शोध आलेख : वैश्वीकरण के दौर में राजनीति और मीडिया की भूमिका
मीना चरांदा
‘भूमंडलीकरण’ के वर्तमान इतिहास को विश्व स्तर पर तीन चरणों में बाँटा जा सकता है सन् 1700 से 1914 तक प्रथम चरण, सन् 1914 से 1960 तक द्वितीय चरण तथा तीसरा 1960 से अब तक का वर्तमान। इस दौरान भूमंलीकरण का प्रथम चरण अंतरराष्ट्रीयकरण का दौर कहा जा सकता है, जिसमें सभ्यताएँ और देश भिन्न-भिन्न कारणों से एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। व्यापारिक रास्तों की खोजे होती है। धर्म प्रचार के साथ व्यापारिक और राजनीतिक सक्रियता बढ़ती है। 15वीं सदी में ‘केप ऑफ़ गुड होम’ से होकर यूरोप से एशिया के रास्ते की खोज मानव सभ्यता के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। यूरोप और एशिया के इस समुद्री रास्ते की खोज के पीछे सभ्यता और धार्मिक प्रेरणा कार्य कर रही थी। इस खोज ने तुरंत व्यापार और वाणिज्य के लिए भी प्रेरित किया।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो. फ्रेड ब्लॉक बिलकुल सही लगते हैं जब कहते हैं कि ''12वीं शताब्दी के अमरीका में भूमण्डलीय समाज के सामने उपस्थित दुविधाओं और समस्याओं को समझना 1944 में छपी पोलानी की पुस्तक ‘द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन: द पोलिटिकल एंड इकोनोमिक्स ओरिजंस ऑफ़ ओवर टाइम’ को ध्यान पूर्वक पढ़े बिना संभव नहीं है। पोलानी की कृति बाजार आधारित उदारवाद की अनुपम मीमांसा है। वह बहुप्रचलित धारणा को धाराशायी करती है कि राष्ट्र, समाज और भूमंडलीकरण अर्थव्यवस्था की संरचना स्वनिर्मित बाजारों के जरिए ही संभव है। 1980 विशेषकर शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के पतन के बाद बाजार, आधारित, ‘उदारवाद’ ‘थैचरवाद’, ‘रगिनवाद’, ‘नव उदारवाद’ और ‘वाशिंगटन’ आम राय के विभिन्न नामों से प्रचलित है। वह भूमंडलीय राजनीति पर पूरी तरह हावी है।’’1 औद्योगिक क्रांति के तुरंत बाद एडम स्मिथ ने अपनी यह स्थापना रखी कि अगर राज्य अपने को केवल तीन कार्यों (विदेशी शत्रुओं से देश का बचाव, आंतरिक कानून और व्यवस्था बनाए रखना तथा सड़क, अस्पताल, स्कूल आदि सेवाओं को प्रदान करना जिनका उपयोग सब करते हैं, अगर कोई एक व्यक्ति उन्हें प्रदान नहीं कर सकता) तक ही सीमित रखे तथा उन्हीं के लिए करो के जरिए संसाधन जुटाए, तो अर्थव्यवस्था के संचालन और विनियन का शेष कार्य बाजार की शक्तियाँ सुचारू रूप से चलाएँगी। उन्होंने रेखांकित किया कि श्रमिकों, तैयार या कच्चे माल के उत्पादकों, दुकानदारों या फिर उपभोक्ताओं का कोई भी संगठन बना तो बाजार की शक्तियों के कार्य में व्यवधान पड़ेगा।
पारिभाषिक तौर पर वैश्वीकरण’ का अर्थ है, स्थानीय वस्तुओं या घटनाओं का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रूपान्तरण। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें माना जाता है कि पूरे विश्व के लोग एक साथ मिलकर कार्य करते हैं और चर्चा करते हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं का अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में एकीकरण हो जाता है। चॉमस्की का तर्क है कि सैद्धांतिक रूप में वैश्वीकरण शब्द का उपयोग आर्थिक वैश्वीकरण के नव उदारवादी रूप का वर्णन करने में किया जाता है। ऐसे में भूमंडलीकरण का अर्थ हुआ, किसी देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत करना। भारतीय संदर्भ में भी इसका अर्थ यही होगा कि- विदेशी कम्पनियों को भारत की विभिन्न गतिविधियों में निवेश करने की अनुमति देकर अर्थ-व्यवस्था को विदेशी निवेश के लिए खोल देना। जिसे निजीकरण के नाम से हम सभी जानते हैंl अतः विश्व व्यापार को प्रेरित करने के लिए ऐसे नियमों, सिद्धांतों और संस्थाओं की रचना की जाती है जिनका चरित्र सार्वभौमिक होता है। अतः भूमंडलीकरण का सीधा अर्थ हुआ, विश्व बाजारवाद के आर्थिक नियम और सिद्धांत वैश्विक स्तर पर आरोपित और स्थापित करना।
