शोध आलेख : महाभारत की संरचना में व्याप्त मानवीय जीवन की सार्थकता पर डॉ॰बच्चन सिंह का दृष्टिकोण -निशि उपाध्याय

महाभारत की संरचना में व्याप्त मानवीय जीवन की सार्थकता पर डॉ॰बच्चन सिंह का दृष्टिकोण

 निशि उपाध्याय

 

शोध सार :

 महाभारत की संरचना पर आदिकाल से ही विचार किया जा रहा है। इतना बड़ा महाकाव्य आखिर कैसे और क्यों लिखा गया? इसके बाद यह पुरातन होते हुए भी आज के लिए कैसे प्रासंगिक होगा? अगर प्रासंगिक है तो क्या इसकी व्याख्या हर युग में युगानुकूल परिस्थितियों के अनुसार नहीं बदलती होगी? कई साहित्यिक आंदोलनों के बाद 21वीं सदी में भी महाभारत को पुन: व्याख्यायित करने की आवश्यकता थी। इस सदी में रचनाकार पाठक के बुद्धि-विवेक को रचना का सार समझने के कार्य में शामिल करता है। इससे पाठक की सक्रियता रचना में बनी रहती है। क्या महाभारत में भी व्यास ने इस तरह शामिल किया होगा? इसी पर विचार करते हुए बच्चन सिंह ने कुछ निबंधों के माध्यम से अपने मत को प्रस्तुत किया है। वे महाभारत की संरचना पर चर्चा करते हुए मानव जीवन से इसका सीधा संबंध स्थापित करने का प्रयास करते हैं। जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैयक्तिक जीवन पर गहनता से अध्ययन किया गया है। यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि महाभारत से इतर कुछ भी नहीं है। अत: मानव जीवन के पहलुओं को समझने के लिए प्याज के छिलके के समान महाभारत की एक-एक परत को खोलना होगा।

 

बीज शब्द : संरचना, यदिहास्तितदन्त्र, युगांत, महाकान्तार, वर्णसंकर, धर्मशास्त्र, औचित्यपूर्ण, प्रतिनायक, सूतपुत्र, लोकधर्मी, भोगवाद आदि।

 

मूल आलेख :

 

बच्चन सिंह ने अपने आलोचनात्मक लेख में ऐतिहासिक रचनाओं की प्रासंगिकता खोजने के लिए आधुनिकता के मानदण्डों का प्रयोग किया है। उनका मानना था कि साहित्य की परम्परा के बदलने पर पुरातन साहित्य की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता पड़ती है; ताकि साहित्य अपनी सार्वभौमिकता तथा प्रासंगिकता को समय के सापेक्ष स्थापित कर सके जिससे पाठक पौराणिक कथा, भारतीय संस्कृति और परम्परा के महत्त्व से अवगत हो सकें। बच्चन सिंह की पुस्तक ‘महाभारत की संरचना’ इसी पर आधारित है। यह निबन्ध विधा में लिखा गयी है। मानव जीवन की समस्याओं का चक्र समाज में परिवर्तित रूप में चलता रहता है। महाभारत सदैव मानव जीवन के लिए प्रासंगिक रहा है। व्यास जी के अनुसार–

 

यदिहास्तितदन्त्र यन्ने हास्ति न तत् क्वचित्।1

 

अर्थात् जो कुछ महाभारत में कह दिया गया है, उसके बाद कुछ कहने को शेष नहीं रहता। बच्चन सिंह पुस्तक की भूमिका में कहते हैं कि “इस महाभारत के अतिरिक्त हर व्यक्ति के मन में एक महाभारत होता रहता है- एक-दूसरे से कुछ मिलता-जुलता, फिर भी भिन्न।”2 महाभारत अपने हर स्वरूप में हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनेक धागों से बुना हुआ है।

 

किसी भी रचना के दो पक्ष प्रधान होते हैं- कला पक्ष और भाव पक्ष। महाभारत के भाव पक्ष की समीक्षा तो बहुत मिलती है, परन्तु इसके कला पक्ष पर चर्चा कम हुई है। सुखथणकर की‘महाभारत’(स्मृति संस्करण), गीता प्रेस का ‘महाभारत’ संस्करण, महाभारत का सातवलेकर संस्करण, वासुदेवशरण अग्रवाल की ‘भारत-सावित्री’, इरावती कर्वे की ‘युगांत’, बुद्धदेव बसु की ‘महाभारतेर कथा’ और बच्चन सिंह की ‘महाभारत की संरचना’ में महाभारत पर विस्तार से विचार और वर्णन किया गया। बच्चन सिंह ने महाभारत के भाव पक्ष और कला पक्ष पर सम्मिलित रूप में विचार किया है। इसका भाव पक्ष मानवीय जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है। कला पक्ष में व्यास जी के द्वारा प्रयोग की गयी लेखन-शैली और नियोजन की समीक्षा की गयी है।

