शोध आलेख
पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में लैंगिक संवेदीकरण : विशेष संदर्भ हिंदी दलित आत्मकथाएँ
* सविता ** प्रो. स्मिता चतुर्वेदी
शोध सारांश :
भारत के संविधान में लैंगिक समानता के सिद्धांत की स्थापना की गई है।
संविधान महिलाओं को समानता का अधिकार प्रदान करता है। समानता के अधिकार के तहत कहा
गया है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान जैसे किसी भी कारणों से भेदभाव नहीं किया जा सकता। लेकिन आज भी हम गौर करें तो संविधान में निर्धारित
किये गए लक्ष्यों और महिलाओं की वास्तविक स्थिति के बीच में काफी अंतर मौजूद है। क्या कारण है कि समाज के सभी वर्गों की
महिलाओं तक शिक्षा स्वास्थ्य एवं रोजगार की पहुँच नहीं है? इक्कीसवीं सदी में भी समाज कन्या भ्रूण हत्या, दहेज की समस्या, अनमेल विवाह, घरेलू हिंसा, बलात्कार, समाजिक सुरक्षा का अभाव तथा स्वास्थ्य से सम्बंधित अनेक समस्याओं से
देश जूझ रहा है । आखिर क्यों? आखिर क्या वजह है कि पुरुषों को महिलाओं
से अधिक योग्य एवं श्रेष्ठ समझा जाता रहा है? प्रस्तुत शोध पत्र में इन्हीं प्रश्नों के आलोक में पितृसत्तात्मक
समाजिक संरचना में लैंगिक संवेदीकरण को हिंदी दलित आत्मकथाओं के विशेष संदर्भ में
देखने व समझने की कोशिश की गई है। दलित साहित्य में कई महत्त्वपूर्ण आत्मकथाएं
लिखी गई हैं जैसे मोहनदास नैमिशराय कृत अपने अपने पिंजरे, श्यौराज सिंह बेचैन कृत मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, कौशल्या वैसंत्री कृत दोहरा अभिशाप, ओमप्रकाश वाल्मीकि कृत जूठन (प्रथम भाग), सुशीला टाकभौरे कृत शिकंजे का दर्द, डॉ. तुलसीराम कृत मुर्दहिया एवं मणिकर्णिका आदि।
इन्हीं प्रमुख आत्मकथाओं को केंद्र में रखकर लैंगिक संवेदीकरण का विश्लेषण व
विवेचन किया गया है ।
बीज शब्द : जेंडर, सामाजिक संरचना, लैंगिक संवेदीकरण, हिन्दी दलित आत्मकथा ।
“जेंडर संवेदीकरण का अभिप्राय जेंडर समानता के मुद्दों पर जागरूकता
बढ़ाकर व्यवहार में बदलाव लाने से है। इससे उन विचारों को समझने में मदद मिलती है
जो व्यक्ति खुद अपने लिए और विपरीत लिंगी व्यक्ति के लिए रखता है। यह लोगों को
अपने रवैये और धारणाओं की जाँच करने में भी सहायता करता है।”[1] वास्तव में जेंडर से तात्पर्य महिलाओं
और पुरुषों के बीच समाजिक अंतरों से है जो विभिन्न समाज एवं संस्कृतियों द्वारा
निर्मित किया जाता है। यह एक समाजीकरण की प्रक्रिया के तहत सीखा और सिखाया जाता है।
यह समय के साथ-साथ परिवर्तित भी होता है जबकि लिंग एक शारीरिक रचना है जो जैविक तथ्य
को निर्धारित करता है। अधिक स्पष्टता के लिए प्रभा खेतान का एक उदाहरण देखा
जा सकता है, “सेक्स और जेंडर दो अलग अलग चीजें हैं। सेक्स का अर्थ हुआ स्त्री की
जैविकता और जेंडर का अर्थ हुआ लैंगीकरण की वह सामाजिक प्रक्रिया जिसके कारण स्त्री
का अस्तित्व उसकी विभिन्न भूमिकाएं और पुरुष वर्ग के साथ उसका सम्बन्ध निर्धारित
होता है।”[2] सिमोन द बोउवार ने अपनी पुस्तक द
सेकेंड सेक्स में कहा है कि लिंगों के बीच असमानता जीव वैज्ञानिक तथ्य है
और इसीलिए अपरिवर्तनीय है, जबकि स्त्री का शोषण मुख्यतः एक ऐतिहासिक परंपरा के भीतर होता है। “स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि उसे बना दिया जाता है।”[3]
