कुछ कविताएँ : ओम नागर
[ तेरहमासा ]
(01)
चैत
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नायिका गाती-गुनगुनाती है-
"म्हारी हथेलियाँ रै बीच छाला पड़ग्या म्हारा मारुजी
पड़ग्या म्हारा मारुजी, म्हैं पालो कैंया काटूँजी"
चैती हवा से झटपटा रही पसीने से तरबतर लट
लूगड़ी के पल्लू से पोंछा है अभी-अभी ललाट
हँसिया से काटकर लगाई कतारबद्ध गेहूँ की ढेरियों से
पहली बार अपनी पलकें खोल झाँक रहा अन्न
कातिक में बोए थे जो चैत के मेले के सपने
खेतों में सलीके से काटे-जमाए जा रहे इन दिनों
कान के कोयो में भरा है अभी फागुनी रंग
धान काटती औरतें हँसती है नवान्न-सी हँसी
इन्हीं दिनों फ़िर से नवीन होता है साल
पंचभूतों में घुली हैं नवरात्र के मंत्रोच्चार की ध्वनियाँ
ईश्वर सुन लेता यूँ तो इन दिनों सारी प्रार्थनाएँ
चैत में चौमासा
कभी-कभी इन्हीं दिनों फिरता है उम्मीदों पर पानी
जैसा दिखता है वैसा हो जाता है ईश्वर
सचमुच का पत्थर।
(02)
बैसाख
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नायिका गाती-गुनगुनाती है-
"नीम्बड़ा री छाया ढोला खारी लागै
म्हारी बीजणी कै डांडी लगा रै ढोला
ये दन आग्या गरमी का...."
चैत का कसूना सूरज
आग का दरिया पार करके निकला है इन दिनों
आखा तीज़ के दिन साहूकार की दहलीज़ पर पड़े रहे
एक जोड़ी फ़टे जूतों में राह भर की तपन सहकर
अभी-अभी घर लौटे हैं किसानी पाँव
अच्छी उपज नहीं भी हुई इस बरस तो क्या
आखा तीज़ का निकला बेटी का सावा कैसे टाले भला
धरती की तपन को दरकार है विदाई के आँसूओं की
यूँ आँगन के नीम पर बँधा है परिंडा हर बरस
एक चिरैया दो घुटक जल पी सतोल रही हैं अपने पंख
बाबुल के घर से जो संस्कार के दबाए तिनके
इन्हीं से बुनने है सपने और एक सुंदर आशियाना
इन्हीं दिनों फ़ुरसतिया गाँव
घर के बाहर चबूतरी पर फैलाता है अपने थके पाँव
इन्हीं दिनों नयी कमीज़ पहनकर
समधी के यहाँ मेहमान होने निकल जाता बिन बिचारे
इन्हीं दिनों सारा पुण्य समा जाता है
प्याऊ पर प्यासों का हलक तर कराते रामझारों में
बैसाख के दिनों
निहारना अच्छा लगता तारों जड़ा आकाश
टूटते हुए तारे को देख कई बार बन्द की हैं पलकें
नायिका फिर गाती-गुनगुनाती है- "पिया आवौ तौ
मनड़ा री बात करल्यां
थांकी बातड़ल्यां मं आज़ पूरी रात करल्यां
पिया आवौ तो.....।"
(03)
जेठ
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नायिका गाती-गुनगुनाती है- "लप-लप करती लू चलै
गरमी बेसुमार, भँवरजी गरमी बेसुमार
कोमल होंठ होठड़ा सूक्या, तिसाया मरता जी जाय"
जेठ की दुपहर
सूरज के चूल्हे का बड़ा-सा रावां हुई यह धरती
जल के लिए जल रही निरन्तर भीतर-बाहर
नीम तले बिछी खाँट परछाई संग सरकती दिनभर
एक अकेला कंठ गटक जाता छाँगल भर पानी
डाबरों में सिमटा पड़ा हैं जितना भी जल
हैंडपम्प के थावले के आस-पास
हाँफते जिनावरों की साँसों से तरंगित है इन दिनों
गुलमोहर का आँचल छुड़ाएं नहीं छूटता क्या करें
गेहूँ के भूसे में गाड़कर रखी जो
चार केरियों के मुँह ही पीले पड़े है अभी
