अनुभूति की आँच में पकता अधपका अध्यापक
डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर
व्यक्ति जिस तरह से दुनिया को देखता है वह असल में आभासी हुआ करती है। कई बार तो सच्चाई इतनी दूर होती है कि बाद में जब अवधारणा स्पष्ट होती है तो खुद पर हँसने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता है। हम सभी अपनी दुनिया में जीते हैं। हमारी दुनिया हमारे द्वारा तय किए गए मानकों, तर्क और सोच पर टिकी हुई होती है। बिना ग्राउंड लेवल के यथार्थ को देखे हम ऐसे ऐसे अनचाहे प्रयोग करने लग जाते हैं जो कालांतर में हमारे लिए नासूर बन जाते हैं। मनोहरगढ़ प्रयोगशाला में ऐसे ही अनुभवों से जल्द ही दो-चार होना पड़ा।
विद्यालय में आप कितनी गतिविधियाँ कर रहे हैं, कौन-कौन से नवाचार कर रहे हैं, अकसर इनको कोई विशेष तवज्जो नहीं मिलती है। नवाचारों के प्रति जड़ हो चुके अध्यापकों के उदासीन होने का एक कारण यह भी है। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में ‘विद्यार्थी कितने नंबर लाया है' की कसौटी पर उसकी क्षमता को परखा जाता है। अगर वह इस कसौटी पर खरा उतर गया तो न केवल विद्यार्थी, बल्कि शिक्षक भी अपने आप को धन्य समझता है। शिक्षा विभाग भी ऐसे अध्यापकों को सम्मानित करता है। इसके विपरीत चाहे कोई अध्यापक कितना ही प्रयोगशील और नवाचारी प्रेमी क्यों न हो, अगर वह शत-प्रतिशत परिणाम नहीं दे पाता है तो न केवल हँसी का पात्र बनता है। विभाग से आए प्रेम-पत्र(नोटिस) का जवाब भी देना पड़ता है। अगर लगातार तीन बार सत्तर फीसदी से नीचे परीक्षा परिणाम रहता है तो उसका इंक्रीमेंट भी रोक दिया जाता है। बेहतर परीक्षा परिणाम की लटकती इस तलवार ने न जाने कितने नवाचारी शिक्षकों की खोपड़ी को चीरा होगा और कितने ही विद्यार्थियों की मौलिक प्रतिभा को टुकड़े-टुकड़े किया होगा।
मेरा पहला बोर्ड परीक्षा परिणाम शायद जून 2019 में आया। जी हाँ, यह परीक्षा परिणाम बच्चों का कम और मेरा अधिक माना गया। साहित्य में शत-प्रतिशत परिणाम रहा यह खुशी की बात है, पर अनिवार्य हिंदी में मात्र बासठ फीसदी रहा। इस परीक्षा परिणाम की जिम्मेदारी विद्यार्थियों के घर, परिवार, शिक्षा व्यवस्था और मजबूरियों पर कितनी है यह तो नहीं मालूम पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। लोगों ने हंसी उड़ाई। स्टाफ की एक साथी ने तो ठहाका लगाते हुए यहाँ तक कहा, “डायर साहब ने बच्चों को इतना पढ़ाया, इतना पढ़ाया कि सब कुछ उल्टी के रूप में बाहर निकल गया। इनके तो सर मुंडाते ही ओले पड़े हाहाहा....।” पीएचडी की डिग्री आँखों में चुभने लगी। कारणों की तलाश में चुपचाप फ़्लैशबेक में चलते हैं…