पितृसत्ता : अवधारणा एवं स्वरूप
पितृसत्ता को “सामाजिक संरचना और क्रियाओं की एक ऐसी
व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जाता है जिनमें पुरुषों का स्त्रियों पर
वर्चस्व रहता है और वे उनका शोषण और उत्पीड़न करते हैं।”[4] गर्डा लर्नर का कहना है, “परिवार में महिलाओं और बच्चों पर
पुरुषों के वर्चस्व की अभिव्यक्ति और संस्थागतकरण तथा सामान्य रूप से महिलाओं पर
पुरुषों के सामाजिक वर्चस्व का विस्तार है।“[5]
वास्तव में पितृसत्ता विचारधारा पर
आधारित एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके तहत स्त्रियों को पुरुषों से कमतर माना जाता है। साथ ही उन्हें
पुरुषों के अधीन उनकी संपत्ति के रूप में देखा जाता है। पितृसत्ता को समझने के
सिलसिले में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पुरुष समाज किस तरह स्रियों पर
वर्चस्व स्थापित करने के लिए नियंत्रित करता है? इस प्रश्न पर गंभीरता से चिंतन करें तो
पाते हैं कि इस व्यवस्था में सबसे ज्यादा जिन पहलुओं पर नियंत्रण होता है उनमें
सबसे अहम है, स्त्री की प्रजनन क्षमता। प्रभा खेतान के शब्दों में कहें तो, “दरअसल, ज्यादातर लोगों की नजर में स्त्री महज एक
देह है। लेकिन स्त्री केवल देह नहीं होती और न ही स्त्री की यौनिकता को हम देह और
उसके उपभोग तक सीमित कर सकते हैं।”[6] पितृसत्तात्मक समाज में उत्तराधिकारी के
रूप में संपत्ति का हस्तान्तरण पिता से पुत्र यानि सिर्फ पुरुषों के बीच ही होता
है। स्त्री के प्रजनन का उपयोग केवल संसाधन के रूप में होता है। स्त्री की यौनिकता
को पारंपरिक विवाह संस्था (अपने ही जाति या धर्म आधारित विवाह) के द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण के साथ ही स्त्री-श्रम को भी नियंत्रित किया जाता है। वह
घर की चहारदीवारी लांघकर बाहर काम कर सकती है या नहीं, यदि कर सकती है तो किस प्रकार का काम कर
सकती है, इसका निर्णय भी लगभग पुरुष ही करता है।
इन दोनों के नियंत्रण ने स्त्री को पराधीन बनाने में महती भूमिका निभाई। पूरे
विश्व में लगभग यही स्थिति व्याप्त रही है। अमेरिका का उदाहरण देकर अभय कुमार दुबे
ने लिखा है, “हर समाज में महिलाओं के संघर्ष करने की
अलग-अलग क्षमताओं के लिहाज से इन श्रम-संबधों के रूप निर्धारित होते हैं। मसलन, एक जमाने में अमेरिकी पुरुषों ने अपनी
सामाजिक-राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करके
स्त्रियों को कुशल मजदूरों के गिल्डों में प्रवेश नहीं करने दिया। औरतों के लिए
सिर्फ कम तनख्वाह वाले अकुशल काम ही रह गए इसलिए वे घरों के अन्दर पुरुषों की
अधीनता स्वीकार करने के लिए मजबूर हो गई।”[7] लगभग यही स्थिति चीन जैसे देश में भी
रही। अभय कुमार दुबे के अनुसार, “चीन जैसे स्वघोषित समाजवादी देश में भी अस्सी के दशक के आखिरी वर्षों
से पुरुषों की तरफ से महिलाओं के लिए ‘गो होम’ नारा दिया जाने लगा।”[8]
दूसरे जब स्त्री को घर की चहारदीवारी तक
सीमित कर दिया जायेगा तो उसकी मुक्ति कैसे संभव होगी इस संदर्भ में फ्रेडरिक
एंगेल्स ने परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति में लिखा है, “जीविका कमाने के पुरुष के काम की तुलना
