‘जरूरत है, ज़रूरत है, ज़रूरत है’’- भारत के स्वदेशी स्त्री विमर्श के संदर्भ में एक पड़ताल
डॉ. मनोज अवस्थी
बीज शब्द : स्त्री उत्तराधिकार, सामाजिक
परिपेक्ष्य, स्वतंत्रतापूर्व अवधि, वैचारिक
दृढ़ता, वामपंथी आग्रह
संविधानसम्मत, विश्लेषण, परंपरावादी
समाज, स्वदेशी आंदोलन
मूल आलेख : ‘‘राजा राममोहन राय हिंदू स्त्रियों को उत्तराधिकार का अधिकार देने के पक्ष में थे। उत्तराधिकार की आधुनिक विधि से स्त्रियों के साथ जो अन्याय होता था उसकी राममोहन ने कटु आलोचना की। उन्होंने 1822 में एक विद्वतापूर्ण लेख लिखा जिसका शीर्षक था ‘मॉडर्न एनक्रोचमेंट ऑफ एनशेंट राइट्स ऑफ फीमेल्स अकॉर्डिंग टू द हिंदू लॉ आफ इन्हेरिटेंस‘ (हिंदू उत्तराधिकार विधि पर आधारित स्त्रियों के प्राचीन अधिकारों का आधुनिक अतिक्रमण) इस लेख में उन्होंने याज्ञवल्क्य, नारद, कात्यायन, विष्णु, बृहस्पति, व्यास आदि विद्वान धर्मशास्त्रियों को उद्धृत किया और बताया कि प्राचीन धर्मशास्त्रों के अनुसार पति द्वारा छोड़ी गई संपत्ति में स्त्री को अपने पुत्र के समान भाग मिलता था और पुत्री को एक चौथाई।(1) राजा राममोहन राय का आलेख ‘मार्डन एनक्रोचमेंट आफ एनशिएंट राइट्स आॅफ फीमेल्स अकार्डिंग टू द हिन्दू ला आफ इन्हेरिटेन्स - 1822 में ‘‘इस लेख का उद्देश्य अपने एक मत के धरातल को अपनी सामर्थ्य के अनुसार स्पष्टतः व्यक्त करना है, जो मैं उस समय से रखता हूँ जब मैंने सामाजिक-राजनीतिक मामलों पर कोई स्पष्ट विचार नहीं बनाया था और जो कमजोर होने या बदलने की बजाय मेरे जीवन की प्रगति, चिंतन व अनुभवों में निरंतर दृढ़ ही हो रहा है कि स्त्री-पुरुष के बीच मौजूदा सामाजिक संबंधों को जो सिद्धांत नियंत्रित कर रहा है- यानि एक का दूसरे के क़ानूनी रूप से अधीन होना स्वयं में ही गलत है और अब मानव विकास के सुधार की प्रक्रिया में मुख्य बाधा भी है, अब इसका स्थान(स्त्री पुरुष के बीच) पूर्ण समानता के सिद्धांत को ले लेना चाहिए जो न तो एक को क़ानूनी सत्ता या सुविधा दे ना ही दूसरे को अशक्त बनाए।(2)
जॉन स्टुअर्ट मिल अपने प्रसिद्ध लेख ‘द सब्जैक्शन ऑफ
वीमैन’ - 1869
में
‘‘स्त्रियों की
स्थिति पूँजीवाद के विकास और निजी संपत्ति के संस्था के आगमन के साथ पूर्णतया
परिवर्तित हो गई है। पूर्व पूँजीवादी व्यवस्थाओं में संपत्ति सामान्यतः पूरे
परिवार या समुदाय की मानी जाती थी और माता के अधिकार माँ के अधिकार से अगली पीढ़ी
को प्राप्त होते थे। पूँजीवाद के आगमन के साथ निजी संपत्ति पर पुरुषों ने अपना
स्वामित्व जमाया और माँ के अधिकारों को समाप्त किया। यही स्त्री की सबसे बड़ी हार
थी।‘‘(3)
फ्रेडरिक ऐंजिल्स अपनी पुस्तक ‘द ऑरिजिन ऑफ
फैमिली, प्राइवेट
फैमिली एण्ड द स्टेट’- 1884
में
‘‘एक अरसे से मैं
औरत पर कुछ लिखना चाहती रही और झिझकती रही। विषय परेशान करने वाला है, खासतौर से औरतों
को। यूँ भी यह विषय कोई नया नहीं। नारीत्व के ऊपर बहुत स्याही उड़ेली जा चुकी है और
शायद हमारे पास नया कहने को कुछ खास बचा भी नहीं है। सोचना यह है कि अब तक जो कुछ
कहा गया, क्या
वह वास्तव में समस्या की सही समझ के लिए पर्याप्त है? क्या औरत वास्तव
में केवल औरत हैं?‘‘(4)
सीमोन
द बोउवार अपनी रचना ‘द