स्कूल में पड़ी मास्टर की कुर्सी पर बैठते ही इस अदपके मास्टर ने अपने आप को सर्वज्ञान संपन्न, त्रिकालदर्शी मान लिया। नाम के आगे डॉ. अलग से लग गया। ‘नया-नया मुसलमान बनने वाला रातों में उठ-उठकर नमाज़ पढ़ता है' लोकोक्ति यहाँ खूब जमी। बंद कमरे में बच्चों को पढ़ाने में इतना मस्त हुआ कि वह यह नहीं जान पाया कि क्या बच्चे ‘ज्ञान’ लेने के लिए तैयार भी हैं? क्या बच्चों की इतनी बौद्धिक क्षमता है जिसके अनुरूप वह पढ़ा रहा है? छह साल शोध से जुड़े कार्य में रहने के कारण अकसर वह विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को पढ़ाता रहा और उन्हें साहित्य की गहराइयों तक ले जाता रहा, पर जहाँ के बारहवीं के बच्चे किताब तक पढ़ना नहीं जानते हैं, उनके सामने शोध, आलोचना, समीक्षा, विश्लेषण, अन्वेषण, संश्लिष्ट, बौद्धिकता, प्रतिरोध, प्रतीक, रहस्यवाद, छायावाद जैसे शब्द एलियन से जान पड़ते। कई बार तो एक पारी में चारों कालांश 11वीं और बाकी के चारों कालांश 12वीं के बच्चों को विश्वभर में चल रहे विमर्श को ध्यान में रखकर साहित्य का पाठ पढ़ाने का प्रयास करता। क्लास का माहौल बंद कमरों में एक तरफा संवाद वाले सेमिनार हॉल जैसा हुआ करता था। शब्द सीधे बच्चों के चेहरों से टकराकर चूर चूर हो जाते। कईयों के भीतर कुछ नहीं जा पाया।
और बच्चे? उनकी
हालत बहुत दयनीय थी। नए मास्टर जी के सामने न तो बोलने की हिम्मत थी और न ही सवाल
करने की। हालांकि क्लास का माहौल पूरा लोकतांत्रिक रहे, इसका पूरा ख्याल रखता था,
पर जिन बच्चों को पहली से बारहवीं तक सवाल पूछने की बजाए रटे-रटाए उत्तर पूछे गए
हों और मशीन की तरह सावधान मुद्रा में खड़े होकर उत्तर देने के लिए बाध्य किया गया हो,
भला वे कैसे बोल सकते। भारी भरकम शब्दों और विमर्शों की खाई में गोते खाते बच्चों
के चेहरे चट्टान के समान सपाट और कठोर दिखते थे। न कोई जिज्ञासा, न कोई प्रश्न और न
कोई दो तरफ़ा संवाद। ऐसी स्थिति में क्लास में उछल-कूद करके मैं सोचता कि बच्चों के
दिमाग में पूरी बात बैठ चुकी है। समय-समय पर टेस्ट द्वारा भी परखने का प्रयास किया,
पर जहाँ किताब पढ़ना भी नहीं आता हो और टेस्ट के दिन अंगुलियों पर गिनने वाले
विद्यार्थी ही उपस्थित हो,
तब उपचारात्मक शिक्षण भी उपचार की ज़रूरत महसूस करता है।
यह तो रही उन विद्यार्थियों की दशा जो क्लास में उपस्थित रहते थे। उन विद्यार्थियों का क्या जो कक्षा में आते ही नहीं थे या फिर लगातार अनियमित रहते? ऐसे विद्यार्थी आधे से अधिक थे और फैल होने वाले सभी विद्यार्थी इन्हीं में से थे। जैसा कि ज्ञात है मनोहरगढ़ आदिवासी अंचल में है। आपको बता दूं कि यहाँ के अधिकांश बच्चे जुलाई-अगस्त महीने में फसल की बुवाई, सितंबर-अक्टूबर में कटाई, दीपावली की छुट्टियों में बड़े शहरों में जाकर बेलदारी का काम करते हैं। फिर नवंबर में बुवाई और मार्च-अप्रैल में फसल की कटाई। कई विद्यार्थियों की ‘पूस की रात’ के हलकू बनकर खेत से ताड़ने में रोजड़े कटती है। लड़कियों की और भी बुरी हालत। खेती किसानी के साथ-साथ अज्ञान के खूटे से बँधी बाल-विवाह की हांकळ लड़कियों को आगे नहीं बढ़ने दे रही हैं। प्राय: नवी-दसवीं कक्षा में विवाह और 11वीं 12वीं कक्षा में माँ बन जाना इस क्षेत्र की भयावह सच्चाई है। देश के अधिकतर हिस्सों में