समीक्षा : तहखानों में बंद अक्स : चित्रा मुद्गल
विष्णु कुमार शर्मा
हाईवे पर स्थित झोपड़पट्टी में रहने वाली एक सेक्सवर्कर से जब
लेखिका ने यह पूछा – तुम्हारे लिए प्रेम
क्या है? तो उसका अनुभव कुछ यों था– “ निस्संदेह मेरे लिए प्रेम देह से परे की
भावना है। दिल और आत्मा में बसी सुगंध! जो
पात्र के जिंदगी और स्पर्शों से बहुत दूर चले के बाद भी हमारे भीतर जीवित रहती
है। ................ प्रेम और सेक्स
अलग-अलग स्थितियाँ हैं। एक प्रकृति है,
दूसरी भावना।”[3]
देह और प्रेम का द्वैत भी है और अद्वैत भी| “देह के साथ प्रेम हो यह जरूरी नहीं है मगर प्रेम के साथ देह का होना जरूरी है। बिना प्रेम के देह-संबंध बनाना बहुत आसान है। बाजार में लाखों संबंध रोज बनते हैं। वैसे प्रेम देह के बिना भी संभव है लेकिन उसकी संपूर्णता देह के साथ ही आती है।”[4] “यह तो तय है कि प्रेम में देह बहुत-बहुत उपस्थित होकर भी ... एक मकाम पर आकर अस्तित्वविहीन हो जाती है।”[5] शायद यही प्रेम है |
विवाहेतर संबंधों की पड़ताल में जुटी लेखिका की मुलाकात प्रतिभा
जी से होती है। प्रतिभा का चित्रकार
शिब्बू से प्रेम-संबंध है। यह उस तरह का
संबंध है जिसे समाज ‘दूसरी औरत’ का संबोधन देता है। प्रतिभा कहती हैं– “विवाहेतर संबंध समाज में
आधुनिक भाव-बोध की ही उपज नहीं है। ‘दूसरी
औरत’ हमारे समाज में तब से है जब से स्त्री-पुरुष के रहस्मय संबंध विकसित
हुए। यह अलग मुद्दा है कि उसे किन-किन रूपों
में मान्यता प्राप्त हुई और किस रूप में नहीं।
लड़का पैदा न हो तो इसी समाज में
पुरुष चार बीवियाँ घर में डाल ले। वरना
अगर उसके संबंध किसी बाहरी स्त्री से रागात्मक हो गए तो उसको लाँछना प्राप्त होती
है रखैल के रूप में। ”[6]
यानि पितृसत्तात्मक समाज ने खेल के सारे नियम अपनी सुविधा के अनुसार निर्मित किए
हैं। विवाहेतर संबंध में पीड़ा दोनों
स्त्रियों को ही भोगनी पड़ती है, समाज की सहानुभूति ब्याहता के साथ होती है। इन संबंधों को जिन्हें समाज अवैध-संबंध कहता है, के संबंध में कथाकार प्रियंवद कहते हैं कि “मेरा विश्वास है कि प्रेम अपनी पूरी चमक, पूरे आवेग के साथ ऐसे संबंधों में ही रहता है। आत्मा के एक खाली, अंधेरे कोने में बचाकर रखे हुए आलोकित हीरे की तरह! ऐसे संबंधों का प्रेम बहुत गंभीर और अर्थपूर्ण होता है, प्रेम के इन्हीं क्षणों में मनुष्य अपनी असली और पूरी स्वतंत्रता का उपभोग करता है। उसका पूरा जीवन, व्यक्तित्व, शरीर सब तरह की वर्जनाओं, समाज के घिनौने और निर्मम अंकुशों से मुक्त होता है। इन सबसे विद्रोह की एक मूक अंतर्धारा भी उसके अंदर ऐसे ही क्षणों में बहती है। कुल मिलाकर ऐसे संबंधों में प्रेम अपनी पूरी रहस्यमयता, गोपनीयता, आवेग, आलोक और स्वतंत्रता के साथ जीवित रहता है।”[7]
लेखिका द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या यह
