कविताएँ -डॉ. सौरभ कुमार
फिरोज खान
फिरोज....
इस दुख की घड़ी में
मुझे महाभारत का पात्र दुर्योधन
अच्छा लगने लगा है
क्योंकि तुम छले जा रहे हो
जैसे छला गया कर्ण
प्रतिभा, विद्या होते हुए भी
जाति, नस्ल, धर्म,
संस्कृति के नाम पर
वो जो पांडव
बैठे, कर रहे हैं
तुम्हारे निष्कासन का स्तुतिगान
उन्हें आभास नहीं
कि
कितनी दुखी हो रही होंगी
उनकी माता कुंती
कहें तो उनके जन्मजा मालवीय
मैं सोचता हूँ
बारंबार सोचता हूँ
क्यों तुम्हारे लिए
हर बार ठहर जाता है
सूदर्शन का चक्र
मूक हो जाता है विदुर का न्याय
क्षीण होने लगती है भीष्म प्रतिज्ञा
और जो खड़ा होता है, तुम्हारे साथ
उसकी अस्मिता में जोड़ी जाती है
संस्कारित भाषा का
कुसंस्कारित उपसर्ग - दु।
जहां
लगी है कील
जहां लगी है कील
वहां खिलेंगे फूल
लाल फूल, नीले फूल
पीले फूल, गुलाबी फूल
तरह तरह के फूल
उन फूलों को तुम कुचलना नहीं
अपनी जूतों की टापों से
उसे धीरे से तोड़ लेना
लगा देना अपनी पत्नी के जूड़ों में
विश्वास करो
तुम्हारा घर महक जाएगा
खिल खिला उठेगी तुम्हारी प्रेमिका
दौड़ आएगी तुम्हारी बिटिया
और समा जाएगी
तुम दोनों की गोद में
जहां लगी है कील
वहां खिलेंगे फूल
बैंगनी फूल, चंपई फूल
काले फूल, सफेद फूल
उन फूलों को तुम रौंदना नहीं
ले लेना उनसे थोड़ी मुस्कान
विश्वास करो
कई दिनों से रुठी तुम्हारी प्रेमिका
मचल जाएगी इस बैंगनी मुस्कान पर
और तुम्हारे चंपई होठों पर
लिख देगी अपने रिश्तों का
खबसूरत अफसाना
जहां लगी है कील
वहां खिलेंगे फूल
हरे फूल, नारंगी फूल
मटमैली फूल, आसमानी फूल
उन फूलों को तुम तहस-नहस न करना
ले लेना थोड़ी खुश्बू उधार
और इससे महका देना
अपनी दोस्ती को
अपनी रिश्तेदारी को।
नंग
धड़ंग बच्चे
नंग धड़ंग
बच्चे
नदी, पोखर, तालाब
में
पैर पटकते
हाथ लहराते
सीना फुलाते
खिल खिला रहे हैं
पैंट शर्ट
पहने
टाई लगाए बच्चे
पीठ पर बस्ता उठाए
हाथ झुकाए
मुंह लटकाए
मन पर बोझ उठाए
जा रहे हैं
बकरियां चराते
बच्चे
जमीन नापते
गढ़ढे लांघते
पहाड़ियां चढ़ते
कूदते - फांदते
ठिठोलियां
कर रहे हैं
ए. सी. में
बैठे बच्चे
टीवी रिमोट के लिए
लड़ते
झगड़ते
झुंझलाते
रो रहे हैं
गाय, भैंस चराते बच्चे
बाछे-बछिया को
पुचकारते
दौड़ते-भागते
शोर मचाते
भैंसों की सवारी करते
यमराज को चिढ़ा
रहे हैं
गाय पर निबंध
लिखते
भैंसों से अनजान बच्चे
अंधेरे से डरते
मॉम-डैड करते बच्चे
मॉम-डैड को
खिझा रहे हैं
तुम फिर कब
आओगे
राष्ट्रीय
राजमार्ग पर
ट्रक आते हैं, जाते हैं
निकल जाते हैं
आंखों में रह जाते हैं
उनके संदेश
तुम फिर कब आओगे
प्रेमिका का इंतजार
समय की शुरुआत से
धुरी पर घूमती
धरती का इंतजार
धरती
की कभी रुकी नहीं
धरती की कभी थकी नहीं
प्रेमिका का इंतजार की
कभी खत्म हुआ नहीं
कभी उम्मीद टूटी नहीं
धड़कन
कभी रुकी नहीं
धड़कन कभी रुकी भी
