शोध आलेख : खंजन नयन : भक्तकवि सूर के जीवन की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति / डॉ. रेनू त्रिपाठी

         शोध आलेख : खंजन नयन : भक्तकवि सूर के जीवन की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति / डॉ. रेनू त्रिपाठी

शोध सार :

        हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यासों की एक दीर्घ और सशक्त परंपरा रही है। वस्तुतः ऐतिहासिक उपन्यासकार अतीत की घटनाओं का सहारा लेकर उन शाश्वत जीवन मूल्यों को स्थापित करने का संकल्प लेता है, जो वर्तमान और भविष्य दोनों की आधारशिला रखते हैं। ऐतिहासिक तथ्यों को आधुनिक भावबोध के परिप्रेक्ष्य में देखना रचनाकार का लक्ष्य होता है और इस प्रकार वह इतिहास, वर्तमान और भविष्य को एक सूत्र में पिरो देता है। वह ऐसे चरित्रों को अपनी लेखनी का विषय बनाता है जिनके आदर्श और मूल्य आज भी प्रतिध्वनित होते हैं। अमृतलाल नागर का खंजन नयन ऐसा ही उपन्यास है, जिसमें लेखक ने भक्तकवि सूरदास के चरित्र को इस प्रकार गढ़ा है कि वह अपने समय की विसंगतियों से जूझता हुआ वर्तमान को भी चुनौती देने का साहस रखता है। इस शोध आलेख में सूर के वाह्य एवं अंतर्जगत के उसी संघर्ष को परखने का प्रयास किया गया है जो उन्हें एक अंधे, निरीह मानव से भक्तशिरोमणि बना देता है।

बीज शब्द : ऐतिहासिक उपन्यास, अमृतलाल नागर, आधुनिक भावबोध, श्याम मन, जिजीविषा।

मूल आलेख 

        साहित्य गहरी सामाजिक चिन्ता से अनुप्राणित होता है और यह चिन्ता उसे लोक से जोड़ती है। अमृतलाल नागर की रचनाओं में समाज की विसंगतियों, विडम्बनाओं के प्रति चिन्ता और उनके उन्नयन के लिए आस्था का प्रबल स्वर भी दिखायी देता है। उनके उपन्यास खंजन नयनमें भक्त कवि सूरदास के जीवन को समकालीन ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक धार्मिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अंकित किया गया है। नागर जी ने सूर को परिस्थितियों के थपेड़ों से जूझते समस्त मानवीय गुणों दुर्बलताओं से युक्त एक संवेदनशील मनुष्य के रूप में चित्रित किया है। नागर जी के इस उपन्यास में भी उनका मानववादी रूप झलकता है। वे एक ऐसे रचनाकार हैं जो अपने परिवेश की विसंगतियों से पीड़ित होते हैं तथा जिनके भीतर सामाजिक रूढि़यों को दूर करने की गहरी आकुलता है। इसीलिए अपने उपन्यास के नायक के रूप में वे सूर जैसे चरित्र का चुनाव करते हैं, जो एक ओर अपनी निजी व्यथा से जूझते हैं, तो दूसरी ओर अपने समय की मिथ्या परम्पराओं पाखण्डों से पीड़ित जन-समूह को कृष्ण के लोकरंजक स्वरूप से आनन्दित करने का संकल्प करते हैं। विखण्डन के भयावह दौर में आस्था को बचाए रखने का जो संकल्प सूरदास करते हैं, वह भारतीय संस्कृति का उज्ज्वल पक्ष है। जहाँ अंधत्व की पीड़ा उन्हें सालती रहती थी, वहीं कृष्ण-प्रेम की अमिट ज्योति से वे समस्त संसार के समक्ष भक्ति का परम आदर्श प्रस्तुत करने में सफल होते हैं। ग्वाल दाऊ की प्रेरणा उनके जीवन का उद्देश्य बन जाती है कि ‘‘लोक मानस विखण्डित और आस्थाहीन हो रहा है। इन्हें जीने के लिए आस्था चाहिए, शान्ति चाहिए, रस चाहिए। भजन-कीर्तन से अपनी आसक्ति बढ़ा और लोक-मंगल के लिए नाम का प्रचार कर।’’[1]

