समीक्षा : अलग-अलग भंगिमाओं को समेटता कहानी संग्रह 'गँड़ासा गुरु की शपथ' -डॉ.मधुलिका बेन पटेल

समीक्षा : अलग-अलग भंगिमाओं को समेटता कहानी संग्रह 'गँड़ासा गुरु की शपथ'

डॉ. मधुलिका बेन पटेल         

 

‘गँड़ासा गुरु की शपथ' हाल ही में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित कुन्दन यादव का कहानी संग्रह है। कुल बारह कहानियों वाला संग्रह है यह। 'मजबूती का नाम महात्मा गाँधी' आकार की दृष्टि से सबसे लंबी कहानी है और 'फूलचंद का स्कूटर' सबसे छोटी। सभी कहानियों में मुख्य कहानी के साथ-साथ काशी की अलग-अलग भंगिमाओं को उसी के अंदाज में उकेरा गया है। इस संग्रह की सभी कहानियाँ अगल-अलग परिदृश्य को लेकर सामने आती हैं। सभी में काशी का अलग-अलग रंग समाया है। कुछेक कहानी काशी के बाहर की होते हुए भी भाव और भाषा की दृष्टि से अलग नहीं जान पड़ती। ये कहानियाँ कहीं मजेदार हो जाती हैं 'गँड़ासा गुरु की शपथ' और 'अंवरागेटा और सिरी' कहानी के श्रीनाथ के कॉमिक्स वाचन की तरह और कहीं 'जूता' 'राजा काशी हव' की तरह गला भर देती हैं। सभी कहानियाँ अलग-अलग किस्म की कहानियाँ हैं। रचनाकार ने घर-बाहर, थाना-पुलिस, बालमन, वृद्ध मन, सतही राजनीति, टेलर, स्कूटर, थोथी प्रगतिशीलता आदि को भी अपनी कहानियों में समेट लिया है। कहना न होगा कि उन्होंने सभी भंगिमाओं को बहुत नजदीक से देखा है।

 

'कोतवाल रामलखन सिंह' इस संग्रह की पहली कहानी है। कोतवाल रामलखन की नौकरी की पुनः बहाली के बहाने कटु यथार्थ से सामना होता है। मीटिंग के दौरान रामलखन बताते हैं कि सट्टा-हवाला के खिलाफ एक्शन लेने पर बदली आम बात है। देखिए कहानी का अंश -

“रामलखन सिंह ने इतना ही कहा, "जनाब, मैं आपकी बातों को हल्के में नहीं ले रहा था, लेकिन आपका हुक्म तामील होना सम्भव नहीं है। पिछले साहब भी इसी चक्कर में छह महीने में ही पीएसी में चले गए। इधर और कुछ तो है नहीं। बस, हवाला और सट्टा का ही हिसाब-किताब है। मान लीजिए, हम लोग तो आप के आदेश से संतोष कर लेंगे लेकिन सत्ता पक्ष के बहुत बड़े लोगों की शह है इन चीजों में। अगर हुजूर ने ज्यादा कड़ाई की तो ई लॉबी बहुत पउआ वाली है। समझ लें कि आज की तारीख में उनका कोई कुछ उखाड़ नहीं सकता’’[1]

 

कोतवाल रामलखन द्वारा अपराध रोकने के लिए अपनाए गए नायाब तरीके पढ़ते हुए प्रतीत होता है कि कहानीकार समाज में ऐसे नायाब तरीके स्थापित करना चाहते हैं और वे खुद रामलखन के चरित्र में कनवर्ट हो जाते हैं लेकिन कहानी में आगे बढ़ने पर वे रामलखन को पुनः अपने चरित्र के रूप में गढ़ देते हैं। आखिर, कहानीकार चरित्रों का निर्माता जो होता है। वह अपनी रचना में कभी खुद अपने ही चरित्रों में ढलता है और कभी अपने को अलगा भी लेता है। इस कहानी में रचनाकार कई चुटीले प्रसंगों के बीच गंभीर बात कह जाते हैं जैसे, "मानवाधिकार उनके लिए होता है जो मानव वाला काम करे।"[2] यह इस कहानी का प्राण वाक्य है। इस कहानी में एक अलग अंदाज़ में साफ किया गया है कि पुलिस विभाग अगर दूर तक ईमानदारी पर चलने का प्रयत्न करे तब भी सत्ता के दमखम के आगे उसकी एक नहीं चलती।

 

