संस्मरण : एक मुख्य अतिथि की दास्तां
अनन्त भटनागर
एक साल पहले की बात है। एक बुजुर्ग सज्जन का, जिनसे सामाजिक कार्यक्रमों में मेल मुलाकात के कारण मेरा परिचय था, फोन आया और उन्होंने आग्रहपूर्वक अपनी संस्था के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। यूँ बढ़ती उम्र के साथ कुछ संस्थाएँ मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित करने लगी हैं मगर मुझमें अभी मुख्य अतिथि बनने का इतना शउर नहीं आया है कि उन्हें डायरी देखकर बाद में बताने का रौब डालूँ। उनका आग्रह प्रबल था और कुछ यश लिप्सा भी रही होगी, मैंने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। मगर, जिस दिन कार्यक्रम था मुझे अचानक शहर से बाहर जाना पड़ा। जल्दबाजी में बदतमीजी भी ऐसी हुई कि मैं उन्हें अपनी असमर्थता से अवगत करवाना भूल गया। कार्यक्रम के समय जब वे फ़ोन कर रहे थे, मैं उदयपुर था। इस तरह की बेअदबी के बाद कायदे से उन्हें मुझे आगे कभी नहीं बुलाने का संकल्प ले लेना चाहिए था। मगर पता नहीं उनके स्नेह की डोर मेरे लिए बड़ी मजबूत थी, उन्होंने जरा भी इस बात का बुरा नहीं माना और न ही बात होने पर कोई रोष प्रकट किया, बल्कि कुछ दिन बाद फिर से मुझे अपनी संस्था के कार्यक्रम में आमंत्रित किया। मैं इस बार भी नही जा पाया मगर इस बार उन्हें सूचित नहीं करने की भूल नहीं की।
उन सज्जन की सदाशयता के सागर को क्या उपमा दी जाए, वह लगातार की जा रही धृष्टता से जरा भी विचलित नहीं हुए, पाँच-छह महीने बाद उनका फिर से फोन आया और कहा कि आपको इस बार कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में आना है। साथ ही यह भी कहा कि सांसद महोदय मुख्य अतिथि हैं। मैं सहमति की उहापोह में था कि उन्होंने एक और ईमानदारी भरी स्वीकारोक्ति करी। बोले सांसद का तो क्या भरोसा आएँ, नहीं आएँ। अगर वो नहीं आए तो आप ही मुख़्य अतिथि बन जाओगे। इस टिप्पणी पर हँसी भी और गुस्सा भी मगर मैंने उनकी बुजुर्गियत का सम्मान करते हुए, कॉलेज की परीक्षाओं में व्यस्तता के बहाने से उन्हें टालने की कोशिश की। मगर वो टस्स से मस्स नही हुए। मुझे हाँ करनी ही पड़ी। यह कोरोना आने व पहली बार लॉकडाउन लगने के बीच का संक्रमण काल था। सख्ती नहीं थी किन्तु सावधानी की सलाहों से बाज़ार गर्म था। कार्यक्रम की निर्धारित तिथि पर उन्हें उनके साथियों ने समझाया कि इस परिस्थिति में कार्यक्रम करना उचित नहीं रहेगा। कार्यक्रम स्थगन की सूचना देते हुए फोन पर भी उनकी उदासी समझ आ रही थी। मेरे मन ने मन ही मन राहत की साँस ली।
मगर राहत और चाहत का कभी-कभार ही जोड़ बनता है। मेरी राहत से उनकी
चाहत बड़ी थी। चार-पाँच महीने गुजरे होंगे कि उनका पुनः आग्रह भरा फ़ोन आया और उन्होंने
इसबार एक प्रतिष्ठित होटल में आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनने का हठ किया।
मैंने उन्हें विनम्रता से समझाया कि आपका हमारा संयोग नहीं बैठ पा रहा, कृपया आप मुझे रहने दें। मैंने यह भी
कहा कि आप जिस धार्मिक किस्म की संस्था में हैं उसके विषय में मेरा ज्ञान लगभग
शून्य है और मेरी इनमें दिलचस्पी नहीं है। मगर मानो उन्होंने तय ही कर रखा था कि
एकबार तो इस व्यक्ति को अपने कार्यक्रम में बुलाना ही है। वे नहीं माने। मुझे एक
सज्जन बुज़ुर्गवार को तैश में मना करना खल भी रहा था। मैंने कोरोना का सहारा लेते
हुए बहाना किया कि अभी खतरा टला नही है। उनके पास उत्तर था- बहुत कम, चयनित लोगों को ही बुलाया है और बैठक
व्यवस्था भी ऐसी की जाएगी कि संक्रमण का खतरा नहीं रहेगा। पाँच-छह महीने की
