शोध आलेख : सूफियों पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव / श्रीनिवास त्यागी
शोध सार : इस शोध पत्र में सूफियों पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। साथ-साथ यह भी स्पष्ट किया है कि संस्कृतियों का आपसी आदान-प्रदान ही उनको जीवंतता प्रदान कर उनकी निरन्तरता को बनाए रखता है। जो संस्कृति आदान-प्रदान की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया को समाप्त कर देती है, वह भी काल के गाल में समाहित हो जाती है। सूफी संतों और फ़कीरों को भारतीय जन-मानस में जो सम्मान मिला है, उसके लिए उनका व्यक्तिगत आचरण महत्त्वपूर्ण रहा है। हम सामान्य रूप से देख सकते हैं कि उनके इस आचरण पर बौद्ध-भिक्षुओं और हिन्दू संत महात्माओं का गहरा प्रभाव दिखता है। इस संगम ने भारतीय संस्कृति को और विराटता प्रदान की है।
बीज शब्द : अपरिग्रह, अद्वैतवाद, आत्मा, आष्टांगिक मार्ग, इस्लाम, वेदांत, मोक्ष, बौद्धमत, निर्वाण, संस्कृति, सांस्कृतिक विरासत, तसव्वुफ़, सूफी, सूफीमत, चिश्ती, कादरी, नक्शबंदी, सुहारावर्दी, धर्म, भक्ति-आन्दोलन, जीव, ब्रह्म, भक्ति, प्रेम, तल्लीनता, आत्म समर्पण।
मूल
आलेख : मनुष्य ने अपनी तमाम आवश्यकताओं को
पूरा करने के लिए अनेक नियम-कानूनों,
विधि-विधानों
के साथ-साथ प्रविधियों, उपकरणों
और रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं को सामाजिक जीवन में समय-समय पर अपने लिए रचा है। ये
सब मूल्य और मान्यताएँ तथा परम्पराएँ पीढ़ी दर पीढ़ी सदियों से हस्तांतरित होती
रही हैं। इन सब मूल्य, मान्यताओं
और परंपराओं के योग को संस्कृति कहा जाता है। एक प्रकार से, संस्कृति हमारे द्वारा सामाजिक जीवन
में सीखा गया वह व्यवहार है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हमें अपने पूर्वजों से
हस्तांतरित होता रहता है। संस्कृति का
मतलब संस्कार से भी होता है। जो संस्कार हमें अपनी परंपरा और समाज के साथ
निरन्तरता में मिलते हैं, वे संस्कृति का ही प्रतिफल होते हैं। एडवर्ड
टायलर के अनुसार ‘संस्कृति
वह जटिल समग्रता हैं जिसमे ज्ञान, विश्वास, कला, आर्दश, कानून, प्रथा एवं अन्य किन्हीं भी आदतों एवं
क्षमताओं का समावेश होता है, जिन्हें मानव ने समाज के सदस्य होने के नाते
प्राप्त किया है।’ इस
प्रकार हम कह सकते हैं कि संस्कृति मनुष्य के जीवन जीने की कला की समग्रता का नाम
है। बिना संस्कार और संस्कृति के मनुष्य के जीवन में विकृति आती है, जो उसे पशुता की ओर ले जाती है। मानवीय
मूल्य हमें संस्कारों और संस्कृतियों की थाती से ही मिलते हैं। मनुष्यता के पास जो
कुछ भी सर्वश्रेष्ठ है, वह
उसकी संस्कृति का प्रदेय है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि “मानव अपने जीवन-यापन के लिए जिस धर्म, दर्शन, इतिहास, रीति-रिवाज, आचार-परंपरा से प्रेरणा लेता है,
उन सबका समुच्चय
ही संस्कृति है।”[1]
भारतीय संस्कृति के बारे में महात्मा गांधी का
यह कथन एकदम सत्य है कि “कोई संस्कृति इतने रत्न-भंडार से भरी हुई नहीं
है, जितनी