        वस्तुतः सूर के व्यक्तित्व की सर्जनात्मकता काल की परिधि का अतिक्रमण करते हुए मानव की जिजीविषा को प्रत्यक्ष करती है। अपने व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के लिए संघर्ष करते-करते उनका जीवन समाज को रूढियों अंधविश्वासों से मुक्त कराने में लग जाता है और इस प्रकार वे व्यष्टि से समष्टि की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। समग्र मानवता के श्रेय और प्रेय की यह चिन्ता नागर जी के सम्पूर्ण कृतित्व का केन्द्र-बिन्दु है। ‘‘अमृतलाल नागर किसी वाद-विशेष के साथ प्रतिबद्ध नहीं रहे। दलगत राजनीति में प्रवेश तो उनकी मानसिकता के सर्वथा प्रतिकूल था। राष्ट्रीयता और राष्ट्र-प्रेम को केन्द्र में रखते हुए उन्होंने विश्व मानवता के प्रति आस्था का स्वर रचनाओं में गुंजित किया है।’’[2]

   अपनी रचनाओं के माध्यम से मानवीय मूल्यों को प्रकट कर नागर जी ने अपने साहित्यकार धर्म को बखूबी निभाया है। साहित्यकार की अनुभूतियाँ समाज के अनुभवों से साकार होकर प्राणवन्त हो उठती हैं। यही कारण है कि समाज के विभिन्न पहलुओं का यथार्थ चित्र वह अपनी रचनाओं में खींच पाता है। नागर जी ने अपनी रचनाओं में जीवन के उन पक्षों को उभारा है जो अपनी जीवंतता से समाज की चेतना को बल देते हैं। खंजन नयन में सूर के व्यक्तित्व का समाज की कठोर परिस्थितियों के बीच पल्लवित होना यह दर्शाता है कि नागर जी मानव जिजीविषा के पक्षधर थे। वे मनुष्य की संघर्षशीलता को अनिवार्य मानते थे। ‘‘उनके साहित्य में कदम- कदम पर ऐसे दृश्य मिलते हैं जहाँ विपन्नता, दरिद्रता और अभावों में भी जीवन-शक्ति के स्रोत फूटते हैं। उनका लेखन कुंठा पर आशा की, अधोगति पर उत्थान की और पराभव पर ऊर्ध्वमुखी जीवन की विजय का उद्घोष करता हुआ जान पड़ता है।’’[3]

        बालपन से ही दरिद्रता और उपहास के बोल सूर के मन को व्यथित करते हैं। ऐसे में उनकी माँ उन्हें श्याम की बाँह गहने को कहती हैं और यहीं से उनके भीतर मित्रवत् भाव जग उठता है जो आगे चलकर सख्य भाव की भक्ति का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास में लेखक ने सूर की मधुरा भक्ति को जीवन राग से जोड़ा है। उन्होंने सूर के भीतर श्याम मन की अनूठी कल्पना की है जो सूर की भक्ति की निश्छलता का प्रतीक है। इसी श्याम मन के सहारे सूर निडर, निर्भीक होकर कृष्ण भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ते जाते हैं। भक्ति की तन्मयता उन्हें निरन्तर श्रीकृष्ण के समीप लेकर जाती है और वे श्याम सखा बन जाते हैं। सूर का कृष्ण के प्रति यही सखा भाव उन्हें भक्त-शिरोमणि के पद पर अलंकृत करता है। कृष्ण-भक्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को वे इसी सखा-भाव के भरोसे पार कर जाते हैं। उनका अंधत्व इस मार्ग में सदा चुनौती बनकर उपस्थित रहता है, किन्तु उन्हें कृष्ण-प्रेम से विचलित नहीं कर पाता। जो नेत्र सांसारिक रूपों को नहीं देख पाते, अपनी दिव्यता के बल पर वे श्रीकृष्ण के अप्रतिम सौन्दर्य का दर्शन कर लेते हैं, मानो ये दिव्य चक्षु कृष्ण का साक्षात्कार करने के लिए ही हों। वस्तुतः तिरस्कार और अपमान की पीड़ा से द्रवित सूर का संवेदनशील मन कृष्ण की बाँह पकड़ लेता और उनकी पीड़ा पिघलकर आँसुओं में बह जाती। ऐसा लगता जैसे कृष्ण उनके प्रत्येक दुःख को अपने स्नेह का अवलम्बन दे रहे हों। अंधत्व की विकलता सूर को बार-बार तोड़ती अवश्य है, किन्तु वे कह उठते हैं : ‘‘सूर की आँखें भले ही अंधी हों पर अब वे राधेरानी के नयन हैं, अतिशय चारु और विमल।’’[4]

