शोध आलेख : दो दिलों को बाँटती विभाजन रेखा / सोफिया सलाथिया
शोध सारांश :
भारत विभाजन भारतीय इतिहास की एक भयावह
त्रासदी है। सदियों से एक साथ रहने वाले हिन्दोस्तानियों को विभाजन के तहत अलग
होना पड़ा। उन्हें विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। विभाजन की भयानक घटना को बीते आज 73
वर्ष से अधिक का समय हो गया है किंतु इसके निशान आज भी देश में देखे जा सकते हैं।
घृणा की नींव पर हुए बंटवारे के ज़ख्म आज भी हरे हैं। इस त्रासद घटना की दु:खद
यादें तब और ताज़़ा हो जाती हैं जब देश में साम्प्रदायिकता की आग भड़कती है।
साम्प्रदायिकता और पुन: विभाजन जैसी स्थितियां उत्पन्न होने के इस दौर में असगर
वजाहत का ‘जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ’ नाटक 1947 के
बंटवारे में हुए नंरसहार के त्रासद माहौल की याद तो दिलाता ही है साथ ही साथ
मानवता का संदेश देता है ।
बीज शब्द : विभाजन, साम्प्रदायिकता, असहिष्णुता, त्रासदी, मानवता, कट्टरपंथी, सत्तालोलुपता, विस्थापन, नरसंहार ।
मूल आलेख :
भारत विभाजन यह भारत के इतिहास की एक
अत्यंत नृशंस विनाशकारी घटना है। भारत की अनेक भाषाओं के साहित्यकारों ने इस घटना
को लेकर विविध विधाओं में साहित्य सृजन किया है। हिन्दी भाषा के साहित्यकार भी इस
बात के लिए अपवाद नहीं। विभाजन का घटनाक्रम तथा उसके परिणाम एक विस्तृत फलक पर
साहित्य रचना को पर्याप्त सामग्री प्रदान करते हैं। उसमें मानवीय संवेदना को उजागर
करने वाले तत्त्व मौजूद थे, जिसमें तटस्थ रहना भी लेखक के लिए संभव
नहीं था। इस विभीषिका ने संवदेनशील साहित्यकारों को झकझोर कर रख दिया। प्रख्यात
उपन्यासकार यशपाल का दो खंडों में प्रकाशित उपन्यास झूठा सच विभाजन की त्रासदी पर
हिन्दी में लिखा गया पहला ऐसा उपन्यास है जो इसे विराट ऐतिहासिक-राजनीतिक फलक पर
प्रस्तुत करता है। इसका पहला खंड ‘वतन और देश’ 1958 में और दूसरा
खंड ‘देश का भविष्य’ 1960 में प्रकाशित हुआ था। पहले खंड की
घटनाएं विभाजनपूर्व के लाहौर में घटित होती हैं और दूसरा खंड विभाजन के बाद के
दिल्ली में केन्द्रित है। उपन्यास 1942 से लेकर 1957 तक के कालखंड
का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करता है। विभाजन को लेकर लिखा गया भीष्म साहनी का
उपन्यास ‘तमस’ भी यशपाल के झूठा सच की तरह ही आधुनिक क्लासिक
की श्रेणी में रखा जाता है। लेखक को इसे लिखने की प्रेरणा 1970
में भींवड़ी, जलगावं और महाड़ में हुए सांप्रदायिक दंगो से
मिली थी और वहां के दौरे में उनकी रावलपिंडी की यादों को ताजा कर दिया था। इस
उपन्यास में सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने की तकनीक और विभिन्न समुदायों के बीच
असुरक्षा और दूसरे समुदायों के प्रति नफरत पैदा करने की प्रक्रियाओं का इसमें
चित्रण हुआ है। राही मासूम रजा का आधा गांव भी विभाजन से पहले की घटनाओं और इसके
कारण सामाजिक ताने-बाने के छिन्न-भिन्न होने की प्रक्रिया को पाठकों के सामने लाता