यूँ मुँह तो सभी के सिके रहते लू के थपेड़ों से इन दिनों
ऐसे में शहर से लौटा नवजवान अभी-अभी निकला है
चेहरे पर शीतल क्रीम लगा, अँगोछा बाँध, क़स्बे की ओर
प्यास है कि बुझती नहीं आठों पहर
जेठ का महीना प्यास की बेसब्री का महीना
आषाढ़ी-विरह की आग में झुलस रही है धरती।
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शब्दार्थ
: रावां- चूल्हे के बाहर का वह स्थान जिसमें राख़ निकाली जाती है।
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(04)
आषाढ़- एक
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नायिका गाती-गुनगुनाती है- "औरां नै संवरया जी हळ-कूळी
जेठजी म्हारा क्यूँ सूता जी खूँटी तांण
जेठजी म्हारा दोवड़ा बाओ नै ढूँढली(फ़सल) जी
कहो नै भाभीजी म्हारा जेठजी सूँ"
किसानी नायिका जानती है
कि कितनी ज़रूरी है जीवन में आषाढ़ की साध
इसी की धुरी पर घूमते हैं साल के शेष बचे दिन
"डाल से चूका बंदर, आषाढ़ में चूका किसान"
आषाढ़ की चूक का नहीं कोई निदान
इन दिनों आँखें टँगी रहती आकाश की खूँटी पर
हटवाड़े से लाई गई पाँच सेर शंकर ज्वार, पीली मक्का
पोटली बाँधकर धर दी गई पोल के आले में
दावा है सोयाबीन का सरकारी बीज उगेगा अच्छे से
पर सरकार के कहे पर भरोसा नहीं बनता
आकाश के भरोसे
बादल के भरोसे है आषाढ़
और आषाढ़ के भरोसे है जीवन।
आषाढ़- दो
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तुम आषाढ़
लाओ घन
जल से भरे
तुम आषाढ़
धरती करो शोभित
मैं लिखता हूँ
मिलन-गीत
तुम आषाढ़
बनो डाकिया
लाओ आकाशी प्रेमिल जल-चिट्ठियाँ
धरती को सुनाओ
कौरस, बूँद-बूँद
तुम आषाढ़
हँसाओ धरती को
हरियल हँसी
तुम आषाढ़
धरती जोतो
बीजों की तुम पाँखें खोलो
मानवता की फिर जय बोलो
तुम आषाढ़
बरसो
करो सावन की झरमर अगुवानी
फिर नायिका गाएगी उन्मुक्त-
"भँवर थांकी बादळी नै म्हारो
ल्हैरियों भजोयौ जी राज।”
आषाढ़- तीन
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गाँव में आषाढ़ के दिनों
घर के आँगन में खाँट पर लेटे हुए
देखा जो आसमां
बहरूपिया-सा स्वांग बदलता
कपास के ढेर-से उड़ते बादल
स्याह कभी कम तो कभी ज्यादा
सितारों-सी झिलमिलाती उम्मीदें दो-चार
धरती की कोख़ से फूँटेंगी कूँपल
इन्ही दिनों पूरा गाँव आठों पहर
मुट्ठियों में लिए रहता भविष्य के बीज
जिसका दिल अच्छे आषाढ़ से धड़कता हैं
गाँव के लिए पूरे साल का हासिल
अच्छा आषाढ़
दीवाली के दीयों में झिलमिलाता
अच्छा आषाढ़
होली के रंगों संग पकता हैं
अच्छा आषाढ़
आखातीज-से अबूझ सावे साधता
अच्छा आषाढ़।
(05)
सावन
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नायिका गाती-गुनगुनाती है- "सावण लाग्यौ भादवौ जी
कोई ओ तौ बरसण लाग्यौ मेह
मोरिया रै झट चौमासो लाग्यौ रै"
कोमल तान ऐसी
कि इंद्र राजा रीझकर ख़ूब बरसा रहे बदरा
पानी-पानी हुई धरती अब हो रही है हरी-हरी
धरती के हाथों में थमाकर आकाश की प्रेमिल चिट्ठियाँ
अभी-अभी रुकी है बारिश दो घड़ी
आषाढ़ के अंधड़ में जो बचे रहे साबुत
