लोकतंत्र और उसका
आतंरिक संकट
डॉ. मोहम्मद कामरान
खान
शोध सार :
लोकतंत्र राजनीतिक निर्णय करने की वह संस्थागत पद्धति है जो
विमर्श और सहभागिता पर आधारित है। लोकतांत्रिक पद्धति में जनता प्रतिस्पर्धा पर
आधारित चुनावों के माध्यम से अपना नेतृत्व चुनती है दूसरी शासन प्रणालियों में
जनता का नेतृत्व प्राप्त करने के लिए जन्म, धन,
हिंसा, शिक्षा, या
मनोनयन अथवा भाग्य का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। लोकतंत्र की लोकप्रियता
सिर्फ एक शासन पद्धति के रूप में नहीं वरन् जीवन जीने की एक पद्वति के रूप में
स्थापित हो चुकी है। यह माना जाता है कि शासन की असीमित शक्तियों को लोकतंत्र के
माध्यम से ही जवाबदेह बनाया जा सकता है।
वर्तमान युग की सर्वाधिक लोकप्रिय पद्धति होने के पश्चात् भी राजनीतिक विचारकों
(प्लेटो से लेकर कार्ल मार्क्स तक) में लोकतंत्र के प्रति सहानुभूति नहीं पायी
जाती है वरन इसे एक संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। लम्बे समय तक यह माना गया
कि लोकतंत्र शासन की शक्तियों का उत्तरदायी बनाकर तानाशाही पर अंकुश नहीं लगाती है
वरन् स्वयं तानाशाही के मार्ग को प्रशस्त करती है। यह संकट लोकतंत्र का मूल संकट
है और यह संकट आधुनिक युग में भी विद्यमान है।
बीज-शब्द :
उदार लोकतंत्र, तानाशाही,
आदर्श राज्य, जन उत्तेजक नेता
मूल आलेख :
लोकतंत्र राजनीतिक निर्णय करने की वह संस्थागत पद्धति है जहाँ
सामान्य हितों की प्राप्ति जनता द्वारा चुने हुए व्यक्तियों के माध्यम से होती है
जो उन्हें वास्तविक रूप देने के लिए एकत्रित होते है।1 शासन
की असीमित शक्तियों को उत्तरदायी बनाने का सर्वश्रेष्ठ तरीका लोकतंत्र के माध्यम
से खोजा गया है और उत्तरदायी सरकार की संकल्पना लोकतंत्र के माध्यम से ही मूर्त
रूप में अस्तित्व में आ पायी है। लोकतंत्र के दर्शन में दो बातें सम्मिलित है एक,
मनुष्य विवेकशील प्राणी है। विवेकशीलता ऐसा गुण है जो सभी
मनुष्यों में समान रूप में पाया जाता है। दूसरा विवेकशील प्राणी होने के नाते
सामान्य हितों की पूर्ति दूसरों के सहयोग से करना चाहता है। लोकतांत्रिक प्रणाली
जनता के सामूहिक विवेक में विश्वास करती है जो निरन्तर कल्याण की ओर अग्रसर रहती
है। लोकतंत्र दो तत्त्वों को समाहित करता है, विमर्श और सहभागिता। 2 विमर्श का अर्थ है एक व्यक्ति सम्पूर्ण ज्ञान का अधिकारी नहीं हो सकता है
इसलिए अगर वह सार्वजनिक हित के बारे में कोई निर्णय करता है तो उसे अन्य
व्यक्तियों के साथ विचार विमर्श करना चाहिए ताकि सभी पक्षों का सही सही ज्ञान
संभव हो सके, साथ ही इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक लोगों को सहभागी बनाना आवश्यक
है, इस कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्णय सहभागी,
बुद्धिसंगत तथा सार्वजनिक हितों के अनुरूप होते है। आधुनिक
लोकतंत्र के उदय ने सभी व्यक्तियों को आपसी पहचान तथा गरिमा और अधिकार के साथ
खुद पर शासन करने का अवसर प्रदान किया है।3 निसंदेह यह ऐसा
तत्त्व है जो दूसरी शासन प्रणालियों में देखने को नहीं मिलता है और यही
लोकतांत्रिक प्रणाली के सर्वाधिक लोकप्रिय होने का कारण भी है। दूसरी शासन
प्रणालियों में जनता का नेतृत्व प्राप्त करने के लिए जन्म, धन, हिंसा, शिक्षा, मनोनयन या परीक्षा अथवा भाग्य का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है परन्तु
लोकतांत्रिक पद्धति में जनता प्रतिस्पर्धा पर आधारित चुनावों के माध्यम से अपना
नेतृत्व चुनती है।4 प्रत्यक्ष लोकतंत्र को लोकतंत्र का मूल
स्वरूप माना जाता है परन्तु अब यह अतीत की बात हो चुकी है। वर्तमान में राज्यों
की विशाल जनसंख्या और क्षेत्रफल के कारण जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के
माध्यम से ही लोकतांत्रिक व्यवस्था को वास्तविक रूप प्रदान किया जाता है।
एक शासन पद्धति के रूप में लोकतंत्र की सफलता को सिर्फ इस बात से
ही आঁका जा सकता है