दूसरी कहानी 'आवभगत' भीष्म साहनी के 'चीफ की दावत' की मुख्य थीम से अलग है लेकिन मेहमान के आगमन पर दावत की तैयारी की हलचलें कुछ-कुछ वैसी ही हैं। कहानी में पहले हिस्से के आवभगत में पति-पत्नी के झगड़े के आपसी संवाद कहानी को मजेदार बनाते हैं। हमारे समाज में हर किस्म के घरेलू झगड़ों में आस-पड़ोस के लोगों द्वारा मजा-मनोरंजन तलाश लिया जाता है। इस कहानी के पहले हिस्से पर विराम तब लगता है जब लड़-झगड़ के पत्नी मायके चली जाती है। अब शुरू होता है कहानी का अगला हिस्सा। जैसे-जैसे कहानी कच्ची पगडंडी की भाँति आगे बढ़ती है, मन हरियर होता जाता है। कैलाश के हृदय की हरियरी सबका मन मोह लेती है। कहानी में छोटा-सा तड़का भी लगा है दारू को भगवद् कृपा मानकर। और हो भी क्यों न, आखिर इसके ऊपर कई निर्णायक फैसले जो टिके होते हैं। बोतल व्यवस्था के बाद कुछ ऐसा राग उत्पन्न होता है कि बोतल पसंदों को 'ब्रह्मानन्द सहोदर' की अनुभूति से सिंचित कर देता है। यहाँ क्यों न बच्चन साहब याद आएं "बैर कराते मंदिर मसजिद/ मेल कराती मधुशाला।"

 

अगली कहानी 'अंवरागेटा और सिरी' में चार मोड़ हैं। पहली एक्सीडेंट वाली घटना, दूसरी जूता लेने वाली, तीसरी कॉमिक्स पढ़ने वाली और चौथी श्रीनाथ के लाचार हो जाने वाली। कहानी का पहला दृश्य शीर्षक की ओर इशारा करता है तभी पाठक को लगता है कि शीर्षक खुल गया है, लेकिन यह खुलता है अंत में। इस कहानी की खासियत यह है कि हर दृश्य पढ़ने के बाद पाठक जब उसके साथ चलने लगता है तभी एक मोड़ आ जाता है और पाठक का सामना दूसरे दृश्य से होता है लेकिन उसे अटपटा या विसंगति-सा कुछ महसूस नहीं होता। कहानी में बनारसियों, विशेषकर पुरुषों की पान के प्रति ललक साफ नजर आती है। पान खाते समय वाक्य की ध्वनि की टाँगें किस प्रकार लड़खड़ाती हैं इससे कहानीकार भली भाँति अवगत हैं। वे इसका जीवंत ध्वन्यात्मक दृश्य दिखाते हैं- ‘‘"श्रीनाथ के मन में एक पल में  पान थूकने का विचार आया लेकिन मुँह में घुलते हुए पान से वे बेरुखी न कर सके। एक तरफ दबाकर तुरन्त पहुँचे और गाड़ी स्टार्ट की। साहब भी बैठ गए और पूछा, "छोटे बेटे का कोचिंग सेंटर देखे हो?" श्रीनाथ ने सिर हिलाते हुए आवाज निकाली, "हूँ।" साहब ने फिर कहा, "वहीं ले चलो और टिफिन बॉक्स रखवा लिया था?" श्रीनाथ कहना चाहते थे, "पता नहीं सोहनवा रखा होगा।", लेकिन उच्चारण निकला, "पड़ा वई वोअवनवा अक्खा वोआ।’’[3] यहाँ फ़िल्म 'तीसरी कसम' में आशा भोंसले द्वारा गाए गए गीत 'पान खाये सैयां हमारो... साँवली सुरतिया होठ लाल लाल हायss हायss मलमल का कुरताss मलमल के कुरते पे छींट लाल लाल' जैसा मनोहारी मामला नहीं है, बल्कि वुडलैंड के जूतों से खार खाये साहब पान खाने के कारण श्रीनाथ का निलंबन का आदेश निकाल देते हैं। कहानी में लेखक ने एक और जरूरी बात की ओर इशारा किया है। बड़े शो रूम के ड्यूटी बॉय के यह कहने कि 'इस शो रूम का सामान आप जैसों के लिए नहीं है।’ दरअसल, यह एक बीमार मानसिकता का लक्षण है कि गरीब या साधारण दिखने वालों के साथ बातचीत में तुच्छता जाहिर करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है।

 

