संत काव्य के स्रोत और भारतीय दर्शन परम्परा
भानु प्रकाश शर्मा
बीज शब्द : संत काव्य, दर्शन, निर्गुण अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, परम तत्व,आत्मा, माया आदि।
मूल आलेख : संत साहित्य का मूल विचार निर्गुण निराकार परमात्मा से संबंधित है। परंतु संत काव्य दर्शन की आलोचना परंपरा में इस प्रश्न का उत्तर विवादास्पद ही है कि आखिर संत काव्य दर्शन मुस्लिम दर्शन के एकेश्वरवाद और निराकार अल्लाह से प्रभावित है, या फिर यह विचार भारतीय दर्शन से अनुप्राणित है। हिंदी आलोचना जगत के कुछ सुधि आलोचक संत काव्य दर्शन को मुस्लिम परंपरा से प्रभावित मानते हैं, तो दूसरी ओर कुछ अन्य आलोचक संत काव्य दर्शन में भारतीय सनातन परंपरा का प्रभाव देखते हैं। संत काव्य परमात्मा के विविध नाम तो देता है परंतु इस मान्यता में कोई भी विवाद नहीं है कि संत काव्य निर्गुण और निराकार परमात्मा के अस्तित्व को मानता है। संत काव्य में यह जो निर्गुण, निराकार परमात्मा है वह अवधारणा आखिर कहां से ग्रहण की गई है? यह तथ्य पर्याप्त शोध की अपेक्षा रखता है। यदि हम भारतीय आस्तिक दर्शन में परम तत्व की अवधारणा को देखें तो वैदिक काल से लेकर संत साहित्य के कालक्रम तक परम तत्व का स्वरूप, प्रायः अद्वैतवादी दर्शन के मूल विचार से प्रभावित हुआ दृष्टिगत होता है। इधर संत काव्य दर्शन भी परम तत्व की अवधारणा को अद्वैत दर्शन के विचार के अनुरूप ही प्रकट करता प्रतीत होता है। वस्तुतः वे विभिन्न तथ्य और स्रोत, जो इस विचार को स्पष्ट करते हैं कि संत काव्य दर्शन भारतीय सनातन परंपरा का ही अनुगमन करता है, इन तथ्यों का आलोचनात्मक परीक्षण करना ही हमारे अध्ययन का मुख्य उद्देश्य है।
ज्ञानाश्रयी
धारा या संत काव्य :
भक्ति काल की निर्गुण धारा को ज्ञानाश्रयी शाखा एवं
संत काव्य के रूप में भी जाना जाता है।
संत काव्य शब्द को व्यापक अर्थ में और रूढ़ अर्थ में दो प्रकार से ग्रहण
किया जा सकता है। यदि हम व्यापक अर्थ में देखें तो संत शब्द विराट अभिप्राय को
धारण करता है,
“संत शब्द का प्रयोग प्रायः बुद्धिमान, पवित्र आत्मा,
सज्जन, परोपकारी या सदाचारी व्यक्ति के लिए किया गया मिलता है और कभी कभी साधारण
बोलचाल में इसे भक्त, साधु व महात्मा जैसे शब्दों का भी पर्याय समझ लिया जाता है।”1
संत शब्द को इस व्यापक अर्थ में ग्रहण करने पर वे सभी
साहित्यकार इस श्रेणी में प्रविष्ट हो जाएंगे, जो संत शब्द की परिभाषा में
समाहित होते हैं। दूसरी ओर संत शब्द को यदि हम रूढ़िगत अर्थ में देखें, तो इस
स्वरूप में भक्ति काल की निर्गुण धारा का ज्ञानाश्रयी साहित्य समाहित होता है,
“..... संत शब्द उनके लिए क्रमशः रूढ़ि सा हो गया था
और कदाचित अनेक बातों में उन्हीं के समान होने के कारण, उत्तरी भारत के कबीर साहब
तथा अन्य ऐसे लोगों का भी पीछे वही नामकरण हो गया।”2
इस प्रकार आचार्य शुक्ल भक्ति काल की जिस निर्गुण
धारा को ज्ञानाश्रयी नामकरण प्रदान करते हैं, इसी धारा को संत काव्य के रूप में
जाना जाता है स्वयं आचार्य शुक्ल ने भी इस धारा के कवियों के लिए संत नामकरण को ही
चुना है। साथ ही यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि हिंदी साहित्य के इतिहास का विश्लेषण
करने वाले जितने भी आलोचक हैं, उन सभी ने भक्ति काल की इस निर्गुण धारा को संत
काव्य नामकरण प्रदान किया है। और प्रायः इस नामकरण के संबंध में आलोचकों में कोई
