देवबन्द दारुल उलूम का भारतीय राष्ट्रवाद
पर प्रभाव (1866-1920 ई.) के
विशेष संदर्भ में
वसीम चौधरी व डॉ. शशि नौटियाल
बीज शब्द : दारुल उलूम,
कांग्रेस,
अलीगढ़
आन्दोलन, जमीअत
उल हिन्द, साम्राज्यवाद,
औपनिवेशिक
हित, राष्ट्रवाद,
रेशमी
रूमाल षड़यंत्र
मूल आलेख : औपनिवेशिक भारत में राष्ट्रीय चेतना का विकास राजनैतिक क्षेत्र के साथ-साथ सामाजिक-धार्मिक क्षेत्रों में भी हुआ था। भारत में एक और परंपरागत धार्मिक दृष्टिकोण, व्यवहार एवं संगठन और दूसरी ओर नवीन सामाजिक और आर्थिक यथार्थ के अन्तर्विरोध में शिक्षित मध्य वर्ग ने देश में कंई सामाजिक धार्मिक सुधार आन्दोलनों को विकसित किया। राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ टैगोर, केशव चन्द्र सेन, के0टी0 तैलंग, महादेव गोविन्द रानाडे, ज्योतिराव फूले, आर्य समाज, फरायजी आन्दोलन, मोहम्मडन लिटरेसी सोसाइटी, अहमदिया आन्दोलन एवं देवबंद आन्दोलन के संस्थापकों जैसे समाज सुधारकों और आरम्भिक राष्ट्रवादियों ने लोकतंत्र के सिद्धान्तों को सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र में भी अपनाया था। यें सुधार आन्दोलन सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण का सुधार करने तक सीमित नहीं थे, बल्कि यह सामाजिक संस्थाओं और सामाजिक सम्बन्धों के पुनः निर्माण तक व्यापक एवं विस्तृत था। उन्नीसवीं शताब्दी के भारत में धर्म और सामाजिक संरचना एक-दूसरे से कंई तरह से जुड़े। दृष्टिकोण में विकृतियाँ उत्पन्न होने के कारण ही जातिगत, लैंगिक असमानता, सामाजिक कुरीतियाँ उत्पन्न हुई। इस तरह वर्तमान परिस्थितियों में सुधार एक मुख्य मुद्दा बना। इन आन्दोलनों के अन्तर्गत कंई स्तर पर धर्म को तार्किक आधार देने का प्रयास किया गया। वस्तुत: भारत में व्यक्ति के जीवन की रूपरेखा एवं उसकी सामाजिक जीवन, आर्थिक गतिविधियाँ कुछ सीमा तक धर्म द्वारा नियंत्रित होती थी। 19वीं सदी में हुए इन आन्दोलनों ने सामाजिक-धार्मिक, और यहाँ तक कि राजनीतिक सुधार के लिए सर्व-समावेशी कार्यक्रम अपनाए। इन आन्दोलनों ने राष्ट्रीय चेतना का आधार निर्मित किया। इन धर्म सुधार आन्दोलनों में कुछ आन्दोलन पारम्परिक धर्म को उदारवाद के आलोक में संशोधित करना चाहते थे और कुछ अन्य आन्दोलनों ने प्राचीन समय के धर्म के शुद्ध रूप (मूलभूत) रूप को पुन: स्थापित करने का लक्ष्य रखा। यूरोप के धर्म सुधार आन्दोलनों की तरह भारत के धर्म सुधार आन्दोलन ने भी स्वस्थ परम्पराओं की ओर बल दिया और बाद में आई विकृतियों और अन्धविश्वासों की आलोचना की।1 इन विचारकों का चिन्तन इस तथ्य से भी प्रभावित हुआ था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समक्ष सभी भारतीय राजनैतिक शक्तियाँ एक के बाद एक निरन्तर परास्त होती गयीं थी।