फिर से धड़कने का इंतजार
सात-सात जन्मों तक की
धड़कन का इंतजार
फिर
गुजरा एक ट्रक
मां का आशीर्वाद दिए
अनुपम प्यार लिए
भीषण गर्मी हो
कड़कती बिजली हो
कंपाती ठंड हो
बलाएं
हजार हो
मां का आशीर्वाद है
कि झरती नहीं
फिर
गुजरा एक ट्रक
हंस मत पगली प्यार हो जाएगा
पगली हंस रही है
खिल खिलाकर हंस रही है
धूल उड़ाकर हंस रही है
आशमां गुंजाकर हंस रही है
भौंरे उड़ रहे हैं
किसलय खिल रहे हैं ।
इतिहास
गवाह है
इतिहास गवाह
है
बिहारी जहां
भी गए
वहां के लोगों
को
सीने से लगाया
उन्हें सुखी
बनाया
फिजी की
जुबानी
इसकी कहानी है
इतिहास गवाह
है
बिहारी जहां
भी गए
वहां से लिया
एक
तो, दिया दो
दिल्ली, पंजा
मुंबई, मद्रास,
बगाल, गुजरात
की मीनारें, मेट्रो,
सड़कें, पुलों में
यह दर्ज है
इतिहास ग्वाह
है
कश्मीर से
कन्याकुमारी तक
गुजरात से
अरुणाचल प्रदेश तक
की खेतों, बगीचों, मैदानों को
बिहारियों ने
अपने खून-पसीने से सींचा
लेकिन
आज बिहारियों
का खून बहाया जा रहा है
उनके पसीने की
आंच पर
राजनीति की
रोटी सेंकी जाती रही है
इनके बनाए
सड़कों पर इन्हें पीटा गया
इनकी बनाए
मीनारों में इन्हें बेइज्जत किया गया
इनके बनाए
पुलों पर इन्हें मारा गया
इनके बनाए
अस्पतालों में इन्हें तड़पता छोड़ा गया
पर ये हैं कि
लगातार सड़कें
बना रहे हैं
मीनारे खड़ा
कर रहे हैं
पुलों से
दुनिया जोड़ रहे हैं
अस्पतालों की
छतें ढ़ाल रहे हैं
इन्हें
विश्वास है कि यहां
अंगुलीमाल
हारा है, बुद्ध का धैर्य जीता है
खड्गसिंह हारा
है,
बाबा भारती का विश्वास जीता है
गांधी की
अहिंसा जीती है, गोडसे की हिंसा हारी है।
दिल्ली
है दिल वालों का
दिल्ली
है दिल वालों का
मोहब्बत वालों का
प्यार वालों का
दिल्ली का बड़ा है दिल
दिल्ली की बड़ी है सड़कें
दिल्ली के बड़े हैं पार्क
उन पार्कों में दिल लगाए
दिल लिए-दिए जोड़ियां
मोहब्बत
से लबरेज जोड़ियां
धरती-आशमां को जोड़ रहे हैं
जात-पात को तोड़ रहे हैं
धर्मों को धो रहे हैं
खुले
आसमान में
खुली धरती पर
एक-दूसरे के के बंधन में
तमाम बंधनों को तोड़ती ये जोड़ियां
समता सिखलाती ये जोड़ियां
मर
चुकी खंडहर किलों में
जान फूंकती ये जोड़ियां
राजतंत्र के किलों में
लोकतंत्र के फूल खिलाती
ये जोड़ियां।
युग-युगों
में ये जोड़ियां रही हैं
कटी हैं, मरी हैं
पर बार-बार खिली हैं
खिलती रहेंगी आगे भी
दिखती रहेंगी आगे भी
हंसती रहेंगी आगे भी
लोकतंत्र का लोक
रचती रहेंगी आगे भी।
गांव
की महिलाएं
कच्चे-पक्के
घरों से
सुबह-सवेरे
झाड़ू-बुहारु
चूल्हा-चौका
आसन-बासन निपटाकर
मत देने निकली हैं
गांव की महिलाएं
लंबी
कतारों में
धूप - छांव में
गर्मी-बारिश में
पहचान पत्र लिए
खड़ी हैं
गांव की महिलाएं
लंबी
कतारों में
शांति-सुकून से
हंसते-बतियाते
खिलते-खिलखिलाते
हंसते-हंसाते
इंतजार में खड़ी
गांव की महिलाएं
बिया
से बाली का इंतजार
