प्रेमचंद और ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों का तुलनात्मक अध्ययन (‘सद्गति’ और ‘गोहत्या’ कहानी के सन्दर्भ में)
-सदानंद वर्मा
शोध सार :
प्रेमचंद और ओमप्रकाश वाल्मीकि दोनों साहित्य जगत के
अग्रणीय रचनाकार हैं। दलित समाज और उनकी परिस्थितियों पर दोनों रचनाकारों ने
अपने-अपने तरीके से लेखन कार्य किया है। प्रेमचंद निश्चित तौर पर दलित समाज से
जुड़े या उस समाज के रचनाकार नहीं रहे किन्तु उन्होंने अपने आस-पास घटित दलित
समुदाय से सम्बंधित घटनाओं को जिस रूप में देखा, आभास किया उसे उन्होंने उसी रूप में
अपने लेखन में स्थान भी दिया है। उनके द्वारा वर्णित दलित समाज की दशा और पीड़ा
यथार्थ हैं। उन्होंने सवर्ण समाज और भारतीय समाज में विद्यमान छुआ-छूत, भेद-भाव, जाति-पात,
शोषण, गरीबी व भुखमरी की एक-एक परतों को खोलने का प्रयास किया है। किन्तु दलित
चेतना के स्तर पर मूल्यांकन करने के बाद उनके यहाँ निराशा ही हाथ लगती है, जिस
तरीके से ओमप्रकाश वाल्मीकि व अन्य अम्बेडकरवादी रचनाकारों के यहाँ दलित जीवन से
जुड़ी स्थितियों, घटनाओं व समस्याओं इत्यादि का चित्रण जिस रूप या विचारधारा में किया
जा रहा है उस तरह की सोच और विचारधारा प्रेमचंद के पात्रों के यहाँ निराशा उत्पन्न
कराती हैं। चूँकि दोनों रचनाकारों के यहाँ पात्र, विषय एवं मुद्दे लगभग समान ही
दिखाई पड़ते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि, नजरिया व सोच में काफी कुछ परिवर्तन देखने को
मिलता है।
बीज शब्द : अम्बेडकरवादी चिंतन, दलित चेतना, प्रतिरोध, ब्राह्मणवाद, भाग्याबाद, पुरोहितवाद,
बंधुत्व, अस्मिता।
मूल आलेख :
भारतीय
समाज में सदियों से गरीबी, भुखमरी, हताशा, निराशा और सामाजिक व धार्मिक आडम्बरों
एवं षड्यंत्रों के भयावह वातावरण में जीवन व्यतीत करने के लिए न केवल दलितों को
मजबूर किया जाता रहा है, बल्कि जीवन से जुड़े आवश्यक वस्तुओं व उनके अधिकारों से भी
उन्हें वंचित रखा जाता रहा है। ऐसे में उन्हें अपने जीवन से सम्बंधित मूलभूत आवश्यकताओं
को पाने हेतु आज भी संघर्षरत रहना पड़ रहा है। चूँकि औपनिवेशिक भारत और स्वतन्त्र
भारत की स्थितियों, मूल्यों एवं सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ परिवर्तन देखने को मिला
है। लेकिन पारम्परिकता, रूढ़िवादिता एवं धार्मिक जकडबंदी का स्वरूप कमोवेश आज भी वैसा
का वैसा ही बना हुआ दिखाई पड़ता है जिसके कारण समाज में अमानवीयता, शोषण, अन्याय,
पाखण्ड, असमानता आदि का भाव पूर्णतः विद्यमान है। इसका सबसे ज्यादा ख़ामियाजा
दलितों, पिछड़ों व वंचितों को भुगतना पड़ता है। यही कारण है कि वे आज भी अपने आत्मसम्मान,
प्रतिष्ठा, गौरव, अधिकार एवं पहचान को पाने के लिए अनेकानेक चुनौतियों का सामना करते
हुए नज़र आते हैं।
दलित
समाज और उनके जीवन से सम्बंधित घटनाओं, स्थितियों-परिस्थितियों, मूल्यों आदि पर जैसे
ही विचार करने का प्रयास किया जाता है; वैसे ही हमारा ध्यान प्रेमचंद के लेखन के समक्ष
जाकर ठहरने लगता है। उनके लेखन में चित्रित जातिदंश, छुआ-छूत, अमानवीय व्यवहार आदि
जैसी स्थितियों का चित्रण अकारण नहीं, बल्कि ये सब समाज में व्याप्त असमानता,
छुआ-छूत, पाखण्ड एवं जातिगत भेद-भाव की स्थितियों को प्रदर्शित करता हुआ नज़र आता है।
प्रेमचंद ने जिस दलित, शोषित व पीड़ित समाज के ऊपर अपनी लेखनी चलाई है, उसी समाज का चित्रण दलित