में नारी के घरेलू काम का महत्त्व जाता रहा। अब पुरुष का काम सब कुछ बन गया और
नारी का काम एक महत्त्वहीन योगदान मात्र रह गया। ......जब तक स्त्रियों को सामाजिक उत्पादन के
काम से अलग और केवल घर के निजी कामों तक ही सीमित रखा जाएगा, तब तक स्त्रियों का स्वतन्त्रता प्राप्त
करना और पुरुषों के साथ बराबरी का हक़ पाना असंभव है।”[9]
प्रजनन एवं श्रम नियंत्रण के बावजूद यदि यह मान लिया जाता है कि
स्त्री पुरुष से प्राकृतिक रूप से कमजोर है तो यह स्त्री शोषण मे महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाता है। वालस्टन क्राफ्ट और जे॰एस॰मिल ने इस तर्क का खंडन किया है। स्त्री
पराधीनता में जे॰एस॰मिल ने इस बात का विरोध किया है कि महिलाएँ पुरुषों से
प्राकृतिक रूप से कमजोर हैं, बल्कि उनका मानना है कि स्त्री पर समाज और गलत शिक्षा
का प्रभाव है। अब सवाल है कि इस आसमानता की शिनाख्त करने के लिए स्त्री आन्दोलन की
शुरुआत हुई। इन सभी असमानताओं को ख़त्म करने के लिए कई स्त्रीवादी अन्दोलन हुए
जिन्होनें पितृसत्ता को अपने शोषण के प्रमुख में देखा है। जैसे-उदारवादी स्त्रीवाद, रेडिकल स्त्रीवाद, समाजवादी या मार्क्सवादी स्त्रीवाद, सांस्कृतिक स्त्रीवाद आदि। सन 1970 के बाद अश्वेत महिला आन्दोलन भी सक्रिय
हुआ जो नस्ल के आधार पर किये गए किसी भी प्रकार के शोषण एवं अन्याय के विरोध में
था। एलिस वाकर, एजेला डेविस(ब्रिटेन) तथा रोजपार्क (अमेरिका) आदि ने इस आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण
योगदान दिया।
परिवार में भेदभाव
भारतीय समाज में लड़के के महत्त्व के कारण
कन्या भ्रूण हत्या अपने चरम पर है। विश्व आर्थिक मंच के द्वारा जारी
वैश्विक लैंगिक अन्तराल रिपोर्ट (global gendar gap
riport 2020) के अनुसार भारत में 91/100 लिंगानुपात के साथ 153 देशों में 122 वें स्थान पर है। लड़कों की चाह में जन्म से पूर्व ही लड़कियों को मार
दिया जाता है। यहाँ तक कि जन्म देने वाली माँ पर इतना पारिवारिक एवं समाजिक दबाव
होता है कि वह भी अपनी कोख को धिक्कारती है। कौसल्या बैसंत्री ने दोहरा अभिशाप
में लिखा है, “माँ हमेंशा बाल धोते वक़्त बड़बड़ाती रहती थी– “देवा मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था कि मेरे नसीब में लड़कियां
ही लिखी हैं?”[10] समाज में यह मान्यता रही है कि लड़कियां
तो पराया धन होती हैं जो समय आने पर अपने ससुराल चली जायेंगी। सुशीला टाकभौरे ने शिकंजे
के दर्द में लिखा है, “पिता जी, माँ और नानी हमें प्रदेश की चिड़ियाँ मानकर प्यार करते....उन्हें हमेशा संशय रहता था। एक दिन ये चिड़िया प्रदेश चली जाएगी। पता
नहीं इसका आगे का जीवन कैसा होगा? ससुराल में सुख मिलेगा या दुख? उनकी यह भावना देखकर मुझे महसूस होता था, वे हमें प्यार नहीं करते, हमारे लिए दया और सहानुभूति रखते हैं।
हमें पराई चीज समझते है, अपना नहीं समझते।”[11] इस प्रकार हम देखते हैं कि परिवार में
लड़के एवं लड़कियों के साथ कैसे भेदभाव होता है।
महिलाओं के खिलाफ कई तरह की हिंसा होती
है जिसमें घरेलू हिंसा मुख्य रूप से शामिल है। कई दलित आत्मकथाओं में घरेलू हिंसा
का जिक्र एवं विरोध देखने को मिलता है। कौशल्या वैसंत्री ने अपनी आत्मकथा में इसका
