स्त्री चेतना के सोपान : सुषमा से शिंजिनी तक
डॉ. ललिता यादव
शोध
सार : उषा प्रियवंदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी इन तीन समकालीन लेखिकाओं
के बिना हिंदी कथा लेखन की बात नहीं की जा सकती । इन तीनों कथा लेखिकाओं ने प्रचुर
मात्रा में और लम्बे समय तक लेखन किया है। 'सुषमा' उषा प्रियवंदा के पहले उपन्यास की नायिका है और 'शिंजिनी' 2019 में आए उनके नवीनतम उपन्यास 'अल्पविराम' की। आपके अब तक सात उपन्यास आ चुके हैं और इन उपन्यासों के केंद्रीय पात्र
स्त्रियां ही हैं। स्त्री अस्मिता के विविध आयाम, स्थितियां,
समस्याएं, द्वंद्व और प्रतिरोध के विविध रूप आपके
उपन्यासों में आकार पाते रहे हैं। आपके उपन्यासों की कथा और कथाभूमि कोई भी हो,
भारतीय जीवन दृष्टि एवं परिवेश सर्वत्र दिखता है। उषा जी के उपन्यासों
का कालक्रमिक अध्ययन किया जाए तो उनकी उपन्यास यात्रा के साथ-साथ उनकी कथा नायिकाओं की आत्म चेतना क्रमशः विकसित होती दिखाई देती है। बदलते
समय के साथ- साथ उनकी नायिकाएं बदलती और परिपक्व होतीं,
जीवन की गरिमा को महत्व देती हैं।
बीज
शब्द : उषा
प्रियवंदा, पचपन खंभे लाल दीवारें,
स्त्री चेतना, नदी, उपन्यास, आकाशगंगा, राधिका, अनु।
मूल
आलेख : 'चेतना' शब्द का अभिप्राय उस ज्ञानात्मक मनोवृत्ति से
है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति किसी वस्तु, व्यक्ति या परिवेश पर
ध्यान केंद्रित करता सावधान होता है। इस दृष्टि से नारी चेतना को एक ऐसी ज्ञानात्मक
मनोवृत्ति के रूप में समझा जा सकता है, जिसके फलस्वरूप कोई स्त्री
अपने स्त्रीत्व के संदर्भ में परिवेश पर ध्यान केन्द्रित करती, आत्म सजग होती है। 'चेतना मूल्य परक इकाई है जो स्वाभावत:
परिवेशगत दबावों से उत्पन्न है और अनिवार्यतः परिवेश का विखंडन करती
है।'1 मानवीय सरोकारों
से जुड़ कर चेतना सम्पन्न व्यक्ति अपनी गरिमा, पहचान
और प्रतिष्ठा के प्रति भी निष्ठावान होता है।
सुषमा आपके प्रथम उपन्यास
‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ (1962) की प्रतिनिधि
पात्र है। सुषमा नील से प्रेम करती है किन्तु पारिवारिक दायित्वों के कारण विवाह नहीं
कर सकती। वह कालेज में अध्यापिका है और उसका वेतन घर की मुख्य आय है। पिता पक्षाघात
से पीड़ित, दो बहनें ,भाई सब का दायित्व
उस पर ही है। वह अपने चारों ओर 'दायित्व, कुंठाओं, और अपने पद की गरिमा की दीवारें खिंची देखती
है। सुषमा साठ के दशक की स्त्री है, जिसके मध्य वर्गीय जीवन
मूल्य, परिवार को छोड़कर एक कम उम्र के युवक से विवाह की अनुमति
नहीं देते। वह कितनी
ही 'अदृश्य मर्यादाओं से बंधी है।' सुषमा
का परिवार उसका 'अनड्यू एडवांटेज' लेता