है। यह हिन्दी का पहला ऐसा उपन्यास जिसमें भारत विभाजन के समय की शिया मुसलमानों
की मन:स्थितियों का सटीक शब्दांकन मिलता है। 1947 के
परिप्रेक्ष्य में लिखे गए इस उपन्यास में साम्प्रदायिकता के विरुद्ध गहरा प्रहार
है। यह मन:स्थितियां उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के गंगौली गांव को केन्द्र में
रखकर उकेरी गर्इ है। बदी उज्मा का छनको की वापसी और कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान’
भी
विभाजन पर हिन्दी में लिखे गए उल्लेखनीय उपन्यासों में गिने जाते हैं।
इस विषय पर अनेक कहानियां भी लिखी गई हैं। अज्ञेय की कहानी ‘शरणदाता’, कृष्णा सोबती ‘सिक्का बदल गया’, भीष्म साहनी ‘अमृतसर आ गया’, मोहन राकेश की ‘मलवे का मालिक’, द्रोणवीर कोहली ‘बेजबान’, विष्णुप्रभाकर ‘मैं जिंदा रहूंगा’, दे्रवेंद्र इस्सर की ‘नंगी तस्वीरे’ इत्यादि। हिन्दी कवियों ने विभाजन की ओर बहुत कम ध्यान दिया है। इस संबंध मे एक उल्लेखनीय कविता याद आती है ‘शरणार्थी’। अज्ञेय द्वारा रचित यह लम्बी कविता ग्यारह खंडों में लिखी गई है और उस समय की त्रासदी का बेहद मार्मिक चित्रण करती है।
विभाजन बींसवी शताब्दी की एक त्रासदपूर्ण
और कारुणिक घटना है। इस प्रक्रिया के तहत असंख्य लोग अपने घर और परिवेश से उजाड़
दिये गए। वो घर जिसमें लोगों को सुरक्षा का एहसास होता है। घर से अर्थ केवल मिट्टी
या इंटों की दीवारों से नहीं है। इसमें हम अपने पूर्वजों, बड़े बुजु़र्गों
की स्मृतियों और उनकी स्नेह-छाया में सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं। विभाजन ने आवाम
से उनकी सुरक्षा का वह एहसास और बड़े बुज़ुर्गों की वह स्नेहशील छाया छीन ली। कई पीढ़ियों से साथ रहते आ रहे लोगों को उस परिवेश से नाता तोड़ना पड़ा जिससे उनकी
स्मृतियां जुड़ी थीं। जो उन्हें अपनी मातृभूमि और अस्तित्व से जुड़े होने का एहसास
कराता है। विभाजन की घटना ने सभी मानवीय मूल्यों को दरकिनार कर दिया था। सांझी
संस्कृति और परम्पराएं नष्ट हो गई थीं। बदहाली के इस परिवेश में रहना और बसना
अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। डॉ. रजी अहमद इस संदर्भ में कहते हैं –“वर्षों
पहले आजादी का देखा हमारा सपना बड़ी जद्दोजहद के बाद पूरा हुआ और हम 15
अगस्त 1947 को गुलामी का जुआ उतार फेंकने में कामयाब हुए, लेकिन
साथ ही हमें दो हिस्सों में बंट जाने का दर्द भी झेलना पड़ा। उस बंटवारे का ज़ख्म
आज भी हरा है, लिहाज़ा उसकी आड़ में की जा रही राजनीति कम
उलझी हुई नहीं है।’’1 बंटवारे के समय सत्ता संघर्ष भी जोरों पर था।
सत्ता प्राप्त करने के लिए हिन्दू और मुस्लिम दोनों नेता आपस में लड़ रहे थे।
दोनों स्वयं को एक दूसरे से नया और सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए संघर्षरत थे।
मतभेद इस हद तक बढ़ गया था कि दोनों कौमों के बीच हिंसक झड़पें होना शुरू हो गई थीं। असग़र वजाहत ने अपने साहित्य में दोनों समुदायों के आपसी मतभेदों को चित्रित