18वीं शताब्दी में औरंगजेब के कमजोर उत्तराधिकारियों के काल में मुगल साम्राज्य की केन्द्रीय शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई और 1498 ई0 मे वास्कोडिगामा के आगमन के साथ भारत में कंई यूरोपियन शक्तियों का आगमन हुआ था केन्द्रीय राजनैतिक सत्ता की दुर्बलता की स्थिति में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की महत्वाकांक्षाओं में वृद्धि हुई। भारत में औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापना के साथ ही उन्होंने भारत में प्रशासनिक, राजनैतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में कई परिवर्तन किए, इन परिवर्तनों के प्रतिरोध में भारतीयों ने निरन्तर कई विरोध किये एवं इनकी पराकाष्ठा 1857 ई0 क्रान्ति थी। 1857 ई0 की क्रान्ति की विफलता ने नाममात्र की मुगल सत्ता को भी समाप्त कर दिया। क्रान्ति की विफलता ने भारतीयों की आकांक्षाओं पर अत्याधिक आघात किया। अंग्रेज इतिहासकार रॉबर्ट्स एंव श्रीमती कूपलैण्ड ने इसे ‘मुस्लिम विद्रोह’ कहा।
क्रान्ति की विफलता के उपरान्त ब्रिटिश घृणा के विशेष लक्ष्य मुसलमान बने। विभिन्न क्षेत्रों में मुसलमानों के प्रभावशाली प्रमुख परिवारों को नष्ट किया गया।2 वर्ष 1857 की क्रान्ति के पश्चात् ब्रिटिश सरकार की मुस्लिम विरोधी नीति ज्यादा गहन हुई, क्योंकि ब्रिटिश के आने से पूर्व केन्द्रीय शक्ति मुगल थे और मुगलों को अपदस्थ कर अंग्रेजों द्वारा दिल्ली पर अधिकार किया गया, वहीं अवसरों के सीमित होने से मुसलमानों की राजनीति तथा सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक सम्पन्नता अधिक क्षीण हो गई। प्रतिक्रिया स्वरूप मुस्लिमों की ब्रिटिश विरोधी भावनाएँ बढ़ीं। 1857 ई0 की क्रान्ति के पश्चात् कुछ शिक्षण संस्थानों को भी नष्ट कर दिया गया, इसमें अंग्रेज विरोधी गतिविधियों का केन्द्र रहे दिल्ली स्थित मदरसा ‘अजीजिया’ भी शामिल था। जो अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने की गतिविधियों का एक केन्द्र था।3 मिशनरी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा (बाईबिल) अनिवार्य कर दी गई। ईसाई मिशनरी को 1813 ई0 में भारत में धर्म प्रचार करने की अनुमति मिल गई। ब्रिटिश शासन के इन निर्णयों को मुसलमानों की धार्मिक, सामाजिक जीवन और रस्मो-रिवाज को नष्ट करने का प्रयास माना गया। इससे मुस्लिम समाज में दो प्रकार की विचारधारा उत्पन्न हुई। अंग्रेजी संस्कृति के प्रति सहनशील एवं प्रतिरोधवाद वाली।
प्रथम
विचारधारा के नेतृत्वकर्ता उस समुदाय से आते थे,
जिसने
पाश्चात्य
ढंग से स्थापित व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा पाई थी तथा दूसरी विचारधारा के नेतृत्वकर्ता
ने मध्ययुगीन ढंग से अरबी और फारसी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त की थी। प्रथम विचारधारा
का नेतृत्व सर सैय्यद अहमद खाँ कर रहे थे। सर सैय्यद अहमद ईस्ट इण्डिया कम्पनी में
नौकरी कर रहे थे। 1857 ई0
की
क्रान्ति के समय बिजनौर में मुंसिफ के पद पर कार्यरत थे।4
क्रान्ति
के समय इन्होंने अनेक अंग्रेजों की रक्षा भी की,
किन्तु
दिल्ली में स्थित इनके परिवार के सदस्यों की अंग्रेज सैनिकों द्वारा हत्या कर दी गई
और इनकी माता ने नौकर के घर में छिपकर अपनी रक्षा की।5
1857 ई0 की
क्रान्ति की विफलता को देखकर सर सैय्यद अहमद की मान्यता दृढ़ हो गई कि अंग्रजों को शासन
से हटाया नहीं जा सकता। अतः इन्होंने अंग्रेज सरकार और भारतीय मुसलमानों के बीच सम्बन्धों
को बेहतर बनाने के लिए प्रयास किया और कहा कि मुस्लिम अंग्रेज सरकार से समर्थन और संरक्षण
प्राप्त करें जिससे कि वे नौकरियाँ प्राप्त कर सकें। इसके लिए वे अंग्रेज सरकार के
प्रति पूर्ण रूप से निष्ठावान
