शोध आलेख : ‘तीसरी ताली’ और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा‘ में अभिव्यक्त किन्नर समाज का तुलनात्मक अध्ययन -डॉ. सविता शर्मा

‘तीसरी ताली’ और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा‘ में अभिव्यक्त किन्नर समाज का तुलनात्मक अध्ययन

डॉ. सविता शर्मा


शोध सार :

    ‘तीसरी ताली’ उपन्यास में प्रदीप सौरभ ने किन्नरों के जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला है। यह उपन्यास एक समस्या प्रधान तथा किन्नरों के जीवन की विडम्बनाओं को बताने वाला उपन्यास है। तमाम आधुनिकताओं एवं आंदोलनों के बावजूद वस्तुस्थिति यह है कि किन्नर आज भी तिरस्कृत, अप्रिय, अवांछित एवं वर्जित महसूस करते हैं, उन्हें यह अहसास निरंतर दिलाया जाता है कि वह इस समाज में आदरणीय नहीं है। उनके सामाजिक बहिष्करण की झलक का संज्ञान उनकी आत्मक्रूरता, हीन भावना से आत्मग्रसित, आत्मदंडित, विवशतापूर्वक संबंध, ड्रग्स आदि से भरे जीवन से लगाया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार से ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा‘ उपन्यास में लीक से हटकर लेखिका ने समाज के ऐसे अनछुए विषय को चुना है, जिसकी संवेदना तथा यथार्थ व्यंजना की सुध कम ही रचनाकरों ने ली है।  नाला सोपारा में किन्नर समाज की व्यथा का तो वर्णन है ही साथ ही किन्नर शब्द को लेकर जो विवाद है उसकी भी विस्तृत व्याख्या की है।

 

बीज शब्द : एल. जी. बी. टी., किन्नर, व्यंग्यात्मक शैली, यौन शोषण, होमोसेक्सुअल, यथार्थवादी, सामाजिकता

 

मूल आलेख :

 अधूरी देह क्यों मुझको बनाया

बता ईश्वर तुझे ये क्या सुहाया

किसी का प्यार हूँ न वास्ता हूँ

न तो मंजिल हूँ मैं न रास्ता हूँ

अनुभव पूर्णता का न हो पाया

अजब खेल यह रहरह धूप छाया1

 

उपरोक्त पंक्तियाँ किन्नर जीवन की उस पीड़ा को बयाँ करती है जो पीड़ा कहीं न कहीं ‘तीसरी ताली’ और ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपरा’ में अभिव्यक्त होती हुई दिखलाई पड़ती है तीसरी ताली‘ और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ दोनों ही उपन्यास ऐसे विषय पर लिखे गए है, जिस पर कम ही रचनाकारों की नज़र गई है। ‘तीसरी ताली‘ के रचनाकार प्रदीप सौरभ है, जो कि एक पत्रकार भी रहे है, जिस कारण जीवन को करीब से समझने का अवसर उन्हें मिला है, जो कि उनके उपन्यास में भी देखने को मिलता है। ‘तीसरी ताली’ को पढ़कर कोई भी आसानी से समझ सकता है कि यह उनके लम्बे शोध का ही परिणाम है। उपन्यास के विषय की ही तरह उसका शिल्प भी बाकी कथाकारों के शिल्प से उसे अलग करता है। प्रदीप सौरभ की बेबाक भाषा, बिना लाग-लपेट के जैसे को तैसा कह देना, धारदार व्यंग्यात्मक शैली तथा कथा रचने का तरीका ऐसा मानों सब हमारे आस-पास ही घट रहा हो आदि सभी विशेषताएं ‘तीसरी ताली‘ को सफल बनाती है और सबसे खास बात यह कि यह एक ऐसा उपन्यास है जो सम्पूर्ण (एल०जी०बी०टी०) विमर्श को अपने में समेटे हुआ है, उनकी तमाम समस्याओं तथा समाधान के संकेतो के साथ।

 

            तो वहीं दूसरा उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा‘ है, जिसकी लेखिका चित्रा मुद्गल है। चित्रा मुद्गल अपने पहले के उपन्यासों की तरह नए विषय को नये अंदाज के साथ उस नये समाज में प्रस्तुत करती है, जो कि 21वीं सदी का समाज है किंतु विडम्बना यह है कि इस नये समाज में हाशिए के लोगो की समस्या अभी भी वही है पुरानी की पुरानी। लोग नये आए है, पीढ़ियाँ बदली है, किंतु हाशिए की समस्या तथा स्थितियाँ पुरानी और पहले से कहीं अधिक जटिल ही होती गई है। इस हाशिए के समाज में भी सबसे निम्न स्थिति में रहने को विवश एक है- किन्नर समुदाय। इस किन्नर समुदाय को ही विषय बनाती है लेखिका, जो कि तमाम स्थितियों से लड़ता हुआ, अकेले ही संघर्ष करता है अपने परिवार, अपनी बिरादरी और उससे भी ज़्यादा अपने उस समाज से जिसने कभी उसे अपना ही नहीं समझा। विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ बिमली के माध्यम से लेखिका उपन्यास में समाज के ऐसे चेहरे को उजागर करती हैं, जो आधुनिक होने के बावजूद अपनी मानसिकता में रूढ़िवादी ही है। उपन्यास का शिल्प भी ‘तीसरी ताली‘ से भिन्न है। पत्राचार, व्यंग्यात्मक के साथ-साथ प्रश्नात्मक शैली और भावुकता का पुट लिए हाजिर होता है, पाठक के सामने ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा‘। अपनी तमाम विडम्बनाओं के बावजूद इस उपन्यास में अंत तक आते-आते एक आशा की किरण अवश्य दिखती है, इस हाशिए के समाज के लिए। शायद यही लेखिका का उद्देश्य भी है।

 