मंजर से आम का इंतजार
लत्तर से सब्जी का इंतजार
कली से फूल का इंतजार
मतदान से बदलाव का इंतजार
मतदान
करती गांव की महिलाएं
लंबी बारिश के बाद खिली धूप हो
अंधेरे में चमकी जुगनू हो
रात में तारे बिखरी
हो
उंगली
पकड़े बच्चे
को निहारती
बूथ से घर आई
अपना मत घर लाईं
गांव की महिलाएं।
कर्मनाशा
मेरी
मां
जब भी हरिद्वार से
गंगाजल उठाती है
कर्मनाशा के तटों को
नहीं लांघती है
वह घर के लिए
इससे कहीं लंबी
दूसरे मार्गों का
चुनाव करती है
कहती है
गंगा का पानी
कर्मनाशा से
छुआ जाएगा
गंगापुत्र
भीष्म
शिक्षा पाने को ललायित
शुद्रपुत्र कर्ण के
गुरु बनने के निवेदन
को स्वीकार करने में
असमर्थता जाहिर
करते हुए
कर्मनाशा नदी के तट पार
मगध जाने की
सलाह देते हैं।
मगध
सभी को
गले लगाया
क्या शूद्र
क्या वैश्य
क्या क्षत्रिय
क्या ब्राह्मण
यहां के पीपल
की छांव
में सभी
प्रज्ञ हुए
कर्ण
बुद्ध
महावीर
ह्वेनसांग
फाहियान
अनेकों अनेक
के कर्मों को
संवारा
परन्तु
मगध
और अन्यों के बीच
ज्ञान सहित कर्म
की सेतु बनी नदी
को कर्मनाशा
कहा गया
कैमूर
बक्सर
सोनभद्र
चंदौली
वाराणसी,
गाजीपुर
के
सैकड़ों खेतों
को सींचती
फसलों को
लहलहाती
नदी का पानी
अछूत कैसे
हो सकता है
गंगे
च यमुने चैव गोदावरी
सरस्वती, नर्मदे, सिन्धु,
कावेरी जले
अस्मिन्, सन्निधम् कुरु
जैसी ही पवित्र है
इस नदी की धारा
इसमें भी
चमकते हैं रेशमी बाल
खिल जाते हैं अंग-अंग
मिट जाती है थकान
बूझ जाती है प्यास
फिर कर्मनाशा क्यों?
कहते
हैं
इसकी धारा
पानी नहीं
धरती-आसमान के बीच
टंगे
त्रिशंकु के लार हैं
इसलिए अछूत हैं
सशरीर
स्वर्ग जाने की इच्छा का ऐसा दुष्परिणाम
सत्यव्रत ने स्वर्ग का सत्य ही तो जानना चाहा
लौकिकता से परलौकिकता को ही तो जानना चाहा
परलौकिकता यदि सत्य है तो लौकिकता भी सत्य है
फिर
लौकिकता गंवाकर परलौकिकता पाने का क्या अर्थ
कज्जल
धार की इस नदी की कीमत पर
स्वर्ग रक्षकों ने
सत्यव्रत के सत्य के व्रत से
बुद्ध के बुद्धत्व से
स्वर्ग को बचाया
इंद्र को बचाया
देवताओं को बचाया
स्वयं को बचाया।
एक तो 'अपनी माटी' पत्रिका देश और साहित्य की माटी की छाप छोड़ रही है। दूसरी ओर डाॅ. सौरभ कुमार अपनी कविताओं के माध्यम से जन, जीवन व जहान से रूबरू करा रहे हैं। बधाई और शुभकामनाएं।-- डॉ. रवीन्द्र प्रसाद सिंह 'नाहर', दिल्ली
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रविंद्र जी
हटाएंडॉ सौरभ कुमार
हटाएंशुरू से पहली कविता का निहितार्थ पर्याप्त गंभीरता मांगता है और दूजी में रिश्तों को बहुत अच्छे से पिरोया है और तीसरी में आया लोक बेहद संजीदगी पैउदा करता है.बधाई सौरभ भाई.आपकी कविताओं का स्वाद एकदम जुदा किस्म का है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद महोदय
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