सैकेण्ड सैक्स‘- 1949 की प्रस्तावना में
सुधी पाठकों को शीर्षक थोड़ा अलग एवं ग़ैरअकादमिक-सा लग रहा होगा, लेकिन यकीन जानिए इसके पीछे मेरा एक मनोवैज्ञानिक स्वार्थ है। हाँ, मैं खुद ही इसे स्वार्थ कह रहा हूँ, क्योंकि मैं गंभीरता से चाहता हूँ कि इसे नवीन दृष्टि से पढ़ा जाए। अब थोड़ा सा कष्ट उठाइए और ऊपर वर्णित चारों उद्धरणों को उनके समय अनुक्रम के हिसाब से पढिये। अब आप मेरे आलेख और मेरी बात को ज्यादा सहजता से समझ पाएँगे कि क्यों मैं भारत के दृष्टिकोण पर इतना जोर देने का प्रयास कर रहा हूँ। राजा राममोहन राय का संपूर्ण स्वदेशी भारतीय उद्धरण इस बात को पुष्ट करता है कि प्राचीन काल से ही भारत में घोषित रूप से ना सही लेकिन स्वीकृत रूप से स्त्री अधिकारों को स्पष्ट पहचान प्राप्त थी। उनके कथन में जिन विद्वानों का जिक्र आ रहा है, वे प्राचीन भारत के विद्वान लेखक हैं और उनके दृष्टांतों को अस्वीकार किया जाने की कोई वजह नहीं है। लेकिन यहाँ ऐसा ना माना जाए कि मैं भारत के संदर्भ में पूर्वाग्रही हो रहा हूँ तथा तसवीर का मात्र सकारात्मक पहलू ही प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह भी कटु सत्य है कि भारतीय समाज में विद्यमान धार्मिक, सांस्कृतिक कुरीतियों ने स्त्रियों के मार्ग को ना सिर्फ अवरूद्ध किया है बल्कि कई मायनों में उसे एक ‘बंद सड़क’ घोषित कर दिया है। ‘‘बड़े पैमाने पर सती होने की घटनाएं 19वीं सदी के आरंभिक दशकों में बंगाल में हुई जहाँ लगभग हर रोज एक स्त्री सती होती थी। यह हाल तब था जबकि बंगाल के तत्कालीन गवर्नर विलियम बेंटिक ने सती प्रथा को सूबे में ग़ैरकानूनी घोषित किया हुआ था। ---------- 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के बंगाल में जो आँकड़े एकत्र किए गए उनमें एक निश्चित अनुपात में उन औरतों की संख्या अधिक थी जिन्होंने अपने पति की मृत्यु के वर्षों बाद आत्महत्या कर ली। ऐसा इसलिए हुआ होगा कि उनकी जिंदगी असहाय हो गई होगी। यह कहना ठीक नहीं कि उन्होंने आत्महत्या इसलिए की कि उनके अंदर ‘सत्’ का प्रवेश हो गया था।‘‘(5) राजा राममोहन राय के एक लंबे संघर्ष के बाद 1817 में जब बंगाल में सुप्रीम कोर्ट में मुख्य पंडित मृत्युंजय विद्यालंकार ने सती प्रथा के शास्त्रसंगत होने की अवधारणा से इनकार किया, तब जाकर उसके 1 साल के बाद 1818 में सती प्रथा के विरोधी विलियम बेंटिक ने बंगाल के गवर्नर के रूप में इसे अवैध घोषित किया था। यह शायद ब्रिटिश काल के भारत का सौभाग्य ही कहा जाएगा कि यही विलियम बेंटिक जब भारत के गवर्नर जनरल बने तो उन्होंने 4 दिसंबर 1829 को सती अधिनियम पारित कर इसे पूरे देश में अवैध घोषित किया। ‘‘सती अधिनियम ग्टप्प् बंगाल कोड 1829 ईस्वी (4 दिसंबर 1829) - इस अधिनियम के तहत यह घोषणा की जाती है कि किसी हिंदू विधवा स्त्री को सती बनाने, उसे जलाने या जिंदा दफन करने की कोशिश ग़ैरक़ानूनी तथा आपराधिक अदालतों द्वारा दंडनीय है। यह अधिनियम कौंसिल के गवर्नर जनरल द्वारा 4 दिसम्बर 1829 तद्नुसार 20 अगहन, 1936 बंगाली वर्ष, 23 अगहन, 1237 फसली, 21 अगहन, 1237 विलायती, 8 अगहन 1886 संवत और जमादि उस-सानी 1245 हिजरी को पास किया गया।