प्रभाष जोशी भूमंडलीकरण को निजीकरण व उदारीकरण को बढ़ाने वाली प्रवृत्ति के रूप में देखते हैं, उनके अनुसार- ''भूमंडलीकरण की प्रक्रिया अनिवार्य और प्राथमिक रूप से आर्थिक प्रक्रिया है। हमने वे बंधन, मर्यादाएँ और सीमाएँ छोडी, जो हमारी अर्थव्यवस्था को अपना ही बनाए हुए थी, तो इसे उदारीकरण कहा गया और देश के जो उद्योग व्यापार सरकार के नियंत्रण में थे, उनकी मिल्कियत उद्योगपतियों और व्यापारियों को दे दी गई तो वह निजीकरण कहलाया।''2
वैश्वीकरण और राजनीति -
अधिक राष्ट्रों के रूप में, लोग और संस्कृतियों बदलते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय, राजनयिकों, राजनेताओं और प्रतिनिधियों के अनुकूल है और राष्ट्रों की जरूरतों और इच्छाओं के अनुसार उनसे मिलना चाहिए। कूटनीति को कई रूपों में उकेरा जा सकता है। शांति वार्ता, लिखित गठन, क्षेत्र के अनुभव आदि के माध्यम से संस्कृति एक परिचित शब्द है और परिभाषा से अपरिवर्तित रहता है। हालांकि वैश्वीकरण और अंतरराष्ट्रीय संबंधों ने संस्कृति को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में परिवर्तित कर दिया है। वैश्वीकरण से दुनिया भर में प्रौद्योगिकी बढ़ती है और लोकप्रिय उत्पादों के तेज, प्रभावी संचार और खत की पठनीयता होती है। वैश्वीकरण विभिन्न स्तरों पर संस्कृतियों और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को जोड़ता है, अर्थशास्त्र, राजनीतिक, सामाजिक आदि। अंतरराष्ट्रीय संबंधों ने अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए वैश्वीकरण का उपयोग किया है। संस्कृतियों को समझना एक कला है। अंतरराष्ट्रीय संबंध इस बात पर ध्यान निर्भर करते हैं कि कैसे देश, लोग और संगठन बातचीत करते हैं और वैश्वीकरण, अन्तरराष्ट्रीय संबंधों पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। भौगोलिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सीमाओं को हटाकर वैश्वीकरण, और समय एवं स्थान के पास से भी, व्यक्तियों, राष्ट्रों, राज्यों और यहाँ तक कि समाजों के सामाजिक-राजनीतिक ढांचे के दृष्टिकोण, व्यवहार और कार्यवाही को बदल दिया है। राजनीति के दायरे में वैश्वीकरण ने कई विकास पैदा किए है। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
वैश्वीकरण और लोकतंत्र आर्थिक विकास के प्रभाव में एक नए प्रतिमान के रूप में वैश्वीकरण की घटना ने आधी सदी के अतीत से उत्कृष्ट मानव समाजों को बदल दिया है। देर के दशकों में, वैज्ञानिक और अकादमिक समाज, विशेष रूप से राजनीतिक विज्ञान और कुछ अन्य मामले जैसे राजनीतिक प्रणाली, राज्य और लोकतंत्र, वैश्वीकरण द्वारा वैचारिक पुनर्परिभाषित किए गए हैं। लोकतंत्र और भूमंडलीकरण के विषय को लेकर कुछ प्रश्न भी है जैसेः वैश्वीकरण ने लोकतंत्र के किस रूप को प्रभावित किया? क्या लोकतंत्र एक शासन पद्धति के रूप में दौर या लोकतंत्र की विचारधारा या उसकी राजनीतिक संस्कृति वैश्वीकरण से प्रभावित थी?