साहित्यकारों ने भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस क्रम में ओमप्रकाश
वाल्मीकि का स्थान सबसे पहले लिया जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि हिन्दी
कहानियों में दलित विमर्श को प्रस्तुत करने तथा उसे एक व्यवस्थित आकार देने में ओमप्रकाश
वाल्मीकि की महती भूमिका रही है। उन्होंने न केवल दलित जीवन की विषंगतियों, रोजमर्रा
के जीवनबोध व संघर्षों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है बल्कि साहित्य में
मानवीय मूल्यों, आदर्शों व स्वतंत्रता, समानता जैसे पहलुओं को भी अपनाने पर बल
दिया है। यही कारण है कि उनके लेखन में जहाँ एक ओर अपने जीवन में मिलने वाले असहनी
दर्द व पीड़ा की स्थिति दिखाई पड़ती है तो वहीँ दूसरी ओर इस पीड़ा से मुक्त होने की तीव्र
इच्छा भी देखने को मिलती है।
भारतीय समाज का सबसे दर्दनाक व घिनौना पहलू है- वर्ण
व्यवस्था, जिसे सदियों से धर्म और कानून का रूप देकर समाज में असमानता को वैधता
देने वाली इस व्यवस्था को लागू किया जाता रहा है। जन्म पर किसी मनुष्य का अधिकार
नहीं है और न ही उसकी इच्छा है कि वह गरीब, असहाय और निम्न श्रेणी में रखा जाय। जन्म
के समय किसी व्यक्ति से यह नहीं पूछा जाता कि उसे किस वर्ग, समुदाय या जाति में जन्म लेना है। उसे
हिन्दू बनना है या मुसलमान, गोरा बनना है या काला, सवर्ण बनना है या अवर्ण। लेकिन जिस समाज में वह पैदा होता है उस समाज में
मौजूद विचारों, संस्कारों, मान्यताओं, रिवाजों, विश्वासों आदि को वह अपने अन्दर आत्मसात
करता जाता है। चूँकि यह अकारण नहीं बल्कि स्वाभाविक होता है जिसका प्रभाव उसके
व्यक्तित्व पर पड़ता हुआ दिखाई पड़ता है। यही कारण है, कि जब वह इन अर्जित विचारों
का प्रयोग अपनी जीवन शैली या व्यवहारिक क्रिया-क्लापों में करता हुआ नज़र आता है तब
वहां उसकी दृष्टि, सोच, मानसिकता आदि में फर्क दिखाई पड़ने लगता है। यही फर्क उसे
शोषकवर्ग, सामन्ती और आदमखोर मानसिकता वाले व्यक्तियों की स्थिति में ले जाकर खड़ा करता
है जिसके अन्दर छुआ-छूत, भेद-भाव, ऊँच-नीच आदि जैसी विषंगतियों का होना स्वाभाविक है।
भारतीय समाज में विद्यमान वर्ण-व्यवस्था के स्वरूप पर विचार
करते हुए सदानंद शाही लिखते हैं, कि ““वर्ण व्यवस्था हमारे भीतर यह मिथ्या चेतना भर दी है कि अछूत कोई ‘दूसरे’ हैं। इस मिथ्या चेतना ने अछूत जातियों और समूहों के प्रति घृणा की भावना उत्पन्न की
है।””1 धर्मशास्त्रों के विधान होने के नाते स्वर्ग-नरक, ऊंच-नीच, पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, भाग्यवाद, कर्मफल जैसी तमाम बातें सहस्त्राब्दियों से हमारे मानस में संस्कारों के रूप में विद्यमान है। मनुष्य चाह कर भी उसकी गिरफ्त से अलग नहीं हो पाता। इस
संस्कारबद्ध मानस के लिए अधिसंख्य मनुष्य हमारे यहां हजारों सालों से उस नरक को भोग रहें हैं,
जो उसकी नियति के रूप में धर्मशास्त्रों में लिख दी गई हैं। ‘सद्गति’
और ‘गोहत्या’ में
इसी नरक व पीड़ा को हमारे सामने लाया गया है जो दुखी और सुक्का की नियति बनकर उसके ऊपर हावी है। ‘सद्गति’ कहानी में दुखी विचार करते हुए कहता है, ““पंडित
हैं, कहीं साइत ठीक न विचारे, तो फिर सत्यनाश ही हो जाए। जभी तो संसार में इतना मान है। साइत ही का तो
