हिमाचल प्रदेश की गद्दी
जनजाति के त्योहार
भरत सिंह
शोध सार :
सांस्कृतिक दृष्टि से इस समुदाय की देश तथा प्रदेश में अपनी एक विशिष्ट पहचान है | पृथक जीवन-पद्धति, रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेशभूषा, लोकाचार तथा लोकसंस्कृति में निजीपन लिए हुए एक अलग समुदाय-विशेष का परिचायक है | जनजातीय क्षेत्र भरमौर को प्राकृतिक दृष्टिकोण से जहाँ अद्वितीय सौन्दर्य प्राप्त है वहीं इस समुदाय के लोगों में कलात्मक दृष्टिकोण से अच्छी समझ एवं परख की क्षमता निहित है | यहाँ विभिन्न सामाजिक उत्सवों, त्योहारों, मेलों तथा रीति-रिवाजों में लोकसंस्कृति की अनूठी मिसाल मिलती है | आधुनिक सुख-सुविधाओं, जनसंचार एवं यातायात के अभाव में गद्दी समुदाय के मनोरंजन के साधन यहाँ के पारम्परिक लोकगीत, लोकनाट्य, मेले एवं त्योहार हैं जिनके सुअवसर पर गद्दी लोग अपने पारम्परिक वस्त्राभूषण में सुसज्जित होकर लोकनृत्य एवं सामूहिक गायन करते हैं | इन लोकोत्सवों में स्थानीय लोकमानस की समृद्ध संस्कृति के दिग्दर्शन होते हैं | विवेच्य समाज में ‘लोहड़ी’ बसोआ, ढोलरु, हैइरी, पत्रोडू, शिवरात्रि आदि प्रमुख त्योहार हैं जिनमें गद्दी लोकमानस के धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जनजीवन का वास्तविक रूप प्रदर्शित होता है | हालाँकि संस्कृतियों के आपसी संक्रमण एवं पाश्चात्य प्रभाव के कारण इनकी लोक-संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा है लेकिन किसी विशेष उत्सवों यथा- विवाह, धार्मिक अनुष्ठान, मेले, जात्रा(यात्रा) एवं त्योहारों के उपलक्ष्य पर इस समुदाय ने सम्प्रतिकाल वर्तमान में भी अपनी लोकसंस्कृति एवं परम्परा को अक्षुण्ण बनाए रखा है |
बीज - शब्द : ब्रह्मपुर, गद्दी, लोकमानस, लोकसंस्कृति, सक्रांति, लोहड़ी, बसोआ, ढोलरु, हैइरी, पत्रोडू, सैरी, शिवरात्रि, होली, मिंजर, दीपावली |
मूल आलेख :
किसी भी आंचलिक क्षेत्र के रहन-सहन,
वस्त्राभूषण, आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज तथा लोकसंस्कृति की स्पष्ट झाँकी उस जनपद
के मेलों एवं त्योहारों में स्पष्टतः परिलक्षित होती है क्योंकि मेले एवं
त्योहारों के उपलक्ष्य पर सम्बन्धित जनपद के धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक जीवन
का यथार्थ रूप प्रस्तुत होता है | अतः किसी भी समाज में सांस्कृतिक जीवन का सही
रूप मेलों तथा त्योहारों के अवसर पर ही देखने को मिलता है | इन्हीं में उस क्षेत्र
की लोकपरम्परा, इतिहास, सामाजिक परिवेश का बिम्ब उभरता है, यहीं लोगों के वर्तमान
को अतीत से बाँधकर उनकी मूल परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाए रखते हैं |
जहाँ मेले और त्योहार सबको एकता के सूत्र से बांधते हैं, तो वहीं यह हमारे
अतीत की लड़ी के साथ सम्बन्ध जोड़कर विभिन्न देवी-देवताओं से जुड़ी गाथाओं के साथ
जीवन का तारतम्य जोड़ते हैं | हिमाचल प्रदेश में मनाए जाने वाले त्योहारों का
प्रदेश की बदलती ऋतुओं और फसलों के पकने से सीधा सम्बन्ध है | प्रत्येक नई ऋतु व