प्रयत्क्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी के अनुसार, ''यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष या सहभागी लोकतंत्र को सीमित करता है। और अर्थव्यवस्था की समानता और समरसता के अनुसार, उदार और सामाजिक लोकतंत्र है और सामाजिक लोकतंत्र औद्योगिक और कॉर्पोरेट लोकतंत्र के लिए है''2 और अलग-अलग भौगोलिक दायरे और कई धर्मों और नस्लों के समूहों के अनुसार, अप्रत्यक्ष लोकतंत्र वर्तमान लोकतंत्र और बहुराष्ट्रीय एवं साहचर्य लोकतंत्र के लिए अक्षम है।''3
लोकतंत्र की कुछ विशेषताएँ -
· मुक्त चुनावः इसका अर्थ है कि हर एक समूह को सत्ता तक पहुँचने का मौका मिल सकता हैं, यह राजनीतिक प्रणालियों में लोकतंत्र के मूल्यांकन का एक मुख्य सूचकांक है। ''राजनीतिक कार्यों में पार्टियों, राजनीतिक समूहों, सामाजिक दलों की स्वतंत्रता। 'जोसेफ शम्पेटर' का मानना है की यह सूचकांक लोकतांत्रिक निर्णय लेने के लिए आवश्यक है।''4
· ''संविधान का संहिताकरण और उसका सम्मान करना, वास्तव में संविधान की उपस्थिति और लोकतंत्र की गारंटी देता है।''5· शक्तियों का पृथकीकरण और निगरानी। उदारवादी निर्णय लेने की शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। अभ्यावेदन को आंतरिक और बाहरी खतरे एवं प्रभावों के बिना उदारतापूर्वक निर्णय लेने वाला होना चाहिए। सभी नागरिकों के लिए राजनीतिक और सामाजिक अवसर समान होने चाहिए।
राजनीतिक व्यवस्था और लोकतंत्रीकरण प्रक्रिया की संरचनाओं पर भूमंडलीकरण के प्रभावी होने के बारे में कई तरह के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। भूमंडलीकरण और लोकतंत्र के कारण जटिल, तरल और सार्वभौमिक अवधारणाएं हैं। कुछ विचारशील यह तर्क देते हैं कि ''भूमंडलीकरण विस्फोट करता है और राष्ट्रीय एवं सुपरनेशनल स्तर पर लोकतंत्र की माप की पुष्टि करता है।''6 लेकिन कुछ लोगों का यह कहना है कि भूमंडलीकरण लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया के लिए गंभीर चुनौती है। कुछ विद्वानों का मानना यह भी है कि यह नकारातमक और सकारात्मक प्रभाव हर देश की परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग है और उस देश की स्थिति पर निर्भर करता है।
लोकतंत्र पर वैश्वीकरण का प्रभाव विशेष दायरे तक सीमित नहीं है। कुछ ऐसी
विचारशील मान्यताएँ हैं जो, लोकतंत्र के सभी आधारों पर भूमंडलीकरण को प्रभावित करती हैं जैसे
·
अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता
·
विश्वास
और धर्म की स्वतंत्रता
·
नागरिक
समुदाय
·
नागरिक
अधिकार
·
राज्य
गतिविधि की परिसीमा
·
राज्यपालों
की वैधता
·
प्रेस
की स्वतंत्रता आदि।
हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र पर भूमंडलीकरण के प्रभावी होने के कुछ तरीके हैं।
जैसे-
·
लोकतंत्र
की अवधारणा का विकास : लोकतंत्र, भूमंडलीकरण के प्रभाव में, अपनी पारस्परिक अवधारणा के सापेक्ष अधिक बदल गया है। ऐसा
कहा जा सकता है कि ''अपनी नई