यह सच्चाई कानूनों को दांत दिखा रही है। ऐसे परिवारों की संख्या ज्यादा है जिसमें एक पति के एक से अधिक पत्नियाँ है। नाता प्रथा भी आम बात है। गरीबी, कुपोषण, नशाखोरी और अपराध के चलते कई युवक जवानी में ही दम तोड़ देते हैं। विधवाओं की संख्या बहुत है। इन सभी कारणों का सबसे बुरा प्रभाव बच्चों के भविष्य पर पड़ता है। अगर यह कहे कि इन बच्चों का भविष्य सबसे अधिक ख़तरे में हैं तो गलत नहीं होगा। इस तरह से घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी इनको खपना पड़ता है। अपनी बाल सुलभ मौज को पूरा करने के लिए बंक मारना आम बात है। परंपरागत जाँच से जुड़े गृहकार्य और प्रोजेक्ट कार्य यहाँ मात्र औपचारिकता है। ‘मक्खी पर मक्खी मारने' की कहावत यहाँ पर बिलकुल चरितार्थ है। कई तो यह कार्य भी नहीं कर पाते हैं। बोर्ड परीक्षा की कोई गंभीरता विद्यार्थियों और उनके परिवार में नहीं है। यहाँ तक देखने में आया है कि कई विद्यार्थी फॉर्म भरने के बाद सीधे परीक्षा देने के समय आते हैं। कईयों को तो परीक्षा के दिन शिक्षक अपनी बाइक से घर जाकर लाते हैं और उनको परीक्षा केंद्र तक पहुँचाते हैं। ऐसे क्षेत्रों के जुझारू शिक्षक आज भी इस काम में लगे हुए हैं। चलो फ्लैशबैक से निकलकर फिर से मुख्यकथा पर आ जाते हैं…
क्या यही कारण है या और भी कुछ है? क्योंकि ऐसे कारण तो देश के कई हिस्सों में बिखरे पड़े हैं। आखिर इस क्षेत्र की और कौन सी प्रमुख चुनौतियाँ हो सकती है? बेचैनी की आग से खोपड़ी में पड़े प्रश्न खदबद करने लगे। आँच बढ़ी तो फील्ड सर्वे का उबाल सामने आया। इस बार जुलाई के पहले सप्ताह में ही निकल पड़ा गली देहात में। पहला पड़ाव गोपालपुरा चुना। अत्यंत दुर्गम खाई में उतरने के बाद जब आगे बढ़ा तो रास्ता बंद था, ऐरू नदी में पानी बह रहा था। पूरी बरसात अकसर यह रास्ता से प्रतापगढ़ कटा रहता है। गाँव वाले लंबा चक्कर काटकर शहर पहुँचते हैं। सुनने में आया है कि यहाँ अब एक पुल बन गया है। इसके बाद भी यहाँ के बालक सात किलोमीटर का सफर तय करके मनोहरगढ़ पढ़ने के लिए आते हैंl जी हाँ, 21वीं सदी के भारत में जिला मुख्यालय के ठीक निकट विद्यार्थी सात किलोमीटर आते और सात किलोमीटर जाते समय पहाड़ी रास्तों से पैदल ही सारा रास्ता तय करते हैं जिसमें कई लड़कियाँ भी है। साइकिल चलाना काफी मुश्किल है। यहां के विद्यार्थी भी सन 2019 के परीक्षा परिणाम में विफल हुए थे।
कुछ सोच-विचारकर बाइक को बहते पानी की धारा के बीच उतारकर जब नदी के उस पार पहुँचा तो ख़बर मिली कि विद्यार्थी सुनील खेत पर बुवाई के काम में लगा है। एक बच्चे को पीछे बिठाकर उसके खेत की तरफ़ चल पड़ा। रास्ते में वह मिल गया। मिट्टी में सने हाथ-पैरों को देखकर स्कूल न आने का कारण पूछने की बजाय भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की पंक्तियां सामने नाचने लगी, -
“तुम सभ्य हो क्योंकि तुम्हारे
जबड़े खून से सने हैं,”
“और मैं असभ्य हूँ क्योंकि मेरे पास मिट्टी में सने है?”