नई फसल के आने या पकने पर त्योहार मनाने की परम्परा है | अतएव मेले एवं त्योहार
किसी क्षेत्र विशेष की पारम्परिक विरासत का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करते हैं |
चूँकि भौगोलिक दृष्टि से पहाड़ी क्षेत्र होने के कारणवश जनसामान्य के सामूहिक
मनोरंजन तथा हर्षोल्लास का एकमात्र माध्यम स्थानीय मेले व त्योहार होते हैं |
गद्दी जनजीवन में इन त्योहारों तथा मेलों का विशेष महत्त्व तथा एक समृद्ध
परंपरा रही है | भौगोलिक दुर्गमता, दूर-दराज के क्षेत्रों तथा हिमखंडों, यातायात
की अभावग्रस्ता के कारणवश लोगों का मेलजोल प्रायः कम ही होता है | आपसी मेलजोल,
हास-परिहास, आचार-व्यवहार तथा जीवन की नीरसता को दूर करने के उद्देश्य से ये मेले,
जात्राएँ व त्योहार जनजातीय क्षेत्र में मनोरंजन तथा आपसी सौहार्द्र की भावना को
जागृत करता है | अतः गद्दी लोकसंस्कृति में वर्ष भर में अनेक मेले तथा त्योहार
मनाए जाने की परम्परा है | ये आयोजन किसी विशेष अवसर यथा - ‘सरगांद(सक्रांति),
ऋतु-परिवर्तन, नई फसल के पकने अथवा किसी धार्मिक स्मृति के सुअवसर पर होते हैं|
“गद्दी जाति के त्यौहारों में ढोलरु, बसो, पत्रोड़ू, श्राद्ध, हैइरी, लोहड़ी,
शिवरात्रि और होली है |”[2]
विवेचित सभी प्रकार के त्योहारों एवं मेलों में गद्दी जनजीवन के वास्तविक
लोकपरम्पराओं का जीवंत व यथार्थ स्वरूप
परिलक्षित होता है |
1. ढोलरु –
गद्दी त्योहारों की तिथियाँ देसी विक्रमी-सम्वत् के महीने के अनुसार गिनी
जाती हैं | प्रत्येक महीने का पहला दिन ‘सक्रांति’ कहकर पुकारा जाता है | ‘ढोलरु’
त्योहार चम्बा-काँगड़ा जनपद के गद्दी तथा विशेष रूप से ‘डोम’ जाति के लोगों द्वारा
मनाया जाता है | यह त्योहार चैत्र-मास की सक्रांति के दिन मनाया जाता है | गद्दी
लोकसंस्कृति के अनुसार इसी दिन से वर्ष का आरम्भ अर्थात विक्रमी सम्वत्, चैत्र मास
से माना जाता है | इसी पद्धति के आधार पर वर्ष के महीनों तथा दिनों का लेखा-जोखा
गद्दी लोकजीवन में परम्परित है | नववर्ष की मंगलकामना के परिमाणस्वरूप ‘डोम’ जाति
के लोग घर-घर जाकर ‘ढोलरु’ गायन करते हैं | “उनके मुख से नए महीनों का नाम सुनना
शुभ माना जाता है | महिना-भर ‘ढोलरु’ गाए जाते हैं, जो शुभ संवत के मंगलगीत हैं |
गाँवों के दूर-पार बजते ढोलरु बड़े सुहाने तथा आकर्षक लगते हैं |”[3]
‘ढोलरु’ त्योहार के उपलक्ष्य पर गद्दी समुदाय के लोग अपने इष्ट देवी-देवताओं की
पूजा-अर्चना करते हैं तथा मीठा पकवान जिसमें-खिचड़ी, खीर आदि पकाने का रिवाज
परम्परित है |
2. बसो (बसोआ)
–
गद्दी समाज में बसो या बसोआ त्योहार
विशेष रूप से बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है | यह बैसाख-सक्रांति का त्योहार है
| इस त्योहार की प्रतीक्षा गद्दी समुदाय को कितने दिवस पूर्व हो जाती है क्योंकि
इस समय ‘जान्धर’(मैदानी इलाकों) गए लोगों को अपने गद्दियार प्रदेश का स्मरण आने
लगता है | अतः भेड़-बकरियों के रेबड़ के साथ सड़कों पर लम्बी-लम्बी कतारों सहित पीठ