कि लोकतंत्र की उदारवादी संकल्पना तो शासन पद्धति से आगे बढ़कर जीवन जीने की एक
पद्धति के रूप में सार्वभौमिक मान्यता प्राप्त कर चुकी है। लोकतंत्र की उदारवादी
संकल्पना आधुनिक जीवन मूल्य तथा शासन की सर्वाधिक विधिसम्मत शासन प्रणाली के रूप
में स्थापित हो चुकी है। लोकतंत्र की उदारवादी संकल्पना दो तत्त्वों पर निर्भर
है, नागरिक अधिकारों की उपस्थिति तथा राजनीतिक सहभागिता। फ्रांसिस फुकुयामा ने
उदार लोकतंत्र को मानवीय शासन की अन्तिम और उच्चतम अवस्था के रूप में परिभाषित
किया है। हीगल के शब्दों में यह इतिहास का अन्त है। हीगल की तर्क प्रणाली का
अनुसरण करते हुए फुकुयामा लिखते है कि मनुष्यों की जो अन्य प्राणियों की तरह
प्राकृतिक इच्छाएं और आवश्यकताएं हैं उसकी पूर्ति औद्योगिक क्रांति ने कर दी है
परन्तु एक मनुष्य के रूप में पहचान और उसकी गरिमा को मान्यता देना यह उदार
लोकतंत्र के माध्यम से ही संभव हो पाया है। कोई भी व्यवस्था इससे अधिक पैमाने पर
मानवीय गरिमा को मान्यता नहीं दे सकती है इसलिए यह मानवीय शासन व्यवस्था का
अंतिम और उच्चतम रूप है। उदार लोकतंत्र की व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक मनुष्य
दूसरों की गरिमा और पारस्परिक पहचान को मान्यता देता है तथा राज्य भी अधिकार के
रूप में मनुष्य की गरिमा को मान्यता देता है। फुकुयामा के शब्दों में दूसरी शासन
प्रणालियों में विवेकहीनता और दोष विद्यमान रहते है इसलिए यह व्यवस्थाएं पतनशील
होती है मगर उदार लोकतंत्र में मूलभूत विरोधाभास नहीं पाया जाता है क्योंकि यह सभी
मनुष्यों की गरिमा को स्वीकार करता है।5
यद्यपि लोकतंत्र का अपना
एक इतिहास रहा है मगर शासन की असीमित शक्तियों को लोकतंत्र के माध्यम से जनता के
प्रति उत्तरदायी बनाना तथा उसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना आधुनिक घटना है, यदि हम राजनीतिक चिंतन के इतिहास का अध्ययन करे
तो यह पाते है कि आधुनिक युग की शुरूआत से पूर्व के राजनीतिक चिंतको ने लोकतंत्र
पर संदेह करते हुए उसके एक आंतरिक संकट की ओर इशारा किया है और यह संकट लोकतंत्र
के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा है। लोकतंत्र का आंतरिक या मूल संकट यह है कि
लोकतंत्र तानाशाही से बचाता नहीं है बल्कि ठीक उसके विपरीत उसके मार्ग को प्रशस्त
करता है। दो विश्व युद्धों के दौरान जर्मनी और इटली की अधिनायकवादी व्यवस्थाओं
के उदय में लोकतांत्रिक संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। सुनने में यह
विरोधाभास सा प्रतीत होता है परन्तु इस प्रवृत्ति के आरंभिक संकेत हमें यूनानी
राजनीतिक विचारक प्लेटो और अरस्तु की रचनाओं में देखने को मिलते हैं। प्रस्तुत
लेख में हम लोकतंत्र के इसी संकट को समझने का प्रयास करेंगे।
प्लेटो की पुस्तक ‘रिपब्लिक‘(जो राजनीति और नैतिकता दोनों से घनिष्ठ रूप से जुड़ी पुस्तक है) का विषय
वस्तु न्याय है, जिसका अर्थ है की व्यक्ति अपने जीवन क्षेत्र में वही कार्य करें
जिसे करने की उसमें क्षमता हो। राजनीतिक दर्शन के पिता प्लेटो एथेंस नाम के जिस
नगर राज्य में रह रहे थे। वहाँ लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था विद्यमान थी। इसी
लोकतांत्रिक व्यवस्था ने उसके गुरु सुकरात को मृत्युदंड दिया था। प्लेटो ने अपने
गुरु से जो सबक सिखा था वह यह था कि शासन एक कला है जिसके लिए विशेष ज्ञान की
आवश्यकता होती है।6 प्लेटो को एथेंस की लोकतांत्रिक
राजनीति में दो गंभीर त्रुटियां दिखाई देती है। एक दोष तो यह है कि ज्ञान के
आवरण में अज्ञान की तूती बोल रही है और दूसरा था राजनीतिक स्वार्थ, जिसने
प्रत्येक नगर को दो विरोधी नगरों में बांट दिया था। इसलिए प्लेटो अपने आदर्श
राज्य की संकल्पना के माध्यम से योग्यता की प्रतिष्ठा तथा नागरिकों के मध्य सामंजस्य
की स्थापना करना चाहता था, जिसकी प्राप्ति लोकतंत्र के माध्यम से तो नहीं होनी
थी। प्लेटो के अनुसार अज्ञान लोकतंत्र का अभिशाप है और ऐंथस के लोकतंत्र की