निर्दोष स्त्री के साथ स्त्री का शोषण नहीं है? प्रतिभा कहती हैं– “जिस घर में एक
भी लड़की को इस दुर्घटना का सामना अपने जीवन में करना पद रहा है, वहाँ अपनी अन्य
लड़कियों के प्रति परिवार वालों का रवैया बदला है।
उनकी शिक्षा भी हो रही है और ब्याह, शादी के प्रति उनकी सहमति-असहमति को भी
महत्त्व दिया जाने लगा है।”[8] मतलब बदलाव की बयार बह रही है|
विवाहेतर संबंधो से उत्पन्न संतान को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल
पाती है। सामाजिक टीका-टिप्पणी उनमे कुंठा
भर देती है। स्कूल-कॉलेज में एडमिशन या सरकारी दस्तावेजों में पिता के नाम की
आवश्यकता होती है। इन समस्याओं के समाधान
बाबत लेखिका ऐसे ही एक युगल अनिला-देवराज में से अनिला से पूछती हैं तो अनिला(समाज
की भाषा में दूसरी औरत) का उत्तर है– “मैं तो कहती हूँ कि बच्चे को सिर्फ उसके नाम
से प्रवेश दिया जाना चाहिए। आखिर वह
अपने-आप में एक स्वतंत्र इकाई है या नहीं? आगे चलकर जाति-पाति की समस्या का भी यह
सबसे सरल व सार्थक निदान हो सकता है।”[9]
किन्तु इसे सामाजिक स्वीकृति मिलने में अभी समय लगेगा| वहीं व्यापक संदर्भों में
बात करें तो भारतीय समाज भी कोई एक समाज थोड़े है, समाज के कितने स्तर हैं, कितना
बहुस्तरीय और बहुआयामी है भारत का समाजl कहीं न कहीं एकल मातृत्व को भी सामाजिक और
क़ानूनी दोनों स्वीकृतियां मिल रही हैं|
मुंबई के गरीबनगर झोपड़पट्टी में रहने वाली जसोदाबाई से मिलने
पहुँची लेखिका जब उसकी कहानी सुनती है तो कई अनबूझे सवालों के जवाब खुद ही पा जाती
है। जसोदा का पति दारू पीकर मर जाता है तो उसकी सास उस पर देवदासी बनने का दबाव
डालती है। वहाँ से बचकर वह अपने मामा-मामी
के साथ मुंबई पहुँचती है। मामी उससे दिनभर काम लेती है बदले में पेटभर खाना भी
नहीं देती। ऐसे में उसकी मुलाकात शादीशुदा
काम्बले से होती है और दोनों के बीच प्रेम हो जाता है। काम्बले रहने के लिए उसे एक
खोली (झोपड़ा) लेकर देता है। शादीशुदा
काम्बले के साथ रहने का कारण वह उससे प्रेम तो बताती है साथ ही एक और भयानक सच्चाई
से रूबरू कराती है– “मरद के बिगर औरत अकेली नई रैने को सकती। पराये मरद उसको खटिया(देहवृत्ति) डालने को
मजबूर करते हैं। ”[10]
जसोदा की कहानी के मद्देनज़र लेखिका प्रश्न उठाती है कि औरत जब तक समाज में किसी
मर्द के आसरे, भावनात्मक सुरक्षा, सच्चरित्रता, मन-प्रतिष्ठा और अर्थ के लिए
निर्भर रहेगी– क्या वह वर्तमान स्थितियों मे अपनी स्वतंत्र सत्ता अन्वेषित कर
पाएगी?” साथ ही दूसरा प्रश्न भी उठाती हैं कि यौन संबंधो में औरत से एकनिष्ठता
चाहने वाला मर्द विवाहेतर संबंध रखना अपना अधिकार क्यों समझता है। ऐसी स्थितियों
में परिवर्तन तभी आ सकता है जब पुरुष अपने परंपरागत अहं व श्रेष्टता-बोध की
मनोग्रंथि से छुटकारा पाए। तभी वह स्त्री
को सही मायने में स्वतंत्रता दे सकेगा।
कानून तो बहुतेरे बने हुए हैं परन्तु समाज की सोच में परिवर्तन लाए बिना