पर ‘तियोड़ी’(बोझा) लिए गद्दी लोग भरमौर की ओर पलायन करते हैं | छः मास के कठिन
परिश्रम, लम्बे और थकान भरे रास्तों को चीरकर अपनी गद्दियार-बस्ती में ‘बसो’ मनाने
की लालसा स्वाभाविक है | गद्दी जनजाति का यही प्रयत्न रहता है कि यह त्योहार अपने
घर जाकर मनाया जाए | अतः ‘बसो’ शब्द का अर्थ ही गृह या बस्ती को नए तरीके से बसाने
से है, इसलिए स्थानीय लोग इस त्योहार को ‘बसो’ कहते हैं अर्थात अपनी बस्ती को नए
तरीके से बसाना ही ‘बसो’ त्यौहार का मूल
ध्येय है |
गद्दियों की प्रत्येक गृहणी यह सोचती है कि वह अपने घर ‘गद्देरण’ जाएगी और
अपने मकान को मिट्टी से लीपकर और पोतकर नया रूप देगी | अतः वह ‘गद्देरण’ में जाकर
अपने मकान को लाल मिट्टी से पोतकर उसपर मकोल सफेदी करते हुए, प्रत्येक कमरे, ओबरी
की छत को झाड़ती, पोंछती हुए पूरे मकान को साफ़-सुथरा करती हुए कलात्मक रूप से अपने
घर को सजाती है | यह लोक कला देखती ही बनती है|
अतः नए वर्ष के नए त्योहार के लिए सम्पूर्ण तैयारियां पूर्ण कर ली जाती हैं
| कुछ दिन पूर्व कोदरे के आटे को देसी ‘घराट’(चक्की) पर पीसकर ‘बसो’ के दो दिन
पूर्व एक कड़ाही या पात्र में उबले हुए पानी में कोदरे का आटा छोड़ दिया जाता है और
कुछ समय के लिए उस आटे को गर्म पानी में रखा जाता है जब तक पककर घुल न जाएँ | अब
उस आटे को कुनाले(लकड़ी की परात) में थोड़ी मात्रा में गंदम का आटा डालकर गुंथा जाता
है और उसे किसी टोकरी में ऐरे(एक पौधा)या कैथ, अखरोट या बुरांश की पत्तियों की तह में बिछा दिया जाता है | इस
आटे की गोल-गोल, किन्तु पिचकी हुई पिनियाँ बनाई जाती हैं और उन पिन्नियों को
पत्तों से ढक दिया जाता है | टोकरी को हर तह पूरी होने पर उसमें खट्टी छाछ की
बौछारे छोड़ी जाती हैं | ‘बसो’ दिवस के अवसर पर उक्त टोकरी को खोलकर देखने पर उनमें कुछ सफेदी छा गई
होती है | अतः सक्रांति के दिन परिवार के समस्त लोग नहा-धोकर सगे-सम्बन्धियों तथा
बहन-बेटियों को बुलाते हैं तथा इन्हें अपने प्रयोग करने से पूर्व सर्वप्रथम पितरों
के निमित्त अर्पित किए जाते हैं उसके पश्चात परिवार के समस्त सदस्य शहद या गुड़ के
पानी के साथ बड़े चाव से खाते हैं |
इस त्योहार के पूर्व घर के आँगन
में गद्दी युवतियाँ और महिलाएँ समूह में एकत्रित होकर रात भर ‘बसोआ’ तथा ‘घुरैई’
गायन की अनुगूँज से सारे वातावरण को भाव-विभोर करती हैं | ‘बसो’ वाले दिन विवाहित
बेटियाँ अपने मायके जाने की प्रतीक्षा में रहती हैं | इस दिन सभी बहनें अपने मायके
पहुँचकर अपने सम्बन्धियों से गले मिलते हुए कुशल-क्षेम पूछती हैं | शाम के समय
समस्त बेटियाँ एकत्रित होकर ‘पिदड़ी’ के लोक गाने गाकर एक दुःखी बहन की दुःखद गाथा
को गाती हैं जिसके मर्म में किसी लड़की के ससुराल वालों से मिलने वाली यातनाओं का
दिग्दर्शन होता है | इस परम्परा को संकेत देता एक गीत इस प्रकार वर्तमान में भी
परम्परित है -
‘बसंदु ता फुल्ले माए घामी-घूमे’
रित आईया सुंगड़ौंणी हो |
अम्मा तो मेरिये कुण तुहार आया हो?