है, यह नील की दृष्टि है जो सिर्फ अपना सुख और स्वार्थ देखती
है। नील की तुलना में सुषमा अधिक मानवीय है अतः उसकी चेतना, कर्त्तव्य और भावना के द्वंद्व में, कर्तव्य को चुनती
है। वह नील पर अपनी जिम्मेदारियां का बोझ डालना स्वीकार नहीं करती। कोई अपरिपक्व और
अव्यावहारिक स्त्री ही सुषमा जैसी स्थिति में प्रेम को प्राथमिकता दे सकती थी। नील
कहता भी है- "मैं सोचने लगा था कि तुम्हारे लिए मैं ही
सबकुछ बन गया हूं। अब मैंने जाना कि तुम्हारे पास खूबसूरत चेहरे के अलावा बहुत व्यावहारिक
बुद्धि और अपना भला समझने वाला दिमाग भी है।"2
सुषमा
को भले ही प्रेम वंचिता और अपने तन-मन
को मारने वाली स्त्री के रूप में देखा, पढ़ा गया हो किन्तु सच
तो यह भी है कि सुषमा बहुत आत्म सजग और आत्मनिर्भर स्त्री है। वह मानवीय गरिमा और
व्यक्ति की निजता की प्रबल पैरोकार है- "हरेक का जीवन ऐसा
अनुलंघनीय दुर्ग है जिसका अतिक्रमण करना किसी का अधिकार नहीं है।"3
उषा प्रियंवदा के दूसरे उपन्यास
‘रुकोगी नहीं राधिका’(1966) की राधिका सुषमा के
विपरीत सम्पन्न परिवार की आत्मकेंद्रित लड़की है। मां की मृत्यु के पश्चात उसके पिता
कम उम्र विद्या से दूसरा विवाह कर लेते हैं, जिसे राधिका स्वीकार
नहीं कर पाती। मां की मृत्यु के बाद अठारह वर्ष तक वह पिता के 'खाली क्षणों की संगिनी, पूरे जीवन की धुरी थी',
उसके बाद उनका पढ़ना लिखना। ऐसे जीवन में नई पत्नी का स्थान ही कहां
था? उसे स्थान देने के लिए राधिका को हटना पड़ा था और यह बात
वह कभी नहीं भूलती।'4
पिता
ने नाराज होकर वह अपने से उन्नीस वर्ष बड़े पत्रकार के साथ विदेश चली जाती है। राधिका
अपने इस आचरण को पिता के बरक्स 'अपने व्यक्तिगत
स्वातंत्र्य के लिए' लड़ने के रूप में देखती है। 'लीक पकड़कर
न चलना' उसने पिता से ही सीखा था। जब
डैन उसे छोड़कर जाना चाहता है तब भी वह स्वयं ही डैन को छोड़ देती है। जब
वह डैन का घर छोड़ रही थी-‘‘दुख, खेद,
रुलाई, आत्म भर्त्सना का एक भारी ढेर हृदय पर
रखा हुआ था और ओंठ भिचे हुए।’’5
फाइन
आर्ट्स में डिग्री लेकर जब राधिका देश वापस आती है, वह पूरी तरह बदल चुकी है। वह जान चुकी है कि अकेलापन कितना भयावह होता है
और यह भी कि उसने पिता के साथ अन्याय किया था। अपने अतीत को लेकर भी वह यथार्थ के
धरातल पर सोचती है, भले ही उसमें किसी प्रकार की कुंठा या अपराध
बोध नहीं है। भारतीय समाज में अपनी स्थिति वह जानती है। वह अक्षय के करीब आती है और
परख लेती है कि अक्षय में उसके अतीत को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं है। वह जीवन में स्थायित्व
चाहती है। मनीष का यह आग्रह कि-‘‘हम दोनों में एक सख्य भाव है,
हमारे संबंध में एक सहजता है। मैं तुम्हें पूर्ण रूप से स्वीकार करूंगा
