हिन्दी कविता का दलित सौन्दर्य-बोध
डॉ. चंद्रकांत सिंह
बीज
शब्द : मुख्य धारा, अस्मिता-बोध, सौन्दर्य-बोध, कलावाद, ब्राह्मणवाद,
अनुभूत सत्य
मूल आलेख : दलित साहित्य में आक्रोश की भाषा को देखकर कई बार लोग सोचते हैं कि नाहक दलित साहित्य आक्रोशित होता है या कह लें कि आग उगलता है । जबकि मूल में जाकर देखें तो पता लगेगा कि दलित साहित्य यूँ ही नहीं तनावयुक्त है । सदियों से जिस अपमान की आग में दलित जला है और जिस विभेद की साजिशों का भुक्तभोगी रहा है वह दलित साहित्य को एक निर्दिष्ट विचार की ओर प्रेरित करता है । दलित साहित्य सदियों से चली आ रही शोषण की विचारधारा को समाप्त करता है ताकि प्रेम पर आधारित समाज की सर्जना की जा सके । यह अकारण नहीं है कि दलित साहित्य तथाकथित हिन्दू धर्म पर प्रहार करता है| बहुत सोच-विचार कर दलित साहित्य ने हिन्दू धर्म से ख़ुद को बाहर रखा है । दलित लेखकों ने ख़ुद को हिन्दू कहे जाने पर आपत्ति भी जाहिर की है । देखने योग्य है कंवल भारती का कथन जिसमें वे साफ तौर पर दलितों को हिन्दू धर्म से बाहर मानते हैं । वे कहते हैं कि – “यह सार्वभौमिक सत्य है कि भारत के किसी कोने में रहने वाला दलित हिन्दू नहीं है, भले ही वह हिन्दू व्यवस्था में रहा हो । वह आज भी सत्ता से वंचित है, धन से वंचित है, सम्पत्ति से वंचित है, शस्त्र से वंचित है, शिक्षा से वंचित है और सामाजिक सम्मान से वंचित एक पृथक राष्ट्र के रूप में इस देश में रह रहा है । उसका इतिहास नष्ट कर दिया गया, उसके देवता नष्ट कर दिये गये, उसका धर्म नष्ट कर दिया गया, उसकी संस्कृति नष्ट कर दी गयी, वे तमाम प्रतीक ख़त्म कर दिये, जो उसकी पृथक पहचान स्थापित कर सकते थे।”(1)
दलितों को जिस तरह से हिन्दू धर्म में प्रताड़ना झेलनी पड़ी है वह
किसी से छुपी हुई नहीं है यही वजह है कि हिन्दू धर्म में अपने अधिकारों से वंचित
दलित समुदाय ने स्वयं को हिन्दू धर्म से
बाहर माना ।असमानता एवं जातिवाद पर टिकी विचारधारा कभी भी बेहतर समाज का निर्माण
नहीं करती वरन हमेशा घृणा के बीज ही बोती है । दलित समाज ने मुख्यधारा के समाज या
कह लें कि हिन्दू समाज से ख़ुद को बाहर रखकर समानता और प्रेम पर आधारित भावधारा पर
ज़ोर दिया । दलित साहित्य ने बौद्ध धर्म की करुणा से प्रेरणा ग्रहण कर समग्र मानवता
को प्रेम का संदेश दिया । दलित साहित्य ने समता, स्वतन्त्रता और भाईचारे की भावना को आत्मसात किया । दलित
सौन्दर्य-बोध अनगढ़ है जो बाहर देखने पर कठोर प्रतीत होता है जबकि भीतर से वह उतना
ही कोमल और उदार है । दलित साहित्य के सौन्दर्य पर विचार करते हुए मोहनदास
नैमिशराय कहते हैं कि- दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र का रूप विधायन, उसका सीमांकन व आकलन सामान्य