स्त्री-मुक्ति संभव नहीं। स्त्री को एक
व्यक्ति के रूप में पहचान तभी मिल सकेगी।
कानून के रखवाले (सरकारी अमला) भी उसी सामंती मनोवृत्ति की उपज है जिसके
चलते स्त्री को न्याय पाने हेतु कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। देश की शिक्षा पद्धति
में समानता व स्वतंत्रता का पाठ अनिवार्यतः सम्मिलित किया जाना चाहिए। बचपन से लड़कों में स्त्रियों के प्रति सम्मान
की भावना पैदा की जानी चाहिए। जेंडर गैप
पैदा करने वाले कारकों को दूर किया जाना चाहिए।
सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई की छात्रा परवीज पोचखानावाला से
लेखिका ने जब देह, दहेज़ व बलात्कार जैसे विषयों पर उसका नज़रिया जानना चाहा तो
परवीज ने कहा कि हर लड़की को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण लेना चाहिए ताकि विषम
परिस्थितियों में वह अपनी रक्षा स्वयं कर सके।
बचपन में अपने साथ हुए हादसों की जानकारी जब उन्होंने अपनी माँ को दी तो
माँ ने उसे कराटे सीखने को कहा। आज वह
बेखौफ व निडर होकर जीती है। दहेज़ के कारण
होने वाली आत्महत्याओं के निराकरण बाबत परवीज का मानना है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता
ही इस पीड़ा से उन्हें मुक्ति दिला सकती है।
उसका कहना है– “अगर शादी करनी भी है तो जरूर करो पर बराबरी के अधिकार के
साथ। मैं तो अपनी सहेलियों को यही सलाह
देती हूँ कि जब तक आर्थिक रूप से अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बनाओगी तब तक अपने
बुनियादी अधिकार नहीं पा सकोगी। ”[11]
बांद्रा स्थित कार्डिनल ग्रेसियस कान्वेंट स्कूल में टीचर मारिन से जब दहेज के करण
होने वाली आत्महत्याओं के संबंध में निजी विचार प्रकट करने को कहा गया तो उसने कहा
कि “जहाँ तक हो सकेगा मै पूरे आत्मविश्वास से, प्यार से, उसे सुलझाना चाहूंगी। मुझे अपने पर पूरा भरोसा है। अगर पानी गले से ऊपर चला गया तो
आत्महत्या-वात्महत्या का निदान नहीं अपनाऊँगी। लड़कियों की आत्मनिर्भरता कब काम
आएगी। जीने की कोशिश करूंगी। जब पुरुष आत्महत्या नहीं करता तो औरत क्यों
आत्महत्या करें ?”[12]
हर साल देश के कोने-कोने से फिल्मों में अभिनेत्री बनने के सपने
लिए हजारों लड़कियाँ मायानगरी मुम्बई पहुँचती हैं जहाँ उन्हें सामना करना पड़ता है–
देह शोषण का। पुरूष की ललचाई दृष्टि हर उस
लड़की को आसान शिकार समझती है जो न्यूकमर या स्ट्रगलर है। ऐसी ही एक अभिनेत्री से जब लेखिका मुख़ातिब
हुई। बिहार से मुम्बई आई इस अभिनेत्री ने
भरपूर आत्मविश्वास के साथ कहा– “सज़ा से लड़की का लुटा हुआ कौमार्य तो वापस नहीं आ
सकता। लेकिन बलात्कारी को आजीवन जेल होनी
चाहिए। दरअसल कौमार्य भंग होने से कुछ
नहीं बिगड़ता। यह पुरुषों का बनाया हुआ मिथ
है पवित्रता का। टूटता-लुटता है औरत का
‘स्व’।”[13]