बुराई ही यह थी कि अज्ञानी व्यक्ति को शासन करने का अधिकार प्राप्त था। प्लेटो
के अनुसार कोई व्यक्ति बहुत मामूली शिल्पी बनने योग्य है और कोशिश करें अपने
साथियों पर शासन करने की तो वह न सिर्फ गलती करता है बल्कि दोहरा अन्याय भी करता
है। एक ओर तो वो अपना उचित कार्य नहीं करता दूसरी ओर ज्यादा अच्छे आदमी को
दरकिनार कर देता है।7
‘‘जब कोई बीमार हो निर्धन या धनी, उसे चिकित्सक के पास जाना चाहिए और जो शासित होना चाहता है। उसे
योग्य के पास जाना चाहिए जो शासन करता हो‘‘
(रिपब्लिक)
प्लेटो का आदर्श राज्य दार्शनिक द्वारा शासन है जिसमें विवेक की
प्रधानता है। न्याय व्यक्तिगत और सामाजिक सद्गुण के रूप में व्याप्त है। शासक
वर्ग को भ्रष्ट होने से बचाने के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था है। साथ ही परिवार
और संपत्ति विषयक साम्यवाद भी मौजूद है। परन्तु आदर्श राज्य की यह व्यवस्था
स्थायी नहीं है इसमें परिवर्तन हो सकता है। जिस तरह पौधों के जगत में ह्मस का
नियम लागू होता है उसी तरह यह नियम मानव जगत में भी सक्रिय रूप से लागू होता है
और यह परिवर्तन निश्चित क्रम में घटित होगा। प्लेटों की रिपब्लिक केवल आदर्श
राज्य की संकल्पना ही ही प्रस्तुत नहीं करती है। वरन् उसके व्यावहारिक रूप में
लागू करने की कार्य योजना में भी देती है। यह उस ऐतिहासिक प्रक्रिया को भी
समझाती है कि किस तरह एक आदर्श राज्य पतित होकर अत्याचारी शासन का रूप धारण कर
लेता है। आदर्श राज्य की पहली विकृति सम्मान तंत्र के रूप में सामने आती है
जिसमें विवेक का तत्त्व समाप्त होकर उसकी जगह उत्साह का तत्त्व ले लेता है। आगे
चलकर सम्मान तंत्र भी पतित होकर वर्ग तंत्र में परिवर्तित हो जाता है जिसका मूल तत्त्व
तृष्णा है। वर्ग तंत्र शासन का ऐसा रूप है जिसका आधार संपत्ति का मूल्य होता है।
इसमें अमीर शक्तिशाली होते है और गरीब शक्तिहीन। लेकिन शीघ्र ही निर्धन अपने
शत्रुओं को पराजित करके लोकतंत्र की स्थापना करते है। लोकतंत्र के रूप में
स्वतंत्रता और समानता के शासन की शुरुआत होती है। प्लेटों ने आदर्श राज्य की
तीसरी विकृति के रूप में लोकतंत्र का वर्णन किया है और इसे अराजकता का ही पर्याय
माना है। लोकतंत्र में न संयम रहता है ना अनुशासन, न
श्रेणियाँ रहती है, ना भेद। 8 प्लेटो के अनुसार लोकतंत्र
में एक संविधान नहीं होता बल्कि यह संविधानों का बाजार होता है।9 प्लेटों ने लोकतंत्र के दो सिद्धांत, स्वतंत्रता और समानता दोनों की
निंदा की है। प्लेटो के अनुसार जिस प्रकार धन की अति वर्ग तंत्र को समाप्त कर
देती है। उसी प्रकार स्वतंत्रता की अति लोकतंत्र को समाप्त कर देती है।
लोकतांत्रिक राज्य में राजा और प्रजा के बीच कोई खाई नहीं रहती,
प्रजा राजा की तरह हो जाती है और राजा प्रजा की तरह, परिवार के सारे भेद लुप्त हो जाते है पिता पुत्र, स्वामी
सेवक, पति पत्नी समान स्वतंत्रता के धरातल पर उठते बैठते है।
विद्यालय में भी नियम और विनय का अंत हो जाता है। गुरु अपने शिष्यों से डरने
लगता है और शिष्य गुरु से घृणा करने लगते है। प्लेटों ने व्यंग्य में कहा है कि
छूत की यह बीमारी जानवरों तक में फैल जाती है।10 पेशेवर
राजनीतिज्ञों द्वारा जनसाधारण को सम्पन्न वर्ग या मध्यम वर्ग के खिलाफ भड़काया
जाता है और चरम अराजकता की इस स्थिति में पेशेवर राजनीतिज्ञों द्वारा जनसाधारण
को सम्पन्न वर्ग या मध्यम वर्ग के खिलाफ भड़काया जाता है और लोकतांत्रिक विनाश की
चरम परिणिति निरंकुश शासन के रूप में होती है।
पेशेवर राजनीतिज्ञों द्वारा जनसाधारण को सम्पन्न वर्ग या मध्यम
वर्ग के खिलाफ भड़काया जाता है और लोकतांत्रिक विनाश की चरम परिणिति निरंकुश शासन
के रूप में होती है। लोकतंत्र के संबंध में रिपब्लिक का निर्णय यह है कि यह
धिक्कार योग्य है। जब तक वह जीता है तब तक उसमें कोई आकर्षण नहीं होता और जब वह
मरने लगता है तब वह सबसे निचले और पतित राज्य निरंकुशता की राह तैयार करता है।11
