विभाजन की त्रासदी पर भारतीय भाषा के कथाकारों का रचनात्मक अनुशीलन
शोध सार :
विभाजन, निर्विवाद रूप से भारतीय इतिहास की सबसे भयानक त्रासदियों में से
एक है। समाज, इतिहास, राजनीति, संस्कृति, साहित्य और लोक-जीवन का इतना कुछ इसमें बिंधा हुआ है कि यह एक जटिल
गुत्थी सी लगती है जिसे इतिहासकारों और साहित्यकारों
से लेकर जनसामान्य के लिए सुलझाना कभी सरल नहीं रहा है। भारतीय भाषाओं के तमाम लेखकों
ने अपने-अपने ढंग से इस त्रासदी पर कल्पना और यथार्थ की अभिव्यक्ति के माध्यम से अपनी
संवेदनाएं व्यक्त की हैं। उनकी कहानियां जहां एक ओर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन
घटनाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं, वहीं दूसरी ओर इस घटना से जुड़े मानवीय एवं सामाजिक पहलुओं को भी
संवेदनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं। भारतीय भाषाओं की विभाजन संबंधी कहानियों
में एक तरफ तीखी प्रतिक्रिया और प्रतिरोध का स्वर है तो दूसरी तरफ मानवीय करूणा और
अन्तर्वेदना का स्पर्श भी है। इस समय के कथाकारों ने इस त्रासदी के विविध पक्षों को
अपनी कहानियों में अभिव्यक्त किया है। इस आलेख में हम भारतीय भाषाओं मुख्यतः हिंदी,
उर्दू एवं पंजाबी में लिखित विभाजन संबंधी कहानियों एवं कहानीकारों की रचना-प्रक्रिया
का अध्ययन कर रहे हैं।
बीज शब्द : त्रासदी, हिंसा, विभाजन,
विस्थापन, विरासत, साहित्य, इतिहास, संस्कृति, अस्मिता, स्मृतियाँ
मूल आलेख : त्रासदी अंग्रेजी शब्द
‘ट्रेजडी’ (Tragedy) का हिंदी रूपांतर है। हिंदी में इसके लिए दुःखांत शब्द भी
प्रचलित है। त्रासदी दरअसल ग्रीक साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा थी, जो 5वीं सदी तक
आते-आते यूनान में एक परिपक्व विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। साहित्य की अन्य
विधाओं में अरस्तू ने त्रासदी को ही सर्वाधिक महत्व दिया है। अरस्तू ने काव्यशास्त्र
के संदर्भ में त्रासदी को परिभाषित करते हुए कहा है- ''त्रासदी किसी गंभीर स्वतः
पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है.....जो समाख्यान रूप में
न होकर कार्य-व्यापार रूप में होती है और जिसमे करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा
इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।''[1]
कहा जा सकता है कि त्रासदी
का मुख्य आशय मानव-जीवन के कठोरतम एवं गंभीर पक्ष से है जिसके मूल में करूणा तथा संत्रास
होता है। अतः नाटक से इतर जब यथार्थ जीवन में त्रासदी को देखें तो यह एक ऐसी घटना है
तो मानव जीवन और समाज को दीर्घकालिक स्तर पर प्रभावित करता है। भारतीय इतिहास के संदर्भ
में हम त्रासदी को भारत विभाजन की घटना से समझ सकते हैं जिसने भारतीय राजनीति, समाज,
संस्कृति और व्यक्ति को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। इस त्रासदी को लक्ष्य कर
प्रियंवद भी लिखते हैं- “यदि कवि की भाषा में कहें तो समस्त नाट्य तत्त्वों से भरपूर
यह एक विराट त्रासद नाट्यकृति है। त्रासद इसलिए की आश्चर्यजनक रूप से इस विभाजन का
कारण न तो कोई बाहरी आक्रमण था, ना गृहयुद्ध, ना उत्पादन या पूंजी या बाजार की आर्थिक
विवशताएँ और ना ही कोई प्राकृतिक प्रकोप या अस्थाई भौगोलिक अवरोध। प्रत्यक्ष रूप से
यह करोड़ों मनुष्यों का, संवैधानिक रूप से अपना प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं के माध्यम
से स्वेच्छा से चुना हुआ निर्णय था। यह निर्णय देश के इतिहास और सभ्यता के संदर्भ में
लगभग उतना ही महत्त्वपूर्ण और उसी प्रकृति का, ‘काल को खंडित करने वाला
निर्णय’ था, जहां से सभ्यताएं और समाज या तो तत्काल आत्महत्या की ओर
मुड़ जाते हैं या धीरे-धीरे आदमी विनाश की ओर या फिर अविश्वसनीय तरीके से अपनी जड़ता
को तोड़कर उन्नति कर जाते हैं।”[2]