भी मतभेद दिखाई नहीं देता। लगभग कबीरदास से यह परंपरा प्रारंभ होती हुई संत पलटू
तक चलती है। कबीर दास की काव्य प्रतिभा सामने आने के पश्चात यह धारा स्वतंत्र रूप
से चलती हुई, निर्गुण पंथ की मौलिक विशेषताओं को प्रकट करती है। यही ज्ञानाश्रयी
शाखारूढ़ अर्थ में संत काव्य कहलाती है।
संत काव्य दर्शन और इस्लाम :
हम भारतीय दर्शनशास्त्र में संत काव्य के तत्व ढूंढें उसके पूर्व उस मान्यता पर गौर करना भी आवश्यक है, जो संत काव्य को इस्लाम से प्रभावित मानती है, “इस्लाम के संपर्क और प्रभाव के कारण संतों की विचारधारा एकेश्वरवाद से प्रभावित हुई। इस्लाम की देन निषेधात्मक अधिक रही विधेयात्मक कम।”3 इस मान्यता में लेखक ने यह माना की मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद के बहिष्कार का मूल आधार इस्लाम में ही है। साथ ही सत्य यह है कि एकेश्वरवाद उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता थी, इसीलिए संत साहित्य में एकेश्वरवाद को अपनाया गया। आलोचना क्षेत्र के महारथी आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी कहा है,
“यह सामान्य भक्ति मार्ग एकेश्वरवाद का एक निश्चित स्वरूप लेकर खड़ा हुआ, जो कभी ब्रह्मवाद की ओर ढलता था और कभी पैगंबरी खुदावाद की ओर।”4 आचार्य शुक्ल ने भी संत काव्य के निर्गुण विचार और एकेश्वरवादी मान्यता को इस्लाम से प्रभावित माना। परंतु इस्लाम के प्रभाव को एक प्रभावी तर्क के रूप में नहीं माना जा सकता। इसका पहला कारण तो यह है कि यदि इस्लाम के भारत आगमन से पूर्व यहां पर निर्गुण और एकेश्वरवादी विचार मौजूद ही नहीं होता, तब तो इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता था कि इस्लाम ने ही इस मौलिक विचार को हमें दिया। दूसरी ओर संत काव्य और भारत में इस्लामी युग के समकालीन होने मात्र से ही इस विचार को स्वीकार किया गया है। दूसरी ओर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ पीतांबर बड़थ्वाल, डॉ विजयेंद्र स्नातक, डॉ गणपति चंद्रगुप्त जैसे विभिन्न आलोचकों ने संत काव्य के मूल तत्व में भारतीय दर्शन के प्रभाव को स्वीकार किया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संत साहित्य के आगमन से पूर्व के सैकड़ों वर्षों की समीक्षा करते हुए पाया कि हिंदी भाषा और साहित्य का विकास एक विशिष्ट क्रम में ही आगे बढ़ रहा था। इस्लाम की प्रतिक्रिया के रूप में हिंदी साहित्य वैसा रूप नहीं ले रहा था जैसा इस्लाम के प्रभाव की मान्यता के समर्थक आलोचक कह रहे थे। द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य के बारे में लिखा है,
“यदि अगली शताब्दियों में भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना अर्थात इस्लाम का प्रमुख विस्तार ना भी घटित होती तो भी वह इसी रास्ते जाता। उसके भीतर की शक्ति उसे इसी स्वाभाविक विकास की ओर ठेले लिए जा रही थी।”5 इस्लाम यदि एकेश्वरवाद को मानता है तो इसके आगे वह कयामत के विचार की ओर भी जाता है परंतु संत काव्य उस वैचारिक दृष्टि की बात कभी नहीं करता। गणपति चंद्रगुप्त ने लिखा है,