अभिनेत्री के इस कथन के आलोक में हमें दिखती है– एक नई औरत जो विश्वास से भरी है,
जो अपने ‘स्व’ के प्रति जागरूक है। जिसे
अपने अस्तित्व का बोध ही नहीं अपितु उससे है प्रेम, वह भी पूरी सजगता के साथ। फिल्मों में बाल कलाकार के रूप में अभिनय की
शुरुआत करने वाली एक बेबी स्टार को किशोरावस्था आते ही रोल मिलने बंद होने लगे तो
उसकी लालची माँ ने उसे अपनी खाला के बेटे के साथ कमरे में बंद कर दिया ताकि वह उसे
जल्द से जल्द जवान बना दे। देह शोषण में
देह से ज्यादा लुटती-पिटती है आत्मा। देह
के घाव तो भर जाते हैं पर आत्मा पर लगे घाव सालों-साल टीसते रहते हैं। उस अभिनेत्री की आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली
बेटी से जब लेखिका ने दहेज़ की समस्या के संबंध में पूछा तो वह बोली– “सिल्विया मैम
बता रही थी कि लड़की को पैतृक संपत्ति में अधिकार न होने की वजह से समाज में यह रिवाज चल पड़ा कि
उसे उसका हिस्सा एडवांस दे दियया जाए।
पैतृक संपत्ति में बेटी को भी हिस्सा दिया जाए तो मुझे विश्वास है कि पिता
से वर पक्ष दहेज़ का लोभ नहीं करेगा।
समानता का भाव विकसित होगा।”[14] नई पीढ़ी के इस आत्मविश्वास से लेखिका दंग
है।
‘कुड़ियों का है जमाना’ अध्याय में लेखिका ने विभिन्न कॉलेजों में
पढ़ने वाली लड़कियों से बातचीत की है।
बातचीत में सामने आया कि सहशिक्षा से माहौल में बदलाव आया है। लड़कियाँ अब दबी-सहमी नजर नहीं आती, उनमें आत्मविश्वास
जगा है। लड़कियाँ भी अब लड़कों को छेड़ती है
पर समूह में। अधिकांश लड़कियों ने इसे बुरा
नहीं माना। महानगरों में तो ठीक है परन्तु
‘हिंदी-पट्टी’ के शहरों व कस्बों में अभी लोगों की सोच में बदलाव नहीं आया
है। इलाहबाद से मुंबई पढ़ने आई सिद्धार्थ
कॉलेज की एक छात्रा का कहना है– “शहरों में तो यह आपसी ‘टीजिंग’ चल जाती है। पर आपको सच बताऊँ, उत्तरप्रदेश की तरफ ऐसी
‘टीजिंग’ बिलकुल नहीं चलती। वहाँ तो अगर
किसी ने किसी लड़की को फिकरेबाजी करते देख लिया तो लोग उसे ‘चालू’ समझने लगते
हैं। उसे बदनाम कर देते हैं। ..... यहाँ तक की उसकी शादी-ब्याह में भी ऐसी
बातें अड़ंगा पैदा करती हैं। ”[15]
पुस्तक में लेखिका ने जेनरेशन गैप पर भी बातचीत की है और दोनों
पक्षों की दलीलों को सामने रख संतुलित विचार प्रकट करने की कोशिश की है। अक्सर हम देखते हैं कि इस विषय पर लोग प्राय:
एकांगी दृष्टिकोण रखते हैं और मनमाना निष्कर्ष प्रस्तुत कर देते हैं। लेखिका ने दोनों पीढ़ियों के लोगों से बातचीत कर
उनके दृष्टिकोण को समझने का प्रयास किया है।
निष्कर्षतः वे शोभा नायर(युवा लड़की) की बात से ताल्लुक रखती हैं कि हर
माँ-बाप बच्चों की इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते हैं परन्तु वे अपनी पुरानी विचारधारा
के तहत उन्हें शंकालु दृष्टि से देखते हैं। जो गलत है। ऐसे में बच्चे घर से कटने लगते हैं। साथ ही बच्चों को भी चाहिए कि वे माँ-बाप को