सन् 1947 का भारत विभाजन भारत और
पाकिस्तान, दोनों ही मुल्कों की एक
बड़ी आबादी के लिए आज भी दुःस्वप्न बनकर उनकी स्मृतियों में जिंदा है। यह इस भूखंड के
इतिहास की एक अविस्मरणीय त्रासदी थी। विभाजन के इस दौर में हम प्रत्यक्ष रूप से मानवीय
मूल्यों एवं चेतना को छिन्न-भिन्न होते देख सकते हैं। व्यक्ति और समाज के स्तर पर इतनी
बड़ी दुर्घटना जिसने व्यापक स्तर पर लोगों को सदियों तक प्रभावित किया उसने स्वाभाविक
रूप से साहित्य में अपना केंद्रीय स्थान बनाया। इतिहास और संस्कृतिक के क्षेत्र की
इतनी बड़ी घटना जिससे व्यापक फ़लक पर लोग प्रभावित हुए, उसने स्वाभाविक तौर पर साहित्य-लेखन को भी प्रभावित किया।
विभाजन संबंधी भारतीय भाषाओं के साहित्य ने विभाजन जनित त्रासदी के विविध आयामों को
उद्घाटित करने का कार्य किया है। सीमावर्ती क्षेत्र जहां विभाजन की घटना ने लोगों को
सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वहाँ विभाजन की घटना साहित्य-लेखन के केंद्र में रही है। यही कारण है कि उर्दू, पंजाबी, हिन्दी, बंगला और सिंधी के लिखित साहित्य पर विभाजन की गहरी छाप दिखाई देती
है। कविता और नाटक की अपेक्षा कथा-साहित्य (कहानी और उपन्यास) में इस व्यापक मानवीय
त्रासदी को ज्यादा स्थान मिला है। हिंदी कथा-साहित्य के संदर्भ में अगर हम देखें तो
तमस, झूठा सच, कितने पाकिस्तान (उपन्यास), मलबे का मालिक, सिक्का बदल गया, शरणार्थी, अमृतसर आ गया (कहानी), ख़राशें, नो मैंस लैंड, जिन लाहौर नहीं देख्याँ (नाटक) आदि इसके उदाहरण हैं। वहीं उर्दू कथा
साहित्य में उदास नस्लें, बस्ती, आग का दरिया (उपन्यास) पेशावर एक्सप्रेस, टोबा टेक सिंह, सरदार जी, ठंडा गोश्त, (कहानी) आदि रचनाओं में
भारत विभाजन के विविध संदर्भ देखने को मिलते हैं। पंजाबी कथा साहित्य की अगर बात करें
तो पिंजर, पतवन्ते कातल, दीन ते दुनियाँ, खून दे सोहले (उपन्यास), खोई हुई खुशबु, इनसानियत, आखिरी तिनका, धूल तेरे चरणों की (कहानी), आदि में विभाजन की त्रासदी को रेखांकित किया गया है। इसके अलावा फैज़
अहमद फैज, नरेंद्र मोहन, गुलज़ार आदि की कविताओं में भी विभाजन की त्रासदी के विविध संदर्भों
की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। यहाँ विभाजन के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ साहित्य में सीधे तौर पर आए हैं। इनमें
से बहुतेरे लेखकों ने विभाजन की इस त्रासदी को प्रत्यक्ष रूप में भोगा है, फलतः इनकी
रचनाओं में मानवीय भावनाओं की तीव्र अनुभूति देखने को मिलती है। विभाजन की पीड़ा उस
समय के साहित्यकारों में विभिन्न रूपों में त्रासदी के रूप में अभिव्यक्त हुई है। इन
रचनाओं में उन रचनाकारों की सिर्फ स्मृति ही नहीं, बल्कि उनकी वैचारिक दृष्टि और संवेदनशीलता
का भी समावेश है। आजादी के साथ मिला विभाजन किसी को रास नहीं आया। उपलब्धि और निराशा
के इस मिले-जुले रूप को फैज अहमद फैज ने ‘दाग दाग उजाला’ कहा है। ये वह सहर है जिसे
रात ने काट खाया है-
“ये दागे दाग उजाला, वह शब गुजीदा सहर
वो इंतिजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
यह वो सहर तो नहीं, जिसकी आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी
कहीं न कहीं”[3]
विभाजन संबंधी इतिहास और
साहित्य को अगर हम सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो पता चलता है कि इस विराट
मानवीय त्रासदी के कई सारे आयाम रहे हैं जो बीत कर भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुए
हैं। विभाजन की त्रासदी एक अनवरत चलने वाली मानवीय त्रासदी है जो भिन्न-भिन्न कालखंडों
में सरहद के दोनों ओर गुस्सा, शोक, नफरत और अफसोस की लकीरें बनाती चल रहीं हैं। और
इस अर्थ में खुद बीत कर भी और नई-नई त्रासदियों को जन्म देती जा रही है। विभाजन की