(6) ऐसा नहीं था कि यह कोशिशें खाली बंगाल में जारी थी। 1840 के दशक में बंबई और पुणे के गरमपंथी सुधारवादी ब्राहण युवाओं ने भी परंपरावादी हिंदुत्व में सुधार का एक प्रयास उठाया था। 1848 मैं बंबई के ब्राह्मण रईस जी. एच. देशमुख ने हिंदू पुजारियों की कारगुजारियों की पोल खोलने के लिए अनेक परचे प्रकाशित किए और इसी समय ज्योतिराव फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल खोला। इसी साल बंबई के एलफिंस्टन कॉलेज के विद्यार्थियों ने एक कन्या पाठशाला शुरु की तथा स्त्रियों के लिए मासिक पत्रिका निकाली। ‘‘1852 तक ज्योतिबा फुले ने तीन कन्या पाठशालाऐं तथा अछूतों के लिए एक स्कूल खोला।(7) भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की अवधि में यदि हम विश्लेषण करें तो पाएँगे कि ‘भारत की आधी आबादी’ ने स्वतंत्रता संघर्ष में पुरुषों की तुलना में कहीं कम योगदान नहीं दिया है, बल्कि यदि विश्लेषण का आधार तटस्थ रखा जाए तो अनेक स्थानों पर वह पुरुषों से अग्रणी हैं। 1928 में भारत के संविधान निर्माण की जो पहल ‘नेहरू रिपोर्ट’ के नाम से की गई उसमें स्पष्ट तौर पर ‘इसमें स्त्री-पुरुषों के लिए व्यस्क मताधिकार’ की माँग की गई थी। 1915 में महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत आगमन के बाद भारत का स्वतंत्रता संघर्ष एक नए युग में प्रवेश करता है, जिसमें स्त्रियों की भागीदारी सुनिश्चित की गई है। ‘‘खेड़ा आंदोलन के दिनों में बीच-बीच में गाँधी को देश के दूसरे भागों में जाना पड़ता था। मुंबई सभा के बाद वे दिल्ली गए।
वायसराय ने युद्ध परिषद में भाग लेने के लिए उन्हें विशेष रूप से आमंत्रित किया था। उनकी अनुपस्थिति में भी आंदोलन अबाध गति से चलता रहा। स्त्रियाँ तक घर की चहारदीवारी से निकलकर आंदोलन में आगे आईं।(8) दरअसल गाँधीजी के तीनों राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में स्त्री सहभागिता तथा उनसे जुड़े मुद्दों को उठाया जाना एक सामान्य विशिष्टता रहा है। उन्होंने प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सांस्कृतिक व सामाजिक दोनों मुद्दों को राजनीतिक संदर्भ में स्पष्ट स्थान दिया। यह बड़ा दिलचस्प समय है जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा अन्य राजनीतिक-सामाजिक संगठन कमोबेश रूप से इस बात पर ध्यान दे रहे हैं कि ‘अधिराज्य‘ (डोमिनियन स्टेट) की हो या ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ की माँग ये दोनों ही भारत की आधी आबादी के विश्वास पूर्ण सहयोग के बिना संभव नहीं है। यदि सविनय अवज्ञा आंदोलन को विश्लेषित करें तो स्पष्टतः सामने आता है कि एकतरफा अहिंसक विरोध में जो हिंसा तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की तरफ से पूरी क्रूरता के साथ संपन्न की जा रही थी, उसमें उनके रखरखाव, उनके स्वास्थ्य, उनके उत्साह तीनों के लिए महिलाओं ने जबरदस्त भूमिका निभाई थी। दिसंबर 1929 में वल्लभभाई पटेल ने अपने बिहार दौरे के दौरान एक भाषण में कहा था ‘‘आपको शर्म नहीं आती कि आप अपनी स्त्रियों को पर्दे में रखकर स्वयं अर्धांग (लकवे) की बीमारी भुगत रहे हैं? यह स्त्रियां कौन है? आपकी