            ‘तीसरी ताली’ और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा‘’ उपन्यास में किन्नर समाज की व्यथा, पीड़ा, समस्याएँ तथा उनके सम्पूर्ण जीवन को अत्यंत बारीकी के साथ दोनों उपन्यासकारों ने प्रस्तुत किया है। जिस कारण इन उपन्यासों में कई समानताएँ तथा विषमताएँ दोनों ही देखे जा सकते हैं। इन उपन्यासों की तुलना करते समय सबसे पहले समानताओं पर गौर कर लेना आवश्यक है।

 

            ‘तीसरी ताली‘ और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा‘ दोनों ही उपन्यासों में किन्नर समाज की वास्तविक दशा का वर्णन किया गया है। ‘तीसरी ताली’ और पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ दोनों ही उपन्यासों की कथावस्तु महानगर पर केंद्रित है। ‘तीसरी ताली’ में वैसे तो छोटे शहरों का भी वर्णन है, किंतु इन सबका केंद्र बिंदु मुख्य रूप से दिल्ली महानगर के इर्द-गिर्द ही घूमता है, जो कि तमिलनाडु के कुवागम पर जाकर खत्म होता है तो वहीं ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ उपन्यास के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें मुंबई महानगर को केंद्र में रखा गया है। हालांकि इसमें विनोद दिल्ली में रहता है, जो कभी-कभार अन्य शहरों की भी यात्रा करता है किंत बा मुंबई के नाला सोपारा में ही रहती है। प्रश्न यह है कि दोनों उपन्यासों का आधार महानगर ही क्यों रहा है? सम्भवतः इसलिए क्योंकि महानगरों में किन्नर समुदाय की जो स्थिति है, उनकी स्थिति छोटे शहरों में उससे भी ज्यादा निम्न है (इतनी निम्न कि वह (किन्नर) आमजन के साथ वैसे नहीं दिखते जैसे कि महानगरों मे अक्सर दिख जाते है।) महानगरों में इनकी स्थिति, रहन-सहन, आदि चीजें जैसे रहस्य बनी रहती है तो छोटे शहरों में ये पूरे ही रहस्य बने हुए है, जिस कारण इन किन्नर समुदाय के बारे में आसानी से कोई जान नहीं पाता है।  किन्नरों की सामाजिक स्थिति भी अच्छी नहीं है, जो कि दोनों ही उपन्यास में स्पष्ट रूप से दिखती है। इन उपन्यासों के फ्लैप पर ही इनकी सामाजिक स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया गया है।

तीसरी ताली में व्यक्त सामाजिकता- ‘‘यह जीवनशैली की लिंगीयता है जिसमें स्त्री लिंगी-पुलिंगी मुख्य धाराएँ हैं जो इनको दबा देती है। नपुंसकलिंगी कहाँ कैसे जिएँगें? समाज का स्वीकृत हिस्सा कब बनेंगे ? ....उपन्यास ‘तीसरी ताली’ लेखक की जबर्दस्त पर्यवेक्षण-क्षमता का सबूत है। यहाँ वर्जित समाज की फुर्तीली कहानी है, जिसमें इस दुनिया का शब्दकोश जीवित हो उठा है। लेखक की गहरी हमदर्दी इस जिंदगी के अयाचित दु:खों और अकेलेपन की तरफ है। इस दुनिया को पढ़कर ही समझा जा सकता है कि इस दुनिया को बाकी समाज, निर्मम क्रूरता से ‘डील‘ करता है वही क्रूरता इनमें हर स्तर पर ‘इनवर्ट‘ होती रहती है। उनकी जिंदगी का हर पाठ आत्मदंड, आत्मक्रूरता, चिर यातना का पाठ है। यह हिंदी का एक साहसी उपन्यास है जो जेंडर के इस अकेलेपन और जेंडर के अलगाव के बावजूद समाज में सम्मान से जीने की ललक से भरपूर दुनिया का परिचय कराता है।2

 

            यही प्रश्न हमें ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ में भी लेखिका करती हुई दिखती है। इन सभी प्रश्नों के उत्तर की खोज की एक कोशिश भी इन दोनों ही उपन्यासों में है, जो कि इन्हें समान बनाती है। ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ में किन्नर समुदाय के विषय में लिखा है- ‘‘यह उपन्यास विनोद उर्फ बिमली के बहाने हमारे समाज में लम्बे समय से चली आ रही उस मानसिकता का विरोध है, जो मनुष्य को मनुष्य समझने से बचती रही है।... महज शारीरिक कमी के चलते किसी इंसान को असामाजिक बना देने की क्रूर विडम्बना है। अपने ही घर से निकाल दिए गए विनोद की मर्मांतक पीड़ा उसके अपनी बा को लिखे पत्रों में इतनी गहराई से उजागर हुई है कि पाठक खुद यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या शब्द बदल देने भर से अवमानना समाप्त हो सकती है ? गलियों की गाली ‘हिजड़ा‘ को ‘किन्नर‘ कह देने भर से क्या देह के नासूर छिटक सकते हैं। परिवार के बीच से छिटककर नारकीय जीवन जीने को विवश किए जाने वाले ये ‘बीच के लोग’ आखिर मनुष्य क्यों नहीं माने जाते।’’3

           

तीसरी ताली’ और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ दोनों ही उपन्यासों में एक समानता यह भी है कि इसमे किन्नरों की शिक्षा के अभाव की समस्या पर भी ध्यान दिया गया है। शिक्षा का अभाव किन्नरों की आर्थिक तथा सामाजिक दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है। दोनों ही उपन्यासों में यह स्पष्ट रूप में दिखाया गया है कि किस प्रकार किन्नरों को शिक्षा प्राप्त करने मे समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि यह किन्नर स्वयं पढ़ना नहीं चाहते बल्कि समस्या तो यह है कि हमारी शैक्षिक व्यवस्था ही ऐसी बनी है, जिसमें छात्र या शिक्षक से ज्यादा उसके लिंग को महत्त्व दिया जाता है फिर चाहे वह ‘तीसरी ताली’ की निकीता हो या ‘नाला सोपारा’ की विनीता।