प्लेटों के अनुसार लोकतंत्र का लक्षण दुर्बलता है दुष्टता नहीं पर
लोकतंत्र जिस निरंकुश तंत्र की राह तैयार करता है उसका लक्षण दुष्टता है
दुर्बलता नहीं12 प्लेटो ने रिपब्लिक के छठे अध्याय में
राज्य के संदर्भ में जहाज के प्राचीन रूपक का प्रयोग किया है। प्लेटों ने लोगों
की तुलना किसी जहाज के कप्तान से की है जिसे सुकान पर कब्जा जमाने के इरादे से
विरोधी दावेदारों ने चारों ओर से घेर रखा हो। कप्तान अपने चालक दल में सबसे बड़ा
और तगड़ा है, पर वह कानों से सुन नहीं सकता, आँखों से देख नहीं सकता। और उसका नाभिकीय ज्ञान भी नहीं के बराबर है। वह
दिल का साफ है, पर अपने कमजोरियों की वजह से लुट जाता है।
उसके उद्दण्ड साथी अफीम खिला कर उसे बंदी बना लेते है। और उसी के केबिन में कैद
कर देते है।13 स्पष्ट है लोकतंत्र को पेशेवर राजनीतिज्ञों
द्वारा ही हड़प लिया जाता है।
अरस्तू अपनी पुस्तक ‘पालिटिक्स‘ में 156 संविधानों का वर्गीकरण प्रस्तुत करने के
कारण प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक माना जाता है, मानवीय दासता
को प्राकृतिक और स्वभाविक मानने तथा नागरिकता की संकीर्ण परिभाषा के कारण
पॉलिटिक्स के शुरूआत में ही वह स्वतंत्रता और समानता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों
का खण्डन कर देता है। अरस्तू ने संविधानों का वर्गीकरण स्वभाविक रूप राजतंत्र,
कुलीनतंत्र तथा संयत प्रजातन्त्र तथा विकृत रूप तानाशाही, अल्पतंत्र तथा प्रजातंत्र में किया है। अरस्तु ने प्रजातंत्र को विकृत
व्यवस्थाओं की श्रेणी में रखा है।
“तानाशाही एकमात्र शासक की दृष्टि से प्रेरित होता है, अल्पतंत्र मुट्ठी भर सम्पन्न लोगों के हित की दृष्टि से तथा जनतंत्र
निर्धन लोगों की भलाई के विचार से प्रेरित होता है परन्तु इन तीनों में एक भी
शासन तंत्र ऐसा नहीं है जो समान जनता के लाभ की दृष्टि से प्रेरित होता है।”
(राजनीति)
अरस्तु सामान्यतः राजतंत्र और कुलीनतंत्र को ही आदर्श राज्य के
वर्ग में मानता है। इसके लिए अरस्तू का तर्क है कि एक व्यक्ति अथवा थोड़े से गिने
चुने व्यक्तियों के लिए सद्गुणों की दृष्टि से पूर्णतया प्राप्त कर लेना संभव है
परन्तु बहुसंख्यक जनता के लिए सब सद्गुणों को प्राप्त कर लेना अत्यन्त कठिन
कार्य है।14
अरस्तू के अनुसार सर्वश्रेष्ठ प्रकार की शासन व्यवस्था सर्व
प्रजातंत्र है जिसमें सार्वजनिक कार्यो का नियमन संभ्रांत वर्ग के हाथों में हो।
अरस्तू के अनुसार राजनीति एक अवकाश का विषय है जो कुछ व्यक्तियों द्वारा से
सम्पन्न किया जाना चाहिए। जिनके पास इसके दायित्व निभाने के लिए पर्याप्त अवकाश
हो। अधिकांश व्यक्तियों के पास समय कम होता है तथा सार्वजनिक कार्यों में भाग
लेने की रूचि भी कम होती है। वह शासक वर्ग को एक सम्भावना से नियन्त्रण में भी
रखते हैं कि आवश्यकता पड़ने पर इस शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है।15
अरस्तू जनता की नियामक क्षमता के पक्ष में दो सबल तर्क देता है:-
उनमें से प्रत्येक स्वयं व्यक्तिश: बहुत अच्छा मनुष्य नहीं होता,
तथापि जब वे समन्वित हो जाते है तब व्यक्तिश: नहीं प्रत्युत समष्टित
वे अल्पसंख्यक उत्तम मनुष्यों से गुण में बढ़कर हो जाते है। इसी प्रकार विचार
विमर्श में बहुत से मनुष्य होते है तो उनमें से प्रत्येक का अपना सद्गुण और
सुबुद्धि का अंश होता है और जब वे एक साथ सम्मिलित हो जाते है तो वे एक प्रकार
से एक मनुष्य जैसे हो जाते है जिससे बहुत से पैर बहुत से हाथ बहुत सी
ज्ञानेन्द्रिया होती है।16 अरस्तू आगे लिखता है कि यही
कारण है कि बहुसंख्यक जनता संगीत और काव्य की अच्छी समीक्षक होती है। दूसरा तर्क
है कि अल्पसंख्यक जनता की अपेक्षा बहुसंख्यक जनता के भ्रष्ट होने की सम्भावना
थोड़ी सी मात्रा में अपेक्षा कम होती है। जैसे जल की विपुल राशि के दूषित होने की
सम्भावना थोड़ी सी मात्रा की अपेक्षा कम होती है।17
अरस्तू ने यह आगाह भी किया है कि जब आम जनता सार्वजनिक कार्यो में
