सेवासदन : भारतीय स्त्री का कल, आज और कल
डॉ. अनूप श्री विजयिनी
इस उपन्यास का मूल प्रश्न यही है कि क्या सुमन इस समाज में अपने पूर्वकर्मों को छोड़कर एक नया जीवन शुरू कर सकती है या नहीं ? क्या उसे एक गरिमापूर्ण जीवन जीने का इस समाज में कोई अधिकार है या नहीं ? क्या उसकी निष्ठा हमेशा संदेहास्पद ही समझी जायेगी ? क्या उसके पास कोई वैकल्पिक जीवन नहीं है ? क्या वो किसी पुरुष के साथ अपना जीवन फिर से शुरू नहीं कर सकती ? उसे त्याग की मूर्ति और वैराग्य का जीवन जीने का ही एकमात्र मार्ग ये समाज दे पायेगा ? गजानंद के भीतर अगर प्रायश्चित का भाव पैदा हुआ तो उसने सुमन को फिर से अपने घर में रखने और उसे एक गरिमापूर्ण जीवन जीने का अवसर क्यूँ नहीं दिया ? इन सवालों का जवाब प्रेमचंद के पास भी शायद नहीं था इसीलिए उन्होंने उपन्यास के अंत में सुमन के त्याग को और अधिक ऊँचाई देने के लिए उसे सेवासदन स्थापित किया गया।
वाशिंगटन पोस्ट में 2018 में प्रकाशित एक सर्वे के मुताबिक़ भारत महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश है। इस रैंकिंग में आज भी कोई बदलाव नहीं हुआ है। क्या स्त्री मुक्ति के पैरोकारों का ह्रदय सच में स्त्रियों के साथ ही है या ये भी एक ट्रैप भर है ? क्या ‘सेवासदन’ के सौ सालों बाद भी हमारा भारतीय समाज स्त्रियों को बराबर का मनुष्य मानने को तैयार हो पाया है ? क्या वो स्त्री के गरिमापूर्ण अस्तित्व को स्वीकार कर पा रहा है ? जिस तरह स्त्री हिंसा की घटनाएँ सामने आती रहती हैं चाहे वो घरेलु हिंसा हो या वर्किंग और पब्लिक प्लेस पर हुई हिंसा हो, उनके आंकड़ों को देखकर ये नहीं लगता कि स्त्री कहीं भी सुरक्षित है। उस समय समाज के पास सुमन को देने के लिए ‘सेवासदन’ में सेवाकार्य ही शायद सर्वोच्च विकल्प जीवन के तौर पर मौजूद था, ये बात हम मान भी लें लेकिन क्या ‘सेवासदन’ के सौ वर्ष पश्चात् भी हमारे पास सुमन को देने के लिए कोई अन्य गरिमापूर्ण विकल्प मौजूद है या नहीं ? ये सवाल तो बनता है।
बीज
शब्द
: व्यक्तित्वहीनता, स्त्रीमुक्ति, अस्तित्व, प्रेम, देह, विवाह, वेश्यावृत्ति, स्त्री- पुरूष सम्बन्ध, नैतिक दोहरापन, आजीविका
मूल आलेख :
“हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न
कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता।”
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
प्रेमचंद के उपन्यास ‘सेवासदन’ जो मूलतः उर्दू में ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ के नाम से लिखा गया था, को पढ़ते हुए ग़ालिब का यही शेर कानों में गूँजता रहता है। जिस प्रकार ग़ालिब ने कहा है कि प्रेमी की रुस्वाई मरणोपरांत भी उसका पीछा नहीं छोड़ती इसलिए मैं दरिया में डूबकर मरना चाहूँगा ताकि न मेरा जनाज़ा उठे और न ही मेरा इस धरती पर कोई पक्का ठिकाना, मज़ार के रूप में बनाया जाए। उन्हें ध्यान है कि इस उपक्रम से वे समाज में अपनी बदनामी से बच जाएँगे क्यूँकि काफ़ी समय बाद वे जनता की सामूहिक स्मृतियों से, मैल की तरह साबुन के साथ हमेशा के लिए निकलकर, पूर्ण मृत्यु को प्राप्त कर चुके होंगे। लेकिन इसके ठीक विपरीत एक स्त्री की बदनामी; मृत्यु के बाद भी उसका पीछा नहीं छोड़ती। सुमन की कथा इसे चरितार्थ करती है। ये उपन्यास केवल वेश्या समस्या पर ही केन्द्रित नहीं है बल्कि उसका दायरा और बड़ा है जिसमें स्त्री की तत्कालीन सामाजिक स्थिति, उसकी व्यक्तित्वहीनता, उसका दमन और अनवरत् शोषण जिसे बनाए रखने में समाज का कथित रूप से सभ्य कहा जाने वाला वर्ग शामिल रहता है, को जीवन के जटिल सन्दर्भों में उभारना भी है। हालाँकि इस समस्या का तात्कालिक हल स्वयं प्रेमचंद के पास भी नहीं था सो उन्होंने एक किंचित काल्पनिक हल उपन्यास के अंत में प्रस्तुत किया। पारंपरिक मूल्यों और आधुनिक मूल्यों के बीच एक संतुलन बनाने की पूरी-पूरी कोशिश उपन्यास में दिखाई देती है जिससे उपन्यास का ढांचा यथार्थ से थोड़ा खिसक भी गया है लेकिन इन सीमाओं के बावजूद भी ये उपन्यास हिंदी के पाठकों को झकझोरता है और उपन्यास लेखन की प्रौढ़ता का अपने समय में एक मानक भी बनता है जबकि उस समय हिंदी में तिलिस्मी अय्यारी, जासूसी और उपदेशात्मक उपन्यासों की भरमार थी।
