“मैं रंगमंच के आकाश में उड़ना चाहती थी” : उषा शर्मा
(अलवर
की प्रसिद्ध रंगकर्मी उषा शर्मा से बलदेवा राम की बातचीत)
फोटो साभार : दीपक चंदवानी, अलवर |
बलदेवा राम : नमस्ते उषा जी ! आज हम आपकी रंग यात्रा के संदर्भ में
बातचीत कर रहे हैं। मैं जानना चाहूंगा कि जिस उम्र में भारतीय समाज में लड़कियां
पढ़ाई को लेकर सोचती हैं अथवा पढ़ाई को लेकर भी नहीं सोचती थी, उस समय आपने थिएटर
के बारे में सोचा। आपका थिएटर में आना किस प्रकार से हुआ?
उषा जी : बचपन में तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि मैं थिएटर में
आऊंगी। हालांकि मेरे पिताजी संग्राम शास्त्री किसान थे, खेती-बाड़ी करते थे, लेकिन
उन्हें संगीत का बेहद शौक था और वे यह चाहते थे कि मेरे बच्चे थिएटर में काम करें।
वे मुझे हारमोनियम सिखाते थे लेकिन मैं नहीं सीख पाई। उन्होंने मुझे तबला सिखाने
की कोशिश की, लेकिन सब कुछ नाकामयाब रहा। लेकिन सन् 1980 के
आसपास उन्होंने अखबार मैं एक विज्ञापन देखा कि अलवर में कोई नाटक हो रहा है। उस
समय अलवर में रमेश जी राजहंस यह काम कर रहे थे। इनकी एक संस्था थी, जिस के बैनर
तले नदी प्यासी थी नामक नाटक की तैयारी हो रही थी। तो उस नाटक का विज्ञापन
देखकर मेरे पिताजी ने कहा कि आप इसमें काम करो। क्योंकि उस समय हम मौजपुर गांव में
रहते थे और थिएटर शहर में होता था। मेरे पिताजी मुझे अलवर लेकर आए और एक महीने तक
कमरा किराया लेकर हमने रिहर्सल में भाग लिया और फाइनली जयपुर जाकर वह नाटक किया। हालांकि
उस नाटक से मिला कुछ नहीं लेकिन पिताजी के शौक की वजह से वह नाटक मैंने किया।
बलदेवा राम : मै यह जानकर बहुत रोमांचित हूँ कि 1980 के दौर में एक
पिता अपनी बेटी को नाटक में भूमिका करवाने के लिए शहर में मकान किराये पर लेकर रहे।
मुझे लगता है कि आपसे बड़े रंगकर्मी आपके पिता थे।
उषा जी : जी, बिलकुल सही बात कही आपने, कला के प्रति सम्मान और जूनून
उनमे बहुत था। हम छह भाई-बहन थे, इसलिए हम ज्यादा नहीं पढ़ पाए। मैं खुद आठवीं
कक्षा तक पढ़ी हूँ लेकिन मेरे पिता ने सब को पढ़ाने, कला के प्रति सचेत करने और
बेहतर इन्सान बनाने की भरपूर कोशिश की।
बलदेवा राम : आप गांव से थी, ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी तो थिएटर करने
के लिए जो आप में विश्वास की जरूरत होती है, वह आपको कहाँ से मिला?
उषा जी : पता नहीं, लेकिन थिएटर से मैं कभी डरी नहीं, चाहे कितने ही
दर्शक हो, कोई भी भूमिका हो, मुझे कभी थिएटर से डर नहीं लगा। हालांकि मुझे कैमरे के
सामने भी डर नहीं लगा। संत लाल दास की शूटिंग भी हुई। इसके अलावा इमरती नाटक की भी
शूटिंग हुई थी जो राजस्थान के प्रादेशिक चैनल पर प्रसारित हुआ था। कई निर्देशकों
को लगता था कि मैं कम पढ़ी-लिखी हूँ तो भाषा को लेकर समस्या खड़ी हो सकती है, लेकिन
मैंने हर तरह के किरदार निभाए, बिल्कुल सहज भाव से।
बलदेवा राम : नदी प्यासी थी से शुरू हुई आपकी रंगयात्रा कहाँ
कहाँ से होकर गुजरी?
