शोध आलेख : परंपरा और आधुनिकता का सचेत काव्य-स्वर : विश्वासी एक्का -पुनीता जैन

परंपरा और आधुनिकता का सचेत काव्य-स्वर : विश्वासी एक्का 

पुनीता जैन



      छत्तीसगढ़ की उराँव आदिवासी कवयित्री  विश्वासी एक्का के अब तक दो काव्य-संग्रह प्रकाश में आए हैं- लछमनिया का चूल्हा’ (2018) और मौसम तो बदलना ही था’ (2021)। प्रथम संग्रह की भूमिका में वंदना टेटेका मन्तव्य आदिवासी कविता के मर्म को समझने में सहायक है। उनका मानना  है कि नृत्य, गीत, लय, रस और गति से भरपूर आदिवासी जीवन  अपनी संपूर्णता में काव्यात्मक ही है उनके शब्दों में, ‘‘कविता सिर्फ रस की अनुभूति’, ‘सुंदरता का अर्थ बताने और मात्र मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षाके लिए नहीं होती। वह असल में सुंदरता की परिधि से बाहर समूची सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। जिसे गाते तो सभी हैं, पशु-पंछी, जंगल-पहाड़ और वनस्पतियाँ, नदियाँ और झरने, बादल-बारिश और हवाएँ, सूरज-चाँद और सितारे और इन सबके साथ मनुष्य भी। पर चूँकि हम सिर्फ मनुष्यों की भाषा जानते हैं इसलिए सृष्टि के अन्य तत्त्वों के गीत और काव्य को नहीं समझ पाते। कविता की समझ को लेकर यह मूल अंतर है आदिवासी  और ग़ैर-आदिवासी समाज की गीत-काव्य परंपरा में।’’1 आदिवासी चिंतक वंदना टेटे के ये विचार आदिवासी कविता के स्वरूप को रेखांकित करते हुए विश्वासी एक्का के काव्यगत वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हैं जिसे वे आदिवासी कहन-परंपरा की कड़ी कहती हैं। उनके मतानुसार विश्वासी एक्का की कविता में परंपरा की गंधऔर आधुनिक समाज-व्यवस्थाजनित त्रासदोनों की उपस्थिति है।

 

            आदिवासी जीवन के यथार्थ-अनुभव, दृश्य, चरित्र, जीवनचर्या, दैनिक जीवन के संघर्ष और छोटी-छोटी खुशियों को प्रस्तुत करती विश्वासी एक्का की कविताएँ आदिवासी-संसार को शब्दों में पिरोती हैं। इसमें जीवंत चरित्र, उनके संघर्ष, स्वप्न और दु:ख-सुख के खट्टे-मीठे क्षण हैं। जीवन के छोटे-छोटे चित्रों में आदिवासी स्त्री-पुरूष की यथार्थ अनुभूतियों एवं क्रियाकलापों को उकेरा गया है- ‘‘सुखमतिया नाम है उसका/ कुछ सोच कर नाम रखा होगा/ दाई बाबा ने/ सोचती है कभी-कभी सुखमतिया/ पर समझ ही नहीं पाती/ कब पाया था जीवन में सुख।’’2  विश्वासी एक्का की कविता में ग्राम्य और नागर दोनों जीवन के  अनुभव हैं। आदिवासी समाज, स्त्री, मजदूर, भूख-गरीबी  और प्रकृति के बीच सरल जीवन के बिम्ब इन कविताओं में उतरते हैं। आदिवासी जीवन-कर्म के साथ विसंगति, विडंबना के कई चित्र यहाँ मिलते हैं जिसमें सजीव कल्पनाएँ, स्मृतियाँ, स्वप्न हैं तो साथ ही मदिरापान आदि उनकी दुर्बलताएँ भी। म.प्र. और छत्तीसगढ़  की आदिवासी संस्कृति में स्त्री-देह पर गोदना को उनका वास्तविक आभूषण माना गया है। गोदना उकेरने हेतु त्वचा में सुइयों द्वारा आकृति बनाई जाती है तथा उसमें रंग भरा जाता है। स्त्री के विवाह हेतु गोदना अनिवार्य है, इसे स्त्री के लिए जीवन में दुख-दर्द सहने का अभ्यास भी कहा जाता है। इसी संदर्भ में विश्वासी की पंक्तियाँ हैं- ‘‘मरने के बाद साथ जाने का/ आभूषण प्रेम था/ या जीवनपर्यंत/ कष्ट सहते रहने की/ पूर्व पीठिका।’’3  मध्यप्रदेश के आदिवासी समाज में स्त्री-जीवन के संघर्ष के विषय में यह एक उल्लेखनीय अभिव्यक्ति है। यद्यपि आदिवासी-परंपरा में गोदना देह का आभूषण कहा जाता है जो मृत्योपरांत भी साथ जाता है। किन्तु यथार्थ में यह स्त्री  के कष्ट-साध्य जीवन का पूर्वाभ्यास माना गया है। विश्वासी छत्तीसगढ़ से संबंध रखती हैं इसलिए उनकी कविता में ऐसे संदर्भों की स्वाभाविक उपस्थिति है।