जार्ज लुकाच ने कहा है कि महान चरित्र सामान्य और विशेष का संश्लेष होता है। ठीक यही बात सुमन के चरित्र पर भी लागू होती है। सुमन के चरित्र में सामान्यता भी है और एक तरह की विशिष्टता भी। प्रेमचन्द ने सुमन के माध्यम से एक ऐसे चरित्र की स्थापना की है जो मध्यवर्ग की खोखली नैतिकता की बलि चढ़ जाती है। ऐसी लिजलिजी नैतिकता जो कई मनुष्यों का जीवन एक साथ तबाह कर देती है। पूरे उपन्यास में एक स्त्री की तबाही का मर्सिया, धीमे स्वर में बजता रहता है और पाठक के मर्म पर हथौड़े की चोट से आघात करता रहता है। हर गुनाह का कुफ़्फ़ारा अदा होता है, हर पाप का प्रायश्चित होता है लेकिन एक बार स्त्री पतिता हुई फिर उसे पूरे संसार में कोई ठौर नहीं मिलता, चाहे वह कितने भी पवित्र ह्रदय से अपने पूर्वकर्मों का त्याग कर, एक नया जीवन शुरू करने का प्रण धारण कर ले। ये समाज, स्त्री को सुधरने का कोई मौक़ा नहीं देता जबकि इसके ठीक विपरीत इस उपन्यास का पुरुष पात्र ‘सदन’ वेश्यागमन के बावजूद भारतीय पारंपरिक पारिवारिक संरचना और उसके सामाजिक ताने-बाने का अंग बन कर, शान से नया जीवन शुरू करता है और उसका पाप समाज की नज़रों में महज़ एक जवानी की भूल मात्र बन कर रह जाता है। लेकिन वहीं सुमन, गजाधर के घर की चौखट लाँघने के बाद से ही तिरस्कार और अपमान की पात्रा हो जाती है चाहे वह सुभद्रा और पद्मसिंह के घर में रहे, भोली बाई के कोठे पर शरण ले, दालमंडी में हुस्न की कठपुतली बन कर रहे, विधवा आश्रम में रहे या फिर सदन और शांता के मकान में रहे, उसकी बदनामी गो कि हर जगह उसका पीछा करती है। इस कारुणिक उपन्यास में सुमन अपना शरीर और मन दोनों गला डालती है, लेकिन ये समाज उसे उसका कोई मोल नहीं देता और उसे जीवनपर्यंत अपमानित करता है। हद तो तब होती है जब उसकी अपनी बहन शांता भी उससे एक दिन छुटकारा पाना चाहती है क्यूंकि उसके कहे उसके पति सदन की जगहँसाई हो रही है क्यूँकि उसके घर में सुमन ने शरण ली है जो पूर्व जीवन में वेश्या रह चुकी है। और इस तरह घर के काम में दासियों की तरह खटने के बाद भी सुमन को ये सिला मिलता है। ये बहुत विडम्बनापूर्ण लगता है कि जो सदन, परिवार और समाज से लड़कर शांता के साथ घर बसाता है अंत में फिर उसी पारंपरिक सामाजिक संरचना में ढल जाता है और सुमन को उसी तरह तिरस्कृत करता है जैसे अन्य लोग करते हैं। ये मध्यवर्गीय अवसरवादिता का बेहतर उदहारण है जो अंततः सारे विद्रोह के बाद भी उसी खाँचे में गिरता है जहाँ से निकलने की चेष्टा की थी और इस तरह समाज के जड़ और सड़े मूल्यों को प्रश्रय देता है और उसे आगे बढ़ाता है।
ईमानदार दारोग़ा कृष्णचन्द्र की बड़ी बेटी सुमन काफ़ी सुंदर और स्वभाव से स्वाभिमानी स्त्री है। उसे बचपन से ही सुंदर पहनने-ओढ़ने का शौक़ है, जिसे उसके पिता पूरा भी करते हैं। कृष्णचन्द्र अपनी बेटी को पढ़ा-लिखा कर उसे एक शिक्षित परिवार में ब्याहना चाहते थे। उन्हें यह मुगालता था कि शिक्षित परिवार में दहेज़ का चलन नहीं होगा बल्कि लड़की के गुण ही उसकी योग्यता सिद्ध करने के लिए काफ़ी होंगे। लेकिन जल्दी ही उनका यह भ्रम भी टूट जाता है जब सच्चाई से उनका साबका पड़ता है –
"वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन-देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल उनकी शिक्षा के अनुसार है। राशि, वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेन-देन की बातें होने लगतीं, तब कृष्णचन्द्र की आँखों के सामने अंधेरा छा जाता था। कोई चार हज़ार सुनाता, कोई पाँच हज़ार और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता" [1]
