अमृता प्रीतम की कहानी - जंगली बूटी
साभार : गूगल |
इस तरह प्रभाती का इस अंगूरी के साथ दूसरा विवाह हो गया था। पर एक तो अंगूरी अभी आयु की बहुत छोटी थी, और दूसरे अंगूरी की माँ गठिया के रोग से जुड़ी हुई थी इसलिए भी गौने की बात पाँच सालों पर जा पड़ी थी... फिर एक-एक कर पाँच साल भी निकल गए थे और इस साल जब प्रभाती अपने मालिकों से छुट्टी लेकर अपने गाँव गौना लेने गया था तो अपने मालिकों को पहले ही कह गया था कि या तो वह बहू को भी साथ लाएगा और शहर में अपने साथ रखेगा, या फिर वह भी गाँव से नहीं लौटेगा। मालिक पहले तो दलील करने लगे थे कि एक प्रभाती की जगह अपनी रसोई में से वे दो जनों की रोटी नहीं देना चाहते थे। पर जब प्रभाती ने यह बात कही कि वह कोठरी के पीछे वाली कच्ची जगह को पोतकर अपना चूल्हा बनाएगी, अपना पकाएगी, अपना खाएगी तो उसके मालिक यह बात मान गए थे। सो अंगूरी शहर आ गई थी। चाहे अंगूरी ने शहर आकर कुछ दिन मुहल्ले के मर्दों से तो क्या औरतों से भी घूँघट न उठाया था, पर फिर धीरे-धीरे उसका घूँघट झीना हो गया था। वह पैरों में चाँदी के झाँझरें पहनकर छनक-छनक करती मुहल्ले की रौनक बन गई थी। एक झाँझर उसके पाँवों में पहनी होती, एक उसकी हँसी में। चाहे वह दिन का अधिकतर हिस्सा अपनी कोठरी में ही रहती थी पर जब भी बाहर निकलती, एक रौनक उसके पाँवों के साथ-साथ चलती थी।
“यह क्या पहना है, अंगूरी?”
“यह तो मेरे पैरों की छैल चूड़ी है।”
“और यह उँगलियों में?”
“यह तो बिछुआ है।”
“और यह बाहों में?”
“यह तो पछेला है।”
“और माथे पर?”
“आलीबन्द कहते हैं इसे।”
“आज तुमने कमर में कुछ नहीं पहना?”
“तगड़ी बहुत भारी लगती है, कल को पहनूँगी। आज तो मैंने तौक भी नहीं पहना। उसका टाँका टूट गया है। कल शहर में जाऊँगी, टाँका भी गढ़ाऊँगी और नाक कील भी लाऊँगी। मेरी नाक को नकसा भी था, इत्ता बड़ा, मेरी सास ने दिया नहीं।”
इस तरह अंगूरी अपने चाँदी के गहने एक नखरे से पहनती थी, एक नखरे से दिखाती थी।
पीछे जब मौसम फिरा था, अंगूरी का अपनी छोटी कोठरी में दम घुटने लगा था। वह बहुत बार मेरे घर के सामने आ
बैठती थी। मेरे घर के आगे नीम के बड़े-बड़े पेड़ हैं, और इन पेड़ों के पास ज़रा ऊँची जगह पर एक पुराना कुआँ है। चाहे मुहल्ले का कोई भी आदमी इस कुएँ से पानी नहीं भरता, पर इसके पार एक सरकारी सड़क बन रही है और उस सड़क के मज़दूर कई बार इस कुएँ को चला लेते हैं जिससे कुएँ के गिर्द अक्सर पानी गिरा होता है और यह जगह बड़ी ठण्डी रहती है।
“क्या पढ़ती हो बीबीजी?” एक दिन अंगूरी जब आई, मैं नीम के पेड़ों के नीचे बैठकर एक किताब पढ़ रही थी।
“तुम पढ़ोगी?”
“मेरे को पढ़ना नहीं आता।”
“सीख लो।”
“ना।”
“क्यों?”
“औरतों को पाप लगता है पढ़ने से।”
“औरतों को पाप लगता है, मर्द को नहीं लगता?”
“ना, मर्द को नहीं लगता?”
“यह तुम्हें किसने कहा है?”
“मैं जानती हूँ।”
“फिर तो मैं पढ़ती हूँ, मुझे पाप लगेगा?”