अधिकाधिक भाग लेने लगती है तो लोकतंत्र को भीड़ का शासन बनने में देर नहीं लगती है।
इस प्रकार का लोकतंत्र कानून रहित और अस्त व्यस्त हो जाता है व्यवहार में यह
लोकतंत्र अत्याचारी शासन से बहुत भिन्न नहीं होता है। लोकतंत्र की समस्या यह है
कि जनता की शक्ति का श्रेष्ठ प्रशासन के समन्वय स्थापित किया जाये। बडी सभा
श्रेष्ठ प्रशासन नहीं कर सकती18 अरस्तू लिखता है कि
प्राचीन समय में बहुत से तानाशाह वही व्यक्ति थे जो आरम्भ में लोकनायक थे।
प्लेटो और अरस्तू दोनों इस तर्क को प्रतिपादित करते है कि
लोकतंत्र की अति लोकतंत्र को समाप्त कर देती है जो आगे चलकर तानाशाही के मार्ग
को प्रशस्त करती है।19 अरस्तू और प्लेटो के इस तर्क की
अनुगूंज आज भी राजनीतिक विमर्श में दिखाई देती है जब भी व्यापक पैमाने पर जनता
की भागीदारी बढ़ने लगती है यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि लोकतंत्र को खतरा
उत्पन्न हो गया है। जनता के हितों की पूर्ति के लिए अब लोकतंत्र को स्थगित किया
जाना आवश्यक है। बढ़ती राजनीतिक सहभागिता लोकतांत्रिक संरचनाओं को क्षति पहुँचा
रही है। अतः लोकतंत्र की रक्षा के लिए लोकतंत्र को स्थगित करना आवश्यक हो गया है।
जनतंत्र जो जन का शासन है उसे जन से ही खतरा उत्पन्न हो गया है। ऐसी स्थिति में
राष्ट्र निर्माण या अन्य कार्य हेतु एक अधिनायक की आवश्यकता पर बल दिया जाता है
जो चुटकी बजाते ही सभी समस्याओं का हल कर दे। इस तरह अधिनायकवादी व्यवस्था
लोकतंत्र के गर्भ में ही जन्म लेती है।
आधुनिक काल की शुरुआत से ही एक केंद्रीय सत्ता के निर्माण हेतु
लोकतंत्र की तुलना में निरंकुश राजतंत्र को शासन का बेहतर विकल्प माना गया। यह
आग्रह हम मैकियावेली और हाब्स की रचनाओं में देखते है। जॉन लॉक भी अपने सामाजिक
समझौते के माध्यम से संवैधानिक राजतंत्र को ही औचित्य प्रदान करते है। सिर्फ जीन
जेक्स रूसो ही वह विचारक है जो जिसका झुकाव यूनान के प्रत्यक्ष लोकतंत्र की ओर है
परन्तु वह भी प्रतिनिधि लोकतंत्र को राजनीतिक पतन का चिह्न तथा स्वतंत्रता का
हनन मानते है। रूसों का मानना है छोटे राज्यों और सरल जीवन के बीच ही सामान्य
इच्छा अपनी सर्वोच्चता को स्थायी रूप में कायम रख सकती है। कार्ल मार्क्स ने
लोकतंत्र के उदारवादी नमूने को लोकतंत्र के बुजुर्ग नमूने की संज्ञा दी है।
जिसमें शोषण विद्यमान रहता है।
लोकतंत्र का विचार प्राचीन एथेंस के समय से ही चला आ रहा था मगर 18
वी शताब्दी तक कहीं भी यह अपने संस्थागत रूप में अस्तित्व में
नहीं आया था।20 प्लेटो से लेकर कार्ल मार्क्स तक की
लोकतंत्र की विशुद्ध अकादमिक आलोचनाओं के बावजूद औद्यौगिक क्रान्ति के पश्चात्
लोकतंत्र एक विकल्पहीन शासन व्यवस्था के रूप में विकसित होने लगा। एक पीछे
उत्तरदायी कारण औद्योगिकीकरण था। औद्योगिकीकरण ने एक बड़ी संख्या में उच्च
प्रशिक्षित, पढ़े लिखे कामगार, प्रबन्धक,
तकनीशियन और बुद्धिजीवियों की माँग उत्पन्न की। इस वजह से
सार्वभौमिक शिक्षा की आवश्यकता महसूस की गयी। सार्वभौमिक और आधुनिक शिक्षा ने
जहाँ एक ओर लोगो को अंधविश्वास, परम्पराओं तथा परम्परागत
सत्ताओं से मुक्त करना प्रारम्भ किया वहीं दूसरी ओर मध्यम वर्ग को जन्म दिया।
उसी मध्यम वर्ग ने आगे चलकर राजनीतिक सहभागिता और अधिकारों की समानता की मांग को
जोर शोर से उठाया।21 इस तरह लोकतंत्र मध्य वर्ग का मूल
दर्शन बन गया। व्यापक शिक्षा, सूचना क्रांति, यातायात और संचार साधनों का विकास तथा औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न
समृद्धता ने लोकतंत्र को शासन का अंतिम और विकल्पहीन रूप में स्थापित कर दिया।
सैमुअल पी. हंटिंगटन ने अपनी पुस्तक ‘द थर्ड
वेव डेमोक्रेटाइजेशन इन द लेट ट्वेंटीथ सेन्चुरी‘ में
लोकतंत्र की तीन लहरों की चर्चा करते है जिसके द्वारा लोकतंत्र का विश्वव्यापी
प्रसार हुआ लेकिन इसके साथ ही हटिंगटन इन लहरों के उलटने की भी चर्चा करते हैं
जिसमें लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था पुनः अधिनायकवादी व्यवस्थाओं में परिवर्तित हो