 

            दूसरे काव्य-संग्रह मौसम तो बदलना ही था’  में  विश्वासी आदिवासी स्त्री के साथ शहर की शिक्षित स्त्री और घर-परिवार में उसकी स्थिति को भी कविता में चित्रित करती है। यह वह स्त्री है जिसे पितृसत्तात्मक मानसिकता के साथ संघर्ष करना हैं। बाह्य परिवेश में परिवर्तन आदिवासी जीवन-शैली और प्रवृत्तियों को प्रभावित करता है। गीत-संगीत-नृत्य के उल्लास, उमंग से भरे संबंधों के दरकने के पीछे, आदिवासी परिवेश में आया परिवर्तन हैं- ‘‘जीवन का फलसफा/ बस किताबों में बंद रहा/ उसके पन्ने जर्जर होते रहे/ जर्दी उसके पृष्ठों पर छाती रही/ और हम रिश्ते को पीले पत्ते सा/ पेड़ से टूटकर गिरते हुए देखते रहे।’’4 विश्वासी की कविता में स्त्री-चेतना उस आदिवासी स्त्री के मनोजगत की अभिव्यक्ति है जिसे स्वतंत्र रूप से परस्पर कमर में हाथ डालकर करमा, डोमकच नृत्य करने का संस्कार प्राप्त है। पुरूष की वर्चस्वशाली मानसिकता, व्यवहार, आदिवासी जीवन-संसार से भिन्न है । यद्यपि यहाँ समानता एक जीवन-मूल्य है किन्तु पूर्वोत्तर की कई कहानियाँ व कवयित्रियों के जीवन-अनुभव दर्शाते हैं कि पूर्वोत्तर आदिवासी  समाज में पितृसत्त्ता और वर्चस्ववादी प्रवृत्तियाँ हावी रही हैं। इसी तरह झारखंड के आदिवासी काव्य-लेखन में स्त्री-स्वतंत्रता के मूल्य के बावजूद कई अनुभव ऐसे मिलते हैं जो पुरूष की वर्चस्व की प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करते हैं। विश्वासी एक्का की कविता में पुरूष द्वारा  स्त्री के प्रति उपेक्षा भाव या श्रेष्ठताबोध के कई बिम्ब अंकित हैं। आदिवासी कवियों का काव्य स्त्री-संघर्ष, शोषण को लिपिबद्ध अवश्य करता है, किन्तु यह दृष्टि एक पुरूष की करूणा-दृष्टि है। जबकि आदिवासी कविता में अनेक ऐसे आत्मानुभव दर्ज हैं, जिसमें आदिवासी स्त्री के अपने ही समाज में प्रताड़ित होने के कई दृश्य है। पति से पिटने से लेकर डायन कहकर दंडित होने तक यह स्त्री के प्रति समानता के मूल्य की धज्जियाँ उड़ाने वाले अनुभव है। विश्वासी एक्का का काव्य-कर्म स्त्री के इसी उपेक्षित पक्ष को उद्घाटित करता है।

           