            इस उपन्यास में सूर के चरित्र को लेखक ने अधिक मानवीयता के साथ गढ़ा है। ‘‘नागर जी का यह उपन्यास सूर पर लिखा गया पहला उपन्यास है, इसलिए इसका अन्यतम महत्त्व है। नागर जी ने सूरदास के जिस चरित्र का चित्रण किया है वह अपने आप में महान होते हुए भी सामान्य आदमी की तरह है। सूरदास का विकास एक सामान्य आदमी की तरह होता है। उन्हें भी वे ही कष्ट झेलने पड़े, जो एक अन्धे आदमी को झेलने पड़ते हैं। उन्हें भी इन ईर्ष्या-द्वेषों का शिकार होना पड़ा जिनका हर बड़े आदमी को होना पड़ता है।’’[5] किन्तु कृष्ण से स्नेह का जो नाता सूर ने बचपन में ही जोड़ लिया था, वह सखा भाव उन्हें समाज की हर छल-प्रवंचना का उत्तर देने को तत्पर कर देता : ‘‘विश्वास लाख हथौड़ी की चोट से भी नहीं टूटता लाला जी ! नीलकण्ठ के समान विषपान करके भी विश्वास सदा अजर-अमर है। विश्वास से शक्ति उत्पन्न होती है।’’[6]

            सूर और कंतो का प्रसंग नागर जी की मौलिक उद्भावना है जो सूर के चरित्र को अंतर्द्वंद्व से उबारकर एकनिष्ठ भक्त के रूप में प्रतिष्ठित कर देता है। वे कंतो के प्रेम को श्याम सखा से जोड़कर सात्विक भाव-भूमि पर ले आते हैं और तब कंतो कृष्ण-प्रेम और भक्ति के मार्ग में कंटक नहीं मानो सहचरी हो जाती है। वे कहते भी हैं: ‘‘सूरज कंतो मेरा तप, सूरज-सूरस्वामी मेरी बुद्धि और सूर श्याम मेरी प्रेम शक्ति है।’’[7] देखा जाय तो सूर का चरित्र समस्त मानवीय दुर्बलताओं के साथ रचा गया है जो कंतो की ओर आकर्षित अवश्य होता है किन्तु अपने विवेक से निरन्तर कृष्ण-प्रेम की ओर अग्रसर होता जाता है। यह अंतर्द्वन्द्व सूर को सामान्य मनुष्य के अधिक निकट ले आता है जो अभावों और विपन्नता से त्रस्त होकर मूल्यहीनता के संकट से घिर जाता है किन्तु अपनी इच्छाशक्ति के बल पर पुनः स्वयं को और अधिक मजबूती से स्थापित करता है। ‘‘लोक संस्कृति के कलाकार होने के नाते नागर जी के उपन्यासों में जहाँ सामाजिक समस्याओं के चित्रण की बहिर्मुखता है, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति सत्य के अनावरण-विश्लेषण के लिए अन्तर्मुखता। इस प्रकार बहिर्मुखता और अन्तर्मुखता, सामाजिकता तथा मनोवैज्ञानिकता का अनोखा समन्वय हुआ है।’’[8]