सब खेल है। जिसे चाहे बना दे, जिसे चाहे बिगाड़ दें।””2
ठीक यही वर्णवादी संस्कार ‘गोहत्या’ कहानी में भी देखने को मिलता है। लेकिन यहाँ
पंडित रामसरन जैसे लोग जो वेदशास्त्र और धर्म की आड़ में अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध
करने के लिए जैसे ही अनुकूल समय देखते हैं चौंक कर कहते हैं- “गोहत्या से बढ़कर कोई
पाप नहीं होता, मुखिया। गोहत्या करने वाले को तो नरक में भी
जगह नहीं मिलती। कौन है वह कमीना, जिसने साक्षात् नंदनी की
हत्या कर दी।””3 प्रेमचंद हो या ओमप्रकाश वाल्मीकि दोनों ब्राह्मणवादी
मानसिकता के उस छद्म को अच्छी तरह पहचानते हैं जिसका सहारा लेकर सदियों से उनके
साथ छलाव किया जाता रहा है और वह उस छलाव को अपना भाग्यफल समझते हुए भोगता रहा है।
ब्राह्मणवादी मानसिकता का स्पष्ट स्वरूप प्रेमचंद की कहानी ‘सवा सेर गेहू’ में भी
दिखाई पड़ता है जहां गरीब शंकर विप्र जी से कहता है- “”महाराज तुम्हारा जितना होगा यही दूंगा, ईश्वर के यहां क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काटें बोऊं?..... मैं तो दे दूंगा, लेकिन तुम्हें भगवान के यहां जवाब देना पड़ेगा।””4
इस बात के जबाब में विप्र जी का वक्तव्य उनके छद्म रूपी मानसिकता को स्पष्ट करता
है। शंकर की बात का उत्तर देते हुए विप्र जी कहते हैं- ““वहाँ
का
डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहां तो सब अपने ही भाई-बंधु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं, देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगा,
संभाल लेंगे।””5
ब्राह्मण वर्ग की मानसिकता की पोल शायद इस कहानी में जितना स्पष्ट हुआ है उतना और
कहीं बिरले ही देखने को मिलता है। समाज में ब्राह्मणों के प्रभाव को देखते हुए ही
तो ‘सद्गति’ कहानी में दुखी यह कहता हुआ नजर आता है, कि ““और सबके रुपए मारे जाते
हैं ब्राह्मण के रुपए भला कोई मार तो ले! घर भर का सत्यानाश हो जाए, पाँव गल-गल कर गिरने लगेंगे।””6
यहां दु:खी की एक-एक बात समाज के उस वास्तविक स्वरूप की पोल खोलती है जिसके आधार
पर वर्णवादी व्यवस्था कायम है, तभी तो आज भी समाज में ब्राह्मण वर्ग को देव तुल्य
समझा जाता रहा है।
चाहे ‘सद्गति’ का दुखी हो या ‘गोहत्या’ का सुक्का दोनों
वर्ण-व्यवस्था की जकड़नों में ऐसे जकड़े हुए हैं कि उनके साथ हो रहे छलाव व शोषण
उन्हें दिखाई नहीं पड़ता और पंडित घासीराम तथा रामसरन जैसे लोग सदियों से चली आ रही
उस व्यवस्था का फायदा उठाकर चैन की रोटियां सेकते नज़र आते रहते हैं। समय-समय पर यही
लोग धर्म का हवाला देते हुए उन्हें आस्वस्थ भी करते रहते हैं ताकि उनके कार्यों
में कोई अवरोध उत्पन्न न हो सके। यदि सुक्का जैसे चेतनाप्रद दलित इस धर्म के खिलाफ
आवाज उठाने की कोशिश करता भी है तो उसकी आवज जबरन दबा दी जाती है। इस संबंध में
ओमप्रकाश वाल्मीकि का कथन उचित ठहरता है जब वे लिखते हैं, कि “”एक ऐसे समाज के निर्माण में धर्म का उपयोग होता है, जहां अधिकांश लोग सिर्फ आश्रित होते हैं। यही कारण है कि धर्म कभी भी आश्रयदाता के विरुद्ध नहीं खड़ा हुआ और न ही कभी दासता के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई। दलितों के लिए धर्म एक डरावनी संस्था है जो आवश्यकता पड़ने पर दलितों, आदिवासियों का इस्तेमाल तो करती है किंतु उसके अस्तित्व और अस्मिता के प्रति असंवेदनशील है।””7
