बतकही : प्रसिद्द रंगकर्मी सुधेश व्यास से बलदेवा राम की बातचीत

                               बतकही : ''नाटक खराब करने से बेहतर है नाटक नहीं करना'' / सुधेश व्यास

(बीकानेर के प्रसिद्ध रंगकर्मी सुधेश व्यास से बलदेवा राम की बातचीत)


बलदेवा राम : नमस्कार सुधेश जी, आज हम बीकानेर के हिंदी रंगमंच के संदर्भ में आपकी रंग-यात्रा पर बात कर रहे हैं। हमें बताइए कि आप हिंदी रंगमंच में किस तरह से आए और आपकी इस यात्रा का पहला पड़ाव कैसा रहा ?

सुधेश व्यास : मैं बचपन से ही थियेटर से जुड़ा हुआ था। पापा की इच्छा थी कि मैं नाटक करूँ, लेकिन मेरे मन में नाटक को लेकर कोई आकर्षण नहीं था। 1985 में एसडी चौहान साहब के सान्निध्य में मैंने एक्टिंग वर्कशॉप की। उस समय उन्होंने एक प्रोडक्शन तैयार करवाया था अंधेर नगरी। इस नाटक की प्रतिक्रिया हमारे लिए बहुत उत्साहवर्धक रही, हमारे काम की थोड़ी तारीफ हुई तो वहीं से सब गड़बड़ हो गया और फिर यह खतरनाक शौक लग गया....(हँसते हैं)

बलदेवा राम : आप इसे गड़बड़कह रहे हैं .......

सुधेश व्यास : मैं समझता हूँ कि मेरी नादानी थी कि मैं थिएटर में आ गया और मैं एक गलत आकर्षण में फंस गया...(हँसते हैं), जैसे कोई किशोर शराब के आकर्षण में फंस जाता है, वैसा ही एक नशा सा तारी रहता है, या यूँ कहे कि मुझे एक जहरीला नशा हो गया। इसीलिए मैं लोगों को राय नहीं देता हूँ कि आप थिएटर करें। इसकी सबसे खास वजह जो मैं मानता हूँ, वो ये है कि आजीविका को लेकर यहाँ एक अनिश्चितता हमेशा बनी रहती है। मैं एक बात हमेशा कहता हूँ कि रंगकर्म असहज लोगों का काम है और सहज होकर नाटक करना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि अधिकांश रंगकर्मियों को ये पता ही नहीं है कि वो थिएटर क्यों कर रहे हैं या उनको रंगकर्म से मिल क्या रहा है। व्यावहारिक रूप में हम देखे तो फिल्में, सीरियल वगैरह ज्यादा स्पष्ट और अर्थपूर्ण है, क्योंकि उनमें एक क्लियर टारगेट है, लेकिन थियेटर में लोग कन्फ्यूज्ड हैं। वो ये तय नहीं कर पाते कि आपको पैसा चाहिए या नाम, पुरस्कार या सम्मान चाहिए।

बलदेवा राम : आप नाटक और रंगमंच के अंतर्संबंध को किस तरह देखते हैं ?

सुधेश व्यास : मेरे विचार से नाटक और रंगमंच को अलग तरह से परिभाषित करना चाहिए। नाटक करना बहुत आसान है, थिएटर करना बहुत मुश्किल। थिएटर एक तरीके से आपका पूरा व्यक्तित्व है, जहाँ कमिटमेंट और सेक्रिफ़ाइज की जरूरत होती है। वास्तव में थिएटर बहुत बड़ा और गरिमामय शब्द है और यह एक पूरा आचरण है, जिसे आपको जीना पड़ता है। नाटक में तो आपने अपनी भूमिका की और फिर छुट्टी। आपको ज्यादा मतलब नहीं होता है कि बाकी लोग क्या कर रहे हैं। असल में नाटक करने में आप स्वयं ज्यादा डोमेनेटिंग होते हैं। थिएटर का एक्टर यह कभी नहीं कहता कि मैं एक्टिंग कर रहा हूँ, वह यही कहता है कि मैं थिएटर करता हूँ। थिएटर में नाटक अहम है, जबकि नाटक में आप स्वयं अहम होने की चेष्टा करते हैं। थियेटर मैं से नहीं हम से होता है, क्योंकि यह एक ग्रुप एक्टिविटी है।

बलदेवा राम : अभी आप ने यह कहा कि थिएटर करना बहुत मुश्किल काम है, तो क्या आप निर्देशक की बात कर रहे हैं ?