धिये तू मेरिऐ बसोआ तुहार आया हो |
अम्मा ता मरिऐ मेरे बापू जो सादा
भेजे हो,
बापू ता तेरा धिये चम्बे चाकरी हो,
ऐ अप्पू आणा अप्पू जाणा हो |
अम्मा ता मरिऐ मेरे भाई जो सादा
भेजे हो,
भाई ता तेरा धिये निक्का याणा
अप्पू आणा अप्पू जाणा हो |
भेजणा तो भेजी दिएँ न ता,
चिड़ी बरहेड़ी बणी इल्ली हो |
सबनी री नुहाँ सासो पैइये जांदी ए,
मिंजो बी पैइये चाव हो |
सबना दे सादे नुएं आई पुज्जे तेरा न
सादा कोई हो
दराणियाँ जठाणियाँ सासो डाइयां मारे
मुजों भी पैइये भेजें हो |
चले ता चले भईया बैइया वोंधे
सुरहाड़ी रा दुःख-सुख लांदे हो |
पिदड़ी ता पिदड़ी भईया अप्पू खाए,
ऐरे दे पट्ठे मुंजो दित्ते हो |
आप्पू ता खाए भाईया घिउए-चूरे,
छाहे दी छेड़ी मुजों दिति हो |
भाईया ता मेरिया मेरी चितरी घड़ोली
भजी गिया हो
बहणे ता मेरिये तुजो नई घड़ोली देला
हो |
भितलू घुआडे सासो मैई होर घड़ोली
अंदी है
नुएं ता मेरिये मुं सैइये घड़ोली
लैंणी हो
भाईया ता मेरिया , सास सैई घड़ोली मंगदी हो
बहन मेरिये आऊँ सुन्ने घड़ोली दिल्ला
हो
इतणी ता गल्ला भाईया तेरे कन्ने
तेरी अम्मा रा मत हो गलांदा हो |
कुरले ता कुरले अम्मा नदी-घिरे ऐ
नदी गिरेंदड मगरमच्छ हो!
अम्मा तू मेरिये मेरी बहणा दी कषड़ी
सुरहाड़ी हो
धीया न दीणी लोको दूर नदी पार ए
अपणा न मिलदा बैरी कोई हो |”[4]
उक्त लोकगीत में ‘बसो’ का त्योहार
समीप आने पर एक विवाहिता अपनी माता को सम्बोधित करते हुए ‘बसोआ’ के आगमन पर अपने
पिता तथा भाई को मायके बुलाने के लिए आने का निवेदन करती है | किन्तु विवाहिता की
माँ उसके पिता चम्बा दरवार में नौकरी तथा भाई के बाल्यावस्था में होने से उसको
मायके बुलाने की असमर्थता प्रकट करती है और अपनी बेटी को स्वयं मायके आने का
निर्देश देती है | अंततः वह अपनी सासु से अपने मायके जाने का निवेदन करती है किन्तु
उसकी सासुमाँ उसे मायके न भेजने का बहाना बनाकर अनेक प्रकार के अत्याचार करती है |
अंत में विवाहिता का भाई उसके लिए ‘पिदड़ी’ ले आता है किन्तु उसकी निष्ठुर सास उस
तक पहुँचने ही नहीं देती |
विवाहिता अपने भाई के समक्ष अपनी सास
के अवांछनीय व्यवहार की सम्पूर्ण व्यथा सुनाती है | उसका भाई अपनी बहन की दशा
देखकर सुझाव देता है कि किसी को भी अपनी बहन नदी पार नहीं बियाहना चाहिए | इस
प्रकार विवेच्य लोकगीत के बाद अन्य कई संयोग-वियोग सम्बन्धी लोकगीत गाए जाते हैं |
वर्तमान में भी इसी परम्परा का निर्वहन करते हुए, कोई विवाहित बहन या बेटी किसी
कारणवश अपने मायके आने में असमर्थ होती है तो ‘बसो’ के अवसर पर उसका भाई या परिवार
का अन्य सदस्य भेंट स्वरूप उसके लिए ‘पिदड़ी’ दे आता है |
बसोआ त्योहार के सम्बन्ध में
डॉ. गौत्तम शर्मा व्यथित अपनी पुस्तक ‘हिमाचल प्रदेश लोक-संस्कृति और साहित्य’ में
लिखते हैं - “इस त्योहार पर चम्बा में ‘रानी सुई’ की स्मृति में लोकजातराएँ लगती
हैं | चम्बा-पांगी, भरमौर, चुराह भट्टियात आदि के क्षेत्रों में लोग अपनी परम्परागत
वेशभूषा में सज-धजकर इन जातराओं में सम्मलित होते हैं | चम्बा नगर एक बार पुनः
हर्षौल्लास से निखर उठता है | गद्दी, चुराही तथा पंगवाली पुरूष-स्त्रियाँ सुर-शराब