अवधारणा में लोकतंत्र केवल भागीदारी प्रक्रिया, चुनाव, प्रतिनिधित्व, निम्न का शासन और राजनीतिक और शहरी स्वतंत्रता नहीं है
लेकिन लोकतंत्र को इस रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए। समाजों में नागरिक
संस्थानों के गठन और भूमंडलीय संस्कृति पर इसका समायोजन।''7
·
मध्य
वर्ग की वृद्धि : ''शहरी संस्थानों, दलों, राष्ट्रीय और सुपरनेचुरल समूहों तथा आंदोलनों की वृद्धि के
द्वारा वैश्वीकरण में वृद्धि हुई और मध्य वर्ग का विकास हुआ। मध्य वर्ग की वृद्धि, विभिन्न और विशाल मांगों को सफेद करना, लोकतंत्र का एक सामाजिक संदर्भ है। अन्यथा
यह लोकतंत्र के गैर-विकास पर हस्ताक्षर करता है।''8
वैश्वीकरण राज्य की
संप्रभुता की कार्यशैली को कैसे प्रभावित करता है अर्थात् किसी भी देश की सत्ता
अपने यहाँ किस तरह का विकास करना चाहती है, उसकी भी दिशा कुछ हद तक वैश्वीकरण ही तय करता है। उसके पीछे
लाभ-हानि जैसे कई कारण हैं, इसका एक उदाहरण प्रस्तुत है- ‘‘सबसे सीधा-सरल विचार यह है कि वैश्वीकरण के कारण राज्य की
क्षमता यानी सरकरों को जो करना है उसे करने की ताकत में कमी आती है। पूरी दुनिया
में कल्याणकारी राज्य की धारणा अब पुरानी पड़ गयी है और इसकी जगह न्यूनतम
हस्तक्षेपकारी राज्य ने ले ली है। राज्य अब कुछेक मुख्य कामों तक ही अपने को सीमित
रखता है,
जैसे कानून और व्यवस्था को बनाये रखना तथा अपने नागरिकों की
सुरक्षा करना।’’9
90के दशक तक सरकारें कल्याणकारी राज्य की नीतियों पर स्वयं अमल करती थीं। वैश्वीकरण ने राज्य के प्रत्येक क्रिया-कलाप में अपनी भागीदारी शुरू कर दी, जिससे सरकारों के फैसले पर इसका प्रभाव दिखने लगा। परिणामस्वरूप पर्यावरण, स्वास्थ्य जैसी नीतियों पर वैश्विक सम्मेलन होने लगे। आतंकवाद को भी वैश्विक संकट के तौर पर पेश किया, जिससे पूरा विश्व इन समस्याओं पर मिलकर विचार करता है। अपनी बातों को रखने के लिएवैश्वीकरण एक मिश्रित एवं स्वतंत्र मंच है ‘‘राज्य ने अपने को पहले के कई ऐसे लोक-कल्याणकारी कामों से खींच लिया है जिनका लक्ष्य आर्थिक और सामाजिक-कल्याण होता था। लोक कल्याणकारी राज्य की जगह अब बाजार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का प्रमुख निर्धारक है। पूरे विश्व में बहुराष्ट्रीय निगम अपने पैर पसार चुके हैं और उनकी भूमिका बढ़ी है। इससे सरकारों के अपने दम पर फैसला करने की क्षमता में कमी आती है। इसी के साथ एक बात और भी है। वैश्वीकरण से हमेशा राज्य की ताकत में कमी आती हो- ऐसी बात नहीं। राजनीतिक समुदाय के आधार के रूप में राज्य की प्रधानता को कोई चुनौती नहीं मिली है और राज्य इस अर्थ में आज भी प्रमुख है। विश्व की राजनीति में अब भी विभिन्न देशों के बीच मौजूद पुरानी ईष्या और प्रतिद्वंद्विता की दखल है। राज्य कानून और व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अपने अनिवार्य कार्यों को पूरा कर रहे हैं।’’10 इसलिए अपनी उच्च प्रभाव शक्ति के साथ भूमंडलीकरण ने संस्कृति को भी पूरी तरह से प्रभावित किया है और राजनीति में व्यक्तिगत और राज्यों के दायरे तय किए हैं। भूमंडलीकरण ने नए राजनीतिक और सांस्कृतिक कलाकारों का निर्माण भी किया है। राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्कोप अब दुनिया में दिखाई दिए हैं। भूमंडलीकरण का मानव समाज पर सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इसकी सरल कल्पना नहीं करनी चाहिए।