सतपुड़ा -1 जैसी कविताओं में भी जंगल को वे एक आदिवासी नहीं, एक स्त्री की दृष्टि से देखती है; जिसके दुख की अभिव्यक्ति जंगल के मौन में ध्वनित है- ‘‘इन वादियों में/ पहाड़ों के समानांतर/ लहरदार कोई वेदनासिक्त/ उभर आई थी एक कराह/ जैसे कोई आवाज़ दे रहा था।’’5 ‘जवाब दो’ये लड़कियाँजैसी अनेक कविताएँ पितृसत्ता से कई प्रश्न करती हैं। पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति स्त्री की देह, इच्छा, लोक-परलोक सर्वत्र पर काबिज रहकर नियंत्रण अपने हाथ में चाहती है। सभ्य शिक्षित संसार, लोकतंत्र और बौद्धिक समाज भी स्त्री के पक्ष में, हर स्थिति में, कम ही खड़े होते हैं। विश्वासी एक्का की कविता केवल आदिवासी ही नहीं, प्रत्येक स्त्री के पक्ष में मजबूत स्वर है। विशेषतः अपने दूसरे संग्रह में वे दृढ़तापूर्वक कई प्रश्न उठाती हैं। स्त्री को दिए गए शिक्षा, स्वतंत्रता, समानता के अधिकार नियंत्रित हैं। प्रत्येक तरह की संकीर्णता का आसान लक्ष्य स्त्री रही है। संस्कृति, परंपरा के आवरण सटीक लगाम की तरह प्रयुक्त होते रहे हैं, जो एक बड़े स्त्री-समुदाय को प्रशिक्षित कर उसी के हाथ में अपने वर्ग को साधने वाली लगाम पकड़ाती रही हैं। शिक्षित आदिवासी-स्त्री को भी इसका सामना करना होता है। उसकी स्वतंत्र-चेतना का विरोधी स्वर आदिवासी कविता में प्रायः मिलता है। कथित सभ्य-समाज उसकी नैसर्गिक जीवनशैली को ही नहीं छीनता, उसके स्त्री रूप को भी नियंत्रित करता है, जो उसे स्वीकार नहीं है। ‘‘पुरूष  के चाहने से/ स्त्री देवी बन जाती है/ क्या स्त्री के कहने से/ पुरूष ईश्वर बनना स्वीकार करेगा/ ईश्वर समदर्शी होता है।’’6

 