मां, बहन, पत्नी। इन्हें परदे में रखकर आप मानते हैं कि आप उनके सतीत्व की रक्षा कर सकेंगे? इनका इतना अविश्वास क्यों? या इसलिए कि आपकी गुलामी से बाहर आकर देखेंगी? आप ने उन्हें गुलाम पशु बनाकर रखा है। इसलिए उनकी संतान आप भी पशु जैसे गुलाम रह गए हैं। बारदोली में मैंने लोगों से कह दिया था कि मुझे अपनी स्त्रियों से मिलने और बात करने की आजादी नहीं दोगे तो मैं सत्याग्रह नहीं कराऊंगा। स्त्रियाँ समझ गईं, सभाओं में आने लगी और थोड़े समय बाद तो सभाओं में पुरुषों के बराबर ही स्त्रियां आती थीं।(9) सविनय अवज्ञा आंदोलन के आसपास देखें तो एक दूसरा आंदोलन और दिखाई देता है जिससे भारत के संविधान के मुख्य शिल्पी भीमराव अंबेडकर भारत में अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने जा रहे हैं। 27 दिसंबर 1927 को ‘महाड सत्याग्रही महिलाओं के लिए महाड’ विषय पर अपने मराठी भाषण में डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था कि ‘‘बहनो, मुझे बहुत खुशी है कि आप इस सभा में पधारी हैं। जिस तरह गृहस्थी में स्त्री-पुरुष मिलकर समस्या को सुलझाते हैं, उसी तरह समाज की गृहस्थी की समस्या भी स्त्रियों और पुरुषों को मिलकर सुलझानी चाहिए। यदि पुरुष अकेले ही इस जिम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाएंगे तो निसंदेह उन्हें काफी वक़्त लगेगा लेकिन यदि यह जिम्मेदारी भी महिलाएँ बाँट लें तो पुरुष जल्दी सफल होंगे।(10) इसके बाद आज़ादी की जंग में हर स्थान पर अग्रिम दस्ते के रूप में नहीं बल्कि महिलाओं ने एक सहयोगी के रुप में अपनी भूमिका का निर्वहन पूरे दायित्व व निष्ठा के साथ किया। ऐसे अनेक दृष्टांत मिलते हैं जो लिखित नहीं है लेकिन भारत की वाचिक परंपरा में उनके किस्से आज भी पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं।
अपने अप्रत्यक्ष सहयोग से उन्होंने देश की
आज़ादी की राह को निश्चित तौर पर ‘अपने
आंचल से बुहार’ कर
साफ किया था। मेरे पाठक क्या ‘कस्तूरबा
गांधी के बगैर महात्मा गांधी की परिकल्पना’
कर सकते हैं या कमला नेहरू के बगैर उन्हें जवाहरलाल
पूरे दिखाई देते हैं? यकीनन
आपका जवाब नहीं ही होगा। दक्षिण अफ्रीका की अपनी लगभग ढाई दशक की यात्रा में जहाँ
गाँधी ने ‘सत्य
व अहिंसा’ के वह प्रयोग किए जिनकी
बदौलत भारत को ‘स्वतंत्रता
आंदोलन का सर्वाधिक प्रभावसंपन्न अहिंसक भाग का एक बड़ा हिस्सा’ प्राप्त हुआ। इस
अवधि में कस्तूरबा उनके साथ रहीं और वहाँ उन्होंने राष्ट्रपिता के निर्माण में
सहयोग दिया। 1930
से 1947
तक की अवधि भारत के सामाजिक व राजनीतिक इतिहास में अतिविशिष्ट है। ऐसा इसलिए कहा
जा सकता है, क्योंकि
इस अवधि में जहाँ एक ओर आज़ादी की लड़ाई को अंतिम रूप देकर जीता गया, वहीं सामाजिक
न्याय तथा विभाजन के संदर्भों को भी मूल्यांकित किया गया। स्त्री स्वतंत्रता तथा
सामाजिक नेतृत्व में उनकी भूमिका के प्रश्न ‘बहुत
तेज आवाज़ में न तो उठाए गए और न ही उन सीमित आवाज़ों पर कोई विशेष ध्यान’ दिया गया।
तत्कालीन दलीय व्यवस्था में यदि विश्लेषित करें तो मौजूदा समस्त दलों में महिला
प्रतिनिधित्व न के बराबर ही दिखाई देता है जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी
शामिल है। कांग्रेस को यहाँ थोड़ा अतिरिक्त लाभ इसलिए प्राप्त था कि मूल रूप से वह
किसी विचारधारा से स्पष्टतः अंतर्संबंधित नहीं थी। अपने भीतर उन्होंने अनेक मंच बना
रखे थे जिनमें वे ‘वास्तविक
तौर पर पूरे भारत के विचार समुदाय का प्रतिनिधित्व’ करते थे। 1930 से 1940
की अवधि कांग्रेस के इतिहास एवं भारत के महिला अधिकारों के संदर्भ में 1934 एक महत्त्वपूर्ण
साल के रूप में गिना जा सकता है। क्योंकि यही वह बरस है जब राममनोहर लोहिया अपनी समाजवादी
प्रतिबद्धताओं के साथ जवाहरलाल नेहरू से जुड़े। इस समय तक नेहरू साम्यवाद के प्रभाव
क्षेत्र में अच्छी तरह आ चुके हैं तथा अपने ‘अध्ययन
को अपने अनुभवों में समायोजित करने का प्रयास’ कर रहे हैं। भारत में भी महात्मा गाँधी से
कई विषयों पर उनकी असहमति का मूल कारण यही रहा। ‘‘डॉ. लोहिया पंडित नेहरू के साथ जुड़े और 1934 में जब ‘कांग्रेस
सोशलिस्ट पार्टी‘ का
निर्माण हुआ था, तब
‘कांग्रेस
सोशलिस्ट‘ नामक
साप्ताहिक मुखपत्र के डा. लोहिया संपादक बने। पंडित नेहरू ने कांग्रेस पार्टी के
अंतर्गत एक पर-राष्ट्र विभाग खोला जिसका मंत्री डॉ. लोहिया को बनाया गया।(11)
राम मनोहर लोहिया का स्मरण आलेख के इस बिंदु पर
अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह भारत के राजनीतिक संदर्भ में मार्क्सवाद के
स्थान पर एक ‘स्वदेशी
समाजवाद की अवधारणा’ की
स्थापना पर बल देने की कोशिश कर रहे हैं। जिसमें स्त्री-पुरुष समानता अत्यंत
महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। उन्हीं के शब्दों में ‘‘सामाजिक दरिद्रता का मुख्य कारण जाति एवं
नारी का पार्थक्य हैं। मैं मानता हूँ कि जाति एवं नारी के दो पार्थक्य मुख्यतः
हमारी मनोस्थिति के हाथ के लिए उत्तरदायी हैं। इन पार्थक्यों में साहस और आनंद को
ध्वस्त करने की पर्याप्त सामर्थ्य है।‘’(12)
राजनीतिक चिंतन को उनके सबसे बड़े योगदान मैं से एक ‘सात क्रांतियाँ’ में उन्होंने जिस
क्रांति को पहला स्थान दिया है,
वह ‘नर-नारी
की समानता के लिए’ है
और यही राम मनोहर लोहिया के भारतीय समाजवाद का सूत्र वाक्य कहा जा सकता है। ‘‘उन्होंने वैधानिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा
धार्मिक चार क्षेत्रों में समता के अधिकार का समर्थन किया। उन्हीं के शब्दों में ‘‘समता उसके सभी
चार अर्थों में ग्रहण करनी चाहिए।(13)
1940 से 50 के मध्य जब ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरूआत के बाद
भारत की आज़ादी की जंग अपने निर्णायक मोड़ पर थी, तब नारी-अधिकार का यह विषय स्वतंत्रता
प्राप्ति तक थोड़ा-सा एक तरफ़ रखा गया। 1946
में कैबिनेट मिशन की अनुशंसाओं के आधार पर संविधान सभा का निर्माण किया गया। तब भी
एक सर्वदलीय सहमति दिखाई दी कि नारी प्रतिनिधित्व को सभी दलों ने संविधान निर्माण
के लिए उपेक्षित करना ही श्रेयस्कर समझा। पाकिस्तान निर्माण के बाद जब भारत के
संविधान निर्माण हेतु संविधान सभा ने अपना कार्य पुनः प्रारंभ किया तो एक दुखद व
सुखद अनुभव एक साथ सामने आए। दुखद तो यह कि इस 389 सदस्यीय संविधान सभा में मात्र 15 महिला सदस्य थी।
‘‘(अम्मू
स्वामीनाथन, दक्षिणी
वेलयुद्धन, जी.