यही हमारे सभ्य समाज की सच्चाई है जो बातें तो बड़े-बड़े आदर्शों की करता है लेकिन विवाह के समय लड़की पक्ष से मोटी रक़म की माँग करता है चाहे वो रक़म बेईमानी से ही क्यों न कमाई गयी हो। इस समाज में ईमानदारी का कोई मोल नहीं तभी तो ईमानदार दारोग़ा (जिसने कभी घूस नहीं लिया) से यह समाज सहानुभूति तो रखता है लेकिन बिना दहेज़ के उसकी बेटी से ब्याह नहीं करना चाहता –
"इसमें कोई संदेह नहीं कि शिक्षित सज्जन को उनसे सहानुभूति थी; पर एक-न-एक ऐसी पख निकाल देते थे कि दारोग़ा जी को निरुत्तर हो जाना पड़ता। एक सज्जन ने कहा – महाशय ! मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन हूँ, लेकिन क्या करूँ, अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हज़ार रुपये केवल दहेज़ में देने पड़े, दो हज़ार और खाने-पीने में ख़र्च करने पड़े, आप ही कहिए, यह कमी कैसे पूरी हो?" [2]
इस तरह का वैचारिक और नैतिक दोहरापन हमारे समाज के कमोबेश हर व्यक्ति में व्याप्त है। इस दोहरेपन की नीति से आहत कृष्णचन्द्र अपनी ईमानदारी और सच्चाई पर अफ़सोस करता है और इस व्यवस्था से अंततः हार कर पैसे जुटाने के लिए घूस लेता है। जिसके लिए उसे जीवन भर की ईमानदारी की कमाई त्यागनी भी पड़ती है। एक तरह से उसे अपनी आत्मा का सौदा करना पड़ता है। लेकिन सिद्धहस्त न होने के कारण कृष्णचन्द्र पकड़ा जाता है और अपना जुर्म क़ुबूल कर 5 वर्ष कारावास की सज़ा पाता है। इस तरह सुमन पैसे के अभाव में एक पढ़े-लिखे वर से वंचित रह जाती है। सुमन के मामा उमानाथ पैसे की कमी के कारण सुमन का विवाह एक 30 वर्षीय दोहाजू वर से करते हैं (जिसकी पहली पत्नी मर चुकी है)। सुमन की माँ गंगाजली दामाद को देखकर बहुत दुःखी होती है –
"उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएँ में डाल दिया” [3]
इस
पूरे पारम्परिक सद्कर्म में एक स्त्री की इच्छाओं को ज़रा भी महत्व नहीं मिलता। उसे तो पशुओं की तरह एक खूंटे से हटा कर दूसरे से बाँध दिया जाता है। जीवन के इतने बड़े निर्णय में उसकी कहीं कोई भूमिका ही नहीं होती। रामविलास शर्मा के शब्दों में -"उपन्यास की वास्तविक समस्या यह है - लड़कियों को कुँए में ढकेलना और फिर सतीत्व और पतिव्रत धर्म के गीत गाना। इस समूचे व्यापार में बेचारी सुमन की इच्छा-अनिच्छा का सवाल नहीं उठता। बलिपशु की तरह जिस खूँटे से भी बाँध दी जाए, उसे बंधना पड़ता है।"[4]
विवाह में लड़के-लड़की ख़ासकर लड़की की स्वीकृति-अस्वीकृति, योग्यता-अयोग्यता का बिंदु कभी हमारे मानस में नहीं रहा और न ही कभी इसपर विचार करने की ज़रूरत महसूस हुई। हमारे समाज में बचपन से ही एक स्त्री को एक सुशील पत्नी बनने की शिक्षा दी जाती है। तथा उसे योग्य गृहिणी बनने की ट्रेनिंग घर की पाठशाला में जन्म से ही दी जाने लगती है। जैसे उसके जीवन का बस एकमात्र लक्ष्य हो, एक कुशल गृहिणी और पतिव्रता स्त्री बनना और कुछ नहीं। कुछ परिवारों में जिन लड़कियों की शिक्षा का समुचित प्रबंध किया भी जाता है तो इसीलिए कि पढ़-लिख कर उसे एक बड़े और शिक्षित घर में स्थान मिले। ये कितनी ही शर्म की बात है। दरअसल, स्त्री के जीवन-यापन का सवाल विवाह से ही हल होता रहा है हमारे समाज में जबकि होना ये चाहिए कि पुरुषों की तरह ही उन्हें भी बराबर के अवसर दिए जाते तथा उन्हें स्वावलंबी बनाया जाता। इस विषय पर विचार करते हुए महादेवी वर्मा ने अपनी किताब में इसे बहुत ही मार्मिक ढंग से उठाया है –
"उसके जीवन का एक ही मार्ग और आजीविका का एक ही साधन निश्चित था। यदि हम कटु सत्य सह सकें तो लज्जा के साथ स्वीकार करना होगा कि समाज ने स्त्री को जीविकोपार्जन का साधन निकृष्टतम दिया है। उसे पुरुष के वैभव की प्रदर्शनी तथा मनोरंजन का साधन बनकर ही जीना पड़ता है, केवल व्यक्ति और नागरिक के रूप में उसके जीवन का कोई मूल्य नहीं आँका जाता” [5]