 

बच्चन सिंह के अनुसार “महाभारत के महाकान्तार में आगे का रास्ता खोज पाना कठिन है।..... इसमें रास्ता खोजने, निरन्तर चलते रहने, भटकने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। भटकने का अपना अलग सुख होता है।”3मनुष्य अपने आदर्श और विवेक के आधार पर मार्ग का निर्माण करता है। यह मार्ग उसे कहीं न कहीं ले जाता है। महाभारत में प्रत्येक पात्र अपनी बनायी धर्म की परिभाषा और व्याप्त धर्मशास्त्र के द्वन्द्व में उलझता हुआ चलता है। धर्म उसे एक मार्ग पर लाकर छोड़ देता है। एक भटकाव उसे नजर आने लगता है। यह भटकाव नई कविता के दौर के लघु मानव में भी देखने को मिला। महाभारत जीवन की व्यर्थता और नीरसता को भी प्रदर्शित करता है। इसमें सारे मानवीय प्रयास निष्फल होते दिखायी दिये हैं। बच्चन सिंह इसे शत-प्रतिशत नहीं स्वीकारते। वे यहाँ भी सार ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं।यह कार्य वे पाठक की सूझ-बूझ पर ही छोड़ देते हैं। उनका अभिप्राय मानव जीवन में जीवन के प्रति उम्मीद जगाने का रहा है।इस सम्बन्ध में वेदव्यास ने महाभारत में मानवीय दृष्टिकोण पर प्रकाश डालते हुए कहा है- मनुष्यलोके यच्छ्रेय: परं मन्ये युधिष्ठिर (इस मनुष्य लोक या जीवन में जो कल्याण है,  उसे ही हम श्रेष्ठ या अच्छा समझते हैं)।जिस प्रकार महाभारत में प्रत्येक पात्र युद्ध के पश्चात् स्वयं अपने जीवन की दिशा का निर्धारण करता है, वैसे ही हमें भी करना होगा। 21 वीं सदी में जीवन की निराशा, विखण्डन, अवसाद आदि कर्म के प्रति उदासीनता उत्पन्न कर रहे हैं, वहीं बच्चन सिंह का प्रयास भारतीय परम्परा में सकारात्मकता खोजने का रहा है।

 

वर्तमान महाभारत में लगभग एक लाख श्लोकों का समावेश किया गया। नारद ने देवताओं को जो महाभारत सुनायी थी, उसमें तीन लाख श्लोक थे। देवल और असित के द्वारा सुनायी गयी कथा में पंद्रह लाख श्लोक थे। शुकदेव द्वारा सुनायी गयी कथा में चौदह लाख श्लोक थे। वैशम्पायन द्वारा जनमेजय को सुनायी गयी कथा में एक लाख श्लोक थे। अत: महाभारत का संक्षिप्तीकरण होता गया। आगे आवश्यकतानुसार कथा में बस महत्त्वपूर्ण अंशों का समावेश किया गया है। एक प्रश्न यह भी उठता है कि किसी एक व्यास द्वारा महाभारत की कथा लिख पाना सम्भव नहीं लगता। ऐसा प्रतीत होता है कि कई व्यासों ने अपने-अपने अनुसार इसमें कुछ-न-कुछ जोड़ा होगा। प्रारम्भ में श्रवण कथा का प्रचलन था और सुनायी गयी कथा में संशोधन और परिवर्तन होना स्वाभाविक है। परंतु प्रत्येक महाभारत के संस्करण में दुख उभयनिष्ठ रहा है। दुख का भार महाभारत के प्रत्येक पात्र ने वहन किया है। सबसे दुखी कौन है? यह बताना मुश्किल है। यहाँ बच्चन सिंह कहते है कि “जो पात्र कथा में रचनात्मक भूमिका नहीं निभाता, उन्हें छोड़ कर सभी दुखी हैं।”4 इसके बाद उन्होंने इन पात्रों का नाम स्पष्ट नहीं किया। वहीं दूसरी ओर उन्होंने स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श की नींव को यहाँ खोजा है। यहाँ दलित विमर्श पूर्ण रूप से नहीं मिलता। कर्ण हो या विदुर कोई भी पूर्ण दलित की संज्ञा में नहीं आता। कोई पालन से दलित है, तो कोई जन्म से वर्णसंकर। ऐसे में दलित-विमर्श का मूल रूप अधिक स्पष्ट नहीं है। इनमें स्वानुभूति का अभाव नजर आ ही जाता है। यहाँ किसी न किसी प्रकार से राजसुख तो भोगा गया है। कभी यह सिर्फ दया-पात्र के रूप में दलित दिखते हैं। स्त्री-विमर्श में अस्मिता तो है, लेकिन द्रौपदी के अतिरिक्त किसी में संघर्ष कहीं नहीं मिलता। पांचाली भी कहीं-कहीं विरोध नहीं करती है। प्रत्येक पांडव की दो पत्नियाँ थीं। उसने अपने और अपनी संतान के अस्तित्व के लिए घर में ही विरोध नहीं किया। घर के बाहर सम्मान ढूँढने से पहले घर में अस्तित्व की लड़ाई आवश्यक है, जो इसके क्या किसी भी नारी के चरित्र में नहीं मिलती।