“ईश्वर का गुणगान गाते समय वे राम, हरि का नाम लेते हैं, अल्लाह या खुदा का नहीं। संसार की असारता घोषित करते हुए वे अद्वैतवाद और माया की बात करते हैं, मृत्यु के पश्चात मिलने वाली बहिश्त और आखिरी कलाम कि नहीं और विधि निषेधों की चर्चा में हिंदू शास्त्रों का आधार ग्रहण करते हैं कुरान का नहीं।”6 आलोचक गणपति चंद्रगुप्त का तर्क बहुत ही प्रभावी और महत्वपूर्ण है। पूरी संत परंपरा भारतीय दर्शन का प्रत्यक्ष अनुगमन करती है। संत कवि किसी भी स्थल पर मुस्लिम संस्कृति के नियमों से प्रभावित नजर नहीं आते। निर्गुण निराकार की परंपरा तो सैकड़ों हजारों साल से भारत की अध्यात्म धारा में व्याप्त रही है। ऋग्वेद से लेकर श्रीमद्भागवतगीता में, और बाद में सिद्ध साहित्य में, गोरखनाथ में परमात्मा का यह स्वरूप स्पष्टतः देखा जा सकता है।
भारतीय दर्शन परंपरा :
ईश्वर के स्वरूप विवेचन के लिए होने वाला विमर्श ही दर्शन के रूप में जाना जाता है। भारतीय दर्शन अपनी प्राचीनता के लिए विख्यात है साथ ही इसकी परिपक्वता, तार्किकता और उदारता भी इसे अनोखा बनाती है, “प्राचीन तथा अर्वाचीन हिंदू तथा हिंदू नास्तिक तथा आस्तिक जितने प्रकार के भारतीय हैं सब के दार्शनिक विचारों को भारतीय दर्शन कहते हैं।”7
भारतीय दर्शन आस्तिक तथा नास्तिक दो भागों में बांटा जाता है। मीमांसा, वेदांत, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक आस्तिक दर्शन कहे जाते हैं। इन्हें षड्दर्शन भी कहा जाता है। चार्वाक, बौद्ध तथा जैन नास्तिक दर्शन कहे जाते हैं। वेद, उपनिषद, सूत्र साहित्य, श्रीमद्भगवद्गीता आदि ग्रंथ भारतीय दर्शन के आधार हैं। पुरुषार्थ साधन, आध्यात्मिक असंतोष, जगत की शाश्वत नैतिक व्यवस्था, कार्य और कारण सिद्धांत, संसार मानों एक रंगमंच, अज्ञान बंधन का कारण, और मुक्ति ही जीव का चरम लक्ष्य आदि सभी विचार भारतीय दर्शन की विशेषताएं हैं। निर्गुण संत काव्य भी लगभग इन्हीं मान्यताओं को आधार में रखता है। मुख्य रूप से सांख्य, योग, वेदांत, शंकराचार्य का अद्वैतवाद, रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद दर्शन आदि परमात्मा, आत्मा, माया, जगत, गुरु का महत्व, पाखंडों का विरोध आदि के संबंध में जिस विचार को प्रकट करते हैं, प्रायः वही विचार संत साहित्य में प्रवाहित हो रहा है। संत काव्य जिस प्रकार भारतीय दर्शन परंपरा से प्रभावित है, उसे आगे हम व्यापक रूप से देख सकते हैं।
संत काव्य के स्रोत और भारतीय दर्शन परंपरा :
साहित्य या संस्कृति कि कोई भी धारा या कोई भी विचार
अचानक अस्तित्व में नहीं आता। संत साहित्य के स्रोतों पर विचार करते समय यह कभी
नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी विचारधारा परिपक्व रूप में आने से पूर्व बीज रूप में
प्रतिष्ठित होती है। संत काव्य भी अचानक प्रोढता नहीं पा गया, अपितु इसके बीज
भारतीय धर्म, संस्कृति और साहित्य में विभिन्न कालों में स्पष्ट देखे जा सकते हैं।
संत काव्य के मूल में निर्गुण भक्ति है। संपूर्ण संत साहित्य परमात्मा के निर्गुण
स्वरूप को केंद्र में रखता है। भारत के सबसे प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद को माना जाता
है। यदि हम वैदिक ऋचाओं का अनुसंधान करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि निर्गुण
भक्ति के बीज ही नहीं पल्लव, पुष्प, फल सभी वैदिक वांग्मय में व्याप्त है। विभिन्न
आलोचकों ने ऋग्वेद, यजुर्वेद की अनेक ऋचाओं की व्याख्या कर यह सिद्ध किया है कि सर्वव्यापक,
सर्वशक्तिमान, अजर, अमर, नित्य, पवित्र, शुद्ध- बुद्ध, मुक्त स्वभाव, ईश्वर