विवाह, स्त्री के दमन की हमारे यहाँ एक सांस्कृतिक संस्था की तरह सदियों से चली आ रही है। बचपन से लेकर विवाह और उसके बाद गृहिणी के रूप में समाज द्वारा निर्धारित अपनी तय भूमिका निभाने और समाज की उसी शोषण की परंपरा को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी स्त्री निभाती रही है। इस दमन के कुचक्र से निकलने की राह बहुत कठिन है जहाँ स्त्री अपने स्वाभिमान के साथ इस समाज में अपनी जगह और अपनी योग्यता के अनुसार सम्मान का हक़ प्राप्त कर सके। इसके लिए दुनिया भर में स्त्रियों ने बड़ी लड़ाईयाँ लड़ी हैं तथा अब भी लड़ रही हैं। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज ने अभी भी उन्हें उनका वाजिब मक़ाम नहीं दिया है जिसकी वो हक़दार हैं। शोषण की तमाम परम्पराओं को अभी भी संस्कृति के नाम पर ढोया जा रहा है। एक ऐसा विवाह जिसमें स्त्री की कहीं इच्छा-अनिच्छा का प्रश्न ही नहीं उठता वहाँ किस तरह एक स्त्री अपनी तमाम कोमल भावनाओं की एक-एक कर हत्या होते तथा निरंतर उपेक्षा और अपमान को मूक खड़ी देखती है, इसे इस उपन्यास को पढ़ते हुए काफ़ी हद तक महसूस किया जा सकता है। बेमेल विवाह, ग़रीबी और मायके की उदासीनता से सुमन में ऊब पैदा होती है। वह छोटी-छोटी चीज़ों के लिए भी तरसती है। उसे अपने घर में गृहिणी बनने की नहीं बल्कि इंद्रियों के आनंद-भोग की शिक्षा मिली थी। सुमन में धीरे-धीरे कृपण पति को लेकर असंतोष उपजने लगता है जो वाजिब भी है। इस तरह वो अपनी इच्छाओं का दमन करने में असमर्थ होने लगती है। पति का सर्वथा रुखा व्यवहार उसे खिन्न और विद्रोही बनाने में अपनी भूमिका अदा करता है। इसी बात को गरिमा श्रीवास्तव अपने एक लेख में कुछ यूँ बयान करती हैं –
“अब ये हिन्दू गृहिणी की मर्यादा का तकाज़ा है कि वह कम ख़र्च में बिना प्रश्न किए गृहस्थी चलाए, पर्दे और घूँघट में ढकी रहे, सभी दुनियावी इच्छाओं को कुचल दे। सुमन ऐसा नहीं कर सकी।”[6]
सुमन का अपने घर से जी उचटने लगता है। उसका ज़्यादा वक़्त मुहल्ले की औरतों के साथ बीतने लगा। इसी बीच सुमन का लगाव वकील पद्मसिंह की पत्नी सुभद्रा से बढ़ने लगता है –
“दोनों स्त्रियों में काफ़ी मेल-मिलाप हो गया। सुमन की नज़र में सुभद्रा जैसी सुशील और पद्मसिंह जैसे सज्जन मनुष्य संसार में नहीं थे। सुमन जैसे सुशीला के स्नेह में अपनी सारी तकलीफ़े भूल गयी। जैसे बालू पर तड़पती हुई मछली जलधारा में पहुँचकर किलोलें करने लगती है, उसी प्रकार सुमन भी सुभद्रा की स्नेहरूपी जलधारा में अपनी विपत्ति को भूलकर आमोद-प्रमोद में मग्न हो गई।”[7]
लेकिन सुमन के पति गजाधर को ये मेल-मिलाप चुभने लगा। उसे सुमन पर तनिक भी विश्वास नहीं था। इधर सुमन के जीवन में घटी अलग-अलग घटनाओं ने उसके भीतर इस विचार को जन्म दिया कि इस समाज में स्त्री का कोई सम्मान नहीं है। अगर कहीं है भी तो भोली बाई जैसी स्त्रियों का ही है। सुमन, भोली बाई नामक वेश्या के घर के सामने ही रहती थी। पहले सुमन उसे नीच समझती थी लेकिन उसने देखा कि यहाँ तो – “स्त्रियों में किसी ने पुरुषों से इज़्ज़त पाई है तो भोली ने। वही लोग जो घर की उन स्त्रियों को पैर की जूती समझते थे, भोली के तलवे सहलाने में अपने को धन्य मानते थे।”[8]
उसकी ये भावना तब और पुख़्ता हो जाती है जब पद्मसिंह के यहाँ मुजरे में वो भोली बाई के क़द्रदानों को उसका हुक्म बजाते देखती है। वो देखती है कि दरअसल सम्मान ऐसी स्त्रियों का ही है –
“वह देखती है कि सैकड़ों आँखें भोलीबाई की ओर लगी हुई हैं। उन नेत्रों में कितनी तृष्णा थी ! कितनी विनम्रता, कितनी उत्सुकता ! उनकी पुतलियाँ भोली के एक-एक इशारे पर, एक-एक भाव पर नाचती थीं, चमकती थीं। जिस पर उसकी दृष्टि पड़ जाती थी, वह आनंद से गदगद हो जाता और जिससे हँसकर दो-एक बातें कर लेती, उसे तो मानो कुबेर का धन मिल जाता।...उस सभा में एक-से-एक धनवान, एक-से-एक विद्वान, एक-से-एक रूपवान सज्जन उपस्थित थे, किंतु सब-के-सब इस वेश्या के हाव-भाव पर मिटे जाते थे।”[9]
सुमन
मुजरा सुन कर आधी रात को घर लौटती है और इस देरी को महसूस करते हुए दरवाज़ा खटखटाने में डरती है। फिर इसी उधेड़-बुन में सोचती है कि –
“किवाड़ खटखटाऊँ, जो कुछ होना है, हो जाये। ऐसा कौन-सा सुख भोग रही हूँ, जिसके लिए यह आपत्ति सहूँ ? यह मुझे कौन सोने का कौर खिला देते हैं, कौन फूलों की सेज पर सुला देते हैं ? दिन-रात छाती फाड़कर काम करती हूँ, तब एक रोटी खाती हूँ। उस पर यह धौंस। लेकिन गजाधर के डंडे को देखते ही फिर छाती दहल गयी। पशुबल ने मनुष्य को परास्त कर दिया।”[10]