स्पष्ट है कि धर्म की संकल्पना लोगों के अन्दर डर को व्याप्त कराने के लिए ही लाई गई
है, जिसकी आड़ में कई सामाजिक कुरीतियों को बनाए रखा जाता रहा है।
महीप सिंह ने प्रेमचंद के कथा साहित्य में शोषक वर्ग की
स्थिति का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, ““प्रेमचंद के यहां शोषक वर्गों की एक मजबूत स्थिति दिखाई पड़ती है। जहां ब्राह्मण शोषक के रूप में सबसे बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखाई पड़ता है।””8 महीप सिंह की यह चिंता यथार्थ है।
निश्चित रूप से समाज में वर्ण-व्यवस्था को संचालित करने की बागडोर ब्राह्मण वर्ग
के हाथों में ही रही है। उसके द्वारा सृजित इस व्यवस्था के उन्नायकों में मुखिया, चौधरी और राजपूत जैसे लोग अपनी प्रतिष्ठा
और झूठी शान की डरावनी शक्ल समाज के सामने हमेशा से दिखाते रहें हैं। इस व्यवस्था
से वैश्य वर्ग भी अपने को बचा नहीं पाया है बल्कि यूं कहा जाय कि वह इस व्यवस्था
को जीवंत रखने में अपनी महती भूमिका निभाता रहा है। तथा समय मिलने पर वह भी दलितों
के शोषण में अपनी रोटियां सेकता नजर आता है।
प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘सद्गति’ के माध्यम से समाज के यथार्थ
को दिखाने का प्रयास किया है जब वे दुखी से कहलवाते हैं “”पत्तल में बड़े-बड़े आदमी
खाते हैं। वह पवित्तर है।”9 निश्चित तौर पर यहाँ भारतीय समाज का विरोधाभासी
स्वरूप दिखाई पड़ता है कि जिस समाज में दलितों की छाया तक पड़ना उच्च वर्ग के लोगों
के लिए नागवार होता उसके हाथ के बने पत्तल को वह पवित्र तो मान सकता है लेकिन उसे
इंसान नहीं मान सकता। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी हमें इस कहानी में देखने को मिल
जाता है। जब पण्डित घासीराम पंडिताइन से यह कहते हुए दिखाई पड़ते हैं कि “”कुछ
भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो ठो लिट्टा ठोंक दो। साले का पेट भर जाएगा। पतली
रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लिट्टा चाहिए।””10
मनुष्यता की बखान करने
वाले तथा समाज को आस्था और धर्म का पाठ पढ़ाने वाले पण्डित जी के मुंख से इस तरह की
बात कहलवाकर प्रेमचंद ने पण्डित घासीराम की ही नहीं बल्कि समाज के उन सभी
धर्माधिकारियों की पोल खोली है जो दलितों के प्रति दया, करुणा और इंसानियत की बात करते हुए तो दिखाई पड़ते हैं। किन्तु
अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, स्वार्थ और छुआ-छूत जैसे भावों को धारण
किए रहते हैं।
‘सद्गति’ हो या ‘गोहत्या’ दोनों कहानियों में दलित समाज को
ही शोषण और अत्याचार का शिकार बनाया जाता है। दुखी दलित है इसीलिए तो उसे देखते ही
पंडित घासीराम को अपने घर के सारे काम याद आ जाते हैं। मानो जैसे ये काम कितने
दिनों से छूटे पड़े थे। चूँकि वे इस कार्य के अहमियत को भी जानते हैं तभी तो वे पंडिताइन
को समझाते हुए कहते हैं, ““कोई लोनिया यही लकड़ी फाड़ता, तो कम-से-कम चार आने लेता।””11 स्पष्ट
है कि भारतीय समाज में दलित व्यक्तियों को केवल और केवल उपभोग करने की वस्तु के
रूप में ही समझा जाता रहा है। जब तक वह अपना मुख बंद किए सवर्णों के कार्यों को
करता रहता है तब तक तो उसपर दया और इंसानियत का ढोंग दिखाया जाता रहता है। लेकिन
जैसे ही वह इन कार्यों को नकारने या मुखरता से जबाब देने की अवस्था में आने लगता