नियमित आने की
सलाह दी तो वह बताने लगा “सर उम्र हो गई। अगर कुछ कमाऊँगा नहीं तो छोटे भाइयों की
परवरिश कैसे होगी? उबड़-खाबड़ ज़मीन की खेती से कुछ विशेष होता नहीं है। इसीलिए
मुझे जोधपुर जाना पड़ेगा। शायद इस बार भी मेरा स्कूल में आना नियमित नहीं हो पाएगा।”
यह वाक्य खंजर की तरह सीने में अटक गया। 18 साल का यह बच्चा अपने आप को परिपक्व
बता रहा है और घर की जिम्मेदारी का बोझ भी कंधों पर लेना चाह रहा है। सपनों को दफन
करने के लिए तैयार है। वापस लौटते वक़्त जब नदी की धारा में बाइक उतार रहा था तो
लहरों के बीच अचानक पाश की छवि दिखने लगी। पानी की कल-कल आवाज़ के बीच कानों में उनकी
कविता की लाइनें गूंज रही थी, -
“सबसे खतरनाक होता है
अपने सपनों का मर जाना”
यह तो हुई
विद्यालय से लंबी दूरी पर रहने वाले विद्यार्थियों की बात। ऐसे कई विद्यार्थी थे
जो स्कूल के बिलकुल नज़दीक रहने के बावजूद अनियमित थे। इनमें से एक था दिलीप।
दिलीप के घर पर आधी छुट्टी के दौरान गया तो वह अपने घर की चुनाई का कार्य कर रहा था।
स्कूल नहीं आने का कारण पूछा तो बताया, “गर्मी की छुट्टियों से लेकर अब तक जोधपुर बेलदारी
का काम करता हूँ। पिता नहीं है। बड़ा भाई अलग रहता है। ऐसे में विधवा माँ और बहिन
के गुजर-बसर के लिए हाथ-पैर भी तो मारना पड़ता है सर।”
“जब तुम मनोहरगढ़ आ गए हो तो स्कूल क्यों नहीं आ रहे हो?”
“आप ने इस बार की बरसात का पानी को देखा है सर? तेज बारिश में इस घास-फूस के टापरे में तीन प्राणियों का रहना कैसे संभव है। इसीलिए जो पैसे जोधपुर से बचाकर लाया, उन्हीं से इस घर की दीवारें ईटों की बना रहा हूँ। छत पर चद्दर डाल दूँगा”। “प्रधानमंत्री आवास पास नहीं हुआ क्या?”
“अभी तो नहीं हुआ।
अगर बाद में होगा तो इसी के पास में स्वीकृत करवा लेंगे और इस तरह से दो कमरे और
बन जाएँगे।”
“स्कूल नहीं आओगे?”
“जब इस काम से फुरसत मिल जाएगी, तब भेज देंगे सर।’' इस बार उसकी माँ बोली। वह पास के खेत में सोयाबीन की फ़सल में कळपा दे रही थी। खेलने खाने की उम्र में बच्चे अपने नीड़ का निर्माण कर रहे हैं। कंधे उचकाकर वापस चलने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।
कुछ ऐसी ही स्थिति आमलीखेड़ा रहने वाले चुन्नीलाल की थी। वह 18 साल की उम्र में ही घरवालों से अलग रह रहा था और गुजारा करने के लिए प्रतापगढ़ में रात को चौकीदारी का काम करता है। जब उसके घर पर जो कि खेत में ही बना है, गया तो उसकी माँ और बहिन मिली। मान-मनुहार की तो मैंने ककड़ी खाने की इच्छा जताई। चुन्नीलाल की बहिन झटपट दौड़कर खेत से ककड़ी ले आई। दांतली को पैरों के नीचे दबाकर बड़े सलीके से उसकी चीरे बनाने लगी। खाकरे के पत्ते से बनी काम चलाऊ पत्तल पर चीरे रखकर उसने मेरी तरफ सरकाकर अपनी माँ के पास बैठ गई। उसकी माँ लगातार अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित दिख रही थी। उसका बार-बार आग्रह था कि किसी तरह चुन्नीलाल को समझाकर फिर से साथ में रहने के लिए राजी कर दीजिए जिससे खेती-बाड़ी के काम में वह पिता का हाथ बंटा सके और खुद भी थोड़ा बहुत पढ़ना लिखना सीख जाए। चुन्नीलाल की बहिन भी हमारी ही स्कूल की कक्षा 12 की विद्यार्थी थी, नाम याद नहीं आ रहा है। पर उसकी माँ उसकी बेटी की शिक्षा को लेकर कुछ ज्यादा उत्साह में ही नहीं दिखी। वह कह रही थी, “मारसाहब! छोरियों को कई, याको तो बेगो मांडा करवाई नपरी सासरे भेजणो है। ”हर परिवार के इस आदिकालीन तर्क का जवाब बेचारा अधपका मास्टर क्या देवे? आँवले के पेड़ के नीचे बैठा चुपचाप काकड़ी की चीरे खाता रहा और अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर पर बनी फिल्म का गाना ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो' याद करता रहा।