तुम्हारे मूड्स, तुम्हारी समस्याओं, तुम्हारे
विगत के सहित!’’6 दूसरी
पत्नी की मृत्यु के पश्चात एकाकी रह गए पिता के लिए,
भावुक होकर भी वह रुकी नहीं रहती। अपने जीवन के लिए व्यावहारिक निर्णय
लेती, वह मनीष के साथ जाना पसंद करती है। आपके तीसरे उपन्यास
‘शेषयात्रा’ (1984) की अनु एक पूर्ण समर्पित घरेलू
पत्नी है। जो भूमिका उसे पति ने थमाई थी, वह उसी के अनुसार चलती
है। उसका डाक्टर पति दूसरी स्त्री चंद्रिका के प्रेम में पड़ जाता है। अनु इस संबंध
को जानकर इतनी आहत होती है कि अपनी सुध-बुध ही खो बैठती है-"वह दीवारों से बार बार सिर टकराती है। पूरा घर पागल चीखों से गूंज रहा है।
चीखों पर चीखें क्या यह उसकी ही आवाज है अनु को होश नहीं।"7
थोड़ा
संयत होने पर अनु गंभीरता से आत्म विश्लेषण करती है-
"क्या उसे सचमुच प्यार है? रुमानी प्यार,
अनजाने आंख लगने दिल मिलने वाला प्यार? या डाक्टर
की बीवी होने के रुतवे की संतुष्टि? आर्थिक निर्भरता?
या अपने को अकारण छोड़ दिए जाने की तिलमिलाहट? या अपने मन में अपने बारे में गढ़ी मूर्ति के खंड-खंड
किए जाने का उन्माद, क्रोध?"8 वह
किसी भी कीमत पर पति से अलग नहीं होना चाहती। पति जब कोर्ट में उसे पागल साबित कर
तलाक ले लेता है, तिरस्कार और अपमान
की पराकाष्ठा से अनु का नवीन जन्म होता है। उपन्यास की शुरुआत ही अनु के जागरण से
हुई है-
"जागकर अनु कहती है,
यही यथार्थ है। यथार्थ, प्रणव मुझे छोड़कर चला
गया है। अब प्रणव के बिना सारी जिंदगी काटनी होगी, सारी जिंदगी।"9 उठ
खड़ी होती अनु डाक्टर बन जीवन में सबकुछ प्राप्त करती है। गहरे आत्म विश्लेषण में
डूबकर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि-"दाल सब्जी से परे भी कोई और चाह होती है। प्रवण की वह मानसिक प्यास मैं शायद बुझा नहीं सकी। मैं सहचरी,
जीवन संगिनी थी, मगर सोलमेट नहीं।"10
आपके चौथे उपन्यास ‘अन्तर्वंशी’ (2000) की वनश्री की समस्या दरअसल प्रणव की समस्या का स्त्री के कोण से विस्तार है।
अमेरिका पहुंच कर वाना बन गई वनश्री एक ऐसे समाज में खुद को पाती है, जहां सभी लोग एक पागल दौड़ में लीन हैं। वाना जैसे-तैसे
औसत पति के साथ अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचती है पर उसके प्रणव जैसे सपने उसे चैन से
नहीं रहने देते। दो बच्चों की मां वाना सोचती है- बच्चे बड़े
हो जाऐंगे तो नौकरी करेगी। वाना पति से किसी भी स्तर पर संतुष्ट नहीं है-
‘मैं पत्नी हूं, झुलाने, खिलाने, झेलने के लिए।’ पति की
असमर्थताओं का दमघोट अहसास उसकी संवेदनाओं को कुन्द कर देता है। दोस्त सारिका की मृत्यु
उसके अंदर के आक्रोश में विस्फोट का कार्य करती है और वह विक्षिप्त हो उठती है। वाना