 

उपन्यासों में स्पष्ट लिखा है कि जेंडर स्पष्ट न होने के कारण ही हम इनका दाखिला नहीं कर सकते। यही नहीं बल्कि ये किन्नर भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि स्कूल उनके लिए नहीं बनें। ‘तीसरी ताली’ में मंजू स्वयं कहती है - ‘‘हिजड़े के बच्चे को कौन दाखिला देगा स्कूल में?’’4  दोनों ही उपन्यासों मे शैक्षणिक व्यवस्था पर तो प्रश्न उठाया ही है साथ ही कृत्रिम रूप से किन्नर बनाए जाने की व्यथा भी दिखाई है। फिर चाहे वह जबरदस्ती किन्नर बनाया जाए या गरीबी तथा गद्दी के लालच में जानबूझ कर किन्नर बनना हो। ‘तीसरी ताली’ राजा से रानी बनते (जबर्दस्ती किन्नर बनाया गया) तथा गोपालदास और ज्योति (मर्जी से किन्नर बनना स्वीकारा) ऐसे ही पात्र हैं जो कृत्रिम रूप से किन्नर बने। ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ में भी यह समस्या दिखती है। विनोद कहता है - ‘‘खतना कर रहे थे सरदार उस लड़के का जिसे लाकर कोई ठिकाने पर आसरे के लिए पहुँचा गया था और जो खतने की आड़ में हुई ज्यादती के चलते हफ्तेभर बाद मौत के मुंह में जा गिरा।’’5  प्रश्न है कि कृत्रिम किन्नर बनाने की क्या आवश्यकता है? दरअसल किन्नरों की भी एक समस्या है, जो है गद्दी। गद्दी का वारिस बनाना उनकी मजबूरी है जिसके लिए विभिन्न प्रकार की राजनीति भी होती है। सत्ता और गद्दी का लालच अकसर मासूमों की बलि लेता है।

 

            दोनों ही उपन्यासों में किन्नरों के रीति-रिवाज के लिए भी उजागर हुए है, फिर चाहे उनकी शवयात्रा हो, जो शायद ही किसी ने देखी हो, या उनकी कुल देवी मुर्गादेवी। ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ में तो विनोद उर्फ बिन्नी धर्म पर कटाक्ष करते हुए प्रश्न भी करता है कि- ‘‘लिंग-पूजक समाज लिंग विहीनों को कैसे बरदाश्त करेगा?’’6   किन्नरों के धार्मिक विश्वासों के साथ-साथ उपन्यासों में स्वयं किन्नर समाज की कमियों की ओर भी इशारा किया गया है। साथ ही कई ऐसी बातें भी इन दोनों उपन्यासों में है जो शायद ही किसी को पता होगी। इसमें से एक है कि ऐसा आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक किन्नर की केवल किन्नर होने भर से ही नाच-गाने में रूचि हो जाए। ‘तीसरी ताली’ की निकीता तथा ‘नाला सोपारा’ की बिन्नी ऐसी ही पात्र है। अकसर हमारे दिमाग में यह धारणा रहती ही है कि यदि कोई किन्नर है तो वह अवश्य ही नाचता-गाता होगा या होगी, किंतु यह दोनों ही उपन्यास इस बात का खंडन करते है, बिलकुल उस प्रकार ही जैसे यदि कोई स्त्री-पुरूष है तो हो सकता है कि उन्हें नाच-गाने का बहुत अधिक शौक हो। ‘तीसरी ताली’ के एक प्रसंग से यह बात समझी जा सकती है- ‘‘नीलम निकिता को अपनी बेटी की तरह पाल रही थी, पर निकिता अंदर-ही-अंदर छटपटाती रहती। उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखता था। वह सोचती थी कि मैं चाहे जितना पढ़-लिख जाऊँ, बड़ी होकर पेट पालने के लिए नाच-गाना ही करना पड़ेगा। नाचने में निकिता की ज़रा-सी रूचि नहीं थी।’’7

 

            ‘तीसरी ताली’ तथा ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ में कई और ऐसे बिंदु हैं, जहाँ पर इन दोनों ही उपन्यासों मे समानता देखी जा सकती है। ‘तीसरी ताली’ की विनीता तथा ‘नाला सोपारा’ की बिन्नी कहीं-न-कहीं अपने परिवार के प्रति भावनात्मकता तथा प्रेमपूर्ण ही दिखते हैं, वह पूरी तरह उनसे नफरत नहीं कर पाते तो वहीं परिवार का व्यवहार भी कुछ-कुछ उनके समान ही होता है। शायद इसकी एक वजह यह भी है कि प्रदीप सौरभ के ही शब्दों में- ‘‘असल में हिजड़ों को अगर खुशी मिलती है तो किसी से रिश्ता बनाने में। अतीत के उनके सभी रिश्ते टूट जाते है, शायद इसलिए।’’तो वहीं दोनों उपन्यासों में ‘नाला सोपारा’ की बा तथा ‘तीसरी ताली’ की मंजू दोनों की दशा भी लगभग समान ही रहती है। दोनों की सबसे बड़ी पीड़ा थी अधूरे मातृत्व की। मंजू जो अपनी कोख उजड़ने के कारण संतान सुख न प्राप्त कर पाई थी तो वहीं बा जिसकी संतान होते हुए भी वह उससे दूर रहने को विवश थी। यही कारण है कि शायद इन दोनों ही स्त्री पात्रों में अंत में एक चिंगारी दिखती है और यह अपने इस दु:ख का समाधान भी करने की कोशिश करती हैं।

 