चुनीलाल के घर से रुखसत हुआ ही था कि रास्ते में निर्मला मिल गई। जबरदस्ती गाड़ी रुकवाकर चाय की मनुहार करने लगी। क्योंकि चाय मैं पीता नहीं, इसलिए जाने लगा, इतने में उसके पड़ोस में रहने वाली कारी भी आ धमकी। पूरे अधिकार के साथ मास्टर की गाड़ी की चाबी निकाल ली। दूसरी तरफ़ निर्मला बदहवास-सी भागी जाकर न जाने कौनसी गली में गुम हो गई और थोड़ी देर बाद उधर से पानी का लोटा लेकर आई। पानी से गला तर करने के बाद उसके घर की ओर कदम बढ़ाए। मिट्टी की दीवार और केलु की टाप से बना सिर्फ एक कमरा था। लेक्चरर की अकड़ को लगभग आधी झुकाकर अंदर घुसा तो निर्मला का छोटा भाई राहुल और उसकी बहन पड़ोसी के मोबाइल को खपरैल के टाँगकर कोई प्रोग्राम देख रहे थे। मुझे आया देखकर हड़बड़ा कर उठे बैठे। पूछने पर पता चला कि इस घर के तीन विद्यार्थी बोर्ड की परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। 8 सदस्यों के इस हड़प्पा संस्कृति के अनुरूप बने एक कमरे वाले घर में सिर्फ एक व्यक्ति कमाने वाला है और वह है निर्मला के पिताजी। प्रतापगढ़ में बेलदारी का काम करते हैं। रोज सुबह टिफिन लेकर के नीमच नाके पर खड़े रहते हैं। नीमच नाके पर सैकड़ों की तादाद में रोज मजदूर खड़े रहते हैं। क्या उनको रोज रोजगार मिल पाता है? इस प्रश्न ने सिरहन पैदा कर दी। कुंवरलाल जी ने बताया कि जब मजदूरी नहीं मिलती तब बीपीएल कार्ड के आए राशन और खेती के एक छोटे से टुकड़े में हुई पैदावार से काम चला लेते हैं। इतने अभावों और घोर कंपटीशन के युग में इन बच्चों की जगह कहाँ है? क्या इन्हें स्कूल आना चाहिए या फिर परिवार की आर्थिक हालात सुधारने के लिए माता-पिता के सहयोगी के रूप में आ जाना चाहिए? अपने अलग एसी कमरों में रहने वाले शहरी बच्चों से यह बालक कभी आगे निकल पाएँगे? इन प्रश्नों का जवाब मेरे पास नहीं था। पास खड़ी निर्मला की माँ घूँघट की आड़ से फुसफुसाई, “कुछ भी हो जाओ मारसाहब! हम हमारे बच्चों को ज़रूर पढ़ाएँगे।” इस जवाब ने कुछ ताकत दी और हाँ इस परिवार से जुड़ी पोस्ट जब फेसबुक और व्हाट्सअप्प पर शेयर की तो खुशी की बात यह है कि कुछ ही दिनों बाद प्रधानमंत्री आवास स्वीकृत हो गया। जहाँ तक मेरा अनुमान है, वह बन भी गया होगा।
चलने लगा तो भागती हुई कारी आई और अपनी सौगंध दिलवाकर हाथ में मूँगफली से भरा बड़ा कटोरदान यह कहते हुए पकड़ा गई कि थैली नहीं है इसलिए इसी में ले जाओ सर। इन आदिवासी परिवारों की सहजता इनका प्रेम है। कारी की कलाकारी ने होटों पर मुसकान खींच दी।
लंबे समय से अनुपस्थित चल रहे एक दूसरे विद्यार्थी जिसका नाम कारूलाल की खोज खबर ली। पता चला कि वह आजकल अपनी खेती बाड़ी में व्यस्त है। जब घर गया तो हकीकत कुछ और पता लगी। उसके पिता लकवे में आ चुके हैं। अकेली माँ पति की तीमारदारी में लगी हुई। चुन्नीलाल दिन में मजदूरी करता है और रात को खेती-बाड़ी। ऐसी परिस्थिति में स्कूल भेजने की बात करने की हिम्मत नहीं हो पाई। उसकी मजदूरी वाली जगह पर जाकर शिक्षा का महत्त्व बताते स्कूल आने के लिए कहा। “उसने कहा यह सब तो ठीक है, सर मैं पढ़ना भी चाहता हूँ, पर घर में दाने कहाँ से आएँगे?”