को समझ नहीं आता उसके ‘अंदर इतना रीतापन’ क्यों है? वह ‘इंच इंच मर’
रही है। उसे राहुल से प्यार है किन्तु यह बात वह स्वीकार नहीं पाती।
वह 'बंधी हुई है अपने संस्कारों से; विवाह
के वचनों से।' राहुल का देवप्रिया से विवाह तय होने पर उसे लगता
है-" मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा- मैं
मर जाऊंगी-"11 'दमघोंट देने वाले वातावरण' से जूझती वह धीरे-धीरे अपने लिए निर्णय लेना सीखती है। आपराधिक मामले में फंस कर लापता हो गए
पति शिवेश के लिए रोने कलपने की जगह वह अपने जीवन और स्वप्न को पूरा करने में प्रवर्त
होती है- ‘‘कितने वर्ष उहापोह में बिता दिए, अंदर, बाहर की दुनिया में द्वन्द्व चलता ही रहा;
और शायद उसी तरह आधी जिन्दगी जीती हुई बाकी समय भी बिता देती,
यदि शिवेश ने उसके साथ छल प्रपंच न किया होता।’’12
पति
शिवेश की पश्चाताप में की गई आत्महत्या के पश्चात वाना सहम जाती है किन्तु फिर उठ
खड़ी होती है और अपने जीवन को नए सिरे से गढ़ती है। आपके पांचवें उपन्यास
‘भया कबीर उदास’ (2001) की नायिका लिली कैंसर
से पीड़ित है। स्तन कैंसर जैसी बीमारी के साथ आधे अधूरे शरीर का अहसास करती लिली निराश
होती है। उसे लगता है संयमित दिनचर्या के बाद भी शरीर उसे धोखा दे गया। लिली आत्मनिर्भर
अविवाहित लड़की है। सौंदर्य के रूढ़ मानक 'बाल' और 'वक्ष' उसके मानस में ऐसे जड़
बनाए हैं कि वह स्त्री सौंदर्य के इन मानकों से विहीन होकर स्वयं को अधूरी स्त्री
महसूस करती है। मृत्यु की आहट उसे जीवन को नवीन ढंग से देखने की ताकत देती है। वह
अपना शेष जीवन सम्पूर्णता से जीने की लालसा में घुमक्कड़ी पर निकलती है-
‘‘मैं किसी को पकड़कर नहीं बैठी
हूं। हथेलियां खुली हैं और मैं रीती हूं; एकदम रीती। कब किस
मुकाम पर आकर सबकुछ चुक गया। रंग, गन्ध और स्पर्श।’’13 वह,
वनमाली के करीब होकर भी उसे खोने के भय से अपनी बीमारी छिपाती है। अन्त
में वनमाली की समझदारी से वह अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो, उसे खुले मन से अपनाकर विवाह बंधन में बंध जाती है।
आकाश गंगा, उषा प्रियवंदा के उपन्यास 'नदी' (2014) की नायिका है। आकाशगंगा का जीवन विवाह के पश्चात पति बच्चों के बीच में नदी
की तरह ही अविरल बह रहा था। दो बेटियों के बाद एक पुत्र की मां बनकर वह मातृत्व के
गौरव से इतराती सुखी स्त्री है। उनकी पारिवारिक संरचना, विदेशी
भूमि (अमेरिका) पर रहने के बाद भी भारतीय
आग्रहों से नियंत्रित है। सब कुछ मजे में चल रहा था कि पांच वर्षीय पुत्र भविष्य को
नानी पक्ष से मिली अनुवांशिक बीमारी (ल्यूकीमिया) गंगा के जीवन में भूचाल ला देती है। पति-पत्नी का रिश्ता
टूटने लगता है। डाक्टर