किया है। नफ़रत, द्वेष भावना और साम्प्रदायिकता इंसान को किस
प्रकार पशुतुल्य व्यवहार की ओर अग्रसर कर रही थी इसे वजाहत ने अपने लेखन के माध्यम
से रूपायित किया है।
बंटवारे की त्रासदी की कीमत व्यापक
स्तर पर भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों को चुकानी पड़ी। दोनों गुटों को असहनीय
पीड़ा से गुज़रना पड़ा। दोनों अपना घर छोड़ने पर विवश हुए। नाटक में विभाजन के समय
सिकंदर मिर्जा के परिवार को लाहौर में एक कोठी एलाट होती है। कोठी में एक हिन्दू
वृद्ध महिला पहले से डटी है। ऐसे में दोनों असमंजस की स्थिति में हैं। एक को बड़े
संघर्षों के बाद लाहौर की यह हवेली मिलती है दूसरे के लिए अपने ही घर को छोड़ना
असंभव है। ज़ाहिर है उस समय दोनों समुदाय के लिए अपनी मातृभूमि को छोड़ना बड़ा
मुश्किल काम था। वर्षों से एक ही जगह पर रह रहे व्यक्ति को उसके घर-बाहर ज़मीन
जायदाद से अलग कर दिया गया।
बँटवारे की राजनीति का दर्द जिन हिन्दू-मुस्लिमों ने भोगा। उसका दर्द
उन्हें मरते दम तक सालता रहा। यह बँटवारा दो देशों में न होकर दो समुदायों में हुआ। भारत को हिन्दुओं का देश माना गया जबकि
पाकिस्तान को मुस्लिमों का राष्ट्र घोषित किया गया। रतन जौहरी की मां को मिर्जा का
परिवार भारत भेजना चाहता है सिर्फ इसलिए क्योंकि वो हिन्दू है। मिर्जा का परिवार
भी पाकिस्तान इसलिए आया था क्योंकि वह मुस्लिम परिवार है। मिर्जा धर्म के आधार पर माई को भारत जाने के लिए कहता है, “देखिए जो कुछ हुआ हमें सख्त अफसोस है
... लेकिन आपको तो मालूम ही होगा कि अब पाकिस्तान बन चुका है ... लाहौर पाकिस्तान
में आया है ... आप लोगों के लिए अब यहां कोई जगह नहीं है... आपको हम कैम्प
पहुंचा आते हैं ... कैम्प वाले आपको हिन्दुस्तान ले जाऐंगे...।”2
मिर्जा के अनेक प्रयासों के बावजूद रतन की मां हवेली छोड़ने को तैयार नहीं थी।
विडम्बना देखिए कि दोनों के पास हवेली के कागज़ात थे। दोनों यह दावा करते हैं कि
हवेली उनकी है। यह प्रशासन के घिनौने खेल का ही परिणाम है कि उसने हिन्दू-मुस्लिम
दोनों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया।
इस तरह बंटवारे के परिणाम पूर्णत:
नकारात्मक थे। धर्म के नाम पर चारों तरफ लूट मची थी। हिन्दू मुस्लिमों के घर लूट
रहे थे। मुस्लिम हिन्दुओं के घर बर्बाद करने पर अड़े थे। दोनों अपनी-अपनी नीचता का
परिचय एक-दूसरे की हत्या करके दे रहे थे। साम्प्रदायिक वैमनस्य की आग ने सैकड़ों
निर्दोष और असहाय लोगों के जीवन को जहन्नुम बना दिया। बच्चों पर तो सबसे अधिक
ज़ुल्म किए गए। बच्चों को बेरहमी से पटक-पटक कर मारा जा रहा था। उन्हें आग में
जिंदा जलाया जा रहा था। उस दौरान स्त्रियों को तो दोहरी रणनीति का शिकार होना
पड़ा। हत्या करने से पहले उनका सतीत्व लूटा जा रहा था। कुछ को तो ज़बरदस्ती
यहां-वहां घसीटा जा रहा था। बंटवारे की इस बर्बादी की ओर संकेत करती हुई हमीदा
बेगम कहती है, “बहन ... सैंकड़ों-हजारों लोग मार डाले गए ...