            किन्नर समुदाय की बड़ी विडम्बनाओं में से एक है लीलता हुआ अकेलापन। ‘नाला सोपारा’ में बिन्नी उर्फ बिमली के माध्यम से यह समझा जा सकता है। बिन्नी को पहले घर से दूर कर दिया जाता है, फिर पूनम जोशी से भी। तो वही ‘तीसरी ताली’ में विनीता है तो ऊँचाइयों में पहुँचने के बावजूद अकेली ही होती है। वह माता-पिता को भुलाने की कोशिश में जाने क्या-क्या करती है किंतु अंत में वह होती है अकेली। पूरी दुनिया जिसकी प्रशंसक होती है, वह विनीता वास्तव में अकेली होती है- ‘‘सब कुछ के बावजूद वह अकेली थी। वह जितनी ऊपर जाती उतनी अकेली हो जाती। शराब के बिना उसे नींद नहीं आती थी। रात के अँधेरे में उसे अपना पुराना घर दिखता। पुरानी यादों से निकलने की जंग में वह हर बार हार जाती.... ’’9

 

            इन सभी विडम्बनाओं, व्यथाओं तथा क्रूरताओं को झेलते हुए भी दोनो उपन्यासों में ऐसे किन्नर पात्र है तो अंत तक हार नहीं मानते हैं और डटे रहते हैं जिंदगी के संघर्ष के सामने। ‘तीसरी ताली’ के मंजू तथा विजय और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ के विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ बिमली ऐसे ही पात्र है। इन पात्रों के माध्यम से रचनाकारों ने दिखाया है कि इन पात्रों का मानना है कि हम जो बनकर पैदा हुए उस पर तो हमारा बस नहीं था, किंतु हम कैसी जिंदगी व्यतीत करे यह हमारे बस में है। बस अपनी इसी सोच के कारण ये पात्र उन लोगो के लिए मिसाल बनते हैं, जो अकसर अपनी छोटी-छोटी परेशानियों से तंग आकर आत्महत्या का रास्ता अपना लेते है। ‘तीसरी ताली’ में विजय स्पष्ट कहता है- ‘‘दुनिया के दंश से अपने-आपको बचाने के लिए मैंने लगातार लड़ाई लड़ी और खुद को स्थापित किया। मैं नाचना-गाना नहीं, नाम कमाना चाहता था। भगवान राम के उस मिथक को झुठलाना चाहता था, जिसके कारण तीसरी योनि के लोग नाचने-गाने के लिए अभिशप्त हैं परिवार और समाज से बेदखल है।...’’10


           
तो वहीं विनोद भी ‘नाला सोपारा’ का सशक्त पात्र है, जो कि समाज में परिवर्तन चाहता है अपने लिए भी और अपने जैसे हजारों-लाखों उन किन्नर समुदायों के लिए जो उसी की तरह अपने घर से दूर नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। विनोद पढ़ा-लिखा तथा जागरूक व्यक्ति है, जिसकी सबसे बड़ी लड़ाई ही है, किन्नरों को स्त्री-पुरूष की तरह ही इनसान मानने की लड़ाई। वह कहता है - ‘‘तीसरे खाने की जरूरत ही क्या है? आरक्षण देना ही है, सरकार उन्हीं दो खानों के भीतर दे जिन खानो के भीतर जन्म लेने वाले सभी मनुष्यों को मिलता है। उन्हें चुनने की सुविधा दे। जिस खाने को वे स्वयं के लिए चुनना चाहें, जो होना चाहें। स्त्री या पुरूष कन्याभ्रूण हत्या के दोषी माता-पिता अपराधी हैं। उससे कम दण्डनीय अपराध नहीं जननांग दोषी बच्चों का त्याग।’’11

 

            इसके साथ ही उपन्यासों में किन्नरों की यौन समस्याएँ, यौन शोषण तथा किन्नर होने का दंश झेलते रहने का दर्द जैसी कई समस्याओं की ओर रचनाकार पाठक का ध्यान ले जाते है। सबसे बड़ी समानता दोनों उपन्यासों में यह है कि दोनों का अंत भी लगभग समान ही है। ‘तीसरी ताली’ में जहाँ गौतम साहब विनीता को अपना लेते हैं अपने बच्चे के रूप में- ‘‘गौतम साहब विनीता को साड़ी भेंट करके प्रायश्चित करना चाहते थे। शायद वे उससे यह कहना चाहते थे कि तुम विनीत नहीं थे…..तुम्हें विनीत बनाने की मेरी कोशिश झूठी थी। विनीता ने साड़ी का पल्लू अपने सिर पर रखकर पिता को निहारा। पिता ने आँखे बंद कर ली। सूखी आँखों में बची-खुची आँसू की बूँदें भी बह निकली। उस शाम का सूरज विनीता के आँचल में समा जाने को आतुर था।’’12


           
तो वहीं ‘नाला सोपारा’ में बा विनोद के लिए अखबार में एक लम्बा माफीनामा छपवाते हुए उसकी घर वापसी की अपील करती है, बिल्कुल वैसे ही जैसे विनोद चाहता था- ‘‘अपने मँझले बेटे विनोद शाह जिसे हम सभी प्यार से बिन्नी कहकर पुकारते थे, प्रार्थना करती हूँ, वह अपनी बा की इस अक्षम्य भूल को क्षमा कर दे और अपने घर वापस लौट आए।’’13


           
ऐसा लगता है मानो दोनों उपन्यास का अंत बस यही है किंतु विडम्बना यह है कि अंत होते-होते उपन्यास त्रासदीमय हो जाते हैं और जिसकी पाठक को बिल्कुल भी उम्मीद नहीं होती। दरअसल यही वो बिंदु भी है जहाँ उपन्यास और भी यथार्थवादी हो जाते हैं। जहाँ ‘तीसरी ताली’ के अंत में पाठक के मुँह से आह के साथ वाह भी निकलता है तो वहीं ‘नाला सोपारा’ के अंत में एक लम्बा मौन पाठक पर छा जाता है, जो उसे अंदर तक झकझोरने के साथ-साथ सोचने पर भी विवश कर देता है। इस संदर्भ में सपना मांगलिक की कविता ‘हिंजड़े की व्यथा’ को देखा जा सकता है जिसमें किन्नर जीवन की विडम्बना का अंकन दिखाई पड़ता है-