सौन्दर्य दृष्टि से संभव नहीं है| दलित साहित्य परम्परागत
कलात्मकता से इतर अनगढ़ व अटपटे शब्दों में सामाजिक अन्याय के विरुद्ध आक्रोश,
सामाजिक परिवर्तन के लिए
आवाहन और उत्पीड़न व शोषण के विरुद्ध विद्रोह का साहित्य है|
दलित साहित्य का सौन्दर्य वहीं निखरता है, जहाँ सदियों का संताप- जिसे दलितों ने सहा है,
यथार्थ में अभिव्यक्ति पाता
है| दलित साहित्य के सौन्दर्य में काल्पनिक रंगीनियाँ नहीं,
अपितु घटनाओं का खुरदुरापन
अपने यथार्थ रूप में प्रस्फुटित होता है|(2)
इस सौन्दर्य-बोध की ख़ासियत यह रही कि इसने अमानवीय एवं
गैर-बराबरी पर आधारित हिन्दू धर्म की सनातनी विचारधारा का खण्डन किया । बने बनाये
हिन्दू आदर्शों पर टिके ब्राह्मणवादी सोच को धता बताकर मनुष्यता की भाषा का रचाव
किया । यह दलित साहित्य की मानवीय आस्था एवं हकबन्दी पर आधारित भावबोध ही है जो
नये सौन्दर्य-बोध की बात करता है । कारण साफ है कि पुराना सौन्दर्य-बोध शोषण पर
टिका हुआ है, कला की आड़ में
विलासिता को पोषित करने वाला है । उसमें देह का सौन्दर्य है, नायिका का सौन्दर्य है । यही वजह है कि दलित साहित्य को मुख्यधारा के
साहित्य की चिन्तायें बनावटी लगती हैं यथार्थ से दूर लगती हैं । प्रख्यात दलित
साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि कविता के उद्देश्य पर विचार करते हुए कहते हैं कि-
कविता मेरे लिए आनंद, रस, मनोरंजन के लिए नहीं है| न
ही कविता का ऐसा उद्देश्य रहा होगा| कविता हमें मनुष्यता के
निकट ले जाने का काम करती है| उम्मीदों के साथ, जीवन में बदलाव की आकांक्षा
उत्पन्न करती है| इसीलिए कविता में संवेदनात्मक अनुभूतियों
की अभिव्यक्ति ज्यादा गहरी होती है|(3)
दलित साहित्य यथार्थ से भागता नहीं है बल्कि उसे बदलने की आकुलता
लिये हुए है उसकी बुनियादी चेतना मुट्ठी
भर लोगों के स्वार्थ पर टिकी हुई नहीं है बल्कि सामूहिक सहकारिता का स्पष्ट उदाहरण
है । ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ नामक पुस्तक में शरण कुमार लिंबाले कहते
हैं कि –“हमारे यहाँ कुछ प्रगतिशील लेखकों ने दलित लेखन किया है जिसमें सहानुभूति एवं दया का भाव
है । कलावादियों ने मध्यवर्गीय या दलित समाज का भड़कीला वर्णन ही किया है ।
प्रगतिशील लेखकों द्वारा दलित समाज का ठीक-ठाक व सकारात्मक चित्रण न करने के कारण दलित
लेखक उनके लेखन से अपनी सहमति प्रकट नहीं करता । दलित लेखक भोगा हुआ यथार्थ लिखता
है । भोगा हुआ यथार्थ, उनकी
भाषा और सामाजिक संदर्भ में उसका व्यक्त होना ही दलित-लेखन में महत्वपूर्ण है ।
उसका इस तरह का लेखन ही उसे ग़ैर-दलित लेखकों से अलग करता है ।”(4)
इस तरह दलित कविता भोगे हुए यथार्थ की
कविता है, यह