गयी। हटिंगटन के शब्दों में लोकतंत्र की यह प्रक्रिया ‘दो
कदम आगे और एक कदम पीछे‘ इस रूप में तीनों लोकतांत्रिक
लहरों में चलती रही है। लोकतंत्र की पहली लहर 1828-1926 के
दौरान अस्तित्व में आयी जिसके बीज अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रांति में निहित थे और
पहली बार लोकतांत्रिक संस्थाएं राष्ट्रीय स्तर पर विकसित हो रही थी। लगभग 100
वर्षों के दौरान 30 देशों में राष्ट्रीय
स्तर पर लोकतांत्रिक संस्थाएं अस्तित्व में आयी लेकिन इन ज्यादातर देशों में
लोकतंत्र देर तक कायम नहीं रह पाया और इसकी जगह परम्परागत सत्तावादी या जन
लोकप्रियता पर आधारित कठोर निरंकुश शासन व्यवस्था अस्तित्व में आयी। इनमें से
ज्यादातर देश ऐसे थे जो प्रथम विश्व युद्ध के तुरन्त बाद लोकतंत्र बने थे।
लोकतंत्र की यह विपरीत लहर 1922 से 1942 तक अस्तित्व में रही जिसमें जर्मनी और इटली जैसे प्रमुख देश शामिल थे।
इस परिवर्तन से साम्यवादी, नाजीवादी और सैन्यवादी
विचारधाराओं का उदय हुआ।22 इस लहर को 1930 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से और गति मिली। लोकतंत्र की दूसरी लहर का
काल 1943-63 तक का रहा। इसमें ज्यादातर देश यूरोपीय
औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुए थे और ज्यादातर औपनिवेशिक देशों में औपनिवेशिक शासन
के दौरान लोकतांत्रिक संस्थाएं अस्तित्व में आ चुकी थी। परन्तु यह लहर भी 1958-1975
में उलट गई। इस विपरीत लहर में अफ्रीकी महाद्वीप में पूर्ण
सत्तावादी सरकारें अस्तित्व में आयी। लोकतंत्र की तीसरी लहर की शुरुआत 1974
में पुर्तगाल में तानाशाही व्यवस्था को समाप्त होने से शुरू हुई
तथा साम्यवादी खेमे के विघटन तक विद्यमान रही।
हटिंगटन के इस विश्लेषण से यह सिद्ध होता है कि लोकतंत्र की
प्रक्रिया ऐसी नहीं है कि सिर्फ एक बार में इसे प्राप्त कर लिया तो लम्बे समय तक
उसका उपयोग होता रहे बहुत सम्भव है कि यह प्रक्रिया ठीक उल्टी दिशा में भी जा
सकती है जिसका कारण प्रत्येक देश में अलग अलग हो सकता है परन्तु यहाँ इस बात पर
अभी भी विचार आवश्यक है कि लोकतंत्र की यह प्रक्रिया उलट क्यों जाती है अथवा
किसी देश में लोकतंत्र क्यों समाप्त हो जाता है।
स्टीवन लेविटस्की तथा डेनियल जिबलाट ने अपनी पुस्तक ‘हाऊ डेमाक्रेसीस डाई‘ (लोकतंत्रों का अंत कैसे हो
जाता है) में द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् कई देशों में लोकतंत्र के समाप्त
होने तथा उसकी जगह तानाशाही व्यवस्था स्थापित होने का विष्लेषण प्रस्तुत करते है।
लेखक लिखते है कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र को बढ़ते खतरे को लेकर विद्वान चिंतित
है। लोकतंत्र का यह ह्रास उन देशों में भी हो रहा है जो देश लोकतंत्र के अगुवा
या घर समझे जाते है। लेखकों के अनुसार शीत युद्ध के दौरान हर चार में से तीन
लोकतंत्रों का अन्त, सैन्य तख्तापलट से हुआ है। इसमें
अर्जेंटीना, ब्राजील, नाइजीरिया,
पाकिस्तान, तुर्की जैसे देश सम्मिलित है।
लेकिन अब लोकतंत्र की असामायिक मृत्यु का कारण सैन्य तख्ता पलट नहीं है वरन्
निर्वाचित नेता है। यह प्रवृत्ति उतनी ही विध्वंसकारी है जितनी सैन्य तख्ता पलट।
ये निर्वाचित और लोकप्रिय नेता धीरे-धीरे पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली का अपहरण कर
लेते हैं। सैन्य तख्तापलट, फासीवाद या साम्यवाद के रूप में
खुली तानाशाही पूरे विश्व में समाप्त हो चुकी है परन्तु फिर भी लोकतंत्रों का
अंत हो रहा है इसका कारण सैन्य जनरल या सैनिक नहीं है वरन् निर्वाचित और
लोकतांत्रिक नेतृत्व है।23
ऐसे लोकतंत्र में जन उत्तेजक नेता द्वारा लोकतंत्र की पूरी
प्रक्रिया का अपहरण कर लिया जाता है। प्रारम्भ में जनता को महसूस ही नहीं होता है
कि लोकतंत्र का अपहरण हो चुका है क्योंकि न सैन्य तख्तापलट होता है ना मार्शल ला
लगता है ना संविधान का स्थगन होता है वरन् इसके उलट नियमित रूप से चुनाव होते है।