जामुन जो हरे थे अभी तक
सावन बरसा तो पककर खिरने लगे है ज़मीन पर
इन दिनों जामुनी हुआ जीभ का लाल रंग
"बैरी सावन सूखा न जाए"
नहीं तो क्या निपजै भला धरा की काली-भूरी मिट्टी में
आषाढ़ी-गरद से ढँका रुँखों का हरापन
दमक उठता है सावन के जमकर बरसने के बाद
बाग़ बचे नहीं तो झूले भी नहीं पड़ते दीखते बागों में
सावन बचा है झरमराता हुआ
थोड़ा सावन में बरसता है जो पानी बचा है
किसने उजाड़े नायिका के सपनों के बाग़
वो तो अभी-अभी गुनगुनाकर उठी है घर की मुंडेर से
"मेरे नैना सावन भादौ, फिर भी मेरा मन प्यासा।"
(06)
भादो
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नायिका गाती-गुनगुनाती है- "मोर बोलै रै
औ मलजी आबू रै पहाड़ा में, औ मलजी मोर बोलै रै"
बरखा से तरबतर साँझ ढ़लने को है
अभी-अभी थमा है भादो का झड़
चूल्हे का धुँआ घुसा जा रहा आकाश की आँख में
और अभी-अभी मीठी बानी में बोली जो दिन चढ़ी मोरनी
उड़कर जा बैठी पीपल के पेड़ से इमली के पेड़ पर
'वंश
भास्कर' के
रचयिता महाकवि- 'सूर्यमल्ल मीसण' को भी
बूँदी से दूर रहकर भी याद आए तो बूँदी के मोर
नायिका फिर गाती हैं- "देख्याई म्हारा बलमा,
बूँदी का दरवाजा पै मंड रही मोरड़ी"
बारिश, घनघोर
बारिश
स्याह आकाश के सीने में चलती बेतरतीब कटारें
घर की ओलातियों में नहीं समाता जल इन दिनों
रात की गिरेबाँ चाक करती झींगुरों की कर्कश आवाज़े
टप-टप टपकता छान
घर में नहीं दीखती फलाँग भर सूखी साबुत ठौर
"घन गरज़ा
घनन-घनन घन, घन
गरज़ा
भादो बरसा रे
घनन-घनन घन, घन
गरज़ा
झरमर-झरमर मेह बरसा, घन गरज़ा"
भाड़ वाले बुआजी के भाड़ से जो लाए चबीना चबाते
इतने में अचानक कानों में धम्म से पड़ती
दूर किसी के घर की धसक गई भींत की आवाज़
कभी-कभी सब कुछ ज़मीन पर भादो के दिनों
नदियों के दो किनारें मिलते है भादो में
पीला होने के लिए अधिक घेर-घुमेर हो रहा कनीर
पवन पुरवइयाँ चले धरती और आकाश के बीच
बरखा इन्हीं दिनों गाती हैं प्रेम गीत।
(07)
आसोज़
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नायिका गाती-गुनगुनाती है-
"तावड़ा मंदरौ पड़ जा रै, सूरज बादळ में छुप जा रै।"
न तावड़ा मन्दा पड़ता है
और ना ही बादल का कलेजा पसीजता है
यह दिन आसोज़ के ऐसे
कि हिरण भी पड़ जाते हैं काले
दिन भर खेत में मक्का, सोयाबीन काटकर लौटी
खुद को नरखती-परखती सारी गँवई शक़्लें, भुल्लकड़
खो चुकी होती है अपना असल रंग-रूप
दर्पण उदास रहता है इन दिनों
जरा-सा चूके और पसीने में पी लिया जो शीतल जल
तो घर से खाँसने की आवाज़ें चली आएँगी गरियाले तक
बुख़ार में तपते मिलेंगे कइयों के साँवले ललाट
सलोनी आँखों में भरी होगी उदास नींद
सूरज की आग का स्पर्श जुदा होता है इन दिनों
कभी-कभी तो जेठ-बैसाख से अधिक तल्ख़ लगती है
आसोज़ की धूप
इन दिनों तांबई हो जाती है भुट्टो की सफ़ेद रेशमी मूँछें
देह का क्या
जितना उठा सकते उठती हैं अपने दम
जितना चला सके चलती है धरती पर दो-चार कदम
न साँसों से नमी जाती है न हवा से
कभी-कभी तो महड़ चढ़े साँप-सी ख़ुमारी तोड़े न टूटे