 

“लिंग त्रुटी क्या दोष माँ मेरा, काहे फिर तू रूठी

फेंक दिया दलदल में लाकर ममता तेरी झूठी

मेरे हक, खुशियाँ सब सपने, माँग रहा हूँ कबसे

छीन लिया इंसाका दर्जा, दुआ मांगते मुझसे “14

 

             इसी प्रकार तीसरी ताली’ ओर ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ में समानता के साथ-साथ उनमें कुछ विषमताएँ भी हैं। ‘तीसरी ताली’ और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ उपन्यासों की मौलिकता या विषमता में सबसे प्रमुख विषमता है कि ‘तीसरी ताली’ उपन्यास में सम्पूर्ण एल०जी०बी०टी० वर्ग का वर्णन है, हालाँकि इसमें भी मुख्य केंद्र बिंदु किन्नर समाज ही है, जो कि उपन्यास के शीर्षक से भी स्पष्ट है। किंतु फिर भी ‘तीसरी ताली’ में ‘नाला सोपारा’ से अधिक विविधतापूर्ण संबंध है जैसे -


लेस्बियन                                   -           यास्मीन - जुलेखा

गे                                              -           सुविमल भाई- अनिल- वैभव

किन्नर-किन्नर                             -           विनिता- विजय

होमोसेक्सुअल                            -           अनिल

किन्नर व स्त्री संबंध                      -           मंजु- विजय

किन्नर व पुरूष संबंध                   -           गिरिया

 

            तो वहीं ‘नाला सोपारा’ एक ऐसा उपन्यास है जिसमें केवल किन्नरों की दशा को वर्णित किया गया है। ‘नाला सोपारा’ में नायक विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ बिमली जो कि एक किन्नर है के माध्यम से सम्पूर्ण किन्नर समुदाय का दर्द लेखिका उपन्यास में उजागर करती हैं। ‘तीसरी ताली’ और ‘नाला सोपारा’ में दूसरा अंतर यह है कि ‘तीसरी ताली’ में लेखक ने सम्पूर्ण एल०जी०बी०टी० वर्ग के समाज को यथार्थपूर्ण ढंग से हमारे सामने रख दिया है, जिसमें उसकी तमाम अच्छाई तथा बुराईयाँ दोनों शामिल है, बिल्कुल वैसे ही जैसे ‘मैला आँचल’ में फणीश्वरनाथ रेणु गाँव का या अंचल का वर्णन करते है, उसकी तमाम अच्छाईयो और बुराईयों के साथ। जबकि ‘नाला सोपारा’ में किन्नर स्वयं अपनी पीड़ा को पाठकों के सामने दर्शाता चला जाता है। नाला सोपारा में लेखिका यह दिखाती है कि कोई किन्नर कैसा महसूस करता है जब समाज और परिवार उसे छोड़ देते है अकेले नारकीय जीवन जीने को अपनों से दूर। बिन्नी की व्यथा यही है।

 

            दोनों उपन्यासों में तीसरा अंतर यह है कि ‘तीसरी ताली’ में जहाँ प्रदीप सौरभ ने हाशिए के लोगों का सम्पूर्ण चित्रण तो किया ही है किंतु इस वर्णन में भी सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसका सांस्कृतिक वर्णन है। किन्नरों के चुनरी ओढ़ाने की रस्म, कुवागम का मेला, किन्नरों के एक दिन के सुहागन बनना और फिर मंगलसूत्र तोड़ने की रस्म आदि कई ऐसी बातें उपन्यास में हैं, जो इसे किन्नर समाज पर आधारित सशक्त उपन्यास बनाती हैं। ‘तीसरी ताली’ का यह सांस्कृतिक पक्ष ही है जो उसे नाला सोपारा से अलग करता है। लेखक लिखता है- ‘‘मोहिनी के अवतार में कृष्ण स्त्री रूप में पुरूष थे। तब से यह मान्यता है कि हिजड़े कृष्ण के ही वंशज हैं। हर वर्ष बसंत के बाद चित्रा पूर्णिमा के दिन अर्वाण की याद में यह मेला लगता है। यहाँ के कूठनद्वार मंदिर में अर्वाण के सिर के हिस्से की मूर्ति है। मान्यता यही है कि यह सिर महाभारत काल से यहाँ रखा हुआ है। इसीलिए कृष्णरूपी मोहिनी के रूप में जन्म लेने वाला हर प्राणी उनसे विवाह कर उनकी मृत्यु के बाद विधवा बन जाता है’’15


           
तो वहीं ‘नाला सोपारा’ का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष उसका भावनात्मक संबंध है। ‘नाला सोपारा’ में बा और विनोद के माध्यम से माँ और पुत्र के बीच की भावुकता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उपन्यास में लेखिका दिखाती हैं कि किसी बच्चे को उसकी माँ तथा परिवार से अलग करके ऐसी जगह फेंक देना जहाँ का रहन-सहन, ढंग, तीज-त्योहार, दैनिक नित्य कर्म उसे नहीं पता और यह सब भी उस अपराध के कारण हैं जो उस बच्चे का है ही नहीं। घर जाने, इंसान समझे जाने और सबसे बढ़कर समानता के साथ गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करने की ललक और इसके लिए लगातार लड़ते हुए संघर्ष का वर्णन अत्यंत सराहनीय है। विनोद के कटाक्ष भरे किंतु भावुक प्रश्न उपन्यास की मजबूती है। वह कहता भी हैं - ‘‘तुम सबको छोड़ने का निर्णय मोटा भाई का स्वयं का निर्णय है लेकिन अपने इस दीकरे को तुम लोगों ने स्वयं घर से खदेड़ उन हाथों में सौंप दिया जिन्होंने अपने मानसिक अनुकूलन को ही अपनी नियति मान लिया और हाशिए के उस नरक की शर्तों को अपने जीवन का पर्याय। मन सुलगती-भीगी लकड़ियों-सा धुआंता रहता है बा, क्यों नहीं तोड़ने की कोशिश की उन लोगो ने उन शर्तों को कि नहीं जिएंगे हम उस तरह से, जिस तरह वो जिलाए रखने की साजिश रचे हुए हैं। अपने मनोरंजन और खिलंदडे़पन के रस को जीने के लिए।’’16