सुमन का डर निर्मूल नहीं था। गजाधर ने सुमन के चरित्र पर सवाल ही नहीं खड़ा किया बल्कि उसे अपमानित करके घर से निकाल भी दिया। घर से आधी रात मात्र संदेह के नाम पर एक पत्नी को यूँ निकाले जाने की घटना से स्त्री की दयनीय स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वैवाहिक संबंधों में पुरुष द्वारा स्त्री पर किस तरह ज़ुल्म ढाए जाते रहे हैं। पुरुष के हाथ में सारे अधिकार हैं, वहीं स्त्री उन अधिकारों से वंचित है। पुरुष आज्ञा देता है और स्त्री की विवशता हर बार आज्ञा पालन की है। पति- पत्नी के जिस पवित्र संबंध की बात की जाती है वह दरअसल मालिक और दास का संबंध है। जार्ज स्टुअर्ट मिल अपनी एक किताब में लिखते हैं –
“विवाह एकलौती ऐसी सामाजिक व्यवस्था रह गयी है, जिसे कई मामलों में बंधक-व्यवस्था कहा जा सकता है। हर घर की गृहणी के अलावा अब कोई ग़ुलाम नहीं बचा है।”[11]
अगर पति खुद को मालिक नहीं समझता तो घर से निकालने की बात ही क्यों करता ? लेकिन सुमन स्वाभिमानी स्त्री है सो न गिड़गिड़ाती है, न विनती करती है। दरअसल ये एक जगी हुई स्त्री का रूप है जो अपनी पराधीनता को पहचान चुकी है तथा अपने उचित सम्मान को माँगने में हिचकने से इंकार कर देती है। वो गजाधर के सामने डट कर अपना पक्ष रखती है –
“हाँ, यों कहो कि मुझे रखना नहीं चाहते। मेरे सिर पाप क्यों लगाते हो ? क्या तुम्हीं मेरे अन्नदाता हो ? जहाँ मजूरी करुँगी, वहीं पेट पाल लूँगी।” [12]
यहाँ सुमन की मनःस्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है, इस समाज में परित्यक्त स्त्री का आज भी कोई मान नहीं ये बात सुमन अच्छी तरह जानती थी लेकिन उसे अपमान और तिरस्कार का जीवन स्वीकार नहीं था। वो समाज में अपना अस्तित्व पाना चाहती थी। हालाँकि उसके पास इसकी कोई कार्य-योजना नहीं थी सो उसने अपमान के जीवन को अपने गर्वित आत्मसम्मान के आगे ठोकर मार दिया और आधी रात को सहारे के लिए सुभद्रा के घर जाने का निर्णय किया –
“उसने निश्चय किया कि सुभद्रा के घर चलूँ, वहीं खाना पका दिया करुँगी, सेवा-टहल करुँगी और पड़ी रहूँगी।” [13]
लेकिन वहाँ भी उसे आश्रय नहीं मिला। अगले ही दिन वकील साहब ने अपनी बदनामी के भय से उसे अपने घर से चले जाने के लिए कह दिया वो भी तब जब वे समझ चुके थे कि –
“गजाधर अब उसे शायद अपने घर में न रखेगा।...इससे तो यह विदित होता है कि उसने उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया है।” [14]
घर से निकाली गई औरत को कहीं पनाह नहीं मिलता। फिर उस समय की स्थिति का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। प्रेमचंद ने दिखाया है कि सामाजिक अत्याचारों से विवश स्त्री के पास सिर्फ़ एक ही विकल्प बचता था और वह था – वेश्यालय। भोली बाई के वेश्यावृत्ति अपनाने के पीछे समाज की स्त्री विरोधी मानसिकता ही काम करती है। अधिकांश स्त्रियाँ आश्रयहीनता और आर्थिक पराधीनता की वजह से ही इस पेशे को अपनाने के लिए बाध्य होती रही हैं। सुमन इस बात का एतराफ़ करते हुए कहती है –
“मैं जानती हूँ कि मैंने निकृष्ट कार्य किया है। लेकिन मैं विवश थी, इसके सिवा मेरे लिए और कोई रास्ता नहीं था।...मैंने चाहा कि कपड़े सीकर अपना निर्वाह करूँ, पर दुष्टों ने मुझे ऐसा तंग किया कि अंत में मुझे कुएँ में कूदना पड़ा।” [15]
प्रेमचंद का मानना है कि दोष स्त्री में नहीं बल्कि दूषित समाज व्यवस्था का है जो स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं देना चाहती। न ये समाज मुसीबत की घड़ी में साथ खड़ा होता है, बल्कि अपनी बगले झाँकता है। तभी प्रेमचंद ने वकील के माध्यम से यह कहलवाया कि –
“यदि मैंने उसे घर से निकाल न दिया होता तो इस भाँति उसका पतन न होता। मेरे यहाँ से निकलकर उसे और कोई ठिकाना न रहा और क्रोध और कुछ नैराश्य की अवस्था में वह यह भीषण अभिनय करने पर बाध्य हुई।” [16]