सुधेश व्यास : नहीं, ऐसा नहीं है। निर्देशक तो थियेटर का एक अंग है। दरअसल नाटक करना बहुत आसान है, लेकिन नाटक को जीना बहुत मुश्किल। सीमित साधन और असीमित कल्पना, आप समझ सकते हैं कि थियेटर को किस तरह से साधने की आवश्यकता होती है। निर्देशक के स्तर पर और भी बहुत सारी चीजें काम करती है, केवल नाटक का या सम्बन्धित कलाओं का ज्ञान होना ही निर्देशक बन जाने के लिए काफी नहीं है। इसका स्वरूप बहुत विराट है, क्योंकि थियेटर सभी कलाओं का संगम है।

बलदेवा राम : आपने तो अभिनय की कार्यशाला में प्रशिक्षण लिया और आज आप राजस्थान के जाने-माने निर्देशक है। क्या कारण रहे कि आपके रंगकर्म की भूमिका बदल गयी ?

सुधेश व्यास : ऐसा है, मैंने पहले पन्द्रह-बीस साल तक अभिनय ही किया, फिर अभिनय के साथ-साथ निर्देशन से जुड़ा और आज मैं पूर्णतः निर्देशन को ही समर्पित हूँ। शुरू में मैंने अपने चाचा देवकृष्ण व्यास के निर्देशन में ज्यादा काम किया, लेकिन बाद में उनका रंगकर्म छूट गया, फिर मेरे पिता श्री निर्मोही व्यास द्वारा स्थापित संस्था अनुराग कला केंद्र में कोई निर्देशक नहीं रहा तो ऐसी परिस्थिति में मुझे निर्देशन में आना पड़ा। असल में निर्देशन मैंने 1996 से शुरू किया। अरे ! मायावी सरोवरजो शंकर शेष का नाटक था, उससे मेरी निर्देशन यात्रा शुरू हुई। हालांकि इससे पहले दया प्रकाश सिन्हा का एक नाटक मैंने उठाया था और बीस-पच्चीस दिन उसकी रिहर्सल भी हुई, लेकिन फिर वह नाटक किसी कारणवश नहीं हो पाया या मैं कहूंगा कि इसको मैं कर नहीं पाया।

 बलदेवा राम : मुझे तो ये लगता है कि अधिकांश अभिनेता कुछ नाटकों में अभिनय करने के बाद निर्देशक हो जाते हैं और कई तो लेखक भी बन जाते हैं। आप इस बारे में क्या कहेंगे ? 

सुधेश व्यास : दुर्भाग्य की बात यह है कि जो मंच पर चढ़ता है, वह एक्टर हो जाता है, चाहे वह पंखा ही हिला रहा हो और जिसने एक नाटक निर्देशित किया वह निर्देशक हो गया और जिसने एक नाटक लिखा वह लेखक हो गया। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि निर्देशक बनने के लिए केवल कला विधाओं का ज्ञान ही नहीं, मनोवैज्ञानिक स्तर पर काम करना पड़ता है। अगर मुझे पंद्रह दिन में कोई नाटक करना है, तो मुझे पंद्रह दिन की योजना बनानी पड़ेगी कि मुझे किन-किन चीजों को तवज्जो देकर यह नाटक करना है, और अगर मुझे तीन दिन में काम करना है तो तीन दिन की सोच बनानी पड़ेगी। निर्देशक को अपने कलाकारों को मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझने की जरूरत होती है। मान लीजिए मैं आपको कोई रोल देता हूँ और वह केरेक्टर आपके अन्दर है भी, लेकिन वह आपके अन्दर से बाहर कैसे निकलेगा, यह महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति की, प्रत्येक कलाकार की अपनी क्षमताएँ, सीमाएँ अथवा कमजोरियाँ होती हैं। कोई मानसिक रूप से बहुत मजबूत होता है, कोई बहुत ही अग्रेसिव होता है तो कोई बहुत डिफेंसिव। इस तरह केवल नाटक का ज्ञान हो जाने से और नाटक से संबंधित कलाओं का ज्ञान हो जाने से कोई निर्देशक नहीं हो जाता। उसे कलाकारों के मनोवैज्ञानिक स्तर का ज्ञान होना अति आवश्यक है और दर्शकों का भी, उसे यह भान होना चाहिए कि दर्शक क्या पसंद करता है। बहुत बार निर्देशक यह कहते हैं कि मुझे अच्छा लगता है यह नाटक, इसलिए मैं कर रहा हूँ। बहुत बार निर्देशक नाटक के जरिए खुद को परफोर्म करने की कोशिश करते रहते हैं और बस यहीं दर्शक नाटक से छूटता चला जाता है। अरे भई ! नाटक खुद की संतुष्टि के लिए नहीं, दर्शकों की संतुष्टि के लिए होना चाहिए। हालाँकि हिंदी रंगमंच में प्रतिभाशाली अभिनेताओं, लेखकों और निर्देशकों की कमी नहीं है, बहुत से कुशल निर्देशकों द्वारा अच्छे प्रदर्शन भी हो रहे हैं, लेकिन उनकी संख्या काफी कम है।