अगली कहानी है 'गँड़ासा गुरु की शपथ' जिसका शीर्षक कहानी संग्रह का शीर्षक भी है। कहानी अपने चुटीले अन्दाज में आगे बढ़ती है। गजाधर तिवारी को मिली 'गँड़ासा गुरु' की उपाधि से कहानी का प्रारम्भ होता है। कहानी का सिरा पकड़कर जैसे ही आगे बढ़ते हैं वैसे ही दो दृश्य आकर्षित करते हैं। हममें से अधिकांश जन इससे अवगत हैं। वैसे तो दोनों बातें आम हैं लेकिन कहानी में आ जाने से खास लगती हैं। पहला- गाँवों में बेवकूफी भरे साहस भी चर्चा के विषय बन जाते हैं। "डॉक्टर को यह निहायत बेवकूफी भरी करतूत लगी लेकिन गजाधर बाबू की हिम्मत की चर्चा आसपास के गाँवों में फैल गयी और लोग उनको 'गँड़ासा गुरु' कहने लगे।"[4]

 

दूसरी बात, पुलिस का घटनास्थल पर अत्यधिक हो-हल्ला मचाते आना- "जुए के संचालन को लेकर गाँव के कई लोगों ने उनकी शिकायत की लेकिन पुलिस कभी नहीं आई। जब आई भी तो इतना हो-हल्ला मचाते हुए आई कि जुआरी समुदाय पहले ही सचेत हो गया और पुलिस दल 'गँड़ासा गुरु' के यहाँ जलपान आदि करके लौट गया।"[5]

 

कहानी के अन्तिम हिस्से में क्लाइमेक्स है लेकिन पूरी कहानी में कहीं भी शिथिलता नहीं है। क़दम-क़दम पर जुआरियों द्वारा अपना गए दाँव-पेंच ज्ञात होते हैं। इस कहानी में उस विडम्बना की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है कि जो कार्य क़ानून की नजर में गुनाह है उसे अलग जामा पहनाकर खुलेआम उसे वैध घोषित कर दिया जाता है। यहाँ तक कि उसे महज वैधता का प्रमाण-पत्र ही नहीं प्रदान किया जाता है वरन क़ानून के पैरोकारों के हाथों ही उसे करवाया भी जाता है। "गँड़ासा गुरु ने घोषणा की, अब माननीय डीएम साहब और माननीय विधायक जी, महादेव जी और माता पार्वती के रूप में द्यूत क्रीड़ा में भाग लेंगे।"[6] इस कहानी का शीर्षक पढ़ते ही कौतूहल उपजता है 'कौन हैं गँड़ासा गुरु'?, क्या है उनकी शपथ और क्यों? लेकिन पाठक को इतना अनुमान अवश्य हो जाता है कि जरूर किसी मजेदार प्रसंग का लिफाफा खुलने वाला है गँड़ासा गुरु के बारे में और कहानी पढ़ने के बाद अनुमान के मुताबिक हास्य-व्यंग्य व यथार्थ के तमाम दाँव-पेंच पारदर्शी हो जाते हैं।

 

'जूता' कहानी बाल मनोविज्ञान की कहानी है। इसमें जूते के बहाने बालक सार्थक में होते बदलावों की कहानी कही गई है। यह कहानी पाठक के मर्म को छूती है। ग्रामीण इलाके के प्राथमिक विद्यालय में गरीब विद्यार्थियों के साथ सार्थक अपने-आप को साफ-सुथरे, कपड़े-जूते, टिफिन, वाटर बॉटल से लैस पाकर असहज महसूस करता है। उसे लगता है कि उसके और उसके साथियों के बीच एक दीवार है जो उनसे घुलने-मिलने में बाधा बन रही है। यह कहानी पढ़ते-पढ़ते 1980 ई. में सई परांजपे के निर्देशन में बनी फिल्म 'स्पर्श' याद आ जाती है जहाँ नवजीवन अंध विद्यालय के दृष्टिहीन छात्रों के बीच एक सामान्य छात्र पपलू अपने आप को उपेक्षित समझ कर अंधा बनना चाहता है।

 

'जूता' कहानी अपने किस्म की बिलकुल अलग कहानी है। इसकी खास खूबी यह है कि कहानी पढ़ते-पढ़ते पाठक स्वयं सार्थक में कब तब्दील हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। वह सार्थक द्वारा अन्य छात्रों के साथ की जाने वाली मस्ती को महसूस करने लगता है। "अब वह पूरी मस्ती से अपने बाल-सखाओं के बीच विद्यालय के दौरान पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद कर पा रहा है। कभी कबड्डी खेल रहा है तो कभी खो-खो, कभी ओल्हा-पाती तो कभी आइस-पाइस, कभी नंगे पाँव फुटबाल तो कभी गुल्ली-डंडा। कभी वह किसी सहपाठी के खेत से गन्ने चूसता, कभी ताजा गुड़ खाता, कभी किसी के घर से आई दही या मट्ठा आदि का स्वाद लेता। कभी शाकाहारी होते हुए भी तालाब में मछली मारने वालों की डंडी पकड़ कर बैठता तो कभी पुआल के ढेर पर उछलता-कूदता या फिर किसी पेड़ पर चढ़कर फल खाता।"[7] अब ऐसी मस्ती भला किस पाठक ने न की होगी। कहानी के आखिरी हिस्से में पहुँचते-पहुँचते पाठक भी भावुक हो जाता है ठीक बालक सार्थक की तरह।