 

            ‘तीसरी ताली’ और ‘नाला सोपारा’ में चौथा अंतर यह है कि तीसरी ताली में जहाँ धारा 377 का वर्णन है तो वहीं विभिन्न प्रकार के मिथको का भी। किन्नरों को लेकर वैसे तो कई मिथक है जो समाज में प्रचलित है किंतु भगवान राम की कथा का मिथक अत्यंत रोचक है। तो वहीं ‘नाला सोपारा’ में भविष्य में किन्नरों की दशा सुधरेगी इसकी आशा लेखिका को विज्ञान से है। विनोद बार-बार कहता है कि यदि कोई लिंग दोषी है तो उसका अर्थ यह नहीं कि वह मनुष्य नहीं। विनोद की उम्मीद है कि विज्ञान भविष्य में लिंग दोषियों के लिए वरदान साबित हो सकता है। विनोद लिखता है- ‘‘मेडिकल साइंस के अविश्वसनीय चमत्कार इक्कीसवीं सदी की नियामत हैं। सर्जरी की दुनिया में अंग, प्रत्येगों का प्रत्यारोपण सफलता के नये प्रतिमान रच रहा है। सम्भव है, जननांग दोषी अपने अविकसित लिंग दोष से मुक्ति पा जाएँ। हारमोंस असंतुलन को संतुलित और अनुकूलित करने के उपाय हो रहे हैं। अधिकांश मनोविश्लेषकों की राय है।’’17

 

            यही नहीं बल्कि इन दोनों उपन्यासों में कुछ कमियाँ भी हैं। ‘तीसरी ताली’ की सीमाओं पर विचार करें तो उसकी बड़ी सीमाओं में से एक है कि उपन्यास को लिखते हुए एक बड़े फलक अर्थात् सम्पूर्ण एल०जी०बी०टी० वर्ग को एक साथ साध पाना अत्यंत कठिन है और साथ ही तात्कालिक प्रसंगो की बातें वर्तमान समय में अछूती और अनजानी नहीं रह गयी है। एक कहानी में यह साध लेना बहुत बड़ा कौशल होता है और कहना न होगा कि ‘तीसरी ताली’ में यह कौशल कम दिखा है। इसका कारण यह है कि कथा को रचते समय उपन्यासकार पत्रकारिता वाली भूमिका में अधिक है और कम समय में बहुत कुछ कह लेने के लिए आतुर हैं।  थर्ड जेंडर पर आधारित एक मजबूत उपन्यास होने के बावजूद ‘तीसरी ताली’ पढ़ते हुए एक बहुत बुनियादी मसले पर जरूर ध्यान जाता है कि इस तीसरे जेंडर को अभिव्यक्त करने के लिए हिंदी में भाषाई संरचना का अभाव है। हिंदी के व्याकरण में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग की ही व्यवस्था है जबकि यह विषय नपुंसकलिंग का है, जिस कारण भाषा की भी अपनी सीमा दिखती है, यह कमी केवल ‘तीसरी ताली’ में ही नहीं बल्कि ‘नाला सोपारा’ में भी है और ऐसे ही तमाम कहानियों तथा उपन्यासों में भी जो किन्नर समुदाय को अपना विषय बनाते हैं।

 

            ‘तीसरी ताली’ हाशिए के ऐसे वर्जित समूह के कथा संयोजन में, जिसे कथा में चूल से चूल मिलाना कहते है, विफल है। कई लोगों की कथाओं में आपस में जोड़ने वाले उस बिंदु का अभाव है जो एक-दूसरे को अंतर्गुम्फित कर देते है और कथा एक हो जाती है। विनीता, मंजू, विजय की कथा डिम्पल की कथा से जुड़ती ज़रूर है लेकिन एकमेक नहीं हो पाती। सुविमल भाई की कथा तो सर्वथा अवांतर थी और यास्मीन और जुलेखा की कथा भी। इसी तरह एबीसीडी प्रसंग भी एकदम बाहरी कथा और जबरदस्ती आया-सा लगता है। एबीसीडी प्रसंग में चुनाव वाला ज़िक्र तो भौगोलिक स्तर पर संदेहास्पद किस्म का हो उठता है, क्योंकि जिला पंचायतो के चुनाव उत्तरप्रदेश और बिहार में एक साथ हों और प्रत्याशी एक-दूसरे को इस तरह प्रभावित करें, दूर की कौड़ी लगता है। इसी तरह कथा संयोजन में कुवागम प्रसंग में भी कुछ ऐसे विवरण हैं जो कथा को संदिग्ध बनाते हैं और यह संदिग्धता उसके यथार्थवादी रूप को चोटिल करता है।

 