हमारी अपनी संस्कृति है|”[3] इसीलिए इकबाल भी लिखते हैं कि ‘कुछ तो बात है हस्ती मिटती नहीं हमारी।
’हमारी
सांस्कृतिक विरासत मानवीय मूल्यों की अमूल्य धरोहर को अपने में समेटे हुए है,
ये विरासत एक
दिन का प्रतिफल नहीं है। इस भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने कई दौर बदलाव और
उथल-पुथल के देखें हैं, कई
संकटों के दौर से गुजरी है हमारी अपनी सभ्यता, लेकिन यह आज भी निरंतर बनी हुई है।
अपनी पुस्तक ‘संस्कृति
के चार अध्याय’ के
प्रथम संस्करण की भूमिका में रामधारी सिंह दिनकर जी ने भारतीय संस्कृति के इतिहास
में हुई चार क्रांतियों की चर्चा की है, जिसमें तीसरी क्रांति दिनकर जी उस समय मानते
हैं ‘जब
इस्लाम, विजेताओं
के धर्म के रूप में भारत पहुंचा और इस देश में हिंदुत्व के साथ उसका सम्पर्क हुआ। ’अर्थात जब इस्लाम भारत आया, उसकी टकराहट हिंदुत्व के साथ हुई,
जिससे देश के
सामाजिक-सांस्कृतिक तथा धार्मिक जीवन में कई बहुत बड़े बदलाव आए।
इस्लाम
के साथ-साथ सूफी भी भारत आए, लेकिन उनके आगमन की कोई निश्चित तिथि नहीं है
और वे सब एक साथ भी नहीं आए, अपितु धीरे-धीरे कई दौर में भारत आए हैं। कुछ
लोगों का मानना है कि भारत में सूफियों का आगमन शताब्दी तक होता रहा है। “ईसा की दसवीं शताब्दी तक धीरे-धीरे
सूफी लोग भारत के सिंध तथा पंजाब में फैल गए थे। मुल्तान इनका सबसे बड़ा केंद्र था।”[4]
इस प्रकार
स्पष्ट है कि सबसे पहले सूफी संतों और फ़कीरों का आगमन सिंध, पंजाब और पश्चिमोत्तर भारत में होता है,
लेकिन शीघ्र ही
वे पूरे देश में फ़ैल गए थे। सच तो यह भी है कि “इस्लाम के प्रचार में सूफियों का विशेष
योगदान रहा। इन सूफियों के आदर्श जीवन से प्रभावित होकर बहुत से हिन्दू स्वेच्छा
से मुसलमान बन गए।”[5] ऐसा
क्यों हुआ ? क्योंकि
“वास्तव
में भारतीयों की अनेक प्रथाओं एवं तांत्रिक विचारों से प्रभावित होकर सूफी भारत आए
थे। उनमें से कुछ केवल चमत्कारिक रहस्यों का अध्ययन करने, कुछ आध्यात्मिक विवरण लेने तथा कुछ
भारतीय वायुमंडल से परिचय पाने आए थे। अफगानिस्तान के मार्ग से अनेक सूफी
संप्रदायों से संबंध रखने वाले लोग भारत में आए। विदेशों से धर्म प्रचारार्थ आने
के कारण उनमें अदम्य उत्साह था। वे किसी व्यवस्था के आदेशानुसार नहीं वरन
व्यक्तिगत रूप में आए थे और ईश्वरीय सेवा उनका ध्येय था। उनका जीवन पवित्र होने के
कारण लोगों को उनके आचरण शीघ्र ही ग्राह्य हो गए। उनका प्रेम व्यवहार लोगों को
लुभाने में जादू का कार्य करता था।”[6] इस जादू ने जनता को सूफियों की ओर आकर्षित
किया। लेकिन “भारत
वर्ष में सूफियों के चार सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं, जिनके कारण इस देश पर सूफी-मत का
व्यापक प्रभाव पड़ा।”[7] पहला
सुहरावर्दिया दूसरा चिश्तिया तीसरा कादिरिया और चौथा नक्शबंदी। निजामुद्दीन औलिया,
अमीर खुसरो तथा
जायसी चिश्ती-सम्प्रदाय के अनुयायी थे, जबकि दाराशिकोह कादिरिया सम्प्रदाय का अनुयायी
था।
यहाँ सूफी शब्द का तात्पर्य समझना आवश्यक होगा।
