सम्पादकीय : देख तमाशा अमीरी का -जितेंद्र यादव

                                         सम्पादकीय : देख तमाशा अमीरी का

                                                                 जितेंद्र यादव

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार देश की पचास प्रतिशत संपत्ति सिर्फ एक प्रतिशत लोगों के पास है बाकी संपत्ति में निन्यानवे प्रतिशत लोग गुजारा करते हैं। एक तरफ बेशुमार दौलत और अमीरी है तो दूसरी तरफ बेशुमार तंगहाली और गरीबी है। भारत में अमीरी-गरीबी का विभाजन साफ-साफ दिखाई दे रहा है। कानपुर के इत्र व्यवसायी के यहाँ दो सौ करोड़ की नगद रकम पकड़ी गई है। पैसा इतना कि उसे छुपाने की जगह कम पड़ जाए,घर के हर हिस्से में उसने पैसा छुपा रखा था। वही दूसरी ओर करोड़ों गरीबों को जिंदा रखने के लिए सरकार अन्न बाँट रही है । इससे ज़ाहिर होता है कि संसाधनों और सम्पत्तियों का असमान वितरण है। अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ती जा रही है। महात्मा गांधी ने कहा था कि पृथ्वी हर मनुष्य की जरूरत को पूरा कर सकती है परंतु पृथ्वी मनुष्य के लालच को पूरा नहीं कर सकती।जरूरत की सीमा होती है लेकिन लालच की कोई सीमा नहीं होती क्योंकि इच्छाए अनंत होती हैं। पूंजीवादी व्यवस्था की यही सबसे बड़ी खामी है जहां देश के सभी संसाधन मुट्ठी भर लोगों के हाथ में चले जा रहे हैं। बाकी लोगों को दिन-रात मेहनत करने के बाद भी उनकी बुनियादी जरूरत रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं पूरी नहीं हो रही है। इस महंगाई में तीन सौ रुपया दिहाड़ी मजदूरी उनके लिए ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहा है। वह दिहाड़ी मजदूरी भी प्रतिदिन मिले यह संभव नहीं है। गाँव में नरेगा की मजदूरी करने के लिए भी मजदूर ग्राम प्रधान के यहाँ चक्कर काटते हैं और अनाज के लिए राशन की दुकान पर लाइन लगाते हैं। गाँव में रहने के कारण इन सभी सचाइयों का प्रत्यक्षदर्शी हूँ। पूंजीवादी व्यवस्था एक-एक करके सभी सरकारी सम्पत्तियों पर कब्जा जमाती जा रही है और सरकार भी अपने खुले दिल से अपने धन्ना-सेठ मित्रों को औने-पौने दामों में सौंपती जा रही है। समाज की बुनियादी जरूरतों वाले संसाधनों पर यदि सरकारी नियंत्रण नहीं रहेगा तब तक समाज का अंतिम व्यक्ति लाभान्वित नहीं हो सकता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में देखा जा सकता है कि इसके निजीकरण के क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं।