 

वहीं धर्मशास्त्र और वर्णाश्रम धर्म महाभारत में अधिक देखने को मिला है। बच्चन सिंह मानते हैं कि धर्म की पूर्व गठित परिभाषा का खण्डन महाभारत में ही मिलेगा। कुरुकुल भी वर्णाश्रम धर्म का विलोम ही है। धर्म की परिभाषा देने वाले कृष्ण स्वयं युद्ध में छल नीति का प्रयोग करते हैं, जबकि कौरवों के पक्ष से छल की उम्मीद होते हुये भी उन्होंने मानव जाति के सामने युद्ध नीति का आदर्श प्रस्तुत किया है। यहाँ छल तो हुआ है, किसी पक्ष के द्वारा अधिक और किसी पक्ष के द्वारा कम यद्यपि उन्हें हार का सामना करना पड़ा। यह इहलौकिक परिणाम है, परलोक में भले कौरवों को स्वर्ग मिला हो। वर्तमान में मानव जीवन परलोक की चिंता नहीं करता। इसी कारण महाभारत पाठक को कहीं-कहीं निराशा की ओर ले जाता है। महाभारत का अन्त पूरी कथा में कर्मों की सही दिशा को धुँधला कर देता है। यहाँ बच्चन सिंह भी अपने निबंधों में महाभारत पूर्व और पश्चात् की कथा का अधिक वर्णन करते हैं। महाभारत में सुखांत या दुखांत जैसा कुछ नहीं है। सब अपने जीवन में भटक रहे हैं। बच्चन सिंह भी इसी भटकाव से निकलने का रास्ता पाठकों के लिए बनाना चाहते हैं। इस निबंध-संग्रह में पहला निबंध महाभारत की बनावट पर लिखा गया, जिसमें महाभारत के महाकाव्य होने पर विचार किया गया है। यहाँ बच्चन सिंह इसमें महाकाव्य जैसा तारतम्य न पाकर सवाल करते हैं। इन्होंने मूल पाठ के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक तथ्य न मिलने पर जो उपलब्ध है, उसी को मूल मानने की सलाह दी है। वे नायक निर्धारण संबंधी दुविधा के कारण इसे महाकाव्य की संज्ञा देने में वह कतराते हैं।

 

इसके बाद निबंधों में पात्रों के चरित्र पर विचार किया गया है। बच्चन सिंह का मानना था कि महाभारत में पात्रों के कारण ही कथा सम्भव है। ये पात्र ही कथा को बाँधे हुये हैं। सर्वप्रथम इन्होंने कृष्ण के चरित्र पर विचार किया। वे महाभारत और रासलीला के कृष्ण को भिन्न कहते हैं। यहाँ कृष्ण श्रीमद्भागवत के कृष्ण से अलग हैं। उनके ईश्वर होने पर बच्चन सिंह ने प्रश्न उठाया। वे कहते हैं कि कृष्ण ईश्वर होने के साथ-साथ मनुष्य के समस्त गुण-दोषों के साथ मनुष्य भी हैं। व्यास कृष्ण के किसी भी रूप का पक्ष लेते नजर नहीं आते। महाभारत का पाठक स्वतंत्र है, वह अपने अनुसार कृष्ण के क्रिया-कलापों के आधार पर स्वयं उनके मनुष्य या ईश्वर होनेका निर्धारण कर सकता है। ईश्वर के रूप में अस्वीकार कृष्ण की स्तुति पितामह, धृतराष्ट्र और पांडवों ने की है। धृतराष्ट्र तो अधूरे मन से उनके ईश्वरत्व की स्तुति करते हैं। दूसरी तरफ दुर्योधन, शिशुपाल और भूरिश्रवा कृष्ण के निंदक कहे गये। अत: यहाँ कृष्ण को प्रत्येक पात्र ने अपने अनुसार व्याख्यायित किया है। दुर्योधन तो मृत्यु के निकट होते हुए भी पीड़ा में कहता है -