निराकार और निर्गुण है। उस ईश्वर के नाम तो अनेक हैं, किंतु रूप और गुण कोई नहीं।
सनातन परंपरा प्रकृति के सत, रज और तम के रूप में तीन गुण वर्णित करती है। समस्त
प्रकृति और उसका प्रत्येक अंश इन तीन गुणों को धारण करता है। परंतु वह परमात्मा इन
तीन गुणों से परे है, अर्थात निर्गुण है और निराकार है। संत काव्य के अनुरूप ही ऋग्वेद
में भी ईश्वर के निराकार स्वरूप और एकेश्वरवाद की मान्यता को स्पष्टतः देखा जा
सकता है,
“य एक: इदध्व्यश्चर्षणीना -
मिन्दृं तं गीर्भिरभ्यर्च अभि:।
य: पत्यते वृषभो वृष्ण्यावा-
न्त्सत्य: सत्वा पुरुमाय: सहस्वान् ।। ६/२२/१।।
अर्थात हे मनुष्यों जो मनुष्यों के मध्य में अकेला ही स्तुति करने और ग्रहण करने योग्य है उस ऐश्वर्य को देने वाले का इन वाणीयों से मैं सब प्रकार से सत्कार करता हूं। जो श्रेष्ठ बल आदि बहुत प्रिय गुणों से युक्त तीनों कालों में अबाध्य, सर्वत्र स्थित, बहुतों को रचने वाला, अत्यंत बल से युक्त हुआ, स्वामी के सदृश आचरण करता है, उसका सत्कार करता हूं, उस परमेश्वर का आप लोग सत्कार करिए।”8 इसके अतिरिक्त ऋग्वेद के नासदीय सूक्त और पुरुष सूक्त निर्गुण परमात्मा पर आधारित हैं। इन सूत्रों को या मंत्रों को निर्गुण परमात्मा का प्रमाण समझा जाता है। काल क्रम से ऋग्वेद के पश्चात आने वाले यजुर्वेद में भी उस निर्गुण परमात्मा का उल्लेख हुआ है, जो ज्ञान से प्राप्त होता है,
“वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सध्यत्र विश्वम्
भवत्येक नीडम्।
तस्मिन्निदं सं च वि चेति सर्वम् से ओत: प्रोतश्च विभु:
प्रजासु ।।३२/८।।
अर्थात मनुष्यों जिसमें सब जगत एक आश्रय वाला होता है, उस बुद्धि वा गुप्त कारण में स्थित नित्य चेतन ब्रह्म को पंडित, विद्वान जन ज्ञान दृष्टि से देखता है। उसमें यह सब जगत प्रलय समय में संगत होता और उत्पत्ति समय में पृथक स्थूल रूप भी होता है वह विविध प्रकार व्याप्त हुआ प्रजाओं में ठाड़े सूतों में जैसे वस्त्र तथा आड़े सूतों में जैसे वस्त्र वैसे ओतप्रोत हो रहा है, वहीसब को उपासना करने योग्य है।”9 भारतीय दर्शन में वेदों के पश्चात उपनिषद दूसरे महत्वपूर्ण स्रोत हैं, जो परमात्मा के निर्गुण स्वरूप को विभिन्न आयामों से विश्लेषित करते हैं। उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म वही है जो वैदिक ऋचाओं का पुरुष है। छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है,
‘‘सदैव सोम्येदमासी-देकयमेवाद्वितीयं”
इस सत्य पुरुष को परवर्ती काल में निर्गुण धारा के संतों ने स्वीकार किया है इसमें कोई संदेह नहीं है।”10 चाहे एकेश्वरवाद की स्थापना हो या निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन हो, वेदों के पश्चात उपनिषद इसका पर्याप्त विश्लेषण करते हैं। आत्म पूजा उपनिषद की व्याख्या करते हुए आचार्य ओशो कहते हैं, ‘‘उपनिषद उसे एक व्यक्ति की तरह पुकारने के लिए राजी नहीं हैं, क्योंकि एक व्यक्ति की तरह उसे बताना उसे सीमित करना है, एक व्यक्ति की तरह उसे मानना उसे सीमाओं में बांधना है। वे केवल उसका, वह (दैट) शब्द का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, बस इतना पर्याप्त है, लेकिन उसे हम कोई नाम नहीं दे सकते हैं, क्योंकि उसकी कोई आकृति नहीं है, कोई सीमा नहीं है- वह सर्वस्व है -ऑलनेस।”10