वैश्वीकरण और मीडिया
मीडिया ने हमें सनसनीखेज
सुर्खियों का आदि बना दिया है। इतिहास, कला, संस्कृति, राजनीति, घटना आदि सभी क्षेत्रों में सनसनीखेज तत्व हावी हैं।
सनसनीखेज सुर्खियाँ जनता के दिमाग पर निरंतर बमबारी कर रही हैं। इस हमले में
ज्यादा-से-ज्यादा सूचनाएँ होती है, किन्तु इन सूचनाओं की व्याख्या करने और आत्मसात् करने की जरूरत में
लगातार गिरावट आ रही हैं। आज मीडिया जनता को संप्रेषित की नहीं कर रहा, बल्कि
भ्रमित भी कर रहा है। यह कार्य वह अप्रासंगिक बनाकर पुनरावृत्ति और शोर के साथ कर
रहा है। बराबर मीडिया से ‘क्लिचे’ सुन
रहे है। इस सबके कारण जहाँ मीडिया संप्रेषित कर रहा है। खास तौर पर टेलीविजन कम-से-कम
सूचना संप्रेषित कर रहा है। स्मृति और घटना के इतिहास से इसका संबंध पूरी तरह टूट
चुका है। यह ग्लोबल मीडिया का सामान्य फिनोमिना है। ग्लोबलाइजेशन को प्रभावी बनाने
में परिवहन, संचार
और साइबरस्पेस की आधुनिक तकनीकों की केन्द्रीय भूमिका रही है। इसके अलावा पर्यटन
का तेजी से विकास हुआ है।
विदेशी चैनल्स
: भूमंडलीकरण के दौर में जनसंचार माध्यमों का विकास दिन-ब-दिन सशक्त होता जा रहा
है। आज हमारे देश में अधिक-से-अधिक चैनल दिखाने की होड़ लगी हुई है। केबल सैंकड़ों
की संख्या में चैनल प्रसारित कर रहा है जिसमें आधे से अधिक चैनल्स विदेशी चैनल्स
है।
इंटरनेट : इंटरनेट
सूचनाओं का मायाजाल है। घर बैठे कम्प्यूटर पर हम किसी भी तरह की जानकारी प्राप्त
कर सकते हैं। सदियों पहले घटी घटना की खोज कर सकते हैं, वर्तमान की सभी सूचनाओं को प्राप्त कर सकते हैं, भविष्य-फल
जान सकते हैं।
दैनिक समाचार पत्र : विश्व में दैनिक समाचार पत्रों की संख्या लाख के करीब
पहुँच चुकी है। भूमंडलीकरण के कारण एक देश का समाचार-पत्र
अपने देश के अलावा पड़ोसी देश तथा विश्व के दूसरे कोने तक पहुँच जाता है। रेल और
हवाई जहाज के माध्यम से नहीं अपितु इन्टरनेट के माध्यम से ही समाचार-पत्र और
पत्रिकाओं को विश्व के किसी भी कोने तक पहुंचना आज संभव हो गया है।
मीडिया और सामान्य
जनमानस में जो अविश्वास की कड़ी पैदा हुई है, उससे यही प्रतीत होता है कि मीडिया ने अपनी भूमिका निभाना
कम कर दिया है। मीडिया की छवि धुंधली होने पर सबसे ज्यादा असर वहाँ के जनमानस पर
पड़ता है- ‘‘आज
स्वयं अमेरिका में सूचना क्रांति की मदद से जिस तरह भूमंडलीकरण पूँजीवाद और
संस्कृति का विश्व भर में निर्यात किया जा रहा है, उसके प्रति नकारात्मक रूझान पनपने लगे हैं। एक प्रभावशाली
तबका अमेरिका में लोकतंत्र के हास और धनिक तंत्र के हावी होने पर चिंता व्यक्त कर
रहा है और इसे आर्थिक तानाशाही करार दे रहा है।’’11
बहुराष्ट्रीय
मीडिया कम्पनियाँ अपने कार्यक्रमों का निर्धारण विज्ञापन को ध्यान में रखकर करती