बने। सन् 1860 ई0
में
प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द
लॉयल मोहम्मडन ऑफ इण्डिया’ में
यह स्थापित करने का प्रयास किया कि मुस्लिम मूल रूप से ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठावान
थे, ब्रिटिश सरकार को मुस्लिमों
के प्रति संदेह की भावना त्याग देनी चाहिए। इसी तरह मुस्लिमों ने कहा कि वह अंग्रेजों
द्वारा भारत में आरम्भ की गई नई प्रगतिशील संस्कृति को अपनाएँ और प्रशासन में भागीदारी
पाने का प्रयास करें। मुसलमानों की उन्नति का एकमात्र मार्ग अंग्रेजी शिक्षा और आधुनिक
सभ्यता को ग्रहण करना तथा उसका मुस्लिम संस्कृति से सामंजस्य स्थापित करना है। इसके
लिए आवश्यक
है कि प्रत्येक मुसलमान अंग्रेजी राज्य के प्रति इतना ही वफादार हो जितना कि अपने धर्म
के प्रति।6
सर
सैय्यद अहमद खान ने मुस्लिम समाज में सुधार और जागरण लाने के लिए अलीगढ़ आन्दोलन चलाया।
अलीगढ़ आन्दोलन के तीन मुख्य मुद्दे बनाए - इस्लाम
की नई व्याख्या, समाज
सुधार और पराम्परागत
शिक्षा के स्थान पर आधुनिक शिक्षा (पश्चिमी
शिक्षा) का
अनुग्रह।
सर सैय्यद अहमद खाँ की नीति ब्रिटिश के प्रति समर्पित थी। ब्रिटिश भी उनकी इस भावना को समझते थे। यही कारण है कि ब्रिटिश ने उन्हें शैक्षिक संस्था स्थापित करने में सहयोग दिया। यह सहयोग आर्थिक सहयोग के साथ-साथ अपने समर्थन के रूप में भी दिया। जैसा कि हम देखते हैं कि इसका उद्घाटन भी एक अंग्रेज द्वारा किया गया एवं इसका प्रथम प्रधानाचार्य भी एक अंग्रेज ही था। जमीदार और उच्च वर्ग से मिलने वाली वित्तीय मदद और सरकार के सहयोग से अलीगढ़ में 1874 ई0 में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल स्कूल खोला, इसका उद्घाटन सन् 1875 में सर विलियम म्यूर ने किया।7 इसके प्रथम प्रधानाचार्य थियेडर बैक थे। इसकी स्थापना में ब्रिटिश गवर्नर जनरल ने दस हजार रुपए और लेफ्टिनेंट गवर्नर ने एक हजार रुपये की धनराशि भी दी। जनवरी 1877 को लॉर्ड लिटन ने कॉलेज की इमारत की नींव रखी। सन् 1878 ई0 में कॉलेज की मान्यता प्राप्त हुई और यह 1920 ई0 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ।8
‘अलीगढ़ आन्दोलन’ का लक्ष्य भारतीय मुसलमानों को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाना और इस्लाम के प्रति मुसलमानों की निष्ठा को कमजोर किए बिना उनके बीच पश्चिम शिक्षा का प्रसार करना था। यह आन्दोलन पश्चिम आधारों पर मुस्लिमों के बीच एक विशिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक समुदाय का विकास करना चाहता था। इसने इस्लाम और पश्चिम उदारवादी संस्कृति के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया।9 भारत में उभरते हुए राष्ट्रवाद तथा कांग्रेस द्वारा की गई राष्ट्रीय मांगों के विरुद्ध अंग्रेजों का सहयोगी बना।10