संत साहित्य और उपनिषद साहित्य के मूल विचार में जबरदस्त समानता है। वैदिक विचार में जो भी कर्मकांड या पाखंड का आगमन हुआ, उसके विरोध में उपनिषद साहित्य जिस प्रकार तार्किक रूप से सामने आया, ठीक उसी प्रकार सनातन धर्म परंपरा में जो कुरीतियां और पाखंड आ गए, उनके विरोध में संत साहित्य का जन्म हुआ। उपनिषदों के अतिरिक्त सनातन परंपरा में अत्यधिक प्रसिद्ध श्रीमद्भगवद्गीता ग्रंथ में भी परमात्मा के निर्गुण निराकार और अविनाशी स्वरूप का विशद वर्णन मिलता है,
‘‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।7.25।।
अर्थात अपनी योग माया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्म रहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता। अर्थात मुझको जन्मने-मरने वाला समझता है।”12 गीता में परमात्मा के निर्गुण निराकार रूप का वर्णन तो हुआ ही है, साथ ही इस पुस्तक में निर्गुण भक्ति का भी उल्लेख मिलता है। इसमें कहा गया है कि उस अविनाशी परमात्मा को अनन्य भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है,
“पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।8.22।।
अर्थात हे पार्थ जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्व भूत है और जिस सच्चिदानंद घन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है।”13 जिस प्रकार संत साहित्य पाखंड और कर्मकांडों का विरोध करता है, किताबी ज्ञान को व्यर्थ समझता है, यही भाव हम श्रीमद्भागवतगीता में भी देख सकते हैं। एक स्थल पर श्री कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि जब कोई व्यक्ति परमात्मा को तत्व से अर्थात अनुभव से जान लेता है, तो उसके लिए वेद व्यर्थ हो जाते हैं। वे प्रत्यक्ष अनुभव के आगे किताबी ज्ञान को व्यर्थ समझते हैं,
‘‘उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।
भावार्थ - सब तरफ से परिपूर्ण महान्जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, वेदों और शास्त्रों को तत्त्व से जानने वाले ब्रह्मज्ञानी का सम्पूर्ण वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है, अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।”14 यह तथ्य आश्चर्यजनक है कि संत साहित्य कर्मकांड और पाखंडों का जिस प्रकार विरोध करता है, उसी पाखंड का विरोध कृष्ण की गीता में स्पष्ट रूप से मिलता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 के 42 से 44 तक के श्लोक में उन कर्मकांडी व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है, जिनकी परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती। ऐसे लोगों के लक्षण बताते हुए कृष्ण कहते हैं,
“हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्म फल के प्रशंसक वेद-वाक्यों में प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं- वे अविवेकी जन इस प्रकार की जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्म रूप कर्म फल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ।।42-43-44।।”15 इसी प्रकार मिथ्याचारी अर्थात पाखंडी व्यक्ति का लक्षण बताते हुए कृष्ण कहते है,
‘‘कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स
उच्यते।।3.6।।