आसोज़ के दिनों।
(08)
कातिक
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नायिका गाती-गुनगुनाती हैं- "माथा नै भंवरज लाऊँ रै,
रखड़ी रतन जड़ाऊँ, हर का कूँकड़ा रै
क्यों बोल्यौ रै गळती रात"
करवा चौथ के चाँद को अर्ध्य दे
आस्था-समर्पण की एक परीक्षा उत्तीर्ण की थी अभी
कि उगते सूरज के साथ शापित हुई अहल्या
छल की आवाज़ें नींद से अब भी जगा रहीं बेवक़्त
यूँ कातिक स्नान करती कुँवारी कन्याओं को
एक माह तक अलसुबह कूँकड़े की पहली बाँग सुनकर
पार करनी होती घर की देहरी
अँधेरा छँटने से पूर्व जलाशयों में करना होता स्नान
और ठाकुरजी के मंदिर से चरणामृत लेकर लौटती घर
इनकी प्रार्थनाओं में अच्छे वर की माँग कम रही ईश्वर से
इनके कोमल ज़ेहनों में तो पूरे माह भरते हैं कातिक के मेले
सहेलियों संग मेले की फ़ेरी, झूलों में बैठ आकाश नापना
क्या चम्बल, परवन, काली सिंध और क्या चन्द्रभागा
इन दिनों इनके अंतस में बहती है सब पुण्यदायिनी नदियाँ
अब तो बस कहने को कातिक बचा है
स्याह अँधेरा सूरज उगने तक बना रहता गरियाले में
न कूँकड़ा देता है अलसुबह पहली बाँग
अलार्म की भी हज़ार ध्वनियाँ हैं
जो मन चाहे चुनों नींद में एक अदद ख़लल के लिए
काश! ईश्वर अब के कातिक सुन ले यह सारी प्रार्थनाएँ-
"कुँवारी कन्या को मिल जाए अपनी पसंद का वर"
"जिसको बेटे की इच्छा है उसे हो बेटी से अनुराग"
"बैकुंठ में किसको जाना-रहना हैं
वहाँ कितनी जगह रिक्त है कितनी भरी
तुम्हारी माया तुम ही जानो मेरे प्यारे प्रभु"
हमने तो कुछ किया हो या न किया हो प्रभु अच्छा-बुरा
बस! हर दीवाली, पाड़ौसी की देहरी पर रखा एक दीप।
(09)
अगहन
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नायिका गाती-गुनगुनाती है- "म्हनै आलिजौ चितारै,
म्हनै बादीलौ चितारै, बैरण आवै हिचकी"
अभी-अभी तो उठे है देव
सावा सदे दिन चार हुए कि आने लगी है हिचकी उसे
पिया परदेश और यह नरम होता धूप का बिस्तर
खेत की मेड़ से ओस की बूँदों को हथेली पर रखती
कि चली आती बैरण हिचकी
अगहन कब से बेचारा
मौसम की संधि बेला में हिचकियों का हलक कर रहा तर
आगामी पूस-माघ का भरोसा बँधा भागता है सरपट
खेत हो रहे फिर से हरे-भरे
सूखे क्यारों में भरा है धोरे का शीतल जल
बगुला की चोंच पर लाल रक्त के निशान बचे है अभी
फ़सल जो मुट्ठी दो मुट्ठी कद की हुई अगहन तक
आखातीज पर थोड़ा-सा ख़ुश होने का भरोसा इसी से
इन्हीं दिनों अन्न धरती में गहरे रौंपता अपनी नन्हीं जड़ें
इन्हीं दिनों फटी चादर की तुरपाई में लगी रहती औरतें
इन्हीं दिनों देह में अचानक हो जाती मीठी-सी सिहरन
इन्हीं दिनों जल्द-से गुज़र जाने की प्रार्थनाओं के बीच
मंद आँच में उगता-ढ़लता है सूरज।
(10)
पूस
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नायिका गाती-गुनगुनाती हैं- उड़ उड़ रै म्हारा काळा रै कागला
कदै म्हारा पीवजी घर आवै
कदै म्हारा पीवजी घर आवै
खीर खाण्ड रा जीमण जिमाऊँ थंनै
सोने में चाँच मंडाऊँ कागा
जद म्हारा पीवजी घर आवै"