अपनी आवश्यकता पूर्ति का साधन मात्र न समझे।
उन्हें चाहिए बस थोड़ा-सा समय और सम्मान।
‘नायिकाओं की उपेक्षा क्यों’ अध्याय में लेखिका इस विषय की पड़ताल
करती हैं कि बॉलीवुड में नायिका प्रधान फ़िल्में क्यों नहीं बनतीं? हिंदी-उर्दू के
जानेमाने लेखक राही मासूम रज़ा से जब उन्होंने ये सवाल किया तो उन्होंने बताया कि
मेल डोमिनेट ट्रेंड व व्यावसायिकता इसके कारण हैं। भारतीय दर्शक अभी तक मारधाड़ करती एक्शन
नायिकाओं को देखने का आदी नहीं है।
हालांकि रिवाल्वर रानी, मेरीकॉम, क्वीन, डर्टी पिक्चर, हाइवे, लंच बॉक्स,
पिंक, थप्पड़, लिपस्टिक अंडर माय बुरका, गुलाबी गैंग, गर्म हवा जैसी कुछ वीमन
सेंट्रिक फिल्मों की सफलता ने संभावनाएं जगाई हैं।
‘क्या आप हरिजन को दामाद बनाएँगे?’ अध्याय में लेखिका समाज की उस
मानसिकता पड़ताल करती है जो सैद्धांतिक तौर पर आधुनिकता व प्रगतिशीलता का दंभ भरते
हैं पर व्यावहारिकता में यदि इस सवाल का सामना करना पड़े तो पुराने सामंती खाँचे
में लौट जाते हैं। कुछ लोगों के लिए प्रगतिशील
होना एक फैशनपरस्ती है। सभा-सोसाइटी व
सेमिनारों में छुआछूत को कोसते हुए भाषण देना, दलितों के बीच उठना-बैठना, उनका
बनाया खाना-पीना यहाँ तक तो ठीक है परन्तु बेटे-बेटी के ब्याह की बात आते ही कुल
कलंकित होने, हुक्का-पानी बंद होने का डर सताने लगता है। जब लेखिका ने इस संबंध में बातचीत की तो उन्हें
मिल-जुले उत्तर प्राप्त हुए। शिक्षा के
कारण लोगों की सोच में परिवर्तन भी देखने को मिल रहा है। हालांकि उन्होंने जिन लोगों को इस बाबत
साक्षात्कार के लिए चुना। वे महानगरों में
रहने वाले एलीट क्लास के लोग है। हालांकि
बात भी उन्हीं लोगों की मानसिकता की हो रही थी।
देहात में तो लोग छुआछूत व जात-पात की बात स्वीकार करते हैं। बड़े शहरों में सहशिक्षा, सहकर्मिता, आधुनिक
जीवन मूल्य, प्रेम संबंधों की स्वीकार्यता के फलस्वरूप जाति के बंधन टूट रहे
हैं। धीरे-धीरे ही सही अब लोग मानने लगे
हैं कि इंसान महत्त्वपूर्ण है जाति नहीं।
‘सूख रहे हैं बरगद’ अध्याय में लेखिका ने बुजुर्गों की सुध ली
है। ‘जग-जग जियो’ या ‘शतायु हो’ के आशिष
कहीं अभिशाप तो नहीं बन रहे। पड़ताल में
सामने आया कि ज्यादातर बुजुर्ग इस बात से पीड़ित दिखाई पड़े कि ‘उनकी कोई सुनता
नहीं’। दूसरा बड़ा इश्यू स्वास्थ्य का
है। संतान सेवाभावी है तो ठीक वरना बुढ़ापा
अभिशाप ही है। आर्थिक कारण भी
महत्त्वपूर्ण कारक है। लेकिन समृद्ध
परिवारों में जहाँ बुजुर्ग नौकरों के हवाले है, वहाँ उनकी चाहत मात्र इतनी-सी है
कि उनके बच्चे कुछ समय उनके पास आकर बैठे, उनकी सुनें।
फिल्मों में अभिनय करने वाले बाल-कलाकारों का जीवन कैसा है? ये
काम वे शौक से करते हैं या मजबूरी से? उनकी शिक्षा का क्या होता है? इन सारे
सवालों के जवाब जानने के लिए लेखिका ने जब उनसे व उनके परिजनों से बात की तो पता