बनारस में उन दिनों वेश्याओं की स्थिति काफ़ी सम्मानजनक थी। उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी। वसुधा डालमिया लिखती हैं –
“जहाँ बहुत दिनों से तवायफ़ें नागरिक जीवन के केंद्र में रहती चली आती थीं। सभ्य समाज सिर्फ़ आनंद के लिए ही नहीं वरन कला, संगीत, नृत्य का लुत्फ़ लेने के साथ-साथ ऐसे आभिजात्य माहौल की खोज में इन तवायफ़ों के पास आता था, जो सौंदर्यबोधीय दृष्टि से परिष्कृत हों। जो भी तवायफ़ एक बार सौंदर्य और कला में महारत हासिल कर लेती, उसे हमेशा के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती। बनारस के महाराज और सत्ताधीशों के सामने उसे अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए कहा जाता, साथ ही सभी प्रमुख मंदिरों और पवित्र नदी गंगा की रेत पर होने वाले धार्मिक अनुष्ठान में आमंत्रित की जातीं” [17]
लेकिन उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध आते-आते तवायफ़ों की आर्थिक स्थिति ख़राब होती चली गई क्यूंकि उन्होंने कथित रूप से 1857 के ग़दर में बागियों का साथ दिया था तथा उन्हें मदद पहुंचाई थी। इसके बाद अंग्रेजों ने उनपर शिकंजा कसा और उनके कारोबार को भरसक बर्बाद कर दिया। उन्हें जगह जगह से उजाड़ा भी गया। जब वे आर्थिक रूप से पुरी तरह टूट गईं तो देह व्यापर में पूरी तरह प्रवृत्त हो गईं। एक समय यही तवायफ़ें अपनी कलात्मक निपुड़ता और तहज़ीब की वजह से समाज में सम्मानित दर्जा रखती थीं। इस तरह तवायफ़ों का आर्थिक और सामाजिक दोनों रूप से पतन हो गया। बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते वारंगनाओं की स्थिति में और भी काफ़ी बदलाव आ चुका था। सामाजिक-धार्मिक आंदोलनों के माध्यम से उस दौर में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने का प्रयास किया जा रहा था। मामला चाहे बहुविवाह का हो, सती-प्रथा, बालविवाह या फिर विधवा का हो। समग्रतः यह देखने में मिलता है कि महिलाओं को उस दौर में हर तरह के शोषण से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया जा रहा था। लेकिन इन प्रयासों की अपनी सीमाएँ थीं। इस उपन्यास में हमें उस प्रसंग को याद करना चाहिए जहाँ विट्ठलदास सुमन को विधवा आश्रम में रहने का प्रबंध करवाते हैं लेकिन जब वहाँ रह रही विधवाओं को इस बात का पता चलता है कि सुमन भूतपूर्व वैश्या रह चुकी है तो वे उसका विरोध करती हैं तथा सुमन को आश्रम छोड़कर जाने पर मजबूर होना पड़ता है। बाद में वो सदन को शांता को साथ विवाह कर रखने के लिए राज़ी कर लेती है और उनदोनों के साथ ही उनके झोंपड़े में रहने लगती है लेकिन वहाँ भी जल्दी ही उसका राज़ फाश हो जाता है और वहाँ रह रहे मल्लाहों में ये बात फैलते देर नहीं लगती कि सुमन भूतपूर्व वैश्या है। इसके बाद तो सदन के घर वहाँ का कोई आदमी पानी पीना भी पाप समझने लगता है और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा में बट्टा लगने लगता है। इस बात की खीझ वो सुमन को खरी-खोटी सुना कर और उसे उपेक्षित करके उतारता है।
“जिसप्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी उससे बचता फिरता था। इतना ही नहीं वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उपेक्षा करता था।.....यह वही सदन है, जी सुमन पर जान देता था, उसकी मुस्कान पर, मधुर बातों पर, कृपाकटाक्ष पर अपना जीवन तक न्योछावर करने को तैयार था। पर सुमन आज उसकी दृष्टि में इतनी गिर गई है।” [18] गो कि सुमन ये जान जाती है कि यहाँ से भी उसका आब-ओ-दाना उठ गया। ये व्यावहारिक बाधाएँ थीं उस समय ख़ासकर सुमन जैसी स्त्रियों के जीवन निर्वाह में जो समाज में इज्ज़त की रोटी कमा कर अपना पेट पालना चाहती थीं और ससम्मान जीवन निर्वाह करना चाहती थीं। लेकिन भारतीय समाज उस समय अधिक कठोर था और सुमन जैसी स्त्रियों को एक भी मौका देने के लिए तैयार नहीं था। यहाँ तक बात समझ में आती है लेकिन ये समझ में नहीं आता कि सुमन के प्रति उसकी बहन शांता का व्यवहार क्यूँ उपेक्षापूर्ण और शुष्क हो जाता है जबकि सुमन ने शांता पर कितने ही उपकार किये थे। सुमन एक दिन शांता से इस बात की शिकायत भी करती है जिसपर वो कहती है –
