औपनिवेशिक भारत में बालिकाओं की पत्रिका : कुमारीदर्पण
डॉ. प्रज्ञा पाठक
बीज शब्द : औपनिवेशिक भारत, स्त्री लेखन, स्त्री शिक्षा, बालिकाओं की पत्रिका, कुमारी दर्पण, स्त्री दर्पण।
मूल आलेख : हिंदी में स्त्री लेखन के इतिहास को जानने और समझने का सिलसिला 'स्त्री दर्पण' पत्रिका को पहचाने बिना संभव नहीं है। स्त्री दर्पण पत्रिका का प्रकाशन 1909 में प्रयाग से शुरू हुआ था और 1929 तक यह छपती रही थी। हिंदी क्षेत्र में स्त्रियों का एक आंदोलन इस क्रांति धर्मी पत्रिका के इर्दगिर्द विकसित हुआ है। स्त्रियों की दुनिया में नई पीढ़ी को गढ़ने का काम जितनी सहजता और जिम्मेदारी के साथ किया जाता है उतनी ही सहजता और जिम्मेदारी के साथ स्त्री दर्पण पत्रिका में 'कुमारी दर्पण' नामक एक हिस्सा छपना शुरू हुआ। इसका प्रकाशन जनवरी 1916 के अंक से शुरू हुआ। इस समय तक स्त्री दर्पण की सामग्री बड़ी तथा शिक्षित महिलाओं के उपयोग की हुआ करती थी। धीरे-धीरे यह महसूस किया गया कि भविष्य संभालने वाली पीढ़ी को जागरूक बनाना परिवर्तन और विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकता है। यह महत्त्व और भी बढ़ जाता है जब बात लड़कियों की जागरूकता की हो रही हो। 'कुमारी दर्पण' नामक नए भाग को छापने की तैयारी काफी पहले से चल रही थी। जुलाई 1915 के संपादकीय में कुमारी दर्पण की आवश्यकता बताते हुए स्त्री दर्पण की संपादक रामेश्वरी नेहरू कहती हैं-”आज की कन्याएँ और बालिकाएँ कल की माताएँ और शिक्षिकाएँ हैं, इस सिद्धांत से कोई अपरिचित नहीं है। अतएव बालिकाओं में सच्चे और स्वतंत्र विचारों का पैदा करना स्त्री पुरुषों की शिक्षा से अधिक आवश्यक और लाभकारी है। हमारा विचार है कि यदि दर्पण का प्रचार बालिकाओं में हो जाए तो दर्पण को अपने सिद्धांतों के प्रचार में बहुत कुछ सहायता मिलना संभव है"। [i]
भावी माताओं में 'सच्चे एवं स्वतंत्र विचार' पैदा करने की धारणा बिलकुल नई
और सबसे अधिक प्रभावी थी। क्योंकि पहले का काफी समय हमारे समाज सुधारक और
साहित्यकार यह बहस करते हुए बिता चुके थे कि स्त्रियों को किस तरीके की शिक्षा दी
जाए। भारतेंदु का ऐतिहासिक बलिया व्याख्यान और स्त्रियों के लिए छपने वाली उनकी
पत्रिका 'बालाबोधिनी' भी स्त्री शिक्षा
के तत्कालीन प्रारूप निर्धारण प्रयासों का ही प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैं।
स्त्री दर्पण में लगातार यह बहस चल रही थी कि स्त्रियों को शिक्षा पाकर सीता और
सावित्री बनना चाहिए या सफ्रेजिस्ट। अर्थात शिक्षा का मॉडल भारतीय हो या पाश्चात्य
।
ऐसे में बालिकाओं के विषय में रूढ़ि और वर्जना से मुक्त
चिंतन की जो शुरुआत कुमारी दर्पण के माध्यम से हुई उसने आगे चलकर स्त्रियों को
आत्महीनता से मुक्ति दिलाकर उनके स्वत्व की पहचान कराकर उन्हें अपने सामाजिक
सरोकारों से जोड़ने में मदद की ।