            सूर के जीवन में श्याम और काम का अंतर्द्वंद्व प्रबल रूप से प्रकट होता है। कंतो का आकर्षण उन्हें व्याकुल करता है किन्तु वे अपने श्याम मन का साथ कभी नहीं छोड़ते। कंतो के प्रेम और तंत्र-मंत्र के चक्कर में पड़कर वे दुःखी हो जाते हैं और विनती करते हैं: ‘‘तुम मेरे अंधे जीवन की लाठी बने रहो माधव। आज से तुम्हारे मार्ग में बाधक प्रतिष्ठा की कामना और कामेच्छा को सदा के लिए त्यागता हूँ।’’[9]

            नागर जी अपने उपन्यासों में पात्रों के अंतर्द्वंद्व के बहाने सम्पूर्ण युग-जीवन की चुनौतियों को प्रत्यक्ष करते हैं। ‘‘साहित्य केवल समाज की ऊपरी सतहों को ही टटोलकर चुप नहीं बैठा रहता, बल्कि वह समाज के अन्दर-दर-अन्दर छिपी हुई सम्भावनाओं को भी उजागर करता है।’’[10] सिकन्दर लोदी द्वारा मथुरा में की जा रही क्रूरताओं के बीच सूर मथुरा में प्रवेश करते हैं। अपने समय का भयावह धार्मिक यथार्थ उन्हें विचलित कर देता है। धर्म के नाम पर समाज में अनेक कुप्रथाओं ने जन्म ले लिया था। काशी में चल रही करवत प्रथा का सूर खुलकर विरोध करते हैं। नागर जी लिखते हैं : ‘‘इसके बाद हर जगह सूर स्वामी करवत प्रथा के विरुद्ध प्रचार करने लगे। मुक्ति पाने के लिए आरे से शरीर कटवाने, कटारों लगे कुएँ में अपने आपको गिरवाने की इच्छा मनुष्य की सुव्यवस्थित बुद्धि से नहीं वरन् कुटिल कुबुद्धि से प्रेरित होकर उपजती है। यह मुक्ति नहीं, बल्कि सच पूछो तो इससे जीव मरकर प्रेतयोनि पाता है, अनन्त दाह, अनन्त पीड़ाओं से भरा हुआ एक दूसरा अनचाहा जीवन।’’[11] धर्म के नाम पर किए जाने वाले ढोंग, आडम्बर और उसके फलस्वरूप जड़ होते समाज को नागर जी ने बखूबी पहचाना है। उनके नायक सूर की अंतर्दृष्टि धार्मिक खोखलेपन को स्वीकार नहीं कर पाती। हिन्दू-मुस्लिम के बीच बढ़ते वैमनस्य और जाति-धर्म के नाम पर विखण्डित होते समाज को देखकर वे विचलित हो जाते हैं।

            वस्तुतः दीनदुखियों की सेवा में ही वे अपने इष्ट का साक्षात्कार करते हैं। वे कंतो से कहते भी हैं : ‘‘मैं इनका सेवक बनकर यहाँ रहने आया हूँ। आर्तजनों में ही भगवान के दर्शन मिल जाते हैं।’’[12] देखा जाय तो सूर के जीवन संघर्ष में आधुनिक मनुष्य की प्रतिच्छाया दिखाई देती है। धर्म, राजनीति और समाज की जिन विडम्बनाओं से सूर संघर्ष करते हैं, वह वर्तमान समय में भी हमारे समक्ष चुनौती बनकर उपस्थित है। यह नागर जी की रचनाकार दृष्टि है जो सूर के चरित्र के भीतर आधुनिक मानव जीवन का यथार्थ प्रतिबिम्बित कर देती है। ‘‘एक ऐतिहासिक उपन्यास के रूप में खंजन नयनसूर और उनके युग का सर्वांगीण चित्र प्रस्तुत कर सकने की दृष्टि से दूर तक सफल रहा है। अपनी सीमाओं के अन्दर वह धार्मिक विद्वेष और साम्प्रदायिकता का विरोध करता है। हिन्दू प्रजा के प्रति सुल्तानों एवं सम्राटों की दृष्टि एवं अन्तर भी उसमें स्पष्ट रूप से उभर सका है। नारी के प्रति मध्यकालीन संकीर्ण सोच के दायरे को भी वह तोड़ता है।’’[13]