 

कंस दासस्य दावाद न ते लज्जास्त्यनेन वै।

अधर्मेण गदायुद्धे यदहं विनिपातित:।।5

 

अर्थात् कंस के दास के बेटे, मैं अधर्म से गदायुद्ध में मारा गया हूँ। इस कृत्य के कारण तुम्हें लज्जा नहीं आती? बच्चन सिंह ने व्यास लिखित कृष्ण के कृत्यों के आधार पर उन्हें ईश्वर मानने से मना कर दिया। वे कृष्ण को कौटिल्य के समान मानने से भी इन्कार कर देते हैं। यहाँ बच्चन सिंह अपने पाठकों को कर्म का माहात्म्य बताते हुए कहते हैं कि चरित्र निर्माण में सदैव कर्मों का महत्त्व होता है। ईश्वर यदि सर्वसत्य है, तो उसमें अवगुण कैसे? अत: वह मानव विशिष्ट हो सकते हैं परंतु ईश्वरत्व को धारण करने वाले गुणों का समावेशन महाभारत के कृष्ण में नहीं मिलता। वहीं भीष्म कृष्ण को ईश्वर मानकर उमके सभी कृत्यों को सही मानते नजर आते हैं। भीष्म का युधिष्ठिर के लिए कथन महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि –

 

ध्रुवस्ते विजयो राजन् यस्य मन्त्री हरिस्तव।

यतो धर्मस्तत: कृष्णो यत: कृष्णस्ततो जय:।।6

 

भीष्म के कहने का तात्पर्य था कि जहाँ धर्म है, वहाँ कृष्ण है; जहाँ कृष्ण है, वहाँ जय है। जब परिणाम केवल कृष्ण के होने से ही निश्चित होना है, तो युद्ध की पारदर्शिता कुछ हद तक यहीं समाप्त हो जाती है। युद्ध क्या केवल ‘यत: कृष्णस्ततो जय:’ सिद्ध करने के लिए किया गया था? यदि धर्म को कृष्ण के आधार पर व्याख्यायित करें, तो यह युद्ध तो छल के साथ लड़ा गया। सवाल अब धर्म और कृष्ण के ईश्वरत्व दोनों पर उठता है। बच्चन सिंह व्यास के फलक पर सवाल करते हैं कि क्या कृष्ण जहाँ नहीं भी थे, सब कृष्ण की ही माया थी? ऐसे तो सब निरर्थक हो जाता है। पूरी कथा एक दृष्टिकोण से देखने को पाठक मजबूर हो जाता है। महाभारत पर तर्क न करने की प्रक्रिया यहीं से शुरू हो जाती है। कृष्ण के रथ से उतरते ही रथ का जलना और कृष्ण के देह त्यागने के बाद अर्जुन के गांडीव का व्यर्थ होना। यहीं कृष्ण महाभारत के महत्त्वपूर्ण पात्रसिद्ध होते हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल ने कृष्ण को सोलह कला का अवतार कहते हुए कहा है कि “ब्राह्मधर्म और क्षात्रधर्म, इन दो मर्यादाओं के बीच की उच्चता को व्याप्त करके श्रीकृष्ण चरित्र पूर्ण मानवीय विकास के मानदंड की तरह स्थिर है।”7

 