कुमारी दर्पण के स्वरूप के विषय में संपादक स्त्री दर्पण की
इच्छा थी कि बालिकाओं के लिए सरल कविताएँ, शिक्षाप्रद कहानियाँ और
ज्ञानवर्धक लेख छापे जाएँ जिससे कि उनका मनोरंजन भी हो और उन्हें शिक्षा भी मिले।
कुमारी दर्पण के विभिन्न अंकों को देखकर यह कहा जा सकता है कि उनकी यह इच्छा पूरी
तरह फलीभूत हुई।
कुमारी दर्पण का पहला अंक जनवरी 1916 में 14 पृष्ठ का छपा था। स्त्री दर्पण
पत्रिका के जनवरी 1929 तक के अंक मिलते हैं। ऐसा मालूम होता है कि जनवरी 1929 तक ही स्त्री दर्पण
पत्रिका का प्रकाशन हुआ होगा। कुमारी दर्पण जनवरी 1916 से आरम्भ होकर जनवरी 1929 तक प्रकाशित होती
रही थी। शुरू में कुछ अंकों तक संपादन दायित्व श्रीमती रामेश्वरी देवी नेहरू ने ही
सम्हाला। बाद में उपसंपादक के तौर पर श्रीमती रूप कुमारी नेहरू ने कुमारी दर्पण को
सम्हाला। स्त्री दर्पण जब कानपुर चला गया तब कुमारी कमलेश्वरी कुंजरू, कुमारी दर्पण की
संपादक बनीं। आठ पृष्ठों के इस छोटे से भाग कुमारी दर्पण की खास बात यह थी कि इसकी
संपादक, लेखिकाएँ और पाठिकाएँ
सभी अधिकांशतः बालिकाएँ ही हुआ करती थीं। इसके अंकों में कविताएँ, कहानियाँ और लेख
वैकल्पिक रूप से होते थे, साथ ही किसी प्रश्न पर सवाल-जवाब और पहेलियाँ भी छपा
करते थे। जिनका सही जवाब कुमारी दर्पण के पास भेजने पर पुरस्कार मिला करता था।
प्रत्येक अंक में पूर्व के अंक में पूछी गई पहेली के जवाब और सही उत्तर भेजने पर
इनाम पाने वाली बालिकाओं के नाम छपा करते थे। कई बार लेख, कहानी या कविता में लेखिका के
नाम के साथ साथ उसकी उम्र भी छपी होती थी जो कभी दस तो कभी,ग्यारह या बारह
वर्ष हुआ करती थी। एक बहुत संक्षिप्त-सा संपादकीय भी 'लड़कियों से बातचीत' नाम से छपता था।
कुमारी दर्पण ने बालिकाओं में पढ़ने और लिखने के प्रति काफी
उत्साह जताया था। नवंबर 1917 में संपादक कुमारी दर्पण के नाम से एक विज्ञापन छपा
है -" हम देखते हैं कि
छोटी कन्याएँ कुमारी दर्पण में छापने के लिए लेख लिखकर भेजा करती हैं परंतु वे जिन
विषयों पर लेख लिखने लगती हैं वे इतने गंभीर हुआ करते हैं कि कन्याओं को अपने भाव
ठीक-ठीक बताना कठिन हो जाता है।"[ii] इस समस्या का
समाधान यह खोजा गया कि संपादक स्वयं विषय सुझाएँगी और जिसका लेख सबसे अच्छा होगा
वह छापा जाएगा। इस अंक में अगली बार के लिए विषय दिया गया है- अपने नगर या गाँव में
देखी हुई रामलीला पर एक छोटा-सा लेख। कई-कई बार यह प्रायोजित कार्यक्रम भी हो जाता
था। कोई-कोई व्यक्ति अपनी पसंद का एक विषय चुनकर उस पर बालिकाओं को लेख लिखने को
कहते थे और सर्वश्रेष्ठ लेख पर पुरस्कार भी दिया जाता था।
कुमारी दर्पण के लेखों के माध्यम से उन्हें शिक्षा के लिए
प्रेरित करने के साथ-साथ अपने आसपास की दुनिया के प्रति जिज्ञासु बनाने का भी काम