आर्थिक असमानता पर टीका हुआ समाज कब तक अपने शोषण को सहता रहेगा। कुछ कहा नहीं जा सकता। किसी के पास पैसा रखने की जगह नहीं है और कोई दाने-दाने को मोहताज हो जाए, यह आर्थिक विडम्बना है। इस आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए सरकार को पाँच किलो अनाज बांटकर नहीं बल्कि दूरगामी और मुकम्मल योजना बनाकर काम करना होगा। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के बजाय सरकार को समावेशी विकास पर सोचना चाहिए क्योंकि बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से कुछ लोगों का भला होता है तो वहीं कुछ लोग अपने जमीन और जंगल से उजड़ भी जाते हैं। पहले से ही रोजगार के अवसर सीमित हो रहे थे अब तो कोरोना महामारी ने रोजगार को और भी तबाह कर दिया है । अभी कुछ दिन पहले वाराणसी में जूते लेने के लिए एक नामी कंपनी के शो रूम गया था, एक नौजवान लड़का जो उसमें काम कर रहा था, मैंने उससे जूता दिखाने के लिए कहा, तरह-तरह के जूते दिखाने लगा। फिर मेरा ध्यान अचानक उसके जूते की तरफ चला गया। अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ कि इतनी बड़ी और नामी कंपनी के शो रूम में काम कर रहे लड़के के जूते की हालत इतनी दयनीय होगी कि उसके जूते के परखच्चे उड़ गए हों । खुद फटेहाल जूते पहनकर मुझे ब्रांडेड जूता दिखा रहा था। मेरा मन अंदर ही अंदर क्षोभ से भर गया। बातों-बातों में ही उसने बताया कि पहले इस शो रूम में पाँच लोग काम कर रहे थे लेकिन कोरोना की वजह से बाकी लोगों की छंटनी हो गई। कंपनी ने कोरोना में उन्हें वेतन भी नहीं दिया। यह हमारी अर्थव्यवस्था का हाल है।

भ्रष्टाचार दीमक है तो महंगाई जोक बन चुकी है। यह दोनों गरीब आदमी के लिए अभिशाप है। सरकार कोई भी हो भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में नाकाम रही हैं। गरीबों तक आने वाली योजनाएँ बंदरबाँट हो जाती हैं। गाँव में शौचालय से लेकर आवास तक की योजनाओं में अधिकारियों और प्रधानों के पैसा का हिस्सा फिक्स है, इससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। अब किसान की हालत देखिए, इस देश में किसान सबसे नरम चारा है। सबसे ज्यादा दुर्दशा उसकी हो रही है। खेती घाटे की सौदा होती जा रही है। किसान किसी तरह अनाज पैदा कर पा रहा है। लेकिन जब उसे विक्रय केंद्र पर बेचने की बारी आती है तो फिर वहाँ भी उसे तमाम तरह की तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है। खुले में अनाज रखकर कई-कई दिन तक इंतजार करना पड़ता है। इस चीज का भुक्तभोगी तो मैं स्वयं हूँ। पिता जी पंद्रह दिन से क्रय केंद्र पर धान रखकर अपने बारी का इंतजार कर रहे हैं लेकिन रोज टाल-मटोल हो रही है। दो दिन पहले बारिश हुई तो भीग भी गया। यही हालत अमूमन सभी किसानों की है।

भगत सिंह ने भी लिखा है कि सबसे बड़ा दंड और अभिशाप गरीबी है। गरीब होना एक दंड है। इसलिए इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने के लिए आह्वान किया था। लेकिन अब तो पूंजीवाद देश का कर्णधार बन चुका है। पूंजीवाद सरकार के गोंद में बैठकर फल-फूल रहा है। अब देश का भविष्य क्या होगा कोई कवि ही बता सकता है। मुक्तिबोध ने लिखा है

कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ

वर्तमान समाज में चल नहीं सकता

पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता

 

यह सच है कि जिसका हृदय पूंजी से जुड़ा हुआ उसका हृदय गरीबों के लिए बदल नहीं सकता।

यह सामान्य अंक है मगर आप इसमें शामिल रचनाएं देखेंगे तो आपको निराशा नहीं होगी ऐसा विश्वास है।  ख्यात रचनाकार मन्नू भंडारी जी के चले जाने का शोक बना रहेगा। अपनी माटी समूह की तरफ से उन्हें विनम्र श्रद्धांजली। नए साल 2022 के आगमन पर आप सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।   


जितेन्द्र यादवसम्पादक )

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर  (हिंदी विभाग), सकलडीहा पी. जी. कॉलेज, सकलडीहा, चन्दौली (उत्तर प्रदेश)
ई मेल : jitendrayadav.bhu@gmail.com, सम्पर्क : 9001092806

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : प्रकाश सालवी, Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR           

UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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