शोध आलेख : मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव की आत्मकथाओं में जेंडर-भेद और इसका उनकी शिक्षा पर प्रभाव -सतवन्त सिंह
साभार - गूगल |
हमेशा से पुरुषों ने वर्चस्व को कायम रखने के लिए
स्त्रियों को शिक्षा और बाहरी परिवेश से अलग रखना चाहा है। इसलिए समाज में
स्त्रियों के लिए ऐसा वातावरण तैयार हो गया है कि वे अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों
के विषय में नहीं सोच पाती हैं। ऐसा वातावरण उन्हें बचपन से संस्कार के रूप में
दिए जाने लगते हैं। माता-पिता के संरक्षण में, घर में ही बच्चों के साथ जाने-अनजाने
में भेद-भाव किया जाने लगता है। परिवार बच्चों की ‘प्रथम पाठशाला’ मानी जाती है, जहाँ उसे बच्चों को प्रारंभिक अनौपचारिक
शिक्षा प्रदान की जाती है। इससे बच्चों में आदतों का निर्माण किया जाता है। यह
सुविधा लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग होती है। यहीं से उनके मध्य विभेद पैदा
होता है। आगे चलकर इसका प्रभाव उनकी विद्यालयी शिक्षा पर भी पड़ता है। यह जेंडर
आधारित भेद-भाव उनके जीवन को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है।
बीज शब्द : परिवार, प्रथम पाठशाला, शिक्षा, संस्कार, परिवेश, ऐच्छिक
विभेद, अनैच्छिक विभेद, जेण्डर आधारित भेद-भाव, प्रगतिशीलता, नैतिक मूल्य,
इज्जत-आबरू,
सामाजिक व्यवस्था, अधिकार, प्रतिष्ठा, मध्यवर्गीय, व्यक्तित्व निर्माण, कार्य
विभाजन,बाल विवाह, अस्मिता, सामाजिक कुरीतियाँ, विरोध, असुरक्षा, सीमाएँ, मानवीय
संसाधन, निवेश आदि।
मूल आलेख :
परिवार को शिक्षाशास्त्र की भाषा में बच्चों की ‘प्रथम पाठशाला’
कहा जाता है। यहाँ से उनकी प्रारंभिक ‘अनौपचारिक शिक्षा’ शुरू होती है। यदि परिवार
समाज में चले आ रहे पारंपरिक मूल्यों से संचालित होता है तो बच्चों की परवरिश में
किया जाने वाला भेद-भाव आगे चलकर लड़के-लड़की के संस्कार का हिस्सा बन जाता है।
फिर यही जेण्डर भेद के रूप में समाज में व्याप्त हो जाता है। कुछ जागरूक अभिवावकों
ने बिना भेद-भाव के पालना-पोषण शुरू किया है। मन्नू भंडारी को बचपन में अनुकूल
पारिवारिक वातावरण मिला था। उनके परिवार के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि उनके
पिता ने लड़के-लड़कियों को समान शिक्षा के साथ-साथ समान माहौल देने का प्रयास करते
हैं, वे ओमा शर्मा के द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार में कहती हैं कि- “पिता जी का
ऐसा आग्रह कभी रहा ही नहीं कि हम बहुत अधिक घर के कामकाज में लगें बल्कि वे तो हमेशा
चाहते थे कि हम खूब पढ़ें-लिखें।”([1]) माता-पिता बच्चों की सुरक्षा तथा अपनी आर्थिक स्थिति को ध्यान
में रखते हुए बच्चों की शिक्षा और पालन-पोषण में विभेद करते हैं। उनके द्वारा किया
जाने वाला यह विभेद ऐच्छिक न होकर अनैच्छिक होता है। अनैच्छिक विभेद इसलिए कह सकते
हैं कि माता-पिता सामाजिक परिवेश से सतर्क रहते हुए बच्चों की सुरक्षा का ध्यान
देने का फर्ज़ निभाते हैं। समाज का बाहरी परिवेश हमेशा से लड़कियों के लिए
असुरक्षित माना जाता रहा है। माता-पिता इन बातों को ध्यान में रखते हुए लड़कियों
के बाहरी दायरे को सीमित करना उचित समझते हैं। इस प्रकार जेण्डर भेद का एक कारण