किया जा रहा था। जनवरी 1916 के अंक में कुमारी भुवनेश्वरी सप्रू का लेख छपा है 'विद्या'। इस लेख में
संस्कृत के विभिन्न श्लोकों के माध्यम से विद्या की उपयोगिता बताने का प्रयास किया
गया है साथ ही विवाहित अथवा अविवाहित स्त्री के लिए विद्या को लाभकारी बताया गया
है।
इसी अंक में पंडित प्रद्युम्ननाथ सप्रू का एक रोचक वृतांत
है 'फिर चेष्टा करो'। इसमें एक माँ
गुड़िया से खेलती अपनी बेटी से पाठ ख़तम होने के विषय में पूछती है तो बेटी कहती है
कि पाठ बहुत कठिन है और वह उसे याद नहीं कर पाएगी। इस पर माँ उसे एक बच्ची की
कहानी सुनाती है जो बार-बार याद करने पर भी अपना पाठ भूल जाती है। एक दिन जब वह
पाठ नहीं सुना सकी तो गुरु जी ने उसे डांटा तो उसने सोचा कि अब वह पढ़ना छोड़
देगी। इस पर उसकी सहेली ने उसे बहुत समझाया और फिर से कोशिश करने को कहा। सहेली के
द्वारा उत्साह दिलाए जाने पर प्रेरित होकर उसने एक बार फिर प्रयास किया और आधे
घंटे के भीतर सफलता पाई। उस दिन के बाद से वह पाठशाला की सबसे तेज लड़की बन गई और
आज वही लड़की अपनी बेटी को पाठ याद करने को कह रही है। बेटी को यह सुनकर बहुत
प्रेरणा मिलती है और वह अपना काम पूरा करती है। लेखक बच्चों को समझाता है कि कोई
काम कितना भी कठिन क्यों न हो यदि ठान लिया जाए तो सब कुछ सरल हो जाता है।
फरवरी 1917 के अंक में प्रेम प्यारी देवी का एक बड़ा शिक्षाप्रद
लेख छपा है 'भूगोल की कहानी'। इस लेख में
दुनिया के नक्शे में भारत की स्थिति बताई गई है। भारत की भौगोलिक स्थिति, आर्यों का आना उनकी
सभ्यता और संस्कृति के विषय में बड़े ही रोचक ढंग से बालिकाओं को जानकारी दी गई है-
"धरती के कई बड़े-बड़े टुकड़े हैं। एक टुकड़े का नाम अफ्रीका महाद्वीप, दूसरे का अमेरिका महाद्वीप, तीसरे का ऑस्ट्रेलिया और चौथे में एशिया यूरोप दोनों मिले हैंl हमारा देश हिंदुस्तान जिसे हिंद, भारत खंड और भारतवर्ष या केवल भारत भी कहते हैं; एशिया के दक्षिण में है"[iii]। भारत की भौगोलिक स्थिति के बारे में बताकर लेखिका आर्यों के विषय में बताती है कि किस प्रकार वे यहाँ आए, वे दिखने में कैसे थे, खाते क्या थे, घर में स्त्रियों की क्या जगह थी इत्यादि। “आर्य लोग लिखना-पढ़ना जानते थे और कविता करते थे। आर्यों ने हम लोगों के लिए मंत्रों का एक संग्रह छोड़ा है जिसका नाम ऋग्वेद है। इन्हीं मंत्रों से हम इतने दिनों का ब्यौरा जानते हैं।”[iv]
कुमारी दर्पण के माध्यम से सिर्फ पत्रिका ही जागरूकता का माध्यम
नहीं बनी बल्कि महिला समिति( प्रयाग महिला समिति नाम की एक संस्था का गठन
रामेश्वरी नेहरू ने किया था) की तर्ज पर एक कुमारी सभा का भी गठन किया गया जिसकी
हर महीने बैठक हुआ करती थी। अप्रैल 1917 के अंक में कुमारी सभा के नौवें अधिवेशन की सूचना छपी
है-
"तारीख 4 मार्च रविवार के दिन सभा कुमारी श्याम कुमारी नेहरू
के गृह पर हुई जिसमें 15 सभासद उपस्थित थे। श्रीमती पुष्पलता नेहरू सभापति