            सही मायने में नागर जी की रचनाएँ बार-बार उस मनुष्य के पक्ष में खड़ी होती हैं जो परिस्थितियों से टूटकर भी आगे बढ़ते जाने की सामर्थ्य रखता है। महाकालके पाँचू गोपाल से लेकर नाच्यौ बहुत गोपालकी निर्गुनिया, ‘बूँद और समुद्र की ताई, ‘मानस का हंसके तुलसी खंजन नयनके सूर से होता हुआ अग्निगर्भाकी सीता, ‘करवटका बंसीधर और पीढ़ियाँका जयंत तक प्रत्येक चरित्र अपने युग की विषमताओं से टकराता है और हर बार अधिक ताकत के साथ अपने व्यक्तित्व को खड़ा करता है। यह जिजीविषा उनके उपन्यासों को विशेष बनाती है। यही साहित्य का प्राण है क्योंकि ‘’साहित्य सर्जक भी अन्य प्राणियों की भाँति सामाजिक प्राणी है। वह आस्था के कण एकत्र करता है, जीवनेच्छा की पूर्ति के लिए शक्ति का संचय करता है। जीवन की अनुभूतियाँ उसे जिजीविषा के लिए प्रेरित करती हैं तथा आस्था की शक्तिशाली रश्मियाँ उसमें आलोक भरती हैं।’’[14]

   उपन्यास का कथानक सूर के जीवन के सभी पक्षों को समेटता है और इस बहाने से देश की सुरम्य सांस्कृतिक छवि उजागर हो उठती है। जब ग्वाल दाऊ सूर से कहते हैं : ‘‘पुत्र, यदि तू काया से शूरवीर होता तो तुझसे कहता कि देश की स्वतन्त्रता के लिए विदेशी दुष्टों का नाश कर। पंडित होता तो कहता कि स्वाध्याय में आसक्ति रमा। तू है कवि, गायक है। हजारों लाखों को अपनी कवि और गायन कलाओं से रिझा सकता है।’’[15] ऐसे में कृष्ण की लोकरंजक छवि से लोक को रिझाने का संकल्प ही सूर के लिए सर्वस्व हो जाता है। सूर के समय में सिकन्दर लोदी आदि विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारतीय जन-जीवन की आस्था के प्रति गहरा संकट उत्पन्न किया जा रहा था और ऐसे विकट समय में वे जन-जन में आस्था को वितरित करने का निश्चय करते हैं। शान्ति, आस्था और विश्वास की ऊर्जा से लोक मानस को समृद्ध करते हैं और लोकमंगल में ही अपना मंगल देखते हैं।

     सूरदास कवि से पहले भक्त हैं और उनका पूरा जीवन कृष्ण चरणों में समर्पित है। वल्लभाचार्य द्वारा पुष्टिमार्ग में दीक्षित होकर वे कृष्णभक्ति की परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। विवेच्य उपन्यास में ‘‘नागर जी ने सूरदास के व्यक्तित्व को कवि की अपेक्षा एक संवेदनशील, संयमी भक्त के रूप में अंकित किया है। कवि की संवेदनशीलता सूर में उतनी नहीं है जितनी भक्त की उत्कट आकांक्षा और तड़प है।’’[16] माधुर्य भाव से सम्पृक्त सूर की भाव-साधना सूर को राधा-कृष्ण की सरस लीलाओं में निमग्न कर देती है और इस प्रकार बालपन से ही अन्धे, निरीह और उपेक्षित सूरदास खंजन नयन बन जाते हैं। ‘‘जिन नयनों से प्रकृति का वाह्य रूपाकार देखने की सामर्थ्य थी, उन्हीं में परम सत्ता के अपार ऐश्वर्य को हस्ताकमलवत् देखने की दिव्य ज्योति का आलोक भरा हुआ था। इसी अलौकिक आलोक को पाकर सूरदास खंजन नयन बने थे। नागर जी ने सूरदास के चरित्र-चित्रण में इसी दिव्यालोक को विविध सन्दर्भों में उभारने का प्रयास किया है।’’[17]  