 बलदेवा राम : एक चर्चा हमेशा रही है कि नाटक लेखक का होता है या निर्देशक का या अभिनेता का .....

सुधेश व्यास : मैंने अभी तक जो नाटक को समझा है, इसमें यह है कि नाटक एक साझा प्रयास है, यह पूरी टीम का होता है और वही इसका सच्चा स्वरूप हो सकता है और इस पूरी टीम का नेतृत्व निर्देशक करता है। अब यह निर्देशक के ऊपर निर्भर करता है कि वह पूरी टीम को कैसे काम में लेता है। नाटक में निर्देशक की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है। मैं कई बार इस बात को सार्वजनिक रूप से कह चुका हूँ कि नाटक की किसी भी गलती का जिम्मेदार निर्देशक स्वयं होता है। कलाकारों का उसमें उतना दोष नहीं है। बहुत बार किसी प्रोडक्शन के प्रस्तुतीकरण में कोई खराबी होने पर निर्देशक सभी गलतियों का ठीकरा कलाकारों के सिर पर फोड़ देता है कि कलाकार काम नहीं करते, समय पर नहीं आते या अभ्यास नहीं करते हैं। लेकिन मैं उन्हें हमेशा कहता हूँ कि नाटक की कोई भी खामी का आखिरी जिम्मेदार निर्देशक होता है और निर्देशक ही हो सकता है, कोई दूसरा नहीं हो सकता। पहली और आखिरी जिम्मेदारी उसी की है और वह इसलिए कि नाटक  का चयन आपने किया, और कास्टिंग भी। आपको लगता है कि यह आर्टिस्ट गंभीर नहीं है, यह समय पर नहीं आ रहा है तो आप उसे निकाल सकते हैं। अगर वह अपने संवाद भूल रहा है तो उसे कोई ट्रीटमेंट दीजिए और अगर वह बहुत अधिक नाटक के अनुशासन में नहीं है तो उसे हटा भी सकते हैं। किसी भी कलाकार को हटाने या बदलने के लिए आप स्वतंत्र हैं। कोई भी कलाकार गुंडागर्दी के बल पर आपके यहाँ नहीं आता, निर्देशक के आमंत्रण पर आता है। नाटक में आपके साथ कोई भी कलाकार काम करने को तैयार नहीं हो तो नाटक बंद कर दीजिए। नाटक खराब करने से अच्छा है, उसे नहीं करना।

बलदेवा राम : आपकी समृद्ध रंगयात्रा में हमीदा बाई की कोठीका नाम बहुत सुनने को मिलता है। इस नाटक के मंचन में अनेक प्रयोग आपने किए। आपके द्वारा निर्देशित एकल नाट्य समारोह ने भी देश भर में आपको और बीकानेर रंगमंच को एक नयी पहचान दी। आज आप इन प्रस्तुतियों को कैसे याद करते हैं ?