बनाई गईं। कार्य आरंभ करने से पहले 'बन्दे मातरम' गाया गया। फिर उमा देवी नेहरू, कुमारी रूप कुमारी
नेहरू और कुमारी स्वरूप कुमारी नेहरू ने 'शक्ति' पर व्याख्यान दिए।"[v]
इसी अंक में कुमारी सभा का एक छोटा सा पुस्तकालय खुलने की
भी सूचना है। अगस्त 1917 के अंक में प्रयाग कुमारी सभा की जुलाई अंक की मासिक
बैठक का समाचार छपा है। जिसमें एनी बेसेंट को जेल भेजने पर नाराजगी जाहिर की गई है
इतना ही नहीं होमरूल लीग प्रयाग को प्रयाग कुमारी सभा की ओर से बीस रुपये भेजने का
प्रस्ताव भी किया गया है।[vi]
अगस्त 1919 के कुमारी दर्पण के अंक में उस समय की प्रखर लेखिका
उमा नेहरू की एक कविता छपी है। यह कविता विशेष तौर पर कुमारी सभा के लिए लिखी गई
थी। बतौर संगठन कुमारी सभा का महत्त्व और उद्देश्य बताना ही इस कविता का ध्येय है-
"ए-बहिनो आओ, आज करें मिलकर सब दुआ।
परमेश्वर के सामने इस सर को दें झुका।।
हो उन्नति सभा की, वह हो सबकी इल्तिजा।
मेहनत सुफल हो, कौम के बच्चों का हो भला।।
दुनिया में बाड़ा देश का, जब तक हरा रहे।
पौधा सभा का कौम में फूला फला रहे।।
प्यारी कुमारियों को सभा ने संभाला है।
अज्ञानता के अन्ध से इस ने निकाला है।।
हाँ, वह हर एक कुमारी के घर का उजाला है।
हमने बड़ी मुसीबतों से इसको पाला है।।
तुम भी हमारी तरह से अब इसका साथ दो।
जो तुमको चाहते हैं उन्हें हाथों-हाथ लो।।
इसने तुम्हारे वास्ते क्या कुछ नहीं किया।
इल्मो हुनर का दान तुम्हें मुफ्त में दिया।।
इसने तुम्हारे वास्ते दुनिया का दु:ख सहा।
तब जाकर इन कुमारियों के दिल में घर हुआ।।"[vii]
उमा नेहरू ने स्त्रियों और बच्चों के प्रति अपनी
संवेदनशीलता का परिचय न सिर्फ अपने लेखन के द्वारा दिया बल्कि बाद में वे आज़ाद
भारत की पहली और दूसरी लोकसभा की सदस्य भी बनीं। संसद की मुखर सदस्य के रूप में
बच्चों और स्त्रियाँ के हक में उन्होंने लगातार आवाज बुलंद रखी।
अक्टूबर 1917 के कुमारी दर्पण के अंक में 'देशभक्ति' शीर्षक से स्वरूप
कुमारी नेहरू का एक छोटा-सा लेख छपा है। इस लेख में स्वरूप कुमारी नेहरू देशभक्ति
के प्रति बालिकाओं को जागरूक बनाने की कोशिश करते हुए कहती हैं-”जो असली भक्ति करना
चाहते हैं, उनको सबसे पहले
इसका यत्न करना चाहिए कि वह स्वदेशी वस्त्र पहिनें और स्वदेशी अन्न खावें और अपने
मित्रों को भी यही उपदेश देवें। यदि भारत का धन विदेश जाना बंद हो जावे तो वह और
कामों में लगाया जा सकता है और उसी धन से भारत को बहुत लाभ पहुँच सकता है। दूसरी
बात यह है कि लोग गाँव-गाँव और गली-गली में फिरें और वहाँ के निवासियों को अपने
देश की गिरी हुई हालत बतलावें और उन्हें यह भी बतलावें कि यह भारतवर्ष, जिसको देखकर और
देशों ने उन्नति की और जिसने सदा सबकी सहायता की, वह आज विदेशी राज्य के अधीन
होकर सिर झुकाए बैठा है और कष्ट और दुख सह रहा है।"[viii]