इस प्रक्रिया पर होने वाले विमर्श की प्रासंगिकता के संबंध में डॉ. पारुल कहती हैं-
“बँटवारे के सत्तर साल की बहस उस राजनीतिक घटना की बहस हो सकती
है जो सत्तर साल पहले सत्ता के लेन-देन की प्रक्रिया में घटित हुई। या फिर उस सामाजिक-सांस्कृतिक
वास्तविकता की बात जो सत्तर साल से हमारी जिंदगी का हिस्सा है। पहली सूरत में बँटवारा
एक वाकया है जो घट चुका है और दूसरी सूरत में बँटवारा एक कभी न बीतने वाला वक्त है
जो भारत और पाकिस्तान को लगातार गढ़ रहा है। बँटवारे की कहानी इन दोनों मुल्कों के
बनने और बिगड़ने की कहानी है।”[4]
उपमहाद्वीप के बंटवारे
के मानवीय आयाम से संबंधित लेखन ने विभाजन के प्रभावों, इसकी लिंग-भेदी प्रकृति तथा
हिंसा विस्थापन और पुनर्वास के वर्गीय और जाति संबंधी आयामों को उजागर करने का कार्य
किया है। जब राष्ट्र और इतिहासकार आजादी के उल्लास में मगन थे, तब साहित्यकारों ने
विभाजन की विस्मृति का प्रतिकार करने की कोशिश की। लगभग एक स्वर से इन लेखकों ने आम
आदमी द्वारा अनुभव किए गए क्षोभ और अचंभे को व्यक्त किया है।
ज्ञानेंद्र पाण्डे के अनुसार
आलोचकों ने तीन प्रकार की हिंसा की बात की है[5] - (1) जो राज्य द्वारा की जाती है जैसे कि रूस, जर्मनी, साइबेरिया में हुआ (2) एक दूसरे तरीके की हिंसा जहाँ राज्य पहले से भक्षक नहीं होता
पर वो उसके द्वारा हिंसा को रोक सकता था पर वह ऐसा नहीं करता (3) एक तीसरे तरह की हिंसा वह है जहाँ लोग खुद हिंसा से पीड़ित होते
है और अपना मानसिक स्वास्थ्य खो देने के कारण एक दूसरे का खून करने लगते है। विभाजन
को इसी प्रकार की हिंसा माना जाता है। जावीद आलम का कहना है कि “इस तरह की हिंसा को हमें याद नहीं करना चाहिए जिससे कि लोग शांतिपूर्ण
तरीके से सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत
तौर पर सामान्य जिंदगी जी सके। मगर ज्ञानेंद्र पाण्डे इस तरह की धारणा को इतिहास के
लिए हानिकारक बताते है तथा कहते है कि ऐसा प्रतीत होता है कि ये एक ऐसी राष्ट्रवादी
धारणा है जो यह तय करने की कोशिश करती है कि भारतीय इतिहास के लिए क्या उचित है और
क्या अनुचित। पर वे हमें यह भी बताते हैं कि हाल ही में हिंसा पर कई महत्त्वपूर्ण कार्य
हुए हैं जिनमें मुख्यतः ये समझने का प्रयास किया गया है कि हिंसा का दायरा कितना बड़ा
है। वे कहते हैं कि- ये सभी रोजमर्रा की ज़िन्दगी का इतिहास पेश करती है- एक ऐसा इतिहास
जिसमें राज्य और समाज दोनों फंसे है। इस सन्दर्भ में जब हम विभाजन पर लिखे साहित्य
की बात करें तो निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि “काल्पनिक लेखन की सबसे अच्छी बात यह है कि ये महज़ हिंसा की कहानियाँ
ही बयान नहीं करती, इस बात की भी जांच करती है कि क्या दहशत के बीच भी हममें कुछ नैतिकता
बची थी।”[6]
विभाजन से उपजी हिंसा की कहानियां आज भले कहानियों
के माध्यम से काल्पनिक लग सकती हैं, परंतु उस समय के लेखकों ने इस भीषण त्रासदी को
प्रत्यक्ष झेला और सहा था। इसलिए उनकी कहानियां उन हिंसाओं की सच्ची तस्वीर खींचती
हैं। उनकी कहानियों और उनके विभाजन संबंधी साक्षात्कारों को एक साथ पढ़ा जाए तो कई
बार यह फ़र्क करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सी पंक्ति उनके साक्षात्कार की है और
कौन सी कहानियों की। मसलन विभाजन के दौरान के कत्लेआम के बारे में कुलवंत सिंह विर्क
का कहते हैं- “नहरें लाशों से भरी इस तरह से आती थीं कि पाकिस्तान में इसके
पानी से वुज़ू करना हराम हो गया था।....‘मेरी नज़र में इंसान की
ही इंसान के ऊपर जुल्म की यह सबसे वीभत्स तस्वीर थी।”[7]
कुछ ऐसा ही वर्णन गुलज़ार
की कविताओं में देखने को मिलता है जब वे लिखते हैं-
“झाग उड़ाती है किनारों से, नदी औंधी पड़ी हाँफ रही है,
‘तापी’ को हैज़ा हुआ है
रात भर शहर में जो दंगों ने कल कै की थी
नालों से बह के चला आया है सब पेट में इसके !