पाबंदियों के कारण मेरा मंचस्थ होने का सिलसिला भी टूट गया था शायद कुर्सी-कामना
ने भी जोर मारा होगा; अंततः मैंने उन्हें हाँ कह दी।
मैं यह
बात दावे से कह सकता हूँ कि मैं भुलक्कड़ नहीं हूँ और ना ही मेरी इतनी उम्र हुई है
कि भूल जाने के बाद भी अपनी पुरातन अकड़ से कहूँ कि मुझे सब याद रहता है। बहरहाल इस
किस्से में न जाने क्यों याददाश्त ने धोखा देना तय कर रखा था। कार्यक्रम की शाम मैं
गहरी नींद में था कि उन सज्जन का फोन बजा, आप आ रहे हैं ना? पाँच बजे आना है।
मैंने मोबाइल में ही समय देखा पाँच बज रहे थे। मैंने कहा अब रहने दीजिए- पाँच तो बज
चुके हैं। मगर वो कहाँ मानते, बोले, साढ़े पाँच आ जाओ। संयोग-दुर्योग आप पूरा पढ़ने के बाद तय
करना, मुझे फिर
से झपकी आ गई। अब छह बजे फोन बजा। अपने आप पर बड़ी कोफ्त आई। उन्हें रास्ते में ही
होने का आश्वासन दिया और तुरंत तैयार होकर दौड़ते-भागते सवा छह बजे कार्यक्रम स्थल
वाली होटल पहुँच गया।
होटल
के स्वागत द्वार पर आरक्षक ने बड़े प्यार से सैनिटाइजेशन संस्कार करवाया और फिर किंचित
मुस्कान से पूछा- "प्रोग्राम में आये हैं?" मेरे चेहरे पर स्वीकृति का भाव पढ़ते हुए
उसने मुझे हॉल का रास्ता दिखला दिया। मैंने प्रवेश करते ही देखा कि भव्य हॉल में एक
ओर एक मेज के आगे संस्था के नाम का बैनर लगा है और उसके पीछे वे बुजुर्ग, एक अन्य सज्जन तथा एक महिला विराजमान
है। उनकी लम्बवत दिशा में माथे पर पटका बाँधे एक व्यक्ति ढोलक लिए भजन गा रहा है।
हॉल में साठ-सत्तर कुर्सियाँ रखी हैं जो श्रोताओं के लिए हैं और वे सभी पूर्णतः
रिक्त हैं।
मेरे प्रवेश करते ही भजन गायक का स्वर ऊँचा हो गया- "तूने
मुझे बुलाया शेरावालिये।" मुझे आते देख कर संयोजक जी ने हड़बड़ी में कहा चीफ
गेस्ट आ गए। गायक को मजबूरी में रुकना पड़ा। मैं मंच पर बैठा कि उसकी बंदी स्वरधारा
फिर से फूट पड़ी। उसने भजन पूरा समाप्त किया। अब कार्यक्रम शुरू होना था। सज्जन कान
में फुसफुसाए कि होटल मालिक बहुत सज्जन हैं, हमें यह शानदार जगह मुफ्त में उपलब्ध
करवाई है। वो भी कार्यक्रम में आज गेस्ट हैं, आप चीफ गेस्ट हो। वेटर को भेज उन्होंने
होटल मालिक को बुलाने का आग्रह किया। वो आते तब तक गायक और वहाँ उपस्थित महिला ने
भजन की युगल स्वर लहरी छेड़ दी। इस बीच होटल मालिक वहाँ आ गए। अब मंच पर हम चार लोग
हो गए। लम्बवत दिशा में गायक और वह महिला। हमारे सामने शून्य श्रोता।
मैंने उनसे कहा, कोई बात नहीं, कार्यक्रम बाद में कभी रख लेना, हम फिर कभी मिलेंगे। मगर यह कैसे संभव
हो सकता था, नाश्ता
और मालाएँ खरीदे जा चुके थे। आखिर, उन्हें काम में नहीं लेना, उन वस्तुओं का अपमान होता। दो मालाएं
होटल मालिक को पहनाई गयी और दो मुझे। मैं मुख्य अतिथि था, इसलिए एक बची हुई माला वहाँ उपस्थित
महिला द्वारा मेरे हाथों को भेंट की गई। संयोजक सज्जन ने बाकायदा खड़े होकर बाकायदा
संस्था का परिचय दिया। जिसे सुनने में मेरे अतिरिक्त किसी की रुचि नही थी। उनके
बोलते ही दूसरे सज्जन खड़े हुए और वे मेरी प्रशंसा में बोलने लगे। बुज़ुर्गवार उखड़
गए, उनसे बोले, तुम्हें थैंक्स देना है, अभी क्यों बोल रहे हो?" वो भी अड़ गए और बोलकर ही माने। अब मुझे मुख्य
अतिथि का भाषण देना था। मैंने अटकते-अटकाते उन्हीं की कही हुई बातों को दोहराया।
इस बीच होटल मालिक वहाँ से सरक लिए। मेरे सहित कुल जमा जो पाँच लोग मौजूद थे, उनमें किसी की सुनने की कोई रुचि नहीं
थी, सिवाय इसके कि मुख्य अतिथि का भाषण हो
जाए। मेरे पास बोलने को भी क्या था? मैंने कहा- "सभी धर्म मानवता की राह बतलाते हैं।"