बच्चन सिंह के अनुसार व्यास ने कृष्ण को अपनी रचना में औचित्यपूर्ण ढंग से स्थापित किया है। यहाँ एक रचनाकार का कौशल प्रदर्शित होता है। व्यास जहाँ कुछ फँसते नजर आते हैं, वहाँ अध्यात्म से कृष्ण को जोड़कर निकलने का प्रयास करते हैं। अब आधुनिक मानव वैज्ञानिक और तर्कशील तथ्यों के साथ ही तादात्म्य स्थापित करता है। इसी कारण कहीं-कहीं व्यास की संरचना पर सवाल उठते हैं। कृष्ण का महाभारत के युद्ध के बाद का कथन कि जिस मार्ग पर महात्मा लोग चलते हैं, उसी पर हम लोग चलते हैं। यह कथन सही-गलत की खाई को कम करता प्रतीत होता है। यदि ऐसा ही है, तो किसी भी आदर्श, नैतिकता और विचारधारा की क्या आवश्यकता है? महाभारत की कथा के कुछ अंश आज के बदलते सामाजिक आयामों के लिए प्रासंगिक सिद्ध होते हैं। इस महाकाव्य में अनेक आर्थिक, धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक समस्याएँ हैं। इनसे निकलने का कोई मार्ग व्यास के पास नहीं। मानो एक चक्रव्यूह में पात्र भटकता रहता है और अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देता है। यही आधुनिक मानव के जीवन की समस्या है, जहाँ व्यक्ति इन समस्याओं से न तो भाग सकता है, न अलग हो सकता है। उसे इन्हीं समस्याओं के बीच रहकर जीवन का वहन करना होगा। बुद्धदेव बसु कृष्ण की साधारण मृत्यु पर मुग्ध होकर लिखते हैं कि “यह घटना आश्चर्य है – आश्चर्य से अधिक विचार है।”8बच्चन सिंह ने कृष्ण के संदर्भ में कहा कि “देह धारण करने पर सभी मानवीय दुर्बलताएँ, विषाद और असहायता झेलनी पड़ती है।”9कृष्ण मनुष्य रुप धारण करके मानवीय प्रवृत्तियों से अलग नहीं हो सकते। अत: कृष्ण चरित्र सदैव जटिलताओं से घिरा रहेगा और पाठक को ऐसे ही स्वीकार करना पड़ेगा।

 

अगले निबंध में बच्चन सिंह अर्जुन के चरित्र की चर्चा करते हुए उसे शीर्षक में ही नारायणीय प्रतिकृति की संज्ञा देते हैं। यहाँ अर्जुन को नारायण का अंश कहा गया है। अर्जुन युद्ध औऱ प्रेम, दोनों में प्रतिभा सम्पन्न रहा। वह गुरु-प्रिय, द्रौपदी के प्रिय, माधव-प्रिय, इन्द्र-प्रिय हैं। वह महाभारत का भाग्यशाली पात्र कहा जा सकता है। अर्जुन के लिए कोई मर्यादा या सीमा निर्धारित नहीं थी। उसका वनवास उसकी प्रणय-यात्रा बन जाता है। अर्जुन के माध्यम से बच्चन सिंह पाठक के समक्ष एक प्रश्न करते हैं कि अर्जुन के पास सारे दिव्यास्त्र हैं, कथित भगवान् भी हैं। युद्ध के बाद क्या उसके पास कुछ बचता है। उसके दिव्यास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं, जबकि वह अपने ही पुत्र इरावान के हाथों मारा जाता है। वर्तमान राजनीति में अर्जुन जैसे कई उदाहरण मिलेगें, जिन्हें वक्त की आवश्यकता के अनुसार बनाया और बिगाड़ा जाता है। अब नारायण से आच्छादित नर अपने आप में कुछ नहीं है क्या? अपने शस्त्रों के निरर्थक होने पर भी उनका वहन करते हुए वह मानवीय प्रतीत होता है, जिसके पास विजय के पश्चात् भी सुख और आत्मगौरव का भाव नहीं था। 

 