सुधेश व्यास : हमीदाबाई की कोठी बड़ा प्रयोग नहीं, बल्कि बड़ा प्रोडक्शन था। उसमें चालीस से पचास कलाकारों की टीम थी। हमने पूरे टाउन हॉल को ही रंगमंच बना दिया था। इसमें टाउन हॉल की दर्शक दीर्घा को भी मंच में शामिल करते हुए पूरे ऑडिटोरियम को तवायफों के मोहल्ले में तब्दील कर दिया था। सभी लोगों ने इस को बहुत पसंद किया। जहाँ तक सोलो नाटकों की बात करूँ तो इसका पूर्ण श्रेय मन्दाकिनी जोशी को जाता है। पियानो बिकाऊ है’, ‘महागाथा’, ‘नाटक और मैं। ये तीन नाटक एकल नाट्य समारोह में मंचित हुए थे। शायद ही हिंदुस्तान में किसी एक अभिनेत्री के द्वारा तीन सोलो नाटकों का एकल नाट्य समारोह हुआ हो। मैं यह कहना चाहूंगा कि मंदाकिनी के अभिनय से पूरा हिंदुस्तान चकित रह सकता था, लेकिन मंदा जी की घरेलू परिस्थितियाँ विपरीत होने के करण इन नाटकों के ज्यादा प्रदर्शन नहीं हो सके। इसलिए हम इनके प्रदर्शन बहुत ज्यादा नहीं कर पाए। इस एकल नाट्य समारोह में सुप्रसिद्ध अभिनेता बेंडिट क्वीन फेम निर्मल पांडे मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित थे। उन्होंने तीनों दिन नाटक देखे और उन का कहना था कि मैं मंदाकिनी जी को हिंदुस्तान की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री मानता हूँ और जब अंतिम नाटक महागाथाउन्होंने देखा तो मंच पर जाते ही मंदाकिनी जी से कहा कि मुझे आपके चरण छूने चाहिए। मंदाकिनी जी के एकल नाट्य समारोह को लेकर इस तरह की प्रतिक्रियाओं ने बहुत उत्साहित किया और मुझे गर्व है कि मैं एक निर्देशक के रूप में इन नाटकों का हिस्सा था।

बलदेवा राम : रंगकर्म तकनीक, अर्थ और अन्य कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। एक निर्देशक के रूप में आपने किस तरह चुनौतियों का सामना किया ?

सुधेश व्यास : असल में चुनौतियों का नाम ही जीवन है और थिएटर कहीं भी जीवन से अलग नहीं है। जिस तरह से अनेक प्रकार की समस्याएँ जीवन का हिस्सा है, ठीक वैसे ही विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ भी थिएटर का हिस्सा होती हैं। हर शहर की अपनी अलग-अलग चुनौतियाँ हैं। हर नाटक की अपनी आवश्यकताएँ होती हैं और सभी जगह, सभी आवश्यकताओं को पूरा कर पाना आसान नहीं है। कहीं रंगमंच की चुनौती है तो कहीं कलाकारों की। कहीं आर्थिक चुनौतियाँ हैं। बिना चुनौती के नाटक हो ही नहीं सकता, लेकिन चुनौतियों के सामने रंगमंच ने कभी घुटने नहीं टेके, बल्कि नाटक करने वाले के लिए किसी भी चुनौती से पार पाना श्रमसाध्य हो सकता है, नामुमकिन नहीं। जिसे नाटक करना होता है, वह हर परिस्थिति में नाटक करता है, क्योंकि नाटक जुनून से ही हो सकता है और चुनौतियाँ जुनून के आगे नहीं ठहर पाती। वैसे उपलब्ध संसाधन हमेशा ही सीमित रहे हैं, तो हमें उसी के अनुसार काम करना होता है। मैं यह भी मानता हूँ कि संसाधनों का सीमित होना कल्पनाशीलता और सृजनात्मक क्षमता को बढ़ाता है। नाटक में तकनीक को जितना कम रखें उतना ज्यादा अच्छा है। नाटक सिनेमा की तरह तकनीक का माध्यम नहीं है। नाटक की खूबसूरती उसके मूल तत्त्व अभिनय में है और कभी-कभी तकनीक का अनावश्यक उपयोग नाटक के प्रभाव को खंडित कर देता है।

बलदेवा राम : हिंदी रंगमंच में नाट्य समीक्षा को लेकर भी यह बात निकल कर आती है कि उसका बड़ा अभाव है। नाट्य समीक्षा की कमी निर्देशकों को किस तरह प्रभावित करती है ?