है वैसे ही उसे ‘गोहत्या’ या इसी के जैसी घिनौनी घटनाओं का आरोप लगाकर न केवल उसे
दण्डित करने का प्रयास किया जाता है, बल्कि उसे सामाजिक व धार्मिक आडम्बरों में इस
प्रकार से उलझा दिया जाता है ताकि वह या उसके जैसे लोग दुबारा से ऐसी हरकतों को
करने से पहले उसके भयावह परिणामों से डर सकें। लेखक द्वारा ‘गोहत्या’ कहानी के
माध्यम से इसी तरह की घटनाओं को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। इस कहानी में
दलित पात्र सुक्का जब तक मुखिया जी के घर का कार्य स्वामिभक्ति के साथ करता रहता
है तब तक तो वह मुखिया जी का अच्छा सेवक होता है। लेकिन जैसे ही वह अपनी अस्मिता व
अपने अधिकारों की बात करने लगता है, वैसे ही वह मुखिया जी के आँखों में खटकने लगता
है। अब वह केवल मुखिया के लिए ही नहीं बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था के लिए चुनौती
उत्पन्न करने वाला बनने लगता है। यही कारण है कि मुखिया इसका बदला धार्मिक
षड्यंत्रों की आड़ में लेता है ताकि दलित लोगों में धर्म के प्रति डर को कायम रखा
जा सके और अपनी प्रतिष्ठा को भी बरकरार रखा जा सके। इसी उद्देश्य से एक दिन जब जंगली
जानवर पकड़ने वालों के हाथों उसके गाय की हत्या हो जाती है तो वह इस हत्या को षड्यंत्रकारी
रूप देते हुए सुक्का से अपना पुराना बदला लेने की रणनीति बनाता है। तभी तो गाँव के
पंचायत में पण्डित रामसरन जब मुखिया से गाय के हत्यारे का नाम पूछते हैं, तो वह एक
झटके में कहता है ““यह उसी का (सुक्का) का काम लगता है....।””12
निश्चित रूप से ‘सद्गति’ व ‘गोहत्या’ दोनों कहानियों में शोषण और अत्याचार की
स्थिति-परिस्थिति व घटनाओं का चित्रण भिन्न जरूर है, किन्तु दोनों कहानियों में
शोषित, प्रताड़ित, अपमानित एवं छलाव का शिकार एक ही व्यक्ति हो रहा है और वह है
दलित। इसके पीछे उसकी गरीबी, कमजोरी, लाचारी, बेबसी जैसे
पहलुओं को समझा जा सकता है जिसका चित्रण दोनों रचनाकरों ने अपनी-अपनी कहानियों के
माध्यम से करने का प्रयास भी किया है।
अमानवीयता
का पर्दाफाश दोनों कहानियों में लगभग एक जैसा हुआ दिखाई पड़ता है। दुर्गंध आने की स्थिति से बचने के लिए पण्डित घासीराम स्वयं दुखी के मृत शरीर को रस्सी से बांधकर, जानवरों की भांति खीचते हुए गांव के बाहर ले जाते हैं और वहां
से लौट कर वे स्वयं तो दुर्गा पाठ और गंगा जल चढ़ा कर पाप मुक्त हो जाते हैं। किंतु दूर इलाके में पड़ी दुखी के
शव
को गिद्ध, कौवों के भक्षण का आहार बनने के लिए छोड़ आते हैं। जो
व्यक्ति जीवन भर जिस नरक से बचने के लिए वेद, शास्त्रों के बताए हुए नियमों का पालन करता रहा, उसे इस कर्म के बदले फल स्वरूप छलाव व धोखा ही नसीब होता है। अंतिम दृश्य में रचनाकर प्रत्येक पाठक को जाति की इस विसंगति पर सोचने के लिए मजबूर करता है कि क्या वर्ण-व्यवस्था का निर्माण अमानवीयता के लिए, अत्याचार के लिए तथा शोषण के लिए किया गया था? सद्गति कहानी पर शिव कुमार मिश्र का वक्तव्य यथार्थ प्रतीत होता है जब वे
लिखते हैं, कि “”पुरोहित वर्ग पर इतना कठोर आक्रमण
और कहीं,
प्रेमचंद की किसी भी रचना में नहीं है। उनकी अमानवीयता,
बर्बरता,
लोभ,
पाखंड,
छल, छद्म, उनके रूढ़िवादी नैतिकता,
चरित्र,
सबकी अनेक रूपों में विशद चर्चा है,