स्वानुभूत सत्य ही उसका वास्तविक सौन्दर्य है जो उसे मुख्यधारा की कविता से विलग
करता है| कवयित्री रजनी अनुरागी की ‘हमारी कविता’ नामक कविता
स्त्रियों के उस सृजनशील यथार्थ को दिखाती है जिसमें जीवन को जीते हुए स्त्री
रचनाकार कविता रचती है| दलित स्त्री रचनाकारों का विषम जीवन
ही उनके लिए पाथेय है जो सतत उनका मार्ग प्रशस्त करता है|
रजनी अनुरागी यथार्थ का चित्रण करते हुए कहती हैं –
तुम कल्पना पर होकर सवार
लिखते हो कविता
और हमारी कविता
रोटी बनाते समय जल जाती है अक्सर
कपड़े धोते हुए
पानी में बह जाती कितनी ही बार
झाड़ू लगाते हुए
साफ हो जाती है मन से
पौंछा लगाते हुए
गंदले पानी में निचुड़ जाती है (5)
दलित स्त्री रचनाकार नरेश कुमारी अपनी कविता ‘दोहरा अभिशाप’ में
दलित स्त्री के दोहरे शोषण को दर्शाती हैं| दलित स्त्री दलित होने के कारण और स्त्री होने के कारण दोहरा दंश भोगती
है| कावेरी जी ने प्रस्तुत कविता के माध्यम से दलित स्त्री
के जीवन को परत-दर-परत उघाड़कर खोलने की कोशिश की है जिसे उक्त कविता में देखा जा
सकता है –
दलित महिला
झेलती है / दोहरा अभिशाप
औरत होने का अभिशाप
दलित होने का अभिशाप
घर में
औरत होती है
वह होती है कोल्हू के बैल-सी
जूठा बरतन
बासी अखबार
पुरानी
अधघिसी जूती-सी
चूल्हे में जलती-सुलगती लकड़ी-सी (6)
दलित स्त्री रचनाकारों की कविताओं में आशा की स्वर्णिम किरणें भी
भासित होती हैं| हर प्रकार की
बाधाओं को पराभूत करके जीवन-पथ पर आगे बढ़ने का विश्वास भी इनकी कविताओं में दिखता
है| कवयित्री कावेरी की कविता ‘खाईयाँ’ इस बात का प्रमाण है
कि दलित स्त्रियाँ परिवार, जाति एवं समाज के अंकुशों को छिन्नतार करती
हुईसतत बढ़ रही हैं| उनकी कविताओं का लोक अत्यंत विस्तीर्ण है
जिसका सौन्दर्य-बोध नूतन है –
जिंदगी की खाईयाँ
ढेर सारी
आती रही सामने
परिवार, जाति, समाज
और धर्म की खाईयाँ
राष्ट्र, अन्तर्राष्ट्र बांटती अस्मिता को
जब-जब पग बढ़ा
सामने आई खाईयाँ
पर विश्वास को साथ लिए
दौड़ रही मैं
प्यार के भरोसे से
पाट दूँगी खाईयाँ (7)
डॉ. भीमराव अम्बेडकर जिन्होंने हमेशा शोषितों के लिए काम किया, उन्हें अँधेरे से बाहर लाने का काम किया| उनके
दर्शन की गहरी अनुगूँज हिन्दी की दलित कविता पर आसानी से देखी जा सकती है| कवि
सूरज पाल चौहान ने डॉ. अम्बेडकर को नव निर्माता कहा है| वे
अम्बेडकर के दर्शन को जागरण के दर्शन के तौर पर देखते हैं जिसे दलित समाज न केवल
बाहरी तौर पर देखता है बल्कि सांस्कृतिक तौर पर अपना अहम हिस्सा मानता है –
मानवता के प्रतीक
तुमने
इस भारतभूमि पर आकर
भूखे, नंगे
और शोषितों को जगाया|
तुमने ही –
उनके बंद हृदय में
जलाया ज्ञान का दीप
बनकर साहेब
दलित जनों के
उन्हें नई राह दिखाई|
देश
के नव-निर्माता
बाबा
साहेब अम्बेडकर
तुम्हें
–
शत-शत
नमन !