अपने अगले निबंध में बच्चन सिंह ने कर्ण के विषय में अपने विश्लेषण और विचारों को प्रस्तुत किया। अर्जुन के चरित्र के विश्लेषण के बाद कर्ण के चरित्र का वर्णन करने में चारित्रिक विशेषताओं को तुलनात्मक ढंग से प्रदर्शित करने का उद्देश्य है। महाभारत में कर्ण को प्रतिनायक की संज्ञा केवल कौरवों के पक्ष की ओर से युद्ध में प्रतिभागी होने के कारण मिली। बच्चन सिंह ने कर्ण के चारित्रिक गुणों को उद्घाटित किया है। उन्होंने निबंध का शीर्षक ‘सूतपुत्र कर्ण’ रखा। उसे सूतपुत्र से संबोधित किया गया। क्षत्रिय होने पर भी वह स्वयं को सूत और वीर कहता रहा। सम्पूर्ण महाभारत में कर्ण को प्रतिनायक के रूप में देखा जाता है। रंगभूमि के समय कर्ण को जब शस्त्र-कौशल प्रदर्शित नहीं करने दिया गया, तो उसके अपने गुणों के आधार पर उसकी तुलना अर्जुन से करने को कहा- “रंगभूमि सभी की होती है; वंश, जाति, कुल विशेष की बपौती नहीं होती। यदि साहस हो, तो वाणी से नहीं, बाणों से बात करो। मैं क्षण-भर में तुम्हें मृत्यु के घाट पहुँचा दूँगा। मैं तुम्हें द्वन्द्व-युद्ध के लिए आहूत करता हूँ।”10सूतपुत्र शब्द-बाण उसे आजीवन चुभता रहा। इसी कारण उसे शस्त्र-कौशल प्रदर्शित नहीं करने दिया गया। उसके पराक्रम को वर्ण-जाति के आधार पर नकारा जाता रहा। व्यास ने कर्ण के लिए बहुत कम लिखा। कर्ण अपनी उपेक्षा से आहत था, परंतु उसके कर्म पर उसकी उपेक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कर्ण ने शाप का जितना वहन किया, उतना दिव्यास्त्र का नहीं। बच्चन सिंह ने कर्ण के साथ भेदभाव करने वालों में व्यास को भी शामिल किया। कथन व्यास एक मिथकथन के आधार पर ही कर्ण का वर्णन करते प्रतीत होते हैं –

 

‘सर्व चौवामि जानामि पाण्डो: पुत्रोअस्मि धर्मत:’11

 

मानवीय सम्बन्धों की दृष्टि से उसने धर्म और शास्त्रीय सम्बन्धों को ठुकरा कर रागात्मक सम्बन्ध को अपनाया। वर्तमान मानव जीवन में यही रागात्मक सम्बन्ध अधिक प्रभावी भूमिका निभाते हैं। बच्चन सिंह ने कर्ण को लोकधर्मी माना। भोगवाद की नीति वर्तमान जीवन-शैली में क्षीण होती जा रही है। उन्होंने कर्ण को आत्म-सत्य का समर्थक कहा। क्या आत्म-सत्य ही वर्तमान में मुख्य नहीं रह गया है? अनेकांतवाद के सिद्धान्त के कारण प्रत्येक तथ्य के कई पहलू होते हैं, उसके समाने हर पात्र छोटा लगने लगता है। उनकी पक्षधरता कर्ण की दानी प्रवृत्ति से बहुत नीचे हो जाती है। बच्चन सिंह कर्ण को कर्ण मानते हैं, सिर्फ कर्ण। न किसी दिव्यास्त्र को धारण करने वाला और न ही सभी का प्रिय। निबंध के अंत में वे कहते है कि “महाभारत में उससे श्रेष्ठतर कोई दूसरा मनुष्य नहीं है।”12 यहाँ कर्ण पूर्ण रूप से मनुष्य है और स्वयं के कर्मों से उसका अस्तित्व है। डॉ॰ बच्चन सिंह ने कर्ण के पांचाली के संबंध में कहे अपशब्दों का वर्णन नहीं किया है। जहाँ कर्ण पांचाली को भरी सभा में वेश्या कहते हैं। जिसने पांच पतियों का वरण किया हो, उसको किसी एक और के होने में क्या कष्ट हो सकता है। ऐसे कथन कर्ण के चरित्र पर दाग लगाते हैं। स्वयंवर में अपमान का बदला कर्ण, पांचाली से अब ले रहा था। पूरे महाभारत में कर्ण, बच्चन सिंह के अनुसार दयनीय रहे हैं, पर ऐसे कथन कहने पर पांचाली का दुख, कर्ण से बड़ा हो जाता है। वह अधिक संघर्षशील हो जाती है। इस निबंध में कर्ण के चरित्र को प्रस्तुत करते हुए बच्चन सिंह पक्षपात करते प्रतीत होते हैं।

 

अगले निबंध में उन्होंने पितामह भीष्म के चरित्र पर विचार किया है, जहाँ उनके जीवन को ‘कुछ जिन्दगियाँ : बेमतलब’ शीर्षक के अंतर्गत व्याख्यायित किया। बच्चन सिंह भीष्म के जीवन को व्यर्थता, निराशा और अभिशाप से भरा हुआ बताते हैं। व्यास ने भीष्म का जीवन जिस तरह प्रस्तुत किया, क्या यह अनबूझ पहेली नहीं है? बच्चन सिंह व्यास के चरित्र लेखन का सार समझ नहीं पाते; वे कहते हैं कि उनके अगृहस्थ रहने के अतिरिक्त वे किसी भी कर्तव्य का पालन करने में पूर्णतया सफल नहीं हो सके। समाज की समस्याओं को समझने के लिए पहले उनका वहन करना पड़ता है, जबकि भीष्म का अनुभव इस विषय में शून्य था।