परंतु उनका इतना नृशंस आचरण इसी कहानी में है।... पशु की तरह घसीटी जा रही है, दुखी की लाश, पर उसे घसीटने वाला तथाकथित मनुष्य, धर्म-धुरंधर, पशु से भी गया-बीता, पशुता-पाशव-वृत्ति का अन्यतम प्रतीक बनकर सामने आता है।””13 कुछ इसी तरह की अमानवीयता का प्रतिबिंब ‘गोहत्या’
कहानी में भी दिखाई पड़ता है जहां गोहत्या के आरोप में सुक्का को पंचायत द्वारा
दण्ड सुनाते हुए यह कहा जाता है कि ““हल में काम आने वाली लोहे की फाल को आग में
तपाया जाएगा। जिसे दोनों हाथो में थामकर सुक्का ‘गऊमाता गऊमाता’.... कहता हुआ, दस कदम चलेगा। यदि सुक्का ने गोहत्या नहीं की है तो गर्म लोहे की फाल
उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी। ठीक वैसे ही जैसे अग्निपरीक्षा में सीता माता का कुछ
नहीं बिगड़ा था क्योंकि सीता माता पवित्र थी। ईमानदार थी। यदि सुक्का निर्दोष है, तो आग में तपा लोहा भी सुक्का को नहीं जला सकता।””14 इस तरह
की भ्रमित करने वाली बातें जो धर्म का आवरण ओढ़कर दलितों पर अत्याचार करने का
माध्यम बनती रहीं हैं। उसका सदुपयोग तथा-कथित धर्माधिकारियों ने बखूबी किया है।
तभी तो पण्डित रामसरन जी पंचायत के इस फैसले से न केवल खुश होते हैं बल्कि इसे
धर्मसम्मत मानते हैं। दलित चेतना की एक मुख्य विशेषता यह है कि वह वैज्ञानिकता और
तार्किकता की बात करते हुए अंधभक्ति जैसे मिथकों को नकारता है। वह यह साबित करता
है कि आग से बचने के लिए शरीर को निर्दोष होने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि आग
किसी भी स्थिति में शरीर को नुकसान ही पहुंचाएगी। यदि हम बात करें सीता के अग्नि
परीक्षा की तो दलित साहित्य इस परीक्षा के वजूद और कारण पर प्रश्न करते हुए इसका
विरोध करता है। इसी तरह के धार्मिक प्रपंचो से डरा-धमका कर भारतीय समाज में दलित
समुदाय का यहाँ तक की स्त्रियों का भी अनवरत शोषण किया जाता रहा है।
दलित
चेतना के स्तर पर ‘सद्गति’ हो या उनकी कोई भी दलित रचना उस तरीके से कारगर साबित
नहीं होती। जिस तरीके से दलित चेतना से निर्मित कहानियों ने अपना स्थान बनाया है।
इस संबंध में ओमप्रकाश वाल्मीकि का वक्तव्य यथार्थ है जब वे लिखते हैं- “”प्रेमचंद
दलित चेतना के लेखक नहीं हैं.... । दलित संवेदना के लेखक हैं और उनके कथा साहित्य
में दलित जीवन की स्थितियों का मार्मिक चित्रण मिलता है।””15 यह स्पष्ट
भी है कि प्रेमचंद के पात्र दुखी में न तो प्रतिरोध करने की क्षमता है और न ही
चेतना के स्वर। बल्कि यूं कहें तो दलित साहित्य की वैचारिकी जिस आधार पर निर्मित
की गई है उस आधार पर उनके पात्र चेतना युक्त नहीं ठहरते; कारण उनके लिए भाग्यवाद, ईश्वर, पूर्वजन्म का
भोग, दलित शोषण, अत्याचार, आदि यथा-स्थिति चलते रहने की बात है। वे भी गांधी जी के उन्हीं विचारों को
तवज्जो देते हैं जो राम-राज्य की नीव के रूप में दिखाई पड़ती है, जो कोरी कल्पना के सिवाय कुछ नहीं लगाती। दलित समस्याओं और उनकी
स्थितियों के सन्दर्भ में निश्चित तौर पर प्रेमचंद की चिंता जायज है। लेकिन समस्या
तब उत्पन्न हो जाती है जब वे ये सब उसी वर्णवादी व्यवस्था के अंतर्गत रह कर ही
करना चाहते हैं जो स्थिति व घटना के आधार पर तो गंभीर लगती हैं किन्तु सुधारवाद या
प्रतिरोध के आधार पर निराशा उत्पन्न कराती हैं। निश्चित तौर पर इस तरह की
विचारधारा दलित चेतना से युक्त लेखन में ही देखने को मिलती हैं।
दलित