शत-शत
नमन !!(8)
दलित हिन्दी कविता को जीवन मूल्य के तौर पर देखने की आवश्यकता है| इस कविता के कई रूप हैं, इस कविता में कला को केवल कला के तौर पर देखने
की पिपासा भर नहीं है| इस कविता में शब्दों से परे जाकर
प्रतिरोध करने का भाव भी है| इस कविता में अमानवीय शिविरों
को उखाड़ फेंकने का दुस्साहस भी है जो इसे
शब्द रूप देता है| आज के साहित्यिक हलकों में कई बार दलित
कविता को एक सिरे से आलोचक खारिज़ कर देते हैं या खारिज़ करने का तल्ख तर्क देते हैं
क्योंकि कई बार उन्हें लगता है कि इस कविता में साहित्यिक विवेक या कौतुक की कमी
है| जबकि मूलतः दलित कविता अनुभव की जमीन से पकी हुई कविता
है| यह सतही तौर पर विकसित कविता नहीं है जिसमें शब्दों का
दोमुंहापन हो बल्कि यह अनुभव की जमीन एवं
यथार्थ के धरातल पर विकसित कविता है जिसमें प्रामाणिकता अधिक है| यह उन लोगों की जुबान है जिन्होंने बेतहाशा दुःख भोगे जिनकी पीड़ा का
इतिहास कहीं अधिक लंबा है| दलित कवि अपने भोगे हुए सच को
कविता में उतारता है उसके लिए दलित चेतना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, इसी के सहारे वह कविता को जाँचता –परखता है और उसे शाब्दिक अभिव्यक्ति
देने का काम करता है| मुख्यधारा के जो कवि दलित कविता पर
तीखा आरोप लगाते हैं या उसे खारिज़ करने की कोशिश करते हैं, दलित कवि उनसे अपनी असहमति व्यक्त करते हैं यही
नहीं परंपरागत सौन्दर्य -बोध से स्वयं के
सौन्दर्य- बोध को अलग भी करते हैं | उनका साफ मानना है कि
पुराने सौन्दर्य-बोध के सहारे आज के सौन्दर्य-बोध को नहीं देखा जा सकता| पुराना अनुभव बासा है, पुराना है उसमें प्रमाणिकता की कमी है जबकि दलित कवि का अनुभव पुराना नहीं
है, बल्कि अपने समय के सच को चित्रित करने वाला है| दलित कवि अपनी पीड़ा को कविता का विषय बनाते हैं, वे
नक़ल पर जोर नहीं देते बल्कि यथार्थ की सही समझ पर बल देते हैं|
समकालीन हिन्दी कविता का दलित-बोध सातवें दशक के बाद देखने को
मिलता है| ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता व्यापक असहमति और
तीव्र बेधकता लिए नए सौन्दर्य-बोध की माँग करती है| दलित
कविता की चिंता मानवता को बचाने की है| जो लोग मानवता को
बचाने की झूठी बात करते हैं और अकसर अपने कृत्य में कहीं अधिक अमानवीय दिखते हैं
उनके लिए मुश्किल है दलित कविता का पाठ कर पाना| उनकी दृष्टि
हमेशा कलावादी मानदंडों के बीच घूमती हुई नज़र आयेगी जबकि दलित कविता कलावादी
मानदंडों की बजाय मानवतावादी चेतना को अंगीकार करती है| उसे
देखने के लिए मानवता की आँख चाहिए तभी उसका न्याय संगत अध्ययन एवं मूल्यांकन हो
सकेगा|
आज बहुत सारे लोग घर-बार से वंचित हैं, आसरे से वंचित हैं| उनके
पास रहने तक को जमीन नहीं है, खाने तक को अनाज नहीं है| ये जो सच्चे-सरल लोग हर कहीं भीड़ के रूप में दिख जाते हैं वही हिन्दी दलित कविता के प्रस्तावक
हैं, मुख्यधारा से या कह लें संभ्रांत कुल से आने वाले लोग
इस कविता का निर्माण नहीं करते हैं| यही वजह है कि दलित
कविता में अनगढ़ता है या कह लें कि कई स्तरीयता है जिसे पूरेपन के साथ देखने की
आवश्यकता है अन्यथा जो भी मूल्यांकन होगा वह इकहरा होगा और कृत्रिम होगा| वंचितों की दुनिया का पूरा भूगोल दलित कविता में देखा जा सकता है| यहाँ चिलचिलाती धूप है और संघर्षों की फेहरिश्त है जिसका आकलन करना भी
दूभर है| दलित कवि अपने गाँव को शब्दांकित करते हुए कहता है -
मेरा गाँव, कैसा गाँव ?
न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव !
कच्ची मढैया, टूटी खटिया
घूरे से सटकर
बिना फूँस का मेरा छप्पर
मेरे घर न पेड़ की छाँव|
मेरा गाँव, कैसा गाँव ?
न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव ! (9)
दलितों का इतिहास देखने के बाद पता
लगता है कि यातनाओं का जगत तात्कालिक भर नहीं है| ऐसा नहीं है कि दलित आज सुविधाओं से महरूम किए जा रहे हैं और
पहले उनके पास कहीं अधिक संसाधन थे| सच तो यह हैकि सदा ही उन्हें समाज से बहिष्कृत किया गया| उनकी यातना के वर्ष कई हजार हैं
जिनका क्रमिक रूप देखने के बाद आक्रोश की वैतरणी बहने लगती है| लगता है कि कैसे दुःख के जंगल में वे भटकते रहे हैं और कहीं भी सुख
की झलक तक न मिली| वर्चस्वशील तबके ने हमेशा निर्दयता से इन वंचितों का शोषण किया, जिसकी अमानवीय झलक आज भी कई राज्यों में देखी जा
सकती है| जहाँ दलित काटे जा रहे
हैं और अपने ही जमीन से बाहर किए जा रहे हैं| यातनागृहों में कैद दलित आत्माओं की चुप्पी को दलित कविता पकड़ती
है| उसके लिए आरामगाहों का चित्र महत्वपूर्ण
नहीं है बल्कि निर्दोष अतीत की जीवन्तता की झलक है –
निर्दयता से मारे गये लोगों की चुप्पी
खामोश कंदराओं में
अतीत की पर्तों के नीचे
जाग रही है
सरसराती हवा ने नहीं उठाया कोई पत्थर कभी
प्रतिशोध में
गूँजती हँसी के खिलाफ़ (10)
मलखान सिंह की कविता ’एक पूरी उम्र’ ब्राह्मणवादी शोषण को बयां
करती है जिसमें एक दलित की पीड़ा के स्वर को देखा जा सकता है । यह कविता दलित
व्यक्ति के बंधन को दिखाती है कि कैसे वह बंधा हुआ है और समाज में उसने
हँसने-बोलने तक की मनाही है । यहाँ तक कि खुलकर खाँसने पर उसे बाँधकर पीटा जा सकता
है । ऐसे में दलित व्यक्ति लगातार अभिशप्त है,
उसे तनिक भी आजादी नहीं कि वह मन के अनुरूप कार्य कर सके । यह कविता
शोषण की कलई खोलकर रखती है और वर्चस्वशील जातियों के मुखौटे को बे-नकाब करती है -
कि बस अभी
बुलावा आयेगा
खुलकर खाँसने के –
अपराध में प्रधान
मुश्क बांध मारेगा
लदवायेगा डकैती में
सीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ायेगा ।(11)
मुकेश मानस
‘मनुवादी : एक’ नामक कविता में ब्राहमणवादी व्यवस्था पर व्यंग्य करते हैं जहाँ
व्यक्ति को उसके कार्य से नहीं अपितु उसकी जाति से परिलक्षित किया जाता है| उपर्युक्त कविता में कवि ने मनुवादी व्यवस्था की
कुटिलता को आड़े हाथों लिया है| कवि लिखते हैं –
उसने मेरा नाम नहीं पूछा
मेरा काम नहीं पूछा
पूछी एक बात
क्या है मेरी जात
मैंने कहा- इंसान
उसके चेहरे पर उभर आई
एक कुटिल मुस्कान
उसने तेजी से किया अट्टहास
उस अट्टहास में था
मेरे उपहास का
एक लंबा इतिहास (12)
जयप्रकाश कर्दम की ’हलचल’ कविता दलितों की मूल संवेदना को
दर्शाती है । इस कविता में दलित मुक्ति के बीज छिपे हुए हैं । यह कविता दासता के
पूर्वनिर्धारित पूर्वाग्रहों को तोड़ती है । इस कविता में दलितों द्वारा अपने राग
की रक्षा का भाव है, अपने
हस्ताक्षर पहचानने की विवेकशक्ति यहाँ दिखती है । हर तरह के झूठे विचारों से परे
अपनी मूल रागात्मिक अनुभूतियों की पड़ताल यहाँ देखने को मिलती है । हम कह सकते हैं
कि इस कविता में दलित सौन्दर्य-बोध की आत्मचेतना का प्रसार दिखता है । जहाँ बनावटी