जिस पर भजन गायक ने जोर से ताली बजाई। डेढ़ मिनिट में भाषण समाप्त हो गया। लेकिन
कार्यक्रम अभी समाप्त नहीं हुआ था। मैं कुर्सी पर बैठा कि गायक ने फिर से तान छेड़
दी- "मैया का चोला है रंग लाल।" उसकी मधुर राग के प्रभाव में महिला ने
मंच के सामने झूम-झूमकर नृत्य प्रारम्भ कर दिया। वातावरण का प्रभाव देखिए कि कुछ
ही पलों में वे बुजुर्ग सज्जन भी उठे और मंच के सामने नृत्य करने लगे।
अब दृश्य की एकबार फिर से कल्पना कीजिये। एक टेबल के पीछे दो
व्यक्ति बैठे हैं। सामने एक स्त्री-पुरुष नृत्य कर रहे है। उनके पीछे की सभी
कुर्सियाँ खाली है और साइड में एक व्यक्ति ढोलक बजाते हुए भजन गा रहा है। मेरे साथ
बैठे सज्जन ने उठकर उन तीनों पर वार फेर की, और गायक को भेंट कर दी। गायक की निगाहें
मुझ पर भी थीं। शर्माहुज़ूरी मैं भी उठा और उन पर कुछ नोट न्यौछावर कर आया।
अब कार्यक्रम समाप्त ही था। मैंने उठना चाहा। मगर यह वहाँ लाए गए नाश्ते के साथ अन्याय होता। संयोजक ने गायक को रोक दिया और मंच पर बैठे अपने साथी से कहा, धन्यवाद अंत में दिया जाता है, आप अब धन्यवाद दो। वे बेचारे तो पहले ही बोल चुके थे। वे समझ भी रहे थे कि मैं बुरी तरह झुंझला चुका हूँ। अब मैंने ही स्वर में तेजी लाकर उन्हें बोलने से रोक दिया। नाश्ते के दौरान संयोजक जी ने भोलाई भरी ईमानदारी से बतलाया कि नाश्ता तो वे स्वयं खरीदकर लाये हैं और चाय होटल की है। वे होटल मालिक को दस चाय के चार सौ रुपये दे देंगे। वे इस बात पर बहुत खुश थे कि देखो कितने कम खर्च में इतनी आलीशान जगह कार्यक्रम हो गया और ऐसी आलीशान जगह पर आज आप चीफ गेस्ट हो। उनकी बातों के बीच ही भजन गायक ने अपनी बड़ाई करनी शुरू कर दी। बताया कि वह कहाँ-कहाँ गा चुका है और कई बड़े लोग उसे गायन के लिए पेमेंट पर बुलाते हैं। गायक का यह निजी प्रचार करना आयोजक महोदय को खटकने लगा। उन्होंने गुस्से में उसे आदेश दिया यह सब बंद करो। तुम बैनर उतारो और अपना सामान समेटो। बेचारा गायक अब सेवक की मुद्रा में आ गया। विदाई में सज्जन ने मुझे संस्था का कलेंडर भेंट किया गया जो 2020 का था, जिसे समाप्त होने में अब दो माह ही बचे थे। कार्यक्रम में साथ बैठे सज्जन उस संस्था के वाईस चैयरमेन थे, मेरी असहजता को खूब समझ रहे थे किंतु बेबस थे। मेरे मना करने पर उन्होंने धन्यवाद ज्ञापन से परहेज कर लिया था। मगर उन बुजुर्ग को यह बात ठीक नहीं लगी। कार्यक्रम की गरिमा का मान रखते हुए उन्होंने सभी उपस्थित-अनुपस्थित, जीवित-मृत आत्माओं का हृदयपूर्वक धन्यवाद दिया।
मैं होटल से बाहर निकलते हुए सोच रहा था, शायद यह मेरे पहली बार वादा करके भी नहीं
पहुँचने का बदला लिया गया था। फिर उन सज्जन की मासूमियत पर भरोसा आया और लगा कि ये
सज्जन बदले की भावना में यकीन नहीं रखते होंगे। यह भी लगा कि अंदर की कोई शक्ति
मुझे बार-बार जाने से रोकती रही, मगर मैंने ही उसकी बात को इस बार नज़रअंदाज कर दिया। विचार
मंथन में ज्ञान की बात जो समझ में आई वह यह थी कि "ना" कहना आना भी व्यक्तित्व
विकास का जरूरी अंग होता है। इस सीख को जानते हुए भी मेरा भावुक मन कई चूक कर जाता
था। इस बार यह चूक ज्यादा ही भारी पड़ गई।
चलते-चलते : कार्यक्रम के बाद अगली सुबह उन सज्जन ने फोन कर कहा- "अपना कार्यक्रम शानदार हुआ। आपकी फोटो आज बनकर आ जाएँगी। कल अखबार में फ़ोटो और खबर दोनो छपेंगे।"
अनन्त भटनागर
66, कैलाशपुरी, अजमेर
anant_bhtnagar@yahoo.com, 9828052917
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
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