 

संग्रह की अगली कहानी 'दादी के दीनानाथ' वृद्ध की मनोदशा को लेकर लिखी गयी कहानी है। शुरुआत में कहानीकार ने तफसील से पूरे खानदान का परिचय दिया है। पारिवारिक बँटवारे के समय एक बड़ी विडंबना को इन शब्दों में उकेरा गया है, "घर का बँटवारा हुआ, नकदी व गहने के साथ बर्तन भाड़े भी बाँट दिए गए। अगर दादी कोई वस्तु होती तो उनका भी बँटवारा हो जाता लेकिन दादी में जान बसती थी और जान बाँटी नहीं जा सकती।"[8] बँटवारे के बाद वृद्धों को बँटा हुआ दाना-पानी मिलता है। इस महीने इनके यहाँ, उस महीने उनके यहाँ।

 

कुछ लोग वृद्धों की सेवा इस लालच में करते हैं कि उनके पास पुराने गहने, पैसे वगैरह होंगे जो उनके मरने पर उसी के हो जाएँगे। इसलिए गाँवों में आज भी वृद्ध अपने पास कुछ गहने, पैसे, पेंशन वगैरह छुपा के रखते हैं। इस कहानी में दादी भी खजाने का रहस्य बनाकर रखना चाहती है। दरअसल, वृद्धों को यह ज्ञात होता है कि अगर उनके पास कुछ जमा-पूँजी न हुई तो बुढ़ापे का सहारा कोई न बनेगा। अधिकांश परिवार के सदस्य इस लालच में वृद्धों का सहारा बनते हैं अन्यथा बिलबिलाते वृद्धों की संख्या में कोई कमी नहीं है।

 

हालाँकि, गाँवों में वृद्धों को वृद्धाश्रम भेजने की रवायत अभी नहीं आई है तथापि एक बेटे से दूसरे बेटे के यहाँ भेजी जाने वाली रवायत खूब है।  इसके साथ-साथ के कभी-कभी तो सबसे तंग आकर वे खुद ही काँपती ठठरियों को हिला-डुलाकर खाना पकाती हैं। इस कहानी में दादी के खजाने का रहस्य बनाए रखने के पीछे समाज के लालच की बहुत बड़ी सचाई को उजागर किया गया है। इसके अलावा दादी का यह कथन जो खाट पर पड़े-पड़े निकलते रहते हैं, "हे दीनानाथ! कितने दिन और रुकना है; उठा ले हमको हे नाथ! एक बार हम पर भी रहम करा।...कौन जनम का सजा भोग रहे हैं।"[9] यह लगभग सभी अति वृद्धों का कथन है खासकर, महिलाओं का। कहानी में ज्ञात होता है कि दादी मन ही मन अधिक जीना चाहती थी। यह यथार्थ है कि लोग जैसे-जैसे वृद्ध होते चले जाते हैं, उन्हें अधिक जीने की लालसा बढ़ती चली जाती है, कम से कम अपने नाती-पोते का मुँह देखने या शादी-ब्याह देखने की खातिर। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि वृद्ध जब अतिशय अशक्त हो जाते हैं फिर भी उनमें मरने या आत्महत्या जैसा विचार नहीं आता, नवयुवकों की तरह। कारण कि वे मानसिक रूप से सबल होते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि वे(वृद्ध महिलाएँ) ऐसा कहती क्यों है? इसके पीछे दो कारण नजर आते हैं। एक, वे अपनी थकती, दुखती, अशक्त देह के कारण इस प्रकार भगवान को याद करती हैं। दूसरा कारण यह है कि उन्हें ज्ञात होता है कि परिवार के अधिकांश जनों को वे नहीं सुहाती, खासतौर पर उनकी बहुओं को। यह बात गॉंवों में आम है। यहाँ तक कि वृद्धों के सामने परिवार-समाज के अधिकांश जन मजाक में ही सही, लेकिन यह कहते मिल जाएँगे कि 'इनकर जिनगी पूरै होत ह' या 'केतना दिन अउर जियब 'या फिर 'बस पड़ल-पड़ल खात बाड़'। अब ऐसे में वृद्धों को अपने होने का अपराध बोध-सा होने लगता है और वे अपने को ले जाने के लिए ईश्वर से अरदास करने लगते हैं, लेकिन सबको सुना कर।

 