दूसरी विचारधारा का नेतृत्व देवबन्दी उलेमा वर्ग कर रहे थे। जिन्होने 1857 ई0 की क्रान्ति में अंग्रेजों के विरुद्ध शामली में सशस्त्र संघर्ष किया था। इन परिस्थितियों में मुसलमानों के सामने केवल दो विकल्प थे या तो साहस के साथ उस दुर्भाग्य का सामना करते एवं नैतिक कमजोरियों को दूर करते, जिनसे उनकी इच्छाशक्ति कुंठित हो रही थी। कुरान की शिक्षा के आधार पर नए समाज का निर्माण करते और दूसरे धर्म को मानने वाले देशवासियों के साथ मिलकर ऐसा राजनीतिक कार्यक्रम चलाते जिससे वे अपनी धर्म की पुनः स्वतंत्रता, कल्याण और उन्नति का समान अवसर मिले एवं सभी सम्प्रदायों तथा वर्गों के व्यक्तियों के साथ आत्मसम्मान का जीवन बिताने का अवसर मिले। या दूसरा विकल्प था कि वे भी हमेशा के लिये स्वतंत्रता प्राप्ति के स्वप्न को भुला दें, ब्रिटिश शासकों के शासन को स्वीकार करें और उन्हें प्रसन्न करके सरकारी नौकरियाँ एवं कृपादृष्टि प्राप्त करने का प्रयत्न करें। ऐसे समय में देवबन्द आन्दोलन के संस्थापक मौलाना मुहम्मद कासिम नानौतवी ने धार्मिक शिक्षा को अपना साधन बनाया, जिससे मुसलमानों में अपने देश और धर्म के प्रति स्वाभिमान बना रहे।11 दारुल उलूम की स्थापना के दो उद्देश्य थे मुसलमानों में कुरान और हदीस की मूल शिक्षा का प्रसार और भारत के विदेशी शासकों के विरुद्ध जेहाद की भावना को सजीव रखना। इनका विचार था कि भारत को हिन्दू-मुस्लिम एकता और सहयोग के बिना स्वतंत्रता नहीं मिल सकती।
30 मई
1866 ई0 को
मौलाना मुहम्मद कासिम नानौतवी एवं उनके सहयोगी हाजी मुहम्मद अली,
मौलाना
महताब अली देवबंदी, मौलाना
जुल्फिकार अली देवबंदी, मौलाना
फ़ज़लुर्रहमान देवबंदी, मुंशी
फ़ज़ल हक़ और शेख़ निहाल अहमद ने देवबंद में मदरसा
‘दारुल उलूम’
की
स्थापना की।12
इन्होंने
दिल्ली स्थित ‘अजीजिया’
मदरसे
में शिक्षा प्राप्त की थी और सन् 1857 में
शामली में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष किया था।
ब्रिटिश राज्य के विरोध को अपना आदर्श बनाते हुए, दारूम उलूम ने अपना मकसद
तालीम के माध्यम से ऐसे नौजवानों को पैदा करना रहा। जो रंगो-नस्ल के लिहाज से हिंदुस्तानी
हो और दिल और दिमाग से इस्लामी हो तथा दीन और सियासत के लिहाज से जिनमें इस्लामी शऊर (सोच) जिंदा हो। जैसा कि कारी
मोहम्मद तैय्यब ने दारुल उलूम के विषय में कहा था, वास्तव में शामली और देवबंद
एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं, अंतर केवल हथियारो का है। शामली में धर्म, संस्कृति की रक्षा तथा राजनैतिक
स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु शस्त्रों का प्रयोग किया गया था। वही देवबंद में उद्देश्य
की पूर्ति हेतु शांतिपूर्ण विचारधारा
(शिक्षा) को प्रयोग में लाते
हुए व्यक्तियों का निर्माण किया गया।
देवबंद दारुल उलूम ने निष्पक्षता बनाए रखने के लिए धनी व्यक्तियों, राजा और ब्रिटिश सरकार से सहायता नहीं ली और आम जनता के चंदे से अपना आर्थिक आधार निर्मित किया। सन् 1885 कांग्रेस की स्थापना का स्वागत किया और स्वतंत्रता आन्दोलन में कांग्रेस का सहयोग किया। जब सर सैय्यद अहमद ने मुस्लिमों को कांग्रेस का विरोध करने को कहा, तो इन्होंने सर सैय्यद अहमद की निन्दा की और उनके संगठन पैट्रियोटिक एसोसिएशन एवं मोहम्मडन ऐंग्लो ओरिएंटल एसोसिएशन के विरुद्ध फतवा जारी किया। सर सैय्यद अहमद ने अलीगढ़ कालेज की स्थापना हेतु देवबंद मदरसे का सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न किया तो देवबंद मदरसा संस्थापकों ने अस्वीकार कर दिया।13