की मस्ती में नाचते-गाते अपना दुःख-दर्द भूल जाते हैं | रानी सुई के गीतों के
दर्द-भरे स्वरों से चम्बा का अपना पुराना इतिहास ताजा हो जाता है |”[5]
3. पतरोडू
(पत्रोडू) –
पत्रोडू त्योहार भाद्रपद या
भादो-सक्रांति का त्योहार है | पत्रोडू-सक्रांति के उपलक्ष्य पर विशेष व्यंजन
‘पत्रोडू’ बनाने का प्रावधान है जो अरबी के पत्तों से बनाए जाते हैं | “इस दिन
गद्दी लोगों के घरों में भुज्जी के पत्तों पर गेहूँ का आटा नमक-बेसन का घोल मलकर
तेल से ‘पतरोडू’ तले जाते हैं | बबरू पकाए जाते हैं | इष्ट मित्रों तथा धी-बहनों
को आमंत्रित किया जाता है और सब मिलकर ‘पतरोड़े’ खाते हैं |”[6]
“भरमौर में इस सक्रांति से फसल की कटाई आरम्भ हो जाती है | फसल की कटाई के बाद
अधिकांश लोग प्रवास करना आरम्भ करते हैं | भादों मास में पितृ-आगमन होता है अतः इस
दिन से पितरों के लिए ‘बत प्रगड़ी’ (रुई या दीपक) देने की प्रथा है | रात के आरम्भ
होने पर प्रांगण में रुई या कपड़े की बत्ती को तेल में भिगोकर रोशनी की जाती है |
विश्वास है कि यह रोशनी पितरों के मार्ग प्रदर्शन के लिए होती है ताकि वह रोशनी
में आ सकें | बत्तियां जलाने का क्रम पूरे भादो मास में रहता है | भादो मास के
अंतिम दिन रही-सही बत्तियों को इकट्टा कर जला दिया जाता है |”[7]
अतः पूरे भादो मास में अपने पितरों को काले महीने(भादो मास को काला महीना कहा जाता
है) में ‘बत प्रेगड़ी’ देना अँधेरे में उजाले का प्रतीक है |
‘पत्रोड़ू’ त्यौहार के उपलक्ष्य पर
गद्दी समुदाय अपने पशुओं के लिए व्युहल(वृक्ष) के सेल(रेशों) से बनाए रस्से(जोड़े)
पहनाते हैं | अतः इस त्योहार का एक ओर अन्य नाम ‘जोडू-पतरोडू’ है | “सैरी की
अपेक्षाप्रवासी क्षेत्र में इसका विशेष महत्त्व है | इसका बड़ा कारण यह है कि
प्रवासी लोगों को जांधर जाने की जल्दी होती है अतः वे इस त्योहार से अपनी फसलें
काटना भी शुरू करते हैं | सैरी तक तो कई लोग प्रस्थान भी कर जाते हैं | अतः इस दिन
इस दिवस को खूब धूमधाम से मनाया जाता है |”[8]
4. हैइरी
–
‘हैइरी’ एक फसली त्योहार है जो
असूज(अश्विन) महीने की सक्रांति को मनाई जाती है | गद्दी जनजाति के अतिरिक्त यह
परम्परा न्यूनाधिक रूप से चम्बा, काँगड़ा, मण्डी तथा हिमाचल-प्रदेश के अन्य जिलों
में सर्वत्र मनाई जाती है | इस अवसर पर मक्के की फसल पकाकर तैयार हो जाती है | इस
अवसर पर गद्दी जनजातीय लोग अपने मूल निवास-स्थान भरमौर को छोड़कर चम्बा, काँगड़ा तथा
मण्डी आदि घाटियों की ओर ओर प्रस्थान करने लगते हैं | अतः गद्दी लोग में यह त्योहार
विदाई-भोज के रूप में मनाया जाता है | इस त्योहार के सुअवसर पर ‘सैर’(सायर) का
पूजन करते हैं जिसमें मक्की, ककड़ी(देसी खीरा), असद तथा खट्टा फल आदि को थाली में रखकर ‘सैरी’ माता का
पूजन किया जाता है |
सक्रांति की पूर्व संध्या पर विशेष पकवान, यथा- बबरू, थोपलू, पत्रोडू तथा
खीर आदि व्यंजन बनाए जाते हैं | सक्रांति की सुबह प्रातःकाल में परिवार के समस्त
सदस्य नहा-धोकर अपनी कुलदेवी तथा देवी-देवताओं को ‘मक्के के भुट्टे’ अर्पित करते
हैं | इस अवसर पर इष्ट मित्रों, सम्बन्धियों तथा बेटियों को सक्रांति के अवसर पर