रात भर जलते हुए मांस की गंध आती रही है
रात भर ज़हर भरी उल्टियाँ की है उसने
‘तापी’ को हैज़ा हुआ है !!”[8]
हिन्दी साहित्य में विभाजन
विषयक कहानियों की बात करें तो हिंदी लेखकों पर यह आरोप लगता रहा है कि इसमें विभाजन
संबंधी गंभीर एवं यथार्थपरक रचनाएँ उतनी नहीं लिखी गईं जितना लिखा जाना चाहिए था। यहाँ
तक कि अगर हिंदी कथा- साहित्य को छोड़ दें तो अन्य विधाओं में विभाजन का संदर्भ वाकई
बहुत कम आया है। भौगोलिक दृष्टिकोण से अगर विभाजन को केंद्र में रखकर साहित्य लिखने
वाले साहित्यकारों को देखें तो उनमें से अधिकांश लेखक/लेखिकाएं वे हैं, जिन्हें विभाजन की घटना ने प्रत्यक्ष तौर
पर प्रभावित किया है अथवा वे किसी न किसी रूप में उससे प्रभावित रहे हैं। मुख्य रूप
से सीमावर्ती इलाके जिसका दो हिस्सों में बंटवारा हुआ मसलन पंजाब और बंगाल के साहित्यकारों
को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। हिंदी साहित्य में विभाजन पर कालजयी रचना करने वाले
कथाकारों जैसे मोहन राकेश, अज्ञेय, कृष्णा सोबती, भीष्म साहनी, कमलेश्वर आदि का संबंध पंजाब से रहा है। ये वे रचनाकार थे जो या तो
विभाजन की त्रासदी को प्रत्यक्ष भोग रहे थे या विभाजन से उपजे एक बड़े शून्य को बतौर
नागरिक महसूस कर रहे थे और इस भीषण मानवीय त्रासदी की आँच को महसूस कर रहे थे। परंतु
हिंदी पट्टी का वह क्षेत्र जो विभाजन या यूँ कहें कि पाकिस्तान के निर्माण के विमर्श
का मुख्य केंद्र तो रहा परंतु तुलनात्मक दृष्टि से विभाजन के दौरान हुई हिंसा से उतना
प्रभावित नहीं रहा, वहाँ के हिंदी साहित्यकारों में विभाजन की घटना को लेकर ऐसी बेचैनी
देखने को नहीं मिलती है जैसा कि वहाँ के उर्दू रचनाकारों में मिलती है। इस संदर्भ में
प्रियंवद कुछ तीखे प्रश्न भी करते हैं और साहित्य में विभाजन पूर्व बंटवारे की आहट
को रेखांकित करते हुए कुछ महत्वपूर्ण बात कहतें हैं जिसका यहां उल्लेख किया जाना जरूरी है। वे लिखते हैं- “वे हिंदी लेखक, जो ग़ैर
मुसलमान थे, वे दोनों देशों के सरहदी इलाक़ों के थे, उसमें भी ख़ासतौर से पंजाब के।
इन्होंने बँटवारे की तक़लीफ़ों और दुखों को मुसलमानों के बराबर ही, उतनी शिद्दत और नज़दीक से देखा या कि भोगा। इन सबका बचपन, इनकी जवानी, मुसलमानों के जीवन के साथ
जुड़ी थी। इनके उपन्यासों में वही बरबादी, बेचारगी और तक़लीफ़ें हैं जो मुसलमान लेखकों के उपन्यासों में हैं।....ये
पंजाब के सरहदी इलाक़ों के हिंदी लेखक थे। पर देश की हिंदी पट्टी के, हिंदी भाषा के ‘हिंदू लेखकों’ में, बँटवारे जैसी विभीषिका
और अमानवीयता पर कितनों ने लिखा? जिस त्रासदी में, सदी की जिस सबसे निर्मम घटना में लाखों बेगुनाह तबाह हुए, हज़ारों क़त्ल हुए, बच्चे अनाथ हुए, औरतों की अस्मतें सामूहिक
रूप से लूटी गईं, वह घटना हिंदी पट्टी के, हिंदीभाषी, हिंदू लेखकों की रचनाओं
में कहां हैं? उनकी रचनात्मक संवेदना, मानवीय चेतना में मनुष्य की यह पीड़ा और यातना कितनी धँसी है? उनकी रचनाओं में इसकी गूँज सुनाई भी देती है? दुख, क्षोभ और आश्चर्य की बात
है, कि हिंदी के बहुत बड़े-बड़े
लेखकों की रचनाओं में इस घटना या इसकी पृष्ठभूमि का विशेष रचनात्मक संज्ञान तक नहीं
है।... सवाल अब भी बना हुआ है। हिंदी पट्टी के मुसलमानों ने बँटवारे पर लिखा। उन्होंने
भी, जो पाकिस्तान नहीं गए।
वे सरहदी इलाकों के भी नहीं थे। पर हिंदी पट्टी का, हिंदी भाषा का, हिन्दू लेखक विभाजन की
मानवीय त्रासदी पर, सिवाय एक दो फुसफसाहटों
के, सन्नाटा खींचे क्यों बैठा
रहा? क्यों नहीं उनकी संवेदना
और चेतना में यह पीड़ा और चीत्कार शामिल हुआ जिस तरह सरहद के ग़ैर मुसलमान हिंदी भाषी
लेखकों में हुआ?”[9]
हिन्दी कवि तो लगभग पूरी
तरह विभाजन की त्रासदी छूने से कतराते रहे। यह भी सच है कि हिन्दी लेखकों की तुलना
में उर्दू लेखकों में इतिहास की इस बड़ी त्रासदी को लेकर ज्यादा बड़ा सरोकार रहा है।
मुद्राराक्षस लिखते हैं- “विभाजन की इस विराट त्रासदी
