शोध आलेख : हिंदी नवजागरण में स्त्री-प्रश्न / डॉ. भास्कर लाल कर्ण

                                  शोध आलेख : हिंदी नवजागरण में स्त्री-प्रश्न / डॉ. भास्कर लाल कर्ण

शोध सार :

19वीं सदी के नवजागरण में आधुनिक शिक्षा और सुधार आंदोलनों ने कुछ सकारात्मक भूमिका निभाई तो इन्हीं आंदोलनों ने पुनरुत्थानवादी शक्तियों को भी बढ़ावा दिया। स्त्री संबंधी चिंतन भी इससे अलग नहीं है। सती-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, स्त्री-शिक्षा आदि सभी विचारों में अंतर्विरोधों एवं अंतर्द्वंदों की भरमार है। हिंदी साहित्य में आधुनिकता के अग्रदूत सहित हिंदी-प्रदेश के चिंतकों का अध्ययन किया जाए तो उनमें एक तरफ़ स्त्री-पुरुष की समानता का विचार है तो दूसरी तरफ़ उसे आदर्श घरेलू गृहणी और माता की भूमिका देकर पितृसत्तात्मकता को ही पुनर्गठित करने की कोशिश भी है। देश के उन्नति के संदर्भ में इनके चिंतन में स्त्री और पुरुषों के कार्य विभाजन का परम्परागत ढाँचा नहीं बदला, लेकिन उसमें नयी अंतर्वस्तु का समावेश ज़रूर हो जाता है। स्त्रियों की शिक्षा संबंधी हिंदी प्रदेश के रचनाकारों का विचार अनेक अंतर्विरोधों के बावजूद जड़ समाज के भीतर महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी कहा जा सकता है। 

बीज शब्द : नवजागरण, पुनर्जागरण, हिंदी-प्रदेश, पुनरुत्थान, समाज सुधार, समानता, स्त्री-विमर्श, भद्रवर्ग, चरित्र-निर्माण, आदर्श, आंदोलन, गृहणी, पितृसत्ता, परंपरा, आधुनिकता, अंतर्विरोध, द्वंद्व, देश-सुधार, चिंतन, धर्म, उन्नति, परिवार, संस्था, दायित्व, शोषण, प्रतिरोध, विकल्प, दर्शन, शास्त्र, रीति-रिवाज, पश्चिमी, जीवन-पद्धति, नारी, शिक्षा, प्रेम, सनातन, परिवर्तन, मध्यकालीनता, राष्ट्रीयता

मूल आलेख :

कहा जाता है कि किसी भी समाज का आंकलन उस समाज में स्त्रियों की दशा पर निर्भर होता है। स्त्रियों के प्रति समाज की दृष्टि और व्यवहार उस समाज के वास्तविक चरित्र को रेखांकित करती है। समकालीन नारीवादी विमर्शों ने इस धारणा को मज़बूती दी है। नवजागरणकालीन 19वीं सदी को ध्यान से देखें तो उसे स्त्री-संबंधी चिंतनों से भरा युग कहा जा सकता है। इस सदी में सारी दुनिया में उनकी अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएँ एवं उर्वरा गरमागरम बहस का विषय रहा है। यूरोप में फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान और उसके बाद भी स्त्री जागरूकता का विस्तार होना शुरू हुआ। शताब्दी के अंत तक इंग्लैंड, फ़्रांस तथा जर्मनी के बुद्धिजीवियों ने नारीवादी विमर्श को अभिव्यक्ति दी। 19वीं सदी के मध्य तक रूसी सुधारकों के लिए महिला प्रश्न एक केंद्रीय मुद्दा बन गया था। जबकि भारत में, ख़ास तौर से बंगाल और महाराष्ट्र में समाज सुधारकों ने स्त्रियों में फैली बुराइयों पर आवाज़ उठाना शुरू किया।1 सती प्रथा, विधवा-विवाह, बाल-विवाह, भ्रूण-हत्या, अनमेल-विवाह, शिक्षा आदि विषयों को केंद्र बनाकर वैचारिक और सामाजिक आंदोलन शुरू हुए। एकबारगी स्त्री समस्याओं के इर्द-गिर्द ही सारे सुधार आंदोलन जुड़े नज़र आते हैं। विशेष रूप से हिंदी प्रदेश में सक्रिय भारतेंदुयगीन रचनाकारों का दृष्टिकोण स्त्रियों के बारे में बहुत उलझा हुआ है। अंतर्विरोधों और अंतर्द्वंदों की भरमार देखने को मिलती है। 

प्रतापनारायण मिश्र के शब्दों में नारी यानी सदा सावधान रहो’ ‘ यह शत्रु है, इनसे अधिक कोई शत्रु है। जहाँ तक हो इन्हें स्वतन्त्रता सौंपो।.......अनुकूल रखना ही श्रेयस्कर है।2 थोड़ा और आगे बढ़कर देखें तोमायाजाल की मूर्ति, कठिन परतंत्रता का कारण और घोर विपत्ति का मूल स्त्री है।’ ‘लोहे सरिस कठोर अग्निपूर्ण पात्र सदृश उष्ण परमेश्वर की माया अर्थात् दुनिया भर का बखेड़ा फैलाने वाली शक्ति स्त्री कहलाती है।’, ‘महादुख रूपी नर्क का रूप गृहस्थी की सारी चिंता, सारे जहान का पचड़ा केवल स्त्री के कारण ही ढोना पड़ता है।, स्त्री अर्थात् मनुष्य के हक में शोक का रूप।3 स्त्रियों के प्रति यह निहायत ही रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक रवैया है, लेकिन जब स्त्रियों के अशिक्षित होने और उनके लिए पाठशाला होने पर अफ़सोस करते हैं तो लगता है जैसे नयी चेतना है, क्योंकि स्त्री-शिक्षा की कोई परम्परा नहीं थी। जब वे विवाह को माता-पिता की अनुमति से इतर केवल वर और कन्या ही की इच्छा से होना ठीककहते है4 तो विवाह संस्था के प्रचलित स्वरूप को जैसे पलट देते हैं। इतना ही नहीं, स्त्रियों के प्रति नज़रिये को साधारण लोगों और उन्नतिशील अभिजात लोगों के अनुसार वे अलग-अलग बताते हैं। उनके अनुसार साधारण लोगों के लिए स्त्री मानो आधा शरीर है। यावत सुख दुखादि की संगिनी है। संसार पथ में एकमात्र सहायकारिणी है।और अभिजात तथाकथित उन्नतिशील लोगों के हक़ में घोर विपत्ति का मूल5 ऐसे में वे स्त्रियों के प्रति अभिजात्यवादी दृष्टि पर व्यंग्य करते लग रहे होते हैं। 