कहानीकार ग्रामीण इलाके की एक महत्त्वपूर्ण बात नोट करना नहीं भूलते। दवा विक्रेता को लोग डॉक्टर साहब कहते हैं। यहाँ तो लोग दवा से किसी भी प्रकार जुड़े व्यक्ति को डॉक्टर समझते हैं, दवा-विक्रेता तो फिर भी डॉक्टर की लिखावट पढ़ लेता है। इस संग्रह में बनारसिया समाज को इतनी बारीकी से देखा गया है कि कहानियों में कई ऐसे वाक्य मिल जाएँगे जो डिक्टो बनारसियों के मुँह से निकलती हैं। एक ऐसा ही अंश देखिए-"सीखो आनन्द से कि माता-पिता और बड़ों की सेवा का कितना पुण्य मिलता है! देखना, वह फर्स्ट क्लास पास होगा क्योंकि उसे इतना बड़ा आशीर्वाद जो मिल रहा है...तुम लोग भीख माँगोगे और उसको नौकरी भी मिल जाएगी।"[10]  यह बड़ी विडंबना है कि फर्स्ट क्लास पास होने के लिए पुण्य और आशीर्वाद की आवश्यकता समझी जाती है।

 

कुन्दन यादव की कहानियों की भाषा में भाव, ध्वनि और दृश्य एक साथ उपस्थित हैं। इसकी एक बानगी 'भगेलू सिंह' कहानी के शुरुआत में ही दृष्टव्य है, "रामनगर किले पर तैनात पीएसी के क्वार्टर गार्ड के जवान ने शाम के चार बजने की सूचना पीतल के घण्टे को चार बार बजाकर दी। तभी चुंगी पर आते दिखे भगेलू सिंह। सफेद लुंगी और गंजी पहने। सहेबन धोबी की दुकान पर दो मिनट के लिए रुके, कुछ खादी के कुर्ते और धोतियाँ इस्तरी करने को दीं और लल्लन की पान की दुकान पर आ एक पान खिलाने को कहा, और फिर मौसम को कोसते हुए इन्द्रदेव को एक मीठी गाली दी और बगल के पत्थर पर बैठ गये।"[11]

 

'भगेलू सिंह' कहानी में झूठी शान के भूखे व्यक्तियों की कारगुजारी को तफसील से उकेरा गया है। नेता चाहे पद पर हों या न हों नेतागिरी नहीं छूटती। भगेलू सिंह ऐसे ही नेता हैं।अपने एरिया में अपनी धौंस बनाये रखने के लिए व्यक्ति क्या-क्या कर सकता है यह इस कहानी से ज्ञात होता है। ऊपर से वह व्यक्ति बनारसी हो तो फिर क्या कहना। वह है ही हरियरी के बीच लाल मिर्च। पका बनारसी जानता है सेर के सामने सवा सेर बनकर कैसे उसे पटखनी देनी है। बनारसी मुँह में पान ही नहीं घुलाता, न्यूयार्क स्यूयार्क को भी घुलाकर पिच्च से थूक देता है। कम से कम शो तो ऐसा ही करता है। दूसरों को अपने आगे बच्चा साबित करने की कला में ये माहिर होते हैं। कहानी का एक दृश्य, "भगेलू सिंह ने रघुनाथ से चाय के लिए बैठने को कहा और जयराम से बोले, "अबे खाली चाय पिलाओगे? अपना बच्चा इतने दिन बाद आया है, चल कुछ नाश्ता ले आ।" जिला अध्यक्ष के लिए 'बच्चा' संबोधन पर पाठकगण अवश्य ध्यान देंगे। अपनी शान बरकरार रखने के लिए भगेलू सिंह द्वारा किये गए उधातम पढ़कर मजा आता है। इस कहानी से अभिनेता अजय देवगन की फिल्म 'दृश्यम' याद आती है। इस फ़िल्म के निर्देशक निशिकांत कामत हैं। बहरहाल, दोनों की कहानी में बहुत अंतर है किन्तु दृश्य दिखाने की कलाबाजियाँ बिल्कुल एक-सी लगती हैं। यह समाज दृश्य देखने का इतना आदी है कि जो न दिखे, वह उसे भी देख लेता है। कन्हैया हलवाई ने भगेलू सिंह को टीवी तक में देखने की बात  समाज में ठीक वैसे ही प्रचारित की जैसे गाँव के बड़े-बूढ़े भूत को उठाकर पटक देने या फिर उसे सुर्ती-चूना देने की बात बताते हैं।

 