असुरक्षा भी है। यही कारण है कि बच्चों में जेण्डर आधारित विभेद की शुरुआत परिवार
से ही होने लगती है। विभेद उनके परिधान, शिक्षा, कार्य का बँटवारा, स्वतंत्रता,
निर्णय आदि में देखने को मिलते हैं। यही विभेद लड़के-लड़कियों में जीवनपर्यन्त
अन्तर बनाए रखने के लिए उत्तरदायी होते हैं।
मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव दोनों के पिता मध्यवर्गीय
थे। उनके यहाँ लड़के-लड़कियों में भेद बहुत कम किया जाता है। मन्नू भंडारी के पिता
एक आर्यसमाजी समाजसुधारक और लेखक थे। उनके समय समाज में बाल-विवाह, पर्दा प्रथा,
जाति प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियाँ व्याप्त थीं। इन कुरीतियों के बावजूद वे अपनी
बेटियों को बेटों के समान स्वतंत्रता देने का प्रयास करते हैं लेकिन लड़कियों के
प्रति उनके यहाँ भी कुछ सीमाएँ देखने को मिल जाती हैं। मन्नू भंडारी देखती हैं कि
उनके भाइयों की स्वतंत्रता का दायरा विस्तृत है। इस विषय में वे कहती हैं कि– “लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर के
बाहर ही अधिक रहता था और हमारी सीमा थी घर।”([2]) लड़के और लड़कियों को प्रारंभिक जीवन
से ही अलग-अलग संस्कारों में रहने के लिए बाध्य किया जाता है। ऐसा ही पारिवारिक
परिवेश मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव को भी मिलता है। देखा जाए तो भारत में कार्यों का विभाजन भी जेण्डर आधारित है। इस
अवधारणा के अनुसार महिलाओं के लिए घर तथा पुरुषों के लिए बाहर के कार्य आते हैं। इस
विषय में वी. गीता का
विचार है कि- “परिवेश मर्दाना और जनाना के तीखे खाँचे
में बँटे हुए हैं। घर के परिवेश की पहचान महिला के साथ की गई है जबकि घर के बाहर
की दुनिया को पुरुष का खास क्षेत्र माना गया है।”([3]) ऐसी अवधारणा लड़कियों की शिक्षा को भी
प्रभावित करती है।
अधिकांश उच्चवर्गीय परिवारों में बच्चों की देखभाल समान
दृष्टि से की जाने लगी है लेकिन मध्यवर्गीय परिवार समाज में प्रचलित नैतिक मूल्यों
और मानकों का ज्यादा ध्यान रखते हैं। दोनों आत्मकथाकार मध्यवर्गीय परिवार से हैं।
राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी के लिए समान परिवेश नहीं उपलब्ध हैं। घरेलू
संस्कार राजेन्द्र यादव के यहाँ अलग देखने को मिलते हैं, उनके पिता को मन्नू
भंडारी के माता-पिता की तरह उनकी शिक्षा और आजादी के लिए अलग से प्रयास नहीं करने
पड़ते हैं। इसके बरक्स मन्नू भंडारी की आज़ादी की सीमाएँ निर्धारित हैं। दोनों
परिवारों में पिता ही मुख्य भूमिका में दिखाई पड़ते हैं, वे ही बच्चों के विकास
में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए दिखाई पड़ते हैं। जबकि ‘मुड़-मुड़के देखता
हूँ...’ आत्मकथा से पता चलता है कि राजेन्द्र यादव को पर्याप्त आज़ादी मिली थी।
बचपन में राजेन्द्र यादव को कहीं भी आने जाने की सीमा निर्धारित नहीं की गयी थी,
अपने बचपन के विषय में राजेन्द्र यादव लिखते हैं कि- “इसी तरह का रहा है बचपन। सारे दिन खेतों
में घूमते हैं, बम्बे के आसपास भटकते हैं, मरीज़ों, कंजरों, जमादार, कम्पाउंडरों
के बच्चों के साथ ऊधम मचाते हैं, अस्पताल में जाकर 26 और 8 नवम्बर को शर्बत पीते