“सहर की औरत को पाप नहीं लगता, गाँव की औरत को पाप लगता है।”
मैं भी हँस पड़ी और अंगूरी भी। अंगूरी ने जो कुछ सीखा-सुना हुआ था, उसमें कोई शंका नहीं थी, इसलिए मैंने उससे कुछ न
कहा। वह अगर हँसती-खेलती अपनी ज़िन्दगी के दायरे में सुखी रह सकती थी, तो उसके लिए यही ठीक था। वैसे मैं अंगूरी के मुँह की ओर ध्यान लगाकर देखती रही। गहरे साँवले रंग में उसके बदन का मांस गुथा हुआ था। कहते हैं --औरत आटे की लोई होती है। पर कइयों के बदन का मांस उस ढीले आटे की तरह होता है जिसकी रोटी कभी भी गोल नहीं बनती, और कइयों के बदन का मांस बिलकुल खमीरे आटे जैसा, जिसे बेलने से फैलाया नहीं जा सकता। सिर्फ किसी-किसी के बदन का मांस इतना सख्त गुँथा होता है कि रोटी तो क्या चाहे पूरियाँ बेल लो।...मैं अंगूरी के मुँह की ओर देखती रही, अंगूरी की छाती की ओर, अंगूरी की पिण्डलियों की ओर... वह इतने सख्त मैदे की तरह गुथी हुई थी कि जिससे मठरियाँ तली जा सकती थीं और मैंने इस अंगूरी का प्रभाती भी देखा हुआ था, ठिगने कद का, ढलके हुए मुँह का, कसोरे जैसा और फिर अंगूरी के रूप की ओर देखकर उसके खाविन्द के बारे में एक अजीब तुलना सूझी कि प्रभाती असल में आटे की इस घनी गुथी लोई को पकाकर खाने का हकदार नहीं -- वह इस लोई को ढककर रखने वाला कठवत है। इस तुलना से मुझे खुद ही हंसी आ गई। पर मैं अंगूरी को इस तुलना का आभास नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए उससे मैं उसके गाँव की छोटी-छोटी बातें करने लगी।
माँ-बाप की, बहन-भाइयों की, और खेतों-खलिहानों की बातें करते हुए मैंने उससे पूछा, “अंगूरी, तुम्हारे गाँव में शादी कैसे होती है?”
“लड़की छोटी-सी होती है। पाँच-सात साल की, जब वह किसी के पाँव पूज लेती है।”
“कैसे पूजती है पाँव?”
“लड़की का बाप जाता है, फूलों की एक थाली ले जाता है, साथ में रुपए, और लड़के के आगे रख देता है।”
“यह तो एक तरह से बाप ने पाँव पूज लिए। लड़की ने कैसे पूजे?”
“लड़की की तरफ से तो पूजे।”
“पर लड़की ने तो उसे देखा भी नहीं?”
“लड़कियाँ नहीं देखतीं।”
“लड़कियाँ अपने होने वाले खाविन्द को नहीं देखतीं?”
“ना।”
“कोई भी लड़की नहीं देखती?”
“ना।”
पहले तो अंगूरी ने ‘ना’ कर दी पर फिर कुछ सोच-सोचकर कहने लगी, “जो लड़कियाँ प्रेम करती हैं, वे देखती हैं।”
“तुम्हारे गाँव में लड़कियाँ प्रेम करती हैं?”
“कोई-कोई।”
“जो प्रेम करती हैं, उनको पाप नहीं लगता?” मुझे असल में अंगूरी की वह बात स्मरण हो आई थी कि औरत को पढ़ने से पाप लगता है। इसलिए मैंने सोचा कि उस हिसाब से प्रेम करने से भी पाप लगता होगा।
“पाप लगता है, बड़ा पाप लगता है,” अंगूरी ने जल्दी-से कहा।
“अगर पाप लगता है तो फिर वे क्यों प्रेम करती हैं?”
“जे तो...बात यह होती है कि कोई आदमी जब किसी की छोकरी को कुछ खिला देता है तो वह उससे प्रेम करने लग जाती है।”
“कोई क्या खिला देता है उसको?”
“एक जंगली बूटी होती है। बस वही पान में डालकर या मिठाई में डाल कर खिला देता है। छोकरी उससे प्रेम करने लग जाती है। फिर उसे वही अच्छा लगता है, दुनिया का और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।”
“सच?”
“मैं जानती हूँ, मैंने अपनी आँखों से देखा है।”
“किसे देखा था?”
“मेरी एक सखी थी। इत्ती बड़ी थी मेरे से।”
“फिर?”
“फिर क्या? वह तो पागल हो गई उसके पीछे। सहर चली गई उसके साथ।”
“यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखी को उसने बूटी खिलाई थी?”
“बरफी में डालकर खिलाई थी। और नहीं तो क्या, वह ऐसे ही अपने माँ-बाप को छोड़कर चली जाती? वह उसको बहुत चीज़ें लाकर देता था। सहर से धोती लाता था, चूड़ियाँ भी लाता था शीशे की, और मोतियों की माला भी।”
“ये तो चीज़ें हुईं न! पर यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि उसने जंगली बूटी खिलाई थी?”
“नहीं खिलाई थी तो फिर वह उसको प्रेम क्यों करने लग गई?”
“प्रेम तो यों भी हो जाता है।”
“नहीं, ऐसे नहीं होता। जिससे माँ-बाप बुरा मान जाएँ, भला उससे प्रेम कैसे हो सकता है?”
“तूने वह जंगली बूटी देखी है?”