जिक्र किया है। जिस पुरुष को भारत सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानी का पुरस्कार भी
मिलता है, वही पुरुष घर में अपनी स्त्री के साथ पराधीनता का व्यवहार करता है। यहाँ
इनके पति का दोहरा चरित्र उभरकर सामने आता है। देवेन्द्र कुमार को स्वतन्त्रता
सेनानी का ताम्रपत्र मिला और पेंशन भी मिलती है। सरकार ने उसके कार्य की प्रसंशा
की थी। किन्तु यही व्यक्ति अपने घर में (लडाई) मारपीट करता था अपनी पत्नी से।”[12] लगभग इसी तरह के प्रसंग सुशीला टाकभौरे
की आत्मकथा शिकंजे के दर्द में भी मिलते हैं। भारतीय समाज में पति
को पत्नी से कुछ भी करवाने का जैसे जन्मसिद्ध अधिकार मिल जाता है। इस पुरुष प्रधान
समाज की आलोचना करती हुई लेखिका ने लिखा, “स्कूल से या बाहर से आने के बाद कभी–कभी टाकभौरे जी मेरे सामने पैर आगे बढ़ा देते। मेरा ध्यान न रहने पर
हाथ से इशारा करके जूते उतारने के लिए कहते। मैं चुपचाप उनके पैरों के पास बैठकर
जूते उतारती मोजे उतारती। यह बात मुझे अजीब लगती थी। पति होने के अधिकारों के तहत
वे वैसा करते थे।”[13] यदि लेखिका के पति किसी बात पर नाराज
होते तो कहते, “मेरे पैरों पर अपना सिर रखकर माफी मांग तब मैं तेरी बात मानूँगा।”[14] प्रो.श्यौराज सिंह बेचैन ने अपनी आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कन्धों पर
में लिखा है कि इन्होनें जब किताब कापी के लिए अपने चाचा डालचंद के जेब से एक
रुपया चुराया तो इसका इल्जाम इनकी माँ पर लगाया गया, “छोटे लाल चाचा के साथ लौटा तो देखा, मेरी माँ कसाई द्वारा काटी जा रही गाय की
तरह चीख रही थी। माँ की चीख मुझे कुछ दूर से सुनाई पड़ गयी थी। मैं दौड़कर उसके पास
पहुचा। उस समय माँ गलियारे में पड़ी कराह रही थी। उसकी कमर पर भिकारी ने पहला वार
फरहे (वह लकड़ी जिस पर रख कर चमड़ा काटा जाता था) से किया था। उसके बाद डालचंद ने भी माँ के शरीर पर लाठियां बरसाई थीं।
उसने सर बचाकर माँ का सारा शरीर तोड़ दिया था। माँ चीखते-कराहते बेहोश हो गयी थीं।”[15] उपर्युक्त संदर्भ से स्पष्ट है कि किस
तरह कई पुरुष परिवार में अपनी पत्नियों के साथ दासत्व का व्यवहार, शारीरिक एवं मानसिक हिंसा करते हैं। लैंगिक
असमानता के कारण समाज और साहित्य में ऐसी हिंसा होती है।
जाति समस्या एवं लैंगिक संवेदीकरण
लैंगिक संवेदीकरण की प्रक्रिया में जाति
को हम बाधा के रूप में देखते हैं। श्रेष्ठताबोध की भावना के कारण अक्सर मनुष्य
मनुष्य में भेद किया जाता है। कौसल्या बैसंत्री ने भी अपनी आत्मकथा दोहरा
अभिशाप में स्कूल में हो रहे भेदभाव को रेखांकित किया है। लेखिका जिस पाठशाला
में पढ़ती थी, वहाँ वर्चस्वशाली समाज के बच्चें एवं अध्यापकों द्वारा दलित समाज
लड़के एवं लड़कियों को हिकारत की नजर से देखा जाता था जिससे दलित बच्चे डरे सहमें रहते थे। लेखिका के अनुसार, “मैं अस्पृश्य हूँ, इसका मुझे बहुत दुख होता था और मैं हीनता महसूस
करती थी। कोई मुझसे जाति न पूछ बैठे इसका मुझे सदैव डर रहता था।”[16] आगे चलकर जब लेखिका दलित चेतना का विकास
होता है तो जाति व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए लिखती है, “जाति पांति बनाने वाले का मुँह नोचने का मन करता है।”[17] दलित होने की वजह से वर्चस्वशाली समाज