पति, गंगा को पुत्र भविष्य की मृत्यु का कारण मान उसकी शक्ल
भी नहीं देखना चाहते। गंगा बेटे की मृत्यु के शोक से स्वयं व परिवार को उबारने के
लिए, अपनी मौसेरी बहन के पास, एक सप्ताह
के लिए पति की सहमति से जाती है। लौटने पर उसे कुछ भी अपने स्थान पर नहीं मिलता। बच्चियां,
पति गायब और घर 'सोल्ड' हो चुका है। वह समझ जाती है- पति उसे पुत्र की मृत्यु
(उसके दूषित रक्त) की सजा देकर, दोनों बेटियों के साथ, भारत चले गए हैं। जैसे कोई तूफान
आया हो और उसकी अब तक जी जिंदगी के सभी चिह्न मिटा गया हो।
विषम
स्थिति में विदेशी जमीन पर अवैध नागरिक की तरह छोड़ दी गई गंगा की
'अपनी पीड़ा, आत्मलांछना और अपराध भावना का ओर
छोर' नहीं था, किन्तु वह हिम्मत से काम
लेती है। गहन दुख जिसमें अपनों के स्नेहिल स्पर्श की जरूरत थी, गंगा आश्रय से भी वंचित कर दी जाती है। 'सब उसे छोड़
जाते हैं, उसकी ज़रूरत किसी को नहीं' यह
क्षणिक आवेग उसे मृत्यु की ओर ले जाता है किन्तु वह बच जाती है। यही से शुरू होती
है, एक साधारण लड़की गंगा की जिजीविषा और आत्मसम्मान की यात्रा। विदेशी
जमीन पर मरने- जीने के लिए, अवैध नागरिक की तरह छोड़ दी गई गंगा, अपने जीवट को धारण
कर गंगाजल की तरह ही
अपने जीवन ढलान अर्थात बहने के रास्ते पाती है। मृत्यु
से जूझी,
भूखी, थकी गंगा को, उसका
घर खरीदने वाले अर्जुन सिंह की शरण मिलती है, वह अकुंठ भाव से
ग्रहण कर लेती है। बेटे
की बीमारी के साथ उसे पति से क्रोध, अपमान
और लांछन मिलने लगे थे, ऐसे में अर्जुन सिंह से मिला मान,
दुलार और सानिध्य उसके स्त्रीत्व को संबल देता है, वह जी उठती है। अर्जुन सिंह के बाद एरिक के संसर्ग में आई गंगा परिवार,
यौनिकता और अपने अंतर्सम्बन्धों को अपने दृष्टि से परखती, अपने साथ न्याय करती है। उसे ढेर सारे प्रश्न, अथाह
दुख, उलाहने, रिश्तों के घाव, मोह ममता के धागे तोड़ते जोड़ते हैं पर वह विवेक से काम लेती है। वह अपने
स्वाभिमान और सम्मान के प्रति सजग स्त्री है।
गंगा,
बेटियों के पास भारत आती है। बेटियों और सास ससुर के साथ सीधा-साधा,
तनावहीन, इज्जत का जीवन जीना उसे भला लगता है,
भले ही पति उसे स्वीकारने को तैयार नहीं है। गंगा स्वयं भी अकारण अपमानित करने वाले पति
का साथ नहीं चाहती। यह घटना क्रम विकास पाता तभी अयाचित गर्भ की जानकारी, एक बार फिर गंगा के जीवन की दिशा बदल देती है। पति अपनी दुनिया में,
दोनों बेटियां समृद्ध दादा-दादी के साथ खुशहाल
और नियति-चक्र को झेलती गंगा अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेती
विदेश वापस लौट जाती है। जीवन
के सही-
गलत को सोचने की गंगा की अपनी स्त्री दृष्टि है। समाज की स्वीकृति न