 

अगले निबंध में महाभारत के नायकत्व पर चर्चा करते हुए बच्चन सिंह ने किसी को नायक के रूप में नहीं स्वीकारा। नायक की श्रेणी में अर्जुन, कर्ण, दुर्योधन, कृष्ण और युधिष्ठिर को रखा जाता है। उनका मानना था कि मर्यादाहीन तो प्रत्येक पात्र रहा, ऐसे में नायक किसे कहा जाए? किसी की कथा अंत तक केन्द्र में नहीं चलती। ऐसे नायक का तो सवाल ही नहीं उठता है। यहाँ वे व्यास के पक्षधर हैं, क्योंकि व्यास ने किसी भी पात्र की कमियों को गुप्त नहीं रखा।

 

क्रम में आगे दुर्योधन आता है। इस निबंध का शीर्षक दुर्योधन :  प्रतिनायक है। यह शीर्षक अपने आप में एक प्रश्न है। बच्चन सिंह ने दुर्योधन के साथ हुए अन्याय पर अधिक चर्चा की। वे निबंध के अंत में कहते हैं कि “यदि दुर्योधन इतना अन्यायी था, तो उसके आरोपों को सुनकर सब लोग उसकी स्तुति क्यों करने लगे?”13यहाँ पाठक की प्रतिक्रिया महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इस निबंध में दुर्योधन के कृत्यों पर पुन: आधुनिक दृष्टि से विचार किया गया है। वह किसी को भी पूर्णत: गलत या सही नहीं कहते। बस सभी पात्र उनके लिए मनुष्य हैं।

 

फिर बच्चन सिंह ने धर्मपुत्र विदुर को सूत कहा, जो सूत होते हुए भी ज्ञान के आधार पर ब्राह्मण हैं। उन्होंने विदुर के जीवन की उपेक्षा और नीरसता पर उन्होंने चर्चा की। इस निबंध में बच्चन सिंह ने विदुर को धर्म और नीति का रक्षक कहा है। चीर-हरण के समय उन्होंने विदुर के प्रयास करने पर भी सभा में उपस्थित सभी राजाओं ने एक न सुनी और सब मौन बैठे रहे। जिसके पास जितना बल, उसका प्रभाव उतना ही अधिक। विदुर को ज्ञानी और बुद्धिमान कहा गया। अपने निबंध में बच्चन सिंह विदुर की धर्म सम्बन्धी मान्यताओं को ही धर्म कहते नजर आते हैं। इसके बाद अगले निबंध में पांचाली के संबंध में बच्चन सिंह ने किसी अतिरिक्त संज्ञा का प्रयोग नहीं किया, बस उसे पांचाली कहा। पांचाली पाँचों पांडवों की पत्नी थी। इसके पाँच पतियों का वरण करने पर भी कई सवाल उठे, जिसके पीछे के कारणों में पूर्वजन्म की कथा को मुख्य माना जाता है। इरावती कर्वे इस संबंध में एक तार्किक तथ्य प्रस्तुत करती हैं कि “यदि वह एक की हुई होती, तो उससे कलह का जो बीजारोपण होता उसमें सभी का सर्वनाश हो सकता था।”14यहाँ सौन्दर्य पारिवारिक कलह का कारण हो जाता, जिसकी आशंका को व्यासजी अपनी युक्ति के अनुसार समाप्त कर देते हैं। दूसरी ओर बच्चन सिंह नारी सौन्दर्य को युद्ध का मुख्य कारण नहीं स्वीकारते। यह भी एक कारण हो सकता है, परंतु यही केवल कारण हो स्वीकार्य नहीं होगा। यह आधुनिक मानदंडों के अनुसार सही हो सकता है। बच्चन सिंह महाभारत में प्रधान समस्या अर्थ और वर्चस्व के अधिकार को मानते हैं। यही वर्तमान राजनीति की समस्या है, शायद इसी कारण महाभारत में नीति और राज दोनों पर विस्तारपूर्वक कथा कही गई। इतना सब होने पर भी पांचाली अंत में अकेली रह जाती है। वह सदैव किसी न किसी पर आश्रित रही। आश्रय भी ऐसा, जहाँ द्रौपदी को अपमान अधिक मिला है। यहाँ लेखक प्रश्न करता है कि“क्या अंततोगत्वा प्रत्येक व्यक्ति अकेला नहीं है?”15महाभारत के आदिपर्व में धृतराष्ट्र द्वारा कहा गया“नाथवती अनाथवत्”अर्थात् पांच की पत्नी होते हुए भी अनाथ-जैसी। क्या सामाजिक प्राणी भीड़ में अपनों के बीच अकेला नहीं है? प्रतिष्ठा और सौन्दर्य कभी-कभी जीवन को खोखला बना सकता है।इस संदर्भ में बच्चन सिंह पाठकों के लिए एक प्रश्न छोड़ देते हैं कि वह अपने समाज और जीवन के आधार परस्वयं ही निर्धारित करें कि उन्हें महाभारत के किस पात्र से क्या लेना है और क्या छोड़ना है।