“मैंने नहीं देखी। वो तो बड़ी दूर से लाते हैं। फिर छिपाकर मिठाई में डाल देते हैं, या पान में डाल देते हैं। मेरी माँ ने तो पहले ही बता दिया था कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाना।”
“तूने बहुत अच्छा किया कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाई। पर तेरी उस सखी ने कैसे खा ली?”
“अपना किया पाएगी।”
‘किया पाएगी’ कहने को तो अंगूरी ने कह दिया पर फिर शायद उसे सहेली का स्नेह याद आ गया या तरस आ गया, दुखे मन से कहने लगी, “बावरी हो गई थी बेचारी! बालों में कंघी भी नहीं लगाती थी। रात को उठ-उठकर गाती थी।”
“क्या गाती थी?”
“पता नहीं, क्या गाती थी। जो कोई जड़ी-बूटी खा लेती है, बहुत गाती है। रोती भी बहुत है।”
बात गाने से रोने पर आ
पहुँची थी। इसलिए मैंने अंगूरी से और कुछ न पूछा।
और अब थोड़े ही दिनों की बात है। एक दिन अंगूरी नीम के पेड़ के नीचे चुपचाप मेरे पास आ
खड़ी हुई। पहले जब अंगूरी आया करती थी तो छन-छन करती, बीस गज़ दूर से ही उसके आने की आवाज़ सुनाई दे जाती थी, पर आज उसके पैरों की झाँझरें पता नहीं कहाँ खोई हुई थीं। मैंने किताब से सिर उठाया और पूछा, “क्या बात है, अंगूरी?”
अंगूरी पहले कितनी ही देर मेरी ओर देखती रही और फिर धीरे-से बोली, “मुझे पढ़ना सीखा दो बीबी जी...” और चुपचाप फिर मेरी आँखों में देखने लगी।
लगता है इसने भी जंगली बूटी खा ली...
“क्यूँ अब तुम्हें पाप नहीं लगेगा, अंगूरी?” यह दोपहर की बात थी शाम को जब मैं बाहर आई तो वह वहीं नीम के पेड़ के नीचे बैठी थी और उसके होंठो पर गीत था पर बिलकुल सिसकी जैसा... मेरी मुन्दरी में लागो नगीन्वा, हो बैरी कैसे काटूँ जोबनावा ... अंगूरी ने मेरे पैरों की आहट सुन ली और चुप हो गई...
“तुम तो बहुत मीठा गाती हो... आगे सुनाओ न गा कर।”
अंगूरी ने अपने काँपते आँसू वही पलकों में रोक लिए और उदास लफ्ज़ों में बोली, “मुझे गाना नहीं आता है।”
“आता तो है।”
“यह तो मेरी सखी गाती थी उसी से सुना था।”
“अच्छा मुझे भी सुनाओ पूरा।”
“ऐसे ही गिनती है बरस की... चार महीने ठण्डी होती है, चार महीने गर्मी और चार महीने बरखा,” और उसने बारह महीने का हिसाब ऐसे गिना दिया जैसे वह अपनी उँगलियों पर कुछ गिन रही हो।
“अंगूरी?”
और वह एक टक मेरे चेहरे की तरफ देखने लगी... मन में आया कि पूछूँ की कहीं तुमने जंगली बूटी तो नहीं खा ली है... पर पूछा कि, “तुमने रोटी खाई?”
“अभी नहीं।”
“सवेरे बनाई थी? चाय पी तुने?”
“चाय? आज तो दूध ही नहीं लिया।”
“क्यों नहीं लिया दूध?”
“दूध तो वह रामतारा...”
वह हमारे मुहल्ले का चौकीदार था, पहले वह हमसे चाय लेकर पीता था पर जब से अंगूरी आई थी वह सवेरे कहीं से दूध ले आता था, अंगूरी के चूल्हे पर गर्म करके चाय बनाता और अंगूरी, प्रभाती और रामतारा, तीनों मिल कर चाय पीते... और तभी याद आया कि रामतारा तो तीन दिन से अपने गाँव गया हुआ है।
मुझे दुखी हुई हँसी आई और कहा कि “क्या तूने तीन दिन से चाय नहीं पी है?”
“ना।”
“और रोटी भी नहीं खाई है न?”
अंगूरी से कुछ बोला न गया... बस आँखों में उदासी भरे वहीं खड़ी रही...।
मेरी आँखों के सामने रामतारा की आकृति घूम गई... बड़े फुर्तीले हाथ-पाँव, अच्छा बोलने, पहनने का सलीका था।
“अंगूरी... कहीं जंगली बूटी तो नहीं खा ली तूने?”
अंगूरी के आँसू बह निकले और गीले अक्षरों से बोली, “मैंने तो सिर्फ चाय पी थी... कसम लगे न कभी उसके हाथ से पान खाया, न मिठाई... सिर्फ चाय... जाने उसने चाय में ही...” और अंगूरी की बाकी आवाज़ आँसुओं में डूब गई।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
पहली बार पढ़ी कहानी ...... रोचक, नम, कोमल ...शुक्रिया
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