एक रोचक कविता ध्यान आकर्षित करती है 'वह कहाँ'। यह एक शिक्षिका
और उसकी विद्यार्थी के बीच की बातचीत है। बच्ची अपनी गुरु से पूछती है कि भगवान
कहाँ रहते हैं? इसी प्रश्नोत्तर की
काव्यात्मक प्रस्तुति यहाँ है। शिक्षिका बालिका से पूछती हैं कि रम्मो (विद्यार्थी का नाम) कहाँ है? –
"र.-यह देखो मैं सम्मुख ठारी।।
( हंसकर छाती पर हाथ रखकर दिखाती है।)
गु.- यह तो तेरी छाती जानूं।
र.-यह देखो- (हाथ दिखाकर)
गु.-यह कर पहचानूं।।
र.-यह देखो ना- (मुंह पर हाथ रखती है)
गु.-यह मुख तेरा।
रम्मो कौन? प्रश्न यह मेरा।।
गु.- जिन सबको तू मुझे दिखावे।
वे सब तेरे अंग
कहावें।।
तू कहाँ? बस यही बता दे।
तनिक सोचकर पता लगा
ले।।
अपने भीतर आप बसी
है।
अंधी बनकर ज्ञान
नसी है।।
र.- समझ गई मैं समझ गई।
मैं सब अंगों फैल
रही।।
प्राण रूप व्यापूं सब देह।
यह काया है मेरा
गेह।।
गु.- भला भला अब लो पहचान।
इसी तरह जानो भगवान।।
विश्व चराचर के वे
प्राण।
इसी रूप रहते
भगवान।।”[ix]
कुमारी दर्पण के अधिकांश अंकों में एक कविता ईश्वर स्तुति या
प्रार्थना के रूप में मिलती है। प्रसिद्ध स्वच्छंदतावादी कवि श्रीधर पाठक की
पुत्री श्रीमती ललिता देवी पाठक की 'ईश्वर स्तुति' सितम्बर 1917 के अंक में छपी है-
"जय प्रभु सकल क्लेश दुख हारी।
जय अनन्त लोकेश मुरारी।।
जय श्रीकान्त लोक सुखकारी।
जयति सुरेश जयति असुरारी।।
जय विश्वेश विश्व हितकारी।
विश्व प्राण विभु
विश्व विहारी।।
जय सुख रूप सर्व सुख दाता।
जय जग जोति जयति जग दाता।।
ललिता है प्रभु शरण तिहारी।
करो कृपा निज ओर निवारण।। [x]
कुमारी दर्पण में कहानियाँ भी छपा करती थीं। कहानियाँ वैसे भी बच्चों को बहुत प्रिय होती हैं। कुमारी दर्पण में छपने वाली कहानियाँ बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान देने के साथ-साथ उनमें कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता को बढ़ावा देने में सक्षम थीं। अप्रैल 1917 के अंक में एक कहानी छपी 'कोमलता'। लेखिका थीं विद्यावती नेहरू। कभी एक राजकुमार था वह एक कोमल राजकुमारी से शादी करना चाहता था। उसने बहुत सारी राजकुमारियाँ देखीं पर उसे कोई पसंद नहीं आई क्योंकि सब की कोमलता में कोई ना कोई कमी जरूर होती थी। आँधी-तूफान की एक भयानक रात द्वार खटखटाया जाता है। राजकुमार के पिता, राजाजी दरवाजा खोलते हैं। बाहर अस्त-व्यस्त दशा में खड़ी एक लड़की बताती है कि वह कोमल राजकुमारी है, उसका नाम 'कोमलता' है।
रानी जी उसकी कोमलता की परीक्षा लेने के लिए एक कमरे के
बिस्तर पर से सभी बिछावन उठाकर उस पर 3 दाने मटर के रखती हैं, फिर 24 गद्दे बिछातीं हैं। इस पर
राजकुमारी कोमलता को सुलाया जाता है। सुबह पता चलता है कि राजकुमारी के सारे शरीर
पर नील पड़ गए हैं और वह बिस्तर पर कुछ चुभने के कारण सारी रात सो नहीं सकी।