अलीगढ़ आन्दोलन ने मुस्लिम समाज के उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व किया, वहीं देवबन्द आन्दोलन ने आम-आदमी (निम्न, मध्य वर्ग) के हितों का प्रतिनिधित्व किया। जिसके बारे में ए0सी0 लायल का मत है कि ऐसा कहना सत्य के और निकट होगा कि उनमें से नासमझ और अशिक्षित जनता हमारी विरोधी है।14
सन् 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया। बंगाल विभाजन ब्रिटिश सरकार की ‘बांटो और राज करो’ की नीति का परिणाम रूप था। वंही ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश राज समर्थित मुस्लिमों को कांग्रेस के पृथक दल बनाने के लिए प्रेरित किया, जिसके परिणामस्वरूप 1906 ई0 में मुस्लिम लीग अस्तित्व में आई। ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक नीति के तहत 1909 ई0 में मार्ले-मिंटो रिफार्म में मुसलमानों को पृथक निर्वाचन मंडल दे दिया गया। देवबंद दारुल उलूम और उसके समर्थकों ने मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सरकार की नीति का विरोध किया। मौलाना वहीदुद्दीन सलीम ने मुस्लिम गजट (लखनऊ), मौलाना जफर अली खान ने जमींदार (लाहौर), मौलाना मोहम्मद अली ने कामरेड (कलकत्ता) और मौलाना अबुल कलाम ने समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन किया और उसमें मुस्लिम लीग के दृष्टिकोण की आलोचना की।15
1905 ई0 में देवबंद दारुल उलूम के संस्थापक एवं संचालक मौलाना कासिम नानौतवी एवं मौलाना रशीद अहमद गंगोही की मृत्यु होने के पश्चात इस संस्था का नेतृत्व मौलाना महमूद हसन ने किया। प्रारंभ से ही कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे। देवबंद विचारधारा के धार्मिक आदर्शों में राजनैतिक तथा बौद्धिक वस्तुतत्व का समावेश किया।16 सन 1909 ई0 देवबंद दारुल उलूम के पूर्व छात्रों को संगठित कर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध ‘जमीयत-उल-अंसार’ नामक एक संघ बनाया।17 जमीअत उल अंसार का महत्वपूर्ण उद्देश्य महमूद हसन के कार्यक्रम को क्रियान्वित करना था। जिसमें महमूद हसन ने इस्लाम के सिद्धांतों एवं राष्ट्रीय भावनाओं के समन्वय पर बल दिया। मौलाना महमूद हसन ने अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए विदेशों से सहायता प्राप्त करने का निर्णय किया, उन्होंने अफगानिस्तान और ईरान की सरकारों को भी निकट लाने का प्रयत्न किया। जिससे कि इन देशों के माध्यम से तुर्की का सहयोग लेकर भारत में ब्रिटिश सरकार पर आक्रमण किया जा सके अपने उद्देश्य की सफलता के लिए उन्होंने हिंदू क्रांतिकारियों से भी संपर्क स्थापित किया।18
1914 ई0 में प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विदेशों से सहायता प्राप्त करने के लिए मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी को काबुल भेजा और स्वयं मक्का गए। काबुल में मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक शाखा का भी गठन किया। जिसने गदर पार्टी को सहयोग देकर अस्थाई भारतीय सरकार बनवाई जिसके अध्यक्ष राजा महेंद्र प्रताप थे। मौलाना महमूद हसन ने मदीना में तुर्की के युद्ध मंत्री अनवर पाशा से मिले। अनवर पाशा ने खैबर दर्रे के रास्ते भारत में अंग्रेजों पर आक्रमण में हर संभव सहयोग देने का आश्वासन दिया। यह संदेश मौलाना महमूद हसन ने भारत में अन्य व्यक्तियों और काबुल में मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी को भी भेजे। रौलेट समिति को अगस्त 1915 ईस्वी में इस षड़यंत्र का पता चला। ये पत्र रेशम के कपड़े पर लिये हुए थे। जिसका उल्लेख रौलेट समिति ने सरकारी रिपोर्ट में 'सिल्क लेटर कान्सपिरेसी' के नाम से किया। जिसमें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विदेशी सहायता से सरकार पर आक्रमण करने का विवरण था। मक्का में अंग्रेजों ने मौलाना महमूद हसन को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें माल्टा जेल भेज दिया गया।19 1919 ईस्वी में स्थापित जमीअत उलेमा हिंद के माध्यम से देवबंद मदरसे ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में संयुक्त रूप से कांग्रेस और खिलाफत समिति द्वारा लाए गए असहयोग आंदोलन के समर्थन में एक फतवा जारी किया, जिस पर 925 प्रमुख मुस्लिम उलेमाओं के हस्ताक्षर थे।20
प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् मार्च 1920 ई0 में मौलाना महमूद हसन को रिहा कर दिया गया। जून 1920 ई0 को मुम्बई पहुंचने पर उनका स्वागत करने के लिए महात्मा गाँधी सहित खिलाफत कमेटी के सदस्य उपस्थित थे। महात्मा गांधी और मौलाना महमूद हसन ने देश की राजनैतिक स्थिति पर विचार विमर्श किया और असहयोग आंदोलन के समर्थन में मौलाना महमूद हसन ने संयुक्त प्रांत का दौरा किया। मौलाना महमूद हसन ने अलीगढ़ में जामिया मिलिया विश्वविद्यालय की स्थापना की, इसके पश्चात् दिल्ली में जमीयत-उलेमा-हिन्द की अध्यक्षता करने गये। स्वास्थ्य खराब होने के कारण इनका अध्यक्षीय भाषण शब्बीर अहमद ने पढ़कर सुनाया। “हिन्दुस्तान में हिन्दू, मुस्लिम और सिख कौम तीनों मिलकर प्रेमभाव से रहें तो समझ में नहीं आता कि कोई चौथी कौम चाहे कितनी भी ताकतवर हो भारत पर शासन नहीं कर सकती।“21
देवबंद आन्दोलन का उद्देश्य इस्लाम धर्म में उत्पन्न हुई कुरीतियों को दूर करना और उन्हें कुरान एवं हदीस की शिक्षा और उदाहरण के अनुसार जीवन व्यतीत करना था। लेकिन भारत पर ब्रिटिश शासन के रहते इन सुधारों को कार्यान्वित करना संभव नहीं था। उनके अनुसार ब्रिटिश शासन की समाप्ति के पश्चात् ही राजनीतिक और धार्मिक समस्याओं का निराकरण सम्भव है। क्योंकि ब्रिटिश शासन मुस्लिम को धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से नष्ट करने का संकट पैदा कर रहे थे। उन्हें विश्वास था कि भारत एक बार स्वतंत्र हुआ तो उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता सुरक्षित हो जाएगी। इसलिए ब्रिटिश शासन के प्रति उनका विरोध स्वाभाविक और अनिवार्य था। ब्रिटिश शासन के कारण वे राज्य में प्रभाव से वंचित हुए। उनके अनुसार अंग्रेजी शिक्षा से इस्लाम धर्म के प्रति उनका विश्वास नष्ट हो जाएगा और उनके व्यक्ति स्वधर्म त्याग देंगे। इस कारण विदेशी विद्या और संस्कृति के प्रति उनके मन में घृणा थी। यद्यपि दारुल उलूम का तत्कालिक उद्देश्य शिक्षा एवं चरित्र निर्माण था, लेकिन इसके साथ समाज एवं राष्ट्र का प्रश्न उतना ही महत्वपूर्ण था, जितना कि व्यक्ति की आस्था और विश्वास का।
सन्दर्भ :
1. ए.आर.
देसाई:
भारतीय
राष्ट्रवाद
की सामाजिक पृष्ठभूमि,
सेज
पब्लिकेशन, 2018, पृ.181-82.
2. विलियम विल्सन
हन्टर: द
इण्डियन मुसलमान, ट्रुबनेर
एंड कम्पनी, लन्दन,
1872, संस्करण-2,
पृ.151.