दुर्गाबाई, हंसा
मेहता, रेणुका रे, कमला चौधरी, पूर्णिमा बैनर्जी, राजकुमारी
अमृतकौर, एनी
मस्करीन, सुचेता
कृपलानी, बेगम एजाज रसूल, लीला राय, मालती चौधरी, सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित)(14)
सुखद यह है कि इस संविधान सभा ने जिसमें ‘सर्वसम्मति का
सिद्धांत’ प्रभावी
था. किसी भी स्थान पर स्त्री-पुरुष
असमानता को जगह नहीं दी। एक पाठक और एक लेखक के रूप में हम सभी के लिए यह अत्यंत
गर्व की बात है कि धुर परंपरावादी,
उदारवादी,
दक्षिणपंथी,
वामपंथी,
सामाजिक न्याय के निरपेक्ष पैरोकार तथा स्त्री
स्वतंत्रता के बुनियादी समर्थकों के मध्य भारत की यह संविधान सभा सर्वसम्मति से इस
निर्णय पर पहुंची कि स्त्री-पुरुष समानता भारत के भावी संविधान का बुनियादी आधार
होना चाहिए। वर्तमान दुनिया के ‘सबसे
शानदार संविधानों में से एक’ भारत
के संविधान में स्त्री-पुरुष समानता के जो दृष्टांत सिद्धांततः तथा व्यवहारतः
प्रस्तुत किए गए हैं, मेरे विचार से संविधान
सभा पर गर्व करने के लिए पर्याप्त से ज्यादा हैं।
संविधान निर्माण की प्रक्रिया पूर्ण होने पर 26 नवंबर 1949 को डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में दिए गए अपने अनौपचारिक धन्यवाद भाषण में यह स्पष्ट किया था कि ‘संविधान निर्माण कोई विशेष चुनौती नहीं थी, बल्कि असली चुनौती तो अब सामने आएगी जब यह आधुनिक संविधान परंपरावादी समाज के समक्ष अनुपालना के लिए प्रस्तुत’ किया जाएगा। तब से लेकर वर्तमान तक को यदि हम विश्लेषित करें तो स्पष्टतः पाएँगे कि अंबेडकर गलत नहीं थे। हिंदू कोड बिल के प्रस्तुतीकरण और उस पर हुई जबरदस्त राजनीति ने इस तथ्य को पूर्णरूप से स्पष्ट किया कि भारत का समाज अभी स्त्री-पुरुष समानता के पक्ष में नहीं है। देश ने अम्बेडकर के इस्तीफे के साथ अपना ‘अत्यंत प्रभावशाली विधि मंत्री’ खोया और दूसरी तरफ कांग्रेस का जनाधार भी थोड़ा खिसका। इस प्रकार प्रारंभ में भारत का नारी अधिकार आंदोलन मूलतः सामाजिक सरोकारों की बलिवेदी पर चढ़ा दिया गया। लेकिन असली समस्या अभी बाकी थी। जवाहरलाल नेहरू का उदार राजनीतिक चिंतन ‘लोकतांत्रिक-समाजवाद के मध्य लोकतंत्र के पक्ष में अधिक झुका हुआ’ था और वह सांविधानिक माध्यमों से सोच में परिवर्तन के पक्षपाती थे लेकिन दूसरी तरफ़ भारत का वामपंथी समूह इसे अपनी ज़मीन के पुनर्निर्माण की संभावना के रूप में देख रहा था। ‘‘स्वतंत्र भारत में नारीवादियों में अभूतपूर्व बदलाव आया क्योंकि अब उन्हें अंग्रेजों के समान शत्रु दिखाई नहीं दे रहा था। इस दौर में राजनीतिक अलगाव पहले की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया। इसका कारण यह था कि नारीवादियो ने कभी भी लिंग आधार पर शत्रु की पहचान नहीं की थी। -------- देश के विभाजन तथा स्वाधीनता के फौरन बाद खेत श्रमिकों, किसानों, कम्युनिस्टों और समाजवादियों में छले जाने की भावना तेजी से उभरी। यह समय वह था जब भारतीय कम्युनिस्ट चीनी क्रांति के असर को शिद्दत से महसूस कर रहे थे।(15) यह वह दौर रहा जब ‘भयानक माओवादी हिंसा’ ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया और ‘हिंसक माध्यमों से समस्याओं के हिंसक समाधान’ खोजने के प्रयास शुरू हुए। एक वैचारिक समस्या यह भी रही कि भारत के मार्क्सवादी किसी भी क्षेत्र में ‘मार्क्सवाद से मुक्त स्वतंत्र स्वदेशी चिंतन’ निर्मित नहीं कर पाए। दरअसल यहाँ उनका दोष नहीं था बल्कि वे संपूर्ण विश्व में इस चुनौती के शिकार रहे। शहरी भारत में कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर एक थीसिस निर्मित तो की गई पर या तो वह परंपरावादी मार्क्सवादी रही या घोर पश्चिमवादी उदारवादी। भारत के संदर्भ में यह दोनों ही लगभग अस्वीकृत की गयीं। परिणाम यह निकला कि भारत का नारी अधिकार आंदोलन ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ भारत बसता है, प्रभावी स्थिति में नहीं पहुंच पाया। हालांकि संसद एवं न्यायपालिका के स्तर पर स्त्रियों के अधिकारों को मान्यता व प्रभाव दिया गया है; भले ही गति धीमी रही पर दिया गया है।