विश्वासी एक्का की कविता में आदिवासी परिवेश, जीवन-शैली, उनकी उत्सवधर्मिता, प्रकृति व आदिवासी जन-जीवन के विविध चित्र हैं, साथ ही नस्लीय श्रेष्ठता के दंभ पर तंज भी। उनके अनुभवों में यथार्थ के चित्र, स्थितियाँ हैं और आदिवासी  जीवन-दर्शन, आत्मचिंतन के पल भी। आदिवासी जीवन और जंगल का सान्निध्य, विरासत से मिला ज्ञान-बोध, जंगल के छिनने की पीड़ा, विद्रोह और प्रश्न एक साथ इन कविताओं में मिलते हैं। शहरी जीवन और लोगों के इस परिवेश और वस्तुओं से अपरिचय पर वे टिप्पणी करती हैं- ‘‘सिहार के पत्तों को क्यों न होगा गुमान/  उन्हीं से तो छाए गये हैं/ खेमरा और छितौरी/ सिले गए है दोना और पतरी/ जिसमें बंधा है/ चरवाहे का कलेवा/ शहर के तिमंजिला मॉल के प्रवेश द्वार पर/ प्लास्टिक के नकली पत्तों से/ बनकर रखी गयी/ नकली छितौरी/ आकर्षित कर रही है/ शहरातियों को/ पत्तों से बनी छतरी/ इसके पहले/ उन्होंने देखी ही कहाँ थी।’’7 शहर में रहने वाले आदिवासी कवियों के लेखन में अतीत और उसकी विरासत के  कई चित्रों के साथ शहरी जीवन की कृत्रिमता पर भी व्यंग्य मिलता है। वसंत में सरहुल पर्व, सरई बीज और पलास के फूलों से दहकते जंगल को याद करते हुए वे खिन्न भाव से कहती हैं- ‘‘कभी ऊब जाओ शहर के कोलाहल से/ तो चले आना जंगल/ लेकिन छोड़ आना शहर में/ अपना दिखावा, अहंकार , कुटिलता/ और नाक भौं सिकोड़ने की/ अपनी आख्यात सोच।’’8  विश्वासी के काव्य-स्वर में आदिवासी स्त्री और शिक्षित शहरी स्त्री  के द्वैत का संघर्ष  मिलता है, इसी तरह जंगल के नैसर्गिक परिवेश और शहर के कृत्रिम परिवेश का भी, जो विडंबना और व्यंग्य के स्वर में अभिव्यक्त हुआ है। वे अपने आदिवासी परिवेश को स्मृति और शब्दों में जीवंत रखती हैं। महानदी के सूखते जाने की चिंता उन्हें सताती है। आदिवासी जीवन के नैसर्गिक परिवेश  के क्षरण की पीड़ा  उनकी कविता में निहित है- ‘‘क्या मछुआरे की बेटी को भूलना होगा/ लहरों का संगीत, गुनगुनाने की कला।’’9  आदिवासियों के करमा, शैला नृत्य को नेताओं के स्वागत तक सीमित कर दिया जाना, उनके अधनंगे चित्रों का  दीवारों पर प्रदर्शन, उन पर शोध करने या उनके विकास, संवर्धन की बड़ी-बड़ी बातों द्वारा उन्हें बचाने के छद्म प्रयत्नों के पाखंड उन्हें  चिंतित करते हैं। महामारी के दौर में नस्लीय दंभ पर व्यंग्य करते हुए वे सहसराय का कुनबाजैसी कविता लिखती हैं तो वहीं तुम्हें पता न चलाजैसी कविता द्वारा आदिवासी परिवेश, जंगल, जमीन, भाषा, संस्कृति के छिनते चली जाने की व्यथा को शब्द देती हैं- ‘‘तुम मगन हो नृत्य करते रहे/ मांदल की थाप पर/ झूमते रहे/ जंगल भी गाने लगा तुम्हारे साथ/ उत्सवधर्मी थे तुम/ कोई अंगार रख गया सूखे पत्तों के बीच /बुधुवा ! तुम्हें पता न चला .....! / तुम्हारी अमराई में कोयल कूकती रही/ तुम्हारा मन भीगता रहा/ तुम सुनते रहे भुलावे का गीत/ विश्वासप्रवण थे तुम/ अमावस की रात/ वो काट कर ले गये पेड़ों को/ बुधुवा ! तुम्हें पता न चला।’’10

 

            आदिवासी विरासत, अतीत की स्मृतियाँ, आजादी के संघर्ष में बिरसा मुंडा, ताना भगत, गेंदा सिंह, गुंडाधुर, राधाबाई, मिनीमाता  आदि के योगदान का विश्वासी की कविता उल्लेख करती है। स्वतंत्रता का मूल्य जानने वाला आदिवासी जन, भूख और अभाव से संघर्ष  करते हुए जीवित रह लेता है किन्तु स्वाभिमान खोकर जीना उसे मंजूर नहीं है। विश्वासी मानती हैं कि स्वाभिमान और आत्मसम्मान ही उनकी असली भूख है। यही कारण है कि आत्मसम्मान पर चोट होते ही वह सचेत भाव से विरोध दर्ज करता है। ऐसा नहीं है कि जंगल केवल सुविधाओं, सौंदर्य का ही घर हो, यहाँ हिंसक जीवों का भय सदैव बना रहता हैं। आदिवासी कहानियों की तरह आदिवासी कविता में भी आक्रामक गजदलमिलते हैं। विश्वासी की एक कविता गजदलमें महुए की मादक गंध के वशीभूत गजदल द्वारा लहराते खेतों को तबाह करने का दृश्य उकेरा गया है। वे आदिवासी जीवन के ऐसे संदर्भों को आधुनिक संदर्भ और व्यवस्थागत  विसंगति से भी जोड़ती हैं- ‘‘रमलू का बी.ए. पास बेटा/ सोच रहा है/ वह कौन सा गजदल है/ जो रौंद जाता है/ किसानों के मन की/ लहलहाती फसल।’’11 वस्तुतः आदिवासी जन-जीवन में विकास के नाम पर असीमित हस्तक्षेप ने उसकी सामान्य जीवन-विधि, परिवेश को अस्त-व्यस्त कर दिया है। यदि  आदिवासी समस्या पर चर्चा होती है तो धर्म-परिवर्तन, वोट-बैंक आदि संदर्भों में ही होती है। विश्वासी की कविता ऐसी विसंगतियों पर गहरी नज़र रखती हैं- ‘‘भूखे बीमार और शोषित आदमी के लिए /धर्म बड़ी चीज़ नहीं होती/ बड़ी होती है तृप्ति जीवन और मुक्ति/ गाँव वाले कृषि प्रधान देश में/ क्यों है भूख की घुसपैठ? / एक जमींदार/ दूसरा भूमिविहीन खेत मजूर/ एक पुष्पक विमान पर सवार/ दूसरा घिसटता जमीन पर/ एक वेदशास्त्रों का ज्ञाता मेधावी/ दूसरा काला अक्षर भैंस बराबर/ प्रश्न थे कई पर उत्तर नहीं था उनके पास/ खड़े थे मंच पर निरूत्तर।’’12 

 

            विश्वासी एक्का के काव्य में विरोध के दृढ़ स्वर हैं। आक्रोश या उग्र स्वरों पर उनका विश्वास नहीं है। वे तर्क देती हैं, प्रश्न करती हैं, मर्मभेदी चित्र उकेरती हैं। आदिवासी समाज की जड़ों पर हमले ने उनसे जंगल, गाँव, नदी, पहाड़, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं, पक्षियों के स्वर में स्वर मिलाते गीत, संगीत, भाषा, सुर-ताल और जीवन की लय  छीन ली है। अतः ऐसी स्थिति में विरोध की आवाज उठना लाजिमी है- ‘‘फायर ब्रिगेड नहीं बुझाता जंगल की आग/ आग बुझेगी/ जब उठेंगे हजारों हाथ/ जुड़ेंगे मन/ पकड़ा जाएगा गुनहगार/ जिसने फेंक दी थी/ अधजली बीड़ी/ सूखे पत्तों के बीच।’’ 13 आदिवासी जन-जीवन, चरित्रों के कई चित्र इन कविताओं में उभरते हैं जो विसंगत जीवन-दृश्यों को प्रस्तुत करते हैं। सुखमतिया, लछमनिया, सहसराम, बुधुवा, बिरसो, सहजू आदि ऐसे चरित्र हैं जो आदिवासी जीवन बिम्बों द्वारा उनकी सघन संवेदनशीलता, प्रकृति-प्रेम और मानवीयता के उच्च रूप को प्रस्तुत करते हैं- ‘‘मरम्मत के बाद भी/ खपरैल से टपकता है पानी/ घर गीला/ चूल्हा और मन भी गीला/ बाल्टी, लोटा, थाली में/ टपकती बूँदें/ गरीब के घर में/ भर रही है/ जल तरंग का संगीत/ नीम की टहनियों में/ लटकते बया के घौंसले/ झूल रहे हैं झूला/ बया के घोंसले को देख/ उसकी खुशी  में होकर शामिल/ सहजू/ महसूसता है/ अपने घर के सूखे होने का सुख।’’14

 

            प्रकृति  के असीमित वरदान के प्रति आदिवासी समाज अनुगृहीत रहता है, वह उसे ठेस नहीं पहुँचाता, अहित नहीं करता, लालच नहीं करता। वह उतना ही लेता है, जितनी उसकी जरूरत है। दानी प्रकृति  सबको देती है किन्तु असीमित लोभ और शोषण-दोहन पर वह क्षुब्ध हो रोष प्रकट करती है। बर्फीले प्रदेशों में उच्च तापमान, ग्लेशियरों का पिघलना, जंगल में अनवरत फैलती आग, बादल फटना, तूफान ये सभी इसी विरोध की अभिव्यक्ति है। प्रकृति कविता, कहानी, शब्द द्वारा विरोध नहीं करती उसका रोष, विपदा बनकर अभिव्यक्त होता है और दशकों की सहनशीलता का विस्फोट महामारी के रूप में अभिव्यक्ति पाता है। आदिवासी कविता बड़े ही आसान शब्दों द्वारा सहजता, सरलता से कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। ये आदिवासी कवियों के माध्यम से प्रकृति के मनुष्य से किए गए प्रश्न हैं- ‘‘गोल, अंडाकार चिकने और सुंदर पत्थर/ नदियों ने इबारत लिखी है इनमें/ सहलाया है प्यार से/ समेटा है जतन से/ तुम रोक नहीं पाते खुद को/ उठा लेते हो हाथों में/ सजा लेते हो गमलों में/ लॉन के किनारे/ बिछा देते हो करीने से/ तुम इतराते हो अपने हुनर पर/ तुम बन सकते  हो कलाकार मूर्तिकार/ लेकिन क्या कभी तुम/ बन पाओगे नदी?’’ 15