इस शब्द के कई अर्थ निकलते हैं। “सूफी शब्द का साधारण अर्थ इस्लामी संत समझा
जाता है। फारसी में जिसे तसव्वुफ़ कहते हैं, वह हिन्दी का सूफीमत है।”[8] इनके आचरण और स्वभाव में कई लक्षण पाए
जाते हैं। कुछ प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं-“1-बाह्य आडंबरों के स्थान पर भीतरी
तत्वों पर बल, जिनका
प्रतिपादन वे मनसा, वाचा,
कर्मणा करते
हैं। 2-व्यक्तिगत
साधनारत होते हुए भी लोक की अनदेखी नहीं करते। 3-परमात्मा के साथ-साथ प्राणिमात्र के
प्रति उत्कट-अनुराग। 4-गहरा
मानवीय मूल्य-बोध, जो
संप्रदाय एवं साधना की सीमाओं में नहीं अटता। वैचारिक-उदारता उनके चरित्र का
वैशिष्ट्य है। 5-प्रेम
को जीवन के मूल-तत्व के रूप में पहचानना, पर ज्ञान के प्रति द्वन्द्वात्मक भाव नहीं
रखना।”[9] इस
प्रकार स्पष्ट है कि सूफी संत और फकीर का जीवन भारतीय संत-महात्माओं से
मिलता-जुलता था।
सूफियों के उद्भव और विकास के बारे में
विद्वानों ने अनेक धर्मों के योगदान की चर्चा की है। इस्लाम के आगमन से भारतीय
समाज में कई परिवर्तन आए, इस बदलाव की एक बड़ी आहट हमें भक्ति आन्दोलन के
उद्भव और विकास में भी सुनाई पड़ती है, जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इस्लाम का प्रभाव
मानते हैं; तो
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी इस्लाम का चार आना भर का प्रभाव भक्ति आन्दोलन के
उद्भव एवं विकास पर स्वीकारते हैं। “जब सूफी-धर्म अपनी बुलंदी पर था, तब तक भक्ति का आन्दोलन दक्षिण भारत से
उत्तर में पहुँच चुका था।”[10] इस समय उभरे भक्ति-आन्दोलन के दौरान रचे गए
हिंदी निर्गुण भक्ति साहित्य की एक शाखा का नामकरण ही सूफी साहित्य या सूफी-शाखा
के रूप में हुआ है।
इन सूफी कवियों और संतों ने अपनी प्रेमगाथाओं
में “जो
कहानियाँ ली हैं वे सब हिन्दुओं के घर में बहुत दिनों से चली आती हुई कहानियाँ हैं
जिनमें आवश्यकतानुसार उन्होंने कुछ हेर फेर किया है। कहानियों का धार्मिक आधार
हिन्दू है।”[11] सूफियों
ने न केवल हिन्दुओं की कथाओं को अपने साहित्य का विषय बनाया अपितु बहुत से
दार्शनिक, सामाजिक
मूल्यों, मान्यताओं
और परंपराओं को भी अपने जीवन और दार्शनिक चिंतन में अपनाया। इसी के चलते भारतीय
समाज ने भी सूफियों को भी सहजता से स्वीकार कर लिया। जिस प्रकार “वेदांत के मोक्ष और बौद्धमत के निर्वाण
के वजन पर सूफियों ने फना की कल्पना निकाली और बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग ही उनका
तरीका या सलूक हुआ। उसी प्रकार सूफियों ने भारतीय योग के ध्यान को मराकबा कहकर
अपनाया एवं भारतीय योगियों के चमत्कार ही सूफियों के यहाँ करामात या मोजजा कहलाने
लगे। सूफियों के बीच स्वच्छता, पवित्रता, सत्य और अपरिग्रह पर जो इतना जोर है
तथा उनमें माला जपने की जो प्रथा है, उन सब के पीछे शुद्ध भारतीय संस्कार का ही
प्रभाव माना जा सकता है।”[12] यहाँ अभिप्राय यह है कि भारतीय सूफियों ने
भारतीय सभ्यता और संस्कृति के कई मूल्यों, मान्यताओं, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को
अपने साहित्य, जीवन