तबाह बर्बाद हो गए ...।”3 लेकिन कुछ ऐसे भी परिवार थे जो अब भी
इस उम्मीद पर ज़िदा थे कि कभी न कभी उन्हें अपनों के बारे में कोई सूचना मिलेगी।
कभी न कभी उनके अपने घर लौटेंगे। रतन की मां बंटवारे के इतने वर्षों बाद भी इसी
सोच से जिंदा हैं कि उसका बेटा रतन एक दिन घर ज़रूर वापिस आएगा। अपनी उम्मीद को
ज़िंदा रखते हुए वृद्ध महिला हमीदा से कहती है, “सैंकड़ों बच भी
तो गए।”4 इस तरह कई परिवार मरते दम तक अपनों की तलाश में रहे। ज़रा सी आहट
उन्हें हर वक्त यह एहसास कराती रही कि कहीं उनका अपना तो लौट कर नहीं आया। अपने
बेटे और सब कुछ दंगों में लुट जाने के बाद उसके पास घर के सिवा बचा भी क्या था। वह
घर जिसमें उसके बेटे की यादें थीं।
विभाजन के समय का परिवेश बेहद
वीभत्सपूर्ण था। लोगों की सम्पत्तियाँ लूटी जा रही थी। चारों तरफ खूनी होली खेली
जा रही थी। लोग मानवीय संबंधों को पूरी तरह भुला चुके थे। बंटवारे के समय लोग
विवेकहीन हो चुके थे। जिनके साथ गहरे सौहार्दपूर्ण रिश्ते थे उन्हें बेरहमी से
मारा जा रहा था। लोगों को उनके घर से निकालने के लिए नापाक मंसूबों को अंजाम दिया
जा रहा था। मिर्जा भी वृद्ध महिला को घर से निकालने के लिए उसे धमकी देता है। वह
उसका ध्यान इस बात की ओर ले जाता है कि यदि घर नहीं छोड़ा तो वह मजबूरन गलत मार्ग
का चुनाव करेगा अर्थात गुण्डे-बदमाशों की सहायता से वह किसी भी तरह उसे घर से
निकालेगा। किंतु अपने निर्णय पर अडिग बूढ़ी महिला जान देने को तैयार है किंतु अपना
घर छोड़ने को तैयार नहीं है। नाटक में रतन की मां में सहिष्णुता और सेवा बराबर
देखने को मिलती है। वह कदापि नहीं चाहती थी कि वह मिर्जा के परिवार को घर से बाहर
निकाल कर वहां अकेली रहे। वह बस इतना चाहती थी कि उसे उसके घर से अलग न किया जाए।
वह मिर्जा के परिवार को वहीं उसके साथ रहने के लिए कहती है। इतना ही नहीं उनकी
छोटी-छोटी जरूरतों और सुविधाओं का पूरा ध्यान रखती है। मिर्जा के बच्चों को अपने
पोता-पोती मानती है। हमीदा के कान दर्द का इलाज भी करती है। असग़र वजाहत ने जहां
वृद्ध महिला और मिर्जा के परिवार के माध्यम से नये संबंधों को कायम करने की कोशिश
की है। एकाकी धर्म आधारित समाज एवं सभ्यता के बजाय विभिन्न जातियों व धर्मों पर
आधारित राष्ट्र अधिक शक्तिशाली होता है। क्योंकि एक ही स्थान पर रहने वाले विभिन्न
धर्मों के लोग एक-दूसरे से बहुत कुछ अच्छा प्राप्त करते हैं। विभिन्नता में एकता
का निर्माण करते हैं। दोनों एक दूसरे से भिन्न होने पर भी आंतरिक और बाहरी
समस्याओं को मिल-जुलकर सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसी ही मिली-जुली संस्कृति और
सभ्यता हमारे देश की उपलब्धि रही है। सदियों से अनेक धर्मों और संस्कृतियों के
लोगों ने एकजुट होकर राष्ट्र के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। संगठित
होकर देश पर आने वाले संकटों का डटकर मुकाबला किया। किंतु धर्म के नाम पर होने
वाले विभाजन ने सब नष्ट कर दिया। पहले से पाकिस्तान बसे हिन्दुओं को यह एहसास करवाया
गया कि अब उनका उस ज़मीन पर कोई हक नहीं है। सिर्फ इसलिए क्योंकि वो हिन्दू हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि बंटवारे से एक राष्ट्र के ही टुकड़े नहीं हुए बल्कि
लोगों के आपसी रिश्ते भी प्रभावित हुए।
स्वशासन और स्वाधीनता का उद्देश्य
प्राप्त करने की दिशा में हिन्दोस्तानियों के त्याग और बलिदान को देखकर अंग्रेज डर
गये थे। इसलिए अंग्रेज़ जन आंदोलन को अपने ढंग से दिशा देने में जुट गये।