चेतना से निर्मित साहित्य के संबंध में शरण कुमार लिंबाले ने लिखा है कि “मनुष्य
को केंद्र मानकर जाति व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह करने वाली प्रतीति है। इस चेतना
की प्रेरणा अंबेडकरवादी है। दलित चेतना गुलाम को गुलामी से अवगत करा
देती है। दलित चेतना दलित साहित्य का महत्वपूर्ण जनन बीज
है।””16 इस दृष्टि से प्रेमचंद के लेखन का मूल्यांकन करने पर निराशा ही
हाथ लगती है; क्योंकि उनके दलित पात्रों की स्थिति, निर्माण हिंदूवादी संस्कारों
के प्रभाव से प्रभावित दिखाई पड़ता है, तभी तो उनमें यथास्थिति बनाए रखने,
ईश्वरवादी होने भाग्यवादी होने के गुण विद्यमान हैं। इसीलिए तो उन्हें मानवीय
संवेदना या दलित संवेदना के साहित्यकार के रूप में प्राथमिकता दी जाती है। इसका
यथार्थ स्वरूप ‘सद्गति’ कहानी में चित्रित घटनाओं व स्थितियों के माध्यम से देखकर भी
समझा जा सकता है जहां लकड़ी फाड़ते हुए दुखी से जब गांव का ही चिखुरी गोड़ यह पूछता
है, कि ‘कुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके मांगते क्यों नहीं!’ इस
पर दुखी संकोच करता हुआ कहता है, ‘कैसी बाते करते हो चिखुरी, ब्राह्मण की रोटी
हमको पचेगी।’ यहाँ दुखी में सेवाभाव, इंसानियत और जातिदंश का स्वरूप स्पष्टतः देखने
को मिल रहा है। यही कारण है कि वह अपने ऊपर हो रहे छलाव, षड्यंत्र व साजिशों को समझ
नहीं पाता और चुप-चाप उसे सहते रहना ही अपना परम कर्तव्य समझता है। लेकिन ओमप्रकाश
वाल्मीकि के पात्रों के यहाँ इस प्रकार की स्थिति नहीं दिखाई पड़ती। उनके यहाँ जहाँ
पारंपरिक जीवन शैली जीने वाले पात्र भी हैं तो वहीँ उन परम्पराओं, आडम्बरों को
समझाने एवं इसके प्रति मुखरता रखने वाले चेतानाप्रद पात्र भी हैं। इसीलिए तो अपने
अधिकारों को समझते हुए ‘गोहत्या’ कहानी में सुक्का मुखिया से निडरता पूर्वक कहता
है, ““मुखिया जी काम करता हूँ तो दो मुट्ठी
चावल देते हो....।”” इसी कहानी में जब सुक्का की नई नवेली दुल्हन को मुखिया हवेली
पर आने के लिए कहता है तो सुक्का साफ मना करते हुए कहता है ““वह हवेली नहीं
आएगी.... ।””17 यह चेतना प्रेमचंद के पात्रों में नहीं दिखाई पड़ती और न
ही उनके पात्र इस स्थिति में देखने को ही मिलते हैं। इस तरह का प्रतिरोध केवल
अंबेडकरवादी चेतना से निर्मित पात्र ही कर सकते हैं।
यदि
दोनों कहानियों की भाषा व शैली पर बात की जाय तो हम यह पाते हैं कि दोनों
कहानीकारों की भाषा लगभग एक जैसी ही दिखाई पड़ती है। चूँकि दोनों ही रचनाकार
ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े रहे हैं इसीलिए उनकी भाषा में गंवहीपन का भाव शामिल
होना लाज़िमी है। साथ ही साथ छोटे-छोटे वाक्यों में गंभीर और द्वंद्वात्मक संवादों
को प्रस्तुत करने की शैली भी दोनों ही रचनाकारों के बीच समानता उत्पन्न करवाती है।
प्रेमचंद ने ‘सद्गति’ कहानी में ग्रामीण जीवन की रोजमर्रा में प्रयोग होने वाले शब्दों,
मुहावरों, कहावतों आदि का प्रयोग प्रसंगानुरूप किया है। उनकी भाषा में न केवल देशज
शब्दों जैसे- खटोला/खटिया, भूसा, पत्तल, लुआठी, झौंवा आदि के साथ-साथ कुछ विदेशी शब्दों जैसे- खैरियत, खैरात, जमींदार,
डॉक्टर, पंगत, नौकर, वसूली शरारत आदि का प्रयोग सहज रूप में देखने को मिलता है;
बल्कि आवश्यकतानुसार मुहावरेदार भाषा जैसे तितलियां उड़ना,