राजकुमारी और राजकुमार का विवाह हो गया क्योंकि राजकुमार को यकीन आ गया कि यही
कोमल राजकुमारी है। कथा का अंत होता है कि मटर के वे तीन दाने अब भी अजायबघर में
रखे हैं।
बच्चों को बहुत सी ऐसी कहानियाँ सुनाई जाती हैं जिनका
कोई तार्किक आधार नहीं होता है। वे उनकी कल्पनात्मकता को विस्तार देती हैं। ऐसी ही
यह कहानी भी है पर मई अंक में प्रेमप्यारी देवी माथुर इस कहानी पर अपनी आपत्ति
रखती हैं कि अंधेरी तूफानी रात में कोई स्त्री अकेली कैसे घर से निकल सकती है? अनजान दरवाजे की
कुंडी कैसे बजा सकती है? राजकुमारी कोमल थी तो वर्षा-तूफान उसने कैसे झेला? वगैरह-वगैरह। मटर
के दाने सड़े क्यों नहीं? रखे कैसे हैं?
इस तरह की संवादधर्मिता और तार्किकता स्त्री दर्पण की खास विशेषता थी। वहाँ खूब सवाल जवाब होते थे। सहमत असहमत सभी तरह के लोगों को पत्रिका में जगह मिलती थी। अगले अंक में विद्यावती नेहरू ने जवाब दिया कि एक कहानी उन्होंने 'फेवरेट फेयरी टेल्स' में पढ़ी थी और उसका अनुवाद किया था और यह कहानी ऐसी ही है जैसे सब बच्चे अपने बड़ों से सुनते हैं। वह एक और कहानी लिखती हैं- दो मित्र आपस में बातें कर रहे थे। एक कहता है कि हमारे पितामह के पास इतना बड़ा अस्तबल था कि घोड़ी को चलते-चलते बारह महीने बीत जाते थे। दूसरा कहने लगा कि हमारे पिता के पास इतना लंबा बाँस था कि बादल आते और वे उन्हें हटाना चाहते तो बाँस हिला देते। पहले ने पूछा इतना लंबा बाँस कहाँ रखा जाता था? तो दूसरे ने कहा तुम्हारे पितामह के अस्तबल में।
कुमारी दर्पण में बहुत सारी प्रसिद्ध कथाएँ भी छपी हैं। जिनमें लोक कथाएं हैं और अंग्रेजी की प्रसिद्ध कथाओं के अनुवाद भी हैं। जो आज भी कही और सुनी जाती हैं जैसे सिन्दबाद की कहानी और राजा के सिर पर सींग या कनकटे राजा की कहानी। फरवरी 1918 के अंक में श्रीयुत सोमेश्वर राय ने 'एक 13 वर्ष की कुमारी की अद्भुत वीरता की कहानी' लिखी है। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान एक 13 वर्षीय बच्ची घर की पहली मंजिल पर अपनी दादी के साथ थी और इसका छोटा भाई दूसरी मंजिल पर सो रहा था। जर्मनी के बम-वर्षकों ने बम गिराए तो दूसरी मंजिल तक जाने वाली सीढ़ियाँ टूट गईं। तब भी उस बालिका ने बहुत बहादुरी से अपने छोटे भाई की जान बचाई। वह घायल हो गया था तो उसे अस्पताल पहुँचाया। वह स्वयं भी बुरी तरह से घायल हो चुकी थी । इस लड़की को 'कारनेगी हीरो ट्रस्ट फंड' की ओर से एक सोने की रिस्ट वॉच इनाम में मिली। लेखक कहता है –
"सारे संसार की लड़कियों को उसकी तरह वीरता सीख लेनी
चाहिए। कुमारी दर्पण की पढ़ने वाली लडकियां ऐसे वीरता तथा निडराई का अपने मन में
संचार करें और समय पड़ने पर उसको कर दिखावें।"[xi]