पूस के दिनों घर की देहरी पर पलक पाँवड़े बिछा बैठी
नायिका की आँखों में पल रहें सपनों को
कौन कवि है जो बना सकता कविता की शब्द समिधा
पूस की इन रातों में
खेत की मिट्टी में धँसकर पाणत करते ठिठुरी जो
हाथों-पैरों की अंगुलियाँ पूरी जा रहीं अलाव में
किसी किसान के सपनों पर पाला पड़ा है अभी-अभी
हाकम भरी दुपहर आया जायजा लेने काँपता हुआ
स्याही जमी थी कलम की, दफ़्तर जाकर लिखा
जो भी लिखना था मन-मुताबिक
इन दिनों शिशु-सी धूप को दादी आँगन में चलना सिखाती
गाँव देता है इन दिनों किशोरी आग को खूब आशीष
अलाव से उछटी चिंगारियों से कइयों की धोतियाँ
इन्हीं दिनों जलती रहीं गाँव में
सुबह-शाम पूस की धुंध और कोहरे से ढकी-दुबकी
जिस मेड़ से गुजरा इन दिनों
ओस से भीगी मनुहारे भिज़ो गई पेंट की मुहरी
नज़र की चौहद्दी तक सब ओर हरे हो रहे खेत
ईश्वर करे इस बार किसी के सपनों पर न पड़े पाला।
(11)
माघ
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नायिका गाती-गुनगुनाती है-
"साजन साजन म्हैं करूँ अर साजन जीव जड़ी
साजन लिख दूँ चूड़लै अर बाँचू घड़ी-घड़ी
केसरिया बालम आवौ नी पधारो म्हारै देस"
माघ के मौसम में
माँड के मांडणे मांडती नायिका के कंठ से निसरे
विरह-बोल सुन अलसुबह भर आई सूरज की आँख
पत्तों-फुनगियों पर लड़ीबद्ध टँगी हैं
ओस के मोतियों की जलमाल
खेत पर मुँह लटकाए उदास मिला हरा धनिया
यौवन की देहरी पर गदरायी खड़ी सरसों का तन भारी
आकार लेने लगी गेहूँ की बालियाँ
मटर की फलियों में पड़े दाने गिनने है थारै संग
तुम्हारी पोरों से गिनी मेरे दाँतों की गिनती याद है मुझे
सिगरी की खजलती आग को
रोज जो फूँके मारती रही हूँ वह भी ताती-ताती
पर आग से आग कब बुझी है
और मेरे हिस्से में जितना भी लिखा है नेह-जल
वो तो तुम्हारे पास है
माघ की संणाती बाण-सी चलती तीखी बयार
साँझ को किस तरह कलेजा चीरती तुम क्या जानो
तुम्हारी बाट जोहते-जोहते अभी-अभी बन्द किया है घर का दरवाज़ा
लेकिन हृदय के पावन पट खुले है आठों पहर
नायिका फ़िर गाती है-
"उमराव थारी बोली प्यारी लागै म्हारा राज
उमराव जी औ उमराव जी......।"
(12)
फागुन
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नायिका गाती-गुनगुनाती हैं- "रसिया फागण आयौ
चार खूँट रौ चौन्तरों हो रसिया, जीं पै कातू सूत
तौ सासू माँगे कूंकड़ी तौ साजन माँगे रूप"
फागुन के मौसम में घुली है भाँग
गरियाले से आवाज़ दे रहे रंग
और सासू है कि कूंकड़ी बनवाने की ज़िद में
छोड़ने ही नहीं देती आँगन
यूँ तो मौसम के सारे रंग गहरे उघड़े हैं
धरा के भाल पर
लेकिन हर रंग पर अधिक पड़ी है लाल रंग की छाया
इन दिनों
आधी रात को होली के खूँट से
खेतों की ओर कूच करती छोरा-पलटन की भाषा ने
फोड़े हैं पहले-पहल किशोरी नायिका के कान
जल रही है होलिका
सिंक रही हैं गेंहूँ की हरी बालियाँ
अक्ल की दाढ़ में जो उठा था दर्द जाता रहा
होली के दिन घर की देहरी पर खड़ी है
अपनी नाज़ुक मुट्ठी में भरकर गुलाल
आज़ किसी भी रंग की कमीज़ पहनकर निकले वो!