पांव गल-गल कर गिरना, एक-एक चोट वज्र की तरह पड़ना आदि का
प्रयोग भी दिखाई पड़ता है जो घटना और संवाद को सहज रूप देते हुए पठन योग्य बनाता है।
वहीं ओमप्रकाश वाल्मीकि की भाषा शैली में भी ग्रामीण जीवन की बोलियों का न केवल प्रयोग
दिखाई पड़ता है जैसे- कदकाठी, दुधारू,
रपट, बामन, कहार,
गऊमाता, निरदोस, धकियाना आदि तो वहीं
चेहरे पर लाल रेखाएँ उभरना, समय की नब्ज़ को पहचानना, लम्बी सांस लेना, कनखियों से देखना, समूचे वातावरण को साँप सूघना, मरघट सा सन्नाटा छाना, जिस्म के रेशे-रेशे में अवसाद भरा होना आदि जैसे मुहावरेयुक्त भाषा का
अधिकाधिक रूप में प्रयोग भी दिखाई पड़ता है।
कुल
मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चाहे वह दलित समाज की परिस्थितियों, घटनाओं व दृश्यों
की बात हो या भाषिक बनावट की इस आधार पर दोनों ही रचनाकारों के मध्य कुछ पहलुओं पर
समानताएं तो कुछ असमानताएं भी देखने को मिलती हैं। इसमें दोनों रचनाकारों का
ग्रामीण परिवेश से जुड़ा होना और उस ग्रामीण परिवेश में विद्यमान सामाजिक विषंगतियों
पर पैनी नज़र रखते हुए उसके पीछे के साजिशों को देखा व समझा जा सकता है। यह बिल्कुल
सत्य है कि जहाँ एक ओर प्रेमचंद और ओमप्रकाश वाल्मीकि के बीच समय, परिवेश व स्थिति
को लेकर एक लम्बे अंतर को देखा जा सकता है तो वहीं दूसरी ओर प्रेमचंद का दलित समाज
से प्रत्यक्षतः जुड़ाव का न होना दोनों रचनाकारों के बीच विचार, स्थिति व सोच को
लेकर अंतर उत्पन्न कराती हैं। यही कारण है कि प्रेमचंद की तुलना में ओमप्रकाश
वाल्मीकि के पात्र व घटनाएं समाज के आतंरिक व बाह्य दोनों पक्षों को उठाते हुए नज़र
आते हैं। साथ ही उनके लेखन में प्रसंगानुरूप चित्रित घटनाओं व दृश्यों के आधार पर
भाषा में आवेश, बेचैनी और
बदलाव के जो स्वर देखने को मिलते हैं वे सदियों से चले आ रहे शोषण और अत्याचार के
प्रति उनके चेतना की स्थिति को प्रकट करते हैं। अंततः यह कहा जा सकता है कि दोनों
कहानीकारों ने अपनी लेखनी के माध्यम से अपने समय में हो रहे सामाजिक षड्यंत्रों, साजिशों,
भेद-भावों, धार्मिक जड़ताओं और आर्थिक असमानताओं पर प्रहार
करते हुए न केवल सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ प्रश्नचिह्न खड़ा करने का प्रयास किया
है बल्कि वे एक ऐसे समाज की परिकल्पना करते हुए दिखाई पड़ते हैं जिसमें केवल
मनुष्यता पर बल दिया जाय तथा जिसके केंद्र में केवल मनुष्य हो।
संदर्भ :
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समस्याओं का संदर्भ,
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केंद्रीय हिंदी संस्थान,
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कमल किशोर गोयनका (सं.), प्रेमचंद कहानी रचनावली (भाग-5), साहित्य अकादेमी, नई
दिल्ली, सं.- 2017, पृष्ठ सं.- 306
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दरियागंज,
नई दिल्ली,
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ओमप्रकाश वाल्मीकि, सलाम, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई
दिल्ली, सं.- 2014, पृष्ठ सं.- 59
सदानंद वर्मा
शोधार्थी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली- 110025
verma11sadanand@gmail.com, 9918542556
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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