को लेकर हिन्दी में कोई सआदात हसन मंटो पैदा क्यों नहीं हुआ? क्यों नहीं उनकी तरह ‘टोबाटेक सिंह’ या ‘खोल दो’ जैसी दिल दहलाने वाली कहानियाँ
लिख पाया? यही नहीं, हिन्दी के उस समय के अनेकानेक बड़े कविगण भी इस मानवीय त्रासदी
पर कुछ खास नहीं लिख पाए और लगभग खामोश से रहे। अज्ञेय, त्रिलोचन, केदार नाथ अग्रवाल जैसे
बड़े रचनाकार उस वक़्त संवेदनशील युवा जैसे ही थे। इलाचन्द्र जोशी, अमृत राय, भैरव प्रसाद गुप्त जैसे
साहित्यकार भी काफी बड़ी संख्या में थे। अज्ञेय तो एक समय क्रांतिकारी संगठन में ही
थे। उन्होंने तार सप्तक तो निकाला, लेकिन उनका कोई सरोकार विभाजन के समय हुई मानवीय त्रासदी से
क्यों नहीं रहा? दिनकर से लेकर सोहन लाल द्विवेदी तक ने गांधी पर तो खूब लिखा
लेकिन समझ नहीं आता कि सांप्रदायिक हिंसा को लेकर गांधी की सबसे बड़ी चिंता उनका मुख्य
सरोकार क्यों नहीं बन पायी? आजादी की लड़ाई में भी हिन्दी लेखकों ने ज्यादा सरोकार नहीं
दिखाया। इस दौर में भी वे छायावाद या रहस्यवाद के इर्द-गिर्द ही घूमते नजर आए।”[10] हालांकि इस संबंध में एक
उल्लेखनीय कविता की चर्चा की जाती है जो ‘अज्ञेय' ने 12 अक्तूबर 1947 से
12 नवंबर 1947 के बीच लिखी थी- ‘शरणार्थी' शीर्षक वाली यह लंबी कविता ग्यारह खंडों में है और उस समय की
त्रासदी का बेहद मार्मिक चित्रण करती है।
विभाजन केंद्रित लेखन के
संबंध में लेखकों पर यह आक्षेप भी लगता रहा है कि उन्होंने इस विषय पर लिखने में काफी
समय लिया या यूँ कहें कि उन लेखकों ने अपने साहित्य के माध्यम से विभाजन जैसी भीषण
और त्रासदपूर्ण घटनाओं के विरोध में अपनी तत्काल प्रतिक्रियाएं दर्ज नहीं की। अगर रचना
काल की बात करें तो यह सच है कि कुछ रचनाओं को छोड़ दें तो विभाजन केंद्रित अधिकांश
उपन्यास, कहानियां, कविताएं आदि 1960 के दशक या इसके आस-पास या उसके काफी बाद लिखी गई हैं। इस संबंध में कृष्ण बलदेव
वैद कहते हैं-“कई लोगों ने जान-बूझकर या अनजाने में एक बड़ा वक्त गुजर जाने दिया। मैंने विभाजन
पर कोई कहानी नहीं लिखी थी, लेकिन उन दिनों के बारे में उपन्यास लिखने में अपना वक्त़ लिया।
मुझे शुबहा है कि मेरे ज़ेहन में ‘विभाजन आधारित उपन्यास’ लिखने को लेकर एक प्रतिरोध
था।...देर, कुछ तो उन यादों का सामना
करने से बचने के कारण हुई, कि थोड़ा और वक्त़ गुजर जाए। उन दिनों की याद कभी धुंधली नहीं
पड़ी। हो सकता है, वक्त़ ने उन्हें ज़रूरी ख़ास शक्ल लेने में मदद की हो।.... जहां तक मुझे याद आता है, मैं यह मानता रहा कि विभाजन
के मुजरिम हिंदू और मुसलमान दोनों ही थे, और साथ ही यह उम्मीद भी करता था कि अतीत से कुछ निकल सकता है।”[11]
कृष्णा सोबती इस बारे में
लेखकों की रचना प्रक्रिया के माध्यम से विभाजन के पश्चात उस समय के साहित्यकारों में
पसरे एक ‘लंबे मौन’ को लेकर कहती हैं- “विभाजन का इतिहास अब तीन
पीढ़ी पुरानी बात है। मेरी पीढ़ी के रचनाकारों के लिए यह सबसे दर्दनाक अनुभव रहा है।
यह एक तरह से हम लोगों के लिए यथार्थ से टकराने जैसा था, यह साझी-संस्कृति या यूँ कहें
की भाईचारे और अनेकता की दीर्घ परंपरा का राजनीतिक एजेंडे से सीधा टकराव था।....सरहद
के दोनों ओर के लेखकों ने जल्द ही यह महसूस किया कि इतनी नफरत, हिंसा और हत्या के बाद
मानवीय मूल्यों को स्थापित और मज़बूत करना ही होगा। राजनीतिक और धार्मिक विभाजन के
बावजूद, एक लेखक के रूप में हम लोगों को फिर से यह स्थापित करना पड़ा कि दोनों समुदायों
के लोग सदियों से एक ही जगह आपसी-सद्भाव से रहते थे, ठीक उसी तरह से जैसे चचेरे-ममेरे,
भाई-बहन आपस में रहते हैं, लड़ते हैं और फिर एक-दूसरे से प्यार करते हैं।..... हम समाज-वैज्ञानिकों
की रूढ़ शब्दावलियों से परिचित हैं। राजनेता भी कई बार सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर पेश
करते हैं। हमारे लिए उस दौर की स्मृतियां भी अक्सर विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त