मिलने की शर्त पर भी वह एरिक की संतान को जन्म देती है। वह वर्तमान में जीने वाली
स्त्री है, न विगत का रोना, न आगत की प्रतीक्षा।
भरी पूरी गृहस्थी से अकारण निकाल
दी गई गंगा के लिए जीवन में स्थायित्व का कोई मूल्य नहीं।
उसमें 'इतने- इतने गहरे दुख को झेलने का माद्दा' है कि सम्मान से जीने के लिए
वह झाड़ू लगाने के लिए भी प्रस्तुत है। विदेश वापस आकर गंगा कैंसर पीड़ित प्रवीण और
उसकी गृहस्थी की जिम्मेदारी उठाती, परिचारिका का जीवन जीती है।
जन्म के पश्चात अपना शिशु, एक समृद्ध दम्पति को देकर भी वह देश
वापस नहीं लौटती। इज्जत से जीने का आग्रह या हठ ही गंगा की ऐसी कार्रवाई है,
जो उसे पति के दमन के विरोध में खड़ा करती है। उषा प्रियवंदा के उपन्यास
'शेषयात्रा' की अनु की तरह वह रोती गिड़गिड़ाती
पति को मनाने, संपर्क साधने की कोशिश भी नहीं करती। जबकि उसकी
बच्चियां पति के पास थीं। वह ममतामयी मां की महिमा से भी मुक्त दिखाई देती है।
उपन्यास
के तृतीय खंड में वह किसान के रूप में एक आत्मनिर्भर,
मजबूत स्त्री बन जाती है। कोई आर्थिक मजबूरी नहीं फिर भी अपने कार्य
को वह पूरे आनंद, उदारता और डूब कर करती है। प्रवीण की मृत्यु के बाद उसके
पति से विवाह कर भी गंगा किसी मोह, लालच में नहीं पड़ती। सहज
रूप से चलता जीवन ही उसका काम्य बना रहता है। यद्यपि गंगा के जीवन में आया
प्रत्येक पुरुष भले ही उसे जीवन में आगे बढ़ने का सबक दे गया हो, गंगा को हर रिश्ते में घाटा ही मिलता है, यह सत्य तो
सुषमा भी अर्जित कर चुकी थी कि 'जिंदगी स्त्री को तरह-
तरह से छलती है' और 'कभी-कभी मौत भी ठग लेती है।' लिली के जीवन को जिंदगी नहीं
मौत ठगने का प्रयास करती है। सुषमा को छोड़कर सभी स्त्रियां अपने जीवन में आगे बढ़तीं-
सुख, शांति और सम्मान से जीने की राह खोज लेती
हैं। सिर्फ सुषमा ही
'अपने बनाए दुख के घेरे में' खुद को बांधे रखती
है, बाकी सभी नायिकाएं अपनी सीमाओं से निकल, दुनिया देखती विविध संभावनाओं में विकास पातीं हैं।
गंगा की बस एक आस थी कि दे दिया
गया बेटा स्वयं उसे खोजता उससे मिलने आए 'तब वह बिना किसी संताप,
खेद या नियति के प्रति गिले शिकवे के' मृत्यु
की ओर जा सकेगी। गंगा
के जीवन का यह उद्देश्य मातृत्व को प्रतिष्ठित करता दिखता है,
जबकि वह अपने संसाधनों की अल्पता में तीनों बच्चों की परवरिश दूसरों के हाथों में
देकर संतुष्ट दिखती है। ममत्व की उसमें कमी नहीं, प्रवीण दम्पति
की सेवा में उसका उत्कर्ष दिखाई देता है। विवेकवान गंगा जानती है- कोरी भावनाओं से बच्चों को नहीं पाला जा सकता। साधारण
स्त्रियों की तरह वह मातृत्व को अपना भाग्य नहीं समझती। संतान के रूप में अपने जैसे