और छिछले मूल्य नहीं हैं वरन नये विचारों को जन्म देने का गर्वबोध है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती । अब दलित अपने मूल स्वर को पहचानने लगा है,
अब वह किसी पर निर्भर नहीं रहेगा । किसी की नकल या अन्धानुसरण नहीं
करेगा बल्कि अपने गीतों को गायेगा, अपनी भाषा का प्रसार
करेगा जिससे कि उसके समाज एवं उसके सरोकारों की रक्षा की जा सके -
थक गये हैं
तुम्हारे मनोरंजन के लिए नाचते-थिरकते
मेरे पैर
नहीं निकलते अब मेरे ओठों से
तुम्हारी खुशी के गीत
इन्कार करने लगा है मेरा गला
अलापने से तुम्हारे राम
थिरकना चाहते हैं मेरे पैर
अब अपनी ही धुनों पर
गाना चाहते हैं मेरे ओठ
नए गीत
अलापना चाहता है मेरा गला
नए राम
ताकि पैदा हो एक शोर
टूटे जड़ता, सन्नाटा
और हलचल हो उनमें भी
जो रहते आये हैं मूक । (13)
समकालीन दलित कविताओं के विषय में समग्रता पूर्वक कहा जा सकता है
कि -“आधुनिक दलित कविताओं के स्वर और उनकी संवेदनाएँ इतनी मारक, सीधी और आम जीवन के निकट हैं किउनकी अर्थ
व्यंजना में सामान्य से सामान्य पाठक को भी कोई कठिनाई नहीं होती| इनके विषय दलित जीवन की त्रासदी, छुआछूत, दलिबोध, अपमान, जाति और वर्ण
की विसंगतियां, दलितों का गाँवों से शहर की ओरपलायन, धर्मान्तरण, भूख, गरीबी,
उदासी, पीड़ा, आक्रोश,
समाज-व्यवस्था और परिवर्तन आदि की अभिव्यंजना है|”(14)
हिन्दी का जो दलित साहित्यकार है वह केवल आक्रोश एवं प्रतिकार की
भाषा ही नहीं जानता बल्कि उसे अपने समय के महत्वपूर्ण मुद्दों की सही समझ है| उसे यूँ
ही नहीं खारिज किया जा सकता| दलित कविता के सरोकार
छिछले एवं आत्मकेंद्रित नहीं हैं| दलित कवि केवल मनुष्य तक
सीमित नहीं है बल्कि उसकी सोच वृहद है जिसमें पशु-पक्षी से लेकर वनस्पतियों तक को
बचाने का भाव है| यही नहीं दलित कविता की भाषा में अमूर्तता
और वायवीयता नहीं है बल्कि एक ठोस भावना है जो उन्हें गति देने का काम करती है| दलित कविता ‘कला कला के लिए’ सिद्धांत पर कार्य नहीं करती है बल्कि एक
विस्तृत सोच के साथ समाज में बदलाव चाहती है| दलित कवि केवल
कविताई नहीं करना चाहते अपितु अपनी कविता के द्वारा एक स्वस्थ समाज का निर्माण भी
चाहते हैं| इसलिए सामाजिक स्तर पर इस कविता का फ़लक अत्यंत
विराट है| दलित कवयित्री सुशीला टाकभौरें दलित कविता के
सरोकारों पर बात करते हुए स्पष्ट कहती हैं कि – दलित कविता की भाषा को अपनी परख की
तराजू में तौलने वाले पहले दलित साहित्य के उद्देश्य को भी समझ लें| दलित काव्य का उद्देश्य केवल कविता करना नहीं है, बल्कि कविता के माध्यम से सामाजिक क्रान्ति के
परिवर्तनकारी कार्य में सहयोग देना है|यह सामाजिक क्रान्ति
का एक हिस्सा है|(15)
दलित कविता की भाषा अनुभव की भाषा है जो चुराई हुई या आरोपित नहीं
है, इस भाषा में कई स्तर हैं जिन्हें आसानी से देखा
जा सकता है| हिन्दी की दलित कविता की भाषा न तो सांकेतिक है
और न ही इसके भाव अमूर्त । इसमें एक ख़ास प्रकार की सामाजिकता है जो पाठक अथवा
श्रोता को दलित समाज के यथार्थ से गहरी मार्मिक संवेदना के साथ प्रभावित करती है ।
दूसरी बात, कविता में अभिव्यक्त सामाजिक यथार्थ, वैयक्तिक बनकर नहीं बल्कि दलित समाज का यथार्थ बनकर उपस्थित हुआ है ।
इसलिए दलित कविता की बनावट, उसका स्वरूप, अभिव्यक्ति की उदात्तता, कलात्मक संरचना और सामाजिक