हो जाती हैं। मेरे ख़्याल से इसलिए उपन्यासकारों में थोड़े समय तक इंतज़ार किया, ताकि वे अपने मानसिक और मनोवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों से पीछा छुड़ाकर
विभाजन को एक संतुलित नज़रिए से देख पाएँ। इसलिए विभाजन के बारे में भारत और पाकिस्तान
में जो कथा साहित्य लिखा गया उसमे वर्णित हिंसा और अमानवीयता की कहानियाँ ज्यादा हैं, इसके बावजूद भी वह मूलभूत मानवीय मूल्यों की स्थापना को लेकर ही प्रयासरत
है।”[12]
विभाजन केंद्रित साहित्य
लिखने वाले रचनाकारों ने विभाजन की त्रासदी को अगल-अलग ढ़ंग से देखा और समझा है। इसलिए
विभाजन को केंद्र में रखकर साहित्य रचने के पीछे का उनका उद्येश्य भी भिन्न रहा है।
कमलेश्वर के लिए विभाजन परक साहित्य लिखने का एक उद्येश्य, पछतावे और पश्चाताप का बोध कराना रहा है। वे लिखते हैं- मैंने अपने
विभाजन परक साहित्य में यह जताने की कोशिश की है कि भले ही इस उपमहाद्वीप को दो राष्ट्रों
में तक़सीम करने का कुछ औचित्य दिया जाए, इस राजनैतिक सरहद के दोनों तरफ़ के संवेदनशील इंसानों के जीवन में
इसका पछतावा बना रहेगा।”[13] वहीं इंतज़ार हुसैन को
विभाजन के बाद दोनों मुल्कों के लोगों में अपनी ‘सांस्कृतिक अस्मिता’ को खोजने की बेचैनी ने इस विषय पर लेखन के लिए प्रेरित किया। इस बारे
में वे बताते हुए कहते हैं- “व्यक्तिगत, ऐतिहासिक तथा आध्यात्मिक पहचान का पूरा सवाल मेरे लिए विभाजन के बाद
एक अहम मसला बन गया। विभाजन ने उन सारे घटकों को बदल कर रख दिया, जो मुस्लिम पहचान को निर्मित करते थे। अचानक से मुसलमानों को लगने
लगा कि उन्हें फिर से यह परिभाषित करना होगा कि वे क्या थे और उनकी संस्कृति या विरासत
क्या थी। हो सकता है कि कुछ लोग अपनी कल्पना में एक ऐसी पहचान को गढ़ लें जिससे वे
संतुष्ट हों, लेकिन कई और लोगों के लिए
उनके अपनी पहचान के सवाल को हल करना इतना आसान काम नहीं था। उनके सामने सवाल उस अतीत
से रिश्ते का था जो कभी उन्हें परिभाषित करता था- जो अतीत वे हिंदुस्तान में पीछे छोड़
आए थे। उन्हें महसूस हुआ कि अब तक जिसे वे स्वाभाविक रूप से अपने इस्लामिक अतीत का
हिस्सा समझते आए थे- ताज और मुगल स्थापत्य, मीर और ग़ालिब- वे सभी चीजें तो अब हिंदुस्तान का हिस्सा हैं। पाकिस्तान
के मुस्लिम किस तरह उस अतीत से अपना रिश्ता जोड़ सकते थे और उसका उपयोग अपनी पहचान
को परिभाषित करने के लिए कर सकते थे? लगता था कि विभाजन ने इतिहास का भी बँटवारा कर दिया है। मुस्लिमों
के लिए ऐसे कई और भी सवालों का जवाब पाना मुश्किल हो रहा था। बतौर अफ़सानानिगार मैंने
इन सवालों से जूझने की भरसक कोशिश की। जाहिर है मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं और ना ही
कोई इतिहासकार। इसलिए मेरे कई अफ़सानों के सरोकार, जैसा कि आप जानते हैं, 1947 के पहले की मेरी ज़िंदगी के अहम पहलूओं से जुड़े हैं। एक कहानी
लेखक के तौर पर मैं हमेशा इन्हीं सवालों के बारे में सोचता रहा और इसलिए अपनी कहानियों
के माध्यम से उसे समझने की कोशिश की है। कमोबेश यही चीजें मेरी रचनाओं के केंद्र में
रही हैं।”[14]
अगर भारतीय परिदृश्य में
हम विभाजन की घटना का जिक्र करते हैं तो यह इतिहास, साहित्य या कला की अन्य अभिव्यक्तियों से लेकर आम जनमानस में
अब तक की सबसे बड़ी त्रासदपूर्ण घटनाओं के रूप में विद्यमान है। विभाजन ने हिन्द-पाक
सरजमीं पर सदियों से एक साथ रह रहे दो कौमों को न केवल भौगोलिक स्तर पर बाँटने का काम
किया, बल्कि दोनों धर्मों के बीच अविश्वास, भय, ईर्ष्या और टकराव
की ऐसी पृष्ठभूमि तैयार कर दी कि आज तक दोनों समुदाय सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर एक
दूसरे के साथ सहज नहीं हो पाए हैं। दोनों मुल्कों की आवाम के बीच एक झुंझलाहट भरी बेतुकी
प्रतिस्पर्धा तो रहती ही है, साथ ही एक ही मुल्क के दो भिन्न आवामों के बीच भी एक अजीब
चिड़चिड़ापन और खीज भरा रिश्ता बना हुआ है। दोनों समुदायों के लोगों में आज भी एक-दूसरे
के पूर्वजों के लिए थोड़ा अफसोस, थोड़ी निराशा, थोड़ी शंका और थोड़ा गुस्सा शामिल है। किसी