यह कहानी पढ़ते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'बालाबोधिनी' में छपी 'आरनेलस की कुमारी' की कहानी नाम से छपी बिहारी चौबे की रचना याद आ जाती है। वह फ्रांस की वीर राजकुमारी जोन ऑफ आर्क की कहानी सुनाते हैं जो अपने देश के लिए जान की बाजी लगाकर लड़ी थी। इस लड़ाई में अंग्रेजो के द्वारा पकड़ी गई और जीने के लिए उनकी शर्त ना मानने पर जलाकर मार दी गई। यह कहानी बताकर बिहारी चौबे जो निष्कर्ष देते हैं वह यह है कि- 'अति साहस और माया भी बुरा ही फल देती है। स्त्रियाँ जो झूठमूठ अभुआती और माता भवानी की नकल करती हैं सो सबका सत्य होना असंभव ही है और लड़कियों को जो विश्वास हो जाता है सो न होना चाहिए। स्त्रियों के घर में जो पति देवता रहते हैं उन्हीं की भक्तिपूर्वक सेवा करना परमोत्तम है।[xii]" स्त्री शिक्षा के इस प्रकार के प्रारूप के रहते हुए बालिकाओं को वीरता और निडरता की सीख देना और उनके व्यावहारिक अमल की अपेक्षा करना कुमारी दर्पण को क्रांतिकारी पत्रिका का दर्जा दे सकता है। जून 1923 के अंक में श्री चौधरी रमाशंकर दत्त की एक बहुत ही दिलचस्प कहानी छपी है 'मोटली।’ मोटली बच्चों के अपने ही बीच की एक दिलचस्प चरित्र है । मोटली कैसी है यह कहानी बताएगी –
"इसमें बड़े बड़े गुण हैं। खूब हँसाएगी। बहुत-सी बातें
बताएगी बस आफत की परकाला है। घूमने का तो इसे इतना शौक है कि तुम्हें संसार भर में
घुमा लाएगी। बेवकूफ परले सिरे की है तो भी चालाक है। तुम कहीं इसे उल्लू बनाने की
कोशिश न करना नहीं तो कान कतर ले जाएगी। हाँ खेलोगी तो खूब खिलाएगी। रोवोगी तो खूब
रुलाएगी। चिढ़ाओगी तो चुटिया पकड़कर खूब घुमाएगी। मारोगी तो भाग जाएगी।
इतना ही नहीं- मेरी मोटली बड़ी जल्दबाज है । माँ ने कहा- मोटली!
तनिक दीया तो ले आ। बस दीये राम की शामत आ गई। मोटली महारानी इतनी जल्दी उठा कर
भागेंगी कि दीयेजी गिरकर अपना सिर फोड़ लेंगे। गुरुआनी जी ने जहाँ कहा- 'मोटली अपनी स्लेट
तो दिखा।’ बस मोटली ढोलकी की तरह लुढ़कते हुए अपने छोटे भाई नन्हें पर रोलर फेर
देगी। हाँ अगर कहीं कह दो कि मोटली एक गिलास पानी तो लाइयो। बस तुम सोचने लगोगी कि
मोटली ने आज कुछ खाया भी है कि नहीं। बड़ी ऊँह-आँह के बाद उसका मोटा बदन उठेगा।
हाँ अगर कहीं कह दो- 'और लड्डू भी माँग ला' तो बस मोटली में बिजली दौड़ जाएगी
और घड़े महाराज की हड्डी पसली का पता भी न लगेगा।"[xiii]
सितंबर 1928 में 'नारी मंडल की उन्नति के कुछ साधन' नामक लेख श्रीमती
हुक्मदेवी छात्रा ने लिखा है इसमें बड़े विस्तार से स्त्रियों की उन्नति के लिए 10 सूत्री कार्यक्रम
प्रस्तुत किया गया है। जुलाई 1928 के कुमारी दर्पण में बाबू जयंती प्रसाद विद्यार्थी 'मधुर' अपनी बहन सुशीला को
पत्र लिखते हुए उसे स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता के विषय में समझाते हैं । उनका
विचार है कि स्त्रियों को आर्थिक स्वतंत्रता अवश्य मिलनी चाहिए लेकिन धन उपार्जन