उषा जी : नदी प्यासी थी मेरा पहला नाटक था। इसके बाद तो फिर
सिलसिला शुरू हो गया। इस नाटक के डायरेक्टर रमेश जी खंडेलवाल या अग्रवाल थे। उसके
बाद बकरी नाटक किया। आला अफसर, जिसमें नीलाभ पंडित हमारे साथ थे। इन सब
नाटकों में महिला पात्रों के रूप में मेरी मुख्य भूमिका थी। शिमला में भी मैं काम
करने गई, नाटक का नाम था प्यादा । जयपुर में संतलाल दास नामक नाटक
के दो शो किए। इंसान जाग उठा इस नाटक में भी काम किया। मैंने उस समय
काफी निर्देशकों के साथ काम किया। एक थे महावीर सिंह, बाकी
ज्यादातर नाटक मैंने इप्टा वाले जगदीश शर्मा के साथ किए, जिन्हें जगदीश कामरेड भी
कहते हैं। भगवत शर्मा के साथ भी मैंने काम किया। उनके साथ मैंने दिग्भ्रमित नाटक किया, इसके
अलावा और भी नाटक थे लेकिन मुझे नाम ध्यान नहीं आ रहे हालांकि भर्तृहरि(अलवर का
प्रसिद्ध लोकनाट्य) में भी मैंने काम किया था लेकिन उसमें मेरी मुख्य भूमिका नहीं
थी।
बलदेवा राम : यह मैंने सुना है कि भर्तृहरि करने वाले कलाकार
हिंदी रंगमंच नहीं करते.......
उषा जी : ऐसा नहीं है, मैंने दोनों ने काम किया है। भर्तृहरि
में काम करने से भी पहले मैं हिंदी नाटकों में काम कर चुकी थी। तो भर्तृहरि
में मुझे बाद में मौका मिला। भर्तृहरि में एक माँ होती है जिसके दो बच्चे होते हैं
और बंटवारा होता है, उसकी भूमिका की थी। पिंगला की भूमिका उर्मिला जी किया करती थी।
मैंने उनकी सखी की भूमिका की है। हालांकि हम से पहले भर्तृहरि में भी महिला
पात्रों की भूमिका पुरुष किया करते थे, जैमिनी जी(गिरिराज जैमिनी) ने महिलाओं को अलवर
के रंगमंच में स्थान दिया लेकिन ये महिलाएं बाहर से लाई जाती थी। उसके बाद में
अलवर की महिलाओं ने भी काम करना शुरू कर दिया। हालांकि मेरे बाद में बहुत सी
महिलाएं थिएटर में काम करने लगी थी लेकिन मैं अपने समय में अलवर की लगभग अकेली
महिला रंगकर्मी रही। मेरे से पहले कोई महिला थिएटर में काम नहीं करती थी। जो महिला
रंगमंच में थी, उन्हें बाहर से लाया जाता था। मैंने अभय समाज(अलवर की
ख्यातिप्राप्त संस्था जो भर्तृहरि और रामलीला मंचन के लिए प्रसिद्ध है) के साथ और
आधुनिक नाटक दोनों में काम किया। अभय समाज भर्तृहरि नाटक को लेकर जब
उज्जैनी गया, तब मैं भी साथ गई थी। इप्टा की मैं मेंबर रही, इसमें मैंने कई साल
काम किया। हालांकि इसकी विचारधारा से मेरी विचारधारा मेल नहीं खाती, फिर भी मैंने
वहां बहुत काम किया।
बलदेवा राम : आपके परिवार में, समाज में अन्य महिलाएं भी रही होगी।
उनकी तरफ से क्या कोई ऐसी प्रतिक्रिया कभी सुनने को मिली जिससे आपको थियेटर करने
के बारे में सोचना पड़ा हो?
उषा जी : नहीं ऐसा नहीं है, हमारे परिवार की महिलाएं बहुत आजाद ख़याल
थी और मेरे काम से खुश थी। बाद में मेरी छोटी सिस्टर जो नर्स की ट्रेनिंग कर रही
थी, यस मणि नाम था उनका, उसने भी मेरे साथ कई भूमिकाएँ की। मैं इस
संबंध में इतना ही कहना चाहूंगी कि मुझे लगता है कि मेरे बारे में किसी ने कोई ऐसी
टिप्पणी कभी नहीं की होगी लेकिन अगर किसी ने कुछ कहा भी तो मैंने इस तरफ ध्यान ही
नहीं दिया। मैंने मेरे काम से मतलब रखा और इस तरह की किसी भी आलोचना के प्रति
बेपरवाह रही। मैं जब रिहर्सल के लिए जाती थी, तब भी मैंने मेरी भूमिका पर ही फोकस
किया। मेरे साथ कौन लोग हैं, क्या करते हैं, कईयों के तो नाम तक मुझे मालूम नहीं थे
और शायद इसीलिए मैं इसमें लंबे समय तक काम कर पाई। मैंने जब यह बुटीक(उषा जी अब
कमला मार्केट अलवर में अपना बुटीक चलाती हैं) खोला, तब कोई महिला मार्केट में नहीं
बैठती थी। मैंने पहली बार यहां दुकान की तो आती-जाती कई महिलाएं कह देती थी कि
देखो यह किस तरह से मार्केट में बैठी है लेकिन मैंने इस तरफ कभी भी ध्यान नहीं
दिया। हमे प्रारंभ से ही ऐसी शिक्षा मिली थी कि आप लोगों की परवाह मत करो, आपको
आगे बढ़ना है तो बढ़ते जाइए, आप दूसरों की परवाह करोगे तो कुछ नहीं कर पाओगे।
इसीलिए शुरुआत से ही मेरे विचार ऐसे रहे।
बलदेवा राम : आप अपनी पूरी रंग यात्रा को कैसे याद करती हैं? किसी
बात का मलाल या पीछे लौट कर देखने से कैसा महसूस करती हैं?