‘‘नारीवाद ने दो स्तरों पर स्त्रियों के अधिकारों की वकालत की है। एक निजी पसंद-नापसंद के अधिकारों को स्थापित करने के स्तर पर और दूसरा सामूहिक अधिकारों के स्तर पर। निजी चयन के अधिकार के तहत ही लंबे संघर्ष के बाद यह मूल्य स्थापित किया गया है कि स्त्री का शरीर उसका अपना है और शरीर संबंधित सारे निर्णय लेने का हक़ उसे है। इस मान्यता के आधार पर ही बलात्कार को एक जघन्य अपराध घोषित किया जा सका है। परंपरागत नजरिये में बलात्कार के खिलाफ आक्रोश परिवार की इज्जत लूटे जाने की धारणा के तहत रहा है। जैसे किसी की संपत्ति की चोरी गलत है वैसे ही किसी परिवार की इज्जत की लूट भी। इसमें स्त्री के व्यक्तित्व के हनन का सवाल कहीं नहीं।(16) 73 व 74 वें संविधान संशोधनों के माध्यम से ग्रामीण स्थानीय स्वशासन व शहरी स्थानीय स्वशासन में स्त्रियों को दिए गए आरक्षण ‘उनके राजनीतिक अधिकारों के हस्तांतरण’ की प्रक्रिया का पहला अध्याय स्वीकारा जा सकता है। भारत के अनेक राज्यों ने शिक्षा व रोजगार के क्षेत्र में महिला आरक्षण को स्थान देकर ‘आर्थिक समानता निर्देशक तत्त्व’ के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित की है जो कि मूल रूप से इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करती है कि भारत की राजव्यवस्था परंपरागतता एवं आधुनिकता के मध्य एक दुर्लभ सेतु का निर्माण कर रही है। अनेक राजनीतिक, सामाजिक एवं न्यायिक निर्णय इस बात को पुष्ट कर रहे हैं कि भारत की राजनीतिक प्रक्रिया एवं समाज के मध्य एक सकारात्मक से संबंध निर्मित होता जा रहा है जिसमें समाज ने स्वयं को बदलना प्रारंभ किया है। स्कूल और कॉलेजों में अब प्रवेश प्रक्रिया में लड़कियों की संख्या लड़कों से ज्यादा पीछे नहीं है। यह केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति का नहीं बल्कि उस परंपरागत समाज की आधुनिक होती मानसिकता का प्रतीक है जिसे कभी अहमियत नहीं दी गई। भारत के समस्त प्रश्नों के जवाब हमें मात्र दो शब्दों ‘सत्य व अहिंसा’ में देकर गए राष्ट्रपिता को स्मरण करता हूँ स्त्री अधिकारों के एक आयाम के संदर्भ में कि ‘‘जो अधिकार यानी रियायत विधुर को है वही विधवा को होनी चाहिए। जो प्रश्न विधवा के लिए किए जाते हैं विधुर के लिए उठते ही नहीं है। जिसका कारण तो यही हो सकता है कि स्त्रियों के लिए पुरुष ने क़ानून बनाए हैं। यदि कानून बनाने का कार्य स्त्रियों के जिम्मे होता तो स्त्री कभी अपने अधिकार पुरुष से कम ना रखती।(17) गांधी के राजनीतिक-सामाजिक नहीं बल्कि सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों की उपादेयता का और स्वीकृति का दौर प्रारंभ हो चुका है। स्पष्ट है कि स्त्री अधिकारों का एक स्वदेशी मॉडल निर्मित होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है और इस विषय पर मात्र राजनीतिक क्षेत्र को छोड़कर सर्वसम्मति विद्यमान है। मेरे ख्याल से इस सर्वसम्मति में मेरे साथ आप सभी शामिल होंगे। मुझे यकीन है आपका जवाब मेरे पक्ष में ही जाएगा।
भारत
के बहुआयामी, बहुधर्मी
तथा बहुसांस्कृतिक समाज में आधी आबादी निश्चित तौर पर आधी आबादी से पीछे रही है।
यह अंतर अलग-अलग धर्म, मजहब
वे संस्कृतियों में कम या ज्यादा रूप में विद्यमान रहे हैं, पर रहे हैं। एक
बड़े छाते के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1885 के बाद से ही भारत में विभिन्न विद्यमान
समस्याओं को ब्रिटिश शासकों के समकक्ष पर्याप्त गंभीरता से उठाया लेकिन स्त्री
स्वातंत्र्य का विषय वहाँ भी कुछ पीछे रहा। 1917
की सफल बोल्शेविक क्रांति के बाद मार्क्सवाद वैचारिक रूप से विश्व में कुछ सीमित
सहमति के साथ फैलना प्रारंभ हुआ और भारत भी इससे पीछे नहीं रहा। इसमें दो राय नहीं
कि समानता के प्रति विशेष आग्रह रखने वाली मार्क्सवादी विचारधारा स्त्री पुरुष