से गहरी प्रताड़ना मिलती है। यहाँ तक कि इनका साईकिल से चलना भी तथाकथित उस समाज को
पसंद नहीं था। जब ये साईकिल से स्कूल जाती तो इनके ही गांव मोहल्ले के लोग कहते थे,
“ये हरिजन बाई जा रही हैं। दिमाग तो देखो इनका बाप भिखमंगा है, ये साईकिल से जाती
हैं।”[18]
सुशीला टाकभौरे ने शिकंजे का दर्द में बाताया कि इसी प्रकार
सुशीला भी पी॰एच॰डी॰ प्राप्त कॉलेज की अध्यापिका है। मगर इनकी पड़ोसन इनको झाड़ू
वाली ही कहती है, इस घटना से पीड़ित होकर इन्होंने यातना के स्वर कविता लिखी “पी॰एच॰ डी॰ प्राप्त/कोलेजे की प्राध्यापिका/जाति के नाम पर कहलाती है, सिर्फ झाड़ू वाली।”[19]
जूठन आत्मकथा में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने प्रेम और विवाह में जाति कैसे
रुकावट पैदा करती है का उल्लेख किया है। लेखक कुलकर्णी परिवार की सविता का लगाव
बढ़ते हुए देखता है तो उसे इस प्रेम में जाति समस्या न हो इसलिए असलियत बताता हैं, “मैंने साफ शब्दों में कह दिया था कि मैंने उत्तर प्रदेश के चूहड़ा
परिवार में जन्म लिया है। सविता गंभीर हो गई थी। उसकी आँखें छलछला आई। उसने रुआँसी
होकर कहा, “झूठ बोल रहे हो न ?” “नहीं सविता यह सच है ..जो तुम्हें जान लेना चाहिए..’’ मैंने उसे यकीन दिलाया था।.. वह रोने लगी थी। मेरा एस.सी. होना जैसे कोई अपराध था। वह काफी देर सुबगती रही। हमारे बीच अचानक
फासला बढ़ गया था। हजारों साल की नफरत हमारे दिलों में भर गई थी। एक झूठ को हमने
संस्कृति मान लिया था।”[20] सवाल उठता है कि लेखक ने इस प्रसंग को
क्यों लिखा? लेखक इस बात को इसलिए रख रहा है, ताकि समाज में बदलाव हो, जाति की समस्या पर समाज सोचे, बोले, लिखे। समाज में संबंधों को आज भी जाति-पांति के आधार पर देखा जाता है। यहाँ
स्त्री खुलकर सामने नहीं आ पाई है न ही कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय ले पाई है,
क्योंकि उसके अपने संस्कार जो बचपन से सीखा है, उससे वह मुक्त नहीं हो पाती है।
परिणाम यह होता है कि उनका प्रेम जातिगत भेदभाव का शिकार हो जाता है। यहाँ समाज की
पढ़ी लिखी स्त्री भी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है। इस संदर्भ में डॉ रामचन्द्र की यह टिप्पणी उचित
ही जान पड़ती है, “जूठन ने प्रेम की सारी परिभाषाओं एवं
उसके अर्थों पर प्रश्नचिंह लगा दिया है। दो युवा मनों में उपजे प्रेम के टूटते तार
ने नस-नस में समाई जाति-व्यवस्था को बड़ी तल्खी से उजागर किया है।
प्रेमी-प्रेमिका के बीच में जाति आते ही वह सब कुछ बिखर जाता है जिसे दो जवां दिल भविष्य के लिए संजोकर रखते हैं। इस
व्यवस्था में मानव की स्वाभाविक मनोवृत्तियां दफन कर दी जाती हैं और सारी
स्वतंत्रताऍ छीन ली जाती हैं। यह अकारण नहीं है कि इसका शिकार दलित और स्त्री ही
होते हैं।”[21]
जाति एवं पितृसत्ता अंतर्संबंध
जाति एवं पितृसत्ता का गठजोड़
हम समाज में देख सकते हैं, चाहे वह राजस्थान की भंवरी देवी का प्रसंग हो या
वर्तमान में घट रही अनेक तरह की घटनाएं। दलित समाज की स्त्रियों का तीन तरफा शोषण
होता है, जाति, वर्ग, एवं लिंग। दोहरा अभिशाप में सखाराम प्रसंग से इस बात की पुष्टि होती है। सखाराम की बीवी