 

इसके बाद के निबंधों में क्रमश: ‘कुन्ती’, ‘नीलचक्षु नकुल : युधिष्ठिर का निर्वेद’, ‘स्त्रीगत अंतर्विरोध’, ‘श्रवण-ब्राह्मण धर्म और महाभारत’ तथा ‘धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्’ हैं। सभी निबंधों में बच्चन सिंह ने इन पक्षों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया हैं, एक प्रश्न वे वर्ण-व्यवस्था पर करते हैं। जिसमें लगभग सभी को वर्णसंकर की श्रेणी में रखते हुए परम्परा के खण्डन की बात कहते हैं। महाभारत में कही गयी स्वधर्म की बात को वे स्वीकारते हुए जाति-धर्म को ही केन्द्र-बिन्दु मानते हैं। ऐसी स्थिति में महाभारत विकारों से भरा हुआ दिखने लगता है। जहाँ व्यास का कोई पात्र कमजोर दिखायी देगा, वहाँ व्यास स्वयं प्रकट हो जाते हैं। पूर्वजन्म की कथा का सहारा लेकर व्यास ने हर कथ्य का तर्क प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस विषय में बच्चन सिंह तर्क खोजने के स्थान पर पाठक को स्वयं दिशा निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र कर देते हैं। इससे पाठक के मानस-पटल पर नवीन प्रासंगिक विचार अपने आप उत्पन्न होंगे। इन्होंने माना कि जैसा महाभारत हमें उपलब्ध है, उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेना होगा क्योंकि कई कथाएँ बिना किसी आधार के हमें मिलती हैं। यह धार्मिक पौराणिक कथा का शुद्ध रूप नहीं है इसी लिए इसे धर्म, नीति, न्याय, इतिहास और शास्त्र से पूर्णतया जोड़ना नहीं चाहिए। इसकी प्रधानता सामाजिक और आर्थिक जीवन की समस्याओं को समझने में है। इसमें कोई समाधान अवश्य न मिले लेकिन एक भिन्नता भरे जीवन की समस्याओं से यह अवगत करा देता है, चाहे फिर वे सामाजिक हों या वैयक्तिक, क्योंकि महाभारत में सभी पक्षों का बखूबी वर्णन किया गया है। बच्चन सिंह अपने निबंधों में महाभारत की उन परतों को खोलने का प्रयास करते हैं जो एक सामाजिक मानव के लिए सामाजिक और वैयक्तिक जीवन के लिए आवश्यक है|

  

संदर्भ :

 

1. गोरखपुर संस्करण, महाभारत(1.62.53)

2. डॉ॰ बच्चन सिंहमहाभारत की संरचनाभारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली2009 पृ. सं. 8

3. वही पृ. सं. 7

4. वही पृ. सं. 9

5. वही पृ. सं. 23

6. वही पृ. सं. 24

7. वासुदेवशरण अग्रवाल, भारत-सावित्री खण्ड-3सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली1968 पृ. सं. 693

8. बुद्धदेव बसु, महाभारतेर कथा, अन्तिम यात्रा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली2004

9. डॉ॰ बच्चन सिंह, महाभारत की संरचनाभारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली2009, पृ. सं. 33

10. वही पृ. सं. 43

11. वही पृ. सं. 45

12. वही पृ. सं. 51

13. वही पृ. सं. 81

14. इरावती कर्वे, युगांत, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1971, पृ. सं. 75

15. वही पृ. सं. 90

 

निशि उपाध्याय

शोधार्थी, छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालयकानपुर (उत्तर प्रदेश)

nishiupadhyay09@gmail.com, 9717815792



अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR

UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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