हैं, ग्लीसरीन और पोटेशियम परमैगनेट मिलाकर आग जलाते हैं, पेड़ों पर चढ़ते हैं और
जाने कहाँ-कहाँ से पकड़कर लाए जाते हैं।”([4]) ये बचपन में लड़कों की स्वतंत्रता के
उदाहरण हैं। समाज की धारणा है कि बाहर का परिवेश लड़कों का है, जहाँ लड़कों की
सुरक्षा का सवाल नहीं होता है। मन्नू भंडारी के पिता ने बहुत सारी स्वतंत्रताएँ
बेटियों के लिए दे रखी थी। इन स्वतंत्रताओं के बावजूद लड़कियों में एक धारणा बन
गयी है कि घर के बाहर का परिवेश उनके लिए असुरक्षित है। यह असुरक्षा लड़कियों को
लड़कियों से नहीं बल्कि लड़कों से ज्यादा होती है। अतः सीमाएँ उन लोगों की
निर्धारित की जांनी चाहिए,जो समाज में असुरक्षा पैदा करते हैं। इसी असुरक्षा के कारण
माता-पिता न चाहते हुए भी अपनी लड़कियों पर वे सारी सीमाएँ निर्धारित कर देते हैं,
जो उनके लिए नहीं हैं।
जेण्डर आधारित भेद-भाव की धारणा में तीव्र परिवर्तन होता
नहीं दिखाई पड़ रहा है। शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन के बावजूद ऐसे विचारों का
प्रसार समाज में नहीं हो रहा है जिससे लड़के-लड़की में हो रहे विभेद समाप्त किए जा
सकें। लड़कियों के प्रति साठ साल पहले(मन्नू भंडारी के समय) की स्थितियाँ और
वर्तमान की स्थितियों में, जेण्डर भेद की धारणा में बहुत कम बदलाव हुए हैं। आधुनिक
समय में भी ऐसे कम अभिवावक हैं, जो जेण्डर भेद को अस्वीकार कर समानता का व्यवहार
करने का प्रयास करते हैं। मन्नू भंडारी के पिता अपनी संतानों के साथ समानता का
व्यवहार करने का प्रयास करते हैं। उनके इन्हीं प्रयासों से मन्नू भंडारी कॉलेज में
पढ़ाई के साथ-साथ अनेक गतिविधियों में भाग लेने लगती हैं। उनकी ऐसी गतिविधियों पर
लोग शिकायत भी करने लगते हैं। कॉलेज से मिली एक शिकायत पर मन्नू भंडारी के पिता की
प्रतिक्रिया इस तरह थी- “यह लड़की मुझे
कहीं मुँह दिखाने लायक़ नहीं रखेगी...पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जाकर!
चार बच्चे पहले भी पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया।”([5]) लड़कियों की बाहरी गतिविधियाँ माता-पिता को मुँह दिखाने के लिए
नहीं रखती हैं। ऐसे भ्रमों में उनके पिता भी पड़ते दिखाई पड़ रहे हैं और इन्हीं
मान्यताओं के चलते वे मन्नू भंडारी की स्वतंत्रता का दायरा तय करने की सोचने लगते
हैं। मन्नू भंडारी की आत्मकथा में इसका वर्णन इस तरह मिलता है- “पिताजी की आज़ादी की सीमा यही तक थी
उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उठूँ-बैठूँ, जानूँ-समझूँ। हाथ उठा-उठाकर
नारे लगाती, हड़तालें करवाती, लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी
सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था, तो किसी की दी हुई आज़ादी के दायरे मे
चलना मेरे लिए।”([6]) मध्यवर्गीय परिवारों में लड़कियों की
स्वतंत्रता को घर तक सीमित रखना अच्छा समझा जाता है। इस वर्ग में जो पढ़े-लिखे लोग
हैं, सीमित परिवर्तनों को अनुसरण करने की कोशिश करते हैं लेकिन उनकी प्रगतिशीलता
समाज में प्रचलित पारंपरिक दबावों के आगे कमजोर पड़ जाती है। इसी कारण, लड़कियों
को जब-जब स्वतंत्रता देने की बात आती है, वे सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि
कारणों से पीछे हट जाते हैं।
राजेन्द्र यादव को माता-पिता द्वारा शैक्षिक माहौल बचपन से
ही मिला। उनकी माता नैतिकता के गुणों से युक्त कहानियों को सुनाती थीं। पिता
इन्हें घटना-प्रधान, जासूसी, तिलस्मी आदि पर आधारित उपन्यास और कहानी सुनाते थे-
“दिन में अस्पताल के समय के अलावा पिताजी मेरे पास अक्सर ही आराम से मूढ़े पर
बैठकर अलिफ-लैला, दास्तान अमीर हम्ज़ा की कहानियाँ पढ़कर सुनाते हैं और जहाँ छोड़
जाते है, वहाँ मेरी जान अटकी रहती हैं। मैं खुद सारे दिन इन्हीं किताबों को पढ़ता
हूँ ...और धीरे-धीरे हिन्दी-उर्दू के घटना-प्रधान, जासूसी-तिलस्मी उपन्यासों पर आ
जाता हूँ।”([7]) पिता के इन संस्कारों से राजेन्द्र यादव की साहित्य के प्रति
रुचि जागृति होती गई।
मन्नू भंडारी के
पिता की कुछ सीमाओं को छोड़ दिया जाय, तो उनकी जागरूकता का ही परिणाम है कि मन्नू भंडारी
स्कूल-कॉलेजों के दिन से ही अपनी पहचान के प्रति सतर्क हो गई थीं। यही सतर्कता
कभी-कभी उन्हें पिता के बदलते विचारों के विरोध में ले जाती है। इनके पिता जागरूक, तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन समाज में
लड़कियों के लिए प्रचलित, कुछ नैतिक मूल्यों के कारण कभी-कभी मन्नू भंडारी को अधिक
स्वतंत्रता देने के पक्ष में नहीं दिखाई पड़ते हैं। बाद में, वे इतनी सतर्क हो
गयीं कि पिता की अनेक बातों पर अपनी असहमति प्रकट करने लगती हैं। इसका उदाहरण इस
तरह मिलता है- “जब
रगों में लहू की जगह लावा बहता हो, तो सारे निषेध, सारी वर्जनाएँ और सारे भय कैसे ध्वस्त हो
जाता है, यह तभी जाना और अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिताजी से टक्कर लेने
का सिलसिला तब शुरू हुआ था, राजेन्द्र से शादी की, तब तक वह चलता ही रहा।”([8]) स्त्रियों का पितृसत्ता के खिलाफ जाने
का मतलब है, परंपरा से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देना है। ऐसी चुनौती
मन्नू भंडारी स्वीकार करती हैं जिसके परिणामस्वरूप मन्नू भंडारी को पिता के खिलाफ
भी जाना पड़ता है। स्पष्ट होता है कि समाज में स्त्री-पुरुष अधिकारों को लेकर
घरेलू एवं बाहरी परिवेश में द्वन्द्व बढ़ा है। खासकर मध्यवर्ग और उच्चवर्ग में
जहाँ लड़कियों की पहुँच शिक्षा में बढ़ी है।
प्रगतिशील कहे
जाने वाले अनेक मध्यवर्गीय परिवारों के लोगों ने लड़कियों को शिक्षा और स्वतंत्रता
देना शुरू कर दिए हैं। लेकिन कुछ अड़चनों के आते ही वे अपनी इस पहल से विचलित भी
होने लगते हैं। ऐसी मानसिकता रखने वाले लोग न, तो प्रगतिशील और न ही पूरी तरह परंपरा
से मुक्त हो पाते हैं। मन्नू भंडारी कॉलेज में विद्यार्थियों के अधिकारों की माँग
और देश की राजनीति के पक्ष-विपक्ष में भाषणों और हड़तालों में भाग लेती हैं। उनकी
ऐसी गतिविधियों में भाग लेने के कारण, एक बार कॉलेज से नोटिस आ गया, जिसे पढ़कर
उनके पिता, मन्नू भंडारी पर क्रोध करते हैं। इसका उदाहरण मन्नू भंडारी की आत्मकथा
‘एक कहानी यह भी’ में इस तरह मिलता है- “यश-कामना, बल्कि कहूँ कि यश-लिप्सा,
पिताजी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके जीवन की धुरी था यह सिद्धान्त कि व्यक्ति
को कुछ विशिष्ट बनकर जीना चाहिए ...कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम
हो, सम्मान हो, प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हो। इसके चलते ही मैं दो-एक बार उनके कोप से
बच गई थी। एक बार कॉलेज से प्रिंसिपल का पत्र आया कि पिताजी आकर मिलें और बताएँ कि
मेरी गतिविधियों के कारण मेरे ख़िलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही क्यों न की जाए? पत्र पढ़ते ही पिताजी आग-बाबूला!”([9])
लड़कियों के प्रति तत्कालीन परिस्थितियाँ बहुत जटिल थीं। उनके
पिता जी ने मन्नू भंडारी से बड़ी बेटियों को पर्याप्त स्वतंत्रताएँ नहीं दे पाए
थे, लेकिन उन्होंने अपनी छोटी बेटी मन्नू भंडारी को बहुत सारी सामाजिक वर्जनाओं के
बावजूद पर्याप्त सुविधाएँ दिए थे, जिससे पता चलता है कि बदलते समय के साथ-साथ उनके
विचारों में भी बदलाव होते आए। वे मन्नू भंडारी की शिक्षा और गतिविधियों पर गर्व
भी करते हैं। इसका वर्णन ‘एक कहानी यह भी’ में इस तरह मिलता है- “सारे कॉलेज की लड़कियों पर इतना रौब है
तेरा ...सारा कॉलेज तुम तीन लड़कियों के इशारे पर चल रहा हैl प्रिंसिपल बहुत परेशान थीं और बार-बार
आग्रह कर रही थीं कि मैं तुझे घर बिठा लूँ, क्योंकि वे लोग किसी तरह डरा-धमकाकर,
डाँट-डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और अगर तुम लोग एक इशारा कर दो कि
क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ, तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने
लगती हैं। तुम लोगों के मारे कॉलेज चलाना मुश्किल हो गया है उन लोगों के लिए। कहाँ, तो जाते समय पिताजी मुँह दिखाने से घबरा
रहे थे और कहाँ बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो आज पूरे देश की पुकार है ...इस पर
कोई कैसे रोक लगा सकता है भला बेहद गदगद स्वर में पिताजी यह सब सुनाते रहे और मैं
अवाक्।”([10]) मन्नू भंडारी के व्यक्तित्व निर्माण में उनकी इस भूमिका को
नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, जिन्होंने मन्नू भंडारी को बाहरी परिवेश से जुड़ने
का अवसर दिया। पिता के इस योगदान को मन्नू भंडारी भी स्वीकार करती हैं। भारतीय
समाज में लड़कियों को गृहकार्य में कुशल बनाने की मानसिकता है। वे इसको नहीं मानते
हैं तथा मन्नू भंडारी को रसोईघर में जाने से रोकते हैं। इस विषय में वे लिखती हैं कि-
“पिताजी का ध्यान पहली बार मुझ पर केन्द्रित हुआ। लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली
शिक्षा के साथ-साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल पाक-शास्त्री बनाने के नुस्खे रटाए जाते
थे, पिताजी का आग्रह रहता था कि मैं रसोई से दूर ही रहूँ। रसोई को वे भटियारखाना
कहते थे और उनके हिसाब से वहाँ रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना
था।”([11]) यहाँ पर लड़कियों के
प्रति उनकी दृष्टि काफी प्रगतिशील दिखाई पड़ती है। इस प्रकार माना जा सकता है कि समान
वातावरण मिलने से लड़कियों की क्षमताओं में वृद्धि हुई है। क्योंकि वातावरण का
व्यक्तित्व के निर्माण अहम भूमिका होती है। मनोवैज्ञानिकों का भी मानना है कि
वातावरण और वंशानुक्रम का व्यक्ति के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। मैकाइवर पेज का इन दोनों