            तीसरी ताली उपन्यास में साहसी वर्णन तो है लेकिन ऐसे मार्मिक प्रसंगो का अभाव है जो अंतर्मन की गहराई तक जाकर उद्वेलित करते हैं इसलिए इस उपन्यास को पढ़ते हुए कुतूहल और चौंकना तो रहता है किंतु मार्मिकता का अभाव रहता है। विनीता का अपने पिता गौतम साहब से मिलना एक मार्मिक प्रसंग हो सकता था, लेकिन वह फिल्मी किस्म का होकर रह गया है। इसी तरह उपन्यास के अंत में विजय, मंजु और विनीता प्रसंग भी। इस प्रसंग में यह बात तो स्पष्ट हो उठती है कि महज आर्थिक स्वतंत्रता ही इस समूह के लिए लक्ष्य नहीं है बल्कि शारीरिक संतुष्टि और मानसिक सुकून भी जरूरी है और वह इस समुदाय को हासिल नहीं है, क्योंकि अभी ऐसी तकनीक भी नहीं है जो प्रकृति के इस अभाव को पूर्ण कर सके। ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ उपन्यास की भी कई सीमाएँ हैं। कथा के बहुविध विस्तार और बहुआयामिता की इन एक तरफा पत्रों द्वारा समेटने-सहजने में जब-तब इस संकट को देखा जा सकता है। कथा और पात्रों के विकास एवं संवादों वाले यह पत्र पहली दृष्टि में ही वैसे सहज और स्वाभाविक न लगकर, कृत्रिम और आरोपित होने का बोध देने लगते हैं। संबोधन और पारिवारिक प्रसंगो में व्यक्त की जाने वाली सारी चिंता के बावजूद ये पत्र पाठकों का विश्वास अर्जित कर पाने में विफल रहते हैं।


           
विनोद अपनी बात तो आसानी से बा को बता सकता है लेकिन परिवार की बातों और सूचनाओं के लिए उसे प्रायः छल और कौतुक का सहारा लेना पड़ता है। एक पत्र में, सेजल भाभी के आँगन शिशु के लिए वह माँ से संखेड़ा वाले पालने का आग्रह करता है। घर की छोटी-बड़ी घटनाओं और व्यक्तियों के प्रति बिन्नी के आत्मीय लगाव की दृष्टि से इनका महत्त्व असंदिग्ध है, लेकिन रचना के विन्यास में जो एक खास तरह की विश्वसनीयता ज़रूरी होती है, वह इससे क्षतिग्रस्त होती है। बिन्नी के इस पत्र के बीच में ही माँ का पत्र शरू हो जाता है जिसमें बिन्नी के उत्तर के रूप में सांखड़ा वाले प्रसंग में आई दुश्वारियों का जिक्र है। फिर वह अगले रविवार को उसे लेकर सिद्धार्थ के यहाँ अचानक पहुँचकर उन लोगों को चौंकाने की योजना का उल्लेख करती है। जाने पर पालने को खोलने की नौबत भी नहीं आती। सेजल की माँ और मायके के वर्चस्वी उल्लेख से कहीं-न-कहीं माँ की अपनी पीड़ा ही बाहर आती है। लेकिन कहानी का यह विस्तार और बहुआयामिता पत्र में अंटती नहीं।

 

            इसी तरह काफी समय तक माँ का कोई समाचार न मिलने पर अंततः बिन्नी यह अनुमान लगाता है कि सेजल के प्रसव के प्रसंग में वह बलसाड़ हो सकती है। बहुत नाटकीय ढंग से वहाँ का फोन नम्बर लेकर वह वहाँ फोन करता है। फ़ोन सेजल की माँ ही उठाती है। पप्पा के पुराने मित्र किरीट शाह के रूप में वह अपना परिचय देता है। उस अपरिचित व्यक्ति को, जिसे कभी उसने देखा-जाना क्या, नाम तक नहीं सुना है, वह परिवार की अंतरंग बातों और काफी कुछ गोपन प्रसंगों में भी सम्मिलित कर लेती है। इस तरह की असंगतियाँ इस रचना विधान के गलत चुनाव का ही अनिवार्य परिणाम हैं।

 

            उपसंहार के रूप में दिए गए दोनों समाचार, समाचार-1 और समाचार-2 इस रचनात्मक संकट के ही उदाहरण हैं। घर-वापसी के रूप में माँ की वसीयत और मिट्ठी नदी पर बेपहचान मिली किसी किन्नर की लाश वाला समाचार रचना का हिस्सा बनकर ऊपर से चिपकाए बंद जैसे लगते हैं। एक बेहतर, तर्कपूर्ण और सहज स्वीकार्य रचना विधान की तलाश लेखिका की एक सीमा बनकर सामने आती है जो रचना की समूची लय को खंडित करती है। ‘तीसरी ताली’ ओर ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ दोनों ही उपन्यास अपनी विषयवस्तु के अनुरूप ही अप्रतिम हैं। ‘तीसरी ताली’ उपन्यास में लेखक ने हाशिए के भी हाशिए पर रहने वाले लोगों तथा समलैंगिक समाज पर बड़ी ही बारीकी से कलम चलाई है। वर्ष 2014 और 2016 में अंतर्लिंगियों को मिले सांविधानिक अधिकारों ने उन्हें मनुष्य होने की जो खुशी दी है। समाज उसे कितना स्वीकार करेगा यह भविष्य के गर्भ में है। किंतु ‘तीसरी ताली’ के माध्यम से प्रदीप सौरभ ने इन हाशिए के लोगो का जो वर्णन किया है उससे समाज तथा साहित्य में दोनों में इस वर्ग के प्रति जागरूकता अवश्य आई है और यही कारण है कि अब स्वयं किन्नर समाज अपनी आप-बीती लिखकर लोगों को बताने को तत्पर हो सके हैं।


           
इस बात पर विस्मय होना स्वाभाविक है कि मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग को देखकर हमारे मन में प्रायः दया और सहानुभूति के भाव उत्पन्न हो जाते है, लेकिन इसके विपरीत लैंगिक रूप से विकलांग को देखकर दया या सहानुभूति के बजाय उपेक्षा या कौतुक का भाव क्यों जन्म लेने लगता है? यही वह मूल प्रश्न है जो ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ के जरिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बार-बार उठाया गया है और इसकी सघनता उपन्यास का अंत आते-आते विमर्श की माँग करने लगती है। इस बात पर कई पाठकों को आश्चर्य हो सकता है कि एक ऐसे समाज का वर्णन करते समय जहाँ बात-बात पर अपशब्दों, अश्लील हाव-भावों, कटाक्षों का प्रयोग किया जाता है, लेखिका ने भाषा की मर्यादा का ध्यान किस तरह बनाए रखा है। बावजूद इसके यह कहीं से भी कृत्रिम या अप्रभावी नहीं लगती है। नई पीढ़ी के लेखक इससे प्रेरणा ले सकते है, जो विषय की माँग पर किसी भी इद तक अश्लील प्रसंगो, नग्नता और शारीरिक संपर्क के प्रसंगों को बेहद चटपटी भाषा के साथ परोसने को जायज़ बताते है।