             समग्रतः मध्यकालीन वैष्णव भक्ति-साधना के केन्द्र में आन्तरिक और वाह्य परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए महाकवि सूर के भक्त रूप की विजय दिखाना इस उपन्यास का प्रमुख लक्ष्य है। सूर अपने समय की विसंगतियों से जूझते हुए वर्तमान को भी चुनौती देने का साहस रखते हैं।खंजन नयन उपन्यास में सूर के वाह्य एवं अंतर्जगत के संघर्ष को परिस्थितियों से हार मानने का साहस सूर को कृष्ण भक्ति का पथिक बना देता है। खंजन पक्षी के नेत्रों की उपमा देकर नागर जी ने सूर की दृष्टि की उस दिव्यता को लक्षित किया है, जिसमें कृष्ण की मोहक छवि बसी है। सूर के संवेदन-चक्षु उन्हें कृष्ण का साक्षात्कार कराते हैं और कृष्ण-प्रेम का सहभागी बनाते हैं। कृष्ण भक्ति की यह तल्लीनता उन्हें अन्धत्व की हीनता से भी उबार लेती है और वे सूर से खंजन नयन बन जाते हैं।

सन्दर्भ :

1. अमृतलाल नागरखंजन नयन, प्रथम संस्करण 1981, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली, पृ. 88

2. विजयेन्द्र स्नातक : (लेख- एक साहित्यिक नक्षत्र का अवसान), संवाद, मार्च 1990, पृ. 12

3. श्रीलाल शुक्ल  : भारतीय साहित्य के निर्माता अमृतलाल नागर, संस्करण 1994, साहित्य  अकादमी, पृ. 93

4. अमृतलाल नागरखंजन नयन, प्रथम संस्करण 1981, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली, पृ. 233

5. सूरज पालीवाल : समकालीन हिन्दी उपन्यास, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, 2004,  पृ. 40

6. अमृतलाल नागर : खंजन नयन, प्रथम संस्करण 1981, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली, पृ. 66

7. अमृतलाल नागर : खंजन नयन, प्रथम संस्करण 1981, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली,  पृ. 192

8. सत्यपाल चुघ  : आस्था के प्रहरी, प्रथम संस्करण मार्च 1970, इकाई प्रकाशन इलाहाबाद, पृ. 14

9. अमृतलाल नागर  : खंजन नयन, प्रथम संस्करण 1981, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली, पृ. 73

10. अमृतलाल नागर : साहित्य और संस्कृति, प्रथम संस्करण 1986, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली, पृ. 139

11. अमृतलाल नागर  : खंजन नयन, प्रथम संस्करण 1981, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली,पृ. 151

12. अमृतलाल नागर  : खंजन नयन, प्रथम संस्करण 1981, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली,  पृ. 107

13. मधुरेश : खंजन नयन की समीक्षा, समीक्षा पत्रिका, अप्रैलजून 1982, पृ. 23

14. हेमराज कौशिक : अमृतलाल नागर के उपन्यास, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली,1985, पृ. 144

15. अमृतलाल नागर : खंजन नयन, प्रथम संस्करण 1981, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली, पृ. 88

16. विजयेन्द्र स्नातक : खंजन नयन की समीक्षा, समीक्षा पत्रिका, अप्रैल, जून 1982, पृ. 16

17. विजयेन्द्र स्नातक : खंजन नयन की समीक्षा, समीक्षा पत्रिका, अप्रैल, जून 1982, पृ. 09

डॉ. रेनू त्रिपाठी, सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग,सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु सिद्धार्थनगर

                                renutripathi2012@gmail.com, 6387910660, 9670174973

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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