्याग्रह की शक्ति मिलेगी एवं मानवता के ऊपर विश्वास बढ़ेगा।22
अतः विनोबा भावे का भूदान आंदोलन का मुख्य सिद्धांत यही है कि सभी को भूमि का बराबर अधिकार प्राप्त हो। जिसके लिये यह आवश्यक था कि देश की सारी भूमि का न्यायपूर्वक वितरण किया जाये एवं प्रत्येक परिवार को कम-से-कम एक एकड़ सिंचाई की सुविधा वाली भूमि या पांच एकड़ सिंचाई से रहित जमीन प्रदान की जाये। भूदान मानवीय दृष्टिकोण में परिवर्तन के लिए एक क्रांतिकारी प्रक्रिया थी जिसके द्वारा भूमि का स्वामित्व भूमिपतियों से लेकर भूमिहीन के पास जाने की अवधारणा थी।
निष्कर्ष :
विनोबा का व्यक्तित्व विलक्षण था। उनमें गहन ज्ञान, उत्कंठ भक्ति और सातत्यभरा कर्मयोग तीनों का अद्भुत समन्वय था। विनोबा ने भूदान यज्ञ के माध्यम से तत्कालीन समय में प्रचलित अन्यायपूर्ण भू-व्यवस्था के विरुद्ध न केवल उपयुक्त वातावरण निर्मित किया अपितु कुछ हद तक उसका निराकरण भी किया। महात्मा गांधी ने ट्रस्टीशिप के माध्यम से सामुदायिक प्रेम का बीज बोया जिसका परिणाम ही था कि भूदान आंदोलन एक व्यापक स्तर पर पहुँच गया। भूदान आंदोलन वस्तुतः जमीन भिक्षा का आंदोलन न होकर एक अन्यायपूर्ण प्रचलित भू-व्यवस्था के विरूद्ध अहिंसक सत्याग्रह था। इसके बीजतत्व गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में अंतर्निहित है। वस्तुतः ट्रस्टीशिप के माध्यम से गांधीजी भी एक सार्वभौमिक जीवन-पद्धति का निर्माण करना चाहते थे। परंतु स्वाधीनता के पश्चात् तुरंत ही उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें इस सिद्धांत की विस्तृत योजना बनाने का उचित अवसर एवं समय ही नहीं मिला। लेकिन विनोबा ने वास्तव में गांधीजी की छिपी भावना को साकार रूप देने का प्रयास करते हुये ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को भूदान के माध्यम से महत्तम विस्तार दिया।
भूदान यज्ञ भूमि संबंधी अन्याय के विरूद्ध में एक अहिंसक तरीका था। विनोबा ने गांधीजी को न केवल कार्यों,
विचारों या कथनों के आधार पर समझने का प्रयत्न किया,
अपितु उनकी आत्मा एवं हृदय को भी पहचाना। अतैव उन्होंने न केवल गांधीजी के कथित विचारों का शास्त्रीय ढंग से निरूपण किया अपितु उनके द्वारा बतलाये गये रचनात्मक कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने के साथ-साथ नई परिस्थितियों में नये विचारों एवं नई धारणाओं का भी विकास किया। विनोबा ने न केवल भूदान के माध्यम से गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को पल्लवित एवं पुष्पित किया अपितु इसको महत्तम विस्तार देते हुए उसमें युग की आवश्यकता को सामने रखकर कुछ नवीन धारणाओं का भी प्रवेश कराया।
संदर्भ
:
1. दशरथ सिंह : गांधीवाद को विनोबा की देन, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी,
पटना,
1975, पृ.
543
2. विनोबा भावे
: भूदान-यज्ञ,
नवजीवन प्रकाशन मंदिर,
अहमदाबाद,
1953, पृ.
23
3. दशरथ सिंह : पूर्वोक्त, पृ.
428 - 429
4. महात्मा गांधी
(भारतन कुमारप्पा द्वारा संपादित)
: सर्वोदय,
नवजीवन पब्लिशिंग हाउस,
अहमदाबाद,
1954,पृ.
56
5. ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।
6. विनोबा भावे : सर्वोदय विचार और स्वराज्य-शास्त्र, अखिल
भारत सर्व-सेवा संघ प्रकाशन,
राजघाट काशी,
1953, पृ.
134
7. वही,
पृं.
133
8. वही,
पृ.
134
9. वही,
पृ.
134
10. वही,
पृ.
134
11. दशरथ सिंह
: पूर्वोक्त,
पृ.
437
12. गोपीनाथ दीक्षित : गांधीजी की चुनौती कम्युनिज्म कों, नवजीवन प्रकाशन मंदिर,
अहमदाबाद,
2000, पृ.
126
13. एस.
रामभाई : विनोबा एंड हिज मिशन, सेवाग्राम,
वर्धा,
1954, पृ.
96
14. महात्मा गांधी
(भारतन
कुमारप्पा द्वारा संपादित)
: पूर्वोंक्त,
पृ.
55
15. एस.
रामभाई : पूर्वोंक्त, पृ.
170
16. चारूचंद्र भंडारी : भूदान -यज्ञ क्या और क्यों, सर्व-सेवा-संघ प्रकाशन,
वाराणसी,
1956, पृ.
2-3
17. श्री मन्नारायण : ऋषि विनोबा (जीवन और कार्य),
सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन,
राजघाट,
वाराणसी,
दूसरा संस्करण,
1984, पृ.
291
18. विनोबा : भूदान - गंगा, (प्रथम भाग),
अखिल भारत सर्व-सेवा-संघ प्रकाशन,
राजघाट,
काशी,
1957, पृ.
94
19. सिद्धराज ढढ्ढा : भूदान से ग्रामदान, सर्व-सेवा-संघ प्रकाशन,
वाराणसी,
1957, पृ.
8
20. बाबूराम मिश्र : भूदान का आर्थिक आधार, नागरी प्रचारिणी सभा,
वाराणसी,
1957, पृ.
55
21. विनोबा : भूदान - गंगा, (चतुर्थ भाग),
अखिल भारत सर्व-सेवा-संघ प्रकाशन,
राजघाट,
काशी,
1957, पृ.
61
22. वही, पृ. 234
राखी प्रजापत, सीनियर रिसर्च फैलो,
अहिंसा एवं शांति विभाग, जैन विश्वभारती संस्थान,
लाडनूं,
7300224323, rakhiprajapat7065@gmail.com
कोमल तूनवाल, सीनियर रिसर्च फैलो, अहिंसा एवं शांति विभाग, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं, komaltoonwal1565@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
एक टिप्पणी भेजें