साम्प्रदायिक ताकतों को भड़काकर वे अपनी सत्ता कायम रखना चाहते थे और यह कार्य
उन्होंने बड़े कौशल से किया। अपनी कूटनीति व षड्यंत्रों से उन्होंने भारतीय
राजनीति को ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया जहां पहुंचकर सत्ताधारियों को विभाजन के
इलावा दूसरा कोई रास्ता ही नहीं सूझा। फलस्वरूप 15 अगस्त 1947 को
राष्ट्र का बंटवारा हो गया। जिस भयानक मंजर से बचने के लिए बंटवारे को स्वीकारा
गया। वही गतिविधियां विभाजन के समय और उसके बाद और भयावह हो गयी थीं। राममनोहर
लोहिया विभाजन के आठ कारण बताते हुए कहते हैं, - ‘‘एक ब्रितानी कपट,
दो
कांग्रेस नेतृत्व का उतारवय, तीन हिन्दू-मुस्लिम दंगों की प्रत्यक्ष
परिस्थिति, चार जनता में दृढ़ता और समरथ का अभाव, पांच
गांधी जी की अहिंसा, छ: मुस्लिम लीग की फूटनीति, सात
आए हुए अवसरों से लाभ उठा सकने की असमर्थता और आठ हिंदू अहंकार।’’5
विभाजन के दौरान जो नरसंहार हुआ वह
भारतीय इतिहास का ही नहीं, विश्व इतिहास की एक करुण त्रासद घटना
है। श्री प्रियवंद ने विभाजन को भारत के इतिहास मे एक त्रासद नारक कृति कहा है। वे
कहते हैं- “त्रासद इसलिए कि विभाजन का कारण न तो कोई बाहरी आक्रमण था न गृहयुद्ध, न उत्पादन पूंजी या बाजार की आर्थिक
विशेषताएं, न ही कोई प्राकृतिक प्रकोप या स्थाई भौगोलिक अवरोध। प्रत्यक्ष रूप से यह करोड़ों मनुष्यों का संवैधानिक रूप में अपना
प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं के माध्यम से स्वेच्छा से चुना हुआ निर्णय था।”6 यह
दुर्घटना करोड़ों लोगों के विस्थापन की समस्या से जुड़कर और भी भयावह हो उठी।
बंटवारा एक अभिशाप बनकर उभरा। जिन लोगों का यह विश्वास है कि भारत की स्वतंत्रता
हमें सत्य, अहिंसा और शांति से प्राप्त हुई। उनको अपनी
सोच में परिवर्तन लाना होगा कि भारत की स्वतंत्रता रक्तहीन क्रांति से नहीं
प्राप्त हुई बल्कि उसके मूल्य के रूप में राष्ट्र को जो महारक्तदान करना पड़ा
उसे कैसे भुलाया जा सकता है। इस तरह विभाजन महज़ एक घटना नहीं बल्कि इतिहास का वह
कलंकित अध्याय है जिसमें इंसानियत को दरकिनार कर दिया गया। बंटवारे के समय अलगाव
और टूटन की जो प्रक्रिया शुरू की गई वह आज अपने विराट रूप में सामने आ रही है।
विभाजन ने मानवीय संबंधों में जो दरार और उलझनें पैदा की वह अब तक मौजूद है। भारत
की विश्व को एक परिवार मानने की अवधारणा को यह दोनों सम्प्रदाय चुनौती में बदल रहे
हैं। इस संदर्भ में वजाहत लिखते हैं, “विश्व को परिवार मानने की भारतीय
अवधारणा पूरे सभ्य संसार में फैल रही है लेकिन दु:ख की बात यह है कि भारत से गायब
हो रही है। यह चिंता का विषय है। आज भारतीय समाज में धर्म, जाति, वर्ण,
रंग,
नस्ल
के नाम पर जितना विरोध है, जितनी हिंसा हो रही है, शायद
पहले कभी नहीं हुई। बांटो और राज करो की नीति कारगर तरीके से भारत पर लागू हो
रही है।’’7
सन् 1947 में विभाजन की
रेखा दो देशों में न खींचकर दो दिलों में खींच दी गई। दो कौमों में आपसी भाईचारा खत्म हो गया। इसके लिए अंग्रेजों का द्विराष्ट्र सिद्धांत ज़िम्मेदार
था। दोनों समुदायों में अलगाव पैदा करके उन्होंने मुसलमानों में दूसरे राष्ट्र
बनाने की भावना पैदा की। अंग्रेज़ों के साथ-साथ देश का सत्ताधारी वर्ग भी कम ज़िम्मेदार
नहीं है। एक साथ हंसता-खेलता राष्ट्र साम्प्रदायिकता के कारण उजड़ गया। इस संदर्भ
में तन्नो और हमीदा का संवाद पाकिस्तान के निर्माण पर प्रश्नचिह्न लगाता है,
“तन्नो : अम्मा अगर हम लोग एक ही घर में
रह सकते हैं तो हिन्दूस्तान में हिन्दू और मुसलमान क्यों नहीं रह सकते?