में नहीं बल्कि उसके व्यय में। स्त्रियों के आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के
क्रम में परिवार बिखरेंगे ऐसा उनका मानना है। स्त्रियों के असली दु:ख का कारण उनकी
आर्थिक परतंत्रता नहीं बल्कि व्यैक्तिक परतंत्रता है और उसका एकमात्र इलाज शिक्षा
का प्रचार है। लेकिन कुशिक्षा देने से अशिक्षित रखना बेहतर है।[xiv]
स्त्री दर्पण पत्रिका के स्वरूप में प्रयाग से कानपुर जाने
के बाद बहुत बदलाव हो गए थे । स्पष्ट कहा जाए तो पत्रिका अपनी धार खोने लगी थी। 1915-16 के स्त्री दर्पण
में स्त्रियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता के हक़ में आवाज बुलंद की जा चुकी थी। स्त्री
शिक्षा के पक्ष में स्त्री दर्पण ने बहुत मजबूती से अपना पक्ष रखा था। उसी स्त्री
दर्पण के एक अंश कुमारी दर्पण में 1928 में यह छपना आश्चर्यजनक है कि स्त्रियों को उपार्जन
की नहीं खर्च की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। उपार्जन से परिवार बिखरेंगे। इस लेख का
कोई प्रतिरोध, किसी प्रकार की
टीका-टिप्पणी सम्पादक अथवा पाठक वर्ग की तरफ से होती नहीं दिखती है। यह परिवर्तन
स्त्री दर्पण के वैभव के क्षरित होने का संकेत देता हुआ मालूम होता है। लेकिन
इसमें कोई संदेह नहीं कि स्त्री दर्पण का एक अंश कुमारी दर्पण औपनिवेशिक भारत में
बालिकाओं में पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति के विकास की दृष्टि से बहुत प्रखर पत्रिका
है।
संदर्भ :
[i]नेहरू रामेश्वरी, संपादक- कुमारी दर्पण,अप्रैल 1917, जुलाई 1915 पेज-3
[ii]नेहरू रामेश्वरी, संपादक- कुमारी दर्पण, नवंबर 1917,पेज-40
[iii]देवी प्रेमप्यारी-भूगोल की कहानी,कुमारी दर्पण, फरवरी 1917,पेज-9
[iv]देवी प्रेमप्यारी-भूगोल की कहानी,कुमारी दर्पण, फरवरी 1917,पेज-12
[v]कुमारी दर्पण, अप्रैल 1917,पेज-28
[vi]कुमारी दर्पण,अगस्त1917, पेज-28
[vii]पाठक प्रज्ञा, संपादक-उमा नेहरू और स्त्रियों केअधिकार,राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली,पेज-145
[viii]नेहरू स्वरूप कुमारी-देशभक्ति,कुमारी दर्पण-अक्टूबर 1917,पेज-30
[ix]घोष गिरिजा कुमार-वह कहां,कुमारी दर्पण,जुलाई 1917 पेज 2-3
[x]पाठक ललिता देवी-'ईश्वर स्तुति' ,कुमारी दर्पण,सितम्बर 1917 -पेज -17
[xi]राय सोमेश्वर-एक 13 वर्ष की कुमारी की अद्भुत वीरता की कहानी- कुमारी दर्पण,फरवरी 1918 पेज -15
[xii]चौबे बिहारी -'आरनेलस की कुमारी',बालाबोधिनी, संपादक-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,अंक मई 1876 पेज-42
[xiii]दत्त चौधरी रमाशंकर, कुमारी दर्पण,जून 1923,पेज-43-44
[xiv]'मधुर' बाबू जयंती प्रसाद विद्यार्थी,कुमारी दर्पण,जुलाई 1928
डॉ. प्रज्ञा पाठक
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
एन ए एस
कालेज, मेरठ
9412917881, prajnanas@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें