निष्कासन : एक दलित स्त्री के आत्म संघर्ष की गाथा
अमित कुमार सिंह
शोध सार : दूधनाथ सिंह समकालीन हिंदी कथा साहित्य के एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। इनकी रचनाएं इनकी जनपक्षधरता का परिचय देती हैं। इन्होंने अपने समय की विसंगतियों को न केवल अनुभूत किया है बल्कि समाज के उस कड़वे अनुभव से अपनी साहित्यिक विरासत को समृद्ध भी किया है। कथा में इनका बेबाकीपन और निर्भीकता के साथ घटनाओं का वर्णन करना कथा को रुचिकर व जीवंत बना देता है। सन् 2002 में प्रकाशित ‘निष्कासन’ इनके महत्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है। लेखक ने इस लघु उपन्यास के माध्यम से स्वातंत्र्योत्तर भारत के शिक्षण संस्थानों में व्याप्त जातिगत भेदभाव तथा सवर्ण समाज की रूढ़िगत मानसिकता कापर्दाफाश किया है। लोकतांत्रिक देश में एक दलित लड़की का न्याय के लिए दर-ब-दर भटकना समाज और व्यवस्था को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देता है। लेखक ने एक दलित लड़की के संघर्ष के माध्यम से शैक्षणिक परिसर में दलितों के साथ हो रहे शोषण का पर्दाफाश किया है। साथ ही साथ जातिगत भेदभाव करने वाले ज्ञान के ठेकेदारों को भी बेनकाब किया है। दलित और वह भी स्त्री हो तो उसकी यातना और बढ़ जाती है। दलितों के प्रति सवर्ण समाज की मानसिकता आज भी वही है। वर्तमान समय में भी सवर्ण समाज दलितों को उच्च शिक्षा से वंचित रखना चाहता है। इस उपन्यास में शिक्षण संस्थान में जातिगत भेदभाव के साथ-साथ तमाम राजनीतिक पार्टियों, न्यायालय, मीडिया और भ्रष्ट सत्ता व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी गई है। अतः प्रस्तुत शोध आलेख के माध्यम से शिक्षण संस्थानों में दलित और विशेषकर दलित स्त्रियों पर हो रहे शोषण और उसके संघर्ष को दिखाने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : जनपक्षधरता, शिक्षण संस्थान, छात्रावास, जातिवाद, पितृसत्तात्मक, सवर्णवादी, राजनीति, चकलाघर, दलित स्त्री, रुढ़िगत मानसिकता, लोकतांत्रिक समाज।
मूल आलेख : “यानी मेरी बहन हाँफ़ती हुई झूठा आरोप लगाने आयी थी? उसकी दुर्गति इसलिए होनी है कि उसने दूसरा थप्पड़ पड़ने से रोक लिया? या इसलिए कि वह जाल में नहीं फँसी? इसलिए पूछताछ होगी? चुप रहो नहीं तो अफ़वाह आग की तरह फैलेगी और फिर जिसकी नज़र नहीं पड़नी, उसकी भी पड़ेगी? तो ये इज्ज़त के चोंचले तुम लोगों के लिए होंगे मनोज! हमारी ऐसे ही कौन-सी इज्ज़त है जो उतर जायेगी? और तुम्हारे समाज में इज्ज़त उतर कर भी बची रहती है। अफ़वाहे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मुझे पिछले पाँच वर्षों से यही लगता रहा कि यह हॉस्टल नहीं, चकलाघर है। यूनिवर्सिटी ‘सदाचारी’ कमीनों का कबाड़खाना है।”[1]
हिंदी कथा साहित्य में ‘चार यार’ के नाम से प्रसिद्ध कथाकारों में कथाकार दूधनाथ सिंह अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। साहित्य की सभी विधाओं में सिद्धहस्त होने के कारण वे कवि, कहानीकार, निबंधकार, उपन्यासकार, संस्मरणकार, पत्रकार के रूप में भी प्रसिद्ध रहे। अपने कथा साहित्य में इन्होंने आम जनमानस की वेदना का यथार्थ व सजीव वर्णन किया है। इनका कथा साहित्य जनपक्षधरता, निर्भीकता, बेबाकीपन से लिखने की कला का अद्भुत नमूना है। सत्ता के विरूद्ध और आम जनमानस की संवेदना जितनी स्पष्टता के साथ इनके कथा साहित्य में व्यक्त हुई है उतनी उनके अन्य समकालीन कथाकारों में बहुत कम ही देखने को मिलती है। प्रख्यात साहित्यकार तेजिन्दर अपने एक लेख में दूधनाथ सिंह के विषय में लिखते हैं- “दूधनाथ सिंह ने अपने समय की तमाम विसंगतियों, तमाम अंतर्विरोधों और तमाम संकटों का सामना सीधे-सीधे किया। उनमें कहीं भी भटकाव नहीं था। अपने लेखन में हर तरह के दोगलेपन से वे सीधी मुठभेड़ करते थे। वे किसी भी रूप में अध्यात्म एवं दर्शन की उथली चर्चा नहीं करते थे बल्कि उनके विरूद्ध जाते और यथार्थनिष्ठ सामाजिक संदर्भों में जीवित मनुष्य के साथ गहरे तक जुड़ते थें। भारतीय मनुष्य के स्वप्न और उसकी मुक्ति की छटपटाहट को वे बहुत करीब से पहचानते थे।”[2]इनकी कहानियों में‘सपाट चेहरे वाला आदमी’, ‘रीछ’, ‘धर्मक्षेत्रेकुरूक्षेत्रे’, ‘माई का शोकगीत’, ‘जलमुर्गियों का शिकार’, ‘हुँडार’, ‘सुखांत’ तथा उपन्यासों में ‘निष्कासन’, ‘नमो अंधकारं’ और ‘आखिरी कलाम’ आदि इनकी इसी विचारधारा से पाठकों को रू-ब-रू कराते हैं।
दूधनाथ सिंह काफी लंबे समय तक विश्वविद्यालय परिसर से जुड़े रहें। सन् 2002 में प्रकाशित‘निष्कासन’ विश्वविद्यालय परिसर में दलितों के साथ हो रही जातिवादी राजनीति को केंद्रित करके लिखा गया उपन्यास है। यह उपन्यास विश्वविद्यालय में एक दलित स्त्री पर हो रहे शोषण का मार्मिक दृश्य प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास की कथा फणीश्वरनाथ रेणु के‘मैला आंचल’ के ‘मेरीगंज’ या श्रीलाल शुक्ल के‘रागदरबारी’ के ‘शिवपालगंज’ की तरह ही किसी स्थान विशेष की कथा न होकर पूरे भारत में दलितों और दलितों में भी दलित- दलित स्त्रियों के साथ हो रहे शोषण और अत्यचार को बयां करती हुई एक मार्मिक कथा का जीवंत दस्तावेज बन गई है। यह कथा उस दलित लड़की के आत्मसंघर्ष को दिखाती है जिसे यह पितृसत्तात्मक सवर्णवादी समाज उसे उसके नाम से पुकारना भी मुनासिब नहीं समझता।
अतः स्पष्ट है कि इस उपन्यास में लेखक ने उस सवर्णवादी समाज की क्रूर मानसिकता की घोर भर्त्सना की है। लेखक इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं कि- “यह भारतीय ब्राह्मणी संस्कृति का असर है जो चुपके-चुपके वध करती है और उसके लिए एक ख़ूबसूरत मंच और सधे अभिनेता और विचारों की धुँधली रोशनी और तार्किक कुतर्क का संसार रचती है।”[3]
कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है जिसमें समाज का यथार्थ रूप प्रतिबिंबित होता है। कोई भी रचना अपने समय के समाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। दूधनाथ सिंह की रचनाओं में समाज केनग्न यथार्थ को देखा जा सकता है। यद्यपि दूधनाथ सिंह जन्मना दलित नहीं थे तथापि उनके कथा साहित्य में समाज के इस वर्ग की पीड़ा को अनुभूत किया जा सकता है। इनकी इस विशेषता को रेखांकित करते हुए सम्पादक विजय अग्रवाल लिखते हैं- “अपने मूल स्वभाव से उपेक्षित और दलितों के पक्षधर होने के कारण दूधनाथ सिंह प्रगतिशील विचारधारा के लोगों के संपर्क में आए और लगभग उनका सारा का सारा साहित्य जनता के पक्ष में समर्पित रहा है।”[4]गौरतलब हो कि इन्होंने उस समुदाय पर हो रहे शोषण का न केवल जिक्र किया है उसके साथ-साथ उनके शोषकों को भी आड़े हाथ लिया है। मसलन इस उपन्यास में लेखक ने शिक्षण संस्थान के शिक्षक-शिक्षिकाओं के माध्यम से समाज की ब्राह्मणवादी रुग्ण मानसिकता से पाठकों को रु-ब-रु करवाया है। शिक्षण संस्थान ही वह माध्यम है जिससे किसी भी समाज का नैतिक विकास किया जा सकता है। लेकिन जब शिक्षण संस्थान ही अनैतिकता, भ्रष्टाचार, जातिवाद की कोढ़ में गिरफ्त होकर अनैतिकता की शिक्षा देने लगे तो वह देश, उसका समाज, उस समाज की उपलब्धियाँ ही प्रश्नों के घेरे में आ जाती है।‘निष्कासन’ उपन्यास में एक ऐसे ही शिक्षण संस्थान का जिक्र है जहाँ के शिक्षकों के मस्तिष्क जातिगत रूढ़िगत मानसिकता से जकड़े हुए हैं जो किसी भी दलित को प्रगति करते हुए नहीं देख सकते। कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा‘जूठन’ में लिखते हैं- “दलित पढ़ लिखकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चाहते हैं, लेकिन सवर्ण (?) उन्हें इस धारा से रोकता है। उनसे भेदभाव करता है। अपने से हीन मानता है। उसकी बुद्धिमत्ता, योग्यता, कार्यकुशलता पर संदेह व्यक्त किया जाता है। प्रताड़ित करने के तमाम हथकंडे अपनाए जाते हैं। इस पीड़ा को वही जानता है जिसने इसकी विभीषिका के नश्तर अपनी त्वचा पर सहे हैं। जिसने जिस्म को सिर्फ बाहर से ही घायल नहीं किया है अन्दर से भी छिन्न-भिन्न कर दिया है।”[5]यह प्रताड़ना इस उपन्यास की लड़की को भी सहनी पड़ती है। यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था इस कदर उसे परेशान करती है कि उसे आत्महत्या करने को विवश हो जाती है। यद्यपि वह लड़की पढ़ने में ज़हीन थी तथापि उससे उस विश्वविद्यालय के मृदुलासाराभाई छात्रावास में रहने के लिए दस हजार रुपये मांगे जाते हैं और न देने पर ‘कुछ और दो’ की मांग की जाती है। यह कहना गलत न होगा कि वर्तमान समय की शिक्षण व्यवस्था विषमता की पोषक हैं। इस ओर इशारा करते हुए गीता सिंह लिखती हैं- “यह मानसिकता आज भी समाज की कड़वी सच्चाई है। जिसे हम कदम-कदम पर महसूस करते हैं, भोगते हैं तथा जीते हैं। जहां ज्ञान रूपी समता का दीया जलना चाहिए वहां असमानता और जाति-पांति का जहर भरा जा रहा है। हमारी शिक्षण व्यवस्था विषमता की पोषक हैं।”[6]
स्त्रियों के प्रति हमारा भारतीय समाज हमेशा सदियों से ही उदासीन रहा है। उसे केवल एक भोग की वस्तु के रूप में ही देखा गया है और एक पशु से भी बदतर जीवन जीने को विवश किया गया है। हमारा समाज हमेशा से ही महिलाओं पर अपना एकाधिकार समझता रहा है। स्त्रियों को हमेशा आगे बढ़ने से रोकता रहा है। स्त्री यदि दलित समुदाय की है तब तो इस समाज द्वारा उसे दोहरी यातना दी जाती रही है। हिंदी साहित्य के तमाम दलित लेखिकाओं की आत्मकथाओं में उनकी इस पीड़ा को अनुभूत किया जा सकता है चाहे वह कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ हो या सुशीलाटाक भौरे के ‘शिकंजे का दर्द’। इस संबंध में स्वयं सुशीला टाकभौरे लिखती हैं- “एक तो नारी होने की अपने आप में पूर्ण व्यथा की कथा है वहीं दूसरी ओर श्रम-संघर्ष कष्ट और गरीबी से भी अधिक यातनापूर्ण है अछूत होना, अस्पृश्य माना जाना, सामाजिक जातिगत भेदभाव के अपमान के साथ जीना, निर्गल असहाय चुपचाप अपमान के जहर को पीना भुक्त भोगी ही इस यातना को समझ सकता है।”[7]मसलन इस उपन्यास की मुख्य पात्र ‘लड़की’ भी दलित समुदाय के खटिक परिवार से संबंधित है। पढ़ने में वह अत्यंत ही मेधावी है। इसके बावजूद इस सवर्णवादी समाज में उसे कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यहाँ तक कि देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में भी जहाँ प्रत्येक छात्र-छात्राओं को समान रुप से शिक्षा पाने का अधिकार है वहाँ भी यह जातिवादी रुग्ण मानसिकता परिलक्षित की जा सकती है। अम्बेडकर ने कहा था कि शिक्षा वह शेरनी का दूध है जो पियेगा वह दहाड़ेगा, लेकिन आज वर्तमान समय के कई विश्वविद्यालयों में दलित छात्र-छात्राओं को आरक्षण कोटे से दाखिला तो मिल जाता है लेकिन दलितों और सवर्णों के बीच की खाईं आज भी मिट नहीं पाई है। जैसा कि इस उपन्यास में बड़ी बहन लड़की को हिदायत देते हुए कहती है- “हॉस्टल में किसी की बात पर कान मत देना। और मैम से शिकायत मत करना। कुछ सुनाई भी पड़ जाय तो पी जाना। हमारे बारे में अपमानजनक बातें होती ही रहती हैं। और क्लॉस में भी। अपना काम करना है चुपचाप।”[8]वर्ग विभाजन की यह रेखा उपन्यास में वर्णित केवल मृदुलासाराभाई छात्रावास में ही नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत के तथाकथित बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उसकी बड़ी बहन उस यातना को झेल चुकी है। और संभवतः इस स्थिति का आभास उसे पहले से ही होता है जिसके कारण वह अपनी बहन को हिदायत देती है। इस संबंध में विमल थोरात लिखती हैं कि- “संवैधानिक प्रावधानों के होते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में ब्राह्मण वर्चस्व का बोलबाला है और ऐसी हर संभव कोशिशें होती हुई दिखती हैं जिससे ज्ञान अर्जित कर दलित आदिवासी अपनी स्थिति बेहतर बनाने के लिए संघर्ष का रास्ता ना अपनाएं।”[9]
इस उपन्यास के माध्यम से सवर्णवादी पितृसत्तात्मक समाज के क्रूर यथार्थ को दर्शाया गया है। उस लड़की को न केवल उस शिक्षण संस्थान में परेशान किया जाता है बल्कि उसके निष्कासन के बाद भी यह पितृसत्तात्मक समाज मानसिक रुप से इस कदर परेशान करती है कि लड़की आत्महत्या करने के लिए हो जाती है। लेखक ने वर्तमान समय में शिक्षण संस्थानों को व्यभिचार के लिए प्रयुक्त कर रहे सवर्णवादी ज्ञान के ठेकेदारों को बेनकाब किया है। उपन्यास में वर्णित मृदुलासाराभाई छात्रावास की सवर्णवादी मैडम डॉ.महिष्मति सिंह ने पूरे छात्रावास को चकलाघर में तब्दील कर दिया है। जहाँ प्रतिदिन मेहमान के आने पर उनके सेवा सत्कार के लिए किसी न किसी लड़की को बुलाया ही जाता था। लेखक लिखते हैं- “लेकिन हॉस्टल में तो यह आम रिवाज है। शाम को कोई-न-कोई लड़की मैम की सेवा-टहल या उनके मेहमानों के स्वागत-सत्कार हेतु बुलाई ही जाती है।”[10]ऐसे ही एक दिन कहानी की मुख्य पात्र ‘लड़की’ को भी किसी मेहमान के स्वागत-सत्कार या यों कहे कि उनकी यौन तृष्णा की पूर्ति के लिए बुलाया जाता है। अपने खिलाफ बनाई गयी इस षड़यंत्र से अनभिज्ञ लड़की मैम के चक्रव्यूह में फंस जाती है पर अपना आत्मसम्मान बेचने से इन्कार कर देती है। यहीं से उसके संघर्ष की कथा शुरु हो जाती है जिसकी परिणति उसके आत्महत्या पर खत्म होती है। लेखक ने बड़े ही सूक्ष्म तरीके से इस सवर्णवादी समाज पर कड़ा प्रहार किया है जिसे ना सुनना पसंद नहीं है और अपनी बात को सही साबित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। मसलन उपन्यास में हॉस्टल की जनरल सेक्रेटरी मैत्रेयी मिश्रा मैडम के इस धंधे की पोल खोल देती है- “तुमसे कहा था मैंने, अपना धन्धा जरा आस्ते-आस्ते। धन्धे की वजह से हुआ यह। आसान समझे बैठीं थीं उस लड़की को? खटकिन है तो साग-भाजी की तरह बिक जायेगी? नहीं बिकी तो बधोगी।”[11]लड़की के मना करने पर मैम उसे बुरी तरह मारती है और अपने अहंकार या यह कहे कि अपनी श्रेष्ठता को साबित करने के लिए अपने पति शार्दूल विक्रम सिंह के साथ मिलकर उस लड़की को मृदुलासाराभाई छात्रावास से निष्कासित करा देती है। गौरतलब हो कि शार्दूल विक्रम सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य है। छात्रावास में होने वाले अवैध कामों में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
ग़ौरतलब हो कि स्वतंत्र भारत में वह लड़की अपने निष्कासन को रद्द करवाने के लिए देश के हर एक दरवाजे को खटखटाती है लेकिन यह सवर्णवादी समाज में कहीं से भी उसे न्याय नहीं मिल पाता है। इस लघु उपन्यास के माध्यम से लेखक ने समाज की व्यवस्था और सत्ता पर कड़ा प्रहार किया है। लड़की अपने अस्तित्व को बचाने के लिए इस प्रजातांत्रिक देश के हर एक दरवाजे तक जाती है लेकिन दलित होने के कारण उसे हर जगह से निराशा ही हाथ लगती है। लेखक महामहिम के माध्यम से कहते हैं- “मान लीजिये आपकी बेटी है तब? मुफ़्ती की बेटी थी तब? तब तो सारा प्रशासन सिर के बल खड़ा हो गया था! अपहरण और आपूर्ति में ज्यादा फ़र्क नहीं है पंडित जी! दोनों में अनिच्छित शोषण है। दोनों में हिंसा है। जबर्दस्त शारीरिक और मानसिक अपमान है। दोनों में बल-प्रयोग है, सिर्फ़ उसके तरीके में अन्तर है। दोनों में फिरौती है। एक में प्रत्यक्ष, दूसरे में परोक्ष। आप क्या समझते हैं, जो देवी जी वहाँ प्रतिष्ठित पद पर आसीन हैं इस कुकर्म में लिप्त हैं, उनका कोई निहित स्वार्थ नहीं होगा? सिर्फ़ एक घिनौने मज़े के लिए वे वैसा करती होंगी?...लेकिन नहीं, किसी खटिक की बेटी होने का क्या मतलब? उसे नरक में डालो और हँसो। या उसे आपकी तरह अन्य मामलों के घूरे पर डाले कर रफ़ा-दफ़ा कर दो।”[12]महामहिम का यह कथन सवर्णों का दलितों के प्रति रवैये को दर्शाता है। चूंकि महामहिम संघ के कॉडर से आते है और संघ सवर्ण बनाम दलित के मामले में अपने बुनियाद को छोड़ नहीं सकता। अतः महामहिम की यह बात भी एक बयानबाजी बनकर रह जाती है।
इस पुरूषवादी सवर्णवादी व्यवस्था के आगे यद्यपि लड़की संघर्ष करती हुई हार जाती है तथापि वह देश की खोखली लोकतांत्रिकता की पोल खोल कर रख देती है। वह हर एक राजनीतिक पार्टियों के यहाँ अपनी फरियाद लेकर जाती है लेकिन ये राजनीतिक पार्टियां अपनी कुर्सी और वोट बैंक बचाने के लिए उस दलित लड़की की फरियाद को अनसुना कर देती हैं। मसलन मनोज पांडे का यह कथन कि महामहिम भले ही दलित समुदाय से आते हैं लेकिन दलित बनाम संघ की बात आएगी तो महामहिम संघ का ही साथ देंगे। लेखक लिखते हैं- “महामहिम के उत्साह का भरोसा मत करो, क्योंकि कुल मिलाकर वे संघ के कॉडर से आते हैं और संघ अपनी बुनियाद कतई नहीं छोड़ेगा। यानी महामहिम दलित-एजेण्डे को अधिक से अधिक संघ और सत्ता के लिए भुना भर सकते हैं, लेकिन मामले का रूख़ अगर दलित बनाम सवर्ण पर आयेगा तो उनकी धोती ढ़ीली हो जायेगी। वे हमारे ज्ञापन को कूड़े की टोकड़ी में डाल देंगे।”[13]वहीं दूसरी ओर शोषण के विरूद्ध एवं न्याय के पक्ष में संघर्ष की बात करने वाले वामपंथी दल भी उसके मामले को ‘दलित बनाम पार्टी का मामला’ में पार्टी का ही हित देखते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का सचिव महोदय कहता है कि- “और वक्त ऐसा है जिसमें पार्टी बनाम दलित के लफड़े में हमें नहीं फँसना चाहिए। हम दलितों के पक्षधर हैं, लेकिन पार्टी बनाम दलित में हम पार्टी का हित पहले देखेंगे। और मामला सार्वजनिक हुआ तो इसमें पार्टी का अहित है।...लड़की ने इसे अपनी इज्ज़त और ईगो का सवाल बना लिया है। पार्टी-पॉलिसी से इसका कुछ लेना-देना नहीं।”[14]
इतना ही नहीं लड़की अपने समुदाय के एक
नेता के पास भी मदद के लिए जाती है लेकिन वह भी अपना स्वार्थ देखकर लड़की की मदद
के लिए आगे नहीं आता। इसके विपरीत जब लड़की उस नन्हे लाल खटिक से पूछती है कि- “तो आप किसलिए हैं वहाँ?” उसका जवाब आज के नेताओं के चरित्र की पोल खोल देता है। वह कहता है- “दलाली के लिए और अपनी चमड़ी बचाने के लिए’, नन्हें लाल ने बेखटके कहा, लेकिन कौन है तू? हमसे भीख भी माँगेगी और हमीं को
हुरपेटेगी भी। इतनी हिम्मत तुझे किसने दी? मायावती बनना चाहती है तू, और यूनिवर्सिटी के पंडों के बीच में?’ नन्हें लाल के कथन में किंचित वात्सल्य था।”[15]इन कथनों के माध्यम से लेखक ने उस लड़की
की संघर्ष को दिखाते हुए देश को दीमक की तरह नष्ट कर रहे अवसरवादी राजनेताओं की
पोल खोलकर रख दिया है। लड़की का संघर्ष यहीं समाप्त नहीं होता है। लड़की के न्याय
के लिए दो समितियाँ बनाई जाती हैं लेकिन उन समितियों के सदस्य के तौर पर अपराधी मैडम
को भी रखा जाता है जिसका विरोध लड़की निर्भीकता से करती है लेकिन यह ब्राह्मणवादी समाजिक
सत्ता उसकी बातों को नजरअंदाज कर उसे निष्कासित कराने के लिए एकजुट हो जाती है।
लड़की डटकर इस वर्चस्वशाली सत्ता का विरोध करती है- “जाँच-कमेटी से अधीक्षिका यानी मैम को हटाया जाय। जब वह खुद जाँच-कमेटी के
घेरे में हैं तो जाँच-समिति की सदस्य की हैसियत से कैसे बैठ सकती हीं? जो कठघरे में है, वही न्याय की कुर्सी पर भी बैठेगा? क्या आत्मालोचन करने के लिए या गांधियनह्रदय-परिवर्तन के लिए? तब तो सभी निर्णय गैरकानूनी हो जायेंगे। ऐसे हालात
में मुझे न्याय कैसे मिल सकता है?”[16]लेखक दलित समुदाय में अपने अधिकारों के प्रति आ रही
सचेतनता को दिखाते है। इसके साथ ही लड़की न्याय के लिए उच्च न्यायलय की ओर रूख
करती है लेकिन वहाँ भी उसे निराशा ही होती है। उच्च न्यायलय भी इस मामले में दख़लन्दाज़ी
न करने का बहाना देते हुए लड़की की याचिका को खारिज कर देता है।
आजादी के करीब पचहत्तर वर्ष बाद भी अगर हम अपनी सामाजिक स्थिति का आकलन करें तो हम पाएंगे कि हमारी सामाजिक, मानसिक स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी आय दिन अख़बारों में दलित उत्पीड़न के मामले दिख जाते हैं। यद्यपि हमने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में तमाम उपलब्धियों को हासिल कर लिया है लेकिन मानसिक विकास के मामले में हमारा समाज आज भी पिछड़ा हुआ ही है। आज किसी न्यायाधीश के तबादले पर उसकी कुर्सी और चैम्बर को गंगा जल से धुलवाना या किसी को उसके नाम से बुलवाने में अपना अपमान समझना आदि घटनाएँ समाज की रूढ़िगत मानसिकता का परिचायक है जिसका उल्लेख करते हुए दूधनाथ सिंह इस उपन्यास में अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के चेयरमैन डॉ. छागला के माध्यम से कहलवाते हैं- “जिस शहर में एक दलित न्यायमूर्ती के तबादले पर उसकी कुर्सी और चैम्बर को गंगा-जल से धुलवाया जाता हो, उसे महान और ऐतिहासिक नगर कहते है आप? और मेरे ही सामने? क्या यह झूठ है? हुआ कि नहीं यह? महान ऐतिहासिक! पवित्र ऋषियों की तपोभूमि! हवन-कुंड...चर्खा! ये पैदा हुए, वो पैदा हुए! किसलिए पैदा हुए? इसी दिन के लिए? शर्म आनी चाहिए आप लोगों को! परम्परा, इतिहास और संस्कार! आहुति में झोंक देने का संस्कार?”[17]
निष्कर्ष : इस प्रकार निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि आज इक्कीसवीं सदी में भी दलितों के उत्थान के लिए बनाई गई तमाम योजनाओं और सुविधाओं के बावजूद यह सवर्ण समाज जाति, धर्म, परम्परा और संस्कार के नाम पर दलितों का शोषण करता चला आ रहा है। आज के इस वैज्ञानिक युग में जहाँ हमने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में तमाम उपलब्धियों को हासिल कर लिया हैं वहीं मानसिक रूप से हम आज भी आदिम जड़ संस्कारों में ही जी रहे हैं। यह हमारे देश की विडम्बना ही है कि आज़ादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी खुद को आधुनिक और शिक्षित कहने वाले राज्यों में भी महिलाओं या समुदाय विशेष के लोगों को जाति के आधार पर वहाँ के मन्दिरों में उनका प्रवेश वर्जित है। यद्यपि संविधान ने देश के नागरिकों को समानता का अधिकार दिया है तथापि आज भी देश के बड़े-बड़े संस्थानों में, विभिन्न कार्यालयों में इस जातिगत असमानता को परिलक्षित किया जा सकता है। वर्तमान समय के समाज में हाथरस, उन्नाव और कठुआ जैसे नृशंस घटनाओं का होना आजादी के मायने पर ही प्रश्न खड़ा कर देता है। आज भी देश के कई बड़े विश्वविद्यालयों में दलित छात्र-छात्राओं के प्रति सवर्ण शिक्षकों-शिक्षिकाओं का रवैया बदला नहीं है। वर्तमान समय में भी देश के भिन्न-भिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों में जातिगत उत्पीड़न के कारण विद्यार्थियों की आत्महत्या की ख़बर सुनने को या देखने को मिल जाती है। इस प्रकार दूधनाथसिंह इस उपन्यास में लड़की के संघर्ष के माध्यम से यह प्रश्न हमारे समक्ष छोड़ जाते हैं- “यार किस बात की सज़ा दी गयी उसे? इसलिए कि उसके पास पैसा नहीं था, या इसलिए कि वह मैत्रेयी-ब्रांड नहीं निकली? हमारे माँ-बाप को पता चले कि हम कैसे नरक में रहते हैं, तो क्या होगा? वे तुरन्त हमें निकाल लेंगे। लेकिन ये क्या यार, सामाजिक बहिष्कार? इसलिए कि उसने रिपोर्ट की? ऊपर तक गयी? मान गयी होती तो सब कुछ ठीक था?”[18]इस प्रकार यह उपन्यास दलित लड़की के संघर्ष के माध्यम से लोकतांत्रिक भारत में मानवाधिकारों के लिए बनाए गए तमाम सरकारी व गैर सरकारी संगठनों पर प्रश्न खड़ा करता है।
सन्दर्भ :
[1]दूधनाथसिंहःनिष्कासन, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, पहली आवृति, 2012, पृष्ठ सं.- 54
[2]तेजिन्दरः‘राजनैतिक
चेतना के प्रखर लेखक’, साहित्य विकल्प (अंक-6),जून,
2018, पृष्ठ सं.- 71
[3]दूधनाथसिंहः
निष्कासन, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, पहली आवृति, 2012,पृष्ठ सं.-
26
[4]वही,
पृष्ठ सं.- 06
[5]ओमप्रकाशवाल्मीकिःजूठन,
राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, पन्द्रहवां संस्करण, 2020, पृष्ठ सं.-155
[6]गीता
सिंहः शिक्षण-संस्थानों में दलित स्त्री-विरोधी मानसिकता,अम्बेडकरवादी
स्त्री-चिंतन( सं. तेज सिंह), स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2011,
पृष्ठ सं.- 219
[7]सुशीला
टाकभौरेः रोशनदान से आएगी आशा की किरण, अम्बेडकरवादी स्त्री-चिंतन( सं. तेज
सिंह), स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2011, पृष्ठ सं.- 93
[8]दूधनाथसिंहः
निष्कासन, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, पहली आवृति, 2012,पृष्ठ सं.- 23
[9]विमल
थोरातःदलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर,अनामिका पब्लिशर्स एंड
डीस्ट्रीब्यूटर्सप्रा.लि., नई दिल्ली, 2008 पृष्ठ सं.- 100
[10]दूधनाथसिंहः
निष्कासन, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, पहली आवृति, 2012,पृष्ठ सं.- 42
[11]वही,
पृष्ठ सं.- 79
[12]वही,
पृष्ठ सं.- 72
[13]वही,
पृष्ठ सं.- 83
[14]वही,
पृष्ठ सं.- 120
[15]वही,
पृष्ठ सं.- 86
[16]वही,
पृष्ठ सं.- 80
[17]वही,
पृष्ठ सं.- 112
[18]वही,
पृष्ठ सं.- 98
अमित कुमार सिंह
शोधार्थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय
amitkrsingh261@gmail.com, 7003316850
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021, चित्रांकन : गूगल
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