चला कि उनके इस फील्ड में आने का कारण कहीं आर्थिक है तो कहीं स्टारडम का आकर्षण
तो कहीं माता-पिता की अधूरी ख्वाहिशें।
जहाँ माता-पिता जागरूक हैं वहाँ उनकी शिक्षा का भी प्रबंध बराबर चल रहा
है। लेकिन जो आर्थिक कारणों से यह काम कार
रहे हैं वहाँ उन्हें पूरी तरह काम में झोंक दिया जाता है। बेबी स्टार आगे चलकर बड़े स्टार बने ऐसा कतई
जरूरी नहीं। ऐसे में वे गुमनामी में खो
जाते हैं। कुछ का तो पूरा जीवन बर्बाद हो
जाता है।
इस
तरह चित्र मुद्गल की यह पुस्तक अपने नाम को सार्थक करती प्रतीत होती है। तहखानों में बंद सच्चाइयों को पूरी संवेदना के
साथ बाहर लाती है। ‘स्त्री विमर्श’ से भी आगे जाकर ‘जीवन विमर्श’ की पुस्तक बन जाती है। पुस्तक का कैनवास काफी बड़ा है। भाषा सरल, सहज,
प्रवाहपूर्ण है जो मानवीय संवेदनाओं को उभारने में पूरी तरह सक्षम है। सामाजिक क्षेत्र में काम करने का चित्रा जी का
अनुभव पूरी पुस्तक में आद्योपांत दिखाई पड़ता है।
एक भिन्न ढंग के साक्षात्कारों से बुनी गई यह पुस्तक मानवीय गरिमा का पूरा
ध्यान रखती है। स्त्री के मन की अनंत गहराइयों में जाकर इस प्रश्न का जवाब कि ‘औरत
आखिर चाहती क्या है?’ ढूंढकर लाने में उनका स्त्री होना बेहद मददगार रहा। मर्द के लिए पहेली बने इस प्रश्न ‘औरत आखिर
चाहती क्या है?’ का सरल-
सा उत्तर है– औरत चाहती है एक व्यक्ति के रूप में उसकी अदद
पहचान, मानवीय गरिमा के साथ जीवनयापन और थोड़ा-सा प्यार।
सन्दर्भ :
[1] चित्रा मुद्गल : तहखानों में बंद अक्स,सामयिक
पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ 15
[2] प्रियंवद : उस रात की वर्षा में,
संवाद प्रकाशन, मेरठ, संस्करण 2018, पृष्ठ 237
[3][3]
चित्रा मुद्गल : तहखानों में बंद अक्स,सामयिक
पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ 23
[4] प्रियंवद : आईनाघर,संवाद प्रकाशन,मेरठ, 2008, पृष्ठ 265
[5] सं. मनीषा
कुलश्रेष्ठ : कहानियाँ रिश्तों की : प्रेम , राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली,
पृष्ठ 09
[6]
चित्रा मुद्गल : तहखानों में बंद अक्स,सामयिक
पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ 42
[7] प्रियंवद : उस रात की वर्षा में,
संवाद प्रकाशन, मेरठ, संस्करण 2018, पृष्ठ 158
[8]
चित्रा मुद्गल : तहखानों में बंद अक्स,सामयिक
पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ 43
[9]
वही, पृष्ठ 49
[10]
वही, पृष्ठ 55
[11]
वही, पृष्ठ 96
[12]
वही, पृष्ठ 97
[13]
वही, पृष्ठ 103
[14]
वही, पृष्ठ 108
[15]
वही पृष्ठ 133
विष्णु
कुमार शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी, मातुश्री शांताबा हजारीमलजी के पी संघवी राजकीय महाविद्यालय, रेवदर
vishu.upadhyai@gmail.com,
9887414614
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
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