हैं। विज्ञापन के जरिये ही ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादों के लिए ग्राहक
जुटा पाती हैं। विज्ञापन उद्योग एक तरह का कमाऊ पूत है, इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए। घरेलू उत्पाद के दम
तोड़ने का एक प्रमुख कारण यह विज्ञापन उ़द्योग भी हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया को
गति प्रदान करने में मीडिया की भूमिका प्रमुख है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विज्ञापन
और मीडिया का सहारा लेकर ही शक्तिशाली बन रही है। संचार क्रांति के दौर में भी कुछ
ही देशों की कम्पनियों का वर्चस्व बढ़ा है। इस तरह से देखें तो सूचनाओं का एक विशाल
भण्डार तैयार होता नजर आ रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यहाँ भी अपना आधिपत्य
बनाये रखना चाहती है, इसका ‘‘अनुमान
इस बात से लगाया जा सकता है कि उपग्रहों से जितनी भी जानकारियों का आदान-प्रदान
होता है उसका 90
प्रतिशत हिस्सा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खाते में जाता है। विश्व में 50 प्रतिशत सूचना और आंकड़ों का प्रवाह विभिन्न बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों का होता है। सूचना उद्योग पर चंद महाशक्तियों ने अपना नियंत्रण कर लिया
है।’’12
आज मीडिया सूचना और
मनोरंजन को समावेशी बनाकर इनका अपने हिसाब से प्रयोग कर रहा है। समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं के व्यापारीकरण ने पत्रकारिता के सिद्धांतों को
धुंधला कर दिया है। आज मीडिया बाजार को ध्यान में रखकर अपना काम करती है।
वैश्वीकरण ने मीडिया को तोड़ने-मरोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है- ‘‘अनेक ऐसी घटनाएँ होती हैं जिनमें किसी एक वर्ग की रूचि नहीं
होती लेकिन मीडिया उन्हें ग्लैमराइज करके एक और खास तरह की कवरेज
देकर रूचि पैदा करता है। आज मीडिया हर घटना में ग्लैमर की तलाश करता है। बलात्कार, हत्या, हिंसा और दुर्घटनाओं जैसी अंदर तक झकझोर देने वाली घटनाएँ
भी वह ग्लैमर के साथ प्रस्तुत करता है। वास्तव में इनके पीछे व्यापारिक हित ही
छिपे होते हैं।’’13
भारत कभी गाँवों में बसता
था, आज शहरीकरण का पर्याय बन उपभोक्तावादी समाज में परिवर्तित हो रहा है। अब गाँव
नगर में और नगर महानगरों में परिवर्तित हो रहे हैं। जिनमें बड़ी-बड़ी बहुमंजिला इमारत, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, मल्टीप्लेक्स, मंहगी शराब, महंगी गाड़िया इत्यादि की वर्चस्वी उपस्थिति आज दृश्य की तरह
देखने को मिलती है। किसान व मजदूर वर्ग पर अत्यधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। बड़े
किसान तो कैसे न कैसे करके अपना जीवनयापन कर लेते हैं, परन्तु छोटे किसान, जो बड़े किसानों की जमीन पर खेती के कार्यों
में मदद करते थे, अब वैश्वीकरण के कारण नष्ट ही हो रहे हैं, क्योंकि ‘छोटे किसानों की जगह मशीनों ने ले ली है। जिससे छोटे