समाज में स्त्रियों की हीनतर स्थिति को वे देश का दुर्भाग्य मानते हैं। ‘‘देश के दुर्भाग्य से स्त्रियों का उचित आदर नहीं होता, वे केवल दासी की भाँति रखी जाती है। उनसे प्रत्येक विषय में सम्मति लेने और उन्हें शिक्षा देने की चाल उठ सी गई है।’’6 उनके अनुसार जो प्रतिष्ठा, जो अधिकार, जो गौरव पुरुषों का है वही स्त्रियों का भी है।यह दृष्टि स्त्री-पुरुष को समान भाव से देखती है। समानता का यह भाव नवजागरण है। मिश्रजी ने बाल-विवाह का विरोध किया, विधवा-विवाह का समर्थन किया। यह बताता है कि वे स्त्रियों के संदर्भ में भी मानवतावादी सुधारवादी आंदोलनों से अलग नहीं थे, लेकिन पितृसत्तात्मक और परम्परागत मानसिकता के तत्त्व आसानी से मिटते नहीं हैं। यदि एक तरफ स्त्री-पुरुष समान हैं तो दूसरी तरफ ‘‘बहुत सी दो-दो, चार-चार पैसे की ऐसी पुस्तकें छप गई हैं जो पुरुषों के लिए तो खैर, जी बहलावे को अच्छी सही पर स्त्रियों के लिए हानिकारक हैं।’’7 मिश्रजी ने स्त्रियों के शिक्षित होने के अलावा पतिव्रता और सती होने पर बल दिया है। सती होने से उनका तात्पर्य खामखाह पति के साथ जल जानानहीं है, वरन् मुख्य सती वह है जो पति के विरह रूपी अग्नि में ऐसा दुःख अनुभव करे कि जीते जी मर जाने के समान।8 अर्थात् स्त्री की सार्थकता पतिभक्ति तक ही सीमित। इसी पतिव्रत भाव में मिश्रजी देश की उन्नति देखते हैं तो लगता है जैसे एक परम्परावादी ब्राह्मण के उद्गार हों। उनके अनुसार ‘‘जिस देश में स्त्रियाँ विशेषतः पतिव्रता हो और पुरुष एक स्त्रीव्रत हों, उस देश की उन्नति में क्या बाधा हो सकती है।’’9 यहाँ यह भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि अपने बाल्य विवाहनिबंध में मिश्रजी ने अपनी ही मान्यताओं के उलट विवाह में ‘‘वर-कन्या की इच्छा के अपेक्षा उनके जनक जननी की इच्छा अधिक श्रेष्ठ’’ कहकर बाल-विवाह का समर्थन भी किया।10 

स्त्रियों के संबंध में इस तरह का वैचारिक द्वन्द्व कमोवेश भारतेन्दुयुग के सभी रचनाकारों में है। हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत कहे जाने वाले स्वयं भारतेन्दु हरिश्चंद्र भी इससे मुक्त नहीं हैं। स्त्री-प्रश्न अथवा स्त्री-शिक्षा के संदर्भ में भारतेन्दु के विचारों में पर्याप्त और स्पष्ट अंतर्विरोध दिखायी देता है। वे लड़कों को दी जानेवाली गृहशिक्षा का विरोध करते हैं, क्योंकि वहाँ नैतिक और धार्मिक किस्म की शिक्षा दी जाती है और उसमें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा नहीं होती, वह शिक्षा के यूरोपीय सिद्धांत के मुताबिक भी नहीं होती,11 लेकिन स्त्री-शिक्षा के स्वरूप के बारे में वे कहते हैं- ‘‘ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल-धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें।’’12 यहाँ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को दरकिनार कर दिया गया, शिक्षा के यूरोपीय सिद्धांत की तो बात ही दूर है। वे लड़कियों को सिर्फ नैतिक चरित्र, घरेलू प्रबंध और धर्म संबंधी शिक्षा देने की सिफारिश करते हैं।13 अकारण नहीं है कि भारतेंदु ने लड़कियों की पाठ्य पुस्तकों में से प्रेमसागर’, ‘विद्यांकुरऔर इतिहासतिमिरनाशकजैसी किताबों को हटा देने के लिए कहा, जबकि इन्हीं किताबों के लड़कों के पाठ्यक्रम में होने से उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। उनका कहना है, इन किताबों से लड़कियों के चरित्र का विकास नहीं होता। दूसरी तरफ ‘‘बंगाल, बंबई तथा मंदराज विश्वविद्यालयों की परीक्षोत्तीर्ण छात्राओं के लिए बनारसी साड़ियाँ आदि पुरस्कार भेजकर उन्हें उत्साहित करते थे।’’14 

भारतेन्दु की बालाबोधिनीपत्रिका में एक भी शृंगारिक रचना नहीं मिलती जिसे वे स्त्रियों के लिए ही निकालते थे। जबकि अपनी दूसरी पत्रिकाओं- कविवचनसुधा’, ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीनअथवा हरिश्चंद्र चंद्रिका’- में शृंगारिक रचनाओं को खूब छापा है। क्या ये केवल पुरुषों की पत्रिकाएँ थीं? भारतेन्दु स्वयं भी शृंगारिक रचनायें खूब लिखते थे। उन्होंने अपनी दोनों प्रेमिकाओं के लिए भी शृंगारिक पद लिखे थे। डॉ. वीरभारत तलवार ने इसे घरेलू स्त्रियों के प्रति संकीर्ण नैतिकतावादी दृष्टिकहा है।15 

वे ईसाई चाल पर दी जानेवाली शिक्षा के विरोधी थे, इसलिए मिशनरियों और मिशनरी महिलाओं को वे इससे दूर रखने की बात कहते हैं। उन्होंने यह कहकर विरोध किया कि ‘‘वे अपने धार्मिक सिद्धांतों और स्वतन्त्र विचारों को दिमाग़ में बिठाने की कोशिश करती हैं, जिससे देशी स्त्रियों में शिक्षा की चाह पैदा होने के बजाय उससे विरक्ति होती है।’’16 वहीं इस बात की सिफ़ारिश भी करते हैं कि सिविल मिलिट्री या शिक्षा-विभाग की यूरोपीय महिलायें जो कि स्त्री-शिक्षा में बहुत कम दिलचस्पी लेती हैं, अगर इसमें दिलचस्पी लें तो भारत में स्त्री-शिक्षा की उन्नति हो सकती है और इसके अच्छे परिणाम निकल सकते हैं। दूसरी तरफ प्रतापनारायण मिश्र मेमोंया मेमदासियोंसे पढ़ाने का विरोध यह कहकर करते हैं कि ‘‘भला वे ईसा के गीत और लिबरटी सिखावेंगी अथवा पतिब्रत !’’17 इन अंतर्विरोधों को एक तार्किक अन्विति देने के स्थान पर सिर्फ़ यह कह जाना पर्याप्त नहीं है कि ‘‘हिंदी नवजागरण के लेखकों के सामने स्त्रियों की समस्याएँ नहीं थी। उनके लिए खुद स्त्री ही एक समस्या थी जिस पर हर हाल में काबू पाना था।’’18 अंतर्विरोधों के इस भूल-भूलैया में उन परिस्थितियों को नज़रअंदाज करने का ख़तरा बढ़ जाता है, जिनके बीच ये अंतर्विरोध जन्म लेते हैं। 

पश्चिमोत्तर प्रांत में स्त्री-प्रश्न को भारतवर्ष में घटित होने वाली स्त्री-समस्या संबंधी आंदोलनों के संदर्भ में देखने के साथ-साथ, इस प्रांत की ठोस परिस्थितियों के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। यह ठीक है कि विद्यासागर, द्वारिकानाथ गांगुली और देवराज ज्योतिबा फुले जैसे लोग यहाँ नहीं हुए और ही कादम्बिनी, सावित्री बाई, रमा बाई, ताराबाई शिन्दे जैसी स्त्रियाँ ही उभरीं। फिर भी स्त्रियों की शिक्षा संबंधी हिंदी प्रदेश के रचनाकारों का विचार अनेक अंतर्विरोधों के बावजूद जड़ समाज के भीतर महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी कहा जा सकता है। प्रांत की शिक्षा के मामले में हंटर कमीशन ने जिन दो काले धब्बोंका ज़िक्र किया है वे हैं- एक, यहाँ के भद्रवर्ग ने शिक्षा के प्रति दिलचस्पी बहुत कम दिखायी। दूसरे, स्त्रियों को शिक्षित करने के प्रति घोर निष्क्रियता।19 भारतेन्दु मंडल के लेखकों के विचार में दोनों धब्बे देखने को नहीं मिलते। भारतेन्दु ने तो स्पष्ट लिखा, ‘‘बाल वृद्ध नर नारि सब विद्या संजुत होय।’’20 यहाँ वृद्धों को भी शामिल कर भारतेन्दु सम्भवतः प्रौढ़ शिक्षा के प्रथम उद्घोषक सिद्ध होते हैं।

 

स्त्री-शिक्षा पर बल केवल भारतेन्दु मंडल के लेखक ही नहीं दे रहे थे, बल्कि इसके आपूरक मुरादाबाद मंडल के लेखक भी इस पर उतना ही ज़ोर दे रहे थे। पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र के अनुसार-‘‘स्त्रीजनों का अशिक्षित तथा निर्बोध रहना ही भारत की अवनति का मुख्य कारण है।’’21

 

19वीं सदी में स्त्री-शिक्षा पर इतना बल क्यों दिया जा रहा था? डॉ. वीरभारत तलवार का मानना है- ‘‘औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत जब पुरुष स्कूल कालेजों में अंग्रेजी शिक्षा पाकर निकलने लगे तो उनकी स्त्रियों का अनपढ़ और ज़ाहिल रहना उन्हें खटकने लगा। नये शासन के नियम कायदों और सभ्यता-संस्कृति के असर से उनकी अपनी जीवन-शैली बदल गयी थी और उन्होंने शिष्टाचार के नये तौर तरीके अपना लिए थे। अब उन्हें अपने घरों में स्त्रियों के बर्ताव और काम करने के पुराने ढंग फूहड़ और असुविधाजनक लगने लगे थे। लिहाजा ये सुधारक समाज के पितृसत्तात्मक ढाँचे में कोई सुधार किए बग़ैर औरतों पर अपना परम्परागत नियंत्रण जरा भी ढीला किए बिना, अपनी स्त्रियों को एक ख़ास क्षेत्र में घरों के अंदर नए आदर्शरूप में ढालने की कोशिश करने लगे। शिक्षित स्त्री की नयी भूमिका की अंतर्वस्तु काफ़ी हद तक वही पुरानी थी।’’22 राधा कुमार के शब्दों में- ‘‘स्त्रियों की शिक्षा का एक उद्देश्य तो यह था कि ऊँची जाति की महिलाओं को असभ्य स्त्री समुदायसे किसी प्रकार का सम्पर्क स्थापित करने से रोका जाय और दूसरे यह कि उनके अन्दर निहित अशिष्टता की बुराई का इलाज किया जा सके।’’23 जितेन्द्र गुप्ता के अनुसार- ‘‘स्त्री शिक्षा के प्रति सकारात्मक रूख का कारण यह था कि वह घरके अन्दर की अपनी भूमिका निर्वाह ठीक और भली प्रकार निभा सके।’’24 उनके अनुसार भारतीय मध्यवर्ग में परम्परागत अस्मिताऔर उससे जुड़े जातीय बोध से भावी पीढ़ी को परिचित कराने की ज़िम्मेदारी स्त्रियों की थी, अतः पुरुष वर्ग ने उन्हें शिक्षा उपलब्ध करायी।25 

ये बातें पूरे भारतीय नवजागरण के संदर्भ में आंशिक रूप में ठीक हो सकती हैं पूरी तरह नहीं। साथ ही हिंदी भाषी चिंतकों की दृष्टि में भी थोड़ी भिन्नता दिखती है। इसका एक कारण तो यही था कि ये अंग्रेजी शिक्षा में रंगे भद्रवर्गीय नहीं थे। अंग्रेजी जानते हुए भी ये हिन्दी भाषी भद्रवर्गके थे। इस वर्ग के ज़्यादातर सदस्य सिर्फ़ हिंदी माध्यम से ही या किसी हद तक उर्दू माध्यम से ही शिक्षित हुए थे। तय है कि स्त्री-शिक्षा के माध्यम से स्त्रियों को जिस ख़ास आदर्शरूप में ढालने का उद्देश्य अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भद्रवर्ग का था, वैसा ही हिंदी भद्रवर्ग का नहीं था। इनका मुख्य उद्देश्य स्त्रियों का चरित्र-निर्माणथा। इसका अर्थ यह नहीं है कि अशिक्षित स्त्रियाँ चरित्रहीन होती थी। यहाँ चरित्र-निर्माण का प्रश्न नयी चुनौतियों के संदर्भ से जुड़ा हुआ है। इसे समझने के लिए नयी चुनौतियों का आंकलन और तदनन्तर चरित्र के प्रारूप संबंधी इनकी दृष्टियों को समझना होगा। भारतेन्दु ने कहा, ‘‘चरित्र-निर्माण और घरेलू प्रबंध वगैरह के बारे में बतानेवाली अच्छी पाठ्य पुस्तकें उनके (स्त्रियों के) पाठ्यक्रम में लगानी चाहिए।’’26 उद्देश्य यह था कि ‘‘ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें।’’27 अर्थात् ऐसा चरित्र जो पतिभक्त हो, बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके, देश और कुल धर्म भी निभा सके। साथ ही उन्होंने घरेलू प्रबंध भी मानने पर बल दिया। इनमें चरित्र-निर्माण, घरेलू प्रबंध और बच्चों की अच्छी शिक्षा; इन तीनों पर स्त्री-शिक्षा के संदर्भ में भारतेन्दुयुगीन हिन्दी रचनाकारों के अतिरिक्त नवजागरण के अन्य चिंतक और सुधारक भी बल दे रहे थे। विवेकानन्द ने स्त्री-शिक्षा को चरित्र निर्माण से ही जोड़ा। उनके अनुसार स्त्रियों को सीता के पद् चिह्नों का अनुसरण करते हुए, सतीत्व और वैराग्य के आदर्श की शिक्षा देते हुए अपने चरित्र को सबल बनाना है।28 तदनन्तर ‘‘सुशिक्षित और सच्चरित्रवती ब्रह्मचरिणियाँ शिक्षा का भार अपने ऊपर लें। ग्रामों और शहरों में केन्द्र खोलकर स्त्री-शिक्षा के प्रचार के प्रयत्न करें। ऐसी सच्चरित्र निष्ठावान उपदेशिकाओं के द्वारा देश में स्त्री-शिक्षा का यथार्थ प्रचार होगा। इतिहास और पुराण, गृहव्यवस्था और कला-कौशल, गार्हस्थ जीवन के कर्तव्य और चरित्र गठन के सिद्धांतों की शिक्षा देनी होगी। और इसके विषय, जैसे सीना, पिरोना, गृहकार्य नियम, शिशुपालन आदि भी सिखाये जायेंगे। जप, पूजा और ध्यान शिक्षा के अनिवार्य अंग होंगे।’’29 

चरित्र-निर्माण और घरेलू-प्रबंध की शिक्षा की ज़रूरत स्त्रियों के लिए विवेकानंद के अलावा केशवचन्द्र सेन भी महसूस कर रहे थे। इसीलिए उनके द्वारा चलाई जा रही कन्या पाठशालाओं में लड़कियों को खाना पकाने, सिलाई-कढ़ाई तथा सेवा-सश्रूषा की शिक्षा दी जाती थी तथा इन कार्यों में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए लड़कियों को प्रोत्साहन तथा पुरस्कार भी प्रदान किये जाते थे। प्रख्यात सुधारक ज्योतिबा फुले भी यह मानते थे कि यदि स्त्री को शिक्षित किया जाए तो अपने बच्चों को भी शिक्षित बना सकेगी। शायद उस दौर का इस संदर्भ में सबसे प्रभावशाली विचार यह था कि स्त्रियों की गृहस्थी पर ध्यान देना चाहिए ताकि पति तथा बच्चे दोनों को लाभ मिले।30 अर्थात् सच्चरित्रता से युक्त कुशल घरेलू प्रबंधक के रूप में स्त्री, अपनी संतान को शिक्षित कर सकने वाली माँ की भूमिका में स्त्री, विशेषकर इन्हीं रूपों में स्त्रियों की नयी भूमिका को पहचाना गया। बालाबोधिनीमें भी जिस तरह के स्त्री-चरित्रों को उभारा गया है, वह भी ऐसे ही स्त्री की ज़रूरत पर आधारित है जो कुशल घरेलू प्रबंधक हो और शिक्षित और शिक्षक माता हो।31 इन सब के पीछे स्त्री सम्बद्ध यौन शुचिता का भी एक आग्रह हो सकता है लेकिन एक मात्र आग्रह नहीं कहा जा सकता। 

स्त्रियों की यह भूमिका तय करने के पीछे परम्परागत मध्यकालीन मानसिकता से अधिक उपनिवेश विरोधी, राष्ट्रवादी निहितार्थ महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि इसके पीछे यह धारणा काम कर रही थी कि ‘‘जिन परिस्थितियों में स्त्रियाँ शिशुओं को जन्म देती हैं तथा जिन परिस्थितियों में बच्चे पलते हैं, वे इतनी दयनीय हैं कि भारतीय मूलपूरी तरह विकृतहो जाता है। रूग्ण बच्चे पैदा होते हैं तथा आगे चलकर वे जर्जर युवा के रूप में दिखाई पड़ते हैं। माताओं द्वारा बच्चों की उपेक्षा तथा कंजूसी से भारतीयों की एक पूरी पीढ़ी उद्यमशीलताखो चुकी है, इसीलिए भारत को अंग्रेजों का ग़ुलाम बनना पड़ा। अतः भारतीय राष्ट्र के लिए यह आवश्यक है कि उसके बच्चे उत्तम परिस्थितियों में जन्म लेकर पले बढ़ें।’’32 मतलब यह कि कुशल घरेलू-प्रबंध उत्तम परिस्थितियोंके निर्माण में सहायक होगा और चरित्रमूलक शिक्षा उन बच्चों को शिक्षित करने में, जिन्हें भविष्य की नयी चुनौतियों का सामना करना है। 

भारतेन्दु ने भारत की दुरावस्था के लिए यहाँ के लोगों में व्याप्त फूट, आलस्य, अकर्मण्यता, अज्ञान, स्वार्थपरता आदि को कारण माना था। इन्हीं के कारण-

            ‘‘धन विद्या बल मान वीरता कीरति छाई।

            रही जहाँ तित केवल अब दीनता लखाई।।’’33

ऐसे में शिक्षित और सुसंस्कृत बालक ही नये भारत के भविष्य की सम्भावनायें लिए थे। अर्थात् एक शिक्षित स्त्री की माता की यह भूमिका देशोन्नति की चिंता से पैदा हुई है। शिक्षा में कुशल घरेलू प्रबंध और सच्चरित्रता की माँग भी देशोन्नति की चिंता से जुड़ी हुई है। नित्य के घरेलू कलह को देशोन्नति में बाधक माना गया। इसीलिए यदि स्त्रियाँ कुशल घरेलू प्रबंधक होंगी तो यह स्थिति नहीं आयेगी। 

दरअसल स्त्री और पुरुषों के कार्य विभाजन का परम्परागत ढाँचा यहाँ नहीं बदला, लेकिन उसमें नयी अंतर्वस्तु का समावेश हो जाता है। नतीजा ढाँचे में दरार उत्पन्न होती है। जिसके प्रति हिन्दी बौद्धिकों में मिली जुली प्रतिक्रिया होती है। स्वीकार और अस्वीकार दोनों हैं। अस्वीकार का एक कारण जहाँ परम्परागत पितृसत्तात्मक रूढ़ मानसिकता है, वहीं यह डर कि इस मानसिकता की प्रतिक्रिया से इस बढ़ते हुए कदम को रोक दिया जाए। आम लोगों में रूढ़ पुरुषवादी वर्चस्व को एकबारगी नहीं बदला जा सकता था। मामला ऐसा था कि इसे धीरे-धीरे ही बदलना था। समाज परिवर्तन की कोई भी चेतना जैसे धर्म से पूर्णतः अलग नहीं हो सकती थी, वैसे ही स्त्री मुक्ति का कोई भी आख्यान पुरुष वर्चस्व से मुक्त नहीं। यह द्वन्द्व आज भी खत्म नहीं हुआ है, लेकिन द्वन्द्व में जो प्रभावकारी पक्ष है वह पुरातन नहीं है। 

यहाँ एक बात और ध्यान देने की है कि चरित्र-निर्माण पर बल तो यूरोपवासी भी दे रहे थे और उनके शिक्षा-प्रसार का मुख्य उद्देश्य भी यही था। दीपक कुमार के शब्दों में- ‘‘चूँकि हर यूरोपीय यात्री और यूरोपीय पर्यवेक्षक मूल निवासियों की चारित्रिक ख़ामियों का ढिंढोरा पीटते थे लिहाजा चरित्र निर्माणको शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बताया गया और { कोर्ट आफ डायरेक्टर्स द्वारा } यह आशा की गई कि शिक्षा की अंतर्वस्तु इसी उद्देश्य से संचालित होगी।’’34 लेकिन भारतेन्दुयुगीन लेखक जिस चरित्र-निर्माण की बात कर रहे थे, वह औपनिवेशिक नज़रिये से अलग था। औपनिवेशिक दृष्टि से नकली मनुष्य बनाया जाता था, जो रक्त में तो भारतीय हो पर रूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता की दृष्टि से अंग्रेज हो। जबकि नवजागरण के हिन्दी लेखक जातीय और राष्ट्रीय चेतना से युक्त चरित्र के निर्माण पर बल दे रहे थे, जो देशोन्नति का आधार था। अगर स्त्री-शिक्षा पर पुरुष-सुधारक इसलिए जो़र दे रहे थे कि उन्हें वे अपनी अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नयी जीवन-शैली की ज़रूरतों के मुताबिक ढालना चाहते थे, तो यह पूछा जा सकता है कि यही पुरुष सुधारक अपनी किन जीवन शैलियों की ज़रूरत के लिए सतीप्रथा, बाल-विवाह, बहु-विवाह जैसी प्रथाओं का विरोध करते थे, और विधवा-विवाह के समर्थन में आंदोलन चला रहे थे? क्या केवल यह अंग्रेजियत का प्रभाव था? दरअसल स्त्रियों से संबंधित लगभग ये सारे आंदोलन मूलतः मानवतावादी सुधारवादी दृष्टिकोण का परिणाम है। यह ठीक है कि इन आंदोलनों के पीछे पुरुषों का नेतृत्त्व था, लेकिन ऐसा कर वे पितृसत्तात्मक ढाँचे को मज़बूत करने के बजाय कहीं कमज़ोर ही बना रहे थे। कुछ लोग महाख्यानों को ध्वस्त करने की जल्दबाज़ी में भ्रामक निष्कर्षों को तथ्य की तरह प्रस्तुत करते हैं। 

हिंदी प्रदेश के नवजागरण में स्त्री-संबंधी चिंतन को स्त्री-पुरुष की समानता के आग्रह से अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय नवजागरण के सुधारक ही नहीं, भारतेन्दु हरिश्चंद्र ही नहीं, उनके मंडल के कई और लेखक भी नारि नर सम होंहिकी बात करते हैं। लेकिन इस विचार को हक़ीकत का जामा पहनाना आसान काम नहीं था। पितृसत्तात्मक मानसिकता को एक झटके में नहीं बदला जा सकता था। इन लेखकों के पास कोई जादू की छड़ी नहीं थी। एक ऐसे समाज में जहाँ सिर्फ काशी और प्रयाग जैसे प्राचीन हिन्दू तीर्थ थे, बल्कि इन जिलों में ब्राह्मणों की आबादी भी काफी थी। काशी नरेश के संरक्षण में यहाँ सिर्फ सनातन धर्म और रूढ़िवादी पंडितों की परम्परा को पर्याप्त संरक्षण मिला हुआ था, बल्कि गोरखपुर, आज़मगढ़, बस्ती, बलिया और देवरिया जैसे जिलों में ब्राह्मण जमींदार इतने शक्तिशाली थे, जितने वे प्रांत भर में और कहीं नहीं थे।35 तय है कि धर्माधिकारियों, मठाधीशों और पंडों-पुरोहितों के वर्चस्व में धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवाद, सामंती और सनातनी मूल्यों कर्मकांडों के प्रति जिस तरह का अंधा आग्रह यहाँ था, वैसा अन्यत्र शायद ही हो। एक ऐसे समाज में जहाँ व्यक्तिगत प्रयत्नों को यदि छोड़ दें तो स्त्री-शिक्षा की कोई परम्परा नहीं थी। जहाँ स्त्रियों की समस्याओं को लेकर कोई भी बड़ा सुधारवादी आंदोलन हुआ हो, वैसे समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन का विचार सीधे रखना इस विचार की व्यावहारिक परिणति के लिए घातक था। 

ऐसे में पुरुष-सत्तात्मक मानसिकता में धीरे-धीरे सेंध लगाने की ज़रूरत थी। इसके बिना स्त्रियों की आज़ादी के लिए जगह बनाना कम श्रमसाध्य काम नहीं था। भारतेन्दु जब स्त्रियों की शिक्षा का उद्देश्य कुल-धर्म सीखना’, ‘पति की भक्ति करनाबताते हैं तो उसी परम्परागत मानसिकता को पुष्ट कर रहे होते हैं, लेकिन इसका एक परिणाम यह होता है कि स्त्री-शिक्षा का कट्टर विरोधी मानस भी उक्त उद्देश्यके लालच में कम से कम स्त्री-शिक्षा के समर्थन में अपना मन तो बना ही लेता है। फलस्वरूप स्त्रियों के लिए बंद चहारदीवारी के रास्ते सीमित ही सही खुल जाते हैं। ऐसा होना ही कट्टरपंथी हिन्दू-मुस्लिम समाज में किसी भी तरह से कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। बाहरी दुनिया का सम्पर्क उन्हें नयी समझ और रौशनी की तरफ अनायास ही आकर्षित करता है। इसीलिए अकारण नहीं है कि भारतेन्दु स्त्री-शिक्षा के लिए कम उपस्थिति के बावजूद सरकारी स्कूलों को चलते रहने देना चाहते हैं और उसमें पढ़ाने के लिए गैर-मिशनरी यूरोपीय महिलाओं के प्रयत्न को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। यही इस बात का भी द्योतक है कि भारतेन्दु स्त्रियों को दी जानेवाली गृहशिक्षा प्रणाली से कहीं कहीं असंतुष्ट थे। 