हमीदा बेगम: रह सकते क्या ... सदियों से रहते आये थे।
तन्नो : फिर पाकिस्तान क्यों बना?”8
इस तरह तन्नो तमाम गुटपरस्त
राजनीतिज्ञों पर प्रश्न खड़ा करती है। लाहौर जहां कुछ समय पहले हिन्दू-मुसलमान
दोनों मिल-जुल कर रह रहे थे। जहां दोनों कौमों का व्यापार-व्यवसाय फल-फूल रहा था।
होली और र्इद साथ-साथ मनाये जा रहे थे। मन्दिर की घंटियां और अजान की आवाजें
साथ-साथ गूंजती थीं। बंटवारे के बाद वहां की दुनिया वीरान हो चुकी थी। रतन की मां
बरसों से लाहौर में अपने तीज-त्योहार बड़े हर्षोल्लास से मनाती आर्इ है। किंतु
विभाजन के बाद त्योहारों को मनाने की मिर्जा से इजाजत लेनी पड़ती है। क्योंकि
बंटवारे के समय लाहौर को पाकिस्तान में शामिल किया गया। अब पाक मुस्लिम बहुल
क्षेत्र है जो घृणा, हिंसा, क्रूरता और संकीर्णता की बुनियाद पर
बना है। अत: रतन को अपने ही घर में दीपावली का त्योहार डर-डर के मनाना पड़ता है।
इस तरह पाकिस्तान बनने के बाद दोनों मुल्कों के लोगों में डर शंका और घृणा पनपी।
‘जिन लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ’
नाटक
में वजाहत ने पहलवान नामक पात्र की भी चर्चा की है। फिरकापरस्ती का माहौल पैदा
करने में उसका विशेष योगदान है। वह कÍरपंथी और जड़ व्यक्ति है। धर्म के नाम
पर लड़ार्इ-झगड़ा करने को वह अपना उद्देश्य मानता है। उसे जैसे ही पाकिस्तान में
किसी हिन्दू महिला के रहने की बात पता चलती है तो वह आग बबूला हो जाता है। उसके
अनुसार रतन की मां को पाकिस्तान में रहने का कोर्इ अधिकार नहीं है। इस तरह दोनों
सम्प्रदाय एक-दूसरे को दुश्मन घोषित कर रहे थे। दोनों कौमों में आपसी विभेद बरकरार
था। हिन्दू मुसलमानों को ‘मलेच्छ’ कहते थे और आज
भी कह रहे हैं। मुसलमान हिन्दुओं को ‘काफ़िर’ कहते थे और आज
भी कह रहे हैं। नाटक में पहलवान भी हिन्दुओं को काफ़िर यानि दुश्मन मानता है। वह
मिर्जा से कहता है, “तुसी दस्स सकदे हो कि क्या पाकिस्तान इसीलिए
बन्या सी कि इत्थे काफिर रहें?”9 इस तरह पहलवान जैसे लोग दंगाई समाज
के लिए घातक हैं। वर्तमान में भी समाज में पहलवान जैसे असामाजिक तत्त्व दिखार्इ
पड़ते हैं। जो धर्म का प्रयोग अपने हित के लिए करते हैं। उनके स्वार्थ का कारण यह
है कि अपनी ही कौम का भला हो, अपने ही लोग आगे बढ़ें, उनके
सम्प्रदाय के लोगों को ही तमाम सुख-सुविधाएं तथा रोज़गार के अवसर मिलें। किसी धर्म
विशेष के व्यक्ति में इस तरह की भावना देश के लिए घातक है। ऐसे लोगों को जब-जब
लगता है कि उनको दूसरे धर्म के लोगों से खतरा है तब-तब यह लोग सम्प्रदाय की गलत
व्याख्या करते हैं और देश में दंगों को जन्म देते हैं।
आज धार्मिक कÍरता भयानक रूप
ले चुकी है। मनुष्य के लिए आज धर्म अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। हिन्दू मुसलमान को
अपना विरोधी सिद्ध करता है। वहीं दूसरी ओर मुसलमान हिन्दुओं को अपना दुश्मन मानते