यद्यपि चुनाव प्रक्रिया में सभी विकल्प समाप्त कर दिए जाते है। चुनाव महज एक
औपचारिक प्रक्रिया बन कर रह जाते है। प्रेस और संचार साधनों को खरीद कर या डरा
धमका कर एक ही तरह की सूचना प्रेषित करवायी जाती है। संवैधानिक नियंत्रण और
संतुलन की व्यवस्थाओं को समाप्त कर सभी संवैधानिक संरचनाओं में अपने वफादारों की
नियुक्ति कर दी जाती है। यह विरोधाभास ही है कि लोकतंत्र की हत्या लोकतांत्रिक
नेतृत्व द्वारा ही की जाती है। ऐसे देशों में संभावित अधिनायक द्वारा लोकतंत्र
की निणार्यक संस्थाओं का अपहरण कर, विपक्ष को खरीद कर या
उसे धमकाकर तथा संवैधानिक खेल नियमों को बदल कर अपनी सत्ता को लम्बे समय तक
बनाया रखा जाता है।
स्टीवन लेविंस्की तथा डेनियल जिबलाट का मानना है कि लगभग सभी
देशों में ऐसे जन उत्तेजक नेता समय-समय पर उभरते रहते है परन्तु राजनीतिक दल ऐसे
नेताओं को रोकने के लिए छलनी का काम कर सकते है। राजनीतिक दल लोकतंत्र के
पहरेदार होते है। लेखक द्वारा ऐसे जन उत्तेजक नेताओं की पहचान करने के चार
लक्षणों की ओर संकेत करते है।
ऐसे जन उत्तेजक नेता 1. लोकतंत्र के खेल
नियम को नकारते है या उसके प्रति प्रतिबद्ध नहीं होते है। 2. राजनीतिक विरोधियों की वैधता या संवैधानिकता को नकारते है। 3. हिंसा को प्रोत्साहन या उसके प्रति सहिष्णुता रखते है। 4. विपक्षियों जिसमें मीडिया समूह भी शामिल है उसके नागरिक व राजनीतिक अधिकारों
में कटौती को तत्पर रहते है।24
लेखकों के अनुसार एक अच्छा लोकतंत्र ना अच्छे संविधान पर टिका
होता है ना उसे लागू करने वाले उच्च चरित्रवान लोगों पर बल्कि राजनीतिक व्यवहार
के उन नियमों पर टिका होता है जिसे विशेष समाज स्वीकृत या अस्वीकृत करता है। यह
उसी तरह से है जैसे एक अच्छा खेल ना तो अच्छे खेल नियमों ना अच्छे
निर्णयकर्त्ताओं से निर्धारित होता है बल्कि खेल के सामान्य नियम और सामान्य
भावना के प्रति प्रतिबद्धता जो खिलाड़ियों में पायी जाती है उससे निर्धारित होता है।
लोकतंत्र में अलिखित नियम और परम्पराएँ लिखित नियमों की तुलना ज्यादा
महत्त्वपूर्ण और निर्णायक होती है।
राजनीतिक विचारकों द्वारा औद्योगिक क्रांति से पहले तक लोकतंत्र
को एक सक्षम राजनीतिक प्रणाली के रूप में मान्यता नहीं मिल पायी और यह बात भी
मानी जाती रही है कि लोकतंत्र की अति लोकतंत्र को विनाश की ओर ले जाती है। यह
लोकतंत्र का अपना संकट है जिसके लिए कोई बाह्य कारक उत्तरदायी नहीं है। लोकतंत्र
का यही संकट आधुनिक युग में भी पूर्ण रूप में मौजूद है। इस सन्दर्भ में एक ओर
विचार पर ध्यान देना आवश्यक है, वह यह है कि लोकतंत्र की
अवधारणा का उदारवाद, पूंजीवाद राष्ट्र-राज्य या वैश्वीकरण
की अवधारणा के साथ सम्बन्ध बड़े समस्या मूलक रहे है। उदारवाद, पूंजीवाद और वैश्वीकरण ने समाज के एक विशेष वर्ग को ही सशक्त किया है
दूसरी और कई वैश्विक समस्याओं को जन्म दिया है जिसे स्थानीय लोकतंत्र सुलझा पाने
में सक्षम नहीं है। कुछ वर्गो के सशक्तीकरण ने समाज के दूसरे वर्गो का हाशिये पर
धकेला है और लोकतंत्र के प्रति असन्तोष या मोहभंग को जन्म दिया है जिसने अग्रिम
रूप से लोकतंत्र की वैधता को प्रश्नाकित किया है। नव उदारवादी दृष्टिकोण ने
राज्य के लोक कल्याणकारी कार्यक्षेत्र में उल्लेखनीय कमी करते हुए मुक्त बाजार
अर्थव्यवस्था का समर्थन किया है वहीं लोकतंत्र की माँग कमजोर वर्गो के हित पोषण
से जुड़ी है। यह विरोधाभास कब तक कायम रहता है यह देखने की बात है। क्या लोकतंत्र
पूंजीवाद की तिलाजंलि देगा या पूंजीवाद लोकतंत्र का अंत कर देगा, जैसा कि 1930
में जर्मनी और इटली में हुआ था। राष्ट्र राज्य की अवधारणा भी
लोकतंत्र से समस्या मूलक सम्बन्ध रखती है। एक केन्द्रीय सत्ता का निर्माण उसका सशक्तीकरण
नागरिक अधिकारों की गारंटी में विरोधाभास उत्पन्न करता है। एक केन्द्रीय सत्ता
का निर्माण, उसका संरक्षण दूसरी ओर नागरिक अधिकारों की
गारंटी एक संतुलन की मांग करते है। बहुत कम लोकतंत्र ही इस सन्तुलन को बना पाये है।