होगा वही पूरे गाँव में एक अकेला बड़भागी
जिसे रंगना है उसे अपने ही रंग में।
(13)
अधिक मास
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नायिका गाती-गुनगुनाती हैं-
"बाईसा रा बीरा जैपुर जाज्यौ सा
बठां सूं लाइज्यौ तारां री चूंदड़ी।"
बारहों महीने नहीं मिला जब वक़्त
पिया को जयपुर हो आने का भी
तो अधिक मास में कौन रोके भला गौरी के पीव को
तारों जड़ी चूनर लाने से
जो बीज़ रह गए आषाढ़ के दिनों
धरती की कोख में डलना
अबके दो आषाढ़ चले आएँ हैं समय की गति तोड़
अब अधिक मास में खोलेंगे बीज़ अपनी पाँखें
पिया जो भादौ में आएँ न कातिक में रहा कोई
मिलन का उजास
रंग जो फागुन का बचाया गया
उसे अधिक मास में रंगना है जी भरकर
सावन की बूँदें हथेली पर नाचती रहीं जो
उन्हें जिस भी राहगीर पर उलीचना है उलीच देना
अधिक मास में
इच्छाएँ जो वक़्त की गरद से ढ़की रहीं बारहों महीने
सपने जो आँख खुलने भर-से टूटते रहें सदा
अपनी नाज़ुक हथेलियों से हटा जाओ दर्पण पर जमा धूल
अधिक मास में कोई ख़्वाइश नहीं रहे अधूरी तुम्हारी
प्रभु! तुम भी चले आओ
भादो-अष्टमी पर न हो सके अवतरित तो क्या
अधिक मास के किसी दिन भी चले आओ धरा पर
धरा का भार थोड़ा तो कम होगा ही अधिक मास में
बारहों महीनों में छूट गया जो
थोड़ा-सा हँसना
सघन दुःख में, सुख में भी बचा रह गया जो
जी भरकर रोना
एक पहर तक न निहार सके जो
दर्पण में अपना ही अक्स
अधिक मास में काँच-सा कंच्चान हो जाएँ मेरे प्रभु!
सभी नदियों का जल
कुछ अधूरी रह गई जो दमित इच्छाएँ
कुछ सपनों ने वक़्त से पहले खोल ली पलकें
अधिक मास में पूरी हो सब की सारी इच्छाएँ
और तुम्हारे पूरे हुए सपनों की गठरी काँधे पर धर निकले
अबकि बार अपने घर से नया साल।
20 नवंबर, 1980 को ग्राम- अंताना, तहसील- अटरू, जिला- बारां, राजस्थान में जन्म। साहित्य अकादमी के युवा एवं भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित। हिंदी एवं राजस्थानी व अनुवाद की बारह पुस्तकें प्रकाशित। हिंदी कविता संग्रह ‘विज्ञप्ति भर बारिश’, ‘तुरपाई’, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित कथेतर गद्य (डायरी) ‘निब के चीरे से’ और राजस्थानी डायरी "हाट" और राजस्थानी कविता- संग्रह "बापू : एक कवि की चितार" खासतौर पर चर्चित। dr.opnagar80@gmail.com, 9460677638
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