हैं। दोनों समुदायों में एक-दूसरे से बदला लेने की भावना व्याप्त है। बदले की
भावना से भरे पहलवान को मौलवी साहब इंसानियत का पाठ पढ़ाते हैं। मानवतावादी
विचारधारा के धनी मौलवी जैसे लोग ही समाज को नई दिशा दे सकते हैं पर अफसोस ऐसे
मानवतावादी मौलवियों की संख्या समाज में बहुत कम है। पहलवान जैसे कÍरपंथी
को मौलाना साहब जैसे मौलवी के तर्कपूर्ण जवाब की बेहद आवश्यकता है। मौलाना
मानवतावाद का संदेश देता हुआ पहलवान से कहता है, “लड़ना ही है तो
अपने नफ़्स से लड़ो ... वही सबसे बड़ा जिहाद सी ... खुदगर्जी, लालच,
आरामो-असाइश
से लड़ो... बेसहारा ते बुड्डी औरत नाल लड़ना इस्लाम नहीं है।”10 इस
तरह मौलवी साम्प्रदायिक सोच से मुक्त होने के लिए प्रेरित करता है। उनके अनुसार
इंसान को अपनी कमियों पर काम करना चाहिए। अपने आपको बेहतर इंसान बनाने के लिए सदैव
प्रयासरत रहना चाहिए। धर्म के नाम पर नरसंहार नहीं करना चाहिए क्योंकि सृष्टि को
चलाने वाला विधाता एक है बस रूप अलग-अलग है। खुदा कभी किसी समुदाय या सम्प्रदाय से
हिंसा करना नहीं सिखाता। एक ही घर में हिन्दू-मुस्लिम का सौहार्द से रहना पहलवान
जैसे कट्टरपंथी लोगों को रास नहीं आता। वृद्धा का प्रात: रावी में स्नान और पूजा
करना उनके लिए कुफ्र फैलाना है।
विभाजन का मूल
कारण धर्म आधारित राजनीति रही है। निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए हमेशा धर्म को
हथियार बनाया गया है। आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और
सांस्कृतिक शक्ति को हथियाने के लिए इसका खुलकर प्रयोग होता आया है। यह समाज के
स्वार्थी सत्ताधारियों के दिमाग की उपज है, जिसके सहारे वे
अपने-अपने सम्प्रदाय के लोगों को गोलबन्द करके दूसरों के खिलाफ एक शक्ति के रूप
में उनका इस्तेमाल करते हैं। इन्हीं सत्तालोलुप शासकों की स्वार्थ नीतियों का
शिकार धार्मिक कÍरपंथी पहलवान अलगाववादी है। वह मौलवी से कहता
है, “सब हो जाए तो इस्लामी हुकूमत की ऐसी तैसी हो जाए ... ज़नाब, अज
ओ पूजा कर रही है ... कल मंदिर, बनाएगी, परसों लोगों नूं
हिन्दू मजहब दी तालीम देवेगी।”11 इस तरह पहलवान जैसे मूर्ख कÍरपंथी
विभाजन और दंगों का कारण बनते हैं।
दंगे अधिकांश हिन्दू और मुसलमान
सम्प्रदायों के बीच ही दिखाई देते हैं। ऐसा क्यों होता है इस पर विचार करने की
आवश्यकता है। इसका सबसे बड़ा कारण एक दूसरे के प्रति अज्ञानता, असहिष्णुता,
राजसत्ता
के प्रति लालच है। अंग्रेज़ों ने सर्वप्रथम इसे समझा और देशवासियों को बांटने का
काम किया। आज भी इसी परम्परा का निर्वाह हो रहा है किंतु अब लोगों को बांटने वाले
अंग्रेज़ नहीं बल्कि सत्ताधारी और धार्मिक कट्टरपंथी हैं। विशेषाधिकार प्राप्त
मुट्ठी भर लोग सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक वर्चस्व बनाये रखने के लिए
साम्प्रदायिकता का सहारा ले रहे हैं। इस संदर्भ में लेखक कहते हैं, “दरअसल