यह बात समझने की है कि स्थापित संविधान और उत्कृष्ट संविधान, उच्च चरित्रवान राजनीतिक विशिष्ट वर्ग, स्वतंत्र
संवैधानिक संरचनाएँ लोकतंत्र की सफलता की गारंटी नहीं है। लोकतंत्र को एक
निरन्तर परिवर्तनकारी शक्ति के रूप में अपने आप को स्थापित करना होगा। इसके लिए
सत्ता का विकेन्द्रीकरण और जन समस्याओं के प्रति उसकी अनुक्रियाशीलता दोनों
आवश्यक है। साथ ही साथ लोकतंत्र के खेल नियमों के प्रति समाज में और राजनीतिक
विशिष्ट वर्ग में व्यापक आम सहमति
आवश्यक है।
पिछले कुछ समय से लोकतंत्र की उदारवादी संकल्पना के प्रति मोह भंग
हुआ है और उसकी उपलब्धियों पर प्रश्न चिह्न लगे है। विकल्प के रूप में कई देशों
में गैर उदारवादी लोकतंत्र की संकल्पना का जन्म हुआ। यह भी माना जाने लगा है कि
लोकतंत्र की गैर उदारवादी संकल्पना उदार लोकतंत्र की कमियों को पूरा करने के लिए
पर्याप्त है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए की लोकतंत्र की प्रक्रिया और
सारतत्त्व दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। किसी भी एक तत्त्व की तिलांजलि
दूसरे के लिए नहीं दी जा सकती है। लोकतंत्र एक जीवंत दर्शन है। यही उसके
लोकप्रिय होने का प्रमाण है। लोकतंत्र को जीवंतता प्रदान करने के लिए ज्यादा से
ज्यादा नागरिक समाज की संस्थाओं को सक्रिय भूमिका निभानी आवश्यक है।
सन्दर्भ :
1. शुम्पीटर, जोसेफ ए. कैपिटलिज्म, सोशलिज्म एण्ड डेमोक्रेसी, रूटलेज पब्लिकेशन,
लन्दन 2003 पृष्ठ 250
2. हंटिग्टन, सैमुअल पी. द थर्ड वेव,
डेमोक्रेटाइजेशन इन द लेट टेंवटिथ सेन्चुरी, आदर्श बुक, नई दिल्ली 2010 पृष्ठ
7
3. फुकुयामा, फ्रांसिस, ‘द ओरिजिन ऑफ पॉलिटिकल ऑर्डर फ्रॉम प्री ह्यूमन टाइम्स टू द फ्रेंच
रिवोल्यूषन‘ प्रोफाइल बुक्स लिमिटेड लंदन 2001 पृष्ठ 445
4. हंटिग्टन, सैमुअल पी. वही पृष्ठ 6
5. फुकुयामा, फ्रांसिस, ‘द एण्ड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन‘ पेंगुइन
बुक्स रेंडम हाउस, यूके, 1992 पृष्ठ
ग्प्
6. बार्कर सर अर्नेस्ट, यूनानी राजनीतिक
सिद्धान्त, प्लेटो और उसके पूर्ववर्ती(अनुवादित) अनुवाद
निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली,
1967 पृष्ठ 224
7. बार्कर सर अर्नेस्ट वही पृष्ठ 224
8. बार्कर, सर अर्नेस्ट यूनानी राजनीतिक
सिद्धान्त‘ वही पृष्ठ 378
9. बार्कर सर अर्नेस्ट वही पृष्ठ 378
10. बार्कर सर अर्नेस्ट वही पृष्ठ 382
11. बार्कर सर अर्नेस्ट वही पृष्ठ 382
12. बार्कर सर अर्नेस्ट वही पृष्ठ 385
13. बार्कर सर अर्नेस्ट वही पृष्ठ 384
14. शर्मा, भोलानाथ, अरस्तू
की राजनीति अरस्तू कृत पॉलिटिक्स और अथनइयोन पौलितेइया का ग्रीक अनुवाद हिन्दी
समिति सूचना विभाग लखनऊ 1965 पृष्ठ 243
15. सेबाइन जार्ज.एच. ‘राजनीतिक दर्शन का
इतिहास यूनानी राजनीतिक चिंतन से फासिज्म और राष्ट्रीय समाजवाद तक‘ (अनुवादित) एस चांद एण्ड कम्पनी, नई दिल्ली 1977
पृष्ठ 102
16. शर्मा, भोलानाथ वही पृष्ठ 255
17. शर्मा, भोलानाथ वही पृष्ठ 276
18. सेबाइन वही पृष्ठ 107
19. फुकुयामा, फ्रांसीसी, द एंड आफ हिस्ट्री एंड लास्ट मैन‘ वही पृष्ठ 56
20. फुकुयामा, फ्रांसीसी, पॉलिटिकल ऑर्डर एण्ड पोलिटिकल डिके, प्रोफाइल
बुक्स लिमिटेड लंदन 2011 पृष्ठ 401
21. फुकुयामा फ्रांसीसी, द एंड आफ हिस्ट्री
एण्ड द लास्ट मैन वही पृष्ठ 56
22. हंटिग्टन सैमुअल पी., वही पृष्ठ 18
23. लेविंस्की,स्टीवन तथा जिबलाट, डेनिएल ‘हाऊ
डेमोक्रेसीस डाई‘ व्हाट हिस्ट्री रिविल्स अबाउट अवर फ्युचर,
पेंगुइन रैंडम हाउस यूके 2018, पृष्ठ 5
24. लेविंस्की,स्टीवन तथा जिबलाट,डेनिएल वही पृष्ठ 67
डॉ. मोहम्मद कामरान खान सहायक आचार्य, राजनीति विज्ञान सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय, अजमेर 98293 33900, kamran4297@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021 चित्रांकन : प्रकाश सालवी, Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR |
एक टिप्पणी भेजें