 

            आदिवासी समाज की मान्यता है कि टिटहरी के रूदन का कारण बरसात कम होने से उत्पन्न किसानों की तड़प है, इसलिए वह प्रियतम बादल को पुकारती रहती है। प्रकृति के  प्रति गहरी संवेदनशीलता, करूणा और प्रेम आदिवासी समाज में  सहज ही दिखाई देता है।  आदिवासी जन को प्रकृति का सामीप्य स्वाभाविक रूप से मिलता है और उसी में वह खुद को सहज पाता है। जबकि राजमार्ग और उस पर दौड़ती तेज रफ्तार गाड़ियाँ उन्हें भयभीत करती हैं। विश्वासी एक्का के काव्य-कर्म में आदिवासी जीवन, जंगल, गाँव का परिवेश, उसकी गंध, भाषा और लोक  जीवन के प्रतीकों, ढेंकी, सिहार के पत्ते सोनमछरी, धतूरे के फूल, बया का घोंसला, बजरिहा, चूल्हा, दोना-पतरी आदि की उपस्थिति है। वे हिन्दी कविता में ऐसा हस्तक्षेप  हैं जिनके काव्य में आदिवासी जीवन की गंध और शहरी आधुनिक जीवन की विसंगतियाँ एक साथ मौजूद है। इस द्वन्द्व में वे जीवन के नैसर्गिक तत्त्वों व कृत्रिम चकाचौंध के बीच अपनी जीवनदृष्टि के साथ उपस्थित हैं। पर्यावरण असंतुलन, प्राकृतिक आपदाओं और समसामयिक जीवन-संदर्भों पर गहरी दृष्टि रखते हुए विश्वासी प्रत्यक्ष रूप से जंगल को बचाने के लिए खड़ी होती है- ‘‘वे यज्ञ नहीं करते थे/ जंगल को जलने से बचाना चाहते थे।’’16 उनके शब्द उन आदिवासियों के पक्ष में खड़े होते है जो ‘‘रच रहे हैं पहाड़ में कविता और कविता में पहाड़।’’17 

 