भी राष्ट्र और समाज के लिए इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि वहां लोग भौतिक
रूप से एक साथ रहते हुए भी मानसिक स्तर पर पूरी तरह से एक दूसरे के साथ नहीं हैं। इसी
आपसी फूट का इस्तेमाल कर धर्म और राजनीति के ठेकेदार अपने राजनीतिक हित साधते आ रहे
हैं। विडंबना यह भी है कि समाज और राजनीति में प्रतिनिधित्व के जिस प्रश्न को सामने
रखकर पाकिस्तान का तर्क गढ़ा गया था, वह प्रश्न आज भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं को और हिंदुस्तान में काफी हद
तक मुसलमानों के सामने उसी तरह से खड़ा है। और यही सवाल इन दो समुदायों के बीच कभी आंतरिक
कलह तो कभी प्रत्यक्ष हिंसा का कारण बनता है, जिसे मात्र धार्मिक या साम्प्रदायिक हिंसा
के रुप में प्रचारित किया जाता है, जो न सिर्फ मूल सवालों से, मूल मुद्दों और समस्याओं
से आवाम का ध्यान हँटाता है, बल्कि लोगों में इस तरह की घटना के प्रतिकार के रूप में उनके
गुस्से को हवा देता है जो फिर किसी नए स्थान, समय और लोगों को इस तरह की हिंसा का शिकार
बनाता है। सदियों से एक-साथ रहने वाले दो भिन्न समुदाय के लोग अपनी साझी विरासत और
संस्कृति को विकसित करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में जिस रचनात्मकता और जोश के साथ अंग्रेजों
से लोहा लेते हुए आजादी की दहलीज़ तक साथ आए थे। उनके विश्वासों और साझेपन की संस्कृति
को विभाजन की घटना से गहरा धक्का पहुँचा था। विभाजन की घटना ने हिंदू और मुसलमानों
के बीच भय और अविश्वास की एक गहरी खाई बना दी थी।
भारत विभाजन, राष्ट्रीय
आंदोलन की एक अवांछित व विकृत परिणति थी जो सदियों तक भारतीय राजनीति के स्वरूप, सामाजिक-संरचना,
आर्थिक उन्नति और वैयक्तिक जीवन को प्रभावित करने वाला मुख्य कारण रहा है। यह आधुनिक
भारत के इतिहास की भीषणतम त्रासदी थी जिसने व्यक्ति, समूह तथा राष्ट्र के स्तर पर देश
की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक संरचनाओं को पूरी तरह से छिन्न-भिन्न
कर दिया। विभाजन की घटना ने दीर्घकालिक स्तर पर एक ऐसी त्रासदी उत्पन्न कर दी है जिसका
दंश पीढ़ी दर पीढ़ी, व्यक्तियों के माध्यम से गुजरता जा रहा है जिससे अगली पीढ़ी को
उस क्रूरतम ऐतिहासिक घटनाओं से विस्मृति का कोई अवकाश नहीं मिल रहा है। विभाजन केंद्रित
साहित्य की आलोचना करने के क्रम में एक बात जिस पर गौर किया जाना बेहद जरूरी है वह
ये कि तत्कालीन परिवेश अत्यधिक जटिल था, इसलिए विभाजन जन्य संवेदना भी अनेक जटिल रूपों
में इन साहित्य में देखने को मिलता है। इसलिए कहीं व्यक्ति सामाजिक परिवेश को बदलने
की कोशिश करता रहा तो कहीं इस परिवेश को आत्मसात कर अपनी दयनीयता का दोष अपने भाग्य
को देता रहा। विभाजन से संबंधित साहित्य आज एक इतिहास के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत
है। और निर्विवाद रूप से हम यह कह सकते हैं कि विभाजन संबंधी साहित्य-लेखन ने सामाजिक
विकास के क्रम में एक उच्च स्तर की प्रगतिशील एवं ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। इसने इतिहास
के बरअक़्स एक समानांतर इतिहास लिखने की भी कोशिश की है जिसमें केवल आंकड़ें और तथ्य
ही नहीं है, बल्कि मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा भी है।
संदर्भ :
[1] बच्चन सिंह, आधुनिक हिंदी आलोचना के बीज शब्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृ. 114
[2] प्रियंवद, भारत विभाजन की अंतःकथा, हिंद पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, पृ. 17
[3] पंडित गुरुचरण सिंह, सुमन (सं.), नरेंद्र मोहन रचनावली, संजय प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृ. 274
[4] आलोचना त्रैमासिक (सं.- आशुतोष कुमार), अंक-उनसठ, पृ. 102
[6] https://tareekhblog.wordpress.com/2017/06/05/, The best of the
fiction writers about the partition are not concerned with merely telling