आमंत्रित पर भोजन करवाया जाता है | यह त्योहार सुख, समृद्धि, दीर्घायु तथा नई फसल
की प्रसन्नता का प्रतीक है | सर्वहारा वर्ग में इसे बड़ा महत्त्व दिया जाता है |
बहुएं बड़ी सजधजकर अपने मायके जाती हैं | पुत्रियों को त्योहारी भेजा जाता है तथा
गाँव में परस्पर पकवान बांटे जाते हैं |
5. लोहड़ी –
“जनजातीय लोगों में यह त्योहार भी कम महत्त्व का नहीं | इस दिन जहाँ
प्रवासी-जन अपने परिवार से बिछड़े रूप में होते हैं | वहां अप्रवासी-जन अपने घरों
में इकट्ठे होते हैं | यह त्योहार हर वर्ग में विशेष महत्त्व का है | यह सर्दियों
का त्योहार है अतः इसे हर स्थान पर गर्म खाद्य पदार्थों की तैयारी से मनाया जाता
है |”[9]
इससे पूर्व एक मास तक ग्रामीण बालिकाएं घर-घर जाकर लोहड़ी सम्बन्धी गीत ‘लूह कडिया’
गाती हैं | लोग उन्हें सम्मानित करके अन्न-धन दान करते हैं | अन्य त्योहारों की
भांति मासांत की संध्या को गद्दी समुदाय स्थानीय पकवान बनाते हैं | रात्रि भोज के
पश्चात चूल्हे में आग जलाकर तिल, चावल, गुड़, अखरोट तथा अन्य सामाग्री श्रद्धा
पूर्वक अर्पित की जाती है तथा पूरे मानव
जाति के प्रति सुख, समृद्धि की कामना की जाती है | अगले दिन मकर-सक्रांति के दिन
प्रातःकाल में स्नानादि करके, खिचड़ी पकाकर देवताओं तथा पित्तरों को चढाई जाती है |
इस अवसर पर बहु-बेटियों तथा सम्बन्धियों को खिचड़ी खाने हेतु बुलाया जाता है।
6. शिवरात्रि
–
गद्दी समुदाय शैवमत के अनुयायी
हैं अतः यह लोग भगवान शिव के प्रति विशेष श्रद्धा रखते हैं | कोई भी शुभ कार्य हो
यह लोग अपने इष्टदेव भगवान शिवजी का स्मरण और पूजा-अर्चना करना नहीं भूलते | शिवरात्रि
फाल्गुन महीने का त्योहार है जो गद्दी समुदाय में बड़े चाव से मनाया जाता है |
स्थानीय अवधारणाओं के अनुसार इस दिन भगवान शंकर पाताललोक से कैलाश पर्वत पर आते
हैं और उनके प्रति श्रद्धाभाव व अनन्य भक्ति के परिणामतः इस दिन कई लोग निराहार,
निर्जल व्रत रखते हैं | सारा दिन व्रत रखने के पश्चात रात्रि को सियुल और फुल्लन
के फलाहार-पकवान बनाए जाते हैं |
‘शिवरात्रि’ शिव और रात्रि शब्दों
के योग से बना है | अतः इस त्योहार को
‘शिव की रात्रि’ के रूप में मनाते हुए गद्दी समुदाय भगवान शिव को समर्पित ‘नुआला’
का आयोजन करते हैं | जिसमें पूरी रातभर शिव-स्तुति, सृष्टि की उत्पत्ति,
शिव-विवाह, रामायण, महाभारत तथा कृष्ण-लीला विषयक गीत गाए जाते हैं तथा इन
लोकगीतों पर पारम्परिक नृत्य किया जाता है | भरमौर के चौरासी परिसर को शिव-भूमि की
संज्ञा दी जाती है, अतः चौरासी परिसर के मणिमहेश मन्दिर में भव्य ‘नुआले’ का आयोजन
किया जाता है |
“इस व्रत के बाद प्रवासी गद्दियों
को अपनी जन्मभूमि भरमौर की याद सताने लगती है और वह चम्बा, भट्टियात तथा काँगड़ा से
उदास हो उठते हैं और भरमौर चलने की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं |”[10]
अतः इस त्योहार के अवसर पर प्रवासी
गद्दियों(काँगड़ा-चम्बा-मण्डी-पठानकोट) से अपने ‘धण’ सहित अपने मूल स्थान भरमौर की
ओर प्रस्थान करते हैं |
7. मिंजर
–
मिंजर त्योहार वर्षा ऋतु में मनाया जाना वाला बड़ा रंगीन उत्सव है | यह त्योहार