            जंगल अपनी सम्पूर्ण  प्राकृतिक-संपदा और ध्वनि-संसार के साथ आदिवासी जीवन-जगत में रचा-बसा है। जंगल और प्रकृति का उन्मुक्त रूप उनके गीत-संगीत-नृत्य, पर्व-त्योहारों का अविभाज्य अंग है। उनकी आजीविका ही नहीं, संस्कृति में भी प्रकृति की अपरिहार्य उपस्थिति है। बार-बार उजाड़े जाने, विस्थापित होने के बावजूद वे प्रकृति के साहचर्य में उल्लसित होकर जी उठते हैं - ‘‘वे सदियों से माप रहे हैं धरती/ पर तीन पगउनका भरोसा नहीं/ एक एक कदम है उनकी ताकत/ पैरों पर लगी चोट उनकी हिम्मत/ पूरब से पश्चिम/ उत्तर से दक्षिण/ उनके पांवों के हजारों हजार निशान/ उनके संघर्षों की कहानी/ देखो! बाँस के जंगल/ उनका मस्तक ऐसे ही ऊंचा नहीं है/ तीर-धनुष बाँसुरी की तान बनकर/ गूँज उठते हैं जंगल-जंगल।’’8 आदिवासी अतीत की स्मृतियाँ, संघर्ष, योद्धाओं की कथाएँ, सिनगी दई (रोहिताश्वगढ़  की वीरांगना), चालाआयो (उराँव आदिवासियों की आदिमाता), सिद्धों- कान्हो, फूलो-झानो, बिरसा मुंडा आदि के संदर्भ विश्वासी की कविताओं को उनके समृद्ध किन्तु उपेक्षित इतिहास से जोड़ते हैं। उनकी पीड़ा यह है कि जंगल और उसका समृद्ध संसार, जीवजंतुओं की अठखेलियाँ, जंगल की खुशहाली सत्ता को पसंद नहीं है, वह उस पर बंदिशें लगा देती है- ‘‘जंगल में आग लगी है/ सूखे पत्तों के साथ हरियाली भी जलने लगी है/ फिर भी कोयल ने गाना नहीं छोड़ा/ बुलबुल डाल पर फुदक रही है/   बंदरों का शाखों पर झूलना/ कूद-फाँद थमा नहीं/ कठफोड़वा की कारीगरी सूखे पेड़ों पर बदस्तूर जारी है/ सब मिलकर जंगल की खुशहाली बचाना चाहते हैं/   राजा ने आदेश दिया है/ इन सभी को बंदी बना लिया जाए।’’19 

 

        व्यवस्था के प्रति विरोध के स्वर विश्वासी के काव्य का हिस्सा है। दमन, शोषण और पाखंड के विरूद्ध वे आपत्ति दर्ज करती हैं। आदिवासी काव्य-स्वर में विद्रोह के पीछे ठोस कारण है, जिसमें ये कविताएँ भी स्वर मिलाती हैं। यह विद्रोही स्वर पहाड़िया, मानगढ़, भूमकाल के संघर्ष की ही अगली कड़ी है। आदिवासियों को ये भी आपत्ति है कि उपर्युक्त लड़ाई को युद्ध की संज्ञा न देकर इतिहास ने उनकी उपेक्षा की है। उत्पीड़ित, उपेक्षित और हाशिए का प्रत्येक रूप आदिवासी कविता में जगह बनाता है, चाहे वह स्त्री हो, मजदूर या किसान। विश्वासी की कविता में भी महामारी के दौरान मजदूरों का पलायन, किसानों की दुरवस्था  और स्त्री-उपेक्षा के कई चित्र अंकित हैं।

 

            विश्वासी के काव्य-स्वर में आदिवासी जीवन-संदर्भ के साथ नागर संस्कृति, उसकी चुनौतियाँ, संघर्ष उभर कर सम्मुख आए हैं। लछमनिया का चूल्हा’, ‘सतपुड़ा सहसराम का कुनबा’, ‘बिरसो’,  ‘मंगरू की उलझन’, ‘गोदनाजैसी कविताओं के साथ बूंदों में बरसता प्रेमजैसी कविताएँ भी यहाँ मिलती हैं, जिसमें महानगरीय व्यवस्था पर तंज है। वहीं नियंता’, ‘बेड़ियाँकविताओं द्वारा ये स्त्री-पुरूष भेदभाव पर टिप्पणी करती हैं। इसी तरह येरूशलमजैसी प्रस्तुति द्वारा वे विश्व में घृणा के विरूद्ध आदिवासी सहअस्तित्व, सहजीविता के सिद्धांत को पुष्ट करती हैं। इन विविधताओं के बावजूद आदिवासी जीवन, संस्कृति, प्रकृति और उसके विविध रूप उनकी कविता के केन्द्र में हैं। आदिवासी जीवन-संघर्ष, संकट और चुनौतियों के बीच वे अपने मूल सांस्कृतिक स्वर को जीवंत रखे हुए हैं। नगर-निवास, शिक्षा और परिवर्तित परिवेश के बावजूद उनकी कविता अपनी परंपरा, संस्कृति से जुड़ी हैं, यही प्रवृत्ति आदिवासी कविता को विशिष्ट आभा देती है।

          