समानता के संदर्भ में उस समय विद्यमान अन्य राजनीतिक मंचों से कुछ अधिक उदार तो
थी लेकिन श्रमिकों व किसानों के आर्थिक
संघर्षों के प्रति उनका रवैया ज्यादा दिलचस्पी भरा था। परिणामस्वरूप स्त्री
अधिकारिता का बिंदु वहां सिद्धांत रूप से विद्यमान होते हुए भी व्यावहारिक रूप से
उतना प्रभावी न हो पाया जिसकी अपेक्षा थी। इसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि भारत
में मार्क्सवाद अपने शुरुआती दौर से ही शहर केंद्रित रहा और लाखों गाँवों में वह
उस गति व ऊर्जा से नहीं पहुँच पाया जिसकी अपेक्षा वे कर रहे थे। स्त्री विमर्श के
प्रश्न विश्वविद्यालय व महाविद्यालय स्तर पर गंभीरता से उठाए गए लेकिन परंपरावादी
भारतीय समाज में उनकी स्वीकृति अधिक मात्रा में नहीं हो पाई, हाँ उनके
प्रयासों की गंभीरता से इनकार नहीं किया जा सकता।
संदर्भ :
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भारतीय राजनीतिक चिंतन - वी. पी. वर्मा,
लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशन, आगरा 2006 (पृष्ठ-92)
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सब्जैक्शन ऑफ वीमैन - जे. एस. मिल के निबंध का हिंदी अनुवाद ‘स्त्रियों की
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प्रगति सक्सेना, राजकमल
प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई
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33)
3. समसामयिक
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रावत पब्लिकेशंस जयपुर, 2015 (पृष्ठ-159)
4. द
सेकेण्ड सैक्स - सीमोन द बोउवार की रचना का हिंदी अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता‘- अनु. प्रभा खेतान, हिंद पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, 2004 (पृष्ठ-21)
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- राधा कुमार,
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6. 4
दिसंबर 1829
भारत के गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक द्वारा पारित अधिनियम
7. कल्चरल
रिवोल्ट इन ए कॉलोनियल सोसायटी - गेल ओमवेट,
सॉइटिफिक सोशल एज्यूकेशन ट्रस्ट,बंबई, 1976 (पृष्ठ-107)
8. सरदार
वल्लभभाई पटेल, व्यक्ति
और विचार - विश्व प्रकाश गुप्त,
मोहिनी गुप्त,
राधा पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 2006 (पृष्ठ-17)
9. सरदार
वल्लभभाई पटेल,भाग
2 - नरहरि
पारीख, नवजीवन
प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, 1956 (पृष्ठ-49)
10. डॉ
आंबेडकर आत्मकथा एवं जन संवाद - संपा. नरेंद्र जाधव, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली 2015 (पृष्ठ-75)
11. आधुनिक
भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन - पुरुषोत्तम नागर, राजस्थान हिंदी
ग्रंथ अकादमी, जयपुर
2009, (पृष्ठ-710)
12. द
कास्ट सिस्टम-राम मनोहर लोहिया,नवहिंद
प्रकाशन, हैदराबाद, 1964 (पृष्ठ-01)
13. मार्क्स, गाँधी एंड
सोशालिज्म - राम मनोहर लोहिया,
नवहिंद प्रकाशन, हैदराबाद 1963 (पृष्ठ-241)
14. भारत
का सॉविधानिक विकास और संविधान - सुभाष काश्यप, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली
विश्वविद्यालय दिल्ली, 1996, (पृष्ठ
260
से 265)
15. स्त्री
संघर्ष का इतिहास (1800
से 1990) - राधा
कुमार, वाणी
प्रकाशन, नई
दिल्ली 2005 (पृष्ठ-203)
16. स्त्री
परंपरा और आधुनिकता - संपा. राज किशोर,
वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली (पृष्ठ-48)
17. बापू की कलम से (गांधीजी के मूल हिंदी लेखों का संग्रह) संपा. काकासाहेब कालेलकर, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, 1957 (पृष्ठ-88)
डॉ. मनोज अवस्थी
एसोसिएट प्रोफेसर, राजनीति-विज्ञान, सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय, अजमेर
manojawasthi2014@gmail.com, 9414253024
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