मुख्यतः चम्बा मुख्यालय में बड़ी-धूमधाम से मनाया जाता है | यह त्योहार विजय का प्रतीक है | इस त्योहार के अवसर पर
मीठे-नमकीन पकवान बनाकर परस्पर बांटे जाने की परम्परा है | स्त्रियाँ पकवानों को
थाली में मिंजर (मक्की की मंजरी या पुष्प) के साथ सजाकर नदी तट विशेषकर रावी नदी
में जल देवता की पूजा कर उसे प्रवाहित करती हैं | स्थानीय वस्त्राभूषण में सज-धजकर
गद्दी महिलाएँ चंबा के चौगान तथा राजमहल में ‘सुकरात’, कुजड़ी, राग-मल्हार तथा अन्य
लोकगीत गाती हैं | पूर्वकाल में चम्बा में रावी नदी के तट पर भैसे की बलि देने का
प्रावधान था किन्तु वर्तमान में नारियल की बलि देकर इस पारम्परिक रस्म को निभाया
जाता है | मिंजर(मेला) त्योहार की अंतिम संध्या के आँचल में छिपे संयोग और वियोग
में डूबते-उबरते मन की स्थितियों को कौन जान सकता है | ऐसी परिस्थितियाँ केवल वहीं
लोग जानते हैं जिन्होंने भोगे हुए यथार्थ अपने वास्तविक जीवन में अनुभव किया हो |
गद्दी लोकगायकों द्वारा अनुभूत यह स्थितियाँ इस प्रकार व्यक्त हुई हैं –
सजण नूं बिसर गईयाँ, मेरी जान,
सजण नूं बिसर गईयाँ, मेरी जान |
तूं ता कस्स मुलखा री कुंजडी?
परदेस पेई मेरी जान |
सजण नूं बिसर गईयाँ, मेरी जान,
सजण नूं बिसर गईयाँ, मेरी जान |”[11]
8. दीपावली
-
यह त्योहार कार्तिक महीने की अमावस्या को मनाया
जाता है | भारत का पौराणिक त्यौहार दीपावली हिमाचल-प्रदेश सहित पूरे भारतवर्ष में बड़े
धूमधाम से मनाया जाता है | हालाँकि भरमौर के चौरासी परिसर में इस त्योहार को नहीं
मनाया जाता क्योंकि यह त्योहार भगवान राम का लंकानरेश रावण को मारकर उनपर विजय का
प्रतीक है | अतः अन्य क्षेत्रों की भांति चौरासी परिसर में रावण के पुतले जलाना
वर्जित है क्योंकि रावण, भगवान शिवजी के परम भक्तों में से एक थे | इस त्योहार को
मनाने के पीछे बरसात में टूटे-फूटे घर, ऊबड़-खाबड़ आंगन-द्वार मिट्टी, मकोल(सफेद
मिट्टी) तथा गोबर से लीप-पोतकर सजाए जाते हैं | जिससे पूरा गाँव निखर जाता है |
आंगनों में काली तथा लाल मिट्टी से गोलाकार या वर्गाकार मंडप बनाए जाते हैं,जिसमें
विविध प्रकार के बेल, पत्तियाँ-फूल, पशु-पक्षियों तथा लक्ष्मी के पद-चिन्ह बनाकर
अपनी मनोगत भावनाओं को साकार किया जाता है |
सूर्यास्त होने पर गाँव के समस्त बच्चे एकत्रित होकर घास-फूस और मक्की के
‘टाडों’ के धियो बनाकर खुले खेतों में जाकर उन्हें आग लगाकर घूमते-नाचते हैं |
किन्तु वर्तमान में इसके स्थान पर आतिशबाजी, पटाखों, फुलझड़ी आदि का प्रयोग होने
लगा है | प्रत्येक घरों के आंगन में मीठा या कड़वा तेल डालकर दयूठड़ायां(दीए) जलाई
जाती हैं | पुरुष अपने मनोरंजनार्थ हेतु स्थानीय शराब- सुर, झोल आदि का प्रयोग
करके अपने लोकगीत गाते हुए अपना समस्त दुःख-दर्द भूलकर भावविभोर हो उठते हैं|
9. होली
–
गद्दी प्रवासीय लोगों की अपेक्षा अप्रवासी क्षेत्र में होली मनाने का विशेष
महत्त्व है | यह त्योहार फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाता है | इस दिन गाँव के किसी
चौराहे पर खूब ‘घियाणे’ (आग) जलाए जाते हैं तथा ‘हरणात्र’ लोकनाट्य का आयोजन किया
जाता है |