“नहीं बहन, मैं परमात्मा से कहती हूँ, यह बात नहीं है। हमारे ऊपर इतना बड़ा कलंक मत लगाओ। तुमने मेरे ऊपर जो उपकार किये हैं, वह मैं कभी न भूलूँगी। लेकिन बात यह है कि उनकी बदनामी हो रही है। लोग मनमानी बातें उड़ाया करते हैं। वे (सदनसिंह) कहते थे कि सुभद्राजी यहाँ आने को तैयार थीं, लेकिन तुम्हारे रहने की बात सुनकर नहीं आईं और बहन बुरा न मानना, जब संसार में यही प्रथा चल रही है, तो हमलोग क्या कर सकते हैं ?” [19] इसके बाद जब शांता गर्भ धारण करती है, कुछ और दिन बीतते हैं और उसके व्यवहार में ये उपेक्षा और तिरस्कार और अधिक बढ़ जाती है सुमन के प्रति –
“इधर एक मास से शांता और सुमन में बहुत मनमुटाव हो गया था। वही शांता जो विधवा आश्रम में दया और शांति की मूर्ति बनी हुई थी, अब सुमन को जलाने और रुलाने पर तत्पर रहती थी। उम्मेदवारी के दिनों में हम जितने विनयशील और कर्तव्य-परायण होते हैं, उतने ही अगर जगह पाने पर बने रहे, तो हम देवतुल्य हो जाएँ। उस समय शांता को सहानुभूति की ज़रुरत थी, प्रेम की आकांक्षा ने उसके चित्त को उदार, कोमल, नम्र बना दिया था, पर अब अपना प्रेम रत्न पाकर किसी दरिद्र से धनी हो जाने वाले मनुष्य की भांति उसका ह्रदय कठोर हो गया था। उसे भय खाए जाता था कि सदन कहीं सुमन के जाल में न फँस जाए। सुमन के पूजा-पाठ, श्रद्धाभक्ति का उसकी दृष्टि में कुछ भी मूल्य न था। वह इसे पाखण्ड समझती थी। सुमन सिर में तेल मलने या साफ़ कपड़ा पहनने के लिए तरस जाती थी।” [20] यहाँ प्रेमचंद सुमन के प्रति शांता के मन में सम्मान और लगाव दिखा सकते थे भले ही सामाजिक दबाव में उसे सुमन को घर से निकालना पड़ता। अपमान तो उसे पुरी दुनिया से मिल ही रहा था। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। आख़िर सुमन के पास विकल्प के नाम पर कुछ भी नहीं बचता और एक दिन अपमान के घूँट पीकर वो शांता का घर भी त्याग देती है।
इस उपन्यास का मूल प्रश्न यही है कि क्या सुमन इस समाज में अपने पूर्वकर्मों को छोड़कर एक नया जीवन शुरू कर सकती है या नहीं ? क्या उसे एक गरिमापूर्ण जीवन जीने का इस समाज में कोई अधिकार है या नहीं ? क्या उसकी निष्ठा हमेशा संदेहास्पद ही समझी जायेगी ? क्या उसके पास कोई वैकल्पिक जीवन नहीं है ? क्या वो किसी पुरुष के साथ अपना जीवन फिर से शुरू नहीं कर सकती ? उसे त्याग की मूर्ति और वैराग्य का जीवन जीने का ही एकमात्र मार्ग ये समाज दे पायेगा ? गजानंद के भीतर अगर प्रायश्चित का भाव पैदा हुआ तो उसने सुमन को फिर से अपने घर में रखने और उसे एक गरिमापूर्ण जीवन जीने का अवसर क्यूँ नहीं दिया ? इन सवालों का जवाब प्रेमचंद के पास भी शायद नहीं था इसीलिए उन्होंने उपन्यास के अंत में सुमन के त्याग को और अधिक ऊँचाई देने के लिए उसे अनाथआश्रम ‘सेवासदन’ जहाँ पूर्व वेश्याओं की संतानों को दीक्षा मिलती है में सेवा देने के लिए प्रेरित किया।
बीते कुछ समय में स्त्री हिंसा के कुछ नए रूप सामने आए हैं। स्त्री को कण्ट्रोल करने के लगातार नए तरीक़े इजाद किये जा रहे हैं। स्त्री मुक्ति के प्रश्न अब और जटिल हुए हैं जैसे जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है। बाज़ारवाद और सोशल मीडिया के दौर में जहाँ स्त्रियों को अपनी बात रखने और हस्तक्षेप करने की आज़ादी बढ़ी है वहीं उनपर होने वाले हमलों का रूप और अधिक वीभत्स हुआ है। स्त्री की यौनिकता को कण्ट्रोल करने के प्रयास पहले से अधिक भयानक हुए हैं। स्त्रियाँ अब प्रेम से भी भयाक्रांत हैं क्यूंकि प्रेम जैसी पवित्र और उन्नत मानवीय संवेदना का आवरण भी उन्हें बहुधा कण्ट्रोल करने के लिए इस्तेमाल हो रहा है। उनकी ना को हाँ समझने वाला मर्दवादी दिमाग उनके इनकार से कभी-कभी इतना आहत हो जाता है कि उनका बलात्कार करके उन्हें जला देने में भी नहीं हिचकता। प्रेम विवाह के बाद अकसर ये देखा जाता है कि वही स्त्री आज़ादी का