अपने समाज की ठोस वास्तविकताओं को ध्यान में रखकर भारतेन्दु अक्सर न्यूनतम से शुरू करते हैं। स्त्री-शिक्षा ऐसा ही मसला था। भारतेन्दु जानते थे कि देश की उन्नति के लिए निज भाषा की उन्नति ज़रूरी है, लेकिन वास्तविकता यह थी कि जग की विद्या सकल अंगरेजी आधीन36 तार से ख़बर भेजने का तरीका, रेल कैसे चलती है, मशीन किसे कहते हैं, वह तोप कैसे चलती है जो पूरे गाँव को जला देती है, कपड़े और कागज़ कैसे बनते हैं इत्यादि जैसी शिक्षा अंग्रेजी के बिना नहीं मिल सकती।37 अर्थात् अंग्रेजी की शिक्षा ज़रूरी है, लेकिन स्त्री-शिक्षा में अंग्रेजी को लागू करना मुश्किल था।

             ‘‘अंगरेजी निज नारि को कोउ सकत पढ़ाइ

              नारि पढे़ बिन एक हू काज चलत लखाइ ’’

लोग क्या पढ़ा सकते हैं, क्या नहीं, भारतेन्दु इसका विवेकपूर्ण विश्लेषण करते हैं। पढ़ाने की ज़रूरत बहुत है। भारतेन्दु कम से कम पर तैयार होते हैं। यही इन लेखकों का तनाव था। यह अकारण नहीं है कि स्त्रियों के लिए निकलनेवाली भारतेन्दु की पत्रिका बालाबोधिनीमें शृंगारिक रचनाएँ अथवा स्त्री-समस्या से जुड़ी किसी भी तरह का परिवर्तनकारी नज़रिया दिखायी नहीं पड़ता है। यदि ऐसा होता तो सम्भव था कि स्त्रियों तक उस पत्रिका का पहुँचना मुश्किल ही नहीं असम्भव हो जाता। क्योंकि सब कुछ पुरुषों के हाथ में ही था। इस संदर्भ में एक उदाहरण पर्याप्त होगा। जालंधर के कन्या महाविद्यालय से पढ़कर निकली एक पुरानी छात्रा ने बचपन में पढ़ाई के लिए जाति से निकाल दिए जाने की प्रवृत्ति के खि़लाफ अपने संघर्ष को याद करते हुए 1934 में लिखा, ‘‘किसी कन्या के हाथ में अक्षर दीपिकाका होना इतना बड़ा अपराध माना जाता था कि इससे उसकी सगाई तक टूट सकती थी।’’38अक्षर दीपिकास्त्रियों के लिए निकलने वाली एक पत्रिका थी। जब पंजाब की यह स्थिति थी जहाँ आर्यसमाजी आंदोलन का काफ़ी प्रभाव पड़ा था, तब हिन्दी प्रान्त की रूढ़िवादिता का अंदाजा लगाया जा सकता है, जहाँ सनातनी संस्थाओं सभाओं ने आर्यसमाज को टिकने तक नहीं दिया। 

यही स्थिति लड़कियो की स्कूली शिक्षा को लेकर भी थी। अगर एक भी लड़की का ब्याह स्कूल जाने की वजह से टूटता था, पुरुष समाज सैकड़ो लड़कियों की पढ़ाई रोककर भूल सुधारते थे। पश्चिमोत्तर प्रांत में कम उपस्थिति या पूर्ण अनुपस्थिति की वजह से लड़कियों के स्कूल काफ़ी संख्या में बंद किए जा रहे थे। स्पष्ट है कि परिवर्तन आसान नहीं था। नारी नर सम होहिकहना और उन्हें लागू करने के बीच एक बड़ी क्रान्ति की ज़रूरत थी, जो आज तक नहीं हुई है, तब की तो बात ही और थी। उस समय तो समानता के इस विचार का उठना ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यह विचार बालाबोधिनीके प्रचार वाक्य में भी स्पष्ट रूप से रखा गया। 

भारतेन्दु की दृष्टि में जिस तरह राष्ट्र को अपनी उन्नति के लिए स्वत्वगढ़ने की ज़रूरत है- स्वत्व निज भारत गहै-उसी तरह स्त्रियों की उन्नति के लिए भी ज़रूरी है कि वे अपने स्वत्व को पहचानें। स्त्रियों के उत्थान का प्रश्न राष्ट्र के उत्थान से अलग नहीं है। इसका उदाहरण हैनीलदेवी नाटक की भूमिका जिसमें स्त्रियों से जाति और देश की सम्पत्ति और विपत्ति को समझने की बात कहते हैं। इस तरह भारतेन्दु स्त्रियों के सरोकारों को व्यापक फलक देते हैं, बड़ी ज़िम्मेदारियों से जोड़ते हैं। स्त्रियों की गृहदासता और व्यर्थ के कलह प्रपंचों में ही फँसे रह जाने को वे समुन्नत मनुष्य जीवन को खोना कहते हैं। भारतेंदु जहाँ एक तरफ स्त्रियों को परम्परागत संकीर्णताओं के घेरे से बाहर निकालना चाहते हैं, वहीं दूसरी तरफ उसे आधुनिकता के नाम पर स्वच्छंदता के निजी प्रसंगों में ही नहीं खोने देना चाहते। स्वत्वकी पहचान पति की बाहों को थामे घूमने से नहीं है, बल्कि अपने वृहत्तर सरोकारों को समझकर उसमें कर्मरत होने से है। इसके लिए परम्परा विमुखता ज़रूरी नहीं है। नीलदेवीका चरित्र इसका अच्छा उदाहरण है। इस अनूदित नाटक की रचना भारतेन्दु ने स्त्री-विषयक रूढ़ि को तोड़ने के लिए ही की थी। नीलदेवी परम्परागत रूप से पतिव्रता है। फलतः उसमें सतीत्व का आग्रह है, लेकिन उसका यह आग्रह राष्ट्रहित से जुड़ जाता है। उसका सतीत्व उसके चरित्र का गुण है, पर वह अकर्मण्यता का नहीं। और जो विवेक सम्मत संघर्षमूलक कर्म की प्रेरणा देकर उसे विजयी बनाता है। फिर भी उस दौर के विचारों के संदर्भ में यह कहना कि ‘‘वे (पुरुष) खुद तो आधुनिक बनना चाहते थे, लेकिन स्त्रियों को आधुनिक बनाया जाए कि नहीं, अगर बनाया जाए तो किस हद तक- इस द्वन्द्व में पड़े रहते थे।’’39 निरर्थक-सा लगता है। 