आदिवासी जीवन में उल्लास, उमंग की सजीव उपस्थिति के पीछे जिस नृत्य-गीत-संगीत की परंपरा है उसे उनका काव्य-स्वर स्मृति में जिलाए रखने में सक्षम है- ‘‘कानों में तरकी/ हाथों में बेरा/ गले में हँसुली माथे पर टिकुली/ पैरों में घुंघरू/ एड़ी तक धोती/ कैसा समन्वय स्त्री और पुरूष का/ अर्द्धनारीश्वर की कल्पना/ हाथों में डंडा ले घूम-घूम लचकती कमर/ नृत्य करते गाँव  के रसिया नचकार/ बनाते मानव शृंखला/ आसमान छूने की चाह/ जब नाचते हैं झूम झूम/ मांदर की थाप पर/ बिसर जाते दुख दर्द।’’20 आदिवासी संस्कृति के सजीव बिम्ब उनकी भाषा के विविधवर्णी शब्द यहाँ सहज ही आदिवासी संसार के यथार्थ जीवन से परिचित कराते हैं- बजरिहा, (गाँव का वह व्यक्ति जो सब्जी भाजी बेचता है), पुटू -खुखड़ी (मशरूम की प्रजातियाँ, लगौनी (तौले गये सामान के साथ प्रदत्त अतिरिक्त सामान) सरहुल, जिरहूल, ढेरा (लकड़ी का यंत्र जिससे गाँव में रस्सी बुनी जाती है), मोहटा साड़ी, झांझ-नगेड़ा -ठेसका (आदिवासी वाद्य यंत्र), डोमकच(एक आदिवासी नृत्य), ढोड़ी (छोटा कुंड) आदि अनेक शब्द हैं, जिनका प्रयोग इन कविताओं में मिलता है।

 

            आदिवासी परिवेश से जुड़ी ये कविताएँ विश्वासी एक्का के अनुभव-जगत से परिचित कराती हैं। हिन्दी काव्य-परंपरा से अलग ये अपनी पहचान के साथ उपस्थित हैं। आधुनिक जीवन-जगत की त्रासद स्थितियों पर आदिवासी दृष्टि अपनी मौलिकता के साथ यहाँ प्रस्तुत है। अन्तर्वस्तु की विविधता उनकी सजग काव्य-दृष्टि की परिचायक है। यह दृष्टि स्थानीयता के साथ वैश्विक परिस्थितियों पर भी नज़र रखती है। आदिवासियत के प्राथमिक स्वर की ये कविताएँ उसके पक्ष में दृढ़ता-पूर्वक खड़ी रहकर यह घोषणा करती हैं-  ‘‘बहुत आवश्यक है अब/ अपना स्वाभिमान जगाकर अपनी ही चीज को/ अपना कहने की।’’21  


संदर्भ :

 

(1)       विश्वासी एक्का - लछमनिया का चूल्हा, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, राँची, झारखंड, (2018) - पृष्ठ -5

(2)       वही पृष्ठ 18

(3)       वही पृष्ठ 65

(4)       विश्वासी एक्का - मौमस तो बदलना ही था, रश्मि प्रकाशन लखनऊ, (2021) - पृष्ठ- 9

(5)       वही पृष्ठ 23

(6)       वही पृष्ठ 68

(7)       लछमनिया का चूल्हा, पृष्ठ 74-75

(8)       मौसम तो बदलना ही था, पृष्ठ 58-59

(9)       लछमनिया का चूल्हा, पृष्ठ 76

(10)     मौसम तो बदलना ही था, पृष्ठ 47-48

(11)     लछमनिया का चूल्हा, पृष्ठ 28

(12)     वही पृष्ठ 33

(13)     वही पृष्ठ 21

(14)     वही पृष्ठ 73

(15)     वही पृष्ठ 89

(16)     मौसम तो बदलना ही था, पृष्ठ 75

(17)     वही पृष्ठ 76

(18)     वही पृष्ठ 101

(19)     वही पृष्ठ 91

(20)     लछमनिया का चूल्हा, पृष्ठ 24

(21)     वही पृष्ठ 58

 

पुनीता जैन

प्राध्यापक -हिन्दी  शाषकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालयभेल, भोपाल

94250-10223, rajendraj823@gmail.com  


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

  चित्रांकन : वर्षा झाला, Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR           

UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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