पक्षधर साथी कैसे स्त्री पर परंपरा के नाम पर दबाव बना कर सड़े हुए सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को थोपना प्रारम्भ कर देता है, और इस स्थिति में स्त्री अपने आप को ठगा महसूस करती है। कभी-कभी तो सोशल मीडिया के ट्रोल्स उन्हें इतना अपमानित करते हैं कि वे डिप्रेशन का शिकार हो जाती हैं और कभी-कभी तो आत्महत्या का मार्ग भी चुनने पर मजबूर कर दी जाती हैं। स्त्रियों को बाज़ार हमेशा से उत्पाद बना कर बेचता रहा है लेकिन अब उसका रूप और भयानक होता जा रहा है। पिछले दिनों ऑनलाइन बिक्री के पोर्टल ‘अमेज़न’ पर लगे एक उत्पाद के ख़िलाफ़ बाक़ायदा सोशल मीडिया पर कैम्पेन चला कर उसे हटवाया गया जिसमें स्त्री योनि की प्रतिकृति को ऐशट्रे का रूप दिया गया था। कुछ कुंठित पुरुषों के लिए शायद ये भी एक कलाकृति हो लेकिन दरअसल ये स्त्री गरिमा को क्षति पहुँचाने का ही एक ख़तरनाक मंसूबा था। ऐसे और तमाम उत्पादों में हम एक स्त्री के प्रति घृणा को देख सकते हैं। इन तमाम बातों पर विचार करते हुए हमें ‘सेवासदन’ की ‘सुमन’ का संघर्ष फिर भी कमतर लगता है आज की स्त्रियों से जो घर-बाहर दोनों जगह बराबर संघर्ष कर रही हैं। वाशिंगटन पोस्ट में 2018 में प्रकाशित एक सर्वे के मुताबिक़ भारत महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश है। इस रैंकिंग में आज भी कोई बदलाव नहीं हुआ है। क्या स्त्रियों को इस समाज में अपनी गरिमा के साथ बराबर का अवसर और सम्मान का जीवन मिल पायेगा ? क्या स्त्री मुक्ति के पैरोकारों का ह्रदय सच में स्त्रियों के साथ ही है या ये भी एक ट्रैप भर है ? क्या ‘सेवासदन’ के सौ सालों बाद भी हमारा भारतीय समाज स्त्रियों को बराबर का मनुष्य मानने को तैयार हो पाया है ? क्या वो स्त्री के गरिमापूर्ण अस्तित्व को स्वीकार कर पा रहा है ? जिस तरह स्त्री हिंसा की घटनाएँ सामने आती रहती हैं चाहे वो घरेलु हिंसा हो या वर्किंग और पब्लिक प्लेस पर हुई हिंसा हो, उनके आंकड़ों को देखकर ये नहीं लगता कि स्त्री कहीं भी सुरक्षित है। स्त्री को बराबर का हक़ देना तो बहुत दूर की बात है उसे मनुष्य ही मान लिया जाए तो आधे से ज़्यादा हिंसा पर लगाम लग सकती है।
उस समय समाज के पास सुमन को देने के लिए ‘सेवासदन’ में सेवाकार्य ही शायद सर्वोच्च विकल्प जीवन के तौर पर मौजूद था, ये बात हम मान भी लें लेकिन क्या ‘सेवासदन’ के सौ वर्ष पश्चात् भी हमारे पास सुमन को देने के लिए कोई अन्य गरिमापूर्ण विकल्प मौजूद है या नहीं ? ये सवाल तो बनता है।
“मत सह्ल इसे जानो फिरता है फ़लक बरसों,
तब
ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं।”
मीर
तक़ी मीर
सन्दर्भ
:
1. प्रेमचंद, सेवासदन, राजपाल एंड सन्ज़, नई दिल्ली, 2017, पृ. 6-7
2. वही, 7
3. वही, 16
4. रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और उनका
युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1993, पृ. 34
5. महादेवी वर्मा, शृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2012, पृ. 66
6. गरिमा श्रीवास्तव, सेवासदन: हुस्न का
बाज़ार या सेवासदन, तद्भव, पूर्णाक-37, मई 2018, पृ. 17
7. प्रेमचंद, सेवासदन, पृ. 30
8. रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और उनका
युग, पृ. 34
9. प्रेमचंद, सेवासदन, पृ. 32
10. वही, 34
11. जॉन स्टुअर्ट मिल, द सब्जेक्शन ऑफ
विमेन, (अनुवादक-युगांक धीर), संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2008, पृ. 87
12. प्रेमचंद, सेवादसन, पृ. 36
13. वही, 37
14. वही, 39
15. वही, 68
16. वही, 55
17. वसुधा डालमिया, सेवादसन, अंग्रेजी अनुवाद की
भूमिका, 2005, पृ 9-10
18. प्रेमचंद, सेवासदन, पृ.19
19. वही, 192
20. वही, 202
डॉ.
अनूप
श्री
विजयिनी
सहायक
प्राचार्य,
मुरारका
कॉलेज,
सुल्तानगंज
तिलका
मांझी
भागलपुर
विश्वविद्यालय,
भागलपुर
vijayini11@gmail.com, 9136575515
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
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