सुंदर थी और दिहाड़ी मजदूर थी। एक दिन मिस्त्री ने उसके साथ छेड़खानी की। उसने
मिस्त्री का विरोध किया, रामसखा यह घटना
अपने पति को बताती है तो उसका पति उसे ही डांटता है। और बदचलन कहकर रात भर घर के
बाहर कर देता है। सुबह का सूरज स्त्री के जीवन में हमेशा के लिए अंधकार भर देता है।
लेखिका के अनुसार, “सबने अपनी-अपनी लड़कियों को उस ओर जाने से मना किया था। लड़के मात्र
सखाराम के आंगन में खड़े थे। काफी भीड़ जमा हो गई थी...थोड़ी देर बाद सखाराम की
औरत को बाहर लाया गया। उसके बदन पर सिर्फ चोली थी। उसके माथे पर सफ़ेद रंग की बिंदिया
लगाई गई और उसके गले में चप्पलों की माला पहनाई गई। उसे गधे पर बिठाकर पूरी बस्ती
में घुमाया गया बस्ती के लोग हो हल्ला मचाकर उसे बस्ती के बाहर निकाल कर वापस आए।”[22] समाज से निष्कासित स्त्री
के लिए कहीं कोई जगह नहीं मिली, रात भर वह स्त्री झाड़ी में छिपी रही क्योंकि उसके शरीर
पर कपड़े नाममात्र के थे, उसने पास के तालाब में
कूदकर अपनी जान दे दी। इस प्रकार हम देखते हैं कि डायन प्रथा देवदासी प्रथा आदि
ऐसी प्रथाएं है जिसको आधार बनाकर हाशिये के समाज की स्त्री का शोषण एवं अत्याचार
होता है।
जातिसत्ता और पितृसत्ता को कायम रखने के लिए पारंपरिक विवाह जैसी
संस्था का निर्माण किया गया और इस प्रकार के विवाह में न ही स्त्री की राय ली जाती
है और न पुरुष की जिनका विवाह आपस में करवाया जाता है। एक और महत्त्वपूर्ण बात,
विवाह से पूर्व किसी से प्यार करना भी इस समाज में पाप और गुनाह माना गया है। शादी
के बाद ही पति से प्यार कर सकते हैं, और उसका प्यार पा सकते हैं, यानि विवाह से पहले हमारी भावनाओं पर एक तरह नैतिकता का अंकुश लगाकर
उसे संस्कार काजामा पहनाया जाता है। सुशीला टाकभौरे ने लिखा है, “पुरानी हिन्दी फिल्मों से आदर्श कथा
कहानियों से और माँ–नानी की शिक्षा से यही सीखा था, माता–पिता जिनके साथ मेंरा विवाह करेंगे उसी
से प्यार करना है, और उसी का प्यार पाना है। अपने मन से किसी अंजान लड़के से प्रेम करना
पाप है। प्रेम शादी के बाद पति से ही किया जाता है, यह संस्कार बचपन से ही मिला था। प्रेम के
आदान-प्रदान की और मन के कोमल भावनाओं के फलने-फूलने की सम्पूर्ण अपेक्षा शादी के बाद पति से ही थी। मैं प्यार के
सपने देखती थी– मेरे सपनों का शहजादा ज़रूर आयेगा, वही मुझे प्यार देगा। सामाजिक
मानसिकता के अनुसार मेरे संस्कार ढाले गए थे।”[23] इनका विवाह इनसे बीस वर्ष बड़े पुरुष के
साथ हुआ था।
सीमाएं एवं संभावनाएं
आखिर क्या वजह हैं कि पितृसत्ता एक
व्यवस्था के रूप में इतने लम्बे समय से काम कर रही है? गर्डा लर्नर ने इस अहम सवाल को उठाया, “पितृसत्ता की व्यवस्था को सदियों तक
अक्षुण्ण बनाए रखने में महिलाओं का सहयोग है।”[24] अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है
कि महिलाएँ पितृसत्ता को बनाए रखने में अपना सहयोग क्यों देती हैं? क्या इसके बदले उन्हें कुछ मिलता है? पहली बात महिलाएँ पुरुष वर्चस्व की
विचारधारा को आत्मसात करके चलती है, क्योंकि यदि पुरुष द्वारा बनाए गए कानून या
नियमों का पालन करती है तो उसे समाज सम्मानित करता है और यदि मना कर देती है तो उसे
समाज पथभ्रष्ट घोषित कर देता है। अभय कुमार दुबे ने बताया है कि यूरोप की