'मजबूती का नाम महात्मा गांधी' कथन एक सूक्त वाक्य की तरह है जो अगली कहानी का शीर्षक है। इस वाक्य को प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल के व्याख्यान और लेखन से लिया गया है। मेरी अध्ययन की सीमा के अनुसार इस वाक्य पर यह पहली कहानी है। इस कहानी में समाज के सड़े रूप से लड़ने के लिए गांधी जी का सहारा लिया गया है। इसमें समाज का भयावह रूप महेन्दर सिंह के स्वप्न में उभरकर आता है। यह अंश पाठक को उसे पुनः पढ़ने के लिए रोक लेता है। "मदिरा के नशे में चूर अट्टहास करता हुआ जातिवाद उनकी बेटी को बार-बार भाले से कोंच रहा है और वह छटपटा रही है। प्यास से पानी माँग रही है। शैलेश थोड़ी दूर पर पानी का गिलास लिए खड़ा है, लेकिन छुआछूत जो कि जातिवाद का भाई है, शैलेश के ऊपर ख़ंजर से आक्रमण करता है और पानी का गिलास फेंक देता है। फिर शैलेश का खून पीकर अट्टहास करते हुए उछलता है और जातिवाद मीना के बालों को पकड़कर घसीटते हुए उसे अन्धे कुएँ में लटकाने जा रहा है। महेन्दर अपने घर से लाठी-भाला लेकर बेटी की रक्षा करना चाहते हैं, लेकिन उनका पूरा गाँव एक साथ उनको दबोच कर उनको रोक लेता है। पत्नी छाती पीट रो रही है और वह खुद चिल्ला रहे हैं, रो रहे हैं लेकिन सब हँस रहे हैं।

 

परम्परा खून के छीटों वाली सफेद साड़ी में नाच रही है। उसके हिंसक तांडव के बाद परंपरा का पति रिवाज आ करके सभी गाँव वालों को शाबाशी देता है और इसके साथ चेतावनी भी देता है कि तुम लोग भी अगर हमारी क़द्र नहीं करोगे तो हमारे सैनिक और सिपहसालार तुम्हारे बच्चों का यही हाल करेंगे-हा-हा-हा-हा!"[12] कहानी में जो स्वप्न है, वह इस समाज का कठोर, वीभत्स यथार्थ है।

 

आज भी कुछ अलग करने वाले व्यक्तियों पर समाज का भय हावी है; क्योंकि समाज उनके प्रति हिंसक हो उठता है। भले ही किसी की हानि न हो फिर भी अलग करने वाले व्यक्तियों को घेर कर उनकी जघन्यतम हत्या तक कर दी जाती है। आश्चर्य है कि ऐसा समाज जितना प्रेम करने पर आक्रोशित होता है, उतना लूट, शोषण, अन्याय व हत्याओं आदि पर कभी नहीं। यह समाज अपने स्वार्थों के लिए उसी नियम-कायदों में किस तरह की ढील दिए हुए होता है इसकी एक बानगी देखिए- "सरपंच ने चीख कर कहा, "पागल मत बण महेन्दर। संतों, फकीरों और डॉक्टरों की जात नहीं देखी जाती।"[13]

 

'उल्टे बाँस बरेली' कहानी शुरू से ही बाँधती चलती है बिलकुल ट्रेन की यात्रा की तरह। खुद हिन्दी मीडियम से पढ़ने वाले माता-पिता अपने बेटे या बेटी के हिन्दी न जानने पर गर्व महसूस करते हैं। इसे कहानी के शुरुआत में ही दिखाया गया है। भाषा न जानने पर गर्व! बड़ी विडंबना है। इसके बाद जैसे-जैसे ट्रेन आगे बढ़ती है वैसे कहानी और उसी तरह रामसरन की प्रगतिशीलता के लच्छेदार भाषण। उसमें तो पाठक बिल्कुल खो सा जाता है। उसकी तन्द्रा काफी दूर चले जाने पर सहसा झटके के साथ भंग तब होती है जब रामसरन के साथ खाने वाले सहयात्री के डोम होने का पता चलता है। जैसे रामसरन सहयात्री के डोम होने का अनुमान नहीं लगा पाता ठीक उसी तरह पाठक को भी इस बात की ज़रा भी भनक नहीं लगती। उसे भी रामसरन के साथ ही पता चलता है। कहानी का क्लाइमेक्स यही है। उसके बाद रामसरन की थोथी प्रगतिशीलता टिफिन की तरह ट्रेन में ही छूट जाती है और यथार्थ 'सहयात्री' संबोधन वाले व्यक्ति के साथ स्टेशन पर उतर जाता है।

 