कारकों के विषय में मानना है कि- “जीवन की हर घटना दोनों का परिणाम होती है।
परिणाम के लिये उनमें से एक भी उतनी ही आवश्यक है, जितनी की दूसरी। कोई भी न कभी
हटाई जा सकती है और न अलग की जा सकती है।”([12]) आज टेनिस, क्रिकेट, बैडमिंटन, मुक्केबाजी, निशानेबाजी, एथीलीट,
तैराकी, पर्वतारोहण, सेवा, उद्योग-धन्धे आदि क्षेत्रों में लड़कियों ने समाज की
भ्रांतियाँ तोड़ी हैं। इससे सिद्ध होता है कि वे लड़कों की बराबरी ही नहीं उनसे
ज्यादा ताकतवर हैं। इससे पता चलता है कि बिना भेदभाव की हुई परवरिश समान क्षमता का
निर्माण करती है।
बच्चों को शिक्षा प्रदान करते समय अधिकांश परिवारों में यह
धारणा बनी हुई है कि लड़कों की शिक्षा से समाज, खासकर परिवार के मानवीय संसाधनों
का पूर्ण विकास होता है। इसलिए लड़कों की शिक्षा में निवेश करने में माता-पिता या
अभिवावक अधिक विश्वास रखते हैं। लड़की विवाह के बाद पराए घर चली जाती है। अतः
लड़की की शिक्षा में निवेश को अधिकांश परिवार ठीक नहीं मानते हैं। जबकि लड़कों की
शिक्षा के लिए अच्छा वातावरण देने के लिए सारा परिवार प्रयास करता है। राजेन्द्र
यादव की शिक्षा से संबंधित उनके माता-पिता की चिंता इस तरह है- “पढ़ाई की व्यवस्था या सामान्य वातावरण
अच्छा नहीं है, इसीलिए हम दो भाइयों को पिताजी- ने भेज दिया है चाचाजी के
पास-मवाना कलाँ, जिला मेरठ। यहाँ ज्यादा अनुशासित माहौल है कचहरी से लौटकर चाचाजी
रोज़ देखते है कि हमने स्कूल या घर पर क्या पढ़ा है।”([13])
अधिकांश माता-पिता बेटियों के संस्कार में अपनी
क्षमतानुसार समानता का व्यवहार करते हैं। मन्नू भंडारी के पिता बेटों के साथ-साथ
बेटियों को भी शिक्षा के पर्याप्त अवसर दिए। शिक्षा के अवसर देने के साथ-साथ
पर्दा-प्रथा और जेण्डर-भेद को भी नहीं मानते थे। मन्नू भंडारी ने, पिता के द्वारा
लड़के और लड़कियों मेंजेंडरगत भेद, बाल विवाह तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों का विरोध
बचपन से ही देखा था। उन्होंने अपनी बड़ी बेटी सुशीला का विवाह बिना घूँघट-परदे के
संपन्न करके उदाहरण भी पेश करते हैं,जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था। वे मन्नू
भंडारी को भी देश-दुनिया के विषय में जानने का पर्याप्त अवसर दिया करते थे। कांग्रेस,
कम्युनिस्ट पार्टी, आर.एस.एस. के लोग इनके घर आते थे और राजनीति पर बातें होती हैं।
उनकी इच्छा थी कि मन्नू भंडारी भी इन बहसों में शामिल हो तथा देश की स्थितियों के
विषय में जानकारी प्राप्त करे। इनका प्रभाव मन्नू भंडारी पर पड़ा। वे कॉलेज के
दिनों में हड़तालें करवातीं, भाषण देतीं तथा लड़कों के साथ विभिन्न कार्यवाहियों में
भाग लेती हैं। उनकी इन गतिविधियों का विरोध कई लोगों ने किया। इसका उदाहरण इस तरह मिलता
है कि- “इसी बीच पिता के एक निहायत दकियानूसी मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिताजी की
लू उतारी- “अरे उस मन्नू की, तो मत मारी गई है भंडारी जी, पर आपको क्या हुआ? ठीक है,
आपने लड़कियों को आजादी दी, पर देखते आप, जाने कैसे-कैसे उलटे-सीधे लड़को के साथ
हड़तालें करवाती, हुड़दंग मचाती फिर रही है वह। हमारे-आपके घरों की लड़कियों को शोभा
देता है यह सब? कोई मान-मर्यादा, इज्जत-आबरू का खयाल भी रह गया है आपको की या