सुधेश व्यास : अब जहां तक नाट्य समीक्षा की बात है, तो आलोचना नहीं होने से रंगमंच मर रहा है, क्योंकि उसको जीवित रखने के लिए कोई आईना नहीं दिखा रहा है और नाटक वाले इतने आत्ममुग्ध हो चुके हैं कि वे आइना देखना ही नहीं चाहते। हर प्रस्तुति के बाद उनको लगता है कि मैंने झंडे गाड़ दिए हैं, अब उनको कौन कहे कि ये नाटक नहीं नाटक का कचरा था। तुष्टीकरण करते रहने से कानों की आलोचना सुनने की आदत खत्म हो गई है और इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह देखने को मिल रहा है कि प्रस्तुतियाँ तो होती हैं, कमियाँ भी रहती हैं, लेकिन उसमें सुधार खत्म होता जा रहा है। दूसरा आलोचना को लेकर मेरी सोच यह है कि सबसे पहले आपको अपने नाटक की आलोचना करनी आनी चाहिए। यह सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि आपकी नजर में आप का नाटक कैसा था। क्योंकि आपने अपने नाटक को किसी भी दूसरे से भी ज्यादा समय दिया है। सबसे ज्यादा एक निर्देशक नाटक के कंसेप्ट पर काम करता है, क्योंकि उसे अपने नाटक को जीना होता है। समीक्षक से भी ज्यादा कथानक को अंदर तक लेने वाला निर्देशक है, लेकिन अफ़सोस ये है कि इन सभी प्रयासों के चलते निर्देशक अपने नाटक के प्रति आत्ममुग्ध होता चला जाता है और परिणामस्वरूप प्रस्तुति की सभी कमियाँ नजरअंदाज होती चली जाती हैं। कहने का मतलब यह है कि सबसे ज्यादा अगर कोई आलोचना अच्छे तरीके से कर सकता है, तो निर्देशक खुद कर सकता है। मेरा यह भी मानना है कि एक आलोचक को एक निर्देशक से भी अधिक, रंगकर्म का विशेषज्ञ होना चाहिए, क्योंकि आप उसे एक तरह से ऑडिट करते हैं। आप रंगमंच की बारीकियों को समझते हैं, तभी आप नाटक की खामियों के प्रति ध्यान आकृष्ट कर पाएंगे ।

बलदेवा राम : हिंदी रंगमंच में आने वाले समय में आप किस प्रकार की संभावनाएँ देखते हैं ? बीकानेर ही नहीं, पूरे राजस्थान के सन्दर्भ में हिंदी रंगमंच के भावी परिदृश्य को अपनी कल्पना में आप किस तरह का पाते हैं ?

सुधेश व्यास : यह कला की किसी भी विधा के लिए एक उपयोगी बात है और किसी भी विधा में कितना भी आप कर लीजिए, संभावनाएं फिर भी बनी रहती है, क्योंकि किसी भी कला का कोई चरम नहीं होता। जितना आप आगे बढ़ते जाते हैं, कुछ नया दिखाई देता है, नए आयाम सूझते रहते हैं। संभावनाएँ हर वक्त मौजूद रहती हैं और नाटक के पास इतनी ताकत है, जितनी फिल्मों के पास भी नहीं है। नाटक अपने दर्शकों को कल्पनाशीलता में ले जाने की क्षमता रखता है, जबकि फिल्मों में ऐसा नहीं है।

  ( सुधेश व्यास बीकानेर के प्रसिद्ध रंगकर्मी हैं। आपका जन्म 21 जून 1968 को बीकानेर के प्रख्यात रंगकर्मी और साहित्यकार निर्मोही व्यास के घर में हुआ। अभिनय से अपनी रंग-यात्रा का प्रारम्भ करने वाले सुधेश व्यास आज पच्चीस नाटकों के सैंकड़ों प्रदर्शन कर देश भर में अपनी निर्देशकीय प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं। बीकानेर थियेटर फेस्टिवल आपकी और आपकी टीम की बड़ी उपलब्धि है जिसके माध्यम से आपने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच को बीकानेर में प्रस्तुत किया। इस फेस्टिवल के अब तक छः सफल संस्करण हो चुके हैं। अपनी बेबाकी और सृजनशीलता के लिए जाने और माने जाने वाले सुधेश व्यास चार दशकों से रंगकर्म में सक्रिय है। बीकानेर के रंगकर्म में आपकी यह सक्रियता पूरे देश के हिंदी रंगमंच को समृद्ध कर रही है।)

                बलदेवा राम, सहायक आचार्य हिंदी, राजकीय नर्मदा देवी बिहानी,स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नोहर,          9610603460, baldev.maharshi@gmail.com

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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