वर्तमान में बहुत से स्थानों पर रंग खेलने की प्रथा आ गई है | अत्याधिक
ठंडा प्रदेश होने के कारण रंग खेलने की प्रथा पहले नहीं थी | लेकिन निचले
क्षेत्रों के साथ संस्कृतियों के आपसी संक्रमण होने से अब रंग खेलने की प्रथा भी
विद्यमान है | होली की रात्रि में आग जलाकर ‘होलिका’ देवी की पूजा की जाती है तथा
युवक होली की आग को तीन या पांच बार छलांग लगाकर लांघते हैं |
गुगैहळ –
गद्दी लोकमानस में कृष्ण-जन्माष्टमी के आठ
दिन पूर्व गुगैहळ लोकोत्सव बड़ी धूमधाम एवं श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है | विचेच्य
समुदाय में प्रचलित लोकगीतों का अवलोकन करने के उपरांत ज्ञात होता है कि गुग्गा
जिसे राणा मंडलिक भी कहा जाता है | इस लोकोत्सव के सम्बन्ध में अमरसिंह रणपतिया
लिखते हैं – “लोग बड़ी श्रद्धा से गुग्गे के जुलुस में शामिल होते हैं | उसका
‘चेला’ धूप-दीप तो कर सदा ही उसके साथ-साथ चलता है | कहीं-कहीं कांपता है और
श्रद्धालुओं को ,वाक; देता है |”[12]
निष्कर्ष :
निष्कर्षतः ‘गद्दियार’ तथा गद्दी
जनजाति से सम्बन्धित समस्त क्षेत्रों में उपर्युक्त वर्णित पर्व-त्योहारों, उत्सवों
के अतिरिक्त अनेक छोटे-बड़े व्रत- त्योहार एवं पर्व हैं जिनकी गणना करना असम्भव है
| गद्दियों के आंचलिक जीवन में प्रकृति के विभिन्न तत्वों को वर्तमान में किसी-न-किसी
देवी-देवता की शक्ति का प्रतीक मानकर पूजा जाता है और इस देव-परम्परा और तीज-त्योहारों
का मेला सारा वर्ष लगा रहता है | अतः गद्दी जनजाति अपनी पारम्परिक संस्कृति का
संरक्षण, संवर्धन में चेतनाशील है | यद्यपि शिक्षा एवं विकास तथा व्यवसाय में
कतिपय परिवर्तन के परिणामस्वरूप इसमें आधुनिकता बढ़ती जा रही है | यह आधुनिकता
भाषा, संस्कृति, वेशभूषा, रहन-सहन, व्यवसाय तथा जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित
कर रही है | अतः आवश्यकता है की वर्ग विशेष की इस समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को समय
रहते संभाला जाए |
संदर्भ :
1. रत्न
चंद वर्मा, भरमौर-चम्बा के संस्थापक वीर गद्दी, सावित्री ऐतिहासिक शोध केंद्र
उपरली दाड़ी धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, संस्करण – 2015, पृ.- 02
2. अमर सिंह रणपतिया, गद्दी भरमौर की लोक
संस्कृति एवं कलाएं, हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला,2010, पृ.-65
7. अमर सिंह रणपतिया, गद्दी भरमौर की लोक
संस्कृति एवं कलाएं, हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला, 2010, पृ.- 70
8. अमर
सिंह रणपतिया, हिमाचली लोक-साहित्य(गद्दी जनजाति के सन्दर्भ में), सन्मार्ग
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1986, पृ.- 65
12. अमर
सिंह रणपतिया, हिमाचली लोक-साहित्य(गद्दी जनजाति के सन्दर्भ में), सन्मार्ग
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1986, पृ.- 68
भरत
सिंह
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला(हि.प्र.)
8219775906, bharat.singh85000@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
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