अस्मिता के साथ उसका गहरा लगाव आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो कविता की ऐतिहासिकता और सामाजिकता की तलाश
में मदद करती हैं ।”(16)
दलित सौन्दर्य-बोध विस्तृत है, केवल विषय की बात नहीं है बल्कि भाव, भाषा,
एवं उनकी अभिव्यक्ति में ईमानदारी है जिसे समय के साथ जाँचने-परखने
की आवश्यकता है| समकालीन समय की जटिलता और दुर्बोधता के दलदल
के बीच दलित विमर्श एक ऐसे रास्ते को बनाने का विनम्र प्रयास है जो समतामूलक हो,
सभी के लिए बराबर हो जिसमें किसी भी तरह का भेदजनित दृष्टिकोण न हो
जिससे कि मनुष्यता अपमानित होती हो|
सन्दर्भ
:
- कँवल भारती : दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म, स्वराज प्रकाशन, 2004, पृष्ठ- 21
- मोहनदास नैमिशराय : हिंदी दलित साहित्य, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली-110 001, प्रथम संस्करण 2011, पृष्ठ- 250
- ओम प्रकाश वाल्मीकि : दलित साहित्य अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण : 2013, पृष्ठ- 29
- शरण कुमार लिंबाले : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2005, पृष्ठ- 156
- रजनी अनुरागी : बिना किसी भूमिका के, आरोही प्रकाशन, रोहिणी, नई दिल्ली- 110085, प्रथम संस्करण 2011, पृष्ठ-09
- विमल थोरात सूरज बडत्या (संपादन) :
भारतीय दलित साहित्य का विद्रोही स्वर, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, पृष्ठ -22
- विमल थोरात सूरज बडत्या (संपादन) :
भारतीय दलित साहित्य का विद्रोही स्वर, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, पृष्ठ -20
- सूरजपाल चौहान :क्यों विश्वास करूँ, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004, पृष्ठ-15
- सूरजपाल चौहान, क्यों विश्वास करूँ, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004, पृष्ठ-22
- ओमप्रकाश वाल्मीकि : बस्स ! बहुत
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- विमल थोरात सूरज बडत्या (संपादन) :
भारतीय दलित साहित्य का विद्रोही स्वर, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, पृष्ठ संख्या -24
- मुकेश मानस : काग़ज़ एक पेड़ है, लोकमित्र प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली-110032, 2010, पृष्ठ- 49
- विमल थोरात सूरज बडत्या (संपादन) :
भारतीय दलित साहित्य का विद्रोही स्वर, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, पृष्ठ -41
- हरिनारायण ठाकुर : दलित साहित्य का
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भारतीय ज्ञानपीठ, 2009, पृष्ठ -410
- एन. सिंह (संपादक) : दलित साहित्य
और समाज, अनामिका पाब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स
(प्रा.) लिमिटेड,
नई दिल्ली- 110 002, प्रथम संस्करण 2019, पृष्ठ- 156
- देवेन्द्र चौबे : आधुनिक साहित्य
में दलित-विमर्श,
ओरियंट ब्लैकस्वान प्रा.लि., 2009, पृष्ठ -191
डॉ. चंद्रकांत सिंह
सहायक प्रोफेसर (हिंदी), हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला
chandrakants166@gmail.com, 9805792455
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
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