3. डॉ.
के.के.
शर्मा:
सहारनपुर
संदर्भ, भाग-1,
संदर्भ
प्रकाशन, सहारनपुर,
1986, पृ.381.
4. हाफिज मलिक:
सर
सैय्यद अहमद खान एण्ड मुस्लिम माडर्नाईजेशन इन इण्डिया एण्ड पाकिस्तान,
कोलम्बिया
यूनिवर्सिटी, न्यूयार्क,
1980, पृ.105-106.
5. कर्मेन्दु शिशिर:
भारतीय
मुसलमान इतिहास का सन्दर्भ, भाग-2,
भारतीय
ज्ञानपीठ, नई
दिल्ली, 2017, पृ.46.
6. ए.आर. देसाई: भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि, सेज पब्लिकेशन, 2018, पृ. 251.
7. श्री
रतनलाल बंसल:
रेशमी पत्रों का षड्यंत्र,
विनोद
पुस्तक मन्दिर, आगरा,
1947, पृ.99.
8. ताराचंद:
भारतीय
स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास, भाग-2,
सूचना
एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत
सरकार, नई
दिल्ली, पृ.339.
9. ए.आर.
देसाई:
भारतीय
राष्ट्रवाद
की सामाजिक पृष्ठभूमि,
सेज
पब्लिकेशन, 2018, पृ.192
10. शांतिमय रे:
आजादी
का आन्दोलन और भारतीय मुसलमान, राष्ट्रीय
पुस्तक न्यास, नई
दिल्ली, 2012, पृ.25.
11. फरहत तबस्सुम:
देवबंद
उलेमा मूवमेंट फार द फ्रीडम ऑफ इण्डिया, मानक
पब्लिकेशन, नई
दिल्ली, 2006, पृ.13.
12. मौ.
म.कासमी: दारुल उलूम देवबंद
का इतिहास, मकतबा
दारुल उलूम देवबंद, 2012,
पृ.20.
13. ताराचंद:
भारतीय
स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास, भाग-3,
सूचना
एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत
सरकार, नई
दिल्ली, 2017, पृ.268.
14. ताराचंद:
भारतीय
स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास, भाग-3,
सूचना
एवं प्रसारण मंत्रालय,
भारत
सरकार, नई
दिल्ली, 2017, पृ.330.
15. जिया-उल-हसन: द देवबंद स्कूल एण्ड
द डिमांड फार पाकिस्तान, एशिया
पब्लिशिंग हाऊस, बॉम्बे,
1963, पृ.51.
16. मोइन साकिर: खिलाफत टू पार्टीशन, कलामकर प्रकाशन, नई दिल्ली,1970, पृ.43
17. सैय्यद महबूब
रिजवी: हिस्ट्री
ऑफ द दारुल उलूम देवबंद, भाग-2,
इदारा-इ
एतमाम, दारुल
उलूम, देवबंद,
1981, पृ.132.
18. शचीन्द्रनाथ सान्याल: बंदीजीवन, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली,1963, पृ.414-415
19. रतनलाल
बंसल: मुस्लिम
देशभक्त, देश
सेवा प्रेस, इलाहाबाद,
1949, पृ.76.
20. राजेंद्र
प्रसाद: इंडिया डिवाइडेड, तीसरा सस्करण, हिंद किताब लिमिटेड, मुंबई,1947, पृ.121.
21. डॉ.के.के. शर्मा, डॉ. सिप्रा बैनर्जी (संपादित): सहारनपुर संदर्भ, सहारनपुर की महान विभूतियाँ, 1858-1988, भाग-2, सन्दर्भ प्रकाशन, सहारनपुर, 1996, पृ.21-22
वसीम चौधरी
सीनियर रिसर्च फैलो, इतिहास विभाग, जे॰ वी॰ जैन कॉलेज, सहारनपुर-247001
vaseemc25@gmail.com,
9557395775
डॉ. शशि नौटियाल,
एसोसिएट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, जे॰ वी॰ जैन कॉलेज, सहारनपुर-247001
shashijvjc@gmail.com, 9897379898
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : Yukti sharma Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
एक टिप्पणी भेजें