नारीवादियों ने जब पितृसत्ता को चुनौती दी, विवाह संस्था तथा यौनिकता पर सवाल उठाया
तो वहाँ के मर्दवादियों ने उन स्रियों को समाज से बहिष्कृत करने की मांग की।
किसी भी मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास
में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है| लड़के एवं लड़कियों को समान एवं गुणवत्ता
पूर्ण शिक्षा का अवसर मिले। स्त्री शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए डॉ
आंबेडकर ने कहा, “अगर घर में एक पुरुष पढता है तो केवल वही पढता है और यदि घर में
स्त्री पढ़ती है तो पूरा परिवार पढता है।”[25] बाल-विवाह भी एक कारण है, यह लड़कियों के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध करता
है। दूसरे घर परिवार के फैसले में स्त्री-पुरुष दोनों को समान भूमिका मिले। “अपने बच्चों की खासकर लड़कियों की शादी बचपन में न करें। ..पालक अपनी संतान की शादी कम उम्र में करके उनके जीवन को नरक न बनाएं।”[26]..पत्नी कैसी हो उस पर पुरुषों का विचार
जाना जाता है। वैसे पति कैसा हो इस बारे में पत्नी का मन जान लेना जरूरी है।
स्त्री एक व्यक्ति है और उसे व्यक्ति स्वतन्त्रता की सुविधा होंनी चाहिए।”[27] परिवार और समाज में स्त्री से समानता का
व्यवहार किया जाय। “पुरुषों के साथ स्त्री को भी समानता स्वतन्त्रता मिले, उसे सामाजिक आजादी के साथ आर्थिक आजादी भी प्राप्त हो, परिवार में उसका दर्जा पुरुष के समान हो।”[28]
जाति और पितृसत्ता में निहित शोषण का उन्मूलन करने के लिए अंतरजातीय
वैवाहिक संबंधों को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। डॉ आंबेडकर का विचार था कि अंतरजातीय
खान-पान की व्यवस्था जाति भावना या जाति बोध को समाप्त करने में कम सफल हो
पाई। मुझे पूरा विश्वास है कि इसका वास्तविक उपचार अंतरजातीय विवाह ही है।”[29]
निष्कर्ष :
वास्तव में लैंगिक संवेदीकरण में शिक्षा
की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। स्त्रियां शिक्षित होकर स्वतंत्र निर्णय लेने में
सक्षम होंगी। समाज के स्त्री एवं पुरुषों को
पितृसत्तात्मक सोच से मुक्त होना पड़ेगा। माँ, बहन, बेटी, पत्नी के इतर
उन्हें एक नागरिक के तौर पर देखने की सोच विकसित होनी चाहिए। यदि स्त्री कहीं बाहर
प्रताड़ित होती है तो परिवार का पुरुष या पति उसके साथ हुए अन्याय के खिलाफ खड़े हों
उस महिला के प्रति संवेदनशील हों न कि उसे सहानुभूति देने के बजाय उसी की गलती
निकलाते रहें जैसा कि आम तौर पर ऐसा तर्क दिया जाता रहा है कि गलती जरूर लड़की की
रही होगी, अन्यथा ऐसा होता ही नहीं। यह तर्क अक्सर बलात्कार के केश में हमें देखने
सुनने को मिलता है। स्त्री से जुड़े कानून भी प्रभावी तरीके से व्यावहारिक धरातल पर
लागू हो ताकि निष्पक्ष न्याय संभव हो। बहरहाल दलित आत्मकथाओं में जीवन के यथार्थ
को उजागर किया है जिसमे बेबाक तरीके से पितृसत्ता के दबाव को महसूस एवं ख़ारिज करते
हुए आत्मकथा लिखी है तथा साथ ही पितृसत्ता के संकुचित दायरे से निकलकर पितृसत्ता
के शिकंजे से जकड़ी स्त्री की छटपटाहट, उत्पीडन और मुक्ति की आकांक्षाओं को रेखांकित
किया। जब स्त्री समाज को अपने परिवार में आजादी और समानता मिलेगी तभी तो वह समाज