इन सभी हताशाओं के
बावजूद नेहा, लक्ष्मी, संगीता और मनीषा जैसे कुछ विद्यार्थी है जो तमाम चुनौतियों
को दरकिनार करके पढ़ने में जुटे हुए हैं। यह चारों विद्यार्थी ग्रुप में रहकर
चर्चा करना सीख गए हैं और प्रश्न तो इतने करते हैं कि एक बार तो मास्टर साहब भी
घबरा जाएँ। पर प्रखर प्रतिभा की धनी इन लड़कियों पर भी शादी की तलवार इनके माथे पर
भी लटक रही थी। स्कूल के बाद एक-एक करके अकसर इन तीनों के परिवार वालों से मिलता
रहा और भविष्य की रूपरेखा कैसी रहे, इसे लेकर परिवार वालों को समझाता रहा। इन सब
का प्रभाव यह पड़ा कि इन चारों बच्चियों ने अगले परीक्षा परिणाम में 75% से अधिक
अंक हासिल किए। आप लोगों को यह प्रतिशत थोड़े लग सकते हैं पर इन बच्चियों के लिए
तो संजीवनी के रूप में समझे जा सकते हैं। घर परिवार वालों ने अपनी बच्चियों की इस
उपलब्धि के लिए खूब जश्न मनाया और बच्चियों को विश्वास दिलाया कि जब तक तुम अपने
पैरों पर खड़ी नहीं हो जाओगी तब तक शादी विवाह के मामले से तुमको दूर रखेंगे। आज
इनमें से तीन बच्चियां नर्सिंग कर रही हैं। उम्मीद है इनको देखकर और भी बच्चे आगे
बढ़ेंगे।
इतनी भागदौड़ और ज़मीन से जुड़ी सच्चाई समझने के बाद अध्यापन से जुड़े कई प्रयोग किए। कोरोनाकाल के बीच हुई इनकी परीक्षा का परिणाम आया तो हिंदी में बच्चों ने मेरी लाज रख ली, पर स्कूल का परिणाम मात्र 52% यहाँ। इसका एक कारण अंग्रेजी व्याख्याता का पद पिछले 7 सालों से रिक्त होना भी है। अब तो वहाँ पर साल भर से हिंदी व्याख्याता का पद भी रिक्त है। जिस क्षेत्र के विद्यार्थी और अध्यापक सर को चर, चर को सर, 96 को छन्नु, 78 को अठ्योत्तर बोलते और लिखते हैं, वहाँ बिना भाषा शिक्षकों के ये विद्यार्थी विभिन्न विषयों की किताबें कैसे पढ़कर परीक्षा की तैयारी कर रहे होंगे? और जब उनकी बोर्ड की उत्तर पुस्तिकाएँ प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में जँचने के लिए जाती होगी, तब कॉपी चेक करने वाला क्या इस हकीकत से परिचित होकर नंबर देगा? या क्षेत्रीय भाषा की अनभिज्ञता के चलते खुद के द्वारा तय किए गए मानकों के आधार पर तानाशाही तरीके से नंबर देता रहेगा? मूल्यांकन का आधार बालक का परिवेश, उसकी भाषा, उसकी चुनौतियाँ और सह-शैक्षणिक गतिविधियाँ होनी चाहिए, पर क्या यह संभव हो पाएगा? इन सवालों की आँच में यह अधपका अध्यापक यथार्थ की हांडी में पकने के लिए चढ़ा हुआ है। जब-जब भी उन बच्चों की सूरत सामने आती है, सवालों की आँच और तेज हो जाती है।
लगभग एक वर्ष की अवधि होने को आई है पर मनोहरगढ़ प्रयोगशाला के विद्यार्थियों को लेकर चिंता अभी तक बनी हुई है। कारूलाल, विक्रम, चुन्नीलाल, अनिल, कुशाली, सुनील दो-दो बार फेल हो गए हैं और सुनने में आया है कि ये पढ़ाई छोड़कर दुनिया की भट्टी में झोंक दिए गए हैं। और भी कई विद्यार्थी संसाधनों की जद्दोजहद के बीच पढ़ाई के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। कई विद्यार्थी सुबह उठते ही प्रतापगढ़ के नीमच नाके पर मजदूरी के लिए हाथ में टिफिन लटकाए खड़े मिल जाएंगे। लड़कियाँ इस खुशी में स्कूल जा रही है कि चलो 12वीं कक्षा तक तो आज़ादी की सांस ले लें। आगे का क्या पता? इन सब अनिश्चितता के अलावा प्रतापगढ़ के कई शहरी नागरिकों और शिक्षकों के द्वारा कही गई यह पंक्ति बहुत तकलीफ देती है, -“डायर साहब! इन मीणों के लिए इतनी मेहनत मत करो, अगर ये मीणें पढ़ गए तो हमें सस्ते मजदूर कहाँ से मिलेंगे?”
डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर, प्राध्यापक (हिंदी)
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय
आलमास, ब्लॉक-
मांडल, जिला- भीलवाड़ा, राजस्थान
99878 43273, dayerkgn@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति । यथास्थिति को सुंदर मोतियों में बखूबी पिरोया है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका
हटाएंबहुत खूब और सटीक लिखा आपने , सभी को आदिवासी क्षेत्र की वास्तविकता से अवगत कराया। ये महज एक अभिव्यति नही बल्कि समाज का एक पक्ष का यथार्थ वर्णन है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका।
हटाएंमैंने तो जो देखा वो लिखा। नया कुछ नहीं किया।
डायर जी का अध्यापकी के अनुभव लेख पढ़ा। एक सिहरन सी दौड़ पड़ी आत्मा में। गत अंक का लेख भी ऐसा ही मार्मिक था। राजस्थान के पिछड़े जिलों में पढ़ा रहे कुछ अध्यापकों के इन अनुभवों से जब बाबस्ता होने का मौका मिलता है तो शहरों, कस्बों और सामान्य क्षेत्रो के गाँवो में लगे बड़े बड़े सरकार की सफलता और चमत्कारों से लबरेज होर्डिंग्स देखकर मन मे एक आक्रोश सा उत्पन्न होने लगता है। झूठ की एक दुनिया हमारे आस पास गढ़ी जा रही है। प्रतापगढ़ के आदिवासी इलाके की शिक्षा व्यवस्था के किस्से गोपाल से सुनकर अक्सर मन खट्टा हो जाता है। पर जब वो उन आदिवासी बच्चो की प्रतिभाओं का जिक्र करता है तो मन आश्वस्त हो जाता है की इन्ही में से कोई कलाम निकलने वाला है। बच्चे मासूम होते है। मैं स्वयं एक उचित माहौल में पढ़ा लिखा इसलिए ये सब मेरे लिए किसी दूसरे देश की कहानी सा लगता है। तो सोचता हूँ की वर्तमान में और न जाने कितने मेरे जैसे ऐसे बच्चे है जो उचित शैक्षिक परिवेश और संसाधनों की उपलब्धता की वजह से ये भी नही जानते की हमारे समाज के एक हिस्से में बच्चो के लिए शिक्षा प्राप्त करना एक संघर्ष से कम नही। ये कहानियां पढ़ाई जानी चाहिए। शिक्षित, सम्पन्न, निजी संस्थानों में अध्ययनरत विद्यार्थियों को सुनाई जानी चाहिए। शहरों में, कस्बों में माध्यमिक उच्च माध्यमिक स्तर और कॉलेजो में अध्ययनरत विद्यार्थियों को वर्तमान में सोशल मीडिया ने एक अलग देश, अलग समाज के दर्शन करवा दिए है। प्रस्तावना में उल्लेखित समानता, धर्मनिरपेक्षता, व्यक्ति की गरिमा, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक न्याय जैसे शब्द अब केवल वे शब्दावली मात्र है जिनका प्रश्नों के उत्तरों में समावेश करते हुए अधिक से अधिक नम्बर पाए जाए सकते है, महफ़िल में ये शब्दावली तालियाँ बटोरने का साधन मात्र बन कर रह गई है। लेकिन उन शब्दों के गहरे मायनो से अब कोई वास्ता न रह गया है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर
हटाएंशुक्रिया सर
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