प्रतिरूप को सृज पाना जरूर उसे आह्लादित करता है। एरिक से उसे सच्चा प्रेम था और मृत
पुत्र की स्मृतियों के कारण वह एरिक से उत्पन्न पुत्र को एक बार देखने की लालसा रखती
है।
'नदी' की गंगा मात्र उपभोग्य स्त्री नहीं है। स्त्री जीवन के अनेक संदर्भ उसकी
जीवन यात्रा में समाहित हैं। नदी अपने आप में जीवन का सहज स्वभाव है और नयी स्त्री
का नदी के स्वभाव से जुड़ना, नए सिरे से मुक्त और सहज होना है।
वह अपने लिए सम्मान, मानवीय प्रतिष्ठा और गरिमापूर्ण जीवन चाहती
थी अतः अर्जुन सिंह द्वारा किसी गुप्त स्थान पर सुख-सुविधाओं
के साथ अपने अधीन रखने के प्रस्ताव पर सोचती है-
" अर्जुन सिंह को मालूम नहीं
है कि यह ताश के पत्तों का घर है। उसे खेत फार्म-हाउस,
गाड़ी, हीरे, सोने के कंगन
ज्यादा देर तक बांध नहीं सकते।"14 वह पति से अपनी अस्मिता और आत्म सम्मान
का गला घोंट कर सुलह करने और फिर वही लांछन, अपमान और प्रताड़ना
का 'चक्रव्यूह- जिसका कोई अन्त नहीं'
झेलने के लिए एक बार भी नहीं सोचती, भले ही पति
के गलती मानने और लौट आने की आशा वह रखती है।
उपन्यास के तृतीय खंड में वृद्धावस्था की और जाती गंगा, साग सब्जी, फूलों की खेती में तल्लीन- 'जीवन को 'एकदम शांत, समतल भूमि'
के रूप में देखती, संतुष्ट दिखती है। इस तरह उषा प्रियवंदा की नायिकाएं
स्त्री चेतना के आलोक में अपने लिए 'समतल भूमि' रचती या चुनती हैं। दिवाकर से विवाह का निर्णय लेते हुए अनु भी सोचती है-
"यह होगी बराबर की साझेदारी, न कोई बड़ा,
न छोटा; न सुपीरियर, न इन्फीरियर।(15)
उषा प्रियंवदा का उपन्यास
‘अल्पविराम’ (2019) भी उनके अन्य उपन्यासों की
तरह स्त्री के इर्द गिर्द बुना गया है। यह उपन्यास शिंजिनी चेतना का विस्तार
है। अच्छी बात यह कि शिंजिनी न पुरुषों के प्रेम में है, वे
इक्कीसवीं सदी के पुरुष हैं जो स्त्री को चुनाव के विकल्प देते हैं।
अठारह
वर्ष की उम्र में विवाह और विदेश पढ़ने गए पति की मृत्यु का समाचार शिंजिनी के व्यक्तित्व
को कुंठित करता है और वह मनोरोगी हो जाती है। इलाज के बाद वह स्वस्थ होती,
अपने पूर्वाग्रह और कुंठाओं से मुक्त होती। विदेश पहुंच कर वह एक स्वतंत्र,
पंखों वाली, आत्मनिर्भर लड़की के रूप में खुद
को देखती है। शिंजिनी की मुक्त स्त्री की अपनी
परिभाषा है। इस उपन्यास
में घरेलू स्त्री के जीवन को मूल्य और सार्थकता प्रदान की गई है। शिंजिनी की दृष्टि
में- ‘हरेक व्यक्ति को अपना जीवन अपनी तरह से बिताने का अधिकार
होना’ ही स्वतंत्रता है।'(16) यदि
किसी ने अपने जीवन के अहं निर्णय स्वयं लिए हैं तो यह स्वतंत्रता है। यद्यपि
परम्परागत जीवन जीना शिंजिनी का अपना निर्णय है फिर भी कामकाजी स्त्रियों की उपेक्षा
उसे मथती है, "क्या मेरा जीवन सार्थक नहीं
है?"