अगली कहानी 'देशभक्ति में फिजियोथेरेपी' 1980 के दशक में ले जाती है। दूरदर्शन युग, जिसमें कोई जल्दीबाजी न थी। टेलीविजन के लिए गजब का सात्विक क्रेज था। सात्विक इसलिए कि स्वस्थ प्रसारण को लोग स्वस्थ मन से ग्रहण करते थे। तब मोबाइल सृजित तनाव न था। बाकी कहानी में वर्णित पुलिसिया व्यवहार तो जग-जाहिर है ही। बात साफ है 'करैत और पुलिस से नजदीकी ठीक नहीं होती' ऐसा इस कहानी को पढ़कर ज्ञान उत्पन्न  होता। है। इसमें कई अलग तरह के प्रसंग हैं जैसे कौआ भगाने के लिए पिस्तौल की फायरिंग और मारपीट के खिलाफ फरियाद लेकर आए हुए आदमियों की ही डंडे से पिटाई और केस का निपटारा।

 

अगली कहानी 'फूलचंद का स्कूटर' पढ़कर हँसी आती है, लेकिन फूलचंद का दु:ख भी देखा नहीं जाता। दरअसल, जब अपनी वस्तु पर आस-पड़ोस के लोग अधिकार जमाने लगें तो ऐसा ही मानसिक दु:ख होता है और अधिकार जमाने वाले व्यक्ति थेथर हों तो यह दु:ख कई गुना बढ़ जाता है। कहानी के शुरुआत में ही कहानीकार ने बता दिया है कि 'लोग हजार लड़ाई-झगड़े के बावजूद परंपरा और मरजाद को लेकर व्यावहारिक थे। लोगों के आपसी सम्बन्ध ऐसे थे कि एक-दूसरे पर अपना हक समझते थे।'[14] यहाँ तो मोहल्ले की बात है, लेकिन गाँवों में यह भावना अभी भी बरकरार है। अपने खेत में मूली या चने की साग न हो तो बगल के खेत से साधुभाव से उखाड़ ली जाती है। मटर, चने, तरकारी या फल किसी की ज़मीन में हों पूरा गाँव उसे अपना समझता है। इसी तरह फूलचंद का स्कूटर भी आस-पड़ोस के लोगों द्वारा उनका समझा जाता रहा। बात यहीं तक नहीं रुकती। एक तो मना करने पर लोग मानते नहीं, ऊपर से लोगों की भीड़ में उस बात को इतनी कला से कहेंगे कि मना करने वाला व्यक्ति ही शर्मसार हो जाये। थेथरई का उत्कृष्ट नमूना देखना हो तो कहानी का यह अंश देखें - "अमरनाथ इस बीच स्कूटर खड़ा कर के मुसकुराते हुए पान घुलाता रहा। तब तक कई लोग गली में जमा भी हो गए। जब फूलचंद कुछ शान्त पड़े तो उसने नाली में पीक थूकते हुए कहा, "बस होय गयल तोहार भाषण? ई नौटंकी बन्द करबा कि अउर गरजे के हव?" फिर उसने जमा लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा, "देखा एनके सब लोग! सरवा मँगनी के स्कूटर पे एतना गुमान! पर्चा लगावलन कि जे एनकर स्कूटर छुई, उ हरामी हव। अब बतावा, चच्चा के गाली देवे से भतीजवन के बुरा लगी भला? और ओइसे दिन भर हमने के उल्टा सीधा कहत रहलन, ओकर कउनों हिसाब ना हव। और रहल बात स्कूटर छुए क, त भला गइला इंजीनियरवा के यहां से के ले के आयल एके? तोहैं ड्राईविंग हम सिखइली और हमारे ऊपर गुर्रात हउआ? फाइनल बात सुन ला- हमें तोहरे गरियइले से कौनों दिक्कत ना हव। चच्चा हउआ, तोहार हक हव गरिआवे क। और हाँ, स्कूटर बदे तू मना नाहीं कर सकतआ। तोहार ड्राइविंग गुरू होए के नाते हम जब चाहब तब ले जाब। इहै हमार गुरू-दक्षिणा हव।" फिर उसने लक्ष्मण को देखते हुए कहा, "कहो चच्चा, गलत कहत हई?"[15]

 

'राजा काशी हव' इस संग्रह की अंतिम कहानी है। इसे पढ़कर टेलर के पास जाने और तय समय पर सिले कपड़े न मिल पाने वाले व्यक्तियों का दु:ख उभर आता है। यह आम बात है कि एक बार टेलर को कपड़ा दे दो फिर दौड़ारी पर दौड़ारी। कपड़ा टेलर भरोसे। पहले कपड़ा देने वाला बताता है कि कपड़ा कब चाहिए। उसके बाद टेलर बताता है कि कपड़ा मिलेगा कब, लेकिन इस कहानी में मोड़ है। जिस टेलर के प्रति शुरू में पाठक खीझता है, उसके प्रति अन्त में कहानीकार भरे दिल से कृतज्ञता दिलवा देते हैं। आखिर कहानीकार की लेखनी शुरू में ही सब कुछ थोड़े ही बताएगी। पाठक कहानी की पंक्ति को पगडंडी की भाँति पकड़कर यात्रा करता है तब जाकर उसे ज्ञात होता है कि असल मोड़ कहाँ है। 'राजा काशी हव' शीर्षक की परतें अंत में खुलती हैं।