और दार्शनिक चिंतन में जाने-अनजाने बहुत कुछ अपनाया है।
हम देखते हैं कि वैचारिक रूप से वेदांत का
सूफियों की विचारधारा पर गहरा प्रभाव दिखाई देता है। इस सृष्टि के सम्बन्ध में
सूफियों के विचार उपनिषदों में व्यक्त विचारों से काफी साम्य रखते हैं। जैसे
सृष्टि के कारण की चर्चा में हदीस का प्रमाण देते हुए सूफी कहते हैं-“कुन्तों कनजन मखफीयन फाह बबतो अन ओरिफो
फखलकतुल खल्क। (मैं एक छिपा हुआ खजाना था, फिर मैंने इच्छा की कि लोग मुझे जाने। अतः
मैंने सृष्टि की रचना की।) तैत्तिरीयोपनिषद षष्ठ अनुवाक में आया है-सोअकामयत।
बहुस्याम प्रजायेयेति। अर्थात उस ईश्वर ने विचार किया कि मैं प्रकट तथा बहुत हो
जाऊँ।”[13] सूफियों
ने जैसा महत्त्व गुरू को दिया है वैसा महत्त्व इस्लाम में गुरू को नहीं दिया गया
है, उन्होंने
यह प्रभाव भी उपनिषदों एवं भारतीय संस्कृति से ग्रहण किया गया है। भारतीय सूफियों
ने “हुलूल
(अवतारवाद) तथा तनासुख (पुनर्जन्म) का विचार हिन्दूमत से लिया गया है। योग के
प्राणायाम, ध्यान
आदि से सूफियों के जिक्र की क्रियाओं की बहुत कुछ समानता है।”[14] जैसे-दोनों सांस पर नियंत्रण करना,
उपवास और
प्रायश्चित करना तथा माला जाप करना तथा अतिथि या आगन्तुक को जल भेंट तथा सब के
प्रति प्रेम, भक्ति
का भाव रखना तथा सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता का भाव रखना इत्यादि मानवीय
मूल्यों में भारतीय संस्कृति का ही सूफियों पर गहरा प्रभाव रहा है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि
सूफियों ने भारतीय संस्कृति से बहुत कुछ ग्रहण किया है, पर वह सब ग्रहण नकल मात्र नहीं है। फिर
भी उस पर भारतीय संस्कृति की अमिट छाप को हम राहुल सांकृत्यायन के इन शब्दों से
समझ सकते हैं कि “सूफी
दर्शन में जीव ब्रह्म का ही अंश है और जीव का ब्रह्म में लीन होना यही उसका
सर्वोच्च ध्येय है। जीव ही नहीं जगत भी ब्रह्म से भिन्न नहीं है। शंकर के ब्रह्म
अद्वैतवाद और सूफियों के अद्वैतवाद में कोई अंतर नहीं है।”[17] भारतीय संस्कृति के वेदांत दर्शन का
सूफियों पर पड़े गहरे प्रभाव का विवेचन करते हुए विशम्भरनाथ पांडे लिखते हैं कि “जब तसव्वुफ़ और वेदांत हिंदुस्तान की सर
जमीन पर मिले तो इन्होंने दोनों हिन्दू और मुसलमानों में, ईश्वर की तलाश करने वाले लोगों के हृदय
में, उत्साह
भरा। दोनों में इतनी साफ़ समानताएँ थीं कि दोनों ने ही उन्हें पहचान कर अपना लिया।
सूफी और संतों ने मालूम कर लिया कि उनके लक्ष्य साधन एक से हैं। आपस में इसी मिलाप
से विचार की वह गहरी धारा बह निकली, जो मध्यकालीन हिन्दुस्तान की संस्कृति का आधार
बनी।”[18] यह
आधार दो संस्कृतियों के मेल का सकारात्मक प्रभाव का ही प्रतिफल है।
इस
प्रकार स्पष्ट है कि इन दोनों संस्कृतियों के आदान-प्रदान ने भारतीय जनमानस की एक
नई भावभूमि, एक
नई उदार दृष्टि निर्मित की है। इस देश में “इस्लाम की तलवार ने उसके प्रचार और
प्रसार में जितना योग दिया है, उससे कम योग सूफी संतों और फ़कीरों की उदारता,
सहिष्णुता,
प्रेम-साधना और