जीवन के तमाम रंग देखती वह, अंत में अपने खोल से बाहर निकलकर अपने
निर्णय भी स्वयं लेती है और आत्मनिर्भर होना भी चुनती है। वह वाना से एक कदम और आगे
की स्त्री है। एक समय में ही वह पूर्व पति और सद्यः मृत पति दोनों के प्रति प्रेम
में डूबी दिखती है-‘‘एक हृदय में कितनी भावनाएं, कितनों के प्रति प्यार, लगाव समाहित रह सकता है-प्यार मुझे पति से था-है-और इस
समय? प्रवाल से कितना सामीप्य, कितना आकर्षण,
कितना लगाव महसूस हो रहा है! सच है एक हृदय में
कितनों के प्रति प्यार, कोमल भावनाएं समाहित रह सकती है।’’17
बढ़ती
उम्र में सुषमा ने परिस्थितियोंवश टल गए विवाह पर ही अपने जीवन पर पूर्ण विराम लगा
लिया था। सुषमा के बाद की सभी नायिकाओं के जीवन में यह पूर्ण विराम ढीला होता चला
गया है। राधिका, अनु, लिली, गंगा और शिंजिनी के जीवन में सिर्फ अल्पविराम हैं,
अदृश्य मर्यादाओं में जकड़ वंचित करने वाले पूर्णविराम नहीं।वस्तुतः हिन्दी कथा साहित्य में
उषा प्रियंवदा का महत्वपूर्ण स्थान है। सुषमा के अलावा उषा प्रियंवदा के उपन्यासों
की नायिकाएं देशी-विदेशी परिवेश में आती- जाती रहती हैं। यौन वर्जनाएं और कुंठाएं उनके चिंतन का हिस्सा नहीं हैं। जिजीविषा
से सराबोर ये स्त्रियां जीवन जैसा भी, जिस भी रूप में मिले अंततः
अपने हिसाब का कुछ चुन ही लेती हैं। पुरुष आपकी कथाओं में न शत्रु है, न प्रतिद्वंद्वी, उनके यहां न किसी विमर्श का तर्कजाल
है, न भाषा का पैनापन। बहुत ही सूक्ष्म और कोमल मनोभावों के
साथ स्त्री मन पर्त-दर- पर्त आपके उपन्यासों
में खुलता है। आपके पहले उपन्यास और
नवीनतम उपन्यास के बीच लगभग तीन पीढ़ियों (साठ वर्ष) का अन्तराल है और इस अंतराल में स्त्री चेतना
के उत्तरोत्तर विकसित होते सोपान देखे जा सकते हैं।
संदर्भ
:
1. रोहिणी अग्रवाल :
'आकाश चाहने वाली लड़की के सवाल', 'हंस'
मार्च, 2005, पृष्ठ 169
2. उषा प्रियंवदा : पचपन खंभे लाल दीवारें, राजकमल पेपरबैक्स, चौथी आवृत्ति 2002, पृष्ठ 105
3. वही, 27
4. उषा प्रियंवदा : रुकोगी नहीं राधिका, राजकमल पेपरबैक्स, पांचवीं आवृत्ति 2001, पृष्ठ 28
5.
वही, 30
6.
वही, 111
7. उषा प्रियंवदा : शेषयात्रा, राजकमल पेपरबैक्स, चौथी आवृत्ति 1999, पृष्ठ 55
8. वही, 65
9.
वही, 7
10. वही, 69
11. उषा प्रियंवदा : अन्तर्वंशी, वाणी प्रकाशन, संस्करण
2004, पृष्ठ 183
12. वही, 234
13. उषा प्रियंवदा : भया कबीर उदास, राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण 2007, पृष्ठ 122
14. उषा प्रियंवदा : नदी, राजकमल प्रकाशन, दूसरा संस्करण
2017, पृष्ठ 30
15. उषा प्रियंवदा : शेषयात्रा, पृष्ठ 128
16. उषा प्रियंवदा : अल्पविराम, राजकमल पेपरबैक्स पहला संस्करण
2019, पेज 17
17. वही, 298
डॉ. ललिता यादव
एसोसिएट प्रोफेसर, एन. ए. एस. कालेज, मेरठ
9897410300, lalita.yadav09@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
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