 

            अतः यह दोनों ही उपन्यास ‘तीसरी ताली’ और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा’ (ट्रॉसजेंडर) किन्नर समुदाय तथा एल०जी०बी०टी० वर्ग को समझने की एक दृष्टि देते हैं और साथ ही अपने कलेवर में समाज का क्रूर चेहरा भी इनके प्रति उजागर करते हैं तथा साहित्य में इस प्रकार के विषयों को चुनकर लिखने के लिए प्रेरित भी करते हैं क्योंकि तभी इन हाशिए के समूहों की स्थिति में सुधार सम्भव हो पाएगा।

 

संदर्भ :

 

1.    थर्डजेंडर विमर्श, संपादक शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन

2.    तीसरी ताली, प्रदीप सौरभ,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2011,उपन्यास के फ्लैप से

3.    पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा, चित्रा मुद्गल,सामाजिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, उपन्यास के फ्लैप से

4.    तीसरी ताली, प्रदीप सौरभ,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2011पृष्ठ सं० 31

5.    पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा, चित्रा मुद्गल,सामाजिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016पृष्ठ सं० 207

6.      वही पृष्ठ सं० 153

7.    तीसरी ताली, प्रदीप सौरभ,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2011,पृष्ठ सं० 43,44

8.     वही पृष्ठ सं० 43

9.     वही पृष्ठ सं० 117

10.  वही पृष्ठ सं० 195

11. पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा, चित्रा मुद्गल,सामाजिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016 पृष्ठ सं० 178

12. तीसरी ताली, प्रदीप सौरभ,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2011,पृष्ठ सं० 120

13. पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा, चित्रा मुद्गल, सामाजिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016 पृष्ठ सं० 222

14. किन्नर विमर्श: समाज और साहित्य,मिलन विश्नोई,विद्या प्रकाशन, कानपुर 2018, पृष्ठ सं 292 

15. तीसरी ताली, प्रदीप सौरभ,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2011,पृष्ठ सं० 190

16. पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा, चित्रा मुद्गल,सामाजिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016पृष्ठ सं० 94,50

17.  वही पृष्ठ सं० 178

 

डॉ. सविता शर्मा

पीएच. डी. हिंदी, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

savita3590@gmail.com


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

5 टिप्पणियाँ

  1. अपनी माटी मुख्यपृष्ठ शोध आलेख : ‘तीसरी ताली’ और ‘पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा में अभिव्यक्त किन्नर समाज का तुलनात्मक अध्यय किया I किन्नरों के जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया हैI इस संबंध में अपने अध्ययन से बताना चाहता हूँ कि 80-85 % किन्नर by birth (जन्म से) नहीं होते हैं ये बनाये जाते हैंI खासकर के लड़कों अबोध बच्चों को क्योंकि लड़कों कों किन्नर बनाना आसान इन्हें पड़ता है इनलिए ये छोटे बच्चो की चोरी करते हैं I किन्नर 5 लाख 10 लाख मे ही कोई बच्चा किन्नर पैदा होता हैI क्या आपने किसी घर किन्नर बच्चा पैदा होते देखे सुने हैं! मैंने तो न देखा है न सुना है मै लेस्बियन , गे, किन्नर-किन्नर , होमोसेक्सुअल , किन्नर व स्त्री संबंध , किन्नर व पुरूष संबंध की बात नहीं कर रहा हूँI ये अलग विषय वस्तु हैI मै लिंग त्रुटि की बात कर रहा हूँ

    डॉ भी एल गुप्ता





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    1. गंभीर टिप्पणी है आपकी. लेखक को इसका उत्तर देना चाहिए.

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    2. विनोद जी असली और नक़ली किन्नर का द्वन्द तो है ही साथ ही मुझे लगता है कि आप और हम अपने आस- पास इसलिए किसी किन्नर बच्चे के जन्म की खबर नहीं सुनते क्योंकि किन्नर बच्चे का जन्म होना समाज में उतना सामान्य नहीं माना जाता जितना किसी अन्य लिंग के बच्चे का । यह बात तीसरी ताली उपन्यास में लेखक ने बड़ी गंभीरता से दिखायी भी है । एक किन्नर बच्चे के माता - पिता पर कितना दबाव रहता होगा कि कई बार हज़ार मन्नतों से पैदा हुआ बच्चा अगर किन्नर हो तो भी उसके अभिभावक उसे अपने दुलार से वंचित कर किसी किन्नर समुदाय में दे देना ज़्यादा आसान लगता है। यह समस्यां भी पोस्ट बॉक्स न.203 नालासोपरा उपन्यास में देखी जा सकता है। तो ऐसे में हम इतनी आसानी से किसी किन्नर बच्चे के पैदा होने की खबर कहाँ से सुनेंगे। यही नहीं बल्कि ये पूरा किन्नर समुदाय कहाँ रहता है ये बात भी हमें ज़्यादातर नहीं पता रहती है । अतः ऐसी बहुत सी समस्याएँ हैं जिनके लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों में किन्नर विषय पर शोध हो रहें हैं।

      आपकी टिप्पणी के लिए बहुत आभार।

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  2. बहुत ही महत्वपूर्ण लेख।

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  3. सारगर्भित महत्त्वपूर्ण लेख

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