किसानों के रोजगार पर बड़ी मार पड़ी है। भारतीय संयुक्त परिवार की संस्था भी टूटने
लगी है। एकल परिवार प्रणाली और उससे भी बढ़कर (सिंगल) यानि एकल प्रणाली महानगरों
में जोर पकड़ने लगी है।
उपभोक्तावादी संस्कृति में सब कुछ भोग लेने की प्रवृत्ति ने स्त्री देह को भी नहीं छोड़ा है। समाज के आरम्भ से ही स्त्री को मात्र भोग्या माना गया है। मीडिया और विज्ञापनों ने स्त्री देह को सिर्फ उपभोग की वस्तु माना है। पैसे का लालच देकर, रोजगार के नाम पर स्त्रियों के साथ बलात्कार जैसे कुकर्म दिनों-दिन बढ़ते जा रहे है। निःसंदेह वह दिन दूर नहीं, जब यह समाज एक दिन अंधी खाई में गिरेगा। जहाँ विश्व में एक ओर अरबपतियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी और भूखे और बेरोजगार लोगों की संख्या भी बहुत बड़ी तेजी से बढ़ी है। वैश्वीकरण के इस दौर में सब कुछ तेजी से बदल रहा है। सब कुछ फास्ट हो रहा है। फास्ट फूड, फास्ट म्यूजिक, फास्ट पैकिंग आदि। वैश्वीकरण के इस दौर में समाज के पिछड़ा एवं दलित वर्ग का शोषण भी निरंतर बढ़ता जा रहा है। लोग बदल रहे हैं परन्तु सोच आज भी वहीं-की-वहीं है। छुआछूत जैसे समाज में हाशिए के वर्ग को उठने नहीं दिया जा रहा, माना कि क़ानूनी रूप में इस समस्या पर निगरानी है, परन्तु शोषण आज भी खत्म नहीं हुआ है, बल्कि कहा तो ये जा सकता है कि हरेक तरह के सामाजिक और आर्थिक शोषण में इस वैश्वीकरण के दौर में वृद्धि ही हुई है।
सन्दर्भ ग्रंथ:
1. Sinaei. Vahid, "Cultural Pluralism in Globalization Age",
Olome Ejtemaei, No: 25, 2006.
2. Loin. Andre, Discuss and realize of liberal democracy Tehran, Samt
press, 2000, pp. 37-59.
3. Bashirieh. Hosein, Democracy lessons for all, Tehran, neghahe Moaser
press, 2000, pp. 175-190
4. Mostafa. Rahimi, Tragedy power in shahnameh, Tehran, nilofar press,
1990, p. 256
5. Alam. Abdorahman, Foundation of Political Science, Tehran nilofar
press, 1990.
6. Held. David, The transformation of political community, retninking
democracy in the centext of globalization, lane shapiro & casian ottaoker
coran (eds), Democracy age, Cambridge, polity press, 1999, p. 107
7. Bashirieh, Hosein, Ibid, p. 82
9. रजनी, इण्टरनेशनल जनरल ऑफ रिसर्च इन हिंदी (ई-पत्रिका), खण्ड-3, अंक-2, 2021, पृ. 62
10. सुभाष, धूलिया, सूचना क्रांति की राजनीति और विचारधारा, शिल्पी प्रकाशन, 2001, पृ. 30
11. रजनी, इण्टरनेशनल जनरल ऑफ रिसर्च इन हिंदी (ई-पत्रिका), खण्ड-3, अंक-2, 2021, पृ. 61
12. समकालीन
विश्व राजनीति (अध्याय-9 वैश्वीकरण), एन.सी.ई.आर.टी., नई दिल्ली, 2021-22, पृ. 139
13. वही, पृ. 139
मीना चरांदा
असिस्टेंट प्रोफेसर, कालिन्दी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
9891115656
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : वर्षा झाला, Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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