stories of violence, but with making profoundly troubled inquiry about the
survival of our moral being in the midst of horror.;
[8] गुलज़ार, प्लूटो, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृ. 137
[9] आलोचना,
त्रैमासिक पत्रिका (सं.-
आशुतोष कुमार), अंक-उनसठ, पृ.-83-86
[10] http://www.samaylive.com/article-analysis-in-hindi
[11] आलोचना,
त्रैमासिक पत्रिका (सं.-
आशुतोष कुमार), अंक-उनसठ, पृ.-126
[12] Bhalla, Alok, Partition Dialouges: memories of
a lost home, p.- 137, The partition of India is
three generations old. For my generation of writers, it was the most traumatic
experience; a kind of encounter between man and reality; a collision between a
political agenda and a long tradition of pluralism. Writers on both sides soon
realized that after so much hatred, violence, and killing, human values had to
be affirmed and restored. As writers, we had to restart that in spite of political
and religious divisions the two communities had lived for centuries in a
workable harmony, almost like cousins. Fiction writers of the post-partition
have testified to this truth in novels such. We are familiar with the coercive
jargon of social scientists. Politicians also distort the reality. Memories of
those times can always be marked by ideological biases. That’s why, I think,
novelists waited till they got rid of their mental and psychological blinkers
and could see the partition with clear sight.....Fiction
about the partition in India and Pakistan has made an attempt, despite the
enormity of horror, it describes, to preserve essential human values.
[13] आलोचना,
त्रैमासिक पत्रिका (सं.-
आशुतोष कुमार), अंक-उनसठ, पृ.-127
[14] Bhalla, Alok, Partition Dialouges: memories of
a lost home, p.- 98, The entire question of
personal, historical and metaphysical identity became urgently important for me
only after the partition. Partition changed all those perceptions about what
constitutes the Muslim identity. Muslims suddenly found that they had to
redefine who they were, and what their culture and their heritage was. It is
possible that some could, in their imaginations, construct an identity for
themselves which was satisfactory to them. But for many others the question of
identity could not be so easily imagined. They wondered about their relation
with Islamic past- the Taj and Mughal architecture, Mir and Ghalib- were now a
part of India. How could the Muslims of Pakistan relate to that past and use it
to define their identity. It seemed to them that even history had been divided
by the partition. All these and other questions became painfully difficult for
the Muslims to answer.
As a fiction
writer, I have tried, to the best of my ability, to grapple with these questions.
I am, of course, neither a philosopher nor a historian. Thus, concern of many
of my stories, as you know, is with the aspect of my own life prior to 1947.
All my thinking about these questions has been as a writer of stories, and I
have tried to understand through my stories. These problems have been, in some
form or another, a central aspect of my fiction.
सुकांत सुमन पी-एच.डी.शोधार्थी
हिंदी विभाग, अंबेडकर
विश्वविद्यालय, दिल्ली
sukantksuman@gmail.com, 9015243700 sukantksuman@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : Prakash salvi Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
एक टिप्पणी भेजें