उदार सांस्कृतिक दृष्टि का नहीं है।”[19] इस सामाजिक-सांस्कृतिक मिलन ने दोनों धर्मों
में व्याप्त वैचारिक कट्टरता के माहौल को काफी हद तक कम करने का प्रयास भी किया
है। “सूफी-साधना
में प्रेम का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रेम ही कर्म है और प्रेम ही धर्म
है। प्रेम ही पंथ है और परमात्मा भी प्रेममय ही है। इसी प्रेम से हिन्दी सूफी
काव्य पोषित और संवर्द्धित है। हिन्दी-सूफी काव्य की प्रत्येक कथा का मूलाधार
प्रेम ही है।”[20] इसने
भिन्न समझे जानीवाली धाराओं को जोड़ने का कार्य किया। “हिन्दू धर्म का काफी प्रभाव सूफी धर्म पर भी पड़ा।
वैष्णव भक्तों की भक्ति, प्रेम, तल्लीनता और आत्मसमर्पण के भाव सूफी संतों में
आ गए।”[21]
संदर्भ
[1]डॉ. वीरेंद्र
सिंह यादव(संपादक): भारतीय मुसलमान:दशा और दिशा, राधा पब्लिकेशन्स,
नई दिल्ली, पहला संस्करण, 2010, पृष्ठ-313
[2]वही, पृष्ठ-269
[3]रामजी उपाध्याय :भारतीय
धर्म और संस्कृति (भूमिका), लोकभारती प्रकाशन, 2014
[4]डॉ.मंजु धवन :भक्तिकालीन
सूफी काव्य में षडऋतु एवं बारहमासा वर्णन, प्रकाशन विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, प्र.प्रकाशन-सितंबर1994, पृष्ठ-10
[5]रामजी उपाध्याय :भारतीय
धर्म और संस्कृति, पृष्ठ-69
[6]डॉ.मंजु धवन :भक्तिकालीन
सूफी काव्य में षडऋतु एवं बारहमासा वर्णन, पृष्ठ-9
[7]रामधारी सिंह
दिनकर :संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, 2010, पृष्ठ-225
[8]निजामुद्दीन
अंसारी :सूफी कवि जायसी का प्रेम निरूपण, पुस्तक संस्थान, कानपुर, प्र.सं.
1976, पृष्ठ-17
[9]भक्तिकालीन
साहित्य-2(एम.एच.डी.-6, हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास) IGNOU,
पृष्ठ-40
[10] रामधारी सिंह
दिनकर :संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ-242
[11]रामविलास शर्मा(सम्पादक)
: लोकजागरण और हिंदी साहित्य, वाणी प्रकाशन, द्वितीय
संस्करण-2009, पृष्ठ-133
[12] रामधारी सिंह
दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ-222
[13] डॉ.प्रभा श्रीनिवासुलु
एवं डॉ.गुलनाज तंवर :सूफीवाद, मध्यप्रदेश हिंदी
ग्रन्थ
अकादमी, 2011, पृष्ठ-96
[14]वही, पृष्ठ-97
[15]वही, पृष्ठ-99
[16]रामजी उपाध्याय :भारतीय
धर्म और संस्कृति, पृष्ठ-69
[17]राहुल सांकृत्यायन:दर्शन
दिग्दर्शन,
किताब महल, 2013, पृष्ठ-77
[18]विशम्भरनाथ पांडे :
भारत और मानव संस्कृति-खंड-2, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार,
1996, पृष्ठ-209
[20] डॉ.वीरेंद्र
सिंह यादव(संपादक) :भारतीय मुसलमान:दशा और दिशा, पृष्ठ-316
[19] निजामुद्दीन
अंसारी :सूफी कवि जायसी का प्रेम निरूपण, पृष्ठ-51
[21] डॉ.वीरेंद्र
सिंह यादव(संपादक) : भारतीय मुसलमान : दशा और दिशा, पृष्ठ-311
श्रीनिवास त्यागी,एसोसिएट प्रोफेसर, गार्गी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
9868044931, sriniwastyagi@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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