याद रखने की ज़रूरत है कि आधुनिकता प्रक्रिया में अर्जित की जाती है, वह भी परम्परा से अकस्मात् विच्छिन्न होकर नहीं। स्त्री और पुरुष दोनों ही प्रक्रिया में ही आधुनिक हो रहे थे, और परम्परा विमुख हो, स्वयं पुरुष ही आधुनिक होना चाहते हैं स्त्रियों को करना चाहते थे। लेकिन दोनों के आधुनिक होने की प्रक्रिया अलग-अलग थी और यह स्वभाविक भी था। क्योंकि दोनों की सामाजिक स्थिति एक नहीं थी। नियंता-नियामक पुरुष की सामाजिक स्थिति और नियंत्रित, दमित स्त्रियों की सामाजिक स्थिति एक नहीं हो सकती थी। 

स्त्रियों को आधुनिक बनाये जाने की प्रक्रिया के अगले कड़ी बने बालकृष्ण भट्ट। उस समय के पढ़े-लिखे लोगों के बीच स्त्री-शिक्षा के संदर्भ में जिस तरह की बातें होती थी उसका उल्लेख भट्टजी ने इन शब्दों में किया-‘‘क्या खाली स्त्री की जाति में जन्म पाने के भेद से बुद्धि बल में भी भेद गया है? कदापि नहीं! आपने खुद ऊँचे दर्जे की शिक्षा पायी है तब इस योग्य हुए कि दूसरों की न्यूनता समझें तब फिर वही शिक्षा फैलाने का प्रयत्न आप उनमें भी क्यों नहीं करते।’’40 तत्कालीन बौद्धिक स्त्री-शिक्षा के लिए तर्क समानता का दे रहे थे। साथ ही शिक्षा का उद्देश्य विवेक का निर्माण बता रहे थे। यहाँ जीवन-शैली चरित्र आदि की बहस नहीं है। खुद बालकृष्ण भट्ट उक्त विमर्श से थोड़े असहमत होते हैं, वे सिर्फ पुरुषों द्वारा किए जाने वाले प्रयत्नों को नाकाफ़ी समझते थे। उनका कहना है, ‘‘निश्चय जानिए स्त्रियों के दोष पुरुषों के लिए कभी दूर नहीं हो सकते जब तक वे अपने को आप सुधारें।’’41 क्योंकि पुरुषों के चरित्र में दोगलापन है। बाहर अथवा विचारों से कुछ, घर में अथवा व्यवहार में कुछ और। चूँकि पुरुषों का प्रयत्न नाकाफ़ी है, सो स्त्रियों को खुद समझना होगा। इसीलिए वे कहते हैं शिकायत मत कीजिए कि विद्या आदि अमूल्य रत्नों से हमारी स्त्रियाँ वंचित है, वरन् यह यत्न कीजिए कि विद्या आदि अमूल्य रत्नों की कदर वे खुद समझ जाएँ।और इसके लिए ज़रूरी है कि उनके मानसिक शक्ति का दरज़ा बड़ाहो, उनके ख़यालात की प्रणाली बिल्कुल बदलजाए।42 इस तरह भट्टजी ने स्त्रियों के उन्नति के आख्यान को पुरुष वर्चस्व से इस हद तक मुक्त किया। सीमंतनी उपदेशकी लेखिका एक हिन्दू औरतने भी स्त्री-मुक्ति के प्रश्न में स्वयं स्त्री की भूमिका को यह कहकर महत्त्वपूर्ण बनाया कि ‘‘अब हमको खुद इस जेलखाने से निकलने की तदवीर करनी चाहिए।’’43 स्त्री-प्रश्न के संदर्भ में जिस नतीजे पर एक रेडिकल स्त्री अपने अनुभवों से पहुँचती है, उसी नतीजे पर भट्टजी पितृसत्तात्मक समाज के पुरुष होकर पहुँचे। इससे इतना तो कम से कम स्पष्ट है कि अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद इस दौर के लेखक समाज के पुराने ढाँचे से संतुष्ट नहीं थे और उसमें सुधार भी चाहते थे। डॉ. रामविलास शर्मा ने इसी वजह से भारतेन्दुयुग के साहित्य को जनवादीकहा है।44 बालकृष्ण भट्ट स्त्री-समस्या पर कितने गंभीर थे, यह इस बात से पता चलता है, जब वे कहते हैं, ‘‘बाहर हम कितनी ही तरक्की करें वे बड़े से बड़ा इम्तहान पास कर उशना और बृहस्पति के प्रतिनिधि हो जायें, स्त्रियों की दशा में जब तक परिवर्तन होगा कुछ हो सकेगा।’’45 और इसी गंभीरता से जब वे स्त्रियों की शिक्षा पर बात करते हैं तो उसका स्वरूप और उद्देश्य उनके लिए वही नहीं रह जाता, जो कि भारतेन्दु के लिए था। सवाल भारतेन्दु की गंभीरता-अगंभीरता का नहीं है। बालकृष्ण भट्ट उसी प्रक्रिया के अगले चरण बनते हैं। 

स्त्री-शिक्षा के संदर्भ में बालकृष्ण भट्ट ने लिखा-‘‘उस तरह की तालीम होनी चाहिए जिसमें इनके नेत्र खुले। भूगोल इतिहास भाँत-भाँत के विज्ञान इन्हें सिखायें जाएँ, जिनके पढ़ने से इनकी विवेक शक्ति बढ़े हिन्दू धर्म की सब पोल खुल जाए और यह ठीक-ठीक मन में इनके बैठ जाए कि जो हम कर रही हैं और अब तक करती आई हैं धर्म का आभास मात्र निरा अधर्म है। अपनी वर्तमान पतित गिरी दशा का पूरा-पूरा बोध हो जाए और यह जानने लगे कि हमें निपट भोली और सीधी समझ अनेक नाम रूप और भेष से धूर्त लोग हमसे पुजाते हैं और धर्म का महत्त्व दिखलाय नित्य-नित्य हमें बिगाड़ते जाते हैं।’’46 इस विचार को पढ़ने के बाद भी यह कहना कि परम्परागत अस्मितासे भावी पीढ़ी को परिचित कराने की ज़िम्मेदारी स्त्रियों को देने के लिए पुरुष वर्ग ने उन्हें शिक्षा उपलब्ध करायी,47 पूर्ण सत्य नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि भट्टजी स्त्रियों को पितृसत्तात्मक समाज की पुरुषवादी धार्मिक षड्यंत्रों से स्त्रियों को मुक्त देखना चाहते थे, इसीलिए उन्हें शिक्षित करना चाहते थे। उनकी दशा में सुधार धार्मिक जकड़बंदियों से मुक्त होने में ही सम्भव था, इसी से कौम की तरक्कीभी जुड़ी हुई थी। इसी क्रम में भूगोल, इतिहास विभिन्न ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा उन्हें दिये जाने का वे समर्थन करते हैं। 