के अन्य लोगों में समानता प्राप्त कर पाएंगी।
संदर्भ :
[1]महिलाओं के कानूनी अधिकार, (पत्रिका)-राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संसथान, नई दिल्ली
[2] प्रभा खेतान : पितृसत्ता के नए रूप (संपा, अभयकुमार दुबे), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003, पृ.16
[3]सीमोन द बोउवार : स्त्री उपेक्षिता
(अनु. प्रभाखेतान), हिन्द पॉकेट, बुक दिल्ली, 1998, पृ.1
[4]उमाचक्रवर्ती : पितृसत्ता पर एक नोट
(लेख), नारीवादी राजनीति : संघर्ष एवं मुद्दे, (संपा. साधना आर्य व निवेदता मेनन), हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, 2010, पृ. -1
[5]वही
[6]प्रभा खेतान : पितृसत्ता के नए रूप (संपा, अभयकुमार दुबे), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003, पृ. 16
[7]वही, पृ.73
[8]वही,पृ.91
[9]फ्रेडरिक एंगेल्स : परिवार निजी
संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति (संपा. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह), ग्रन्थ शिल्पी, 2008, पृ.190
[10]कौशल्या वैसंत्री : दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन,
प्रीतविहार, 2009, पृ.8
[11]सुशीला टाकभौरे : शिकंजे का दर्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011पृ.
[12]कौशल्या वैसंत्री : दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, प्रीतविहार, 2009, पृ.
[13]सुशीला टाकभौरे : शिकंजे का दर्द,
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ. 143
[14]वही, पृ. 144
[15]श्यौराज सिंह बेचैन : मेरा बचपन मेरे
कन्धों पर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.60
[16]कौशल्या वैसंत्री : दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, प्रीतविहार 2009, पृ.41
[17]वही, पृ. 47
[18]कौशल्या वैसंत्री : दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृ.60
[19]वही पृ. 231
[20]ओमप्रकाश वाल्मीकि : जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृ.121
[21]डॉ रामचन्द्र : मर्मांतक वेदना की
आत्मभिव्यक्ति हैं जूठन’ और मुर्दहिया, दलित साहित्य (पत्रिका), पृ.47-48
[22]कौशल्या वैसंत्री : दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृ.72
[23]वही, पृ. 126 -127
[24]उमाचक्रवर्ती : पितृसत्ता पर एक नोट
(लेख), नारीवादी राजनीति : संघर्ष एवं मुद्दे, (संपा. साधना आर्य व निवेदता मेनन), हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, 2010, पृ. 5
[25]अनिता भारती ( संपा.) : समकालीन
नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.256
[26]वही पृ.256
[27]वही पृ.257
[28]वही पृ.256
[29]अम्बेडकर : वांग्मय खंड -एक, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, 1993, पृ.90
सविता, सहायक प्राध्यापक (हिंदी), सनातन धर्म (पी जी) कॉलेज, मुज़फ्फरनगर, उत्तर प्रदेश, 251001
savitabharti66@gmail.com
प्रो.स्मिता चतुर्वेदी, पी-एच. डी. शोध निर्देशक - मानविकी विद्यापीठ(हिंदी), इग्नू, नई दिल्ली 110068
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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