नहीं?”([14]) स्पष्ट होता है कि परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त, भाषण,
हड़ताल आदि गतिविधियों में भाग लेने या सक्रिय रहने से पुरुष अपनी पहचान बनाता है।
जबकि स्त्रियों के लिए यह ‘आबरु’ का प्रश्न बना दिया जाता है। समाज की नजर में
स्त्रियों को घर की चहारदीवारी में कैद करने से ही परिवार की इज्जत बढ़ती है। फिर वे
घर परिवार में किसी की पत्नी, माँ, बहन, बेटी आदि रिश्तों में सीमित होकर रह जाती
है। परंपरा से उन्हें, इन्हीं रिश्तों के माध्यम से जाना जाता रहा है। वे अमुक
व्यक्ति की पत्नी, माँ, बेटी, बहन, बुआ आदि रिश्तों से ही पहचानी जाती हैं।
आज जब स्त्रियाँ शिक्षित होने लगी है, तो अपनी अस्मिता के प्रति सचेत हुई हैं।
ओमा शर्मा द्वारा लिए एक साक्षात्कार में मन्नू भंडारी कहती हैं कि- “जब स्त्री शिक्षित
होने लगी, तो
सबसे पहला टकराव रिश्तों से होने लगा। जब स्त्री अपनी इच्छा व्यक्त करने लगी, तो माँ-बाप तक उससे संबंध, तोड़ने पर उतर आये। खुद मैं इसकी गवाह
हूँ।”([15]) इस प्रकार मन्नू भंडारी की स्वतंत्रता पुरुष प्रधान समाज को चोट
पहुँचाती है। इसका अनुभव उनको जीवन पर्यंत होता है। जबकि राजेन्द्र यादव लेखन
कार्य में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं स्वीकार करते थे। वे लेखक की स्वतंत्रता को
लेखन कार्य के लिए अनिवार्य मानते थे। कभी-कभी वे विभिन्न प्रदेशों या स्थानों पर
जाकर लेखन कार्य करते थे। ‘देवताओं की मूर्तियाँ’ कहानी संग्रह में, उन्होंने लेखक
की इसी स्वतंत्रता की वकालत की हैकि- “मेरा दूसरा कहानी संग्रह ‘देवताओं की
मूर्तियाँ’ वहीं से आया। इसी नाम की कहानी में मैने लेखकीय स्वतन्त्रता की पुरजोर
वकालत की थी। दूसरे शब्दों में अपनी लेखकीय स्थापना दी थी।”([16]) अतः शिक्षा, रोजगार, राजनीति, लेखन आदि किसी भी क्षेत्र की स्वतंत्रता
हो, यहाँ भी भेद किया जाता है।
भारतीय समाज जेण्डर आधारित अवधारणा से संचालित होता है,
जिससे बच्चों के बीच विभेद पैदा होता है। यही अवधारणा आगे चलकर पति-पत्नी,
माता-पिता, भाई-बहन आदि के संबंधों को प्रभावित करते हैं। दोनों आत्मकथाओं से पता
चलता है कि इनके पात्रों का जीवन भी समाज में प्रचलित इन विभेदकारी मानकों से
संचालित हो रहा है। बहुत से परिवारों में जेण्डर आधारित शिक्षा दी जाती है।
लड़कियों की शिक्षा के विषय में ‘एक कहानी यह भी’ में मिलता है कि- “उस समय हमारे
परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता थी- उम्र में सोलह वर्ष और
शिक्षा में मैट्रिक। सन् 1944 में सुशीला ने यह योग्यता प्राप्त की और शादी करके
कलकत्ता चली गई। दोनों भाई भी आगे की पढ़ाई के लिए बाहर चले गए।”([17]) जबकि कानूनी रूप से 16 वर्ष की उम्र में लड़कियों का विवाह गैर
कानूनी है। विवाह की उम्र के विषय में सुषमा मेंढ़ लिखती हैं कि- “लड़के और लड़की
की शादी की न्यूनतम उम्र तय की गई है। लड़के की 21 वर्ष और लड़की की 18 वर्ष।”([18]) इसके बावजूद लड़कियों के विवाह के बारे में उनके माता पिता
चिन्तित रहते हैं कि कितना जल्दी वह पराए घर जाए और उनकी चिन्ता खत्म हो।
शिक्षा विद्यार्थियों को बाहरी परिवेश से भी जोड़ती है।