जनता जितनी कम शिक्षित होती है उसमें जागरुकता जितनी कम होती है, उतना
ही अधिक उसे गुमराह किया जा सकता है संसार के दूसरे देशों की तरह हमारे यहां भी
इसके कई उदाहरण उपलब्ध हैं। लेकिन प्राय: जनता को धर्म, रंग, नस्ल,
जाति
के नाम पर बांटने वाले अपना कार्य बहुत धीरे-धीर और छिपकर करते हैं लेकिन हमारे
देश में यह आजकल बड़े स्तर पर और खुल्लम-खुल्ले तरीके से हो रहा है।”12
एक ओर पहलवान जैसे नीच कट्टरपंथी
ताकतें समाज में मौजूद हैं। वहीं दूसरी तरफ नासिर जैसे नेक इंसान भी है जो नफरत की
दीवार को तोड़ने का प्रयास करते हैं। नासिर के लिए धर्म विशेष का कोर्इ महत्त्व
नहीं है। अगर उसके लिए कुछ महत्त्वपूर्ण है तो वह है इंसानियत। वह वृद्ध महिला के
समक्ष अपनी मानवतावादी सोच का परिचय देते हुए कहता है, “चाहे कितने ही ‘आस्तां’
बन
जाएं ... वहां रहेंगे तो हमारे तुम्हारे जैसे इंसान ही न? ... और माई जहां इंसान होंगे वहां रिश्ते होंगे ... जज़्बात होंगे।”13 इस
प्रकार देश की अधिकांश जनता बंटवारे के विरुद्ध थी। वे यह जानती थी कि वे
हिन्दोस्तान में रहें या पाकिस्तान में दोनों जगह इंसान ही रहेगा। नाटककार ने यहां
इंसानियत को प्राथमिकता दी है। धार्मिक कट्टरता को समाज के लिए विनाशकारी प्रमाणित
किया है।
अत:
यह कहा जा सकता है कि वजाहत का साहित्य विभाजन के कारणों की जांच-पड़ताल करता है।
लेखक ने धार्मिक कट्टरपंथी पण्डित, मुल्लाओं और क्रूर शासकों को इसके लिए
ज़िम्मेदार ठहराया है। उनकी स्वार्थ नीति ने विभाजन जैसी त्रासद घटना को जन्म
दिया। अपने साहित्य के माध्यम से लेखक ने बंटवारे के दौरान हुए नरसंहार की अवहेलना
की है और भविष्य में पुन: विभाजन जैसे हालात पैदा न हों इसके लिए भी सचेत किया है।
संदर्भ :
1- रजी अहमद : भारत उपमहाद्वीप की त्रासदी,
वाणी
प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृ. 9
2- असग़र वजाहत : आठ नाटक, किताबघर प्रकाशन
,नयी दिल्ली, 2016 पृ. 150
3- वही, 150
4- वही, 150
5- राममनोहर लोहिया: भारत विभाजन के गुनहगार,
लोकभारती
प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2009 पृ. 1
6- ताराचन्द : इतिहास और अनुसंधान की प्रक्रिया,
वाणी
प्रकाशन, नयी दिल्ली , 2012 पृ. 155
7- असग़र वजाहत : चौराहे पर चेहरा, अनन्य
प्रकाशन, दिल्ली, 2020 पृ. 137
8- असग़र वजाहत : आठ नाटक, किताबघर प्रकाशन
,नयी दिल्ली, 2016 पृ. 179
9- वही, पृ. 167
10- वही, पृ. 172
11- वही, पृ. 182
12- असग़र वजाहत : सफाई गंदा काम है, राजपाल
एण्ड संस, दिल्ली, 2015 पृ. 55
13- वही, पृ. 181
सोफिया सलाथिया, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, जम्मू
विश्वविद्यालय, जम्मू-180006
sofia05slathia@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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