 

अब बात इस संग्रह की भाषा पर। सभी कहानियों में बनारसी भोजपुरी का ताना-बाना है। इस इलाके के लोगों को भाषा के कारण ये सभी कहानियाँ अधिक आकर्षित करती हैं। काशी की भाषा, संस्कृति, जीवन-शैली, ठाठ, सुथरई, थेथरई की अदा इन कहानियों में सर्वत्र बिखरी है या यों कहें कि कहानी की बुनियाद भी यही है। इनमें कोई हड़बड़-धड़बड़ नहीं मची है। सब कुछ बनारस के बनारसीपन के चाल में चलता है। इन कहानियों को पालिश मार कर चमकाया नहीं गया है। ये अपने ठेठ, भद्दर, खद्दर अन्दाज में हैं। इनकी भाषा में लोक प्रचलित कहावतें हैं। एक कहानी में कम से कम एक कहावत। उदाहरण के लिए - 'कोतवाल के पेशाब से चिराग जला करते हैं' (कोतवाल रामलखन सिंह), 'चना-चबेना-चबेना गंगाजल जो पूरवे करतार, काशी कबहूँ न छाँड़िये  विश्वनाथ दरबार'(आवभगत), 'माई करे कुटौनी-पिसौनी, बेटवा के नाम हव दुरगादास' (अंवरगेटा और सिरी), 'पुलिस वालन पे भरोसा और कीरा के बिल में हाथ नायल एक बराबर हव' (गँड़ासा गुरु की शपथ), झोली में घास नाहीं, सराई में डेरा'(उल्टे बाँस बरेली), डल्लू में डेढ़सेरा' (उल्टे बाँस बरेली), 'बात कहीं हम छर्रा, गोली लगे चाहे छर्रा' (उल्टे बाँस बरेली), 'सब धान बाईस पसेरी' (देशभक्ति में फिजियोथेरेपी) आदि।

 

काशी की ज़मीनी भाषा पर मजबूत पकड़ है कहानीकार की या यों कहें कि उनकी लेखनी बखूबी जानती है कि खिसियाई औरत के मुखवृन्द से 'मुँह फुकौना', 'दढिजरौनू' गाली ही निकलती है। पुरुषों की जुबान पर 'ससुरा' बगैर काम नहीं चलता। विख्यात है कि काशी में बिना गाली पड़े तो शहर के कोतवाल भी नहीं रह पाते। गाली यहाँ की भाषा में वैसे घुली है जैसे खाने में नमक। मानना यह है कि इससे जीवन में मिठास बढ़ जाती है। अपनी कहानियों में रचनाकार कुन्दन यादव ने आद्योपांत इसका ख्याल रखा है। उनकी कहानियों के ये हिस्से आते ही 'काशी का अस्सी' बरबस याद आ ही जाता है। काशीनाथ जी ने तो बता ही दिया है कि काशी में किसे-किसे गाली पड़ सकती है। फिर कुन्दन यादव काशी की कहानी लिखते तो इस परम्परा को भला छोड़ कैसे सकते थे। यदि छोड़ देते तो भाषा बेजान होती और ये कहानियाँ इहाँ की न होकर उहाँ की मालूम पड़ती। चौथी कहानी के शीर्षक को इस संग्रह का शीर्षक भी बनाया गया है। अपने आकर्षक, चुटीले और नयेपन को समेटे 'गँड़ासा गुरु की शपथ' संग्रह पाठक को खूब आकर्षित करता है। कुल मिलाकर काशी और उसके आसपास के इलाकों के जीते-जागते जीवन-यथार्थ को बड़ी बारीकी से इस संग्रह में उकेरा गया है।


सन्दर्भ :


[1]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 10

[2]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 14

[3]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 51

[4]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 60

[5]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 61

[6]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 71

[7]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 79

[8]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 85

[9]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 84

[10]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 88

[11]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 93

[12]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 113

[13]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 127

[14]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 159

[15]गँड़ासा गुरु की शपथ : कुन्दन यादव; राजकमल प्रकाशन, दरियागंज , प्रथम संस्करण ,पृष्ठ 165

 

डॉमधुलिका बेन पटेल

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरुवारूर

    ben.madhulika@gmail.com


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR

UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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