लड़कियाँ शिक्षा के बहाने ही बचपन में घर से बाहर निकल पाती हैं। एक समय के बाद
लड़कियों का वैवाहिक जीवन में बँधना तय होता है। विवाह के बाद लड़कियों को शिक्षा
छोड़नी पड़ती है, साथ ही उनके जीवन का दायरा भी सीमित हो जाता है, जबकि लड़कों के लिए ऐसी कोई सीमा नहीं
होती है। लड़कियों के किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते उनकी शादी के लिए माता-पिता
परेशान होने लगते हैं इसके विपरीत इस उम्र के लड़कों के बेहतर भविष्य के लिए
योजनाएँ बनाई जाने लगती हैं। राजेन्द्र यादव के बेहतर भविष्य के लिए उनके अभिवावक चिंता
व्यक्त करते हैं, जो इस प्रकारहै- “पढ़ाई फिर से बाक़ायदा शुरू हो गई है।
पं. रामस्वरूप शर्मा सिर्फ़ पढ़ाते ही हैं, पूरे व्यक्तित्व के विकास में दिलचस्पी
लेते हैं। पिताजी के सबसे अच्छे मित्र हैं। दोनों ही अक्सर मेरे भविष्य को लेकर
चिन्तित रहते हैं।”([19]) मन्नू भंडारी की बहन सुशीला के मैट्रिक पास करते ही उसकी शादी
कर दी जाती है जबकि उनके भाइयों को आगे की शिक्षा के लिए बाहर भेज दिया जाता है।
इसी तरह का अवसर राजेन्द्र यादव को भी मिलता है, जिनके भविष्य की चिन्ता सभी लोग
करते दिखाई पड़ते हैं।
निष्कर्ष:
शैक्षणिक संस्थान वह व्यवस्था है। जहाँ विभिन्न परिवेशों
से आए हुए बच्चों का जुड़ाव होता है। वे समाज से जुड़े अनुभव प्राप्त करते हैं।
लेकिन यह विडंबना है कि लड़कियों की शिक्षा के साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है। माता-पिता
भी सामाजिक परंपराओं से बाध्य होकर लड़कियों की शिक्षा के लिए चाहे-अनचाहे में ध्यान
नहीं दे पाते हैं। ऐसा ज्यादातर मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों में बहुधा
देखा जा सकता है। ये शैक्षणिक गतिविधियाँ पुरुष वर्चस्व बनाए रखने में अहम भूमिका
निभाती हैं। राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी की आत्मकथाओं में जेंडर आधारित
शैक्षणिक भेद-भाव देखे जा सकते हैं। इस प्रकार माना जा सकता है। शिक्षा वह माध्यम है, जिससे व्यक्तित्व का
सर्वांगीण विकास होता है। इसके अभाव में व्यक्ति की निर्णय क्षमता प्रभावित होती
है। जो आगे चलकर उसके जीवन को प्रभावित करती है।
सन्दर्भ :
([1].)हरिनारायण
(संपादक). कथाकार मन्नू भंडारी पर एकाग्र,कथादेश, सहयात्रा प्रकाशन,
दिल्ली, अंक-11, पृष्ठ संख्या- 102
([2].)भंडारी, मन्नू. एक
कहानी यह भी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण,
2007, दूसरी आवृत्ति,
2009, पृष्ठ संख्या-19
([3].)गीता,
वी.
पुरुषत्व और स्त्रीत्व असली हैं ये विचार,जेंडर
और शिक्षा रीडर भाग-2,
संपादक- रंजीत अभिज्ञान, पूर्वा
भारद्वाज, निरंतर
प्रकाशन, नई
दिल्ली, पहला
संस्करण,
फरवरी, 2011,
पृष्ठ
संख्या-139
([4].)
यादव, राजेन्द्र. मुड़-मुड़के देखता हूँ...,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
पहला संस्करण, 2001, दूसरी आवृत्ति, 2012, पृष्ठ संख्या-53
सतवन्तसिंह
शोधार्थी हिन्दी अध्ययन एवं शोध केन्द्र, गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गाँधीनगर
satvant5292@gmail.com, 8318670957
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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