उषा जी : ऐसा ज्यादा तो नहीं सोचा... लेकिन एक तमन्ना थी कि इस
क्षेत्र में मैं बहुत आगे जाना चाहती थी लेकिन ऐसा अलवर में संभव नहीं हुआ। ऐसा
नहीं है कि मैंने फिल्मों के बारे में सोचा हो, लेकिन मैं चाहती थी कि थिएटर के
माध्यम से मैं देश-विदेश तक पहुंचती, रंगमंच के आकाश में उड़ना चाहती थी, लेकिन वह
चीज नहीं हो पाई। कुछ तो सामाजिक मर्यादाएँ ही रही। 1980 के
बाद मैंने थिएटर शुरू किया ही था कि मेरी शादी हो गई। मेरे लिए अच्छी बात यह रही
कि मेरे पति को भी थिएटर का शौक था। इसीलिए उन्होंने मुझे पूरा बढ़ावा दिया चाहे
मैं रिहर्सल करूं, नाटक करूं, कभी मुझे नहीं टोका। इसके लिए उनकी जितनी तारीफ की
जाए वह कम है। यहां तक कि जब मेरा रिश्ता तय हुआ तब भी एक नाटक की रिहर्सल चल रही
थी और वह मेरे शो को देखने आए, मुझे बिना बताए और बाद में उन्हीं से मेरी शादी हुई
तब उन्होंने मेरे उस नाटक की बड़ी तारीफ की। लेकिन अलवर में ऐसी संस्थाओं का हमेशा
अभाव रहा जो बाहर तक नाटक करने जाए। इसलिए अलवर के लगभग रंगकर्मी अलवर में ही दब
के रह गए।
बलदेवा राम : क्या रंगमंच से कोई आर्थिक लाभ भी आपको मिला। इस पहलू
को लेकर आपका रंगमंच साथ कैसा रिश्ता रहा?
उषा जी : रंगमंच से कभी ऐसा कुछ नहीं मिला। रिहर्सल के लिए आने जाने
का खर्चा मिलता था और मैंने इसके बारे में कभी सोचा भी नहीं। यह मेरे लिए शौक से
करने वाला काम था ।
बलदेवा राम : अब आप को बीस साल हो गए रंगमंच को छोड़े हुए, क्या कभी
मन नहीं करता कि फिर से लाइट, साउंड, मंच यह सब हो, क्या अब आकर्षण खत्म हो गया
है?
उषा जी : अब तो मैं केवल अखबारों में इसके बारे में पढ़ती हूँ। मैं
थिएटर अब नहीं कर सकती क्योंकि मैं अब अपने बूटीक के काम से बंध गई हूँ। मैंने
जितना काम किया, उस काम से मैं संतुष्ट हूँ। मेरे काम को लेकर कभी भी कोई
नकारात्मक टिप्पणी नहीं हुई।
बलदेवा राम : नाटक की वजह से आपके व्यक्तित्व में क्या सुधार आया?
उषा जी : इसकी वजह से मेरे जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आया, मैं एक
गांव की सीधी-सादी लड़की थी लेकिन मैं हर मंच पर गई, मेरे
जीवन में हर जगह जो आत्मविश्वास दिखाई देता है, वह रंगमंच की ही देन है। मैं अलवर
से बाहर भी बहुत बार गई। मेरे परिवार ने, मेरे पति ने मेरी रंग यात्रा में बहुत
अधिक योगदान दिया है। उनका भरोसा. उनका विश्वास, उनका सहयोग मेरे लिए बहुत
महत्वपूर्ण रहा।
बलदेवा राम : उषा जी! हमारे साथ बातचीत करने के लिए शुक्रिया
उषा जी : धन्यवाद
बलदेवा राम, सहायक आचार्य हिंदी, राजकीय नर्मदा देवी बिहानी,स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नोहर, 9610603460, baldev.maharshi@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
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