‘‘जिस ईश्वर ने पुरुषों को बनाया है उसी ने स्त्रियों को भी’’, की वैचारिक समझ रखनेवाले भट्टजी अगर कहते हैं कि ‘‘यकीन रखिये उनकी गिरी दशा में आज यदि विदेशी स्वच्छंदता ठूँसना चाहते हैं तो चाहे आप मन से इसे प्रशंसनीय समझें पर इससे बढ़कर उनपर कोई दूसरा जुल्म होगा।’’48 तो यह ऐतिहासिक परिस्थिति की मज़बूरी थी। कमज़ोरी से मूर्च्छित हुए व्यक्ति के होश में आते ही उसे सरपट भागने के लिए कहना उसपर ज़ुल्म करना ही होगा। उद्देश्य महान् हो सकते हैं पर उद्देश्य तक पहुँचने की प्रक्रिया तो ठोस परिस्थितियों के बरक्स ही होगी। भट्टजी जानते थे कि ‘‘धीरे-धीरे यह काम सिद्ध होगा’’49, इसीलिए दोहरे मानदंडों की बात करना बेमानी है। 

सवाल किया जा सकता है कि यह प्रक्रिया इतनी धीमी क्यों थी? दरअसल इस प्रक्रिया का सीधा संबंध एक तरफ समाज में घटित हो रहे सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन से था, तो दूसरी तरफ इस संदर्भ में अंग्रेजी राजसत्ता का उद्देश्य और कार्यपद्धति, जिसकी गति इतनी धीमी थी कि इसे आंदोलनकारी कहना अतिश्योक्ति लग सकता है। आंदोलनों के केन्द्र तो होते हैं लेकिन उसकी प्रक्रिया यदि सीमित है, महत्त्व निःसंदेह आकर्षक नहीं होता। 

सन्दर्भ  : 

1.   राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, सं.- 2002, पृ. ष्ठ 23

2.   प्रतापनारायण मिश्र, रचनावली/खण्ड-3, सम्पा.-डॉ. चन्द्रिकाप्रसाद शर्मा, भारतीय प्रकाशन

    संस्थान, दिल्ली, सं.-2001, पृ. 17

3.   वही, पृ. 20

4.   वही, पृ. 21

5.   वही, पृ. 20

6.   भगवती प्रसाद शर्मा, नवजागरण और प्रतापनारायण मिश्र, राधा पब्लिकेशन्स, दिल्ली,

 सं.-1994, पृ. 216

7.   प्रतापनारायण मिश्र, रचनावली, खण्ड-3, पृ. 19

8.   वही

9.   वही, पृ. 18

10.  वही, पृ. 43

11.  ( रस्साकशी, वीरभारत तलवार की पुस्तक से उद्धृत, पृ. 16 )

12.  भारतेन्दु समग्र, सम्पा.-हेमन्त शर्मा, पृ. 1013

13.  ( रस्साकशी, से उद्धृत, पृ. 36 )

14.  ब्रजरत्न दास, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, पृ. 96

15.  वीरभारत तलवार, रस्साकशी, सारांश प्रकाशन, हैदराबाद, सं.- 2002, पृ. 40

16.  वही, पृ. 37

17.  प्रतापनारायण मिश्र, रचनावली/खण्ड-3, पृ. 19

18.  वीरभारत तलवार, रस्साकशी, पृ. 221

19.  वही, पृ. 136

20.  भारतेन्दु समग्र, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना, वाराणसी, सं.- 2000, पृ. 230

21.  हरमोहन लाल सूद, भारतेंदु मंडल के समानांतर और आपूरक मुरादाबाद मंडल, वाणी

 प्रकाशन, दिल्ली, सं.- 1986, पृ. 312

22.  वीरभारत तलवार, रस्साकशी, पृ. 212

23.  राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, पृ. 40

24.  जितेन्द्र गुप्ता, तद्भव(पत्रिका)-11, पृ. 72

25.  वही, पृ. 75

26.  ( रस्साकशी, से उद्धृत, पृ. 36 )

27.  भारतेन्दु समग्र, पृ. 1013

28.  स्वामी विवेकानंद का शिक्षा-दर्शन, अरुण प्रकाशन, दिल्ली, सं.- 1998, पृ. 57-58

29.  वही, पृ. 58-59

30.  राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, पृ. 56

31.  वसुधा डालमिया, इंडियन्स लिटरेरी हिस्ट्री: ऐसेज़ आन नाइनटिन्थ सेन्चुरी, परमानेंट

 ब्लैक, दिल्ली, 2004, पृ. 409

32.  राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, पृ. 57

33.  भारतेन्दु समग्र, पृ. 259

34.  दीपक कुमार, विज्ञान और भारत में अंग्रेजी राज, अनु. चंद्रभूषण, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली,

 सं.-1998, पृ. 119

35.  वीरभारत तलवार, रस्साकशी, पृ. 156

36.  भारतेन्दु समग्र, पृ. 229

37.  वही

38.  वीरभारत तलवार, रस्साकशी, पृ. 53

39.  वही, पृ. 211

40.  बालकृष्ण भट्ट, प्रतिनिधि संकलन, नैशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, सं.- 1996, पृ. 25

41.  वही, पृ. 26

42.  वही, पृ. 27

43.  एक हिन्दू औरत, सामंतनी उपदेश, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, सं.- 2004, पृ. 45

44.  रामविलास शर्मा, भारतेन्दुयुग और हिन्दी भाषा की विकास परम्परा, राजकमल प्रकाशन,

 दिल्ली, सं.- 1998, पृ. 52

45.  भट्ट निबंधमाला, भाग-2, पृ. 114

46.  वही, पृ. 89

47.  तद्भव (पत्रिका)-11, पृ. 75

48.  बालकृष्ण भट्ट, प्रतिनिधि संकलन, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, पृ. 26-27

49.  वही, पृ. 26  

डॉ. भास्कर लाल कर्ण, असोसीएट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग

मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय (प्रातः) दिल्ली विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली- 110021

bhaskarmlnc@gmail.com, 9891266601



        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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