अर्थात जो कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों) को हठपूर्वक रोककर मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करने वाला) कहा जाता है।”16 गीता के विविध श्लोकों में उसी व्यक्ति को सत्पुरुष या धार्मिक पुरुष माना गया है, जिसने परमात्मा को तत्व से अर्थात अनुभव से जान लिया है। और परमात्मा को तत्व से नहीं जानने वाला व्यक्ति केवल पाखंडी है, जिसका जीवन व्यर्थ है। यही पाखंड विरोधी भावना संत काव्य का भी प्राण है।
संत साहित्य में गुरु की महिमा को सर्वाधिक महत्व
दिया गया है। कोई भी ऐसा संत कवि नहीं है, जिसने गुरु की महिमा का गान नहीं किया
हो। यहां तक कि संत साहित्य में परमात्मा की प्राप्ति के लिए गुरु को अनिवार्य
घोषित किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में गुरु की महिमा भी दृष्टिगत होती है,
“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन
सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं
ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।
अर्थात उस (तत्त्वज्ञान) को (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषों के पास जाकर) समझ। उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश देंगे।”17 संत साहित्य के आलोचकों को यह तथ्य चौंका सकता है कि संत साहित्य अपनी साधना में जितने भी महत्वपूर्ण तत्व मानता है, लगभग वह सभी तत्व श्रीमद्भागवतगीता में आसानी से देखे जा सकते हैं।
आचार्य वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत पुस्तक में से
श्रीमद्भागवतगीता प्रवाहित हुई है। यह गीता ग्रंथ सनातन परंपरा में सबसे ज्यादा
प्रतिष्ठित पुस्तक है। सनातन परंपरा मुक्ति के जितने भी मार्ग वर्णित करती हैं, उन
सभी मार्गों का वर्णन गीता में किया गया है। संत काव्य परंपरा परमात्मा को जिस
अविनाशी, निर्गुण स्वरूप में व्यक्त करती है, वह निर्गुण रूप गीता में स्पष्टत:
वर्णित हुआ है। और परमात्मा के निर्गुण रूप के अतिरिक्त निर्गुण भक्ति का स्वरूप
भी गीता में देखा जा सकता है। साथ ही पाखंडों का विरोध, अनुभवजन्य ज्ञान का महत्व,
गुरु की महिमा इन सभी महत्वपूर्ण तत्वों को गीता ग्रंथ में स्पष्टतः देखा जा सकता
है।
निष्कर्ष :
वस्तुतः भारतीय दर्शन परंपरा बहुत विराट और व्यापक है। यह दर्शन परस्पर विरोधी
विचारों को भी उदारता से स्वीकार करता है जैसे कि चार्वाक दर्शन का विश्लेषण भी
भारतीय दर्शन परंपरा में समाहित है। जबकि चार्वाक
दर्शन आत्मा, परमात्मा, मोक्ष आदि विचारों को सर्वथा निषेध करता है। सांख्य और
वेदांत दर्शन का मूल विचार संत काव्य दर्शन में प्रकट होता है। स्वामी
रामानुजाचार्य का विशिष्ट अद्वैतवाद प्रायः सभी संत कवियों में दृष्टिगत हो जाता
है। भारतीय दर्शन का मूल विचार यह है कि वह निराकार परम तत्व अपने लीला के लिए माया
नामक शक्ति से इस सृष्टि की रचना करता है। संपूर्ण भारतीय दर्शन को कबीर के इस
सूत्र में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है,
‘‘जल में कुंभ, कुंभ में जल है,
बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यह तथ कथौ गयानी।।”18
आत्मा, परमात्मा, माया, जगत, गुरु महिमा, मन अथवा मुक्ति इन सभी का स्वरूप, संत काव्य दर्शन भारतीय दर्शन के अनुसार ही प्रकट करता है। वेद, उपनिषद, गीता आदि सभी ग्रंथ भारतीय दर्शन के मूल आधार हैं और संत काव्य दर्शन इसी भारतीय दर्शन की परंपरा का प्रत्यक्ष अनुगमन करता है।
1. आचार्य
परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की संत परंपरा, सस्ता साहित्य मंडल कनॉट सर्कस
दिल्ली, पृष्ठ 3
2.
वही, पृष्ठ 7
3. संपा. नगेंद्र व हरदयाल, हिंदी साहित्य का इतिहास,
मयूर बुक्स नई दिल्ली, पृष्ठ 114
4. रामचंद्र शुक्ल, पुस्तक हिंदी साहित्य का
इतिहास (भक्ति काल), किंडल एडिशन, पृष्ठ 189
5. हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी ग्रंथ रत्नाकर
कार्यालय मुंबई, पृष्ठ 15
6. संपा. लक्ष्मी नारायण
चातक, राजकुमार पांडेय, साहित्यिक
निबंध, कॉलेज बुक डिपो जयपुर, पृष्ठ 58
7. चटर्जी एवं दत्त, भारतीय दर्शन, पुस्तक भंडार पटना, पृष्ठ 3
8. संपा स्वामी जगदीश्वरानंद सरस्वती,
ऋग्वेद शतकम्, विजय कुमार गोविंदराम
हासानंद दिल्ली, पृष्ठ 95
9. संपा.
स्वामी जगदीश्वरानंद सरस्वती, यजुर्वेद
शतकम्, विजय कुमार गोविंदराम हासानंद दिल्ली, पृष्ठ 80
10. विजयेंद्र स्नातक एवं रमेशचंद्र मिश्र, कबीर वचनामृत, मयूर पेपरबैक्स नोएडा, पृष्ठ24
11. https://oshostsang.wordpress.com/2018/08/18/%e0%a4%86%
12. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 7, श्लोक 25, गीताप्रेस, गोरखपुर, पृष्ठ 105,
13. वही, पृष्ठ 113
14. वही, पृष्ठ 43,
15. वही,
पृष्ठ 42
16. वही, पृष्ठ 53,
17. वही, पृष्ठ 73,
18. संपा. श्यामसुंदर दास बी.ए., कबीर ग्रंथावली, इंडियन प्रेस लिमिटेड प्रयाग, पृष्ठ 103
भानु प्रकाश शर्मा
सहायक आचार्य हिंदी, राजकीय महाविद्यालय उनियारा राजस्थान
एवं पीएचडी स्कॉलर, हिंदी विभाग, डॉ. के.एन. मोदी यूनिवर्सिटी निवाई राजस्थान
bhanu_fhalna@yahoo.com, 9251609884
शोध सह-निर्देशक
डॉ राजेश कुमार
सह आचार्य हिंदी, राजकीय महाविद्यालय, उनियारा राजस्थान
rajeshanupam1@gmail.com, 9950287791
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
आपनि माटी पत्रिका का शायद अब तक सर्वश्रेष्ठ आलेख
जवाब देंहटाएंलेख़क भानु प्रकाश जी को कोटि कोटि आभार
भानु प्रकाश जी नमस्कार। आपका आलेख सुंदर है। मैं कुछ बिंदुओं की ओर ध्यानाकर्षित करना चाहता हूँ।
जवाब देंहटाएंपहला तो यह कि👇
"आचार्य रामचंद्र शुक्ल करते हैं, जो संत काव्य धारा पर इस्लाम का प्रभाव देखते हैं। जबकि दूसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी करते हैं, जो संत काव्य धारा को हजारों वर्षों के भारतीय चिंतन का स्वाभाविक विकास मानते हैं।"
इसमें जो दो आलोचकों के बीजवाक्य आपने बताये हैं वे भक्ति आंदोलन के उदय के सम्बन्ध में है, संत काव्य के स्रोत के सम्बन्ध में नहीं।
दूसरी बात यह कि आलेख में गीता इत्यादि के सन्दर्भ आपके मूल आलेख से दुड़ नहीं पाये हैं, उदाहरणार्थ 3.6 (हठपूर्वक इंद्रिय निग्रह को जब कबीर इत्यादि ने कुछ हद तक स्वीकार किया है तो इसे गीता से संतों का ग्रहण करना सम्यक नहीं लगा।)
समग्र रूप से आलेख सुंदर व सुस्पष्ट है जिसके लिए आपको अनेकानेक बधाइयाँ। आपकी चिंतनशक्ति प्रशंसनीय है 🙏🙏🙏🙏🙏🙏
दुड़ के स्थान पर जुड़ पढ़ें 🙏
हटाएंगीता 3.6 वाली टिप्पणी को हटा कर पढ़ें क्योंकि विज्ञापन के कारण नीचे का संदर्भ कुछ और पढ़ गया।
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